Tag Archives: संस्मरण

बदलते हुए गरबे और डांडिया..

घर के पास ही दुर्गापूजा का पांडाल लगा है, तो पहले ही दिन पूजा में हो आये, जाकर देखा तो इतना बड़ा पांडाल और इतनी सी मूर्ती, खैर अब मुंबई की आदतें इतनी जल्दी भी नहीं जायेंगी। गरबा और डांडिया का तो कहीं आस पास पता ही नहीं है और अगर है भी तो इतनी दूर वह भी रात १० बजे से शुरू होता है और पूरी तरह से व्यावसायिक, जहाँ गरबा के मैदान में जाने का टिकट है, वह भी ५०० रुपये से शुरु।

पहले झाबुआ में थे तो वहाँ असली गरबे का रंग चढ़ा था, और जो गरबे वहाँ देखे और खेले थे वह गरबे और डांडिया बस यादें बनकर रह गये हैं। झाबुआ में लगभग हर कॉलोनी में गरबे डांडिया रास का आयोजन होता था, और सभी लोग गरबे में शिरकत किया करते थे। और कहीं पर भी किसी भी जगह डांडिया खेलने की आजादी होती थी, जरूरी नहीं होता था कि कोई शुल्क दिया जाये या वहीं के रहवासी हों।

परंतु अब तो हर जगह गरबे और डांडिया ने व्यावसायिक रूप ले लिया है, डांडिया दुर्गामाता की आराधना करने का ही एक स्वरूप माना जाता है, परंतु आराधना भी अब सामान्य वयक्ति के बस की बात नहीं रह गई है।

आज भी अच्छॆ से याद है हमारे महाविद्यालय में कार्यालय में कार्यरत राठौड़ साहब इतना अच्छा गरबा गाते थे कि उनकी माँग दूर दूर तक होती थी, जैसे माँ का आशीर्वाद हो उनके ऊपर, उनका सबसे अच्छा गायन लगता था पारंपरिक गरबे पर “पंखिड़ा ओ पंखिड़ा “।

आजकल पारंपरिक गरबे के गाने तो सुनने को मिलते ही नहीं हैं, आजकल फ़िल्मी गानों पर गरबा होता है। खैर पता नहीं कि झाबुआ में भी अब गरबे का स्वरूप व्यावसायिक हो गया हो, परंतु हाँ पुराने दिन तो याद आते ही हैं।

जिंदगी की अनमयस्कता से बाहर आने की कोशिश..

     आज बहुत दिनों बाद लिखने की कोशिश कर रहा हूँ, पता नहीं परंतु ऐसा लग रहा था कि दिमाग के साथ साथ लेखन पर भी विराम लग चुका है। खैर अपनी जिंदगी की अनमयस्कता से बाहर आ चुका हूँ और अब वापिस से पटरी पर आने की कोशिश जारी है। न कुछ पढ़ने का मन होता था न लिखने का, यूँ कहें कि कुछ करने का मन नहीं होता था तो ज्यादा ठीक होगा। न किसी से मिलने का, अगर मजबूरी में मिल भी लिये तो मन मारकर मिल लेते कि सामने वाले को बुरा न लगे। खैर जिंदगी में हर तरह के दौर आते हैं, जिसमें सभी तरह की घटनाएँ घटित होती रहती हैं।

    जब जिंदगी बेपटरी हो जाती है तो किसी की भूख मर जाती है और किसी को ज्यादा भूख लगती है, हम दूसरे तरह के निकले, इतनी भूख लगती कि जो सामने आता खा जाते। बस खाते रहो और अपने चिंतन की गहराई में गोते लगाते रहो। कभी ऐसा लगता कि मोटापा ज्यादा बढ़ता जा रहा है, परंतु कुछ अपने से ज्यादा मोटों को देखकर थोड़ी चिंता कम होती कि चलो अपने अभी इससे तो कम हैं। खैर यह तो मन को मनाने की बात है परंतु चिंता का विषय भी है, खैर अब दिनचर्या को ठीक करने का प्रयत्न जारी है।

    इसी बीच एक अच्छी और ठीक ठाक खबर यह रही कि एक और बीमा लिया तो उन्होंने पूरे शरीर की जाँच करवाई तो अपने शरीर के सारे पुर्जे बराबर पाये गये और उसमें हमें उत्तीर्ण कर दिया गया। खासकर टीमटी में तो दौड़ाकर और चलाकर और फ़िर हृदय को आराम मिलने तक जो प्रक्रिया रही तो हृदय की पूरी जाँच हो गई।

    अब फ़िर से लेखन में नियमितता आ पायेगी, ऐसी उम्मीद है, इसी बीच बहुत सारे वित्तीय लेख पढे और बहुत सारे वित्तीय विषयों और प्रबंधन विषयों पर विश्लेषण भी किया अगर वे या कुछ मेरे शब्दों में ढ़ल पाये तो जल्दी ही पोस्ट ठेलायमान होगी।

