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जीवन का पेड़ धड़धड़ाती बेपरवाह बहती सी नदी के बीच कहीं बियाबान जंगल में

अपने ही बनाये हुए सपनों के महल में ऐसा घबराया सा घूम रहा हूँ, कब कौन से दरवाजे से मेरे सपनों का जनाजा निकल रहा होगा, भाग भाग कर चाँद तक सीढ़ीयों से चढ़ने की कोशिश भी की, पर मेरे सपनों की छत कांक्रीट की बनी है किसी विस्फोट से टूटती ही नहीं। दम भी घुटता है पर कहीं से निरंतर ही ठंडी बयार आने से हमेशा ही सपनों के सच होने का भरोसा दिला देते हैं। इस जंजाल से निकलने के लिये कई बार छुप्पा में, कभी अक्षरों तो कभी शब्दों के पीछे, पर इन्होंने भी मेरा साथ न दिया, जब कोई और बुलाये तो झट से ये उधर चले गये, कभी मैंने तुम पर इसीलिये ऐतबार न किया।
ढ़ूँढ़ता ही रह जाऊँगा जीवन की कुछ सीढ़ियाँ, कभी सीढ़ियाँ ही टूटी मिलीं तो कभी रास्ते टूटे मिले, कभी छत नहीं मिली और अगर मिली भी तो आसमां में चाँद तारे न मिले, जिसने जैसा आसमां दिखाया बस हमेशा वैसा ही आसमां हमने देखा, हम अपना आसमां कब बनायेंगे, कब हम अपनी छत पर अपनी ही सीढ़ियों से जायेंगे, और कब हम शब्दों को अपना बना पायेंगे, सदियों तक इंतजार करेंगे, पर यह भी सत्य है कि इंतजार से कुछ नहीं मिलता, केवल और केवल हमें यही लगता है कि अपने लिये अपनी दुनिया खुद ही गढ़नी होगी।
जब दुनिया गढ़ने भी बैठे और जिसको हमने उस दुनिया का खुदा बनाने की ठानी, उसने हमारी दुनिया का खुदा बनने के लिये पहले तो राजीनामा कर लिया पर अब वह खुद ही अनिश्चितता के दौर से निकल रहा दिखाई देता, किसी दूसरी दुनिया से आने पर भी वहीं की टीस उसे इस दुनिया को मिटाने पर मजबूर कर रही है। जब खुदा खुद ही खुदी के राह पर निकल पड़े तो जीवन के पेड़ धड़धड़ाती बेपरवाह बहती सी नदी के बीच कहीं बियाबान जंगल में खड़ा दिखाई देता है, जहाँ दूर उसे दुनिया तो दिखती है, दुनिया को वह भी दिखता है, पर नदी नहीं, दुनिया तो इधर से उधर जाने के लिये पुलिया का इस्तेमाल करती है, पेड़ के पास खड़े होकर अपनी शक्ल के साथ कई जगह वाहवाही भी लूटते हैं, पर पेड़ के संघर्ष का कोई भी कहीं भी जिक्र नहीं करता, न उसकी भावनाओं को समझता।
बस खुश हूँ तो यूँ कि कुछ पक्षियों ने मेरी शाख पर घोंसले बना रखे हैं, केवल उनके लिये मैं इस प्रकृति से संघर्षरत हूँ, उनके शाख पर खेलने से जीवन की कुछ चीजों पर पड़े जालों को कभी झाड़ने की जरूरत ही नहीं आन पड़ी, जाले तो तब ही झाड़े जाते हैं जब वस्तु को या तो उपयोग करना हो या वह उपयोगहीन हो गई हो। जीवन में आगे बढ़ने की सीढ़ियाँ अब भी ढ़ूँढ़ रहा हूँ, जब कोई मेरी सीढ़ी को सहारा दे तो शायद मैं ज्यादा जज्बे से बेपरवाह होकर मंजिल पर चढ़ाई कर पाऊँगा, नहीं तो सपनों के महल को भरभराते देर ही कितनी लगती है।

