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सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ९

       जो कुछ हुआ था, उसका पूरा हाल शाम को शोण ने मुझे सुनाया कि उस वृषभ ने मुझको परास्त करने का बहुत प्रयास किये थे, लेकिन मेरे आगे उसकी एक न चली। लगभग दो घण्टों तक वह उछल-उछलकर अपने सिर को झटकता रहा था। उसने अपने शरीर को बहुत-से विचित्र झटके दिये। बीच-बीच में वह जोर से कूदता, पैरों के खुरों से जमीन कुरेदता; लेकिन अन्त में वह थक गया और चुपचाप खड़ा हो गया। उसके मुँह से झाग निकलने लगा। वह लगातार ’फ़ूँ-फ़ँ’ कर रहा था। इतने में शोण भागते हुए गया और पिताजी को बुला लाया। उन्होंने ही उसके नाथ डाली, लेकिन मेरे हाथों की पकड़ छुड़ाते समय उन्हें बहुत ही परेशानी हुई। सुनते हैं कि मेरी देह के हाथ लगाते ही ऐसी जलन होती थी, जैसे कि आग को छू लिया हो।

      मैं विचारम्ग्न हो गया। दो घंटे तक एक जंगली पशु से जूझते रहने पर भी मेरे शरीर पर कोई खरोंच तक नहीं आयी। क्यों ? मेरा शरीर इतना कैसे तप्त हो गया कि छूते ही छाला पड़ जाता था ?

     मैंने उत्सुकतावश शोण से पूछा, “शोण, खेलते समय कभी तुझे चोट लगी है क्या ?”

वह बोला, “अनेक बार”।

      शोण को चोट लगती है। उसकी देह से रक्त बहता है। तो फ़िर मेरी देह से भी वह बहना ही चाहिए। मैं झटपट उठा और सीधा पर्णकुटी में गया। वहाँ अनेक धनुष-बाण पंक्ति-बद्ध रखे हुए थे। सर्र से उनमें से एक बाण मैंने खींच लिया । निश्चय कर हाथ से उस बाण को मैंने सिर से ऊँचा उठाया कि अब उसकी तीक्ष्ण नोक ठीक पैर के पंजे पर आयेगी, और उस बाण को हाथ से छोड़ दिया। अब वह कच से मेरे पैर में घुस जायेगा, यह सोच सिहरकर मैंने तत्क्षण आँखें मीच लीं। बाण पैर पर पड़ा, लेकिन मुझको केवल इतना ही लगा जैसे कि घास की सींक-सी चुभ गयी हो ! बाण की नोक मेरे पैर की खाल में घुसी नहीं थी। मुझे लगा कि मैंने बाण छोड़ने में ही भूल कर दी है, इसलिये बार-बार मैंने वो बाण अपने पैरों पर गिराया। लेकिन एक बार भी उसकी नोक मेरे पैर की त्वचा में नहीं घुस पायी। मैंने गौर से अपने पैर की ओर देखा। वहाँ छोटा सा घाव तक नहीं हुआ था।

        उत्सुकता और संदेह का राक्षस मेरे सामने अनेक प्रश्नों की लटें बिखारकर नाचने लगा। मैं अपने हाथ में लगे बाण को नोक को विक्षिप्त की तरह जंघा में, बाँहों में, छाती में, पेट में – जहाँ जगह मिली वहीं पूरी शक्ति से घुसाने का प्रयत्न करने लगा। लेकिन कहीं भी वह शरीर के भीतर तिल-भर भी नहीं घुस सका। क्यों नहीं घुस सका वह ? क्या मेरे शरीर की त्वचा अभेद्य है ? मन के आकाश में सन्देह की एक बिजली इस ओर से उस छोर तक चमक गयी। हाँ ! निश्चय ही मेरी सम्पूर्ण देह पर किसी से भी न टूट सकनेवाला अभेद्य कवच होना चाहिये। अभेद्य कवच ! वाह, दौड़ते हुए रथ में से भी यदि मैं कूद पड़ूँ तो मुझको कभी चोट नहीं लगेगी ! पत्थर, कंकड़ या किसी शस्त्र से भी मैं कभी घायल नहीं हो सकूँगा। घायल नहीं हो सकूँगा मतलब – मैं कभी मरुँगा नहीं। कभी नहीं मरुँगा। मेरी यह सुवर्ण रंगी त्वचा सदैव इसी तरह चमकती रहेगी। मैं अमर रहूँगा। मुझे कवच मिला है, मेरे कानों मे जगमगाते हुए कुण्डल हैं। अकेले मुझे ही क्यों मिले हैं ? मैं कौन हूँ ?

      सन्देह की टिटहरी मेरे मन के आकाश में कर्कश स्वर में किकियाने लगी। ऐसा प्रतीत होने लगा कि मैं इन सबसे अलग कोई हूँ, इनमें और मुझमें बहुत बड़ा अन्तर है। लेकिन इन विचारों से स्वयं मुझको बहुत दुख होने लगा । जिस राधामाता का मैंने दूध पिया था, जिसके रक्त-मांस का उत्तराधिकार पाकर मैं बड़ा हुआ था, जिसने मेरे लिए कठिन परिश्रम के पर्वत को धारण किया, उसके प्रेम से – उपर्युक्त विचारों द्वारा क्या मैं कृतघ्न नहीं हो रहा था ? मेरा मन विद्रोह कर उठा और कठोर शब्दों में मुझको चेतावनी देने लगा, “मैं कौन हूँ ? मैं कौन हूँ ? – यह पागलों की तरह मत चिल्ला ! ध्यान रख कि तू तात अधिरथ और राधामाता का पुत्र है ! सूतपुत्र कर्ण है ! शोण का बड़ा भाई कर्ण है ! सारथियों के कुल का एक सारथी है ! एक सारथी !”