    लेपटॉप पर विन्डोज का हिन्दी सुविधा भी चालू कर ली है, परंतु उसका कीबोर्ड रेमिंग्टन है, क्या हम उसे फ़ोनोटिक में उपयोग कर सकते हैं ? अगर कोई यह बता दे तो अपना एक माह का समय रेमिंग्टन सीखने से बच जायेगा।

    अब यह संकल्प भी लिया है कि हर महीने कम से कम एक पुस्तक तो पढ़नी ही है, और अपने मोबाईल पर पीडीएफ़ पढ़ने में थोड़ी तकलीफ़ होती है तो अमेजन किंडल फ़ायर लेने की आग मन में लगी हुई है परंतु अब सोचा जा रहा है कि भौतिक रूप से किताबों को ही पढ़ा जाये और अपनी अलमारी को ही भरा जाये।

रेलयात्रा में अनजाने लोगों से यादगार मुलाकातें और उनकी ही सुनाई गई एक कहानी… (My Railway Journey..)

    रेलयात्रा करते हुए अधिकतर अनजाने लोगों से अलग ही तरह की बातें होती हैं, जिसमें सब बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं, और लगभग हर बार नयी तरह की जानकारी मिलती है।

    इस बार कर्नाटक एक्सप्रेस से जाते समय एक स्टेशन मास्टर से मुलाकात हुई जो कि अपने परिवार के साथ ७ दिन की छुट्टी के लिये अपने गाँव जा रहे थे। घर में सबसे बड़े हैं और अपने चचेरे भाईयों को उनके भविष्य के बारे में महत्वपूर्ण राय देते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि उनके भाई उनके मार्गदर्शन को मानते भी हैं और उनके मार्गदर्शन पर चलते हुए दो भाई सरकारी नौकरी में भी लग गये हैं, अब उन्हें तीसरे की चिंता है।

    ऐसे ही बातें चल रहीं थीं तो उन्होंने एक बहुत ही अच्छी छोटी सी कहानी सुनाई, कि अच्छे लोगों के साथ ही हमेशा बुरा क्यों होता है और हम यह भी सोचते हैं कि फ़लाना कितने बुरे काम करता है परंतु भगवान उसको कभी सजा नहीं देते।

    एक गाँव में दो दोस्त रहते थे और शाम के समय पगडंडी पर घूम रहे थे, पहला वाला दोस्त बहुत ईमानदार और नेक था और दूसरा दोस्त बेहद बदमाश और बुरी संगत वाला व्यक्ति था। तभी एक मोटर साईकिल से एक आदमी निकला तो उसकी जेब से एक १००० रूपये का नोट गिर गया। तो पहला दोस्त दूसरे से बोला कि चलो जिसका नोट गिरा है उसे मैं जानता हूँ, उसे दे आते हैं। दूसरा दोस्त बोला कि अरे नहीं बिल्कुल भी नहीं ये हमारी किस्मत का है इसलिये यहाँ उस आदमी की जेब से गिरा है, यह नोट उस आदमी की किस्मत में नहीं था, हमारी किस्मत में था, चल दोनों आधा आधा कर लेते हैं, ५०० रूपये तुम रखो और ५०० रूपये मैं रखता हूँ।

    पहले दोस्त ने मना कर दिया कि मैं तो ऐसे पैसे नहीं रखता तो दूसरा दोस्त बोला कि चल छोड़ मेरी ही किस्मत में पूरे १००० रूपये लिखे हैं, पर फ़िर भी पहला दोस्त उसे समझाता रहा कि देखो ये रूपये हमारे नहीं हैं, हम उसे वापिस लौटा देते हैं। परंतु दूसरा दोस्त मानने को तैयार ही नहीं होता है।

    चलते चलते अचानक पहले वाले दोस्त को पैर में कांटा लग जाता है और वह दर्द से बिलबिला उठता है। और दूसरा दुष्ट दोस्त १००० रूपये का नोट हाथ में लेकर नाचता रहता है।

    पार्वती जी शिव जी के साथ यह सब देखती रहती हैं। और शिव जी से शिकायत करती हैं कि यह कैसा न्याय है प्रभु, जो सीधा साधा ईमानदार है उसको मिला कांटा और जो दुष्ट और पापी है उसे मिला १००० रूपया। शिव जी पार्वती जी को बोलते हैं, ये सब मेरे हाथ में नहीं है, इसका हिसाब किताब तो चित्रगुप्त के पास रहता है। पार्वती जी कहती है कि प्रभु मुझे इनके बारे में जानना है आप चित्रगुप्त को बुलवाईये। चित्रगुप्त को बुलाया जाता है, और प्रभु उनसे कहते हैं, बताओ चित्रगुप्त इन दोनों दोस्तों के बारे में पार्वती जी को बताओ।