जीवन में सफलता के लिये पहली बार मुँबई परिवार के साथ जाने का कठिन निर्णय

    जीवन में सफलता के लिये घर का अहम रोल होता है। घर वह होता है जहाँ हमारे माता पिता साथ रहते हैं और प्यार होता है। घर केवल चार दीवारी नहीं होता, चार दीवारी तो मकान होता है, जहाँ न अपने होते हैं और न ही प्यार होता है। मकान में लोग केवल रहते हैं पर घर में लोग जीवन को मजे लेते हुए जीते हैं। बचपन से ही इस शहर से उस शहर घूमते रहे पर कभी मकान में नहीं रहे, हमेशा पापा मम्मी के साथ घर में रहे, जहाँ भी जाते हम शहर के उस मौहल्ले या कॉलोनी में रच बस जाते। जब दूसरे शहर जाने का समय होता तो आँखें भीग आती थीं, फिर से एक नये शहर में जिंदगी शुरू करना बहुत कठिन होता है, फिर से अपने मित्र बनाना, पड़ोसियों से तालमेल बैठाना। यही अनुभव जीवन भर काम भी आता है, हम लोग इंसान को पहचानने लगते हैं। जीवन के कटु पलों से हम अपने में बहुत सी बातें सीख जाते हैं और वक्त के पहले ही काफी बड़े हो जाते हैं।
    जब तक घर में मम्मी पापा के साथ रह सकते थे रहे, फिर हमें नौकरी के चलते मुँबई अपने परिवार के साथ आना पड़ा, कुछ दिन अकेले ही व्यतीत किये और मुँबई को जाना समझा, मुँबई सपनों का शहर है, बचपन से ही फिल्मों को देखते हुए बड़े हुए हैं, और हम मुँबई को फिल्मनगरी के नाम से जानते हैं, ऐसा लगता था कि जब मुँबई जायेंगे तो फिल्मी कलाकार हमारा स्वागत करने सड़क पर उतर आयेंगे, खैर सपने तो सपने ही होते हैं। मुँबई संघर्ष का दूसरा नाम है, जहाँ रहने के लिये ठिकाना ढ़ूँढ़ना उतना ही मुश्किल है जितना कि मुँबई लोकल में अपने आप के जगह ढ़ूँढ़ पाना। पर हाउसिंग.कॉम ने हमारा काम बेहद ही आसान कर दिया। लेपटॉप पर ही फोटो देखकर, जगह के बारे में जान लेते थे और फिर वहाँ फ्लैट देखने जाना है या नहीं यह निर्णय करते थे।
    हमने अपने जीवन में परिवार याने कि घरवाली और बेटेलाल के साथ पहली बार अपनी जड़ से अलग होने की मजबूरी में सोची थी, हमें घर चलाने का अनुभव तो बिल्कुल भी नहीं था, पर हाँ घर में रहते हुए बहुत कुछ सीखा था, और नये शहर में जाना, जहाँ पूरा शहर ही अपने लिये अनजान है, जब नौकरी ही वहाँ करनी थी तो रहना भी वहीं था, यह मेरे जीवन का सबसे
बड़ा निर्णय था, जीवन में अपने कैरियर के लिये आगे बढ़ने के लिये मैंने यह कठिन निर्णय ले लिया।
    पहली बार परिवार के साथ बाहर रहने जा रहे थे, तो घर के सारे समान की सूचि बनाई गई उसके लिये बजट भी बनाया गया, और फिर एक एक करके हम धीरे धीरे सारी चीजों को व्यवस्थित तरीकों से करते गये और हमारा घर एक सप्ताह में ही जम गया, जब रहने लगे तो जिन जिन चीजों के बारे में लगता कि नहीं है तो अपनी सूचि में जोड़ते जाते और सप्ताहांत में जाकर ले आते, इस प्रकार से हमारे पास घर में जरूरत की लगभग सारी चीजें हो गईं। और वह सूचि अब हमेशा हम अपने साथ ही रखते हैं, किसी भी नई जगह जाने पर यह सूचि बड़े काम
की होती है। और इसी एक निर्णय के कारण हम अच्छी प्रगति भी कर पाये।

बच्चों को सुलाने के लिये क्या क्या नहीं करना पड़ता है

    बच्चों को शौच निवृत्ति सीखने में समयलगता है और इसका प्रशिक्षण उन्हें घर में ही दिया जाता है, पर अगर बच्चे बहुत ही
छोटे हों तो शौच निवृत्ति का प्रशिक्षण देना मुश्किल ही नहीं असंभव है, पुराने जमाने किसी भी तरह की अन्य सुविधा उपलब्ध नहीं थी तो पोतड़ों से ही काम चलाना पड़ता था, तो बच्चों की और माँ की नींद पूरी ही नहीं हो पाती थी, और अगर सोते समय बच्चे ने शौच कर दी तो फिर माँ के लिये और भी मुश्किल होती थी क्योंकि फिर से बच्चे को सुलाना ही एक बहुत बड़ा काम होता है।
    आधुनिक तकनीक ने हमें पेम्पर डाइपर के रूप में उपहार दिया है, डाइपर बच्चों के शौच निवृत्त होने पर भी उन्हें गंदगी में अपनी नई तकनीक के कारण अहसास ही नहीं होने देता है और वे अपने खेलने में या सोने में व्यस्त रहते हैं। इस तरह से बच्चे और माँ अपना सोना, खेलना बिना किसी अनचाही बाधा के निरंतर रखते हैं।
    बच्चों को सुलाना भी एक बहुत बड़ा काम है, कुछ लोगों को बहुत मजा आता है तो कुछ को चिढ़, पर हाँ बच्चे के माता पिता कभी नहीं चिढ़ते आखिरकार वह बच्चा भी तो उनका ही है, बच्चे को सुलाने के लिये बहुत जतन करने पड़ते हैं, मैं अपने बेटे को अपने गले लगाकर कंधे पर लेकर उसे कभी लोरी सुनाता था तो कभी अपने मनपसंदीदा गाना जिससे मेरे बेटे को गाने के बारे में समझ भी आ जाये, कहा जाता है कि बचपन में या गर्भ में बच्चे जिन बातों को सुनते हैं उसके प्रति उनका विशेष लगाव होता है, इसीलिये मैं कभी कभी मंत्र भी सुनाया करता था।

बेटे को अपने हाथ से थपकी देते समय ध्यान रखता था कि मेरी हथेली थोड़ी से पिरामिड जैसी हो, जिससे बेटे का पिया हुआ दूध बाहर न आ जाये, पिरामिड जैसी हथेली से थपथपाने से पीठ पर जब थपथपाहट होती है तो थप्प करके आवाज आती है और हवा साथ होती है, जिससे बच्चे को आराम का अहसास होता है। बेटे को लोरी, गाने और मंत्र सुनकर बहुत ही सुकून की नींद आती थी। मैंने जब भी बेटे को ऐसे सुलाया तो देखा कि बेटा बिल्कुल शांत हाथ पैर सीधे करके सोता था और अपनी पूरी नींद करके ही उठता था।
    कई बार दोनों हाथों की गोदी में लेकर बारी-बारी से दायें बायें हिलाकर सुलाया, इससे बेटा झूले का आनंद प्राप्त कर सो
जात था, या फिर खुद ही आलथी पालथी में बैठ गये और बेटे को गोदी में लिटा लिया और सिर पर ओर बालों को एक हाथ से सहलाते रहे और दूसरे हाथ से धीरे धीरे सीने पर थपथपाते रहे, अगर लगता है कि पैर में दर्द है तो पैरों को हल्के हाथों से दबा दिया जिससे बेटा कभी भी आधी नींद में पैर के दर्द के कारण नहीं उठता था, बहुत ही आराम से प्रसन्न मुद्रा में सोते रहता था । मैंने जब भी बेटे को ऐसे सुलाया तो कई बार नींद में उसे किलकारी मारते तो कभी हँसते देखा।
पेम्पर डाइपर लगाकर कैसे बच्चे कैसे खुश रहते हैं, यह इस वीडियो में देख सकते हैं –
 

