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आचार्य चतुरसेन कृत “सोमनाथ” और मेरा दृष्टिकोण..

    आज आचार्य चतुरसेन कृत “सोमनाथ” उपन्यास खत्म हुआ, इस उपन्यास को पढ़ने के बाद कहीं ना कहीं मन और दिल आहत है, बैचेन है.. कैसे हमारे ही लोग जो कि केवल अपने कुछ स्वार्थों के लिये गद्दारी कर बैठे.. और आखिरकार जिन लोगों के लिये गद्दारी की गई, जिस वस्तु के लिये गद्दारी की गई.. वह भी उनसे दगा कर बैठी.. और जिन लोगों से गद्दारी की गई.. उन लोगों ने उन्हें छोड़ा भी नहीं..

    किसी ने जाति के नाम पर .. किसी ने स्त्री के प्रेम में .. किसी ने गद्दी के लिये .. किसी ने अपने स्वार्थ के लिये .. किसी ने अपने अपमान के बदले के लिये .. अपने ही देव अपने ही धर्म को कलुषित किया .. और दूसरे धर्म ने कुफ़्र और काफ़िर कहकर .. अनुचित ही धर्मों को और उसकी संस्कृतियों को तबाह किया..

    छोटी छोटी रियासतों में आपस की दुश्मनी ने गजनी के महमूद को सोमनाथ पर चढ़ाई के दौरान बहुत मदद की.. छोटे और बड़े साम्राज्यों ने अपनी आन बान और शान बचाने के लिये जिस तरह से गजनी के महमूद के आगे समर्पण कर दिया.. वह भारत के लिये इतिहास का काला पन्ना है.. और जिन्होंने अपने प्राण न्यौछावार कर .. मरते दम तक अपनी मातृभूमि की रक्षा की.. उन्होंने अपना नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अमिट स्यासी से लिखवा लिया है..

    पुरातनकाल में जब राजाओं का शासन होता था.. तब की कूटनीति और राजनीतिक चालों में बहुत ही दम होता था.. जितने भी कूटनीतिज्ञ और राजनीतिक अभी तक मैंने इतिहास की किताबों में पढ़े हैं.. वे आज की दुनिया में देखने को नहीं मिलते हैं.. इसका मुख्य कारण जो इतिहास से समझ में आता है वह है ब्राह्मणों का उचित सम्मान और वैदिक अध्ययन को समुचित सहयोग ।

    सोमनाथ में चौहान, परमार, सोलंकी, गुर्जर आदि राजाओं का वर्णन जिस शूरवीरता से किया गया है, उससे क्षत्रियों के लिये हम नतमस्तक हैं.. परंतु वहीं जहाँ इन राजाओं के शौर्य और पराक्रम को देखने को मिलता है .. वहीं इनमें से ही कुछ लोगों द्वारा पीठ में छुरा घोंपने का भी काम किया..

    सोमनाथ पर आक्रमण और सोमनाथ को ध्वस्त करने के बाद जिस तरह से प्रजा को गुलाम बनाकर उनपर अत्याचार किये गये.. और शब्दचित्र रचा गया है.. बहुत ही मार्मिक है.. हरेक बात पर महमूद को कर चाहिये होता था.. क्योंकि वह भारत में शासन करने के उद्देश्य से नहीं आया था .. वह आया था केवल भारत को लूटने के लिये.. धार्मिक स्थलों को ध्वस्त करने के लिये और इस्लामिक साम्राज्य को स्थापित करने के लिये..

    गजनी का महमूद भले ही कितना भी शौर्यवान और पराक्रमी रहा हो.. परंतु यहाँ पर आचार्य चतुरसेन ने महमूद की कहानी को जो अंत किया है वह थोड़ा बैचेन कर देता है.. परंतु यह भी पता नहीं कि वाकई इस गजनी के महमूद का सत्य कभी सामने आ पायेगा ।

सोमनाथ का एक वृत्तांत आज के परिप्रेक्ष्य में.. यदि कोई आततायी देव की अवज्ञा करेगा तो भारत उसे कभी सहन न करेगा

गंग सर्वज्ञ ने हँस कर कहा, “कुमार, यदि गजनी का सुलतान सोमपट्टन पर अभियान करे तो गुजरात का गौरव भंग होगा, यह तुम प्रथम ही से कैसे कहने लगे?  यदि वह अभियान करे तो गुजरात का गौरव बढ़े क्यों नहीं?”