    चित्रगुप्त कहते हैं पहला दोस्त जो कि इस जन्म में पुण्यात्मा ईमानदार है, पिछले जन्म में महापापी दुष्ट था, इसकी तो बचपन में ही अकालमृत्यु लिखी थी, परंतु अपने कर्मों के कारण इसके बुरे कर्मों के फ़लों का नाश हो गया और आज जो इसे कांटा चुभा है वह इसके पिछले जन्मों में किये गये बुरे कर्मों का अंत था, अब इसके पुण्य इसके साथ ही रहेंगे।

    पार्वती जी बोलीं – चित्रगुप्त जी दूसरे दोस्त के बारे में बताईये। चित्रगुप्त कहते हैं दूसरा दोस्त पिछले जन्म में बहुत पुण्यात्मा और ईमानदार था परंतु इस जन्म में महापापी दुष्टात्मा है, अगर यह इस जन्म में भी पुण्यात्मा होता तो इसे तो राजगद्दी पर बैठना था, परंतु दुष्ट है इसलिये आज इसका पिछले जन्मों का पुण्य खत्म हो गया और इसे राजगद्दी की जगह १००० रूपयों से ही संतोष करना पड़ रहा है। और अब इसके पाप इसके खाते में लिखे जायेंगे।

मुंबई गाथा दादर रेल्वे स्टेशन.. भाग ६ (Dadar Railway Station.. Mumbai Part 6)

मुंबई गाथा की सारी किश्तें पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।

    हमें दिया गया था बोईसर, जो कि मुंबई से बाहर की ओर है, हमें थोड़ा मायूसी तो हुई कि काश मुंबई मिलता तो यहाँ घूमफ़िर लेते और मुंबई के आनंद ले लेते। पर काम तो काम है, और काम जब सीखना हो तो और भी बड़ा काम है।

    हम तीन लोग होटल की और जाने लगे उसमें वही वरिष्ठ जो हमें ट्रेन से लाये थे वही थे जो कि उस समय हमारे समूह का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, फ़िर पूछा कि टैक्सी से चलेंगे या पैदल, तो हमने कह दिया नहीं इस बात तो पैदल ही जायेंगे। मुश्किल से ७-८ मिनिट में हम होटल पहुँच लिये, और फ़िर उनसे बोला फ़ालतू में ही सुबह टैक्सी में गये और पैसे टैक्सी में डाले, इस पर वे बोले “अरे ठीक है, वह तो कंपनी दे देगी”, हम चुप रहे क्योंकि हमें अभी बहुत कुछ पता नहीं था, और जब पता न हो तो चुपचाप रहना ही बेहतर होता है। तो सामने वाला जो भी जानकारी देता है हम उसे ग्रहण कर लेते हैं, और जब हमें थोड़ा जानकारी हो जाती है तो फ़िर हम उसके साथ बहस करने की स्थिती में होते हैं, और यह समझने लगते हैं कि हम ज्यादा समझदार हैं और सामने वाला बेबकूफ़,  यह एक मानवीय प्रवृत्ति है।

    होटल से समान लेकर फ़िर टैक्सी में चल दिये दादर रेल्वे स्टेशन, जहाँ से हमें लोकल ट्रेन से हमें मुंबई सेंट्रल जाना था और फ़िर वहाँ से बोईसर के लिये कोई पैसेन्जर ट्रेन मिलने वाली थी। दादर लोकल रेल्वे स्टेशन पहुँचे और वहाँ इतनी भीड़ देखकर दिमाग चकराने लगा, और लोकल में यात्रा करने का रोमांच भी था। सड़क के दोनों तरफ़ पटरियाँ लगी थीं और लोग अपना समान बेच रहे थे, भाव ताव कर रहे थे, शायद यहाँ बहुत कम दाम पर अच्छी चीजें मिल रही थीं।

    दादर स्टेशन के ओवर ब्रिज पर चढ़े तो हमने पूछा कि टिकिट तो लिया ही नहीं, तो वरिष्ठ दादर रेल्वे स्टेशन बोले कि टिकिट काऊँटर ब्रिज पर ही है, हमें घोर आश्चर्य हुआ, कि बताओ टिकिट काऊँटर ऊपर ब्रिज पर बनाने की क्या जरुरत थी, मुंबई में बहुत सी चीजॆं ऐसी मिलती हैं जो कि आपको आश्चर्य देती हैं। खैर अपना समान लेकर ऊपर ब्रिज पर पहुँचे तो देखा कि लंबी लाईन लगी हुई है, लोकल ट्रेन के टिकिट के लिये, और कम से कम २५ लोग तो होंगे, हमने वरिष्ठ को बोला कि अब क्या करें वो बोले कि कुछ नहीं लग जाओ लाईन में और टिकिट ले लो ३ मुंबई सेंट्रल के, हमने अपना संशय उनसे कहा कि इस लाईन में तो बहुत समय लग जायेगा कम से कम १ घंटे की लाईन तो है, (अब अपने को तो अपने उज्जैन रेल्वे स्टॆशन की टिकिट की लाईन का ही अनुभव था ना !!) तो वो बोले कि अरे नहीं अभी दस मिनिट में नंबर आ जायेगा। हम भी चुपचाप लाईन में लगे और घड़ी से समय देखने लगे तो देखा कि द्स मिनिट भी नहीं लगे मात्र ८ मिनिट में ही हमारा नंबर आ गया।

     टिकिट काऊँटर वाले की तेजी देखकर मन आनंद से भर गया और सोचने लगे कि काश ऐसे ही कर्मचारी हमारे उज्जैन में होते तो लाईन में घंटों न खड़ा होना पड़ता।

जारी..

