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मेरे नये वर्ष का नया निश्चय मैक्रोमेक्स कैनवास टैब पी-666 के साथ

    वर्षों पहले जब मैं महाविद्यालय में पढ़ता था, तब मेरा कविता, नाटक और कहानियाँ लिखने का शौक था और उस समय मैं कविताओं को तो अपने नोटबुक के बीच वाले पन्ने पर लिखकर उसे फाड़ लिया करता था, उस एक पन्ने को लिखकर मैं जेब में रख लेता था और अपने दोस्तों के बीच कविता प्रस्तुत करता था। नाटक और कहानियों को लिखने के लिये ज्यादा समय और ज्यादा पन्नों की जरूरत हमेशा से महसूस होती थी, और मित्रों को नाटक और कहानियों को सुनाने में समय भी ज्यादा लगता था। उस समय सोचता था कि जिस तेजी से मैं सोचता हूँ, काश कोई ऐसा यंत्र या तकनीकी हो जिससे वह लिखती जाये और मेरे बहते हुए विचार जो कि मेरे मन में किसी अदृश्य डोरी से खिंचकर आते हैं, उनका तनिक भी क्षरण न हो पाये, और सारे विचारों को मैं संग्रहित कर सकूँ।
    थोड़े समय बाद मैं टेपरिकारर्डर में रिकार्ड करने लगा, परंतु कभी बिजली साथ न देती तो कभी कैसेट उलझ जाती और अपना कहा, अपने प्रवाहशील विचारों को, मंथन को पाना दुश्कर कार्य होता था, उन रचनाओं और विचारों को वापस लाने के लिये तरह तरह के खटकर्म भी हमने किये, परंतु देखा इसमें तो पन्ने पर लिखने से ज्यादा ऊर्जा और श्रम लग रहा है, तो वापिस पन्ने पर आ गये। विचारों को प्रवाहमान होना जारी रहा, परंतु उन्हें लिख पाना मेरे लिये उतना ही दुश्कर कार्य होता।
    फिर आया कंप्यूटर का जमाना, जहाँ पर हमने हिन्दी की टायपिंग रफ्तार पर अपनी पकड़ बना ली और कंप्यूटर पर लिखने लगे, परंतु कुछ समस्याएँ यहाँ भी बनी रहतीं, कभी ऑपरेटिंग सिस्टम तो कभी वर्ड प्रोसेसर कर करप्ट हो जाता, फिर हम मोबाईल में अपनी बातों को रिकार्ड करने लगे, परंतु उसे सुनकर लिखने का समय मिलना बहुत मुश्किल होता, आज भी पता नहीं कितने ही विचार मेरे मोबाईल के मैमोरी कार्ड में संचित हैं, जिन्हें मैं आज तक पन्नों पर नहीं उतार पाया।
    इस वर्ष हमने अपने पुराने शौक याने कि अपने प्रवाहमान विचारों को कविता, नाटक और कहानियों में ढ़ालने का दृढ़ निश्चय किया है। अब एन्ड्रॉयड में हिन्दी में भी बोलकर लिखने वाली सुविधा आ गई है, तो हम अब अपने मैक्रोमेक्स कैनवास टैब पी-666 पर बोलेंगे और हमारा यह कैनवास टैब बिना हैंग हुए हमारे पुराने शौक को जीवंत कर देगा, इसमें 3जी सुविधा का फायदा उठाते हुए हम सीधे इन सारी फाईलों को गूगल ड्राईव पर सहेज पायेंगे। इसका तेज प्रोसेसर हमारी सारी बातों को समझकर सीधे हिन्दी में सामने वर्ड प्रोसेसर में लिख देगा, और हम फिर से कविता, नाटक और कहानियों में रम जायेंगे, टैब का फायदा यह है कि हमें अब पन्नों को जेब में नहीं रखना होगा और टैब पर ही बोलकर लिखने से हमारी सारी कृतियाँ सहेजी होंगी, तो इंटरनेट के होने की बाध्यता भी खत्म हो जायेगी, और हम अपनी कविता, नाटक और कहानियों को अपने मित्रों को सीधे टैब से पढ़कर ही सुना सकते हैं, और सीधे अपने ब्लॉग पर पब्लिश भी कर सकते हैं, जिससे कहीं न कहीं हम कार्बन उत्सर्जन को भी कम करने में मदद करेंगे।
 

सच्चाई छिपाना क्यों ? हम नहीं तो कोई और बता देगा !!

    जवानी अल्हड़ होती है, अल्हदा होती है, सुना तो बहुत था पर जिया अपने ही में । जवानी में वो हर काम करने की इच्छा होती है जो सामाजिक रूप से बुरे माने जाते हैं, और उस समय वाकई वे सब काम कर भी लिये जाते हैं, अपने किये पर छोभ, पछतावा कुछ नहीं होता है, बस अपनी मनमर्जी का किये जाओ । कोई टोके तो बहुत ही बुरा लगता है, जल्दी ही बुरा मान जाते हैं, काम सारे गलत करेंगे पर रोकना टोकना किसी का मंजूर नहीं है, जैसे अपनी ही सरकार हो और खुद ही उस सरकार के पैरोकार हैं।
  
    पिता जी का ट्रांसफर अभी नये शहर में हुआ ही था और हमने उस नये शहर में अपना पहला कदम कॉलेज की और बढ़ाया। अब नया शहर था तो न कोई दोस्त था और न ही कोई हमदम, तो कॉलोनी में ही कुछ आस पड़ोस के लड़कों  से दोस्ती हो गई, पिताजी को ऑफिस में उनके सहकर्मियों ने चेताया भी कि आपका लड़का गलत लड़कों के साथ रहता है, और यह खबर हमारे पास भी आ गई थी, हमारे ही मन मस्तिष्क के द्वारा, हमें उनके साथ रहते ही समझ आ गया था कि ये जो हरकतें करते हैं, वह सब हम नहीं कर पायेंगे और हमारा रास्ता जुदा होगा। पर गर्मियों की छुट्टियों में तो हमें कोई नया दोस्त नहीं मिलता, पर हमने उनके साथ रहना कम कर दिया।
    कॉलेज शुरू हो चुका था, जवानी का खून उबाल मार रहा था, नये दोस्त मिले। सबके अपने अपने शौक होते हैं, वैसे ही साधारणतया कॉलेज में दोस्ती होती है, ऐसे ही हमारी भी कई दोस्तियाँ शौक के मुताबिक हो गईं, और कुछ मनचले दोस्त भी थे जो हर समय केवल हँसाते और गुदगुदाते थे। अब तक हम कॉलेज में अच्छे खासे रम चुके थे, हमने कॉलोनी के दोस्तों के साथ लगभग अपना नाता तोड़ ही लिया था, क्योंकि हमें अब अपने कॉलेज के दोस्त मिल गये थे। पर यह उन कॉलोनी के दोस्तों को रास नहीं आया।
 