वेन्चरसिटी आई.टी. की प्रतिभाओं को निखार देगा (Venturesity will create history in IT Job Market)

     अब तक नौकरी पाने के लिये हम रिज्यूमे सीवी तैयार करते हैं, पर आज के इस कठिन दौर में जहाँ कंपनियाँ अच्छे लोगों को रिज्यूमें से भी तलाश पाने में असफल हैं वहीं कुछ अच्छे लोग जो कि साक्षात्कार में बहुत अच्छा नहीं कर पाते हैं परंतु काम में वे वाकई बहुत ही जबरदस्त होते हैं, इन्नोवेटिव होते हैं, तकनीकी की बारीकियों को अच्छे से जानते हैं और उन  तकनीकी से कैसे फायदे लेना है, यह उन्हें बहुत ही अच्छी तरह से पता होता है। अच्छे लोगों को कई बार ज्यादा टेलेन्टेड होने का भी हर्जाना भुगतना पड़ता है, कि जो भी साक्षात्कार ले रहा होता है, उसे उस विषय पर कम जानकारी होती है, जबकि साक्षात्कार देने वाले को ज्यादा तो भी उसका पत्ता कट होने के चांसेस बहुत ही ज्यादा होते हैं, क्योंकि सभी जगह लोग ईमानदार नहीं होते, कहीं न कहीं इस प्रतियोगी दौर में गला काट प्रतियोगिता में ये सब फायदे नुक्सान होते रहते हैं।

    कुछ समय पहले की ही बात है मेरे एक मित्र जो कि एक बेहद महत्वपूर्ण तकनीक (TIBCO) पर काम करते हैं, जिसे कि आई.टी. इंडस्ट्री में नीच (niche) स्किल के रूप में जाना जाता है, मैंने अपने एक परिचित से उनका सीवी एक अच्छी एम.एन.सी. में रेफर करवाया, उनका चयन हो ही जाना चाहिये था क्योंकि हमारे मित्र उस तकनीकी पर कई वर्षों से काम कर रहे थे, पर साक्षात्कार के दौरान ही उन्हें पता चल गया कि जो उनसे बात कर रहा है उसके पास इस तकनीक की विशेषज्ञता नहीं है, और अगले ही कॉल में उसे रिजेक्ट कर दिया गया कि टेक्नीकल पैनल साक्षात्कार क्लियर नहीं कर पाये, जबकि हमारे मित्र का कहना था कि मैं उस तकनीक पर कई वर्षों से काम कर रहा हूँ और मुझे किसी भी हालत में रिजेक्ट नहीं किया जा सकता है और जो मुझसे बात कर रहे थे उन्हें उस तकनीकी का कोई अनुभव ही नहीं था, हमने बाद में पता किया तो पता चला कि वे अकेले ही उस कंपनी में उस तकनीकी विधा के महारथी हैं और किसी और को लाकर वे अपनी पहचान खोना नहीं चाहते थे।
    किसी भी जॉब के लिये पहला सौपान साक्षात्कार ही होता है और अधिकतर इंडस्ट्री में लोग एक दूसरे को जानते हैं, और केवल इसीलिये भी रैफेरल सिस्टम का जमकर उपयोग होता है, जिससे जिस भी जॉब के लिये वे रिसोर्स को ले रहे हैं वह जाँचा परखा हो, पर इस सिस्टम में पारदर्शिता नहीं है। और इस क्षैत्र में भी बदलाव आने की जरूरत थी। आज एक पुराने कलीग ने फेसबुक पर चैटिंग में हमें http://www.venturesity.com वेन्चरसिटी के बारे में बताया ।
    हमें वेन्चरसिटी का कंपनियों के जॉब हायरिंग के लिये अपनाया गया तरीका बेहद ही पसंद आया, इससे एक तो बाजार में नया क्या चल रहा हैं, पता चलता है, हैंड्सऑन प्रैक्टिस भी हो जाता है, आप खुद ही अपना आंकलन कर सकते हैं, कहाँ सुधार करना है, आप किस क्षैत्र में अच्छा कर रहे हैं यह भी आपको पता चल जाता है, सबसे बड़ी बात है कि इस अनुभव से आपको बहुत कुछ नया सीखने को मिलता है, जो कि दैनिक रुटीन के कार्यों में नहीं सीख पाते हैं। जो सबसे अच्छी तरह से काम कर पाता है, कंपनी उसका चयन कर लेती है, इस तरह कंपनी को अच्छा जाँचा परखा रिसोर्स मिल जाता है और रिसोर्स को भी अपने ऊपर आत्मविश्वास होता है।
    वैसे भी जिस तेजी से बाजार का परिदृश्य बदल रहा है, उससे नयी विधाओं का बाजार में आना भी जरूरी है और इससे बाजार को और प्रतिभाओं को अपने आप को परखने की क्षमता बड़ेगी।

