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साप्ताहिक भागमभाग की थकान के बाद कुछ सुकून के पल परिवार के संग

सप्ताह में पाँच दिन के काम के बाद दिमाग को आराम की बहुत ही सख्त जरूरत होती है, आराम करने के भी सबके अपने अपने तरीके होते हैं, कोई केवल दिन भर घर में ही रहना पसंद करता है तो कोई घर पर रहकर दिनभर टीवी देखना तो कोई मोबाईल या लेपटॉप पर गेम्स खेलना पसंद करता है। हम केवल और केवल परिवार के साथ समय व्यतीत करना पसंद करते हैं।
परिवार में हमारी घरवाली और बेटेलाल के साथ हम रहते हैं। सप्ताहांत में अपने दैनिक कार्यों के अलावा जो हमारे कार्य में जुड़ा होता है वह है बेटेलाल को भी साथ में सैर पर बगीचे में ले जाना, साथ में खेलना, बाजार से जरूरत के सामान और सब्जी लाना। घर पर आकर फटाफट तैयार होना और फिर आपस में खेलना, कभी कैरम तो कभी लूडो तो कभी ताश और कभी पहेली। कभी हम बेटेलाल को कहानी सुनाते हैं तो कभी बेटेलाल हमें कहानी सुनाते हैं।
रविवार को बेहतरीन दिन बिताने के लिये हम सुबह से पूरे परिवार के साथ घर के सारे काम निपटाने लगते हैं जिससे साथ में ज्यादा से ज्यादा वक्त बिता पायें और आपस में और करीब आ
पायें। अभी कुछ सप्ताह पहले ऐसे ही एक रविवार को हमने सुबह पोहा नाश्ते में बनाया जो कि हमारे घर का सबसे ज्यादा पसंदीदा नाश्ता है। तैयारी मैंने और बेटेलाल ने की घरवाली ने फाईनल टच दिया। और फिर साथ में नाश्ता करने के बाद हमने साथ में चाणक्य सीरियल देखा और फिर भारत एक खोज।
अब हमारे बेटेलाल लूडो ला चुके थे और हम दोनों लूडो खेलने बैठ गये साथ ही दाल बाफले की तैयारी चल रही थी, जिसका आटा बहुत ज्यादा पतला नहीं मला जाता है तो कट्ठा आटा हमेशा हम ही मलते हैं, हमने अपने महाविद्यालयीन दिनों में बहुत आटा मला है, जिससे हमें आटा मलने की जबरदस्त प्रेक्टिस हो गई है। बाफले के लिये आटे के लिये गोले बनवाये और फिर इलेक्ट्रॉनिक केतली में पानी उबाल उबाल कर बड़े भगोने में डालने लगे जो कि गैस पर रखा था, उबालने के बाद बाफले को सुखाकर तंदूर में पका लिया, तब तक दाल और चटनी भी लगभग तैयार थी और साथ ही बैंगन का भर्ता भी तैयार था।
जब खाना तैयार हो गया तो हमने छत पर चटाई बिछाई और खाने का सामान छत पर ले चले और खिली धूप में परिवार के साथ आनंद से खाना खाया, खाने के बाद थोड़े बाफलों को कूटकर शक्कर पीसकर उसमें मिलाकर मीठा भी बना लिया गया। अब समय था आराम करने का, तो अपनी किताब शेखर एक जीवनीली और परिवार को सुनाने लगे, इस उपन्यास में पात्रों को इस प्रकार से लिखा गया है कि बड़े तो बड़े, बच्चे भी इससे बँध जाते हैं। तकिया लगा कर लेट गये, भरे पेट थोड़े ही देर में नींद ने आ घेरा, तो छत पर दोपहर की नींद ली गई।
शाम को फिर पैदल ही बगीचे में घूमने गये और साथ में फिल्म देखी। इस तरह से पूरा दिन अपने परिवार के साथ बिताकर पूरे सप्ताह की थकान उतारी गई। परिवार के साथ समय बिताने और उसका अनुभव साझा करने के लिये यह पोस्ट हमने हाऊसिंग.कॉम के लिये लिखी है।

पाँच काम बिल्कुल बेफिकर उमरभर करना चाहता हूँ

    हर कोई चाहता है कि हमेशा बेफिकर उमरभर रहे पर ऐसा होता नहीं है, सब जगह मारामारी रहती है, कोई न कोई फिकर हमेशा जान को लगी ही रहती है, और उस फिकर की फिकर में हम अपने जीवन में जो कुछ करना चाहते हैं, वो सब भूल जाते हैं या यूँ भी कह सकते हैं कि पेट की आग के आगे अपने शौकों को तिलांजली देनी पड़ती है । काश कि हम जीवनफर
बेफिकर रहें तो मैं ये पाँच काम बिल्कुल बेफिकर उमरभर करना चाहता हूँ, जिससे मुझे ये पाँच काम बहुत ही महत्वपूर्ण लगते हैं और ये मेरे लिये हमेशा ही प्राथमिकता भी रही है।
1. गैर सरकारी संगठन शुरू करना – महाकाल के क्षैत्र उज्जैन में एक गैर सरकारी संगठन की स्थापना करना, जिसकी मुख्य गतिविधियाँ हों – 
 