मुंबई गाथा स्ट्राँग रूम और १० करोड़ नगद.. भाग ५ (Strong Room and Cash 10 Caror.. Mumbai Part 5)

मुंबई गाथा की सारी किश्तें पढ़ने के लिये यहाँ क्ल्कि करें।

   थोड़ी ही देर में क्लाईंट के ऑफ़िस के सामने थे, जिसके यहाँ हमारी कंपनी का सॉफ़्टवेयर चलता था और भारत के हरेक हिस्से में वे लोग अपनी संपूर्ण प्रक्रिया को कंप्यूटरीकृत कर रहे थे, जिसमें हमारा काम था, उनका डाटा ठीक करना, माइग्रेशन करना और फ़िर अगर बैलेंस नहीं मिल रहे हैं तो बैलेंस मिलाना और सॉफ़्टवेयर उपयोग करने वाले कर्मचारियों को सिखाना।

    जब वहाँ अपने एक कक्ष में पहुँचे तो देखा कि पहले से ही वहाँ हमारी कंपनी के बहुत सारे लोग मौजूद हैं, जिसमें से कुछेक को पहचानते थे और कुछ का नाम सुना था, पर बहुत सारे चेहरे अनजाने थे, सबसे हमारा परिचय करवाया गया, लगा कि अभी तो जिंदगी में ऐसे ही पता नहीं कितने नये चेहरों से मिलना होगा, और उन चेहरों के साथ काम भी करना होगा। जिनमें बहुत सारे चेहरे दोस्त बनेंगे और कुछ से अपने संबंध ठीक से रहेंगे और कुछ से नहीं भी बनेगी।

    मेरी जिंदगी में यह एक नया अध्याय शुरु हो चुका था, जिसका अहसास संपूर्ण रुप से मुझे हो रहा था, जिंदगी कितनी करवटें बदलती है यह मैंने देखा है, परंतु यह मेरी जिंदगी की पहली करवट है यह मुझे पता चल रहा था।

    हमारे वरिष्ठ ने फ़िर पूरे स्टॉफ़ से परिचय करवाया और पूरी इमारत घुमाने लगे, हम सोचने लगे कि बताओ हम कहाँ गाँव में रहते थे, इसे कहते हैं शहर। ऐसे ही घूमते घूमते हम पहुँचे स्ट्राँग रूम, हमसे पूछा गया कि स्ट्राँग रूम का मतलब समझते हो, और इसका क्या उपयोग होता है, हमने स्ट्राँग रूम शब्द ही पहली बार सुना था और उसके बारे में पता भी नहीं था कि ये क्या चीज होती है। तब हमारे वरिष्ठ ने हमें बताया कि स्ट्राँग रूम उसे कहते हैं जहाँ कोई भी वित्तीय संस्थान अपनी नकदी और लॉकर्स रखता है, और इस स्ट्राँग रूम में सुरक्षाओं के कई स्तर होते हैं, जिससे यह सब चीजें सुरक्षित रहें। स्ट्राँग रूम की दीवारें पूरी तरह से सीमेंट कांक्रीट से बनी होती हैं, जिस सामग्री से सामान्यत: बीम और पिलर बनते हैं, जिससे स्ट्राँग रूम इतना मजबूत हो जाता है, और उस पर भी सुरक्षा के विभिन्न स्तर रहते हैं।

    हम स्ट्राँग रूम पहुँचे तो वहाँ का स्ट्राँग रूम बहुत ही बड़ा था, और वहाँ ढेर सारे रुपये थे, हमने अपनी जिंदगी में पहली बार इतनी नकदी एक साथ देखी थी, हमारे वरिष्ठ ने पूछा कि बताओ कितने रुपये होंगे, हम बोले कि अंदाजा नहीं लग रहा है, वे बोले ये कम से कम दस करोड़ रुपये हैं और यहाँ रोज दस से बारह करोड़ रुपयों का नकद में व्यवहार होता है। हम सबके चेहरे पर आश्चर्यमिश्रित चमक थी कि आज हमने इतने सारे रुपये एक साथ देखे और हमारी जिंदगी का एक यादगार लमहा भी था।