जिंदगी अगर दूसरा मौका दे तो (Second Chance in Life)

जिंदगी में सबकी अपनी अपनी तमन्नाएँ होती हैं पर बहुत ही कम लोग अपनी तमन्नाओं के अनुसार काम कर पाते हैं, सबको अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के लिये, अपने उत्तरादायित्व पूरे करने के लिये, अपने सपनों के अरमानों को कहीं अपने दिल में दफन करना पड़ते हैं, पर बीच बीच में कहीं न कहीं ये अपने सपने कहीं न कहीं झलक ही आते हैं, पूरा समय न पढ़ने में दे पाते हैं और न ही लिखने में, बहुत ही कम समय मिलता है पढ़ने और लिखने के लिये, पाँच दिन अपने ऑफिस में व्यस्त रहते हैं और बाकी के दो दिन परिवार के लिये।
अगर मुझे वो काम करने हों जो मैंने आगे के लिये छोड़ रखे हैं, क्योंकि मैं अभी वे काम नहीं कर पा रहा हूँ, वे इस प्रकार हैं –

जिंदगी अगर दूसरा मौका दे तो –

कविताएँ  कहानियाँ लिखूँ
किसी ने सही ही कहा है कि जितना पढ़ोगे उतना ही अच्छा लिखोगे, और उतना ही गहराई से सोच पाओगे, जिंदगी को सही मायने से समझ पाओगे, अपनी समझ को सुलझा पाओगे, लिखते तो हैं पर वह स्तर नहीं आता जो स्तर आना चाहिये, जिसे हम अच्छा कह पायें।
थियेटर करूँ
किसी जमाने में बहुत शौक था स्टेज थियेटर करने का, न दिन का ध्यान रहता था, न रात का, बस कभी डॉयलाग याद करता था तो कभी अपनी अभिनय निखारने के लिये पता नहीं क्या क्या तरीके अपनाता था, खासकर जब पेट से आवाज निकालने का अभ्यास करता था तो पेट पर जोर पड़ते ही मुझे दस्त लग जाते थे, अभिनय भी वह कला है जिसे निखारने के लिये बहुत मेहनत करना पड़ती है।
पर्सनल फाईनेंस के लिये सेमिनार करूँ
मेरे पास पर्सनल फाईनेंस से संबंधित बहुत सारी चीजें हैं जो कि बहुत से लोगों को नहीं पता है, यहाँ तक कि आयकर की धाराओं के तहत कितनी और कैसे बचत की जाये यह भी नहीं पता
है, कितना बीमा लेना चाहिये, लक्ष्य कैसे निर्धारित करें, मिलने वालों को तो फायदा मिलता ही है, पर चाहता हूँ कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को फायदा मिले।
This post is a part of the #SecondChance
activity at BlogAdda
in association with MaxLife Insurance
”.

अब कॉल से बेहतर है क्विकर NXT (Quikr NXT is best then taking calls)

    नो फिकर बेच क्विकर ये पंचलाईन तो सभी ने सुनी होगी, अभी कुछ ही वर्ष हुए हैं क्विकर को ऑनलाईन बाजार में आये पर जितनी तेजी से इस वेबसाईट ने अपनी जगह बनाई है, शायद ही उतनी तेजी से कोई और वेबसाईट अपनी जगह बना पाई। पहले हम अपनी पुरानी चीजों को बेचने के लिये केवल कबाड़ी वाले पर ही निर्भर रहते थे, जान पहचान वाले कम ही लोग उपयोग की हुई चीजों को लेते थे, और वह चीज हमें या तो सस्ते में ही कबाड़ी को बेचने के लिये मजबूर होना पड़ता था या फिर वह वस्तु पड़े पड़े ही कबाड़ हो जाती थी।
    जब क्विकर नहीं था तब मैंने पता नहीं कितनी ही वस्तुओं को कबाड़ होते देखा है, मेरी पुरानी साईकिल, पुराना वाटर प्यूरिफॉयर, हीटर जिन्हें हमने कबाड़ से बचाने के लिये गमला बना दिया। और वे सब हमें इसलिये हटाने पड़े क्योंकि हमें उसकी जगह कोई और अच्छी तकनीक वाली चीज उपयोग में लाना था, अगर वे सब सामान बिक जाता तो निश्चित ही किसी न किसी का कम बजट में काम हो गया होता और हमें भी कम ही सही पर कुछ मदद तो नई वस्तुएँ खरीदने में मिलती ही । पर उस समये पहुँच भी कम ही आस पास वालों तक ही होती थी।
    आज क्विकर ने इंटरनेट युग में चार चाँद लगा दिये हैं, अब किसी भी पुरानी चीज को बेचने के लिये कबाड़ी या किसी एजेन्ट की जरूरत नहीं पड़ती है, बस क्विकर पर विज्ञापन लगाया और फटाफट से फोन आने शुरू, अपनी सारी जानकारी फोटो के साथ दे दो और फिर कहीं भी घूमते रहो, और ऐसा भी नहीं कि 24 घंटे घर पर बैठे रहो कि कब खरीददार आ जाये पता नहीं, और हम घर पर न हों तो नुक्सान हो जाये, अब तो खरीददार फोन करके आता है।
    अब मैंने अपनी बाईक को बेचना है तो फिर से मैंने क्विकर की सेवायें ली हैं, अपनी बाईक का फोटो लगा दिया और जरूरी जानकारी भी साथ में दे दी है, ये है कि बाजार में मैकेनिक इसके कम दाम बता रहे थे पर क्विकर पर उससे कहीं अधिक के ऑफर मिल रहे हैं।
    जब से Quikr NXT आया है तब से थोड़ा आसानी हो गई है, मैं अधिकतर से काल लेने से बचता हूँ और चैट से ही काम लेना पसंद करता हूँ
  1. क्योंकि ऑफिस में अधिकतर मीटिंग्स में व्यस्त होते हैं, तो जैसे ही समय मिलता है तो हम चैट का जबाव दे सकते हैं, पर फोन नहीं कर सकते ।
  2. ऑफिस में आसपास वाले लोगों को उनके काम में फोन पर बात करने से बाधा पहँचती है।
  3. हँसी का पात्र नहीं बनना पड़ता है, लोग हमेशा से ही दूसरों का मजाक उड़ाते हैं कि बाईक बेचने के लिये क्या एक ही तरह के सवालों के जबाब देता रहता है और कुछ न करते हुए भी शर्मिंदगी का पात्र बनना पड़ता है।
  4. एक बार किसी को सवाल का जबाव दे दिया तो फिर से टाईप करने  की जगह केवल कॉपी पेस्ट से ही काम चल जाता है।
  5. मोबाईल पर चैट किसी को दिखती भी नहीं है और जो काम कर रहे होते हैं, उससे ध्यान नहीं भटकता है और फोन पर बात करने से ध्यान बँटता है।