अ.     बच्चों की ऊर्जा को सकारात्मक रूख देना, जिससे बच्चे अपनी ऊर्जा का उपयोग अपनी मनपसंदीदा गतिविधियों में कर पायें और अपने शौक को पहचान कर जुनून में बदल पायें।
आ.  आधुनिक श्रम केक्षैत्र में हमारे आजकल के नौजवान खासकर गाँव के नौजवान जो इंजीनियरिंग या कोई और
पढ़ाई नहीं कर पाये, उनकी प्रतिभा को निखारकर उन्हें आधुनिकतम तकनीक के बारे में जानकारी देना और उनका मार्गदर्शन करना, जिससे वे अपने जीवन स्तर को उच्चगुणवत्ता के साथ जी पायें और समाज को नई दिशा दे पायें।
इ.   निजी वित्त से संबंधित परिसंवाद गाँव गाँव आयोजित करना जिससे छोटी जगहों के लोग भी आजकल बाजार में उपलब्ध जटिल वित्तीय उत्पादों में निवेश कर पायें और एजेन्टों द्वारा किसी भी तरह के उत्पादों के खरीदे जाने से बच सकें।

2. किताबें पढ़ना – किताबें पढ़ने के बहुत शौक है, हर वर्ष बहुत सारी किताबें खरीद लेता हूँ, और नई किताबें अधिकतर तभी लेती हूँ जब पास में रखी किताबें पढ़ चुका होता हूँ, कोशिश रहती है कि महीने में कम से कम एक किताब तो पढ़ ही ली जायें,
मुझे हिन्दी की साहित्यिक किताबें पढ़ना बहुत भाता है, अभी हाल ही में लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल की जीवनी
सरदार और आचार्य विष्णु प्रभाकर की जीवनी का प्रथम भाग पंखहीन पढ़ा है, अभी तक की पढ़ी गई किताबों में सर्वश्रेष्ठ किताब सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय की शेखर एक जीवनी लगी । 

3.   कहानी और नाटक लिखना लिखना अपने आप को अंदर से जानना होता है और जब कोई हमें पढ़ता है तो वह हमें अंदर तक जान लेता है, हम क्या बताना चाहते हैं, कैसे शब्दों को ढ़ालते हैं, पात्रों को कैसे रचते हैं, कैसे हम पाठक को अपनी भाषाशैली से और विभिन्न सामाजिक उदाहरणों से प्रभावित करते हैं, कई पाठकों के लिये कुछ किताबें उनके जीवन की धुरी हो जाती हैं, इस तरह की कहानियाँ और नाटक मैं अपने पाठकों के लिये लिखना चाहता हूँ। 
4. महाकाल की आरती के नित्य दर्शन करना – जब होश सँभाला तब पाया कि बाबा महाकाल की अनन्य भक्ति में कब मैं घुलमिल गया हूँ, कब ये मेरी जीवनशैली में इतना घुलमिल गया कि मैं उस भक्ति में पूरा डूब चुका हूँ, पता ही नहीं चला। मेरे जीवन के इस दौर में भी मैं भले ही उज्जैन से इतनी दूर हूँ पर बाबा महाकालेश्वर में मन इतना रमा हुआ है कि मैंने कब बाबा महाकाल का ब्लॉग बना दिया और फिर उस ब्लॉग पर फोटो भी गाहे बगाहे अपलोड करता रहता हूँ कि मेरे साथ ही साथ उनको भी दर्शन हों जो महाकाल से जुड़ना चाहते हैं। महाकाल की आरती बहुत ही भव्य और आनंदमयी होती हैं, मैं अपना तन मन सब भूल जाता हूँ, कई वर्षों पहले संझा आरती में लगभग रोज ही मैं बाबा महाकाल की आरती में घंटे बजाता था, और निश्चय ही यह सौभाग्य बाबा महाकाल की असीम कृपा के कारण ही मुझे प्राप्त हुआ होगा। हालांकि आजकल भक्तों को यह सेवा करना निषेध कर दिया गया है। 
5. हैकर बनना – जब डायलअप इंटरनेट का दौर था, तब हमने पहली बार हैकिंग की शुरूआत की थी, चुपके से दूसरे के घर से उसका आई.पी. लेते थे और फिर हमारे पास एक हैकिंग सॉफ्टवेयर था जिससे हम उसके कम्प्यूटर को नियंत्रित कर लेते थे, और हमारा मित्र बेबस सा देखता रह जाता था। हैकिंग में बहुत कुछ नया करने को है, जिससे हम आधुनिक सुरक्षा प्रणाली को और मजबूत बनाने में सहयोग कर सकते हैं। 
 

विष्णु प्रभाकर का प्रेम पत्र अपनी पत्नी सुशीला के लिये

 प्रेम पत्र बहुत पढ़े लिखे हैं आज विष्णु प्रभाकर की किताब पंखहीन पढ़ते हुए उनका एक प्रेम पत्र मिला जिसे उन्होंने अपनी पत्नी सुशीला को लिखा है –