भीमदेव लज्जित हुए। उन्होंने कहा, “गुरूदेव, सोलह बार इस दैत्य ने तीस बरस से भारत को अपने घोड़ों की टापों से रौंदा है। हर बार इसने भारत को तलवार और आग की भेंट किया है”।”

“तो इसमें क्या इसी अमीर का दोष है कुमार, तुम्हारा, देशवासियों का कुछ भी दोष नहीं है? कैसे एक आततायी इतनी दूर से दुर्गम राह पार करके, धन-जन से परिपूर्ण, शूरवीर राजाओं और क्षत्रियों से सम्पन्न भारत को सफ़लतापूर्वक आक्रान्त करता है, धर्मस्थलों को लूट ले जाता है, देश के लाखों मनुष्यों को गुलाम बनाकर बेचता है, परन्तु देश के लाखों-करोड़ों मनुष्य कुछ भी प्रतीकार नहीं कर पाते। तुम कहते हो, तीस बरस से यह सफ़ल आक्रमण कर रहा है। उसके सोलह आक्रमण सफ़ल हुए हैं। फ़िर सत्रहवाँ भी क्यों न सफ़ल होगा, यही तो तुम्हारा कहना है? तुम्हें भय है कि इस बार वह सोमपट्टन को आक्रान्त करेगा। फ़िर भी भय है कि यदि वह ऐसा करेगा तो गुजरात का गौरव भ्ग होगा। तुम्हारे इस भय का कारण क्या है? क्या अमीर का शौर्य? नहीं, तुम्हारे भय का कारण तुम्हारे ही मन का चोर है। तुम्हें अपने शौर्य और साहस पर विश्वास नहीं। कहो तो, इसका गजनी यहां से कितनी दूर है?  राह में कितने नद, वन, पर्वत और दुर्गम स्थल हैं? सूखे मरूस्थल हैं, जहाँ प्राणी एक-एक बूँद जल के बिना प्राण त्यागता है। ऐसे विकट वन भी हैं, जहाँ मनुष्य को राह नहीं मिलती। फ़िर उस देश से यहाँ तक कितने राज्य हैं? मुलतान है, मरूस्थल के राजा हैं। सपादलक्ष के, नान्दोल के चौहान, झालौर के परमार, अवन्ती के भोज, अर्बुद के ढुण्ढिराज हैं। फ़िर पट्ट्न के सोलंकी हैं। इनके साथ लक्ष-लक्ष, कोटि-कोटि प्रजा है, जन-बल है, अथाह सम्पदा है, इनका अपना घर है, अपना देश है। फ़िर भी यह आततायी विदेशी, इन सबके सिरों पर लात मार कर, सबको आक्रान्त करके, देश के दुर्गम स्थानों को चीरता हुआ, राज्यों के विध्वंस करता हुआ, इस अति सुरक्षित समुद्र-तट पर सोम-तीर्थ को आक्रान्त करने में सफ़ल हो-तो कुमार, यह उसका दोष नहीं, उसका विक्रम है-उसका शौर्य है। दोष यदि कहीं है तो तुममें है।”

देव तो भावना के देव हैं। साधारण पत्थर में जब कोटि-कोटि जन श्रद्धा, भक्ति और चैतन्य सत्ता आवेशित करते हैं तो वह जाग्रत देव बनता है। वह एक कोटि-कोटि जनों की जीवनी-सत्ता का केन्द्र है। कोटि-कोटि जनों की शक्ति का पुंज है। कोटि-कोटि जनों की समष्टि है। इसी से, कोटि-कोटिजन उससे रक्षित हैं। परन्तु कुमार, देव को समर्थ करने के लिए उसमॆं प्राण-प्रतिष्ठा करनी पड़ती है। वह कोरे मन्त्रों द्वारा नहीं, यथार्थ में । यदि देव के प्रति सब जन, अपनी सत्ता, सामर्थ्य और शक्ति समर्पित करें, तो सत्ता, शक्ति और सामर्थ्य का वह संगठित रूप देव में विराट पुरूष के रूप का उदय करता है। फ़िर ऐसे-ऐसे एक नहीं, सौ गजनी के सुलतान आवें तो क्या? जैसे पर्वत की सुदृढ़ चट्टानों से टकरा कर समुद्र की लहरें लौट जाती हैं, उसी प्रकार उस शक्ति-पुंज से टकराकर, खण्डित शक्तियाँ चूर-चूर हो जाती हैं…

“थानेश्वर, मथुरा और नगरकोट का पतन कैसे हुआ, इस पर तो विचार करो। महमूद तुम पर आक्रमण नहीं करता, राज्यों का उसे लोभ नहीं है। वह तो देव-भंजन करता है। कोटि-कोटि जनों के उसे अविश्वास और पाखण्ड को खण्डित करता है, जिसे वे श्रद्धा और भक्ति कहकर प्रदर्शित करते हैं। वह भारत की दुर्बलता को समझ गया है। यहाँ धर्म मनुष्य-जीवन में ओत-प्रोत नहीं है। वह तो उसके कायर, पतित और स्वार्थमय जीवन में ऊपर का मुलम्मा है। नहीं तो देखो, कैसे वह एक कुरान के नाम पर प्रतिवर्ष लाखों योद्धाओं को बराबर जुटा लेता है। कुरान के प्रति उनकी श्रद्धा, उसमें और उसके प्रत्येक साधारण सिपाही में मुलम्मे की श्रद्धा नहीं है, निष्ठा की श्रद्धा है..