आईये मिलकर ढ़ूँढे अपनी कठिनाईयाँ और विकास के रास्ते

   
   
    आईये मिलकर ढ़ूँढे अपनी कठिनाईयाँ और विकास के रास्ते जो मैं सुबह की चाय के साथ लिख रहा हूँ गलत नहीं लिखूँगा, आजकल ट्विटर और फेसबुक पर हम अगर किसी एक दल के लिये कुछ लिख देते हैं तो हमें अपने वाले ही विकास विरोधी बताकर लतियाना शुरू कर देते हैं। पर हम भी अपना संतुलन ना खोते हुए संयमता बरतते हैं, दिक्कत यह है कि विकास की लहर वाले लोग जबाव देने की जगह हड़काने लगते हैं। क्या वाकई उन्हें लगता है कि इससे सारी दिक्कतें दूर हो जायेंगी, या वाकई उन्हें यह लगता है कि सब ठीक चल रहा है, खैर अब हम क्या बतायें ये तो मानव मन की गहराईयाँ हैं, जो अच्छा लगता है वही पढ़ना चाहता है, वही लिखना चाहता है, वही बोलना चाहता है और वही दूसरों से सुनना चाहता है।
    बाकी सब तो व्यंग्य हैं, पर आज सुबह उठकर हमने सोचा कि वाकई हमें उनका पक्ष भी जानना चाहिये, कि हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा, क्या मुझे रोजमर्रो के कामों में कोई आसानी हुई या वही सब पुरानी परेशानियाँ अभी भी झेलनी पड़ रही हैं।
महँगाई – यह तो सुरसा की मुँह है, बड़ती ही जा रही है, दूध आज से 4 वर्ष पहले बैंगलोर में 21 रू. किलो मिलता था, आज वही दूध 42 रू. हो गया है, अब तो बैंगलोर छोड़े मुझे समय हो
गया, हो सकता है और भी ज्यादा हो गया हो। यहाँ गुड़गाँव में खुला दूध 42 से 46 रू. ली. मिलता है और पैक वाला 44 से 50 रू ली. मिलता है। यहाँ तो मेरी जेब कट ही रही है। न सब्जी के दामों में कमी है न दालों के।
चिकित्सा – थोड़े दिनों पहले बेटेलाल बहुत ज्यादा बीमार थे, पता नहीं कितने डॉक्टरों के चक्कर काटे और जाने कितने टेस्ट करवाये, लूट का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि डॉक्टरों की फीस कम से कम 500 रू. हो गई है और साधारण से टेस्ट के भी 100 – 500 रू. तक वसूले जा रहे हैं, और उनमें भी शुद्धता नहीं है दो अलग अलग लैबों की रिपोर्ट भी अलग आती है, किसी स्थापित मानक का उपयोग नहीं किया जाता है। जबकि हम सरकार को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों कर देते हैं, पर हमें सीधे कोई फायदा नहीं है, यहाँ एक बात का उल्लेख करना चाहूँगा मेरे प्रोजेक्ट से अभी एक बंदा ब्रिटेन से वापस आया तो बोलो कि वहाँ अगर कर लेते हैं तो वैसी सुविधाएँ भी हैं, लिये गये पूरे पैसे का पाई पाई का उपयोग होता है, केवल फोन कर दो तो दो तरह की सुविधाएँ उपलब्ध हैं, पहला तो कि आपको कुछ समस्या हो गई है तो तत्काल एम्बूलेन्स आयेगी और वहीं तात्कालिक  सहायता उपलब्ध करवाकर अगर जरूरत है तो अस्पताल भी ले जायेगी, दूसरी आप फोन करके डॉक्टर से मिलने का समय सुनिश्चित कर सकते हैं, जो कि स्वास्थय बीमे में ही कवर होता है।
सरकारी कार्य – कुछ दिनों पहले अपनी बाईक के कागजों से संबंधित कार्य था, सोचा कि शायद हम सीधे ही करवा पायें, एक छुट्टी भी बर्बाद की और कोई काम भी नहीं हुआ, अगले दिन सुबह एक एजेन्ट को ही पकड़ना पड़ा जैसा कि स्वागत कक्ष पर बैठे बाबू ने कहा, क्योंकि वहाँ पुलिस का कोई सर्टिफिकेट बनवाना पड़ता है, और वहाँ बिना पहचान के काम नहीं होता है, हमें पता नहीं क्या क्या कागजात लाने को बोले गये थे, हमने सब दिखाये पर काम न हुआ, एजेन्ट ने हमसे 300 रू इसी बात के लिये और सर्टिफिकेट बनवा लाया, हमारे जाने की जरूरत भी नहीं पड़ी। क्यों नहीं यह सारा कार्य ऑनलाईन करके जनता को सरकारी मशीनरी की कठिनाईयों से मुक्ती दे दी जाती है। किसी भी सरकारी कार्यालय में जाओ तो पता चलता है कि बिना पैसे के कोई काम नहीं होता है।