    एक दिन हर शाम के समय सूरज जैसे रोज ढलता है, वैसे ही ढलने की कगार पर था, लालिमा चारों और फैली हुई थी, कॉलोनी के दोस्त लोग बाहर सड़क पर क्रिकेट खेल रहे थे, पर उनके मनोमस्तिष्क में क्या चल रहा है, हम उससे अनजान थे, हमें हमारी साईकिल के हैंडल पर हाथ रखकर रोक लिया गया, और किसी भी बात को लेकर झगड़ा करना था, सो बात करना शुरू कर झगड़ा शुरू कर दिया गया, बात अब हाथापाई तक आ चुकी थी, जितने पड़े उससे ज्यादा हमने भी दिये, बस अंतर यह था कि उनके लिये जबाबी हमला अप्रत्याशित था, क्योंकि कोई भी उनके खिलाफ कभी भी कुछ बोला नहीं था, और विरोध नहीं किया था। हम अकेले थे और वे पूरी क्रिकेट टीम थी, देखा कि अब अकेले ऐसे लड़ना मुश्किल होगा, तो सामने के घर में पेलवान के घर में दो हाकियाँ टंगी रहती थीं, दौड़कर उन्हें उतारा और उससे अकेले ही पूरी क्रिकेट टीम से भिड़ लिये, पर थोड़ी ही देर में कॉलोनी में आग की भाँति खबर फैल गई और लोग इकट्ठे होने लगे तो पूरी क्रिकेट टीम मौके से भाग ली।
    अब घर तो जाना ही था, शाम की सच्चाई हम नहीं बताते तो कोई और जाकर हमारे घर पर बताता तो और बात बिगड़ जाती, घर में इस झगड़े को लेकर पता नहीं क्या रूख अपनाया जाता। सो हमने सोचा कि बेहतर है कि सच्चाई घर पर बता दी जाये और हमने घर पर जाकर सच्चाई अपने पापा मम्मी को बता दी, मन से बहुत बड़ा बोझ उतर चुका था, क्योंकि सारी दुनिया भले गलत समझे पर अगर पालक हमारी भावनाओं को समझ जायें तो हमें दुनिया में और कुछ नहीं चाहिये। केवल इसके लिये ही किनले का यह विज्ञापन अच्छा लगता है, जहाँ पिता अपनी बेटी की गलती को माफ कर, उसे खुश कर देता है और बेटी को धर्मसंकट से निकाल लेता है और पिता के आँख के आँसू सारी कहानी बयां कर ही रहे हैं।

बेटेलाल के साथ छुट्टियों का जादुई अहसास (Magic of my kid on vacations)

    बच्चों केसाथ छुट्टियों पर जाना ही बेहद सुकूनभरा अहसास होता है, और बच्चे छुट्टियों कोअपनी शैतानी और असीमित ऊर्जा से छुट्टियों को यादगार बना देते हैं। बच्चों को कितना भी बोलो पर वे कहीं पर भी और कभी भी चुपचाप नहीं बैठ सकते, पता नहीं उनकी इस असीमित ऊर्जा को स्रोत क्या होता है। बच्चे अपनी मस्ती से छुट्टियों में जादू भर देते हैं और ये यादें हमेशा अंतर्मन में ऐसे रहती हैं कि अभी ही उन्होंने मस्ती की हो। बच्चे वे सब कर लेते हैं, जो हम बड़े झिझक के कारण नहीं कर पाते हैं।
    मैंने कुछ दिनों के लिये छुट्टियों पर गोवा जाने का कार्यक्रम बनाया था, तो हमारे बेटेलाल ने पहले ही अपनी सूचि बनाना शुरू कर दी थी, कि गोवा से क्या क्या लाना है और अपने दोस्तों के साथ मिलकर नेट पर ढ़ूंढ़ते थे कि कहाँ कहाँ घूमना है, कहाँ खाना अच्छा है और कैसे घूमना है। पूरे प्लेन में केवल यही उत्साहीलाल लग रहे थे, कि जैसे गोवा केवल इनके घूमने के लिये ही बनाया हो, और बाकी सब तो झक मारने जा रहे हैं। बेटेलाल की छुट्टियों का उत्साह देखते ही बनता था। मुझसे कैमरे से फोटो खींचना, वीडियो बनाना सब सीख लिया था।
Calangute beach Goa
Evening Snaks at Marriott Goa
Fort Aguada in Goa

 

Goa Marriott Swimming pull
Harsh at Marriott Room Goa

 

