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हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है… एक मेमशाब है साथ में शाब भी है..
एक गँवार आदमी को एक देश का सूचना तकनीकी मंत्री बना दिया गया, जिसे संगणक और अंतर्जाल का मतलब ही पता नहीं था। उस गाँव के संविधान में लिखा था कि सभी को अपनी बातें कहने की पूर्ण स्वतंत्रता है, परंतु उस जैसे और भी गँवार जो कि पेड़ के नीचे लगने वाली पंचायत में बैठते थे। उस पंचायत का मुखिया बनाया गया एक ईमानदार और पढ़े लिखे आदमी को, परंतु पंचायत पर राज उनके पीछे बैठी एक भैनजी और उनके बबुआ चलाते थे।
एक बार एक आदमी विदेश से आया और साथ में अखबार लाया और उसमें उसने पंचायत के सामने वह अखबार रखा कि देखो कि फ़ैबुक और विटेर पर लोग क्या क्या अलाय बलाय लिखते हैं और फ़ोटो अपने तरीके से बनाकर छापते हैं। पहले तो जब पंचायत और लोगों को जब वह अखबार दिखाया गया तो सभी लोग अपनी हँसी मुँह दबाकर छिपाते रहे, परंतु तभी उस पंचायत के सूचना तकनीकी मंत्री जो कि उस गाँव के टेलीफ़ोन के खंबे भी ढंग से गिन नहीं पाते थे, कहने लगे अरे ये तो हम भी अपने ही गाँव में कहीं देखे थे, उस दिन बड़ा अच्छा लग रहा था, उस दिन हम केवल फ़ोटू देखे थे कि मुखिया राजदूत चला रहे हैं और भैन जी उनके पीछे बैठकर फ़टफ़टिया के मजे ले रही हैं, उस दिन हमें लगा था कि वाह मुखिया ने भैनजी के संग क्या फ़ोटू हिंचवाया है।
आज पता चला कि ये तो जनता ने खुदही बनाकर डाल दिया है, असल में तो हमारे मुखिया और भैन जी बहुत ही सीधे हैं, मुखिया ने तो कभी फ़टफ़टिया चलाई ही नहीं है और भैन जी भी कभी फ़टफ़टिया पर बैठी नहीं हैं। खैर मंत्री जी ने तुरत आदेश दिया कि सारे टेलीफ़ोन के खंबे तुड़वा दिये जायें जिससे ना ये इंटर-नेट आयेगा और ना ही लोग ऐसी खुराफ़ात कर पायेंगे। अब बताओ मंत्री जी को कि लोग मोबाईल पर भी नेट का उपयोग करते हैं, बेचारे कुत्तों का एक मात्र सहारा खंबा भी छीन लिया।
अब बाकी तो आप समझदार हैं ही… अब ज्यादा बोलेंगे तो बोलोगे कि बोलता है।
विटर से कुछ विटर विटर –
जैसे वाहनों का चालान बनाया जाता है वैसे ही ब्लॉगों, फ़ेसबुक मैसेज और ट्विट्स का चालान बनाया जायेगा
I have never commented on them 🙂 hamane to kaha Mummy ji, Yuvraj aur mannu 😉
प्राण साहब का मशहूर गाना फ़िल्म कसौटी से –