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ८

      इस प्रकार हमारी बातें हो ही रही थीं कि एक विशालकाय वृषभ जय-जयकार की चिल्लाहट से बिदक गया। अपनी झब्बेदार पूँछ एकदम खड़ी कर ली। आवाज जिस ओर से आ रही थी, उस ओर कान लगाये, फ़ुफ़कारते हुए, नथुने फ़ुलाये और सींगों को आगे किये हुए वह कान उठाकर सीधा उस और दौड़ने लगा, जिस ओर हम सब बैठे हुए थे। ब्रह्मदत्त ने उसका वह भयंकर रुप देखा और जान बचाकर जिधर अवसर मिला उधर भागता हुआ, वह हाथ ऊँचा कर चिल्लाया, “सेनापति…. महाराज… भागिए-भागिए … राज्य पर … संकट…..”

      वर्षा का पानी धरती पर पड़ते ही जैसे क्षण भर में ही, सब और फ़ैल जाता है, वैसे ही सबके सब क्षण-भर में नौ-दो ग्यारह हो गये। शोण मेरे पास आकर भाग जाने के लिये मेरा हाथ पकड़कर खींचने लगा। मैं झटपट उसी पाषाण पर तनकर खड़ा हो गया। शोण को ऊपर चढ़ाकर उसको अपने पीछे खड़ा कर लिया। झंझावत की तरह वह वृषभ हमारी और आने लगा। उसकी आँखें आग उगल रही थीं। सामने जो कोई वस्तु दिखाई दे, उसी को ठोकर मारकर उसकी धज्जी उडाने के लिये उसके मस्तक की नस-नस शायद व्याकुल हो उठी थी। उसके मुख से निरन्तर लार टपक रही थी। सिंहासन के सम्मुख आते ही वह क्षण-भर रुका। अगले पैरों के खुरों से उसने खर-खर मिट्टी खोदी और सींग गड़ाकर वह सूची बाण की तरह एकदम उछला। मैंने क्षण-भर आकाश की ओर देखा।

       सूर्यदेव अपने रथ के असंख्य घोड़ों को केवल अपने दो हाथों से ही सरलता से सँभाल रहे थे। कुछ समझ में आये, इसके पहले ही मैंने शोण को पीछे धकेल दिया और दूसरे ही क्षण मेरे हाथों की दृढ़ पकड़ वृषभ के सींगों के चारों ओर कस गयी। शोण ने “भै‍ऽयाऽऽ“ कहकर जो चीत्कार किया वह मुझको अस्पष्ट-सा सुनाई दिया। इसके बाद क्या हुआ, यह मुझको अच्छी तरह याद नहीं रहा। लेकिन मुझको उठाकर फ़ेंकने के लिए उसकी सींगों के चारों ओर कसकर लिपटते गये थे। मुझको ऐसा लगा, जैसे कि मेरा शरीर रथचक्र की तप्त लौह-हाल की तरह प्रखर हो गया हो। इसके बाद वसु कौन था, कहाँ था, इसका कुछ भी पता मुझको नहीं चला।

       जिस समय मेरी आँख खुली, मैं उसी पठार पर था, लेकिन मेरा सिर माँ की गोद में था। समीप ही पिताजी खड़े थे। उन्होंने हाथ में उस वृषभ की नाथ पकड़ रखी थी। थोड़ी देर पहले आँखें लाल किये उछलनेवाला वृषभ अब थककर हाँफ़ता हुआ खड़ा था। उसके मुँह से शायद झाग निकल रहा था। मैंने जैसे ही आँखें खोली शोण के मुँह पर एक हँसी आ गई जो कि पहले से मेरे सिर के पास खड़ा था। सब बच्चे मुझे घेरकर खड़े थे, फ़िर मैं अपनी सारी शक्ति एकत्रित करके खड़ा हुआ ये देखने के लिये कि मुझे चोट आ गई होगी क्योंकि मुझे थकान का अनुभव हो रहा था। देह पर कहीं भी जरा-सी खरोंच तक नहीं आयी थी। पिताजी से उस वृषभ की नाथ अपने हाथ में ले ली और हाँफ़ते हुए वृषभ की पीठ पर कसकर थाप मारी। उसकी त्वचा भय से क्षण-भर को सिहर उठी। अपनी पूँछ अन्दर की ओर करता हुआ वह तत्क्षण मुझसे दूर हट गया। पास ही उस वृषभ का गोपाल खड़ा था, मैंने उस वृषभ की नाथ उसके हाथ में दे दी। वह गोपाल आँखें फ़ाड़कर मेरी ओर देखता हुआ अपना वृषभ लेकर चला गया। राजसभा भी समाप्त हो गई।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ७