रानी
    सोचता हूँ जो हुआ क्या वह सत्य है ? सवेरे उठा तो जान पड़ा जैसे स्वप्न देखा हो।  लेकिन आँखे जो खोलीं तो प्रकाश ने उस सारे स्वप्न को सत्य के रूप में प्रत्यक्ष कर दिखाया। अब भी कभी कभी हृदय में कोई सुना जाता है – जिसे तुम स्वप्न कहते हो वह स्वप्न का पार्थिव रूप है।  मैं उसे भूल ने सकूँगा ।
    प्रिय! रात 9-27 पर जब मैं हिसार पहुँचा तो तुम स्टेशन पर जाने के लिए तैयार हो रही होगी। शायद तुमको मेरा ध्यान भी होगा। मैं न जाने कितनी बार चौंक पड़ा था। ऐसा मालूम हुआ जैसे तुमने आकर मेरे वक्षस्थल पर अपना सर टिका दिया है। मेरे दोनों हाथ धीरे धीरे ऊपर उठे लेकिन सुशीला! वहाँ कौन था। अपनी छाती को दबाकर ही मैं काँप उठा।
    भद्रे अब 6.38 का समय है। तुम अपने घर के बहुत करीब पहुँच रही होगी। तुम्हें रह-रहकर अपने माँ-बाप और बहिन से मिलने की खुशी हो रही होगी लेकिन रानी! मेरा जी भर रहा है। आँसू रास्ता टटोल रहे हैं। इस सुने आँगन में मैं अकेला बैठा हूँ। ग्यारह दिन में घर की क्या हालत हुई वह देखते ही बनती है। कमरे में एक-एक अंगुल गर्दा जमा है। पुस्तकें निराश्रित पत्नी-सी अलस-उदास जहाँ-तहाँ बिखरी हैं। अभी-अभी कपड़े सम्भाल कर तुम्हें खत लिखने बैठा हूँ परन्तु कलम चलती नहीं। दो शब्द लिखता हूँ और मन उमड़ पड़ता है। काश! तुम मेरे कन्धे पर सिर रखकर बैठी होती और मैं लिखता चला जाता पृष्ठ पर पृष्ठ। लो रानी पृष्ठ लिखने में 15 मिनिट समाप्त हो गए। एक बच्चा अभी अभी मेरे पास आ बैठा है पर वह पढ़ना नहीं जानता। इसी से बेखबर मैं लिख रहा हूँ। होल्डर भी नया है। रुकता है। क्या करुँ देवी ? इतनी उद्विग्नता मुझे रुचती नहीं।
    रानी! चलते समय तुमने कहा था कि तुम में जो त्रुटियाँ मैंने देखी हों वे लिख दूँ। प्रिये! कमी संसार के प्रत्येक प्राणी में है। पूर्ण तो केवल वही एक है। तो भी हम अपनी कमी को और उसके कारण को जानें तो जीवन की दुरुहता बहुत कुछ कम हो जाती है। तुम्हारा यह विचार सुन्दर है।  परमेश्वर करे तुम इन भावों को बनाये रखो। लेकिन त्रुटियाँ मैं क्यों लिखूँ, यह भी मैं नहीं समझता। उनको जानना भी तुम्हारा काम है। देवी! हृदय का मंथन करो तो रस पाओगी। जीवन का मंथन करो तो उसकी दोनों साइड्स तुम्हारे सामने होंगी।
    एक बात कह दूँ प्रियेमुझे स्टडी करना बहुत कठिन है|  इस क्षण मैं कायर जान पड़ता हूँ दुसरे ही क्षण मेरी भावना सबको पराजित कर चलती है। तुमने सुना होगा इस विवाह के बाद मुझे लोगों ने कायर ही कहा है। उनका दोष भी क्या है ? पिछले सात साल से मैं बार-बार विद्रोह करता आ रहा था।  अब एकदम उस सबमिशन से ने चौंके तो ठीक ही है। मुझे कोई नहीँ जानता। तुम भी, मुझे डर है न जाने सकोगी । यही शंका है जिसे मैं कभी-कभी वे बातें कह देता हूँ जिससे तुम्हें दुख हुआ होगा। मैं अब भी कहता हूँ कि मेरा विवाह नहीँ होता तो ज्यादा ठीक था। तुम्हारे प्रति मुझे कोई शिकायत अभी क्या हो
सकती है
?  फिर भी रानी! मुझे नजदीक से पढ़ो। सहानुभूति से पढ़ो। मुझसे कुछ न कहलवाओ। आप ही सोच समझ कर काम कर लो तो ठीक है। नहीं तो ये दुनिया है। कलह, असफलता और पीड़ा सब हम-तुम पावेंगे।
     पीड़ा में भी मुझे सुख होगा। पर तुम नष्ट हो जाओगी। समझती हो न शीला। मैंने जन्म से लेकर आज तक दुख और पीड़ा को अपना साथी बनाये रखा है। अब भी नहीँ डरुंगा लेकिन मेरे किसी अपराध का दर्द तुम पाओ यह मेरी दृष्टि में सबसे बड़ा पाप है। पाप से मुझे प्रेम है लेकिन वह मुझे मिले, तुम्हें नहीँ। किसी से घबराना मत रानी!
    ओह रानी! क्या तुम डर गईं? नहीं, नहीं, श्रद्धा और विश्वास को तुम भूलो मत। ऐसा करो ये दोनोँ तत्व कभी भी हमारे  साथ न छोड़ें। जिस दिन श्रद्धा तुम खो दोगी उसी दिन तुम्हारा पतन आरम्भ हो जाएगा ।
    मेरी रानी! क्या तुम सच ही मुझसे प्रेम करती हो ? इसका उत्तर खूब शान्ति से जब तुम – 1. अपने माता-पिता के घर में खूब व्यस्त हो। 2. भाई-बहिन घुल-मिलकर बातें कर रे हैं. 3. अपनी सखी के सौभाग्य पर कोई चर्चा चल रही हो या तुम बिलकुल एकान्त में बैठी हो तब सोचना, मैं दावे से कहता हूँ उत्तर तुम्हें मिलेगा। सच-सच लिख देना। उसी एक प्रश्नोत्तर पर सारा जीवन निर्भर रहेगा।  सत्य के लिये साहस की जरूरत है। मैं तुमसे एक ही प्रार्थना करता हूँ रानी! कभी भी कोई बात मुझसे छिपाना मत । मेरे हृदय की अधिष्ठात्री देवी, ऐसा तुम करोगी तो दुनिया तुम्हें सदा-सदा याद रखेगी।