on the wall of Marriott of Goa
    गोवा हम रिसॉर्ट में पहुँचे तो वहाँ के स्वागत को देखकर ही अचंभित थे, और जब हमें गोवा की वाईन के बारे में जानकारी दी जा रही थी तो एक बंदा ट्रे में बीयर लेकर आया तो सबसे पहले बीयर हाथ में लेकर चीयर्स करने लगे कि मैं भी बड़ों की कोल्डड्रिंक पियूंगा, तो बेयरे ने कहा कि आप के लिये दूसरी बोतल है आप यह वाली मत लें, तब जाकर हमारी साँसों में साँस आई।
    जब हमें कमरा दिखाया जा रहा था, तो कहने लगे कि हम यहीं रहते हैं, यहाँ कितना अच्छा लग रहा है, तरणताल में पड़े रहो और समुँदर का नजारा देखते रहो, और बेटेलाल कोई भी ट्यूब लेकर तरणताल में मौज करने के लिये उतर पड़ते, हम बाहर से ही देखते रहते तो एक दिन बोले अब अंदर आकर तो देखो कितना मजा आता है, हम तरणताल में उतरे तो वाकई अनुभव मजेदार था।
    अगले दिन समुद्रतट पर घूमने गये थे, तो बेटेलाल बहुत उत्साहित थे, हालांकि मुँबई में रहने के दौरान कई बार समुद्रतट के मजे ले चुके थे, पर हमें बोले कि गोवा की तो बात ही कुछ और है, और कपड़े उतार कर निकर में ही रेत और पानी के मध्य मस्ती के आलम को जबरदस्त माहौल बनाया और कुछ ही देर में अपने ही हमउम्र बच्चों के साथ वहाँ मस्ती का आनंद उठाने लगे। हमने कभी ऐसी मस्ती का माहौल नहीं देखा था, बेटेलाल हमसे उनके साथ आने की जिद करने लगे तो हम भी उनकी मस्ती में सारोबार हो, रेत और समुँदर के पानी में डूब लिये ।
    बेटेलाल को तो बस हर जगह कैसे मजे लें, इसमें विशेषज्ञता हासिल है। और उनकी इसी मस्ती से भारी पल भी मस्ती के रंग में रंग जाते हैं। यह यात्रा और अनुभव क्लबमहिन्द्रा के टैडी
ट्रैवलॉग
के लिये लिखा गया है।

डर के आगे जीत है (Rise above Fear !)

     जीवन संघर्ष का एक और नाम है, जिसमें हमें हर चीज सीखनी पड़ती है, फिर भले ही वह चाव से हो या मजबूरी में । हाँ एक बात है कि जब हमें कोई चीज नहीं आती तो हमें ऐसे  लगता है कि यह चीज सीखना कितना दुश्कर कार्य है और हमें उस चीज को सीखने में, जीवन में उतारने में अपने अंदर के डर से सामना करना पड़ता है। जो भी अपने अंदर के डर से जीत गया बस वही अपने जीवन में किसी भी कार्य में सफल हो पाया है। ऐसे ही माऊँटेन ड्यू का डर के आगे जीत है स्लोगन याद आ जाता है।

    हमें बैंगलोर में कभी भी कार की जरूरत महसूस नहीं हुई, वहाँ हम बाईक से ही काम चलाते थे, और बैंगलोर के व्यस्त यातायात में हमें ऐसा लगता था कि जो सफर हम बाईक से ऑफिस का 40 मिनिट में करते थे वही सफर कार से 2 घंटे में होता, तो हमने सोचा कि बाईक से ही काम चलाते हैं, पर हाँ कार को चलाते हुए लोगों देखकर उनकी हिम्मत की मन ही मन दाद देता था। सोचता था कि जब मुझे बाईक चलाने में इतना डर लगता है, तो कार चलाने के लिये इनको कितना डर लगता होगा।
    जब मैं इस वर्ष गुड़गाँव आया तो देखा कि मेरा ऑफिस हाईवे पर पड़ता है और बाईक से आना जाना बिल्कुल सुरक्षित नहीं है, तो कार लेना अब हमारी मजबूरी बन गया था, पर हमें चलानी आती नहीं थी और कार की जरूरत बहुत ज्यादा महसूस होने लगी थी । 
 डर के आगे जीत है का तमिल वीडियो
    हमने ड्राईविंग स्कूल से कार चलानी सीखी, पहले दिन हमारे ट्रेनर ने हमें जैसे ही ड्राईविंग सीट पर बैठने को कहा हमारा डर हम पर हावी होने लगा और हाथ काँपने लगे, तो ट्रेनर ने कहा कि आज और कल दो दिन आप केवल स्टेयरिंग व्हील और एक्सीलेटर पर ही चलाओगे, जब गाड़ी पहली बार शुरू की तो डर हम पर हावी हो रहा था, ऐसा लग रहा था कि जब केवल स्टेयरिंग व्हील और एक्सीलेटर सँभालने में ही इतनी मशक्कत है तो गियर बदलना, क्लच और ब्रेक कैसे करेंगे । साथ ही पीछे और बगल से आने वाले वाहनों का भी ध्यान रखना पड़ता है।
  तीसरे दिन से हमें ब्रेक भी सँभालने को दे दिया तो अब हमें स्टेयरिंग व्हील, एक्सीलेटर और ब्रेक तीनों चीजें सँभालना भारी पड़ने लगा, पर फिर भी हिम्मत को बाँधकर रखा और अपने डर को अपने पर हावी नहीं होने दिया। पाँचवे दिन से हमें गियर और क्लच भी सँभालने को दे दिया गया, अब हमें पूरी गाड़ी को अपने नियंत्रण में रखने की जिम्मेदारी थी, और केवल तीसरे गियर तक चलाने की परमीशन थी, हमने भी अपने डर को काबू में रखा और सोचा कि अगर डर गये तो कार कैसे चलायेंगे, 15 दिन हमने कार सीखी और सोलहवें दिन हमने अपनी कार की डिलीवरी ली और पहले ही दिन 40 किमी चलाई, दूसरे दिन ही कार एक जगह मोड़ते समय ठुक गई, पर हमने सोचा कि अभी डर गये तो कभी कार नहीं चला पायेंगे, हमने कार चलाना जारी रखा और सड़क के ऊपर कार चलाने के डर को मात दे दी अब तक हम कार लगभग 5500 किमी चला चुके हैं, जिसमें यमुना एक्सप्रेस हाईवे पर दो बार सफर के मजे भी ले चुके हैं, अधिकतम रफ्तार हमने 130 को छुआ है।
हम तो यही कह सकते हैं कि हिम्मत बाँधकर रखो तभी डर के आगे जीत है ।

दिल्ली के पास के वे पर्यटक स्थल जहाँ कम ही लोग जाते हैं (Tourist places near Delhi without crowd)

     बहुत दिनों से घूमने का कार्यक्रम बना रहे थे, बैंगलोर और मुँबई इतने समय रहकर आ गये परंतु आलस कहें या समय न मिल पाना कहें, घूमने नहीं जा पाये, अब गुड़गाँव आ गये हैं, यहाँ भी आये हुए 6 महीने हो आये हैं, परंतु यहाँ आकर कार खरीद लेने से कहीं भी घूमना फिरना आसान हो गया है, दो बार तो आगरा, मथुरा और एक बार वृन्दावन हो आये हैं, और खैर दिल्ली तो मौका लगते किसी भी दिन निकल पड़ते हैं।