              एक दिन नगर के सभी बालक इकट्ठे होकर नगर के बाहर पठार पर खेल रहे थे। किसी ने राजसभा का खेल खेलने की कल्पना निकाली थी। राजसभा का चित्र गढ़ रखा था। पिताजी हस्तिनापुर से आये थे और मैं शोण को बुलाने गया था, वो सेनापति बना था। आते ही पिताजी ने एक बड़ी आनन्ददायक बात बतायी कि हस्तिनापुर वापिस जाते समय वे मुझको भी अपने साथ ले जाने वाले थे वहाँ द्रोण नामक अत्यन्त युद्ध-कुशल और विद्वान गुरुदेव हैं, पिताजी मुझको युद्ध-विद्या की शिक्षा प्राप्त करने के लिये उनकी देख-रेख में रखना चाहते थे। इसलिये मैं एकदम शोण को ढूँढ़ता हुआ आया कि मैं उसे समझा बुझाकर यह समाचार बताऊँगा। क्योंकि भय था कि समाचार सुनकर कहीं वह भी हस्तिनापुर चलने की हठ न कर बैठे ! उसको समझाना हम सबके लिये टेढ़ी खीर था।

         पठार के पास जैसे ही मैं पहुँचा शोण ने जोर से पुकारा “वसु भैया, जल्दी आ।“ मैं झटपट उनके पास गया। जैसे ही वहाँ पहुँचा, सब मुझको घेर कर खड़े हो गये। सबके सब बहुत जोर-जोर से चिल्लाने लगे, इसलिए मैं तत्क्षण यह समझ ही नहीं पाया कि वे क्या कह रहे हैं ?

        “राजा…वसु…कुण्डल…सेनापति” आदि विचित्र शब्द गूँजते हुए कानों से टकराने लगे। अन्त में मैं ही जोर से चिल्लाया , “पहले सब चुप तो हो जाओ !”

      “हम सबने राजसभा तैयार की है। केवल योग्य राजा ही हमको नहीं मिल रहा था। तेरे कुण्डलों के कारण हमने तुझी को राजा बनाने का निश्चय किया है।“ सबकी और से ब्रह्मदत्त बोला और सबने एक साथ चिल्लाकर उसका समर्थन किया।

“अरे मैं तो शोण को बुलाने के लिये आया हूँ”। मैं बोला।

       “ऊँहूँ, शोण नहीं, सेनापति ! और सेनापति को बुलाने के लिये महाराज नहीं जाया करते हैं। हम जैसे सेवकों को आज्ञा दी जाती है ।“ नटखट ब्रह्मदत्त धूर्तता से बोला।

     “और आप हैं सेनापति ! आपको महाराज को इस प्रकार नाम लेकर बुलाना उचित है क्या ? कह रहे थे, ’अरे वसु इधर आ !’ सेनापति ही अनुशासन भंग करने लगेंगे तो फ़िर सेना क्या करेगी ?” अमात्य बने हुए ब्रह्मदत्त ने शोण को चेतावनी दी।

     मुझे जबरदस्ती एकदम उस काले पत्थर के सिंहासन पर बैठा दिया और अत्यन्त आदर से झुकता हुआ ब्रह्मदत्त बोला, “चम्पानगराधिपति वसुसेन महाराज की……”

      सबने अत्यन्त आनन्द से उसके प्रत्युत्तर में कहा, “जय हो !” सब नीचे बैठ गये। अब मेरा छुटकारा होना असम्भव था, इसलिये मैं भी राज की शान से बोला, “अमात्य, सभा का काम-काज सभा के सम्मुख प्रस्तुत करने की अनुज्ञा दी जाती है।“

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ६

    हमारी पर्णकुटी के सामने एक बड़ा वट वृक्ष था। वृक्ष क्या, अनेक रंगों के और अनेक प्रकार की बोली बोलने वाले पक्षी जिस पर रहते थे, ऐसा छोटा-सा एक पक्षि-नगर ही था।

    मैं उस वृक्ष की ओर देख रहा था। उसका आकार गदा की तरह था। ऊपर शाखाओं का गोलाकार घेरा और नीचे सुदृढ़ तना। इतने में अजीब-सी ’खाड़’ आवाज हुई, इसलिए मैंने उस ओर देखा। हमारे पड़ोस में रहनेवाला भगदत्त नामक सारथी अपने हाथ में लगे हुए प्रतोद को फ़टकार रहा था। मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। हाथ में लगे प्रतोद को गरदन के चारों ओर लपेटता हुआ वह बोला, “क्यों वसु, क्या देख रहे हो?”

“कुछ नहीं, वह पक्षी देख रहा हूँ।“ मैंने उत्तर दिया।

     “इस वटवृक्ष पर क्या पक्षी देखते हो, पक्षी देखने हों तो अरण्य में अशोक-वृक्ष के पास जाकर देखो। इस वटवृक्ष पर अधिकतर कौए ही रहते हैं। सड़े पके फ़लों को खाने के लिए वे ही आते हैं।“ हाथ में लगे प्रतोद के डण्डे से नीचे पड़े हुए फ़लों को फ़ेंकता हुआ वह बोला।

“कौए ?”