    जानती हो प्रिये मैं एक निर्धन व्यक्ति हूँ। गरीबी मुझे मिली है यही बात नहीं, गरीबी मेरा व्रत भी है। (शीला) इसे तुम्हें सदा
याद रखना है। यदि निर्धनता से प्रेम न हो, यदि आवश्यकता पड़ने पर मेरे साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर, भूखे-प्यासे रहकर तुम खेत में काम करने की शक्ति न रखती हो तो तुम मुझसे कह देना। अपने मन को दुखी मत करना। तब मैं तुम्हारी व्यवस्था कर दूँगा। लेकिन कहता हूँ यह सब ठीक न होगा। क्या तुम समझी मेरी रानी सोचोगी कि माँ-बाप ने क्या सोचकर ऐसे व्यक्ति से मेरा पल्ला बाँधा। मैं भी कहता हूँ यह तुम्हारा दुर्भाग्य ही है। तुम्हारा ही क्या, न जाने कितनी लड़कियाँ इस दुर्भाग्य का शिकार हो जाती हैं। तुम भी उन्हीं सें से एक हो लेकिन अब इस दुर्भाग्य को सौभाग्य में पलट सको तो क्या होगा
जानती हो ?
    शीला रानी 7-10 का टाइम है। तुम घर पहुँच गई होगी। बड़े प्रेम से आँखों में आँशू भर कर अपने गुरुजनों, परिजनों और मित्रजनों से मिल रही होगी। आँसुओं की दो बूंदे मेरे लिए भी बचा रखना । क्यों..
    और क्या लिखूँ ? तुम्हैं लिखना भी क्या समाप्त होगा उसकी सीमा मैंने नहीं देखी। परन्तु शीला-सेवा में जो शक्ति हो वह इस भावुकता में नहीं है। प्रेम प्रतिदान चाहता है नहीं मिलता है तो वह प्रतिशोध लेता है।  मित्रों के बीच में जब शंका पैदा हो जाती है तो वे सबे बड़े दुश्मन बन जाते हैं। मेरा मन अब उचट रहा है प्रिये लिख नहीं सकता। जीवन में पहली बार ही तो ऐसा पत्र लिखा है, इससे झिझक भी तो है, कहीं तुम कह न बैठो एक अपरिचित को ऐसा पत्र तुम कैसे लिख सके। शीला, क्या हम अपरिचित हैं? बताओगी प्रिये!
    मेरी रानी! मैं चाहता हूँ तुम्हें बिल्कुल भूल जाऊँ। समझूँ तुम बहुत बदसूरत, फूहड़ और शरारती लड़की हो। मेरा-तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं । लेकिन विद्रोह तो और भी आसक्ति पैदा करता है। तब क्या करूँ? मुझे डर लगता है। मुझे उबार लो नहीं तो पतन के उस खड्ड में जा गिरूँगा जहाँ किसी को मेरी किरच भी ढ़ूँढ़े न मिलेगी।
    शीला देवी! सुनना चाहती हो तो सुन लो, तुम मेरी हो, मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ… लेकिन नहीं, मैं बिल्कुल भी प्रेम करना
नहीं चाहता। यह पूरुष है चो नारी की अपूर्णता मिलाकर सम्पूर्ण बन जाना चाहता है। बोलो प्रिये
! क्या तुम उसे अपने नजदीक आने दोगी या ठुकरा दोगी।
    आज्ञा तो रानी मैं अब उठूँ। स्नान और भोजन की व्यवस्था करनी है। पानी आ गया है। भोजन के लिए भूख नहीं। बस ठीक है।
    कल तक कर्फ्यू आर्डर था परन्तु मैं 10 बजे से पहले ही घर आ गया था। स्टेशन पर मामाजी और एक दो फ्रेंड आ गए थे। यहाँ गरमी काफी है, हाथ पसीने से तर हैं पर तुम्हारा खत बचाने के लिए एक और कागज रख लिया है। सोचता हूँ कल की तरह पंखा लेकर तुम मेरे पास बैठी होती।
    सुशीला! तुम्हारी बहुत-सी बातें मुझे आश्चर्य में डालने वाली हैं। कभी-कभी तुम उतना संयम धारण करती हो कि बस हद है। कभी-कभी इतनी भोली जान पड़ती हो कि देवी के समान। कभी-कभी इतनी चंचल हो उठती हो कि मैं घबरा गया और कभी इतनी चतुर कि मैं तुमसे डरने लगा हूँ। शायद वैसे ही मैं कहता हूँ रानी! ये सब भावनाएँ हैं जो तुमसे मैं छिपाऊँगा नहीं पर इसका मतलब यह नहीं कि तुम डरो या रोओ। ऊँहूँ, केवल अपने को जानो। जिसने अपने को जाना उसने जग जाना।
    और रानी! उपदेश समझो या याचना; एक बात याद रखो अपने मत पर दृढ़ रहो और दूसरों के प्रति विनयी।
    अच्छा तुम्हारी जय बनी रहे रानी! भिखारी को दरवाजे से कोरा न लौटा देना। कुछ न दे सको तो दया-दृष्टि से देख-भर लेना जिससे उसकी सूखी हड्डियों में रक्तकण चमक आएँगे और आगे बढ़ सकेगा।
    मेरे पत्रों को फाड़ना मत। अच्छा, सबको नमस्ते कहना और सरलाजी से कहना कि जीजी की याद में इतना रोना ठीक नहीं। लो होल्डर की स्याही खत्म हुई। विदा, रानी। अनेक प्रेम-चुम्बनों के साथ विदा।
तुम
अगर बना सको तो तुम्हारा ही
विष्णु
और
भी
कैलाश
ने तुम्हें पुस्तक दी होगी। विवाह-सम्बन्धी सब बातें समझकर पढ़ लेना।
विष्णु