    थोड़ी ही देर में हमारी कंपनी के डायरेक्टर आये तो वे बोले कि आप सब को अलग अलग जगह जाना है और हमारा सहयोग करना है, सबको क्लाईंट की शाखाएँ दे दी गईं। पूरा बॉम्बे जैसे मेरी नजरों के सामने ही था, नाम पुकारे जा रहे थे और सभी लोग अपने नाम आने का इंतजार करने के बाद अपने समूह में चले जाते और कब निकलना है और कैसे काम करना है, उस पर चर्चा करने लगते, यह सब चीजें हमारे लिये बिल्कुल नई थीं, पर हम हरेक चीज का मजा ले रहे थे और समझने की कोशिश कर रहे थे। फ़िर एक एक समूह डायरेक्टर के पास जाता और उनसे मंत्रणा करने के बाद, सबको मिलकर निकल जाता।

    इतनी दूर परदेस से आये इतने सारे लोग अपनी जिंदगी की शुरुआत दूर देस बॉम्बे में कर रहे थे, हम भी उनमें से एक थे, ऐसे ही पता नहीं कितने लोग अपने रंगीन सपने लिये बॉम्बे आ चुके होंगे और आज भी आ रहे हैं, मुंबई नगरी में है ही इतना आकर्षण, कि सबको अपनी ओर आकर्षित कर लेती है और अपनी संस्कृति में समाहित कर लेती है।

जारी…

मुंबई गाथा.. भाग ४ होटल में (In Hotel.. Mumbai Part 4)

मुंबई गाथा की सारी किश्तें पढ़ने के लिये यहाँ क्ल्कि करें।

    शिवाजी पार्क दादर से गुजरते हुए बहुत ठंडी और ताजगी भरी हवा का अहसास हुआ, तो लगा कि पास ही कहीं समुंदर है, जो कि बहुत ही पास था दादर चौपाटी। शिवाजी पार्क से थोड़ा आगे जाते ही हमारा होटल था, जहाँ हमें ठहरना था। जब टैक्सी रुकी तो एकदम होटल से लड़के आये और हमारा समान हमारे कमरे में ले जाने लगे।

    उस होटल में कमरे बहुत ही कम खाली थे और पहले ही वहाँ बहुत सारे नये नियुक्ति वाले लोग आ चुके थे, तो हमारे वरिष्ठ ने कहा कि अभी और कोई कमरा खाली नहीं है, चलो मेरे कमरे में, पर हाल देखकर डरना मत, क्योंकि कम से कम १०-१२ लोग सो रहे होंगे और सुबह आठ बजते ही सब अपने अपने काम पर निकल लेंगे, उस समय प्रात: ६.३० बज रहे थे। हम कमरे में गये तो सुनकर पहले ही मन बना चुके थे पर देखकर कसमसाहट हो रही थी कि कहाँ फ़ँस गये, क्या और कोई होटल नहीं हो सकता था, और भी बहुत कुछ, तभी वरिष्ठ बोले कि अपना समान जहाँ जगह दिखती है वहाँ रखो और बिस्तर पर जगह बनाकर पसर लो, मैं तुम लोगों को लेने के लिये १० बजे आऊँगा तब तक तुम लोग नाश्ता करके तैयार रहना। और नाश्ता होटल की तरफ़ से है, तो अच्छे से दबाकर नाश्ता कर लेना।

    हमारा ध्यान सबसे पहले खिड़्की की ओर गया, खिड़की के बाहर दादर की मेन रोड थी और गाड़ीयाँ अपनी पूरी रफ़्तार से भागी जा रही थीं, सुबह का मौसम और समय बहुत सुकून देता है, शरीर में ताजगी और स्फ़ूर्ती भर देता है।

    हम लोगों ने भी बिस्तर पर थोड़ी थोड़ी जगह की और लेट गये क्योंकि फ़िर दिनभर आराम नहीं मिलने वाला था। पता नहीं कब झपकी लगी और जो साथी लोग सो रहे थे, तैयार होकर नाश्ता कर मुंबई की जिंदगी में विलीन होने लगे। थोड़े समय बाद हमें भी इस मुंबई में विलीन हो जाना था। थोड़ी ही देर में फ़िर हम केवल उतने दोस्त ही बचे जो उज्जैन से आये थे और हम लोग भी तैयार होने लगे, तैयार होकर फ़िर फ़ोन किया कि नाश्ता भेजिये। कॉन्टीनेन्टल नाश्ता था, अच्छे से दबाकर खाया। मुंबई का पहला दिन था और घर के बाहर भी, और नौकरी का भी पहला दिन था, मन में अजब सा उत्साह था, और गजब की स्फ़ूर्ती थी।

    हम लोग इसी उत्साह और स्फ़ूर्ती में जल्दी तैयार हो गये, और वरिष्ठ का इंतजार करने लगे, वे बिल्कुल १० बजे आये और हम लोगों को टैक्सी में साथ लेकर ऑफ़िस की ओर ले जाने लगे। वे बोले कि वैसे तो १० मिनिट चलकर भी जा सकते थे परंतु तुम सब लोग नये हो और मुंबई के अभ्यस्त नहीं हो इसलिये टैक्सी से ही चल रहे हैं।

जारी..