“हाँ ! भारद्वाज, श्येन, कोकिल आदि पक्षी भूले-भटके भले ही आ जायें यहाँ। एकाध कोकिल आ जाता है, वह भी कोकिल की धूर्तता से।“

“धूर्तता कैसी ?” मैंने उत्सुकता से उससे पूछा।

     “अरे, कोकिला अपना अण्डा मादा कौआ की अनुपस्थिती में चुपचाप उसके घोंसले में लाकर रख देती है। अण्डे का रंग और आकार बिल्कुल मादा कौए के अण्डे जैसा ही होता है। इसलिए मादा कौआ को यह सन्देह ही नहीं होता कि अपने घर में किसी और का अण्डा रखा है। फ़िर मादा कौआ कोकिला के अण्डे को सेती है। उसके बाद सप्तस्वर में तान लेकर आस-पास के वातावरण को मुग्ध कर देने वाली कोकिल मादा कौआ के नीड़ में बड़ा होने लगता है।“ उसने प्रतोद को कण्ठ के चारों ओर लपेट लिया।

     “कोकिल और वह मादा कौआ के घोंसले में ?” मैं विचार करने लगा। यह कैसे सम्भव हो सकता है ? भगदत्त की बात असत्य न होगी, इसका क्या प्रमाण है ? और थोड़ी देर के लिए यदि यह सत्य मान भी लिया जाये तो क्या हानि है। हो सकता है मादा कौआ के घर में कोकिल पलता हो। लेकिन वह कौआ बनकर थोड़े ही पलता है। वसन्त ऋतु का अवसर आते ही उसकी सप्तस्वरों की तान पक्षियों से स्पष्ट कह ही देती है कि, “मैं कोकिल हूँ। मैं कोकिल हूँ।“

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ५

    पर्णकुटी में पिताजी के लाये हुए अनेक प्रकार के और अनेक आकारों के धनुष थे। पता नहीं क्यों, लेकिन जब मैंने पहली-पहली बार उनमें से एक धनुष देखा था, और उसके प्रति मुझको जो आकर्षण लगा था, वह अद्भुत था। उसकी कपोत की ग्रीवा की तरह मुड़ी हुई कमान और नखमात्र से छे़ड़ देने पर ही टंकार करनेवाली प्रत्यंचा मुझको बहुत अच्छी लगी थी। पिताजी के हाथ से वह छीनकर उछलते हुए आँगन में घोड़े की पूँछ के बाल से क्रीड़ा करते हुए शोण के पास आया तो वह घोड़े की पूँछ के बाल निकालने में व्यस्त था, ये उसका प्रिय खेल था, मैं उसे बोला कि छोड़ अब इस खेल को, और धनुष दिखाते हुए बोला कि “देख ये है अपना नया खिलौना”।

    उत्सुकता से नाचता हुआ मेरे पास आकर मेरे हाथ से धनुष लेकर बड़ी बड़ी आँखें बनाकर बोलता है “यह तो बड़ा भारी है रे ?”

    और कर्ण के मन में यहीं से धनुर्विद्या के प्रति प्रेम और लगाव हुआ। वह पहले वट वृक्ष पर फ़िर हिलने वाली आम की डालियों के डण्ठल और एक साथ दो बाणों को भिन्न भिन्न लक्ष्यों का वेध करना। कर्ण सीखना चाहता था लक्ष्य को न देखते हुए आवाज की दिशा में बाण चलाना, जैसे साही नामक जन्तु रक्षा के लिये अपनी देह से सौ-दो सौ नलिकाएँ एक साथ छोड़ सकता है, उसी तरह से एक साथ असंख्य बाण छोड़ना सीखना चाहता था।

     कर्ण अकसर अपने कान के मांसल कुंडलों को हाथ लगाकर कुछ महसूस करने की कोशिश करता था। वैसे कुण्डलों के संबंध में कभी भी माँ से कोई भी सन्तोषप्रद उत्तर नहीं मिल सका था। एक बार तो उसने साफ़ साफ़ पूछा था “शोण और मैं – दोनों सगे भाई हैं न, फ़िर उसके क्यों नहीं है कुण्डल ?” भयभीत सी घबराहट में मेरे कुण्डलों की तरफ़ देखती और सचेत होकर कहती “मुझसे मत पूछो यह ! अपने पिताजी से पूछो।“

      मैं (कर्ण) उसी समय पिताजी के पास जाकर वही प्रश्न किया तो उन्होंने बड़ा ही विचित्र उत्तर दिया बोले “गंगामाता से पूछ इसका कारण ! कभी दिया तो इस प्रश्न का उत्तर वही तुझको देगी !” विचारमग्न सा चला गंगामाता भला कैसे उत्तर दे देगी ! क्या नदी कभी बोल सकेगी ? ओह, ये बड़े लोग कैसा व्यवहार करते हैं। छोटों से इस तरह की बातें क्यों करते हैं।

     उसी सायं सबकी दृष्टि से बचकर मैं अकेला ही गंगामाता के तट पर जाकर बैठ गया। उसकी लहर-लहर से मैंने प्रश्न पूछा, परन्तु एक भी लहर मेरे इस प्रश्न का उत्तर न दे सकी। उस दिन मुझको संसार के सभी बड़े लोग कपटी लगे। छोटों को अज्ञान के अन्धकार में रखने का काम वे ही करते हैं, नहीं तो फ़िर इतनी बड़ी गंगामाता चुप क्यों रही ?

