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एफ.एम. रेडियो की टीआरपी बढ़ाते भद्दे से कार्यक्रम

   आजकल रेडियो पर भी काम की बात कम और बेकार की बातें ज्यादा होती हैं, कोई किसी को मुर्गा बनाता है तो कोई किसी का उल्लू बना रहा है और पूरी दुनिया के सामने उसका मजाक करके इज्जत का जनाजा अलग निकालते हैं। किसी किसी कार्यक्रम में तो केवल टूँ टूँ की ही  आवाज आती है और ये रेडियो वाले भी जानबूझकर पहला शब्द सुना देते हैं कि सुनने वाला खुद ही अंदाजा लगा ले कि कौन सी गाली बकी गई है, इन सबमें ऐसा नहीं कि लड़कियों और महिलओं से परहेज किया जाता है, जो लड़कियाँ और महिलाएँ गाली बकती हैं, उनसे बातों को और लंबा खींचा जाता है जिससे कि कार्यक्रम के श्रोताओं की संख्या बड़ती जाये और उनके इस तरह के कार्यक्रमों से उनकी टीआरपी बड़ती जाये।

   लगभग सारे एफ.एम. चैनलों में इस तरह के कार्यक्रमों की बाढ़ सी आई हुई है, और इन कार्यक्रमों को रिकार्ड करके ये लोग अब यूट्यूब चैनलों पर भी अपलोड कर रहे हैं, यूट्यूब चैनलों पर हिट्स से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये कार्यक्रमों कितने लोकप्रिय हो रहे हैं। कुछ ही एफ.एम. चैनलों पर बहुत ही अच्छी जानकारियों के बारे में बताया जाता है, कि कोई एन.जी.ओ. कितना अच्छा कार्य कर रहा है या फिर किसी एक व्यक्ति के द्वारा उठाये गये कदमों से समाज को कितना फायदा हो रहा है, सामाजिक कार्यों की प्रगति के बारे में कम ही बताया जाता है।

   इस तरह से हमें आजकल के श्रोताओं की मानसिक विकृति के बारे में भी समझ में आता है, आम जनता ऑफिस से घर आते जाते समय अपने आप को इस तरह के कार्यक्रमों में संलिप्त करके अपने आप को मनोरंजित भी महसूस करते होंगे। कई बार ऐसी परिस्थितियां भी आ जाती हैं कि उसमें या तो हमें एफ.एम. रेडियो चैनलों को बदलना पड़ता है या फिर रेडियो को बंद ही करना पड़ता है, कई बार अपने मूड को शायद हल्का महसूस करने के लिये सभी लोग इस तरह के कार्यक्रमों को सुनना पसंद करते हैं।

   एक बार शुरूआत में मैं भी एक कार्यक्रम सुन रहा था, हमारे बेटेलाल भी सुन रहे थे, उन्हें भी हँसी आ रही थी क्योंकि बातें ही मजेदार तरीके से की जा रही थीं, पर जब बार बार टूँ टूँ की आवाज आने लगी तो हमें समझ आया कि ये गालियों को मनोरंजन में मिश्रित करके कार्यक्रम करने का एक तरीका है, अब हालात यह है कि हम केवल कहानियाँ या गाने सुनने के लिये ही रेडियो बजाते हैं, इस तरह के फूहड़ कार्यक्रम आते ही रेडियो बंद कर दिया जाता है। हमारे बेटेलाल को भी टूँ टूँ की आवाज से बहुत बैचेनी होती है और हमें पूछते हैं कि डैडी यह क्या कह रहे हैं और हमारे पास कोई उत्तर नहीं होता है।

   एफ.एम. चैनलों से जितने गाने सुनने को मिलते हैं उतनी ही गालियाँ भी सुनने को मिलती हैं, अब हालात यह है कि रेडियो भी सोच समझ कर सुनना पड़ता है, जिससे कि हमें अपने परिवार के सामने ही शर्मिंदगी न उठानी पड़े । पता नहीं हमारे अधिकतर एफ.एम. चैनलों को अच्छे कार्यक्रम देने की समझ कब आयेगी।