    अब वहाँ घूमने जाने की ज्यादा इच्छा भी नहीं रही जहाँ बहुत ज्यादा चहल पहल रहती हो और दिमाग को शांति नहीं मिलती है, अब सोचा है कि कहीं प्राकृतिक स्थानों पर जाकर  मानसिक शांति पाई जाये। तब हमने एयरबीएनबी की वेबसाईट पर जाकर उन जगहों पर रहने की जगह ढ़ूढ़ने के लिये यह वेबसाईट बहुत काम आई। 

    हमने सोचा कि किसी ग्रामीण क्षैत्र में भी हमे पर्यटन करना चाहिये, जहाँ हम अपने ग्रामीण जीवन की झलक ले सकें तो हमें यह जगह बहुत ही अच्छी लगी । Banni Khera -Farm Stay & activities बन्नीखेड़ा गुड़गाँव के पास रोहतक में है और किसी भी सप्ताहांत में जाया जा सकता है, यहाँ पर साईकिलिंग, खेती और भी बहुत सी गतिविधियाँ हैं, और प्रकृति के बीच भी है।

    हमें हिमाचल प्रदेश हमेशा से ही लुभाता रहा है, जैसा कि नाम से ही पता चलता है यहाँ हिम का आँचल है, और हिम याने कि बर्फ किसे अच्छी नहीं लगती, सभी को अच्छी लगती है, बादल बहुत ही नीचे पहाड़ों में भ्रमण करते हैं, चीड़ के ऊँचे ऊँचे वृक्ष और तेज हवाओं से उनसे आती आवाजें हमेशा से ही लुभाती रही हैं, जैसे पहले फिल्मों में हीरो हीरोइन इन्हीं पेड़ों के चारों और घूमकर गाना गाते थे, हमें जगह पसंद आयी कोटघर, धरती पर स्वर्ग KOTGARH,heaven on earth.

    उत्तराखंड में किसी गाँव में गाँववालों के साथ उनके मध्य रहना एक अलग ही अनुभव होगा यह सोचकर हमने लखवार जो कि देहरादून से मात्र दोसौ किमी. की दूरी पर है, का चयन किया। यहाँ पहाड़ों के मध्य देहाती परिवेश में रहने का लुत्फ उठाने के लिये A House in the Himalayas हमें हिमालय के पास लखवार बेहद जम रहा है।

    शिमला जाना किसे अच्छा नहीं लगता और ऊपर से यह हिमाचल प्रदेश की राजधानी भी है, शिमला की मॉल रोड बहुत प्रसिद्ध है, बस यहाँ सीजन में जाओ तो हर चीज महँगी मिलती है, हमें सोलन में यह जगह Shimla Affordable Luxury Flat Solan  रहने के लिय जमी क्योंकि यह एक तो हाईवे पर ही है और हैरीटेज पार्क यहाँ से मात्र 7 किमी है, कसौली 31 और शिमला केवल 45 मिनिट का रास्ता है।

    अगर हिमाचल में प्रकृति के बीच में न रहे तो वाकई हिमाचल घूमना अधूरा है, हिमाचल और हिमालय के प्राकृतिक वातावरण में अगर साहसिक कार्यों में  हिस्सा न लो तो यात्रा अधूरी ही होती है, वहाँ हमें यह Camp Roxx- Adventure Camp निजी कैम्प बहुत ही पसंद आया जिसमें कि उनका रूकने से लेकर खाने पीने एवं पर्यटन की छोटी से छोटी बातों का ध्यान रखा जाता है, यह नहान और शिमला के मध्य है, और कांगोजोड़ी जंगल में है।

    आप भी एयरबीएनबी से मेरे रैफरल से जुड़ सकते हैं और विश्व के बेहतरीन रहने के स्थानों को चयन कर सकते हैं।

स्पर्श की संवेदनशीलता (BringBackTheTouch)

    पहले हम लोग एक साथ बड़ा परिवार होता था, पर अब आजकल किसी न किसी कारण से परिवार छोटे होने शुरू हो गये हैं, पहले परिवार में माता पिता का भी एक अहम रोल होता था, परंतु आजकल हम लोग अलग छोटे परिवार होते हैं, और अपनी छोटी छोटी बातों पर ही झगड़ पड़ते हैं, पर पहले परिवार एक साथ रहने पर समझदारी से सारी बातों का निराकरण हो जाता था, छोटे झगड़े बड़ा रूप नहीं लेते थे।
    केशव और कला एक ऐसे ही जोड़े की कहानी है, जब तक वे संयुक्त परिवार के साथ रहे, तब तक जादुई तरीके से उनका जीवन सुखमय था, वे आपस में अंतर्मन तक जुड़े हुए थे। परंतु केशव को अच्छे कैरियर के लिये भारत से दूर विदेशी धरती पर जाना पड़ा, केशव और कला दोनों ही बहुत खुश थे, आखिरकार भारत से बाहर जाने का हर भारतीय दंपत्ति का सपना होता है, जो उनके लिये साकार हो गया था।
    यह पहली बार था जब वे संयुक्त परिवार से एकल परिवार में होकर रहने का अनुभव करने जा रहे थे, पहले पहल दोनों को बहुत मजा आया, परंतु जैसे जैसे दिन निकलते गये, केशव की व्यस्तता बड़ती गई, और कला घर में अकेले गुमसुम सी रहने लगी, केशव भले ही शाम को घर पर होता था, पर हमेशा ही काम में व्यस्त और यही आलम सुबह का भी था। ना ढंग से नाश्ता करना और ना ही भोजन, कला भी क्या बोलती, कई बार बोलने की कोशिश की परंतु, कुछ न कुछ कला को हमेशा बोलने से रोक लेता और कला रोज की भांति अपने में सिमटना शुरू हो जाती।
    हर चीज को किसी एक बिंदु तक ही सहन किया जा सकता है, वैसे ही कला का एकांत था, वह दिन कला और केशव के लिये मानो परीक्षा की घड़ी बनकर आया था, कला केशव के ऑफिस से आते ही उस पर टूट पड़ी, बिफर पड़ी, आखिर मेरे लिये समय कब है, क्या मैं यहाँ केवल और केवल कठपुतली बनकर रहने आई हूँ, मैं भी इंसान हूँ मुझे भी तवज्जो चाहिये, मुझे भी तुमसे बात करने के लिये तुम चाहिये, इस खुली हुई दुनिया में मैं अपने आप को कैद पाती हूँ और घुटन महसूस करती हूँ। केशव कला की बातों को बुत के माफिक खड़ा सुनता रहा, और उसे अपनी गलती का अहसास हुआ, आखिरकार कला का एक एक शब्द सच था, ना उसके पास बात करने का समय था और ना ही कला को कला की बातें महसूस करने के लिये वक्त था।