जिंदगी अगर दूसरा मौका दे तो (Second Chance in Life)

जिंदगी में सबकी अपनी अपनी तमन्नाएँ होती हैं पर बहुत ही कम लोग अपनी तमन्नाओं के अनुसार काम कर पाते हैं, सबको अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के लिये, अपने उत्तरादायित्व पूरे करने के लिये, अपने सपनों के अरमानों को कहीं अपने दिल में दफन करना पड़ते हैं, पर बीच बीच में कहीं न कहीं ये अपने सपने कहीं न कहीं झलक ही आते हैं, पूरा समय न पढ़ने में दे पाते हैं और न ही लिखने में, बहुत ही कम समय मिलता है पढ़ने और लिखने के लिये, पाँच दिन अपने ऑफिस में व्यस्त रहते हैं और बाकी के दो दिन परिवार के लिये।
अगर मुझे वो काम करने हों जो मैंने आगे के लिये छोड़ रखे हैं, क्योंकि मैं अभी वे काम नहीं कर पा रहा हूँ, वे इस प्रकार हैं –

जिंदगी अगर दूसरा मौका दे तो –

कविताएँ  कहानियाँ लिखूँ
किसी ने सही ही कहा है कि जितना पढ़ोगे उतना ही अच्छा लिखोगे, और उतना ही गहराई से सोच पाओगे, जिंदगी को सही मायने से समझ पाओगे, अपनी समझ को सुलझा पाओगे, लिखते तो हैं पर वह स्तर नहीं आता जो स्तर आना चाहिये, जिसे हम अच्छा कह पायें।
थियेटर करूँ
किसी जमाने में बहुत शौक था स्टेज थियेटर करने का, न दिन का ध्यान रहता था, न रात का, बस कभी डॉयलाग याद करता था तो कभी अपनी अभिनय निखारने के लिये पता नहीं क्या क्या तरीके अपनाता था, खासकर जब पेट से आवाज निकालने का अभ्यास करता था तो पेट पर जोर पड़ते ही मुझे दस्त लग जाते थे, अभिनय भी वह कला है जिसे निखारने के लिये बहुत मेहनत करना पड़ती है।
पर्सनल फाईनेंस के लिये सेमिनार करूँ
मेरे पास पर्सनल फाईनेंस से संबंधित बहुत सारी चीजें हैं जो कि बहुत से लोगों को नहीं पता है, यहाँ तक कि आयकर की धाराओं के तहत कितनी और कैसे बचत की जाये यह भी नहीं पता
है, कितना बीमा लेना चाहिये, लक्ष्य कैसे निर्धारित करें, मिलने वालों को तो फायदा मिलता ही है, पर चाहता हूँ कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को फायदा मिले।
This post is a part of the #SecondChance
activity at BlogAdda
in association with MaxLife Insurance
”.

विष्णु प्रभाकर की पंखहीन पढ़ते हुए कुछ भाव, मीरापुर, किताबों को शौक और डाकुओं के किस्से

    “पंखहीन” कल से शुरू की, विष्णु प्रभाकर के लिखे गये बचपन के किस्से खत्म ही नहीं होते कभी ये बाबा के किस्से कभी चाचा के तो कभी दादी के किस्से, बीच में डाकुओं के किस्से, और फिर ये सब किस्से बड़े परिवार के मध्य रहने के अनुभव हैं, उनकी लिखी गई भाषा और लिखा गया देशकाल से मैं बहुत अच्छी तरह से सुपरिचित हूँ, इसलिये भी मैं अपने आप को इन सभी किस्से कहानियों के मध्य ही पा रहा हूँ,    और फिर ये किस्से कहानी मीरापुर के हैं, जहाँ मेरी बुआजी ब्याही थीं और अब भी वहीं रहती हैं, क्योंकि विष्णु प्रभाकर जी का पूरा खानदान मीरापुर में ही रहता था, मीरापुर के बारे में बहुत सी बातों को जाना, वहाँ की प्रसिद्ध रामलीला के बारे में पहली बार जाना, रामराज्य, जानसठ के बारे में अधिक जाना, उनकी उत्पत्ति के बारे में जाना।

वहीं मीरापुर को महाभारतकाल से जोड़कर बताया गया है, और यह कौरव राज्य का भाग बताया गया है, मीरापुर के चारों और चार मंदिर और तालाब हैं, उनकी उत्पत्ति के बारे में बताया गया है, कैसे नाम बिगड़ जाते हैं, फिर भले ही वह जगह हो, मंदिर हो या इंसान हो।