“इसी से कुमार, मेरी दृष्टि में वह उस आशीर्वाद ही का पात्र है, जो मैंने उसे दिया.. और प्राणि-मात्र को अभयदान तो भगवान सोमनाथ के इस आवास का आचार है, मैं उस आचार का अधिष्ठाता हूँ, यह भी तो देखो!”

“परन्तु गुरूदेव, शत्रु-दलन की शक्ति क्या देवता में नहीं है?”

“कुमार! यदि राजा के मन्त्री, सेना तथा प्रजा अनुशासित न हों, सहयोग न दें, तो राजा की शक्ति कहाँ रही? राजा की शक्ति उसके शरीर में नहीं है। शरीर से तो वह एक साधारण मनुष्य-मात्र है। उस राजा के शरीर को नहीं, उसके र्र्जत्व की भावना को अंगीकार करके जब सेना और मन्त्री दोनों का बल उससे संयुक्त होता है, तब वह महत्कृत्य करता है। इसी भाँति पुत्र, देवता अपने-आप में तो एक पत्थर का टुकड़ा ही है, उसकी सारी सामर्थ्य तो उसके पूजकों में है। वे यदि वास्तव में अपनी सामर्थ्य समष्टिरूप में देवार्पण करते हैं, तो वे देवत्व का उत्कर्ष होता है। वास्तव में भक्त की सामर्थ्य का समष्टि-रूप ही देव का सामर्थ्य है।”

बहुत देर तक कुमार भीमदेव गंग सर्वज्ञ की इस ज्ञान गरिमा को समझते रहे। फ़िर बोले, “तो देव, गजनी का सुलतान यदि सोमपट्टन को आक्रान्त करे तो हमारा क्या कर्तव्य है?”

“जिस अमोघ सामर्थ्य की भावना से तुम देवता से अपनी रक्षा चाहते हो, उसी अमोघ सामर्थ्य से देव-रक्षण करना”।

“परन्तु वह अमोघ सामर्थ्य क्या मनुष्य में है?”

“और नहीं तो कहाँ है? बेटे! मनुष्य का जो व्यक्तित्व है वह तो बिखरा हुआ है, उसमें सामर्थ्य का एक क्षण है। अब, जब मनुष्य का समाज एकीभूत होकर अपनी सामर्थ्य को संगठित कर लेता है, और वह उसका उपयोग स्वार्थ में नहीं, प्रत्युत कर्तव्य-पालन में लगाता है, तो यह सामर्थ्य-समष्टि मनुष्य की सामर्थ्य होने पर भी देवता की सामर्थ्य हो जाती है। इसी से देव-रक्षण होगा।”

“परन्तु यदि लोग उपेक्षा करें, अपने-अपने स्वार्थ में रत रहें”?”

“तो देवता की सामर्थ्य भंग होती, तब प्रथम देवता अन्तर्धान होगा, फ़िर देव-अरक्षित कोटि-कोटि जन दु:ख-ताप से पीड़ित हो दु:ख भोगेंगे। जनपद-ध्वंस होगा।”

“तब प्रभु, मुझ अज्ञानी को आप यह आदेश दीजिए कि मैं क्या करूं। आज मैं आपके चरणों में प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि यह दुर्दान्त भारत-विजेता भगवान सोमनाथ को आक्रान्त करेगा तो मैं इसी तलवार से उसके दो टुकड़े कर दूँगा।”

“पुत्र! इस ‘मैं’ शब्द को निकाल दो। इससे ही ‘अहं-तत्व’ उत्पन्न होता है। कल्पना करो, कि तुम्हारी भाँति ही दूसरे भी इस “मैं” का प्रयोग करेंगे, तो प्रतिस्पर्धा और भिन्नता का बीज उदय होगा। सामर्थ्य का समष्टि-रूप नहीं बनेगा।”

“तो भगवन! हम कैसे कहें—?”

