सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २५ [युद्धशाला में कर्ण के अस्त्र और बाणों के प्रकार….]

     मेरा युद्धशाला का कार्यक्रम निश्चित हो गया था। एक महीने की भीतर ही मैंने शूल, तोमर, परिघ, प्रास, शतघ्नी, खड्ग, पट्टिश, भुशुण्डि, गदा, चक्र आदि अनेक शस्त्रों का परिचय प्राप्त कर लिया । धनुष की ओर मेरी विशेष रुचि होने के कारण धनुर्विद्या से सम्बन्धित सभी शस्त्रों का मैंने ध्यानपूर्वक अभ्यास किया। केवल बाण ही अनेक प्रकार के थे।

     कर्णी बाण में दो शूलाग्र होते थे। वह जब पेट में घुस जाता था, तब बाहर निकलते समय आँतें भी बाहर निकल आती थीं। नालीक बाण का फ़लक मोटा होता था तथा उसमें टेढ़े दाँते होते थे, इसलिए शरीर में घुसने पर जब वह बाण बाहर निकाला जाता था तब अपने आस-पास की शिराओं को तोड़कर ही वह बाहर निकलता था। लिप्त बाण के अग्रभाग में विषैली वनस्पति का रस लगा होने के कारण वह बड़ा दाहक होता था। बस्तिक बण शरीर में घुस जाता था। लेकिन बाहर खींचने पर उसका केवल द्ण्ड ही हाथ में आता था और समस्त फ़लक ज्यों का त्यों लक्ष्य के शरीर में रह जाता था। सूची बाण का अग्रभाग सूच्याकार और नुकीला होने के कारण अत्यन्त सूक्ष्म लक्ष्य भी उससे अचूक भेदा जा सकता था। विशेष रुप से आँख की पुतलि को इस बाण से अचूक भेदा जा सकता था। जिह्मा बाण जाता तो टेढ़ा-मेढ़ा था, लेकिन लक्ष्य में बिलकुल ठीक घुसता था। इसके अतिरिक्त गवास्थी अर्थात बैल के हाड़ का, गजास्थी अर्थात हाथी के हाड़ का, कपिश अर्थात काले रंग का, पूती अर्थात उग्र गन्धवाला, कंकमुख, सुवर्णपंख, नाराच, अश्वास्थी, आंजलिक, सन्न्तपर्व, सर्पमुखी आदि बाणों के अनेक प्रकार थे। इन सब बाणों को लक्ष्य पर छोड़ने की शिक्षा मैं मनोयोग से ग्रहण करने वाला था।

     अपनी शिष्यावस्था का एक-एक क्षण मुझको इसी कार्य में लगाना था। पहले तीन वस्तुओं पर मेरा प्रेम था। गंगामाता, सूर्यदेव और माता ने – राधामाता ने — अत्यन्त प्रेम से जो दी थी वह चाँदी की पेटिका; परन्तु युद्धशाला में आने के बाद उसमें एक वस्तु और सम्मिलित हो गयी। वह वस्तु थी धनुष और बाण!

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