    कला केशव के सामने फफक फफक कर रो रही थी, केशव धीमे धीमे कला के नजदीक गया और कला को अपनी बाँहों में भरकर गालों से गालों को सटाकर कह रहा था, बस कला मुझे समझ आ गया है कि मैं कहाँ गलत हूँ । अब आज से मेरा समय तुम्हारा हुआ, केशव के स्पर्श से कला का गुस्सा और अकेलापन क्षण भर में काफूर हो गया, स्पर्श के स्पंदन को कला और केशव दोनों ही महसूस कर रहे थे, कला और केशव दोनों ने आगे से अपना समय आपस में बिताने का निश्चय किया।

    ठंड में स्पर्श को बेहतरीन बनाने के लिये पैराशूट का एडवांस बॉडी लोशन बटर स्मूथ वाला उपयोग कीजिये, अमेजन पर यह ऑनलाईन उपलब्ध है ।
    यह कहानी #BringBackTheTouch http://www.pblskin.com/ के लिये हमने लिखी है । स्पर्श को आपस में महसूस करिये, जीवन में नई ऊर्जा मिलेगी।
इस वीडियो में निम्रत और पराम्ब्रता को स्पर्श की संवेदनशीलता को दर्शाते हुए देखिये, आपको स्पर्श के महत्वत्ता पता चलेगी – Watch the video to witness Nimrat and Parambrata #BringBackTheTouch.

शौचालय नारी गरिमा के अनुरूप हों (Hygienic Toilets for Women and Family)

    भारत एक सांस्कृतिक राष्ट्र है, जहाँ पर हम अधिकतर हमारे वेद पुराणों में लिखी बातों का अध्ययन कर उन पर विश्वास कर बंद आँखों से अनुगमन करते हैं, पर जहाँ हमारी सामाजिक आलस्यपन की बात आती है वहाँ ये सब बातें गौण हो जाती हैं । हम वहाँ पर किसी न किसी कारण को प्रमुख बनाकर हालात से भागने की कोशिश करते हैं, जैसे कि भारतीय संस्कृति में कहा जाता है नारी सर्वत्र पूज्यते, परंतु घर और बाहर दोनों जगह हम जानते हैं कि नारी के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है।
    शौच और शौचालय भारत की प्राथमिक समस्याओं में से एक हैं, घर में चूल्हा करने के लिये रसोईघर जरूर होगा, किंतु अन्न पचाने के बाद अवशिष्टों को निकालने के लिये घर में शौचालय नहीं मिलते हैं, मूलत: यह समस्या गाँवों में बहुत ज्यादा है, परंतु शहरों में भी कम नहीं है। शौच करने के लिये नारी को एक सुरक्षित और साफ स्थान चाहिये होता है, जहाँ वह गरिमा के साथ शौच जा सके । आजकल समाचार पत्रों में इस तरह की कई खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि खुले में शौच करने कई युवती से अशोभनीय हरकत की गई, और यह समस्या खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार एवं झारखंड में बहुत ज्यादा है।
    जिस तरह पुरुष घर में नारी को पर्दे में रखना चाहता है, उसी तरह से क्यों नहीं नारी की गरिमा के अनुरूप घर में शौचालय बनवाने में कतराता है, शौचालय बनवाने के फायदे ज्यादा हैं और नुक्सान तो हालांकि है ही नहीं। शौचालय घर में होने से नारी गरिमा बची रहेगी, घर की शौचालय खुद ही साफ करने से तरह तरह के संक्रामक और डायरिया जैसे भयानक रोगों से बचाव होगा। इन रोगों के होने से भारत में दो लाख से भी ज्यादा 5 वर्ष से छोटे बच्चों का मौत हर वर्ष होती है, इन संक्रामक रोगों और बीमारियों पर भी पानी की तरह पैसा बहाना पड़ता है, तो बेहतर है कि खुले में शौच से होने वाले संक्रमण से बचाव के लिये वह पैसा शौचालय बनाने में खर्च किया जाये।
    शौचालय बनाते समय ध्यान रखें कि शौचालय पानी के स्त्रोत जैसे नदी, तालाब या कुएँ से कम से कम 20 मीटर दूर हों, जिससे शौच के अवशिष्ट जल से पीने के पानी दूषित न हो, जितनी बीमारियाँ खुले में शौच जाने पर होती हैं, उससे भी खतरनाक बीमारियाँ अवशिष्ट जल के पीने के पानी के दूषित होने पर होती हैं, शौचालय के अवशिष्ट को अगर सही तरह से उपयोग किया जाये तो इन अवशिष्टों से खाद बनाई जा सकती है, शौच के अवशिष्ट को खाद बनाने की प्रक्रिया में एक वर्ष तक का समय लगता है, जिससे हम इस प्राकृतिक खाद का उपयोग कृषि कार्यों में कर सकते हैं, यह खाद आजकल बाजार में आ रही रासायनिक खादों से बहुत अच्छी है।
    शौचालय बनवाना हमारे सामाजिक उन्नति और चेतना का भी परिचायक है, इससे न केवल नारी गरिमा को ठेस लगने से रोका जा सकेगा अपितु घर में शौचालय राष्ट्र के स्वच्छता के लिये भी एक बड़ा योगदान होगा।
    डोमेक्म ने महाराष्ट्र और उड़ीसा के गाँवों को खुले में शौच के लिये कदम उठाया है, और इसमें आप भी योगदान कर सकते हैं, आपके एक क्लिक से डोमेक्स 5 रू. का योगदान देगा, डोमेक्स की साईट पर जाकर “Contribute Tab” पर क्लिक करके ज्यादा से ज्यादा योगदान करवाने में मदद करें ।
    You can bring about the change in the lives of millions of kids, thereby showing your support for the Domex Initiative. All you need to do is “click” on the “Contribute Tab” on www.domex.in and Domex will contribute Rs.5 on your behalf to eradicate open defecation, thereby helping kids like Babli live a dignified life.