मुंबई गाथा.. भाग ३ ये है बॉम्बे मेरी जान (Bombay meri jaan.. Mumbai Part 3)

मुंबई गाथा की सारी किश्तें पढ़ने के लिये यहाँ क्ल्कि करें।

टैक्सी मुंबई  जैसे ही बांद्रा में टैक्सी में बैठे तो टैक्सी ड्राईवर ने हमारा समान जितना डिक्की में आ सकता था उतना डिक्की में रखा और बाकी का ऊपर छत पर स्टैंड पर रखकर रस्सी से बांध दिया। हम लोग २ टैक्सी में थे और टैक्सी में अपनी जगहों पर विराजमान हो चुके थे। फ़िर ड्राईवर ने चलने से पहले टैक्सी का मीटर डाऊन किया, तो टन्न करके आवाज आई, ये आवाज भी जानी पहचानी लगी सब फ़िल्मों का कमाल था, कि अनजाने शहर में बहुत सी चीजें अपनी और जानी पहचानी सी लग रही थीं।

बांद्रा स्टेशन से बाहर निकले तो हमारे वरिष्ठ हमारे बिना बोले हमारी सारी जिज्ञासाओं को शांत कर रहे थे, मानो उन्होंने हमारे मन की बात पढ़ ली हो, कि हम मुंबई के बारे में जानने को उत्सुक हैं। हमारे वरिष्ठ भी इंदौर से ही थे पर वे मुंबई में लगभग २ वर्ष पहले से थे, और मुंबई के बारे में बहुत अच्छा जान चुके थे।

बांद्रा स्टेशन से बाहर निकलते ही झुग्गी झोपड़ियाँ दिख रही थीं, वे बोले कि यह स्लम एरिया है और अभी के दंगों से यह बहुत प्रभावित हुआ था, अब तो फ़िर भी ठीक लग रहा है। यहाँ स्लम में भी जिंदगी बहुत जद्दोजहद की होती है, इन लोगों को जीने के लिये बहुत संघर्ष करने पड़ते हैं। फ़िर मुंबई की सड़कें शुरु हो गईं, हमारे वरिष्ठ बता रहे थे परंतु पहली बार किसी भी शहर में जाओ, सब एकदम नया सा लगता है और एक बार में रास्ते याद भी नहीं होते। मुंबई की कोलतार से लिपटी सड़कों को देखते जा रहे थे, इतनी ऊँची ऊँची इमारतें पहली बार देख रहे थे, ऐसा लग रहा था मानो कि सच में नहीं हम मुंबई का आभासी चलचित्र देख रहे हों और अनुभव कर रहे हों, क्योंकि दिल अभी भी मानने को तैयार ही नहीं था कि अब हम मुंबई में हैं।

शिवाजी पार्क दादर     टैक्सी दादर शिवाजी पार्क की ओर दौड़ी जा रही थी, वहीं हमारा होटल था, हमारे वरिष्ठ बोले कि ये वही शिवाजी पार्क है जहाँ सचिन तेंदुलकर और विनोद कांबली खेला करते थे और अब भी कभी कभी खेलने आते हैं। हम तो बिल्कुल सपने में ही पहुँच गये कि वाह एक तो इतने सारे फ़िल्मी सितारे यहाँ रहते हैं और इतने बड़े बड़े खिलाड़ी भी यहाँ रहते हैं, मुंबई का ह्रदय कितना बड़ा है। मन में इच्छा हो रही थी कि अभी दौड़कर जाऊँ और शिवाजी पार्क में किसी नेट में ढूँढ़कर आऊँ कि शायद कहीं हमारे ये महान खिलाड़ी अभ्यास कर रहे हों।

दादर चौपाटी     शिवाजी पार्क के दूसरी तरफ़ दादर चौपाटी है, हमें पता नहीं था कि दादर चौपाटी क्या है बस हमें इतना बताया गया कि समुंदर का एक किनारा है, क्योंकि हमें तो यह पता था कि चौपाटी दो ही हैं, एक जूहु चौपाटी और गिरगाँव चौपाटी। हमें बताया गया कि शाम के समय दादर चौपाटी थोड़ा संभलकर जाना क्योंकि लहरें तेज होती हैं, पता नहीं कितना सच था, क्योंकि हम दादर चौपाटी जा ही नहीं पाये।

मन में गाना चल रहा था “ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ, जरा बचके जरा हटके ये है बॉम्बे मेरी जान”, इस गाने को ध्यान से सुनियेगा इसमें बॉम्बे की एक एक खूबी को अच्छे से सम्मिलित किया गया है, जो लोग बम्बई में रहते हैं और जो रह चुके हैं या आ चुके हैं, वे इसे अच्छी तरह से समझेंगे।

जारी..