ऑटो पुलिस – न ऑटो वाले मीटर से चलते हैं और न ही पुलिस वाले उन्हें कुछ बोलते हैं, हर जगह जाम की स्थिती है।
ट्रॉफिक जाम – पता नहीं कितने हजारों घंटों को नुक्सान ट्रॉफिक जाम में हो जाता है, क्यों नहीं ऐसा बुनियादी ढाँचा बनाया जाता है कि ट्रॉफिक की समस्या से निजात मिले, क्यों नहीं सड़कों को अगले 10 वर्ष बाद की दूरदर्शिता के साथ बनाया जाता है। और पेट्रोल का नुक्सान तो होता ही है।
पेट्रोल – की बात आई तो यह बात करना भी उचित होगा कि जब क्रूड ऑइल जब महँगा था तो पेट्रोल का भाव 86 रू. ली. तक था, पर आज आधे से भी कम है तो भी पेट्रोल का भाव 62 रू. क्यों है, जब पेट्रोल डीजल के भाव बड़ रहे थे, तब तो सभी ने अपने किराये बढ़ा दिये, अब जब कम हो रहे हैं, तो उसका फायदा हमें क्यों नहीं मिल रहा है।
बिजली – इस पर तो अनर्गल वार्तालाप किये जा रहे हैं, कि कई बिजली की कई कंपनियाँ होने से सस्ती हो जायेंगी, अगर ऐसा है तो रेल्वे को भी कई कंपनियों के हाथों में दे दीजिये, बसों में कई कंपनियों की बसें विभिन्न रूट पर चलती हैं पर कहीं कोई सस्ती सेवा उपलब्ध नहीं है, वैसे भी यह सब सरकार के हाथ नहीं है, यह बिजली नियामक तय करते हैं, पता नहीं सरकार जनता को उल्लू क्यों समझती है।
रेल्वे – जब भी मैं घर जाने का प्रोग्राम बनाता हूँ तो टिकट ही उपलब्ध नहीं होते, क्यों न सफर करने वाली आबादी के अनुसार रेल्वे को डिजायन किया जाये, हम यह नहीं कहते कि बुलेट ट्रेन न चलाई जाये वह तो भविष्य की जरूरत है परंतु उससे पहले हमें कम से कम आजकल के टिकट तो मयस्सर होने चाहिये, अगर बुलेट ट्रेन भी आ गई और बुनियादी सुविधाओं का अभाव है तो फिर कैसे उसका भी भरपूर उपयोग भारतवासी कर पायेंगे और अगर संयोग से टिकट मिल भी जाता है तो सुविधाओं में कमी महसूस होती है।
शिक्षा – हम सरकारी स्कूल में पढ़े, तब भी निजी स्कूल थे, परंतु यह कह सकते हैं कि कम से कम सरकारी स्कूलों का स्तर आज से बहुत अच्छा था, मैंने तो आज भी कई सरकारी स्कूल देखें हैं जो निजी स्कूलों से काफी अच्छे हैं, परंतु वे सरकारी प्रयास नहीं है, वह तो किसी प्रधानाध्यापक की मेहनत और कड़ाई के कारण है। सरकारी स्कूल और निजी स्कूल की फीस में जमीन आसमान का अंतर है, ज्यादी फीस देने का यह मतलब नहीं है कि अच्छी शिक्षा मिल रही है, या अच्छा माहौल मिल रहा है, केवल हम अपने बच्चे को अच्छे सहयोगी दे पा रहे हैं, जिनके माता पिता इतनी फीस दे पाने में समर्थ हैं, उनके साथ पढ़ पा रहा है हमारा बच्चा, पर निजी स्कूलों में पढ़ाने वालों का शैक्षिक स्तर सरकारी स्कूल से बदतर है, सरकारी स्कूलों के अच्छे शैक्षिक स्तर वाले गुरूओं को सब जगह घसीट लिया जाता है, उनका सही तरीके से उपयोग नहीं हो जाता और न ही उनके ऊपर दबाव होता है।
    हैं तो और भी बहुत सारी चीजें जिनकी चर्चा में करना चाहता हूँ पर जिनकी बातें मैंने यहाँ की हैं और अगर आपको लगता है कि यह केवल मेरे साथ भेदभाव हो रहा है तो आप ही बतायें कि आपकी जिंदगी पर कोई असर पड़ा हो तो मैं भी आपकी तरह ही सोचने की कोशिश करूँ।