स्वस्थ बच्चा ही खुशियों से भरा घर बना सकता है (A healthy child makes a happy home!)

    मुझे मेरा बचपन की बहुत सारी चीजें याद नहीं, पर मम्मी और पापा मेरा बहुत ही ख्याल रखते थे, शायद दुनिया में कोई ऐसे माता पिता होंगे जो बच्चों का ध्यान नहीं रखते होंगे, टमाटर खाओगे तो खून बढ़ेगा, गाजर भी सेहत के लिये अच्छी होती है, आँवले से आँखों की रोशनी तेज होती है, आँवले की अच्छी बात यह है कि किसी भी तरह से खाओ, उसके गुण कम नहीं होते, और जीभ पर आँवले का मीठा स्वाद हमेशा ही अच्छा लगता है। रोज एक काली मिर्च खाने से कभी बीमारी नहीं घेरती, यह एक घरेलू उपाय है, जो कभी दादी माँ का नुस्खा था।
 
    खाने पीने में हम हमेशा मस्त रहे और हरेक सब्जी और फल खाते रहे, वैसे ही हमने अपने बेटेलाल को आदत डाली है, जिससे रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता अच्छी बनी रहे और हमेशा रोगों से दूर बने रहें, हमारे बेटेलाल खाने के बहुत आलसी हैं, केवल मूड होता है तो खाते हैं नहीं तो कुछ नहीं खाते, अभी पिछले महीने ही तकरीबन 15 दिनों तक ढंग से खाना नहीं खाया तो मौसमी वाईरल ने पकड़ लिया, जिससे हम सभी लोग 13 दिन तक परेशान रहे, क्योंकि अगर घर में बच्चा बीमार है तो कुछ भी ठीक नहीं लगता है, बच्चा खेलता रहे, स्वस्थ रहे तो पूरा घर खुश रहता है।
    जैसे हमें पापाजी ने च्यवनप्राश खाने की आदत डाली थी, हमारे बेटेलाल पहले च्यवनप्राश नहीं खाते थे परंतु जब धीरे धीरे रोज मुझे और पापाजी को खाते देखते तो उत्सुकतावश रोज ही थोड़ा थोड़ा खा लेते थे, अब हमारे बेटेलाल ने च्यवनप्राश को अपनी रोज की दिनचर्यो में शुमार कर लिया है, रोज सुबह च्यवनप्राश की एक चम्मच और रात को सोने के पहले हल्दी वाले दूध के साथ एक चम्मच खाते हैं।
    हमने 1-2 आयुर्वेदिक चीजें और शुरू कर दी जो कि स्वास्थ्य के लिये बहुत ही लाभदायक है, रोज सुबह शाम तुलसी का अर्क 10 एम.एल. एक गिलास पानी में मिलाकर पी जाते हैं, और रोज सुबह उठते ही एक चम्मच शंखपुष्पी, ब्राह्मी, बादाम, मिश्री और सौंफ को पीसकर बनाया गया चूर्ण चबा चबा कर खाते हैं । इस मिश्रण के खाने से दिमाग को ताकत मिलती है और दिनभर ऊर्जा बनी रहती है, तुलसी के अर्क से तुलसी की प्रतिरोधक क्षमता मिल जाती है, आजकल फ्लेट सिस्टम में तुलसी प्रचुर मात्रा में तो होती नहीं कि रोज सुबह शाम 2 4 पत्ती तोड़कर खा लीं, इसलिये हमें तो तुलसी के अर्क बहुत अच्छा लगा।
    पहले कभी ऐसे ही हमने सोचा था कि च्यवनप्राश घर पर बनाकर खायेंगे पर फिर हमने कभी भी च्यवनप्राश बनाने की मेहनत को देखकर कभी भी बनाने की चेष्टा नहीं करी। बाजार से जाकर च्यवनप्राश खा लेते थे, वही हमें आज भी ठीक लगता है, बेटेलाल को जमकर सलाद और फल  खिलाते हैं और खुद भी खाते हैं, जिससे शरीर में प्राकृतिक प्रतिरोधक क्षमता बरकरार रहे। और घर में बेटेलाला केवल मस्तियाँ करते नजर आयें, हमेशा उनके हँसने खिलखिलाने की आवाज आये।
       यह पोस्ट इंडीब्लॉगर्स के हैप्पी अवर्स के लिये लिखी गई है, च्यवनप्राश के प्रतिरोधक क्षमता के बारे में यहाँ से ज्यादा जानकारी ले सकते हैं – https://www.liveveda.com/daburchyawanprash/.