      फ़िर वही प्रश्न अगले दिन खेलते समय मैंने शोण से किया, उसके उत्तर को सुनकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह बोला “मैं भी यह बात नहीं जानता हूँ । लेकिन इतना अवश्य है कि तुम्हारे कुण्डल मुझको बहुत ही अच्छे लगते हैं। रात को जब तुम सो जाते हो, ये तारों की तरह अविरत जगमगाते रहते हैं। उनका नीला-सा प्रकाश तुम्हारे लाल गालों पर बिखरा रहता है।“

     मेरे मन में एकदम अनेक प्रश्न उमड़ आये। जो अन्य किसी के पास नहीं थे, ऐसे दो मांसल कुण्डल मेरे कानों में थे। इतना ही नहीं वे चमकते भी थे। मुझको यों ही क्यों मिले ? कौन हूँ मैं ? शोण के दोनों कन्धों को झकझोरते हुए मैंने तड़पकर उससे पूछा, “शोण मैं कौन हूँ ?”

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ४

    लौटते समय सन्ध्या हो जाने के कारण श्येन, कोकिल, कपोत, भारद्वाज, पत्ररथ, क्रौंच आदि अनेक पक्षियों के झुण्ड चित्र-विचित्र आवाजें करते हुए, धूम मचाते नीड़ों की ओर लौटते हुए हमको दिखाई देते। उस समय सूर्यदेव पश्चिम की ओर स्थित दो अत्युच्च पर्वतों के पीछे प्रवेश कर रहे होते थे। दिन भर अविरत दौड़ने के बाद भी उनके रथ के घोड़े जरा भी थके हुए नहीं होते थे। वे दो पर्वत मुझको उनके प्रासाद के विशाल द्वार पर खड़े हुए दो द्वारपाल से लगते थे। क्षण-भर में ही वह तेजपुंज हमारी दृष्टि की ओट में हो जायेगा, इस कल्पना से ही वियोग की एक प्रचण्ड लहर अकारण ही मेरी नस-नस में फ़ैल जाती । मैं एकटक उस बिम्ब की ओर देखता रहता। शोण मुझको जोर से झकझोरकर आकाश में शोर मचाता हुआ गरुड़ पक्षियों का झुण्ड दिखाता। अन्य समस्त पक्षियों की अपेक्षा ये बहुत अधिक ऊँचाई पर उड़ते हुए जाते थे। शोण पूछता, “भैया, ये कौन से पक्षी हैं रे ?”

“गरुड़ ! सभी पक्षियों का राजा !”

“भैया, तू जायेगा क्या रे इन गरुड़ों की तरह …. खूब-खूब ऊँचा ?” वह अनर्गल प्रश्न पूछता ।

“पगले ! मैं क्या पक्षी हूँ जो ऊँचा जाऊँगा ?”

“अच्छा भाई, मैं जाऊँगा गरुड़ की तरह खूब ऊँचा। इतना ऊँचा कि तू कभी देख नहीं पायेगा। बस, अब ठीक है न ?”

    पश्चिमीय क्षितिज की ओर देखने लगता और अन्त में मैं ही उससे एक प्रश्न पूछता, “शोण, वह सूर्य-बिम्ब देख रहे हो ? उस बिम्ब की ओर देखने पर क्या अनुभव कर रहे हो तुम ?”

     मुझे लगता कि वह सूर्य बिम्ब की ओर देखकर जैसा मुझे लगता है उसी तरह की कोई बात अपने शब्दों में कहेगा। लेकिन सूर्य बिम्ब की ओर देखकर उसकी नन्ही आँखें उसके तेज से मिंच जातीं और फ़िर थोड़ी देर बाद आँखें मीड़ता हुआ मेरे कानों की ओर देखकर वह जल्दी कहता, “तेरे चेहरे जैसा लगता है वह, वसु भैया !”

मैं अपने कानों से हाथ लगाता। दो मांसल कुण्डल हाथ में आ जाते। कहते हैं कि ये मेरे जन्म से ही हैं !

     शोण की शिकायत शुरु हो जाती , “तुझपर ही माँ का प्यार अधिक है, भैया ! देख ले, इसीलिए उसने तुझको ही ये कुण्डल दिये हैं ! मेरे पास कहाँ है कुण्डल ?”

     आवेश में मैं हाथ में लगे प्रतोद का प्रहार घोड़ों की पीठ पर करने लगता। अपने खुर उछालकर रास्ते पर धूल उड़ाते हुए वे हिनहिनाते हुए वायुवेग से दौड़ने लगते । पास बैठा हुआ, शोण, दौड़ते हुए घोड़े, पीछे छूटते जाते अशोक, ताल, किंशुक, मधूक, पाटल, तमाल, कदम्ब, शाल, सप्तपर्ण आदि के ऊँचे घने पत्तोंवाले वृक्ष – इनमें से किसी का भी मुझको भान नहीं रहता। केवल सामने का पीछे भागता हुआ मार्ग और उसके मोड़ – बस यही दिखाई देते। मेरे मन में एक विचार कौंध जाता —- “ पीछे छूटते हुए इस रास्ते के साथ साथ मैं प्रकाश के साम्राज्य से किसी अन्धकारमय भयानक समुद्र की ओर खिंचा चला जा रहा हूँ ।“

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३

        मेरे पिता कौरवराज धृतराष्ट्र के रथ के राजसारथी थे। वे अधिकतर कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर में रहा करते थे। वह नगर तो बहुत दूर था। कभी कभी वे वहाँ से एक बड़ा रथ लेकर चम्पानगरी में आते थे। उस समय मेरे और शोण के उत्साह का रुप कुछ और ही होता था। जैसे ही पर्णकुटी के द्वार पर रथ खड़ा होता था, शोण उसमें कूद पड़ता और घोड़ों की वल्गाएँ पिताजी के हाथों से हठात़् अपने हाथों में लेकर जोर से मुझको पुकारता, “वसु भैया, अरे जल्दी आ । चलो, हम गंगा के किनारे से सीप ले आयें।“ उसकी पुकार सुनकर मैं अपूप खाना वैस ही छोड़कर पर्णकुटी से बाहर आता।