उनके खानदान को “हकलों के खानदान” के नाम से जाना जाता था, वे बताते हैं कि उनके खानदान में उनकी पीढ़ी तक पिछली सात पुश्तों से कोई न कोई हकलाता था, तो उनके खानदान का नाम हकलों का खानदान हो गया। प्रभाकरजी ने अपने किताबों से प्रेम होने के बारे में बताया है कि उन्हें यह शौक घर से ही लगा, उनके पिताजी की चावल की दुकान थी और वे अपने ग्राहक से इतने प्रेम से बात करते थे कि ग्राहक कपड़ा, बर्तन सभी चीजें उनकी दुकान से ही खरीदना चाहते, तो वे खुद तो नहीं बेचते थे पर सब चीजों के दुकान पर ही बुलवा देते थे। चावल, तंबाकू के टोकरे के साथ ही एक टोकरा और होता था, वह था किताबों का टोकरा, जिसमें “चंद्रकान्ता”, “चंद्रकान्ता संतति”, “भूतनाथ” और “राधेश्याम की रामायण” जैसी अद्भुत किताबें होती थीं।

प्रभाकर जी कहते हैं कि इन किताबों से ही उन्होंने कल्पना के पंखों पर बैठ कर उड़ना सीखा। वे अपने पिताजी के पढ़ने के शौक के बारे में बताते हैं वह भी रोमांचक है, जब उनकी शादी हुई तो उन्हें पता लगा कि उनकी पत्नी पढ़ी-लिखी हैं, वे तब तक बहीखाते की भाषा ही जानते थे, तुरत पण्डित जी के पास पहुँचकर बोले मुझे सात दिनों में हिन्दी पढ़ानी होगी और उन्होंने हिन्दी सीख ली। फिर उनका निरंतर अध्ययन जारी रहा।

पढ़ने के बाद अपने पिताजी के स्वभाव को विश्लेषण कर प्रभाकरजी लिखते हैं कि इस अध्ययन और पूजापाठ ने उन्हें जहाँ कुछ मूल्य दिये, वहाँ उनके अन्तर के सहज स्नेह-स्रोत को सोख लिया । वे अवहेलना की सीमा तक तटस्थ हो गये।

आज इतना ही, सोचा था कि एक छोटा सा फेसबुक स्टेटस लिखूँगा, पर लिखने बैठा तो पूरी एक पोस्ट ही बन गई, इसी लिखने को ही तो शायद ब्लॉगिंग कहते होंगे ।

अश्विन सांघी एवं जेम्स पीटरसन कृत – प्राईवेट इंडिया ( Private India – Book Review)

    अश्विन सांघी की एक किताब हमने पहले पढ़ी थी, उसका नाम था चाणक्य चांट, चाणक्य चांट को अश्विन ने बड़े ही रोमांचकारी तरीके से लिखा था, तभी हमने सोचा था कि अब अश्विन सांघी का अगली किताब प्राईवेटइंडिया आने वाली थी, जरूर पढ़ेंगे। हम किताब का ऑर्डर करने ही वाले थे कि ब्लॉगअड्डा का बुक रिव्यू प्रोग्राम का एक ईमेल आ गया, जिसमें प्राईवेट इंडिया किताब ब्लॉगअड्डा की तरफ से भेजा जा रहा था और हमें प्राईवेट इंडिया का रिव्यू लिखने के लिये कहा गया था । किताब तो बहुत पहले ही मिल गई थी, अच्छी बात य़ह थी कि किताब पर लेखक अश्विन सांघी के हस्ताक्षर थे। बस हमें पढ़ने के समय नही मिल पाया, कभी निजी तो कभी व्यावसायिक कार्यों में व्यस्त ही रहे। पर आखिरकार हमने 447 पेज का यह रोमांचकारी उपन्यास कल पूरा पढ़ लिया।
    फ्रंटपेज जबरदस्त आकर्षण वाला बनाया गया है, जिसमें मुंबई की प्रसिद्ध जगहों को दर्शाया गया है, और काला कोट पहने, नीचे सफेद बनियान पहने व्यक्ति दौड़ता हुआ दर्शाया गया है, जिससे पता चलता है कि व्यक्ति बदहवास भाग रहा है और मुंबई में किसी सनसनीखेज वारदात के बारे में इंगित करता है। फ्रंटपेज का रंग संयोजन भी इस किताब को आकर्षक बनाता है और बड़े अक्षरों में किताब का नाम लिखा होना उसके विषय को ज्यादा गहराई से दर्शाता है।
 
    जिस तरह से पुलिस पर माफिया की पकड़ दिखाई गई है, जिस तरह माफिया व पुलिस के काम करने का तरीका दर्शाया गया है, वह अप्रितम है, पर इसका अंधकारमय पक्ष यह है कि इसमें कई जगह उपन्यास में कहानी की पकड़ खत्म होती दिखती है, कब कहाँ कैसे क्या घटित हो रहा है, वह पता ही नहीं चलता है, पर फिर भी कहानी के कुछ आगे बढ़ने पर घटनाओं के बारे में अंदाजा लगता है, लिखने का तरीका जबरदस्त है, कुछ जगहों पर तो जानकारियों का भंडार भी मिल जाता है।
किताब में बीच बीच में कई रहस्यों को गढ़ने की कोशिश की गई है, कई जगह रोचकता और साहस के शब्दों से उपन्यास को और भी पठनीय बनाने की कोशिश की गई है, पर बीच बीच में फ्लेशबैक वाली कहानी पाठक को उपन्यास से दूर ले जाती है, फिर भी अधिकतर उपन्यास अंतिम पंक्ति तक रोचक बना रहता है, पाठक की लेखन शैली जबरदस्त है और कभी कभी अंग्रेजी के उपन्यास पढ़ने के बावजूद मुझे पढ़ने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई, कुछ नये शब्द और जानकारी ने मेरे ज्ञान को बढ़ाया।