एफ़डीआई का हल्ले के बहाने महँगाई और रूपये के अवमूल्यन पर भी चिंतन, हलकान है जनता.. [FDI, Inflation and Depreciation of Rupee… my views]
जहाँ देखो वहीं विदेशी खुदरा दुकानों का हल्ला मचा हुआ है और जनता महँगाई के मारे हलकान हुई जा रही है। महँगाई सर चढ़कर बोल रही है।
किसान को सब्जी का क्या भाव मिलता है और दुकानें किस भाव में बेचती हैं यह एक शोध का विषय है। और अगर शोध किया जाये तो शायद दुनिया चकित रह जायेगी कि किसान को टमाटर का ३ रू. किलो मिलता है और जनता दुकानदार को ४० रू. किलो दे रही है, तो बाकी का बीच का ३७ रू. ये बड़े खुदरा दुकानों के मालिक खा रहे हैं।
जब मुंबई में थे तो वहाँ कोई भी सब्जी कम से कम ४० रू. किलो मिलती थी और अधिकतर तो १६० रू. किलो तक भाव होते थे। पता नहीं कहाँ से महँगाई आई, और यही सब्जी चैन्नई या बैंगलोर में देखें तो अधिकतम ४० रू. किलो सब्जी मिल रही है। टमाटर मुंबई में आज भी ४० रू. किलो हैं और यहाँ बैंगलोर में १६ रू. किलो मिल रहे हैं।
खैर नेता लोग चिल्ला रहे हैं कि विदेशी खुदरा दुकानें आ गईं तो हम आग लगा देंगे, खुलने नहीं देंगे, परंतु क्यों नहीं खुलने देंगे ये नहीं बता रहे हैं, जब रिलायंस रिटेल खुल रहा था तब भी लोगों ने बहुत तोड़ फ़ोड़ की थी, अब हालत यह है कि वही तोड़ फ़ोड़ करने वाले लोग रिलायंस रिटेल से समान खरीद रहे हैं।
थोड़े दिनों बाद विरोधी स्वर विदेशी खुदरा दुकानों के फ़ीता काटते नजर आयेंगे। जनता को समझाइये कि विदेशी खुदरा दुकानों से क्या नुक्सान होगा। आज अखबार में पढ़ा कि जयपुर में कैनोफ़र ने जयपुर के सभी थोक अंडा व्यापारियों से करार कर लिया है, अब सभी खुदरा व्यापारियों को अंडे मिलना बंद हो जायेगा। पहली बात तो यह उन थोक व्यापारियों की गलती है जिन्होंने ये करार किये हैं और वैसे भी भारत है जहाँ हर चीज का जुगाड़ होता है, जब सरकार जुगाड़ से चल सकती है तो ये व्यापार क्या चीज है। खैर आगे क्या होगा यह तो ये करार कार्यांन्वयन होने के बाद ही पता चलेगा। हमारे खुदरा व्यापारी कोई ना कोई तोड़ निकाल ही लेंगे।
ऐसा नहीं है कि मैं विदेशी खुदरा दुकानों का समर्थक हूँ परंतु हाँ यह अर्थव्यवस्था के लिये ठीक होगा और रूपये के अवमूल्यन होने से कुछ हद तक रोकेगा। परंतु रूपये का अवमूल्यन रोकने के लिये क्या इस तरह के हथकंडे अपनाना उचित है ? कतई नहीं !