         फ़िर हम दोनों मिलकर पिताजी के रथ में बैठकर वायुवेग से नगर के बाहर गंगा के किनारे की ओर जाते। हलके पीले रंग के वे पाँच घोड़े अपने पुष्ट पूँछों के बालों को फ़ुलाकर, कान खड़े कर स्वच्छन्द उछलते जाते। जब वह वल्गाओं से घोड़ो को नियन्त्रित करने की कोशिश करता तो उसे देखते ही बनता और मुझे बुलाता, तो मुझको उससे विलक्षण प्रेम होने लगता। वल्गाएँ मैं अपने हाथ में ले लेता और वह प्रतोद का दण्ड उलटा कर घोड़ों के अयाल तितर बितर कर देता। ’हा ऽऽ हा ऽऽ’ कहकर उनको दौड़ाने के लिये प्रतोद के डण्डे से जब वह मारता तब घोड़े चेतकर पहले की अपेक्षा और अधिक तेज दौड़ने लगते। फ़िर हम दोनों लगभग आधा योजन की दूरी पार कर गंगामाता के किनारे रुकते। लेकिन मेरे हाथ पैर सुन्न हो जाते, अकारण ही मुझे लगता कि अवश्य ही इस पानी से मेरा कुछ संबंध है, उसी क्षण दूसरा विचार आता । छि:, भला पानी से मनुष्य का क्या नाता हो सकता है ? वह तो प्यास से व्याकुल प्राणी को तृप्ती प्रदान करने वाला एक साधन मात्र है वह ! अपनी छोटी-छोटी आँखों से मैं उस पात्र को गटागट पी लेता। उस समय मेरी इच्छा होती कि यदि मेरे सम्पूर्ण शरीर में आँखें होतीं, तो कितना अच्छा होता !

       शोण के बालप्रश्नों की बौछारें होने लगती – “भैया, ये सीपियाँ क्या पानी से ही बनती हैं रे ?”

“हाँ”

“फ़िर तो इनपर ये सारे रंग पानी ने ही किये होंगे ?”

“हाँ”

“तो फ़िर पानी में ये रंग क्यों नहीं देखाई पड़ते ?”

        और मैं उसके प्रश्नों का उत्तर देना कभी कभी टाल देता था। क्योंकि मैं जानता था कि एक प्रश्न के बाद दूसरा प्रश्न उसके पास अवश्य तैयार होगा। और सच पूछो तो कभी-कभी उसके प्रश्न का उत्तर मुझे भी ज्ञात नहीं होता था। उसके प्रश्नों को दूर करने का प्रयत्न करने के लिये मैं कहता “चल, हम लोगों को बहुत देर हो गयी है।“