आगे आने वाले उपन्यासों को पढ़ने की जिज्ञासा बनी रहेगी ।
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दिव्य-नदी शिप्रा (Divine River Kshipra Ujjain)

    अपनी प्राचीनतम, पवित्रता एवं पापनाशकता आदि के कारण प्रसिद्ध उज्जयिनी की प्रमुख नदी शिप्रा सदा स्मरणीय है। यजुर्वेद में शिप्रे अवेः पयः पद के द्वारा इस नदी के स्मरण हुआ है। निरूक्त में शिप्रा कस्मात ? इस प्रश्न को उपस्थित करके उत्तर दिया गया है कि शिवेन पातितं यद रक्तं तत्प्रभवति, तस्मात। अर्थात शिप्रा क्यों कही जाती है इसका उत्तर था शिवजी के द्वारा जो रक्त गिराया वही यहाँ अपना प्रभाव दिखला रहा है नदी के रूप में बह रहा है, अतः यह शिप्रा है।
    शिप्रा और सिप्रा ये दोनों नाम अग्रिम ग्रन्थों में प्रयुक्त हुए हैं। इनकी व्युत्पत्तियाँ भी क्रमशः इस प्रकार प्रस्तुत हुई है – ‘शिवं प्रापयतीति शिप्रा और सिद्धिं प्राति पूरयतीत सिप्रा और कोशकारों ने सिप्रा को अर्थ करधनी भी किया। तदनुसार यह नदी उज्जयिनी के तीन ओर से बहने के कारण करधनीरूप मानकर भी सिप्रा नाम से मण्डित हुई। उन दोनों नामों को साथ इसे क्षिप्रा भी कहा जाता है। यह उसके जल प्रवाह की द्रुतगति से सम्बद्ध प्रतीत होता है। स्कन्दपुराण में शिप्रा नदी का बड़ा माहात्म्य बतलाया है। यथा
नास्ति वत्स ! महीपृष्ठे शिप्रायाः सदृशी नदी।
यस्यास्तीरे क्षणान्मुक्तिः कच्चिदासेवितेन वै।।
    हे वत्स ! इस भू-मण्डल पर शिप्रा के समान अन्य नदी नहीं है। क्योंकि जिसके तीर पर कुछ समय रहने से, तथा स्मरण, स्नानदानादि करने से ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
    वहीं शिप्रा का उत्पत्ति के सम्बन्ध में कथा भी वर्णित है, जिसमें कहा गया है कि विष्णु की अँगुली को शिव के द्वारा
काटने पर उसका रक्त गिरकर बहने से यह नदी के रूप में प्रवाहित हुई। इसीलिये विष्णु-देहात समुत्पन्ने शिप्रे
! त्वं पापनाशिनी इत्यादि पदों से शिप्रा की स्तुती की गई है। वहीं अन्य प्रसड़्ग से शिप्रा को गड़्गा भी कहा गया है। पञचगङ्गाओं में एक गङ्गा शिप्रा भी मान्य हुई है। अवन्तिका को विष्णु का पद कमल भी कहना नितान्त उचित है। कालिकापुराण में शिप्रा की उत्पत्ति – मेधातिथि द्वारा अपनी कन्या अरून्धती के विवाह-संस्कार के समय महर्षि वसिष्ठ को कन्यादान का सङ्कल्पार्पण करने के लिये शिप्रासर का जो जल लिया गया था, उसी के गिरने से शिप्रा नदी बह निकली बतलाई है। शिप्रा का अतिपुण्यमय क्षेत्र भी पुराणों में दिखाया है
    वर्तमान स्थिति के अनुसार शिप्रा का उद्गम म.प्र. के महू नगर से 11 मील दूर स्थित एक पहाड़ी से हुआ है और यह मालवा में 120 मील की यात्रा करती हुई चम्बल (चर्मण्वती) में मिल जाती है। इसका सङ्गम-स्थल आज सिपावरा  के नाम से जाना जाता है, जो कि सीतामऊ (जिला मन्दसौर) और आलोट के ठीक 10-10 मील के मध्य में है। वहाँ शिप्रा अपने प्रवाह की
विपुलता से चम्बल में मिलने की आतुरता और उल्लास को सहज ही प्रकट करती है।
    उज्जयिनी शिप्रा के उत्तरवाहिनी होने पर पूर्वीतट पर बसी है। यहीं ओखलेश्वर से मंगलनाथ तक पूर्ववाहिनी है। अतः सिद्धवट और त्रिवेणी में भी स्नान-दानादि करने का माहात्म्य है।

भाग–९ अपनी पहचान के लिये वेदाध्ययन (Study Veda for your own identity)

    भारतीय परम्परा में ज्ञान का मुख्यत: अभिप्राय है स्वयं को ही जानना-पहचानना और आत्मज्ञान ही है सर्वोच्च ज्ञान। ऋषि याज्ञवल्क्य अपने उपदेश पर आत्मज्ञान पर बल देते हैं।
आत्मा वा अरे द्रष्टव्य:
    अपनी आत्मा ही देखने योग्य है जो परमात्मा से भिन्न नहीं है और इस एक तत्व को जान लेने से सब कुछ स्वत: जाना गया हो जाता है।
तस्मिन विज्ञाते सर्वं विज्ञातं भवति
    (तस्मिन) उस एक परमतत्व के (विज्ञाते) जान लेने पर (सर्वं) सब कुछ (विज्ञातं) जाना गया (भवति) हो जाता है। कुछ भी जानने के लिये शेष नहीं रह जाता । इस तरह वेद अमरत्व का बोध कराते हैं। यही एकत्व का ज्ञान सभी को विद्वेषभावरहित बना कर स्नेहसूत्र में जोड़ने वाला है। सभी में सम्प्रीति सहयोग का भाव होगा और अपने-अपने कार्यों को करते हुए सभी सुखी रहेंगे।
    वैदिक ऋषियों का यह अध्यात्म-ज्ञान विश्व मानवता के कल्याण हेतु अनुपम महनीय योगदान है। इसीलिए समष्टिगत कल्याण हेतु सम्पूर्ण मानव समाज की रक्षा हेतु सभी के लिए वेदों का अध्ययन परमावश्यक है। इस दृष्टि से वेद आज और भी अधिक उपयोगी एवं प्रासंगिक हैं।