परंतु नेता जनता को कितना बेवकूफ़ बनायेंगे, अगर इन नेताओं ने घोटाले नहीं किये होते, भ्रष्टाचार पर लगाम कसी होती और भारत के विकास में उस रूपये का योगदान किया होता तो शायद रूपये के मूल्य का अवमूल्यन नहीं होता उल्टा डॉलर कमजोर होता, परंतु सरकार विदेशी लोगों को बाजार में भी तरह तरह के साधन उपलब्ध करवाती है कि ये लोग आसानी से भाग लेते हैं, और जनता ठगी से देखती रह जाती है।
जरूरत है सरकार में नेताओं में विकास की इच्छाशक्ति की कमी की, अगर इन नेताओं में यह इच्छाशक्ति आ जाये तो हम विकास के पथ पर अग्रसर होंगे। लोग कहते हैं कि दस वर्ष में हम नंबर वन बना देंगे, पिछले पाँच वर्ष में भारत को कौन से नंबर पर लाये हैं, ये तो सब जानते हैं।
बात रही [बेचारे] खुदरा दुकानदारों की तो वे बेचारे तो रोजमर्रा कि चीजों को बेचकर अपना घर चला लेंगे। जैसे अगर आपको ब्रेड लेने जाना हो तो आप विदेशी खुदरा दुकानों में तो नहीं जायेंगे ना, बस ऐसे ही बहुत सारी चीजें हैं जो कि आप बिना पार्किंग में अपनी गाड़ी लगाये लेना चाहेंगे या घर से गाड़ी नहीं निकालकर पास के दुकान से लेंगे। तो सरकार को यह समझ लेना चाहिये कि १० लाख से ज्यादा जनता वाले शहर बहुत समझदार हैं।
मुंबई में जहाँ हम रहते थे वहाँ भी आसपास बहुत मॉल थे, परंतु लगभग सभी लोग एक किराने वाले से ही समान लेते थे, वजह वह कीमत में सीधी छूट देता था और उसकी स्कीमें भी आकर्षक होती थीं। फ़िर घर पहुँच सेवा, आप जाकर बोल दीजिये और घर पर समान पहुँच जायेगा। अगर आपकी घर से निकलने की इच्छा नहीं है तो केवल फ़ोन लगा दीजिये और समान घर पर होगा। उस किराना व्यवसायी का स्वभाव बहुत अच्छा था और मृदु भाषी है। यह सब बातें कहाँ देशी और कहाँ विदेशी खुदरा दुकानों पर मिलेंगी।
क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ? क्या इसीलिये आत्महत्या के आंकड़े बढ़ रहे हैं ? (Why Childs are not emotional ? why suicidal cases are increasing ?)
शिक्षा में बदलाव बेहद तेजी से हो रहे हैं और शिक्षक और छात्र के संबंध भी उतनी ही तेजी से बदलते जा रहे हैं। कल के अखबार की मुख्य खबर थी यहाँ बैंगलोर में इंजीनियरिंग महाविद्यालय के छात्र ने होस्टल के कमरे में पंखे से फ़ांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। खबर लगते ही हजारों के झुंड में छात्र इकठ्ठे हो गये और महाविद्यालय प्रशासन के खिलाफ़ नारेबाजी करने लगे। पुलिस बुलाई गई, परंतु छात्रों ने पुलिस को भी खदेड़ दिया और महाविद्यालय की इमारत को भी नुक्सान पहुँचाया। बाद में महाविद्यालय के मालिक का बयान आया कि वह छात्र कमजोर दिल का था और लगातार पिछले तीन वर्षों से उस छात्र का प्रदर्शन बहुत कमजोर था।
यह खब्रर पढ़ने के लिये नहीं लिखी हैं मैंने, सही बताऊँ तो मैंने कल अखबार ही नहीं पढ़ा था पर कल रात्रि भोजन पर भाई से चर्चा हो रही थी तब इस और ध्यान गया और आज सुबह कल का अखबार पढ़ पाया । मन अजीब हो उठा और लगा क्या महाविद्यालय प्रशासन ने कभी उस छात्र के मन में क्या चल रहा है, यह जानने की कोशिश की। महाविद्यालय प्रशासन महज छात्र के घर एक पत्र भेजकर अपनी जिम्मेदारी से तो नहीं बच सकता ।
आज छात्र बहुत ही संवेदनशील परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, क्योंकि वे अब भावुक नहीं रहे, अब छात्रों से भावनाओं के बल पर कोई भी कार्य करवाना असंभव है। उसके पीछे बहुत सारे कारण जिम्मेदार हैं, परवरिश के बेहतर माहौल में कमी, शिक्षकों से अच्छा समन्वयन न होना । ऐसे बहुत सारे कारण हैं। क्योंकि आजकल बच्चों को इंटरनेट पर सब मिल जाता है तो कई बच्चे तो दोस्त भी नहीं बनाते हैं और इंटरनेट पर ही अपना समय बिताते पाये जाते हैं।