आसुस का ऑल इन वन पीसी और ईबुक दोनों ही अच्छी लग रही हैं

    मैंने अपना पहला लेपटॉप लगभग 8 वर्ष पहले अमेरिका से मँगवाया था, फिर मुझे ऑफिस से लेपटॉप मिल गया तो हमारे लेपटॉप को बेटेलाल ने हथिया लिया और उस लेपटॉप की जो ऐसी तैसी करी है, कि उसका पहले तो कीबोर्ड तोड़ा, तभी बैटरी ने भी दम तोड़ दिया, और थोड़े दिनों बाद लेपटॉप की स्क्रीन भी मोड़ मोड़ कर उसकी स्क्रीन से भी दिखना बंद हो गया। अब वह लेपटॉप केवल डेस्कटॉप बन कर रह गया है, हमने स्क्रीन का आऊटपुट पुराने रखे मॉनिटर पर कर दिया और वायरलैस कीबोर्ड माउस अलग से दे दिया। अब लगभग एक वर्ष से हमारे बेटेलाल इसका ही उपयोग कर रहे हैं, जब हम उपयोग करते हैं तो लगता है कि अब नया ले ही लेना चाहिये, पर अब लेपटॉप नहीं डेस्कटॉप ।
    डेस्कटॉप वह भी ऐसा कि जिसमें सीपीयू न हो, केवल मॉनीटर हो और सारी सुविधाएँ जैसे कि 3.0 यू.एस.बी.,

लेपटॉप का डेस्कटॉपी जुगाड़

एच.डी.एम.आई. जिससे में अपने टीवी पर आराम से फिल्म देख सकूँ। स्कीन बड़ी हो कम से कम 21 इंच, टच सुविधा के साथ होनी चाहिये, उसमें अपने आप में ही बैटरी बैकअप हो, जिससे बिजली न होने पर कम से कम में काम तो कर सकूँगा। कैमरा हो, जिससे मैं जब भी बाहर होता हूँ तो मैं परिवार के साथ वीडियो चैट कर सकूँ, खुद में ही स्पीकर भी हों, और कीबोर्ड, माऊस अलग से लगा सकें। टच वाले सारे गेम्स खेले जा सकें और मोबाईल जैसा ही ऊँगलियों से पिक्चर कम या ज्यादा कर सकूँ। 3डी गेम्स खेल सकूँ, तो ये सब खासियत मुझे मिली

ASUS All In One PC ET2040 में, जिसमें ये सारी सुविधाएँ बेहतरीन तरीके से उपलब्ध हैं। इसकी एक खासियत यह अच्छी है कि इसमें पहली बार गैस्चर क्न्ट्रोल उपलब्ध है। तो मैं इस डेस्कटाप की स्कीन को किचन में गैस प्लैटफॉर्म के नीचे रखने की जगह बना सकता हूँ, जिससे हमारी श्रीमतीजी खाना बनाते समय किचन में भी इंटरनेट का इस्तेमाल कर सकेंगी, फिर वह यूट्यूब पर वीडियो देखना हो या फिर इंटरनेट सर्फ करना हो।

    जब मैं लंबे सफर पर जाता हूँ तो पढ़ने के लिये टेबलेट या किताब अपने पास रखता हूँ, पर लेपटॉप की बैटरी जल्दी खत्म हो जाती है, तो फिर एयरपोर्ट पर चार्जिंग के लिये प्वाईंट ढ़ूँढ़ने में अच्छी खासी मशक्कत हो जाती है, उसके लिये एक ऐसे छोटे से लेपटॉप की जरूरत महसूस होती थी जिसमें कि बैटरी बैकअप जबरदस्त हो और बिल्कुल पतला, छोटा से हो, ज्यादा  हार्डडिस्क न भी हो तो भी चलेगा। जब मैंने ASUS EeeBook X205TA देखा तो लगा वाह यही तो मैं ढ़ूँढ़ रहा था, इसमें 32 जीबी की स्टेट हार्डडिस्क है और 128 जीबी तक का बाहर से एस.डी. कार्ड का उपयोग कर सकते हैं। 29.4 सेंटीमीटर की स्क्रीन लिखने के लिये बहुत होती है, और एयर क्रॉफ्ट की सीच के लिये उपयुक्त भी होती है।
    मैं जल्दी ही ASUS EeeBook X205TA and ASUS All In One PC ET2040 अपने उपयोग के लिये लेने की सोच रहा हूँ।

 

हम कचरा फैलाने में एक नंबर हैं (We indians are great and known for litter)