भाग-८ वेदाध्ययन में सभी का अधिकार (Learning Veda right for all)

    ऋषियों द्वारा साक्षात्कृत अनुपम ज्ञानराशि वेदों की उपयोगिता सार्वकालिक सार्वदेशिक सार्वजनीन है। ऋषियों ने बिना किसी भेद-भाव के समान रूप से वेदों का उपदेश सभी के लिए किया है। मानव मात्र का कल्याण करना समाष्टिहित ही उनका प्रयोजन था। एक ही परमात्मा की सन्तानें होने के कारण सभी मनुष्य मूलत: समान हैं। ऋषि का सुस्पष्ट कथन है –
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय
    (यथा) जिस प्रकार (मैं) (इमां कल्याणीं) इस कल्याण करने वाली (वाचं) वाणी को (जनेभ्य: ) मनुष्यों के लिये (आवदानि) बोलता हूँ उस वाणी को उसी प्रकार मैं (ब्रह्मराजन्याभ्यां) ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिये (च शूद्राय) और शुद्र के लिये ( च अर्याय) और श्रेष्ठ स्वामी वैश्य के लिये (च स्वाय) अपने स्थान पर रहने वाले गृहस्थ के लिये (च अरणाय) और भ्रमण करने वाले परिव्राजक संन्यासी के लिये भी कहता हूँ।

यहाँ पर ऋषि ने कल्याणकारी उपदेश समान रूप से सभी के लिये दिया है। मनुष्यों में जो वर्णभेद है वह कर्मों के कारण है। सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से है। इसलिए वेदों के अध्ययन में जाति-वर्णगत, लिंगगत कोई भेद नहीं है। इसका तो प्रत्यक्ष प्रमाण वागाम्भृणी, काक्षीवती घोषा, अपाला, गार्गी इत्यादि ऋषिकाएँ एवं ब्रहमवादिनियाँ हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के ऋषि रूप में इतरा दासी के पुत्र महिदास ऐतरेय प्रसिद्ध हैं। वेदों की यहा समन्वयात्मक दृष्टि सर्वथा अनुकरणीय एवं प्रेरणास्पद है।

भाग–७ वेदों में पर्यावरण चेतना (Environmental consciousness in Vedas)

    हमारे वैदिक ऋषि मनीषी पर्यावरण रक्षण के प्रति बहुत ही जागरूक सावधान रहे हैं। पर्यावरण रक्षण का अभिप्राय ही है स्वयं की रक्षा। अत: स्वकीय रक्षाहेतु यह पर्यावरण रक्षणीय है, इसी दृष्टि से उन्होंने प्रकृति की दैवतभाव से उपासना की। सहज रूप से कल्याणकारिणी वरदायिनी यह प्रकृति पूजा के योग्य है, इसको नियन्त्रित, वश में नहीं करना है, इसके सन्तुलन को बाधित नहीं करना है। उपासना से यह इच्छित फ़ल प्रदान करने वाली है।
 
एक ही परम तत्व सर्वत्र ओतप्रोत है – सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुष्श्च
    (जगत: ) जंगम-गमनशिल चेतन (च) और (तस्थुष: ) स्थावर अचेतन की (आत्मा सूर्य: ) आत्मा सूर्य है अर्थात सूर्यरूपी परमात्मा सभी चेतन और अचेतन पदार्थों में परिव्याप्त है, उससे बाहर कुछ भी नहीं है। सब कुछ परमात्मस्वरूप होने से केवल मनुष्यों की नहीं, अपितु पशु-पक्षियों, लता-वनस्पतियों सभी की रक्षा हो जाती है और एक सुखमय आह्लादमय रहने योग्य संसार बन जात्ता है। ऋषियों ने इसी दृष्टि से नदी, अश्मा, वनस्पतियों की भी दैवतभाव से प्रार्थना की है।
    भौतिक प्राकृतिक पर्यावरण रक्षण के साथ ही ऋषियों ने आन्तरिक पर्यावरण स्वच्छता पर, उदात्त जीवन मूल्यों के रक्षण पर बल दिया है और इस तरह वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण की विश्व व्यापी गम्भीर विषम समस्या का समाधान वेदों से प्राप्त हो जाता है –
‘अग्निमीळे पुरोहितम’
    (पुरोहितम अग्निम) पुरोहित अग्नि की (ईळे) में प्रार्थना करता हूँ।

वैदिक ऋषिक में यह अग्नि केवल पाचक दाहक प्रकाशक ही नहीं, अपितु यह सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी अग्रगामी नेतृत्व करने वाला सर्वाधिक रमणीय धनों को देने वाला है। अत:  जातवेदस वैश्वानर पुरोहित देव इत्यादि रूप में यह अग्नि प्रार्थनीय है।