माँ की जिंदगी में माइक्रोवेव से आया बदलाव और माइक्रोवेव में वेज बिरयानी

    सब्जी तो बचपन से माँ के हाथ की खाते आ रहे हैं, पहले चूल्हे में लकङी और कोयला जलाकर माँ ताँबे के बर्तन में हाथ में लोहे की गोल फूँकनी से फूँक मारकर धुएं के बीच मेरी मनपसंद सब्जी तरकारी बनाती थी, मेरे बालमन को पहले उस धुएं में बहुत मजा आता था पर जब भी माँ धुएं के कारण खाँसती तो मन खिन्न हो जाता था और मैं खुद वो लोहे की फूँकनी लेकर लकङी और कोयले की आँच को तेज करने में माँ की मदद करता था ।
    कुछ वर्षों बाद स्टोव के साथ माँ की जिंदगी में बदलाव आया, केरोसिन वाला पीतल का स्टोव जिसमें हवा का दबाव बनाकर माचिस से जलाया करते थे, पर चूल्हा रोटी के लिये चलता रहा, सब्जी का स्वाद बदल गया, पहले जो खुश्बू सब्जी में आती थी वो खुश्बू स्टोव की सब्जी में नहीं आती थी, माँ इस नये स्वाद के लिये बेबस थी, कभी शिकायत होती कि केरोसिन की महक खाने में आ जाती है, या कभी कोई स्वाद ही नहीं, माँ ने कई स्टोव बदलवाये पर इतना ज्यादा फर्क नहीं पङा । जीवन अपनी गति से चल रहा था, भाग इसलिये नहीं रहा था क्योंकि सब्जी का स्वाद नहीं बदल रहा था ।
    कुछ समय बाद केरोसिन की जगह एल.पी.जी. ने ले ली, अब माँ के चौके में से चूल्हे की विदाई तय हो चुकी थी, क्योंकि अब गैस के चूल्हे में माँ को दो बर्नर मिल गये थे, अब माँ का चौके में काम कुछ ज्यादा आसान हो गया था, बिना धुएं और केरोसिन की गंध की तकलीफ के बिना खाना बनाना बेहद आसान हो गया था, पर अब चौके के बदलाव ने फिर परेशानी खङा कर दी, चौके में ऊपर तक तेल की चिकनाई पहुँचने
लगी, स्टोव तो घर के बाहर रख देते पर गैस के चूल्हे में यह सुविधा मिलने से रही, तो चिमनी के बारे में समझा गया और चौके में चिमनी लगवा दी गई, सब्जी में सभी ने पहले से ज्यादा स्वाद पाया, रोटी भी चूल्हे के मुकाबले थोङी ठीक थीं, पर धीरे धीरे आदत पङ गई। गैस में भी सब्जी बनाते समय माँ को हमेशा खङी रहना होता था, माँ के पैरों के दर्द ने भी मुझे एहसास दिलवाया।
    और एक दीपावली पर मैं और पापा जाकर माँ के लिये एक माइक्रोवेव ले आये, माँ ने  माइक्रोवेव के बारे में सुन रखा था, पर फिर भी घर में देखकर विस्मित हुई, माइक्रोवेव को घर की डाइनिंग टेबल पर रख लिया गया, माइक्रोवेव के साथ कुछ प्लास्टिक के बर्तन भी आये थे जो कि माइक्रोवेव में खाना पकाने में सक्षम थे, परंतु माँ ने कहा कि अगर सब्जी बनानी है तो प्लास्टिक के बर्तन में तो नहीं बनायेंगे, अब चूँकि स्टील के बर्तन माइक्रोवेव में उपयोग नहीं हो सकते थे तो माँ को बोरोसिल के काँच के बर्तन बेहद पसंद आये, जिन्हें माइक्रोवेव में भी उपयोग में लाया जा सकता था और फ्रिज में भी रखा जा सकता था। माइक्रोवेव में सब्जी बनाने में कम तेल मसालों में भी सब्जी का बेहतरीन स्वाद निखर आया था, सभी को यह स्वाद पसंद आया क्योंकि सब्जी का मौलिक स्वाद अद्भुत था, माँ को अब चौके में खङे रहने की जरूरत खत्म हो चकी थी, अब माँ  डाइनिंग टेबल के सामने कुर्सी पर बैठकर आराम से सब्जी बनाती है। बोरोसिल के बर्तनों के बारे में http://www.myborosil.com/ से ज्यादा जाना जा सकता है ।
    सबसे बेहतरीन स्वादिष्ट व्यंजन है वेज बिरयानी  बोरोसिल का 1.5 ली. वाला गोल काँच का कैसरोल (Round Casserole) , गहरा वाला गोल काँच (Deep Round Casserole) का 2.5 ली. वाला कैसरोल और 1.5 ली. वाला इजी ग्रिप वाला गोल कैसरोल (Easy Grip Round Casserole) की मदद से बिरयानी बनाई जाती है।
    पहले प्याज और लहसुन को बारीक लंबा काटकर गोल काँच के कैसरोल बिना तेल के 5-7 मिनट के लिये माइक्रो करें, प्याज और लहसुन क्रिस्प और सुनहरे रंग के हो जायेंगे। गहरा वाले गोल काँच के कैसरोल में बासमती चावल और पानी 1:2 के अनुपात में कर लें, और लगभग 15 मिनट माइक्रो करें, चावल को अधपका ही रखें, अब इजी ग्रिप वाले गोल कैसरोल में कटी हुई बीन्स, मटर, पनीर, गाजर, शिमला मिर्च थोङे तेल के साथ नमक और मनपसंदीदा बिरयानी मसाला मिला लें, अब लगभग 100 ग्राम पानी डाल लें और लगभग 10 मिनट के लिये माइक्रो करें । गहरे वाले गोल काँच के कैसरोल में से चावल किसी और बर्तन में निकाल लें और अब इसमें क्रिस्प प्याज और लहसुन की परत बिछा लें और चावल का एक तिहाई हिस्सा दूसरी परत के रूप में डाल दें, तीसरी परत के लिये आधी सब्जी की परत बनायें और अब चावल का एक तिहाई हिस्सा चौथी परत के रूप में डाल दें, बची हुई आधी सब्जी की पाँचवी परत बना लें और आखिरी परत के रूप में बचा हुआ एक तिहाई चावल बिछा लें, ऊपर थोङे कच्चे काजू से सजा दें । अब गहरे वाले गोल काँच के कैसरोल को लगभग 10 मिनट के लिये माइक्रो करें । लगभग 40 मिनट में चार लोगों के लिये बिरयानी तैयार है ।

