Tag Archives: योगी कथामृत

संगीत विज्ञान के बारे में …

    संसार मे संगीत विज्ञान की सबसे पहली जानकारी सामवेद में उपलब्ध है। भारत में संगीत, चित्रकला एवं नाट्यकला को दैवी कलाएँ माना जाता है। अनादि-अनंत त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और शिव आद्य संगीतकार थे। शास्त्र-पुराणों में वर्णन है कि शिव ने अपने नटराज या विराट-नर्तक के रूप में ब्रह्माण्ड की सृष्टि, स्थिति और लय की प्रक्रिया के नृत्य में लय के अनंत प्रकारों को जन्म दिया। ब्रह्मा और विष्णु करताल और मृदंग पर ताल पकड़े हुए थे।

    विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती को सभी तार-वाद्यों की जननी वीणा को बजाते हुए दिखाया गया है। हिंदू चित्रकला में विष्णु के एक अवतार कृष्ण को बंसी-बजैया के रूप में चित्रित किया गया है; उस बंसी पर वे माया में भटकती आत्माओं को अपने सच्चे घर को लौट आने का बुलावा देने वाली धुन बजाते रहते हैं।

    राग-रागिनियाँ या सुनिश्चित स्वरक्रम हिन्दू संगीत की आधाराशिलाएँ हैं। छह मूल रागों की १२६ शाखाएँ-उपशाखाएँ हैं जिन्हें रागिनियाँ (पत्नियाँ) और पुत्र कहते हैं। हर राग के कम-से-कम पाँच स्वर होते हैं: एक मुख्य स्वर (वादी या राजा), एक आनुषंगिक स्वर (संवादी या प्रधानमंत्री), दो या अधिक सहायक स्वर (अनुवादी या सेवक), और एक अनमेल स्वर (विवादी या शत्रु)।

    छह रागों में से हर एक राग की दिन के विशिष्ट समय और वर्ष की विशिष्ट ॠतु के साथ प्राकृतिक अनुरूपता है और हर राग का एक अधिष्ठाता देवता है जो उसे विशिष्ट शक्ति और प्रभाव प्रदान करता है। इस प्रकार (१) हिंडोल राग को केवल वसन्त ऋतु में उषाकाल में सुना जाता है, इससे सर्वव्यापक प्रेम का भाव जागता है; (२) दीपक राग को ग्रीष्म ऋतु में सांध्य बेला में गाया जाता है, इससे अनुकम्पा या दया का भाव जागता है; (३) मेघ राग वर्षा ऋतु में मध्याह्न काल के लिये है, इससे साहस जागता है; (४) भैरव राग अगस्त, सितंबर, अक्तूबर महीनों के प्रात:काल में गाया जाता है, इससे शान्ति उत्पन्न होती है; (५) श्री राग शरद ऋतु की गोधुली बेला में गाया जाता है, इससे विशुद्ध प्रेम का भाव मन पर छा जाता है; (६) मालकौंस राग शीत ऋतु की मध्यरात्रि में गाया जाता है; इससे वीरता का संचार होता है।

ज्ञान, क्रोध और ईश्वर ….. योगी कथामृत .

ज्ञान –

“छोटे योगी, मैं देख रहा हूँ कि तुम अपने गुरु से दूर भाग रहे हो। उनके पास वह सब कुछ है जिसकी तुम्हें आवश्यकता है; तुम्हें उनके पास लौट जाना चाहिये।” आगे उन्होंने कहा, “पर्वत तुम्हारे गुरु नहीं बन सकते” – दो दिन पहले श्रीयुक्तेश्वरजी द्वारा प्रकट किया गया वही विचार।

“सिद्ध जन केवल पर्वतों में ही निवास करें, ऐसा कोई विधि का विधान नहीं है।” मेरी ओर रहस्यपूर्ण दृष्टि से देखते हुए वे कहते जा रहे थे : “भारत और तिब्बत के हिमालय शिखरों का सन्तों पर कोई एकाधिकार नहीं है। जिसे अपने अन्दर पाने का कष्ट न किया जाय, उसे शरीर को यहाँ -वहाँ ले जाने से प्राप्त नहीं किया जा सकता। जैसे ही साधक आध्यात्मिक ज्ञानलाभ के लिये विश्व के अंतिम छोर तक भी जाने को तैयार हो जाता है, उसक गुरु उसके पास ही प्रकट हो जाता है।”

मन ही मन मैं इस बात से सहमत हो गया।

“क्या तुम एक ऐसे छोटे-से कमरे की अपने लिये व्यवस्था कर सकते हो जिसका दरवाजा बंद कर तुम अन्दर एकान्त में रह सको ?”

“जी, हाँ ।” मेरे मन में यह विचार उभर आया कि ये सन्तवर इतनी विलक्षण गति से सामान्य स्तर की बातों से व्यक्तिगत स्तर पर उतर आते हैं।

“तो वही तुम्हारी गुफ़ा है।” योगिराज ने ज्ञान जगा देने वाली एक ऐसी दृष्टि मुझ पर डाली कि मैं उसे आज तक नहीं भूल पाया। “वही तुम्हारा पावन पर्वत है। वहीं तुम्हें ईश्वर की प्राप्ति होगी।”

उनके इन सरल शब्दों ने हिमालय के लिये मेरे मन में बैठी तीव्र आसक्ति एक पल में समाप्त कर दी। धान के एक दाहक खेत में मैं पर्वतों और अनंत बर्फ़ के स्वप्न से जाग गया।

क्रोध –

क्रोध केवल इच्छा के अवरोध से उत्पन्न होता है। मैं कभी दूसरों से कोई उपेक्षा नहीं रखता, इसलिये उनका कोई भी कार्य मेरी इच्छाओं के विपरीत नहीं हो सकता। मैं अपने किसी स्वार्थ के लिये तुम्हारा उपयोग कई नहीं करता; मैं तो केवल तुम्हारे सच्चे सुख में ही खुश हूँ।”

ईश्वर –

“इहलौकिक सुखों से हम कितनी जल्दी ऊब जाते हैं  ! भौतिक सुखों की कामनाओं का अन्त नहीं है; मनुष्य कभी पूर्ण तृप्त नहीं होता और एक के बाद दूसरे लक्ष्य के पीछे दौड़ता ही रहता है। सुख के लिये वह जिस “कुछ और” की खोज करता रहता है वह ’कुछ और’ ईश्वर ही है और केवल वही शाश्वत आनन्द प्रदान कर सकता है।

“बाह्य इच्छाएँ हमें अभ्यनतर के ’स्वर्ग’ से बाहर खींच लाती हैं; वे मिथ्या आनन्द देती हैं जो आत्मिक आनन्द का छद्म आभास मात्र है। खोया हुआ आनतरिक स्वर्ग दिव्य ध्यान के द्वारा शिघ्र ही पुन: प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर अकल्पित नित्य-नूतनता है, अत: हम कभी उससे ऊब नहीं सकते। परमानन्द अनन्त काल तक सदा के लिये आह्लादक विविधताओं से भरा हो उससे क्या कभी किसी का मन भर सकता है ?”

“अब समझ में आया गुरुदेव, कि सन्तों ने ईश्वर को अगाध क्यों कहा है। अमर जीवन भी ईश्वर को समझने के लिये पर्याप्त नहीं है।”