विचारों के घोड़े मेरे मन के रथ को खींचने लगे। मनुष्य भी इस राजहंस की तरह ही नहीं होता है क्या ? उसको जिसकी आवश्यकता होती है, उसको ही ग्रहण करता है और शेष छोड़ देता है। मैंने भी ऐसा ही नहीं किया था क्या ? युवराज दुर्योधन और अश्वत्थामा इन दो को छोड़कर उस विशाल राजनगरी के अन्य किस व्यक्ति को मैं अपने निकट लाया था ? औरों के प्रति मेरे मन में अपनत्व क्यों नहीं था ? इसका उत्तर कैसे दिया जा सकता था ! वह राजहंस क्या कभी यह बता सकेगा कि उसने पानी छोड़कर ठीक दूध ही कैसे चुन लिया ? लेकिन इसमें मेरा भी क्या दोष है ! युवराज दुर्योधन ने स्नेह से मेरी पूछ-ताछ की इसलिए मैं भी उससे प्रेम करता हूँ ? मनुष्य का प्रेम धरती की तरह होता है। पहले एक दाना बोना पड़ता है। तभी धरती अनेक दानों से भरी हुई बालियाँ देती है। मनुष्य भी ऐसा ही होता है। प्रेम का एक शब्द मिलने पर वह उसके लिये मुक्त मन से प्रेम की शब्दगंगा बहाने को तैयार रहता है। इसीलिए दुर्योधन के प्रति मेरे मन में प्रेम था। अश्वत्थामा तो बड़ा भोला-भाला और निश्छल था। उसमें और शोण में मुझको कभी कोई अन्तर ही नहीं प्रतीत हुआ। अन्य किसी से मेरा परिचय ही नहीं था। सबसे परिचय करना सम्भव भी नहीं था, क्योंकि उतना समय मेरे पास कहाँ !
वह भीम तो हमेशा अपनी शक्ति के घमण्ड में चूर हुआ उस अखाड़े की मिट्टी में ही लोट मारता रहता था। जब वह अखाड़े के बाहर होता, तब कुछ न कुछ खाता ही रहता। उसके स्वर कितने भोंडे थे। उसके आँखें बड़ी-बड़ी टपकोड़े-सी थीं और जब वह सोता था तब आँधी की तरह खर्राटे भरता था। वह युवराज युधिष्ठिर तो घण्टों तक अश्वत्थामा से युद्ध, नीति, कर्तव्य आदि गूढ़ विषयों पर बातें करता रहता। नकुल और सहदेव केबारे में तो मुझको यह भी मालूम नहीं था कि ये कैसे हैं तथा क्या करते हैं ? युवराज दुर्योधन और दु:शासन को छोड़कर और सब व्यक्ति तो मुझको व्यर्थ ही फ़ैली हुई अमरबेल-जैसे लगते थे। क्या करना था उनसे परिचय करके! मनुष्य को उस राजहंस की तरह होना चाहिए। जो अपने मन को अच्छा लगे, वही लेना चाहिये, शेष छोड़ देना चाहिए। मुझको अबतक ऐसा ही लगता आया था।
मैं और अश्वत्थामा दोनों राजभवन से लौटे। आते समय अश्वत्थामा को कोई बात याद आ गयी। वह बीच में ही बोला, “कर्ण, मैंने मामा से तुम्हारे बारे में कुछ नहीं कहा।“
“उन्होंने तुमसे राजकुमारों की तैयारी पूछी थी। युद्धशाला के सभी शिष्यों की नहीं।“
“लेकिन फ़िर भी तुम्हारे बारे में मैं बहुत कुछ कह सकता था।“
“क्या-क्या कहते तुम मेरे बारे में ? इन कुण्डलों और कवच के बारे में ही न ? इनके विषय में अब नगर के सभी लोग जान गये हैं।“
“नहीं। मैंने कहा होता कि अर्जुन धनुष में, दुर्योधन गदा में, भीम मल्लविद्या में, नकुल खड़्ग में, दु:शासन मुष्टियुद्ध में, सहदेव चक्र में, युधिष्टिर युद्धनीति में और…और कर्ण इन सबके सब प्रकारों मे अत्यन्त प्रवीण हो गया है।“
वह मेरी स्तुति कर रहा था या सत्य कह रहा था – वह जानना कठिन था। क्योंकि प्रेम मनुष्य को अन्धा कर देता है। मैं उसका मित्र था। उसका मित्र – प्रेम क्या उसको अन्धा नहीं कर सकता था ? इसलिए मैंने कुछ भी न कहा।