अब मेरे मन में जो सवाल उठ रहे हैं कि क्या महाविद्यालय का छात्र पर अच्छे प्रदर्शन के लिये दबाब बनाना उचित था, और अगर दबाब बनाया गया तो उसे क्या उचित मार्गदर्शन दिया गया । छात्र के घर पर पत्र भेजने से छात्र की मानसिक हालात को समझा जा सकता है। हरेक छात्र के माता-पिता यही सोचते हैं कि बेटा अच्छा पढ़ रहा है परंतु अगर महाविद्यालय से इस प्रकार का पत्र मिले तो वे यकीनन ही अपने बेटे पर क्रुद्ध होंगे, और उसे परिस्थिती से बचने के लिये उस छात्र ने आत्महत्या कर ली हो ? छात्र तो पहले से ही विषादग्रसित था, उसको मनोवैज्ञानिक तरीके से संभालना चाहिये था। परंतु ऐसा ना हुआ, अब उन माता-पिता पर क्या गुजर रही होगी जिन्होंने अपना जवान बेटा इसलिये खो दिया क्योंकि वह पढ़ाई में कमजोर था, नहीं ? वह पढ़ाई में कमजोर होने के कारण विषादग्रसित हो चला था।
पढ़ाई में कमजोर होना कोई बुरी बात तो नहीं, पढ़ाई ही तो सबकुछ नहीं है, उससे बढ़कर होता है जीवन जीने का हौसला और उस विषादित परिस्थिती से निकालने में सहायक परिवेश और परवरिश। कमजोर पढ़ाई वाले पता नहीं कितनी आगे निकल गये हैं और पढ़ाई वाले कहीं पीछे रह गये हैं।
मुख्य सवाल जो मेरे मन में है और उसका उत्तर खोजने की कोशिश जारी है मनन जारी है, क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ? और उनके आधुनिक परिवेश में उन्हें कैसी परवरिश देनी चाहिये ?
हैलो… हिन्दी आता है क्या ? (Hello ! Do you know Hindi ?)
ऑफ़िस से आते समय थोड़ा पहले ही घर के लिये उतरना पड़ा तो सिग्नल पर एक आदमी टकराया और बोला “हैलो… हिन्दी आता है क्या?” हमने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और चुपचाप चल दिये कि जैसे अपने को नहीं किसी और को बोला हो।
कई बार ऐसे व्यक्ति मिले हैं, जो कि उत्तर भारतीय लोगों को निशाना बनाते हैं और उनसे मदद के नाम पर ठगी करते हैं, इसलिये अब तो हम बिल्कुल मदद नहीं करते हैं, हाँ इसमें अगर कोई जरूरतमंद होता है तो भी उसकी जानबूझकर मदद नहीं कर पाते हैं।
ये वाक्ये केवल बैंगलोर में ही नहीं भारत में लगभग सभी जगह होते हैं। अगर बात करने रूक जाओ तो उसकी आँखों मॆं विशेष चमक आ जाती है और पता नहीं कहाँ से उसका परिवार भी प्रकट हो जाता है जिसमें अमूमन उसकी पत्नी और एक याद दो बच्चे होते हैं, जो कि फ़टॆहाल होते हैं। और फ़िर शुरू होता है खेल रूपये ऐंठने का । कहा जाता है हम दूर दराज से आये हैं और यहाँ काम नहीं मिल पाया है और अब खाने के भी पैसे नहीं है, खाने के ही पैसे दे दीजिये, घर वापस जाना है कैसे जायें समझ नहीं आ रहा । इस सबसे ही माजरा समझ में आ जाता है कि इन लोगों ने लोगों के हृदय को झकझोर कर रूपये ऐंठने का धंधा बना रखा है ।
क्योंकि जहाँ तक मैं सोचता हूँ आज भी दूर दराज के गाँव का कोई भी व्यक्ति शहर कुछ करने आयेगा तो पहली बात तो वह अकेला आयेगा ना कि अपने परिवार के साथ, और अगर वह कुछ करना चाहता है तो बड़े शहरों में इतना काम होता है कि कोई न कोई काम मिल ही जाता है, और अगर कोई काम न करना चाहे तो वह अलग बात है।
गाँव का व्यक्ति कभी भी अपने स्वाभिमान से डिगेगा नहीं, कि उसे भीख माँगनी पड़ जाये, वह भूखे रह लेगा या वापिस बिना टिकट जैसे तैसे अपने गाँव वापिस चले जायेगा, किंतु शायद ही वह अपने स्वाभिमान से समझौता करेगा, हो सकता है कि कुछ लोगों की परिस्थितियाँ अलग हों। किंतु इतने सारे लोगों की परिस्थितियाँ तो एक जैसी नहीं हो सकतीं।
त्यौहार पर सीधे पहली गाड़ी पकड़कर अपने घर अपने जड़ की तरफ़ भागते हैं, अब आप कैसे समझोगे युवराज !