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २

         चम्पानगर। मैं कर्ण और मेरा छोटा भाई श्रोण – हमारा वह छोटा सा संसार ! शोण ! हाँ शोण ही ! उसका मूल नाम था शत्रुन्तप। लेकिन सब उसे शोण ही कहते थे। शोण मेरा छोटा भाई था। यों तो वृकरथ नामक मेरा एक और भी भाई था, लेकिन वह बचपन में ही विकटों के राज्य में अपनी मौसी के पास चला गया था। शोण और मैं – हम दो ही रह गये थे। मेरे बचपन का संसार मेरे और उसकी स्मृतियों से ही भरा हुआ था। चम्पानगरी की विशुद्ध हवा में पलनेवाले दो भोले-भाले प्राणों का अद्भुत कल्पनाओं से भरा हुआ छोटा सा संसार था वह। वहाँ झूठी प्रतिष्ठा के बनावटी दिखावे नहीं थे या अपने स्वार्थ के लिये एक-दूसरे को फ़ूटी आँख से भी न देख सकनेवाली असूया नहीं थी। वह केवल दो भाईयों का नि:स्वार्थ विश्व था और उस विश्व के केवल दो ही द्वारपाल थे। एक हमारी माता — राधा और दूसरे हमारे पिता —- अधिरथ। आज भी उन दोनों की स्मृतियाँ मेरे हृदय के एक अत्यन्त कोमल तार को झंकृत कर देती हैं और अनजाने ही कृतज्ञता से कुछ बोझिल से तथा ममता से कुछ रससिक्त से दो अश्रुबिन्दु तत्क्षण मेरी आँखों में छलक आते हैं। लेकिन क्षणभर के लिये ही ! तुरन्त ही मैं उनको पोंछ लेता हूँ । क्योंकि मैं जानता हूँ कि आँसू दुर्बल मन का प्रतीक है। संसार के किसी भी दुख की आग अश्रु के जल से कभी बुझा नहीं करती। लेकिन फ़िर भी, जबतक आँसू की ये दो बूँदें छलक नहीं पड़तीं, तबतक मुझको यह प्रतीत ही नहीं होता कि मेरा मन हल्का हो गया है ! क्योंकि आँसू की इन दो बूँदों के अतिरिक्त, अपने जीवन में मैं उनको ऐसा कुछ भी दे नहीं सका, जो बहुत अधिक मूल्यवान हो ! और इनकी अपेक्षा अधिक मूल्यवान कोई अन्य वस्तु है, जो माता-पिता के प्रति प्रेम के प्रतीकस्वरुप दी जा सकती है – ऐसा मैं समझता भी नहीं। मेरे माता-पिता ने कभी किसी प्रकार की आशा मुझसे नहीं की थी। उन्होंने मुझको जो कुछ दिया था, वह निरा प्रेम ही था।
          मेरी माँ तो ममता का विशाल समुद्र ही थी। मुझको बचपन में सभी नगरजन वसुसेन कहते थे। मेरा छोटा भाई शोण, मुझको सदैव ’वसुभैया’ कहते था। माँ तो मुझको दिन में सैकड़ों बार ’वसु-वसु’ कहकर बुलाती थी। उसने मुझको केवल अपना दूध ही नहीं पिलाया था, बल्कि उसके विशुद्ध प्रेम का अमृत भी मैं अब तक जी भरकर पीता आया था। सबको समान भाव से प्रेम करने के लिये ही मानो उसका जन्म हुआ था। सारा चम्पानगर उसको ’राधामाता’ कहता था। मेरे कानों में दो जन्मजात कुण्डल थे। उनकी चर्चा वह नगर के लोगों से प्राय: करती ही रहती थी। मैं क्षण भर के लिए भी आँखों से ओझल हो जाता था, वह घबरा जाती थी। बार बार मेरे सिर पर हाथ फ़िराकर वह प्रेम से मुझसे कहती, “वसु! गंगा की ओर भूलकर भी मत जाना, अच्छा ऽ !”
“क्यों नहीं जाऊँ ?” मैं पूछता ।
“देखो, बड़े लोगों का कहना मानते हैं। जब जाने को मना किया जाये, तो नहीं जाना चाहिए !”
“तू सचमुच बहुत डरपोक है, माँ ! अरी, चले जायेंगे तो क्या हो जायेगा ?”
“नहीं रे वसु !” मुझको एकदम पास खींचकर मेरे बालों में अपनी लम्बी ऊँगलियाँ फ़िराती हुई वह मुझसे पूछती, “वसु, मैं तुझको अच्छी लगती हूँ या नहीं ?”
“आँ हाँ !” कहकर मैं सिर हिलाता। मेरे कानों में लय के साथ हिलनेवाले कुण्डलों की ओर विस्मय से देखती हुई वह कहती, “तो फ़िर मेरा आदेश समझकर कभी गंगा की ओर मत जाना।“ वह मुझको कसकर जकड़ती हुई कहती और एक अजाना भय उसकी आँखों में होता।
उसका मन रखने के लिये मैं कहता, “तू कहती है तो नहीं जाऊँगा। बस अब तो ठीक ?”
और उसका वात्सल्य उमड़ पड़ता मुझे अलिंगन में कसकर मेरे सिर और कानों को पटापट चूमती। उस समय मेरी इच्छा होती कि मैं इसी तरह गोद में समा जाऊँ।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १

        आज मैं कुछ कहना चाहता हूँ ! मेरी बात को सुनकर कुछ लोग चौकेंगे ! कहेंगे, जो काल के मुख में जा चुके, वे कैसे बोलने लगे ? लेकिन एक समय ऐसा भी आता है, जब ऐसे लोगों को भी बोलना पड़ता है ! जब जब हाड़-मांस के जीवित पुतले मृतकों की तरह आचरण करने लगते हैं, तब-तब मृतकों को जीवित होकर बोलना ही पड़ता है ! आह, आज मैं औरों के लिये कुछ कहने नहीं जा रहा हूँ, क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि इस तरह की बात करने वाला मैं कोई बहुत बड़ा दार्शनिक नहीं हूँ ! संसार मेरे सामने एक युद्ध-क्षेत्र में बाणों का केवल एक तरकश ! अनेक प्रकार की, अनेक आकारों की विविध घटानाओं के बाण जिसमें ठसाठस भरे हुए हैं – बस ऐसा ही केवल एक तरकश !!
        आज अपने जीवन के उस तरकश को मैं सबके सामने अच्छी तरह खोलकर दिखा देना चाहता हूँ ! उसमें रखे हुए विविध घटनाओं के बाणों को – बिल्कुल एक-सी सभी घटानाओं के बाणों को – मैं मुक्त मन से अपने ही हाथों से सबको दिखा देना चाहता हूँ। अपने दिव्य फ़लकों से चमचमाते हुए, अपने पुरुष और आकर्षक आकार के कारण तत्क्षण मन को मोह लेने वाले, साथ ही टूटे हुए पुच्छ के कारण दयनीय दिखाई देने वाले तथा जहाँ-तहाँ टूटे हुए फ़लकों के कारण अटपटे और अजीब से प्रतीत होने वाले इन सभी बाणों को – और वे भी जैसे हैं वैसा ही – मैं आज सबको दिखाना चाहता हूँ !
        विश्व की श्रेष्ठ वीरता की तुला पर मैं उनकी अच्छी तरह परख कराना चाहता हूँ। धरणीतल के समस्त मातृत्व के द्वारा आज मैं उनका वास्तविक मूल्य निश्चित कराना चाहता हूँ। पृथ्वीतल के एक-एक की गुरुता द्वारा मैं उनका वास्तविक मूल्य निश्चित करना चाहता हूँ। प्राणों की बाजी लगा देनेवाली मित्रता के द्वारा मैं आज उनकी परीक्षा कराना चाहता हूँ। हार्दिक फ़ुहारों से भीग जाने वाले बन्धुत्व के द्वारा मैं उनका वास्तविक मूल्यांकन कराना चाहता हूँ।
        भीतर से – मेरे मन के एकदम गहन-गम्भीर अन्तरतम से एक आवाज बार-बार मुझको सुनाई देने लगी है। दृढ़ निश्चय के साथ जैसे-जैसे मैं मन ही मन उस आवाज को रोकने का प्रयत्न करता हूँ, वैसे-ही-वैसे हवा के तीव्र झोंकों से अग्नि की ज्वाला जैसे बुझने के बजाये पहले की अपेक्षा और अधिक जोर से भड़क उठती है, वैसे ही वह बार-बार गरजकर मुझसे कहती है, “कहो कर्ण ! अपनी जीवन गाथा आज सबको बता दो। वह कथा तुम ऐसी भाषा में कहो कि सब समझ सकें, क्योंकि आज परिस्थिति ही ऐसी है। सारा संसार कह रहा है, ’कर्ण, तेरा जीवन तो चिथड़े के समान था !’ कहो, गरजकर सबसे कहो कि वह चिथड़ा नहीं था, बल्कि वह तो गोटा किनारवाला एक अतलसी राजवस्त्र था। केवल – परिस्थितियों के निर्दय कँटीले बाड़े से उलझने से ही उसके सहस्त्रों चिथड़े हो गये थे। जिस किसी के हाथ में वे पड़े, उसने मनमाने ढंग से उनका प्रचार किया। और फ़िर भी तुमको उस राजवस्त्र पर इतना अभिमान क्यों है ?”