“ऐसे कहो पुत्र, कि यदि कोई आततायी देव की अवज्ञा करेगा तो भारत उसे कभी सहन न करेगा।”

संगीत विज्ञान के बारे में …

    संसार मे संगीत विज्ञान की सबसे पहली जानकारी सामवेद में उपलब्ध है। भारत में संगीत, चित्रकला एवं नाट्यकला को दैवी कलाएँ माना जाता है। अनादि-अनंत त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और शिव आद्य संगीतकार थे। शास्त्र-पुराणों में वर्णन है कि शिव ने अपने नटराज या विराट-नर्तक के रूप में ब्रह्माण्ड की सृष्टि, स्थिति और लय की प्रक्रिया के नृत्य में लय के अनंत प्रकारों को जन्म दिया। ब्रह्मा और विष्णु करताल और मृदंग पर ताल पकड़े हुए थे।

    विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती को सभी तार-वाद्यों की जननी वीणा को बजाते हुए दिखाया गया है। हिंदू चित्रकला में विष्णु के एक अवतार कृष्ण को बंसी-बजैया के रूप में चित्रित किया गया है; उस बंसी पर वे माया में भटकती आत्माओं को अपने सच्चे घर को लौट आने का बुलावा देने वाली धुन बजाते रहते हैं।

    राग-रागिनियाँ या सुनिश्चित स्वरक्रम हिन्दू संगीत की आधाराशिलाएँ हैं। छह मूल रागों की १२६ शाखाएँ-उपशाखाएँ हैं जिन्हें रागिनियाँ (पत्नियाँ) और पुत्र कहते हैं। हर राग के कम-से-कम पाँच स्वर होते हैं: एक मुख्य स्वर (वादी या राजा), एक आनुषंगिक स्वर (संवादी या प्रधानमंत्री), दो या अधिक सहायक स्वर (अनुवादी या सेवक), और एक अनमेल स्वर (विवादी या शत्रु)।

    छह रागों में से हर एक राग की दिन के विशिष्ट समय और वर्ष की विशिष्ट ॠतु के साथ प्राकृतिक अनुरूपता है और हर राग का एक अधिष्ठाता देवता है जो उसे विशिष्ट शक्ति और प्रभाव प्रदान करता है। इस प्रकार (१) हिंडोल राग को केवल वसन्त ऋतु में उषाकाल में सुना जाता है, इससे सर्वव्यापक प्रेम का भाव जागता है; (२) दीपक राग को ग्रीष्म ऋतु में सांध्य बेला में गाया जाता है, इससे अनुकम्पा या दया का भाव जागता है; (३) मेघ राग वर्षा ऋतु में मध्याह्न काल के लिये है, इससे साहस जागता है; (४) भैरव राग अगस्त, सितंबर, अक्तूबर महीनों के प्रात:काल में गाया जाता है, इससे शान्ति उत्पन्न होती है; (५) श्री राग शरद ऋतु की गोधुली बेला में गाया जाता है, इससे विशुद्ध प्रेम का भाव मन पर छा जाता है; (६) मालकौंस राग शीत ऋतु की मध्यरात्रि में गाया जाता है; इससे वीरता का संचार होता है।

ज्ञान, क्रोध और ईश्वर ….. योगी कथामृत .

ज्ञान –

“छोटे योगी, मैं देख रहा हूँ कि तुम अपने गुरु से दूर भाग रहे हो। उनके पास वह सब कुछ है जिसकी तुम्हें आवश्यकता है; तुम्हें उनके पास लौट जाना चाहिये।” आगे उन्होंने कहा, “पर्वत तुम्हारे गुरु नहीं बन सकते” – दो दिन पहले श्रीयुक्तेश्वरजी द्वारा प्रकट किया गया वही विचार।

“सिद्ध जन केवल पर्वतों में ही निवास करें, ऐसा कोई विधि का विधान नहीं है।” मेरी ओर रहस्यपूर्ण दृष्टि से देखते हुए वे कहते जा रहे थे : “भारत और तिब्बत के हिमालय शिखरों का सन्तों पर कोई एकाधिकार नहीं है। जिसे अपने अन्दर पाने का कष्ट न किया जाय, उसे शरीर को यहाँ -वहाँ ले जाने से प्राप्त नहीं किया जा सकता। जैसे ही साधक आध्यात्मिक ज्ञानलाभ के लिये विश्व के अंतिम छोर तक भी जाने को तैयार हो जाता है, उसक गुरु उसके पास ही प्रकट हो जाता है।”

मन ही मन मैं इस बात से सहमत हो गया।

“क्या तुम एक ऐसे छोटे-से कमरे की अपने लिये व्यवस्था कर सकते हो जिसका दरवाजा बंद कर तुम अन्दर एकान्त में रह सको ?”