विकास नहीं होगा तो युवराज बाहर जाकर मजदूरी भी करनी पड़ेगी और भीख भी मांगना पड़ेगी। सभी युवराज आप जैसे सुनहरी किस्मत लेकर पैदा नहीं हुए हैं, अगर युवराज आपने कभी भूख और गरीबी को झेला होता तो शायद यह आप तो कभी नहीं कहते। आप और आपकी संपत्ति ५ वर्ष में २०० से १००० गुना तक बढ़ जाती है परंतु उनके ऊपर कोई आयकर जाँच नहीं होती है और एक व्यापारी जो कि अपनी मेहनत से काम करता है और किसी को घूस देने को मना कर देता है तो झट से सारी सरकारी मशीनरी उसके पीछे पड़े जाती है।
आपके मुँह से विकास की बातें अच्छी नहीं लगतीं, आप पहले कांग्रेस की भारत में उपलब्धियाँ गिनायें कि भारत देश को आगे विकास की राह पर ले जाने के लिये क्या क्या किया, चलो किया भी तो भी गिनायें, जनता को समझ तो आना चाहिये कि क्या क्या कर सकते थे और कितना किया । और अभी भी केवल विकास की भाषा बोल रहे हैं, नहीं युवराज अब ऐसी भाषा से जनता बहकने वाली नहीं है। ऐसी पार्टी से कैसे भारत देश के विकास की उम्मीद की जा सकती है जिनकी सरकार के दर्जन भर मंत्री जेल में हों और बहुत सारे दागी मंत्री हों। खुद केंद्रीय मंत्री आंदोलनकारियों को लात घूसे चलायें तो अब क्या बतायें।
आप बताओ विकास कैसे करोगे, जैसे कोई निजी कंपनी जब अपना उत्पाद किसी को बेचने जाती है तो उसके फ़ायदे बताती है, उस उत्पाद से कंपनी को फ़ायदा होगा तभी ना कंपनी खरीदेगी, जैसे सरकार, जब कोई भी चीज खरीदती है तो पूछा जाता है कि आपने कहाँ कहाँ उत्पाद बेचा है और उन लोगों को कितनी सुविधा हुई, उत्पाद कैसा चल रहा है । आपको समझना पड़ेगा कि जनता अब बेवकूफ़ नहीं रह गई है, जनता के पास सूचना है कि कब कहाँ क्या क्या हुआ और क्या क्या हो रहा है।
विकास के रास्ते पर देश को प्रदेश को कैसे ले जाओगे, उसका मास्टर प्लॉन बताओ तभी युवाओं और जनता की समझ में आयेगा। जब खुद दागी लोगों को आप टिकट देते हो, दागी मंत्री होते हैं, दागी मोटर पर घूम लेते हैं, तब प्रदेश में माफ़िया राज कहना कुछ ठीक नहीं लगता।
जो लोग घर से दूर पड़ें मजदूरी और नौकरी कर रहे हैं, उनके और उनके परिवार के दिल से पूछो कि क्या वे दूसरे प्रदेश में सुखी हैं, नहीं अलबत्ता लगभग सबका जबाब होगा कि अगर हमारे यहाँ भी घर में प्रदेश में अवसर होता तो बाहर तो नहीं आते, चाहे दो पैसे कम कमाते और दो पैसे कम बचाते। किसी को भी घर के बाहर रहना अच्छा नहीं लगता अब आप को क्या पता युवराज जब ये सब आपके ऊपर बीतती तो आपको पता लगता। और वैसे भी भारत में कोई भी कहीं भी जाकर रह सकता है और कमा सकता है इसलिये यह बात बेमानी सी है कि आप केवल इतना कहकर मतदाता को बहका रहे हैं। और खुद पार्टी को हाशिये पर ले जाने की तैयारी कर चुके हैं।