    कचरा फैलाने के मामले में हम भारतीय महान हैं । और कचरा भी हम इतनी बेशर्मी और बेहयाई से फैलाते हैं जबकि हमें पता है कि यही कचरा हम सबको परेशान कर रहा है इसलिये हम सबको बड़े से बड़े पुरस्कार से सम्मानित किया जाना चाहिये, कम से कम इसकी शुरूआत गली से करनी चाहिये या घर कहना ही बेहतर होगा, जब हमारा घर साफ सुथरा होगा, तभी गली, मोहल्ले, सड़कें और उनके किनारे साफ होंगे।
    हमारे यहाँ घर में कई लोगों की आदत होती है कि रात में या सुबह कचरा घर में कहीं भी डाल दिया कि अब झाड़ू तो लगेगी ही तो साफ हो जायेगा, जबकि दो कदम पर ही कचरापेटी रखी है, वहाँ तक जाने की जहमत नहीं उठायेंगे। वैसे ही हम भारतीयों को नाक बहुत आती है और कुछ लोग तो उसका सेमड़ा भी उदरस्थ करने में माहिर होते हैं, जो उदरस्थ नहीं कर पाते वे सबसे पहले अपने बैठने के स्थान पर नीचे हाथ डालकर वह नाक का सेमड़ा चिपका देंगे या फिर उँगलियों के बीच सेमड़े को इतना घुमायेंगे कि वह कड़क हो जाये और फिर वे आसानी से उसे सम्मान के साथ बिना किसी को बोध हुए कहीं भी फेंक देंगे। इसलिये भी मैं कभी भी सार्वजनिक स्थानों जैसे कि थियेटर, फिल्म हॉल, बस, ट्रेन और हवाईजहाज में अपने हाथ सीट के नीचे ले जाने से कतराता हूँ।
    हमारे घर में कचरापेटी के अलावा भी बहुत सी जगहें कचरा डालने के लिये माकूल महसूस होती हैं, जैसे कि पलंग पर बैठे हैं और टॉफी खा रहे हैं, तो उसका रैपर फेंकने कौन कचरापेटी तक जायेगा, तो टॉफी का रैपर मोड़कर गोली बनाकर वहीं गद्दे के नीचे फँसा दिया, अगर गद्दा उठ पाने की स्थिती में नहीं है तो फिर पलंग के पीछे ही रैपर को सरका दिया, अगर वह जगह भी नहीं है और पास में ही कहीं कोई अलमारी रखी है तो उसके पीछे सरका दिया, वहाँ पर भी जगह नहीं मिली तो आखिरकार सबकी आँख बचाकर कचरा जमीन पर अपनी चप्प्ल या पैर के पास फेंका और धीरे से पलंग के नीचे सरका दिया। यह व्यवहार अपने सार्वजनिक जीवन में लगभग हर जगह देख सकते हैं।
    गुड़गाँव से दिल्ली धौलाकुआँ होते हुए हाईवे से जाते हैं, तो लगता है कि शायद यह सड़क विश्वस्तर की तो होगी ही, पर जब उस पर चलते हुए पुराने ट्रक और बस दिखते हैं जो कि प्रदूषण फैलाते हुए अपनी बहुत ही धीमी रफ्तार से बड़े जाते हैं, इनमें से कई बस ट्रक में से तेल निकल रहा होता है, और कई सभ्य लोग अपनी बड़ी बड़ी गाड़ियों में सफर कर रहे होते हैं, पर अधिकतर ये कार वाले लोग इतने असभ्य हो जाते हैं कि कहीं भी किधर से भी पानी की खाली बोतल फेंक देंगे या फिर कोई चिप्स का पैकेट, इच्छा होती है कि अगर इनके घर का पता मेरे पास होता तो मैं उनको यही कचरा उनके घर पर वापस से सम्मान के रूप में देने जाता, कि भाईसाहब आप अपना यह कचरा कल हाईवे पर छोड़ गये थे।
    यह पोस्ट इंड़ीब्लॉगर के हैप्पी अवर के लिये लिखी गई है, जो कि टाईम्स ऑफ इंडिया के लिये है, ज्यादा कचरा कैसे फैलायें, इसके लिये आप यहाँ भी क्लिक करके देख सकते हैं http://greatindian.timesofindia.com/

कोहरा, डिफॉगर और कोहरे का अहसास

घर की छत से लिया कोहरे का फोटो
    आजकल अपनी सुबह थोड़ी देर से ही हो पाती है, उसके दो कारण हैं एक तो देर रात घर पहुँचना और दूसरा ठंड। जब बारिश होती है तो उस दिन कोहरा थोड़ा कम होता है, पर जबरदस्त कोहरे का आमंत्रण होता है, जब धूप आ जाती है, तो कोहरा कम होने की उम्मीद जग जाती है। कोहरा अकसर नदी नाले और खुली जगह जैसे कि जंगल में ज्यादा होता है, कोहरे में ही सड़क पर बीच में पोती गई सफेद लाईनों का महत्व पता चलता है, अभी तक कम से कम 2-3 बार इन सफेद लाईनों के सहारे ही गाड़ी चलाई है। कोहरा जब जबरदस्त होता है तो हम अपने मोबाईल पर जीपीएस चालू करके कार में लगा लेते हैं, तो कम से कम मोड़ और कहाँ तक पहुँच गये हैं पता चल जाता है। कई बार कोहरे में गाड़ी चलाने पर यह पता ही नहीं चलता कि आप किधर तक पहुँच गये हो।
घर की छत से लिया कोहरे का फोटो
    कोहरे के कारण कई बार हमने ट्विटर और फेसबुक पर डिफॉगर के बारे में जानना चाहा, तो अलग अलग राय मिलीं, पर सबसे अच्छी राय मिली ब्लॉगर मित्र काजल कुमार जी की, कि गाड़ी में हीटर चालू करके रखिये, तो काँच पर कोहरा नहीं जमेगा और आगे पीछे दोनों काँचों को साफ भी रखेगा। थोड़े दिनों पहले करोलबाग गये थे तो वहाँ केवल गाड़ी के काँच की एक दुकान है, वहाँ पूछा तो हमें बताया गया कि डिफॉगर वाला शीशा मिल तो जायेगा पर गाड़ी की वारंटी खत्म हो जायेगी, हमने सोचा कि छोड़ो जो होगा देखेंगे।
     खैर उस काँच वाले ने जाते जाते हमें एक नेक सलाह भी दी कि कोहरे में आप अपनी गाड़ी की डिफॉगर लाईट चालू रखें जिससे कम से कम आपको पाँच मीटर तो साफ दिखेगा, गाड़ी धीमे चलाईयेगा, दोनों तरफ के काँचों को थोड़ा सा खुला रखें और हीटर चालू रखें तो आपको पीछे काँच के डिफॉगर की कमी ही महसूस ही नहीं होगी।
    अब तो कोहरे में गाड़ी चलाने आदत सी हो गई है, तो अब कोहरे के होने और न होने का ज्यादा अंतर नहीं पड़ता है, कोहरे के अपने गणित होते हैं, पहली बार मैंने बिल्कुल बच्चों जैसे गाड़ी का पूरा काँच खोलकर हाथ बाहर निकालकर कोहरे का अहसास किया था, जब हाथ पूरा भीग गया तभी पता चला कि कोहरा क्या होता है, पता नहीं क्यों हर चीज को अनुभव करने की मानव-मन की इच्छा कब पूर्ण होगी।