“जी, हाँ ।” मेरे मन में यह विचार उभर आया कि ये सन्तवर इतनी विलक्षण गति से सामान्य स्तर की बातों से व्यक्तिगत स्तर पर उतर आते हैं।

“तो वही तुम्हारी गुफ़ा है।” योगिराज ने ज्ञान जगा देने वाली एक ऐसी दृष्टि मुझ पर डाली कि मैं उसे आज तक नहीं भूल पाया। “वही तुम्हारा पावन पर्वत है। वहीं तुम्हें ईश्वर की प्राप्ति होगी।”

उनके इन सरल शब्दों ने हिमालय के लिये मेरे मन में बैठी तीव्र आसक्ति एक पल में समाप्त कर दी। धान के एक दाहक खेत में मैं पर्वतों और अनंत बर्फ़ के स्वप्न से जाग गया।

क्रोध –

क्रोध केवल इच्छा के अवरोध से उत्पन्न होता है। मैं कभी दूसरों से कोई उपेक्षा नहीं रखता, इसलिये उनका कोई भी कार्य मेरी इच्छाओं के विपरीत नहीं हो सकता। मैं अपने किसी स्वार्थ के लिये तुम्हारा उपयोग कई नहीं करता; मैं तो केवल तुम्हारे सच्चे सुख में ही खुश हूँ।”

ईश्वर –

“इहलौकिक सुखों से हम कितनी जल्दी ऊब जाते हैं  ! भौतिक सुखों की कामनाओं का अन्त नहीं है; मनुष्य कभी पूर्ण तृप्त नहीं होता और एक के बाद दूसरे लक्ष्य के पीछे दौड़ता ही रहता है। सुख के लिये वह जिस “कुछ और” की खोज करता रहता है वह ’कुछ और’ ईश्वर ही है और केवल वही शाश्वत आनन्द प्रदान कर सकता है।

“बाह्य इच्छाएँ हमें अभ्यनतर के ’स्वर्ग’ से बाहर खींच लाती हैं; वे मिथ्या आनन्द देती हैं जो आत्मिक आनन्द का छद्म आभास मात्र है। खोया हुआ आनतरिक स्वर्ग दिव्य ध्यान के द्वारा शिघ्र ही पुन: प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर अकल्पित नित्य-नूतनता है, अत: हम कभी उससे ऊब नहीं सकते। परमानन्द अनन्त काल तक सदा के लिये आह्लादक विविधताओं से भरा हो उससे क्या कभी किसी का मन भर सकता है ?”

“अब समझ में आया गुरुदेव, कि सन्तों ने ईश्वर को अगाध क्यों कहा है। अमर जीवन भी ईश्वर को समझने के लिये पर्याप्त नहीं है।”

सुन्दरकाण्ड से कुछ चौपाईयाँ.. (Sundarkand)

सुन्दरकाण्ड से कुछ चौपाईयाँ..

दो० – कपि के ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।

तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाई॥ २४ ॥

मैं सबको समझाकर कहता हूँ कि बंदर की ममता पूँछ पर होती है। अत: तेल में कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पूँछ में बाँधकर फ़िर आग लगा दो॥ २४ ॥

पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥

जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई। देखउँ मैं तिन्ह के प्रभुताई॥ १ ॥

जब बिना पूँछका यह बंदर वहाँ (अपने स्वामी के पास) जायेगा, तब यह मूर्ख अपने मालिक को साथ ले आयेगा। जिनकी इसने बहुत बड़ाई की है, मैं जरा उनकी प्रभुता (सामर्थ्य) तो देखूँ ॥ १ ॥

बचन सुनत कपि मन मुसकाना। भै सहाय सारद मैं जाना ॥

जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥ २ ॥

यह वचन सुनते ही हनुमानजी मनमें मुसकराये [और मन ही मन बोले कि ] मैं जान गया, सरस्वतीजी [इसे ऐसी बुद्धि देने में] सहायक हुई हैं। रावण के वचन सुनकर मूर्ख राक्षस वहीं (पूँछ में आग लगाने की) तैयारी करने लगे।

रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥

कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥ ३ ॥

[पूँछ के लपेटने में इतना कपड़ा और घी-तेल लगा कि] नगर में कपड़ा, घी और तेल नहीं रह गया। हनुमानजी ने ऐसा खेल किया कि पूँछ बढ़ गयी (लम्बी हो  गयी) । नगरवासी लोग तमाशा देखने आये। वे हनुमानजी को पैर से ठोकर मारते हैं और उनकी बहुत हँसी करते हैं ॥ ३ ॥

बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फ़ेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥

पावक जरत देखि हनुमंता। भयौ परम लघुरुप तुरंता॥ ४ ॥

ढोल बजते हैं, सब लोग तालियाँ पीटते हैं। हनुमानजी को नगर में फ़िराकर, फ़िर पूँछ में आग लगा दी। अग्नि को जलते हुए देखकर हनुमानजी को तुरंत ही बहुत छोटे रुप में हो गये ॥ ४ ॥

निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं। भईं सभीत निसाचर नारीं ॥ ५ ॥

बन्धन से निकलर वे सोने की अटारियों पर चढ़े। उनको देखकर राक्षसों की स्त्रियाँ भयभीत हो गयीं।। ५ ॥

एक कहानी “दूध की बोतल” जिसने मुझे हिला दिया.. बोधिपुस्तक पर्व

    बोधिपुस्तक पर्व की एक कहानी की पुस्तक, नाम है “गुडनाईट इंडिया” और लेखक हैं प्रमोद कुमार शर्मा, इसमें लेखक ने एक से एक बढ़कर कहानियाँ दी हैं, जो कि भारत के सामाजिक तानेबाने की गहन तस्वीरें दिखाती हैं, अमूमन तो पढ़ने का समय मिल नहीं पाता, परंतु रोज घर से कार्यस्थल आते समय बस में मिलने वाला समय अब पढ़ने में लगाते हैं, पहले सोचा था कि पतली सी किताब है जल्दी ही खत्म हो जायेगी, परंतु एक कहानी के बाद दूसरी कहानी में जाना सरल नहीं, उस कहानी के मनोभाव में डूबकर नयी कहानी के मनोभावों में जाना बहुत ही कठिन प्रतीत होता है, कल यह कहानी पढ़ी थी कहने को तो छोटी कहानी है। लेखक ने अपने पात्रों को सुघड़ और सामाजिक परिवेश में रचा बसा है कि ऐसा लगता ही नहीं कि यह मुझसे दूर कहीं ओर की कहानी है।
    “दूध की बोतल” जैसा कि कहानी के नाम से ही प्रतीत होता है, कि यह कहानी दूध की बोतल पर लिखी गई है, इसमें एक छोटा सा परिवार पात्र है जो कि ग्राम्य परिवेश में रहता है और घर में बच्ची होने के बाद अपनी कुलदेवी को धोक देने कुलदेवी के स्थान जा रहा है। परिवार में माता पिता पुत्र बहू और छोटी सी पोती जो कि कुछ ही माह की है, बड़ी मुश्किल से पोती हुई है उसके लिये जातरा बोली थी, इसलिये वो कुलदेवी के स्थान जा रहे हैं।
    परिवार मध्यमवर्गीय है, पर बहू भारत की आधुनिक विचारों वाली नारी है जो कि अच्छे और बुरे का अंतर अपने हिसाब से करती है, शादी के कुछ दिन बाद ही उसके पैर भारी हो जाते हैं, तो वह अपने पति से कहती है कि वह बच्चे को दूध नहीं पिलायेगी, बच्चे को ऊपर का दूध दूँगी। नहीं तो मेरी छातियाँ लटक जायेंगी, पति उसे बहुत समझाने की कोशिश करता है कि बच्चे के लिये तो माँ का दूध अमृत समान होता है और माँ को दूध पिलाने पर अद्भुत संतोष मिलता है, परंतु वह अपने आधुनिक विचारों में पढ़े लिखे होने और अपनी परवरिश का हवाला देकर बिल्कुल जिद पकड़ लेती है, पति भी अपनी आधुनिक युग की सोच वाली पत्नी को मना नहीं पाता।
    बच्चा मुश्किल से होता है, जच्चा और बच्चा दोनों स्वस्थ हैं, पर माँ को दूध ही नहीं उतरता। कुलदेवी की जातरा जाने के लिये पिताजी ने जीप कर ली है, और चल पड़े हैं कुलदेवी को धोक देने के लिये, बीच में बच्ची रोती है तो पिताजी कहते हैं कि बेटा जरा पोती को दूध पिला दो, तो बेटा थैलों में बोतल ढूँढ़ता है पर बोतल नहीं मिली, वह कहता है कि बोतल तो घर पर ही छूट गई, तो ड्राईवर कहता है कि कुलदेवी के स्थान पहुँचने में और १ घंटा लगेगा, वहाँ कटोरी चम्मच से दूध पिला देना। पिताजी कहते हैं कि बच्ची भूख से बेहाल है और गरमी भी इतनी हो रही है, थोड़ा पानी ही पिला दो, थोड़ा पानी पिलाने के बाद बच्ची चुप हो जाती है, रास्ता खराब है, पर थोड़ी देर के बाद ही हाईवे आ जाता है, थोड़ी आगे जाने के बाद ही जीप खराब हो जाती है, और ड्राईवर और बेटा पास के गाँव में पार्ट लेकर ठीक करवाने जाते हैं। पीछे बच्ची की हालत भूख और गर्मी के मारे खराब होती जा रही थी, पर वह मन ही मन अपने को दिलासा भी देती जा रही थी कि अरे मरेगी थोड़े ही.. (माँ ऐसा भी सोच सकती है !!) तभी उसकी ममता जाग उठती है और वह जोर से अपनी छाती से बच्ची को लगा लेती है, तो उसे अचानक महसूस होता है कि उसकी छातियों में दूध उतर आया है, वह पिलाने ही जा रही होती है कि तभी उसके मन में विचार आया कि “क्या कर रही है, अभी जो बच्ची को दूध पिला दिया तो रोज की आफ़त हो जायेगी”, बच्ची रोते रोते सो गई।
    डेढ़ घंटे बाद ड्राईवर बेटे के साथ आ गया तो बोला कि बड़ी मुश्किल से बोतल मिली है, लो निपल लगाओ बच्ची के मुँह में, पर बच्ची निपल मुँह में नहीं ले रही, जबरदस्ती मुँह में निपल को ठूँसा तो देखा कि धार मुँह से बाहर निकलने लगी, पिताजी जोर से चिल्लाये कि “अरे बच्ची ठीक तो है !! देखो दूध क्यों नहीं पी रही”, अन्तत: ड्राईवर बोला “साहब वापस चलते हैं, बच्ची अब नहीं रही।” ड्राईवर की बात सुनते ही बहू चीख मारकर बेहोश हो गई। पूरा परिवार शोकाकुल हो गया, केवल ड्राईवर ही होश में था और उसे पूरा विश्वास था कि वह दुख की इस घड़ी में परिवार की मदद कर सकेगा।
संवाद जो बहुत दिन बाद पढ़े –
“प्रविसे नगर कीजै सब काजा, ह्रदय राखी कौसलपुर राजा…।”
“देखो… मैं अपने पापा के यहाँ स्वतंत्र विचारों से पली-बढ़ी हूँ। मुझे ये दकियानूसी तरीके ठीक नहीं लगते।”
    इस कहानी को पढ़ने के बाद मुझे भी अवसाद ने जकड़ लिया, और उसके बाद कुछ भी सोचने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी, लेखक ने अपने पात्रों के साथ बराबर न्याय किया और पाठक तक बात पहुँचाने में सक्षम भी रहा। लेखक ने अवसाद को अपनी कलम से खूब लिखा है। मैंने घर पहुँचकर अपनी घरवाली को बोला कि आज एक कहानी पढ़ी थी तो उसके बाद से मुझे अवसाद ने घेर लिया, और जैसे ही मैंने कहानी का नाम लिया “दूध की बोतल”, तो बोली हाँ मैंने भी पढ़ी थी और उस कहानी के बाद उसके आगे की कहानियाँ पढ़ने की हिम्मत ही नहीं हुई, और अभी तक कोई किताब पढ़ भी नहीं पाई। लेखक के लेखन से मैं मुग्ध हूँ।
    आप भी ये किताबें मँगा सकते हैं, मात्र १०० रुपये में बोधिपुस्तक पर्व की किताबें उपलब्ध हैं, जिसमें हिन्दी की १० किताबें हैं। सब एक से बढ़कर एक।
१०० रुपये का मनीऑर्डर भेजने पर वे घर पर भेज देते हैं –
पता – बोधि प्रकाशन, एफ़- ७७, सेक्टर ९, रोड नं ११, करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम ,जयपुर, – ३०२००६
दूरभाष – 0141 – 2503989, 98290-18087