बाहर जो भी रह रहे हैं पढ़े लिखे या अनपढ़ जो नौकरी कर रहे हैं या मजदूरी कर रहे हैं, पता है बाहर केवल पैसा कमाने आये हैं, त्यौहार पर सीधे पहली गाड़ी पकड़कर अपने घर अपने जड़ की तरफ़ भागते हैं, अगर यहीं रहना होता तो घर की तरफ़ नहीं जाते।
अब बात करें महाराष्ट्र की तो अगर मुंबई में बाहर का आदमी नहीं होगा तो मुंबई के चक्के थम जायेंगे, फ़ल फ़ूल और सब्जियाँ तो मिलनी ही बंद हो जायेगी, क्योंकि वहाँ ये सब काम तो अधिकतर बाहर वाले ही कर रहे हैं। ऑटो जो कि मुंबई के परिवहन के मुख्य साधनों में से एक है बंद हो जायेंगे। दर्जी नहीं मिलते मुंबई में, दर्जी भी थोड़ी अच्छी कमाई के लिये मुंबई आते हैं, मैंने अपनी ऑखों से देखा है, दर्जी अपनी मशीन दुकान के बाहर लगाता है और रात को वहीं उसी मशीन के पास अपनी चादर बिछाकर सो जाता है, रहने के लिये कोई जगह नहीं लेता है क्योंकि उसमें भी पैसे खर्च होते हैं, और वह पैसे बचाकर अपने परिवार को भेजता है। नाई, नाई भी अधिकतर वहीं से हैं जहाँ से आप बोल रहे हो, परंतु क्या करेंगे वे भी घर पर कमाई १ हजार भी नहीं हो पाती और मुंबई में कम से कम १०-१२ हजार कमा लेते हैं, दुकान में ही सो जाते हैं, सार्वजनिक शौचालय का उपयोग करते हैं, और पैसे बचाकर घर पर भेजते हैं, क्योंकि घर पर बुजुर्ग हैं जिन्हें दवा की जरूरत है छोटे भाई बहन हैं जिनको आगे पढ़ना है, घर में काम करवाना है, कम से कम अपने परिवार को सहारा तो देते हैं।
अगर आपने युवराज यह सब चीजें बहुत करीब से देखी होतीं तो शायद आपको पता होता कि विकास का क्या महत्व है। आपको वोट देने में कोई बुराई नहीं है परंतु विकास की राह तो बताईये कि हाँ हम गाँव और शहरों में कैसे विकास लायेंगे हमे दागी लोगों को टिकट नहीं देंगे, सरकारी मशीनरी की मदद से लोगों को स्वरोजगार में मदद करेंगे। केवल विकास की बातों से कुछ नहीं होगा।
यह दर्द है ऐसे ही एक दुखहारे का जिसके प्रदेश में कांग्रेस ने लगभग ४५-५० वर्ष शासन किया परंतु वहाँ प्रगति के नाम पर कुछ नहीं हुआ, और कुछ अपना करने की कोशिश भी की तो सरकारी तंत्र से कोई सहायता नहीं मिली और मजबूरी में बाहर नौकरी कर रहा है, नौकरी याने कि जो किसी का नौकर है, तो जब मालिक अपनी पर आता है तो वह बेचारा मजदूर बन जाता है। अगर उस प्रदेश में विकास के लिये कुछ महत्वपूर्ण काम किये गये होते तो वह दुखहारा भी अपने घर अपने प्रदेश अपनी माटी से उतना ही प्यार करता है जितना आप युवराज आप वोट से करते हो।
लिव-इन रिलेशनशिप मतलब बराबर का खर्चा
बिस्तर पर कैसे और किसके साथ नींद में होते हैं, नींद को कभी जाना है ?