भारत की आधारभूत समस्याएँ और उसके समाधान.. सैनिटरी नैपकीन और पानी

    बहुत दिनों से सोच रहा हूँ रिवर्स माइग्रेशन के लिये, रिवर्स माइग्रेशन मतलब कि अपने आधार पर लौटना, जहाँ आप पले बढ़े जहाँ आपके बचपन के साथीगण हैं,  देशांतर गमन शायद ठीक शब्द हो। लौटकर जाना बहुत बड़ा फ़ैसला नहीं है, पर लौटकर वापिस वहाँ अपना समय किस तरह से समाज के लिये लगायें, यह एक कठिन फ़ैसला है। अभी पिछले दिनों जब मैं अपने कुछ व्यावसायिक मित्रों से अपने गृहनिवास में बात कर रहा था, जब मैंने उनको अपना मन्तव्य बनाया तो एक मित्र ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा “बोस सब उज्जैन वापिस आकर समाज सेवा ही करना चाहते हैं, एक दिन ऐसा आयेगा कि सब समाजसेवक ही होंगे, सेवा करवाने वाले कम”, उस मित्र की बात वाकई बहुत दिलचस्प लगी, अगर इतने लोग सेवा करने वाले उपलब्ध हैं पर कर नहीं पा रहे हैं तो उनको बस एक नई दिशा देने की जरूरत है।
    कुछ समय बाद ही इंडीब्लॉगर ने फ़्रेंकलिन टेंपलटन इन्वेस्टमेन्ट्स के साथ “द इंडिया काँरवा” प्रस्तुत किया जिसमें अपने विचार उन वक्ताओं के लिये देने थे जिन्होंने बिल्कुल सतही तौर पर समाज के साथ काम किया और टेडेक्स गेटवे मुंबई दिसम्बर २०१२ में उन्होंने अपने विचार रखे। उनके विचार सुनकर अपने तो दिमाग के सारे दरवाजे खुल गये, हम सोच रहे थे कि करें क्या ? परंतु यहाँ तो लोग आधारभूत समस्याओं से ही सामना कर रहे हैं, उनके लिये कुछ बड़ा करने से पहले, उनकी आधारभूत समस्याओं को समझा जाये और उस पर कार्य किया जाये।
    अरुनाचलम मुरुगनाथम मेरे लिये नया नाम था, परंतु जब मैंने इनकी कहानी सुनना शुरू कि जो इतनी दिलचस्प थी, कि मैं इनके कार्य करने और कुछ करने की जिद से बहुत प्रभावित हुआ, अरुनाचलम में शुरू से ही कुछ करने की इच्छा थी, जिस तरह से उन्होंने महिलाओं के लिये सैनिटरी नैपकीन का अविष्कार किया, जिससे महिलाएँ अपने खुद के लिये यह आधारभूत सुविधा पा सकें, जिस तरह से उनके किये गये अविष्कार से जितनी बड़ी आबादी को यह लाभ मिल सकेगा, कितने ही लोगों को रोजगार मिल सकेगा, सैनिटरी नैपकीन की बात महिलाएँ तो क्या पुरूष भी दबे शब्दों में बात करते हैं पर अरुनाचलम नें यही बात मंच तक लाई और इसके लिये कार्य कर इतनी महँगी चीज को बिल्कुल ही पहुँच वाले दामों में भारत की महिलाओं को उपलब्ध करवाया।
अरुनाचलम मुरुगनाथम की दिलचस्प यात्रा आप यहाँ सुन सकते हैं।
सिन्थिया कोनिग ने भारत की सबसे आधारभूत समस्या और सबसे भारी समस्या को समझा और उसका एक अच्छा, हल्का सा समाधान भी दिया। जैसा कि हम सब लोग जानते हैं भारत की सबसे बड़ी समस्या है पानी, जो कि सहजता से उपलब्ध नहीं है और जहाँ उपलब्ध है वहाँ से घर लाने में कितने श्रम की जरूरत होती है, आज भी गाँवों में महिलाएँ सिर पर पानी ढो़कर लाती हैं, और पानी बहुत भारी होता है। इसके लिये सिन्थिया कोनिग ने एक रोलर का अविष्कार किया जो कि ड्रम के आकार का है और पानी भरने के बाद उसे आसानी से खींचा जा सकता है, पानी अधिक मात्रा में लाया जा सकता है और सबसे बड़ी बात कि इसकी कीमत गाँव वालों की पहुँच में है मात्र ९७५ – १००० रूपये।
सिन्थिया कोनिक का दिलचस्प व्याख्यान यहाँ सुन सकते हैं, कैसे उन्होंने भारी पानी को हल्का कर दिया।
सुप्रियो दास, अच्छे खासे इंजीनियर थे, परंतु कुछ करने की इच्छाशक्ति ने उन्हें अपने खुद के लिये काम करने के लिये प्रेरित किया, और उन्होंने बहुत सारे अविष्कार भी किये, जिसमें उनका सबसे अच्छा और अधिकतर जनता को फ़ायदा पहुँचाने वाला है, जिम्बा !! जब सुप्रियो दास ने देखा कि हमारे यहाँ केवल अच्छा पीने लायक साफ़ पानी ना मिलने के कारण ही हजारों मौतें रोज हो रही हैं, उन्होंने इसके लिये बहुत शोध किया और पाया कि पर्याप्त मात्रा में क्लोरीन नहीं मिलाया जा रहा है या बहुत ही सस्ता क्लोरीन उपलब्ध ही नहीं है और अगर है भी तो कम या ज्यादा होने से नुकसानदायक है, तब उन्होंने जिम्बा उत्पाद बनाया जो कि पानी के स्रोत पर ही लगा दिया जाता है तो जहाँ से लोग पानी लेते हैं, उन्हें पर्याप्त मात्रा में क्लोरीन मिला हुआ पानी मिल रहा है, जिससे आश्चर्यजनक तरीके से जहाँ भी प्रयोग हुए अच्छे नतीजे मिले और सबसे बड़ी बात कि इस यंत्र में कोई भी ऐसी चीज नहीं लगी कि वह खराब हो सके।
सुप्रियो दास की क्लोरीन की कहानी, कैसे पानी को पीने लायक बनाया
    इन तीन अविष्कारों से मैं बहुत प्रभावित हुआ, अगर कुछ करने की ठान लो तो कुछ भी असंभव नहीं है, बस काम करना है यह सोच हमारी दृढ़ होनी चाहिये।
    यह पोस्ट फ़्रेंकलिन टेंपलटन द्वारा आयोजित टेडेक्स गेटवे मुंबई २०१२ में आयोजित “द इंडिया काँरवा” में कुछ महत्वपूर्ण सामाजिक और आधारभूत समस्यों से प्रेरित होकर लिखी गई है। Franklin Templeton Investments partnered the TEDxGateway Mumbai in December 2012.