बफ़ेट के दस निवेश सिद्धांत (10 Basic Fundamentals of Buffett)

    हम में से अधिकतर लोगों के लिये शेयर बाजार भूलभुलैया ही है। ७००० से भी ज्यादा शेयरों में से कौन से शेयर में निवेश करें जो कि फ़ायदा दें… और कैसे शेयर बाजार में निवेश करके पैसा कमाया जाये ? कौन सा शेयर खरीदें ? किसकी राय मानें ? कौन सी कूटनीति का अनुसरण करें ?

    अगर आप ऐसे निवेशक हैं जो कि शेयर ब्रोकर, सेन्सेक्स क्रेश, म्यूचयल फ़ंड्स, डे ट्रेडिंग, बाजार की टाइमिंग, मरे हुए शॆयर (Penny Stocks), ऑप्शन्स, हाईटेक, तेजी से बड़्ने वाली कंपनियों के कारण अपना धन गँवा चुके हैं, तो आपको वारेन बफ़ेट के निवेश सिद्धांत और पद्धति के बारे में जरुर जानना चाहिये।

    बफ़ेट ने निवेश में अपने सिद्धांतो पर अड़िग रहकर बीज से विशाल पेड़ बनाया। आप भी एक अच्छे निवेशक बन सकते हैं और लंबी अवधि में शेयर बाजार से धन कमा सकते हैं, लेकिन केवल तभी जब आप उनके मूल सिद्धांतों और उनके अनुशासन, धैर्य और मानसिक अवस्था को अपनायें।