प्रोड़क्टिव मेन अवर्स बर्बाद और आभिजात्य वर्ग की मानसिक मजदूरी
अभी दो दिनों से कार्यालय जा रहे हैं, नहीं तो घर से ही काम कर रहे थे। इन दो दिनों में आना जाना और कई लोगों से मिलना हुआ।
घर से काम करने में यह तो है कि घर पर परिवार को समय ज्यादा दे पाते हैं, परंतु काम करने में थोड़ी बहुत अड़चनें भी आती हैं, खैर हमेशा परिवार के साथ रहते हैं, और आने जाने का लगभग २ घंटे का समय भी बचता है, जो कि कहीं और निवेश कर दिया जाता है।
कल जब बस स्टॉप पर बस पकड़ने के लिये खड़े थे तो ऐसा लगा कि सदियाँ बीत गईं हैं सफ़र किये हुए, और बस का इंतजार और बस के इंतजार में खड़े लोग पता नहीं कितने सारे प्रोड़क्टिव मेन अवर्स बर्बाद हो रहे थे और हम कुछ कर नहीं सकते थे, केवल देख सकते थे। व परिवार को जो समय दिया जा सकता है, वह भी कम्यूटिंग में निकल जाता है।
कोई भाग रहा है कोई दौड़ रहा है, कोई मुस्करा रहा है कोई टेंशन में है, सबकी अपनी अपनी दुविधाएँ हैं तो सबके अपने अपने सुख दुख हैं।
रोजी रोटी जो न कराये वह कम है, एक लड़की अपने मित्र का एस.एम.एस. पढ़ पढ़कर दुखी हो रही है, उसके ब्वॉय फ़्रेंड ने एस.एम.एस. में कहा है कि मैं तुम्हारे लिये बहुत सारा समय निकाल सकता हूँ परंतु मेरी और भी प्रायोरिटीज हैं, प्लीज समझा करो और मुझसे ज्यादा एक्स्पेक्ट मत करो, मैं सोचने लगा कि वाह लड़के भी आजकल इतना साफ़ साफ़ मैसेज भेजने की हिम्मत रखते हैं।
नहीं तो हम तो सोचते थे कि केवल लड़कियाँ ही साफ़ साफ़ बोलती हैं 🙂 खैर जब लिफ़्ट के पास होते हैं तो सबके हाथों में मोबाईल देखते हैं, अधिकतर आई फ़ोन लिये दिखते हैं, तो अपने ऊपर कोफ़्त होती है कि अपन इतने आधुनिक क्यों ना हुए.. और जिनके पास ब्लैक बैरी है तो पता चल जाता है कि कंपनी ने दिया है कि बेटा २४ घंटे खाते पीते उठते जागते चलते फ़िरते काम करते रहो। इससे यह तो समझ में आ गया कि आई फ़ोन वाला वर्ग विलासिता भोगी हो सकता है और ब्लैक बैरी वाला अच्छे कपड़ों में मानसिक मजदूर।
अच्छा है कि अपन अभी इन दोनों वर्गों से दूर हैं, या भाग रहे हैं, पहले जब कंपनी लेपटॉप देती थी तो लगता था कि २४ घंटे मजदूरी के लिये दे रही है, परंतु धीरे धीरे अब समय बदल गया है और अब सबको ही लेपटॉप ही दिया जाता है, अब डेस्क्टॉप का जमाना लद गया।
खैर आभिजात्य वर्ग की मानसिक मजदूरी कितने लोग देख पाते होंगे पता नहीं, जो ब्लैकबैरी और लेपटॉप में उलझा रहता है।
म्यूचल फ़ंड क्या करें, क्या न करें ? (Mutual Funds DOS and DON’TS)
म्यूचयल फ़ंड क्या करें, क्या न करें ?