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ तथ्य

    मृत्युंजय मतलब होता है मृत्यु पर विजय। मैंने अपना स्नातक हिन्दी साहित्य में किया इसलिये हिन्दी साहित्य पढ़ने में बहुत ज्यादा रुचि है। चूँकि साहित्यिक किताबें बाजार में बहुत ही दुर्लभ हैं और उस समय हमारी किताबें खरीदने की इच्छाशक्ति भी नहीं थी। हमारे पिताजी को शुरु से ही साहित्यिक किताबें पढ़ने का शौक था तो हर जिला मुख्यालय में शासकीय वाचनालय एवं पुस्तकालय होता है, बस वो लाते थे और हम भी पढ़ते थे, एक बार पढ़ने का सफ़र शुरु किया तो वो आज तक रुका नहीं है, हिन्दी के लगभग सभी साहित्यकारों को पढ़ा जिनकी किताबें पुस्तकालय में उपलब्ध होती थीं। कुछ किताबें ऐसी होती थीं जिसके लिये रोज चक्कर लगाने पड़ते थे।
    हमें ऐसी दो किताबों के नाम याद हैं पहली थी मृत्युंजय, दूसरी है लोकमान्य तिलक रचित “गीता”। जिसमें हमने मृत्युंजय को पढ़ लिया है और वाकई मृत्युंजय को पढ़़ना जीवन के सर्वोच्च आनंद की अनुभूति लगा। ऐसा लगा कि कुछ चीज जीवन में अपूर्ण थी और कहीं न कहीं मेरे अंदर कमी थी वह पूरी हो गई।
       “मृत्युंजय” में हमने सीखा, देखा कर्ण की सहनशीलता, उदारता, कर्त्तव्यनिष्ठा, निश्चल प्रेम, दान के लिये तत्परता और भी बहुत कुछ जिसका शब्दों में उल्लेख करना मेरे लिये असंभव है। बहुत से ऐसे तथ्य उन पात्रों के बारे में जो महाभारत से जुड़े हुए हैं, सबसे ज्यादा कर्ण और दुर्योधन और पांडवों के बारे में। वाकई इसके लेखक शिवाजी सावन्त की कर्ण के रहस्यों को जानने की इच्छाशक्ति के कारण ही यह सर्व सुलभ है। उनको मेरा प्रणाम है।
    
     मेरी अगली पोस्टों पर मृत्युंजय से मिले तथ्यों को पढ़ेंगे, जिसके बारे में आम दुनिया सर्वथा अनभिज्ञ है और आप लोगों को भी जानकर आश्चर्य होगा। हर जगह केवल कर्ण का जिक्र होता है कर्ण के परिवार से सर्वथा अनभिज्ञ हैं, इसमें कर्ण के परिवार का भी पूर्ण विवरण दिया गया है और बताया गया है कि किसी भी व्यक्ति के सफ़ल और असफ़ल जीवन के पीछे परिवार भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालांकि कर्ण को शुरु से ही इस दुविधा में दिखाया गया है कि एक आम आदमी के घर में रहते हुए भी मेरे पास इतना ओज और बल कैसे आया क्या मुझे जन्म देने वाले माँ बाप यहीं हैं, जिनके घर पर मैं रह रहा हूँ। और भी बहुत कुछ।
     शिवाजी सावन्त ने मूलत: इस उपन्यास की रचना मराठी भाषा में किया है और इस कालजयी उपन्यास की रचना कई भाषाओं में हो चुकी है, हिन्दी अनुवाद ओम शिवराज ने किया है।