    वारेन बफ़ेट को एक सेंट भी अपने परिवार से नहीं मिली। आज केवल अपने खुद के निवेश के दम पर वे अरबों डालरों के मालिक हैं। पर कभी भी किसी भी बिजनेस स्कूल में बफ़ेट के बारे में, उनके निवेश सिद्धांतो के बारे में न ही पढ़ाया गया और न ही इस बारे में बताया गया है। या यह भी कह सकते हैं कि महानतम निवेशक को शैक्षणिक विश्व ने उपेक्षित किया है।

    मुझे उम्मीद है कि आप बफ़ेट के निवेश के उदाहरणों की उपेक्षा नहीं करेंगे। मुझे लगता है कि आप लोग उनके सिद्धातों और पद्धति के बारे में सोचेंगे और अपनाने का प्रयत्न करेंगे। खासकर कि जब आपका निवेश में पुराना अनुभव अच्छा नहीं रहा हो।

    बफ़ेट के निवेश सिद्धांत में सबसे महत्वपूर्ण है कि निवेश में लंबे समय तक बने रहें। इन सिद्धांतो में हैं –

  1. जटिलता से ज्यादा सरलता को प्राथमिकता देना।
  2. धैर्य
  3. उचित मानसिक अवस्था
  4. स्वतंत्र सोच
  5. बड़ी घटनाएँ जो व्याकुल करती हैं उन पर ध्यान न देना।
  6. गैर विविधीकरण की सहजज्ञान युक्त रणनीति
  7. निष्क्रियता, ज्यादा सक्रिय नहीं
  8. शेयरों को खरीदना, और फ़िर जिंदगीभर के लिये अपने पास रखना
  9. व्यापार के परिणाम और मूल्य पर ध्यान केंद्रित करना, ना कि शॆयर के दाम पर
  10. आक्रामक अवसरवाद, हमेशा ऐसे अवसरों का फ़ायदा उठाना जो कि शेयर बाजार के मूर्खों द्वारा प्रदान की जाती हैं।

    इन सिद्धांतो के साथ ही कुछ और भी सिद्धांत हैं जो कि  आपको एक अच्छा निवेशक बना सकते हैं। आखिर अच्छे परिणाम की उपज अच्छे निवेश सिद्धांत ही होते हैं।

    बफ़ेट कहते हैं – एक अच्छे व्यापार को खोजो जिसका प्रबंधन भी अच्छा हो, और उस कंपनी के शेयर उचित दाम पर खरीदें, फ़िर उसको जीवन भर के लिये अपने पास रखें।

विश्व के महानतम निवेशक वारेन बफ़ेट (World’s Greatest Value investor Warren Buffett)

    थोड़े दिनों पहले रद्दीवाले को अखबार के लिये बोलने गया था, तो वहाँ पुरानी किताबें भी लगी रहती हैं, तो हम एक नजर देख लेते थे, और हर बार एक न एक किताब अच्छी मिल जाती थी इस बार किताब पर नजर पड़ी,

बफ़ेट

Book Name : “How Buffett does it, 24 Simple Investing Strategies from the World’s Greatest Value Investor”

Written by “James Pardoe”

Publication: Tata Mcgraw-Hill

यह एक बहुत ही पतली सी किताब है, लेखन ने वारेन बफ़ेट के सिद्धांतो को २४ कूटनितियों में विभक्त किया है, जो कि सभी निवेशकों को अवश्य पढ़ना चाहिये। अभी कुछ दिन पहले क्रॉसवर्ल्ड गया था तो वहाँ वारेन बफ़ेट की कोई मोटी सी किताब रखी थी, जो कि अभी की बेस्ट सैलर भी है, नाम भूल गया, अब अगली बार जाऊँगा तो अवश्य ही खरीदूँगा, उस समय इसलिये नहीं खरीदी क्योंकि अभी पढ़ने के लिये बहुत सारी किताबों का स्टॉक पड़ा है।

इस किताब को पढ़कर निवेश करने के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला, सोच रहा हूँ कि इसी बारे में आगे कुछ पोस्टें लिखी जायें।

अभी जो अधूरी रखी है –

Cashflow Quadrant

अभी रखी हुई किताबों में हैं जो कि पढ़ना बाकी हैं –

Retire Young Retire Rich

The Black Swan

बोधिपुस्तक पर्व की १० किताबें

In the Wonderland of Investment

General Insurance

Life Insurance

पानीपत

सूचि बहुत लंबी है, परंतु इतनी किताबें अभी पंक्ति में हैं।