एकदम कमाई की उम्मीद न करें। अपने निवेश को बढ़ने के लिये समय दीजिये। यह बिल्कुल ऐसा है जैसे कि एक पौधा लगाया फ़िर उसकी सिंचाई की और जब तक बड़ा ना हो जाये तब तक इंतजार किया, पौधे को भी पेड़ बनने में समय लगता है, वैसे ही निवेश से कमाई के लिये भी वक्त लगता है। रातों रात कहीं से भी निवेश में कमाई नहीं होती है। साथ ही आपको पर्याप्त अनुमान होना चाहिये कि आपके निवेश कैसा प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन अपने फ़ंड स्कीम के एन.ए.वी. को रोज न देखिये, रोज एन.ए.वी. देखने से अच्छा है कि कुछ समय अंतराल में देखा जाये।
अपने निवेश की सारी जानकारी एक डायरी में लिखें जिसमें कि म्यूचयल फ़ंड स्कीम नाम, फ़ोलियो नंबर इत्यादि सब दर्ज करें।
यह भी सुनिश्चित कर लें कि फ़ंड हाऊस के पास आपके सारे संपर्कों की जानकारी होनी चाहिये, जैसे कि पत्राचार का पता, मोबाईल नंबर, ईमेल पता। अगर इनमें से कुछ भी बदलता है तो फ़ंड हाऊस को एकदम सूचना देनी चाहिये।
अपने सारे निवेशों में नामांकन जरूर करें, साथ ही यह पूरी तरह आप पर निर्भर करता है कि नामिनी को निवेश के बारे में बतायें या ना बतायें।
म्यूचयल फ़ंड में निवेशक होने से आप अपने निवेश का स्टेटमेंट प्रथम बार निवेश करने के बाद प्राप्त करने के पात्र हैं, और उसके बाद नियमित रूप से कम से कम छ: महीने की अवधि में मिलना चाहिये। अगर आपको कोई स्टेटमेंट नहीं मिला है तो फ़ंड हाऊस के ग्राहक संबंध केन्द्र से थोड़ी पूछताछ करने की चेष्टा करें । आपको स्टेटमेंट आराम से मिल जायेगा।
एक बार फ़ंड हाऊस से मिलने वाले सारे पत्राचार को जरूर देख लें। अगर आपको लगता है कि स्कीम अपने निवेश के मूल रूप से कुछ अलग कर रही है तो अपने वितरक या सलाहकार से विचार विमर्श करके देख लें कि यह बदलाव आपके निवेश के उद्देश्य के अनूकूल है या नहीं। अगर नहीं, तो तुरंत किसी और स्कीम में निवेश करें और जो कि आपके लक्ष्य को पूर्ण करती दिखे और स्कीम बदल लें।
अगर आपके निवेश अपने लक्ष्य प्राप्त कर लें, तो अपने निवेश को निकाल लें, यहाँ तक कि आपको लगे कि आगे आने वाले वर्षों में निवेश काफ़ी अच्छा हो जायेगा तब भी निकाल लें। हमेशा याद रखें कि आप अपने निवेश के प्रति भावुक रहें ना कि अपने स्टॉक और फ़ंड स्कीम के लिये।