मुंबई गाथा.. भाग २ मायानगरी मुंबई में .. (Mayanagari Mumbai.. Mumbai Part 2)

    हमारे वरिष्ठ जो हमें लेने आने वाले थे, न हमने उनको देखा था और न ही उन्होंने हमें देखा था, और फ़िर ट्रेन का समय भी बहुत सुबह का था, तड़के ५.३० बजे तो हम भी समझ सकते हैं कि शायद उठने में देरी हो सकती है, मुंबई में वैसे भी एक जगह से दूसरी जगह जाने में बहुत समय लग जाता है।
    ट्रेन बांद्रा पहुँच चुकी थी और लगभग सारे यात्री प्लेटफ़ॉर्म से चले गये थे, हम सभी अपने डिब्बे के पास ही अपना समान प्लेटफ़ॉर्म पर रखकर इंतजार करने लगे, समय बीतता जा रहा था और हम लोगों की चिंता बड़ती ही जा रही थी। जाते जाते हमारे सहयात्री यह भी बोल गये थे कि कम से कम कहाँ जाना है वह पता तो लिया होता। हमें भी अपनी गलती का अहसास हुआ, पर अब क्या कर सकते थे, हम लोगों ने सोच लिया था कि अगर थोड़ी देर और नहीं आते हैं तो एस.टी.डी. से सीधे कंपनी के उसी व्यक्ति से बात करेंगे जिन्होंने हमें नियुक्ती दी थी।
फ़्लॉपी     थोड़ी ही देर में एक लंबा सा व्यक्ति, किसी को ढूँढ़ता हुआ सा लगा जो कि उसी समय प्लेटफ़ॉर्म पर प्रविष्ट हुआ था, और उनके हाथ में १.२ एम.बी. की फ़्लॉपी का डिब्बा था तो हमें लगा कि यह क्म्पयूटर/ सॉफ़्टवेयर से संबंधित ही कोई लगता है, हमने उनको कंपनी का नाम बोलकर पूछा तो वे मुस्करा दिये और बोले कि हाँ मैं आप लोगों को ही लेने आया हूँ। फ़िर वे बोले मैं इसीलिये १.२” फ़्लॉपी बॉक्स लाया क्योंकि इससे तुम लोग आसानी से पहचान पाते। और उन्होंने कहा कि “मुंबई में आपका स्वागत है”। हम खुश थे कि चलो आखिरकार सारे अंदेशे गलत निकले।
    हमने उनको कहा कि हमें लगा कि शायद हमसे गलती हो गई कि हम मुंबई का पता लेकर नहीं आये तो वे बोले अरे चिंता मत करो अब तुम आ गये हो, और हम तुम्हारे साथ हैं, अब यहाँ से सीधा होटल चलना है। फ़िर तैयार होकर १० बजे तक ऑफ़िस चलना है, हम बहुत सारे लोग होटल पर हैं और जल्दी चले जायेंगे, मैं तुम लोगों को लेने वापिस होटल पर आऊँगा तब तक हमारे सर भी आ जायेंगे, और कहाँ कैसे काम करना है वह भी बता देंगे।
    बांद्रा स्टेशन के बाहर निकले तो टैक्सी से हमें जाना था, वही टैक्सी जिसे आजतक रुपहले पर्दे पर देखते आ रहे थे, और आज वह हमारे सामने थी और हम उसमें बैठने का आनंद लेने वाले थे, कितनी ही फ़िल्मों में टैक्सी देखी थी, फ़िल्मों की बदौलत सब जाना पहचाना लग रहा था,  जो जीवन हम अभी तक रुपहले पर्दे पर देखते थे, हम उस जीवन का हिस्सा बनने जा रहे थे।
    टैक्सी, ऑटो, बेस्ट की बसें, डबल डॆकर बसें देखकर तो बस मन प्रफ़ुल्लित हो रहा था, सब सपने जैसा लग रहा था कि जैसे हम रुपहले पर्दे में घुस गये हों और सारी दुनिया हमें देख रही है।
जारी…

मुंबई गाथा.. भाग १ पहली बार मुंबई में .. (First time in Mumbai.. Mumbai Part 1)

    मुंबई मायानगरी है, बचपन से मुंबई के किस्से सुनते आ रहे थे, मुंबई ये है मुंबई वो है, वहाँ फ़िल्में बनती हैं, कुल मिलाकर बचपन की बातों ने जो छाप मन पर छोड़ी थी, उससे मुंबई को जानने की और जाने की उत्कंठा बहुत ही बड़ गयी थी।

उज्जैन रेल्वे स्टेशन     पहली बार मुंबई नौकरी के लिये ही सन १९९६ में आया था, फ़िल्मों में केवल नाम सुने थे, बांद्रा, अंधेरी, दादर, महालक्ष्मी, लोअरपरेल, मुंबई सेंट्रल, प्रभादेवी इत्यादि और मायानगरी में पहुँचकर तो बस जैसे हमारे पैर जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे, जब १९९६ में आये थे तब उज्जैन से अवन्तिका एक्सप्रैस से बांद्रा उतरे थे, हम बहुत सारे दोस्त एक साथ मुंबई आ रहे थे सबके मम्मी पापा ट्रेन पर छोड़ने आये थे और सब समझाईश दे रहे थे, समझदारी से काम लेना बहुत बड़ी जगह है, और भी बहुत सारे निर्देश जो कि अमूमन अभिभावकों द्वारा दिये जाते हैं। उस समय जिस कंपनी ने हमें नियुक्ती दी थी उसके बारे में ज्यादा पता नहीं था परंतु हाँ हमारे कुछ और दोस्त पहले से ही उस कंपनी में कार्य कर रहे थे।

    हमारे मन में भी गजब हलचल थी पहली बार मायानगरी मुंबई जो जा रहे थे, पहली बार जीवन में दरिया याने कि समुंदर के किनारे वाली नगरी में जो  जा रहे थे। हमारी मुंबई जाने की खुशी छिपाये नहीं छिप रही थी, हम बहुत खुश थे, और अपने पालकों द्वारा निर्देशित किये जा चुके थे, ट्रेन उज्जैन से रवाना हुई, उस समय ट्रेन बांद्रा तक आती थी, अब मुंबई सेंट्रल जाती है।
    ट्रेन में कुछ और सहयात्रियों से बातें हुईं, तो हमें थोड़ा सावधानी बरतने की सलाह दी गई कि मुंबई में तो लोग ऐसे ही बुलाते हैं फ़िर हाथ में घोड़ा देकर कहते हैं कि जाओ उसका गेम बजा दो और बस मुंबई में ऐसे ही चलता है। ये सब सुनकर हमारे सबके मन में थोड़ा भय भी घर कर गया था, परंतु हम इतने सारे दोस्त थे इसलिये हिम्मत बंधी हुई थी, और हम सबने आपस में तय भी कर लिया था कि अगर कुछ भी गड़बड़ लगी तो वापिस से आरक्षण करवाकर तुरंत वापसी उज्जैन कर लेंगे।

बांद्रा रेल्वे स्टेशन      हमारे एक वरिष्ठ जो कि पहले से ही मुंबई में थे, वे लेने आयेंगे यह पहले से ही तय था, सबसे बड़ी समस्या थी कि पहचानेंगे कैसे, हमने तय किया कि चाक से ट्रेन के डिब्बे पर नाम लिख देंगे अगर कोई हमें लेने आया और पहचान नहीं पाया,  मोबाईल फ़ोन तो थे नहीं कि झट से पूछ लिया कि हम यहाँ खड़े हैं…

(वैसे हमारे वरिष्ठ जब हमें लेने आये तो हम एक बार में ही पहचान गये बताईये कैसे पहचाना होगा… वे ऐसी क्या चीज साथ में लाये होंगे… कंपनी के नाम की नामपट्टिका नहीं थी..)
 
 

इटेलियानो पास्ता सचित्र (Iteliano Pasta with Pictures)

    आज जाने कहाँ से ख्याल आया कि आज इटेलियानो पास्ता खाया जाये, पास्ता मसाला मेनिया नहीं,  पर पिज्जाहट और डोमिनो पिज्जा के पास्ते के भाव देखकर होश फ़ाख्ता हो लिये, हमने खुद ही बनाने का महत्वपूर्ण निर्णय ले लिया। और ले आये पास्ता और उसमें लगने वाला समान, सब्जियाँ।
  • समान –
  • पास्ता – २०० ग्राम
  • प्याज –  २
  • शिमला मिर्च – १
  • टमाटर – ४
  • हरी प्याज – १
  • बटर – ३ चम्मच
  • चीज – २ क्यूब

Vegetables Chopped Vegetables
Crushed chees Pasta
Pasta in Boiled Water Cooking Pasta
Iteliano Pasta ready
सारी सब्जियों को मनपसंद आकार में काटकर, बटर में १ मिनिट तक गुलाबी कर लें और फ़िर सब्जियों को भी डाल दें और नमक डाल दें।

पास्ता को पकाने के लिये पहले १-२ लीटर पानी में नमक और १ चम्मच तेल डालकर उबाल लीजिये और जब पानी उबल जाये तो उसमें पास्ता डालकर १०-१२ मिनिट तक पका लें फ़िर पानी नितार कर इस पास्ता को बनी हुई सब्जी में डाल दें और चीज को किसकर डाल दें, नमक स्वादानुसार डाल लें। अगर टमाटर सॉस डालना है तो वो भी डाल सकते हैं, तैयार हो गया इटेलियानो पास्ता।
पकाने का समय – १०-१२ मिनिट

३० मिनिट में डिलेवरी देने वाले फ़्रेंचाईजी से लेने से अच्छा हमें खुद ही बनाना अच्छा लगा और पूरे ३० मिनिट भी नहीं लगे समान खरीदने, सब्जी काटने और बनाने में।

कुल लागत – लगभग ६०-६५ रुपये ३-४ लोगों के लिये अच्छी मात्रा में। और अगर बहुराष्ट्रीय कंपनी को ऑर्डर देते तो बिल होता कम से कम २४० रुपये और पास्ता की मात्रा भी कम। यम्मी यम्मी बना पास्ता।