कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ४०

दीर्घयामा – यद्यपि यक्ष ने मेघ को सन्देश ग्रीष्म ऋतु के आषाढ़ मास में दिया है जबकि रात्रियाँ छोटी होती हैं, किन्तु विरहावस्था में जागरण व चिन्ता के कारण रात्रियाँ लम्बी प्रतीत होती हैं। इसलिए यक्ष की यह इच्छा कि रात्रि किसी तरह छोटी हो जाये, स्वाभाविक थी।

त्रियामा – रात्रि के तीन प्रहर माने हैं। एक प्रहर तीन घंटे का होता है। दिन और रात में आठ प्रहर माने जाते हैं। इस कारण दिन और रात्रि दोनों में चार

-चार प्रहर होने चाहिये परन्तु विद्वानों के अनुसार रात के आदि और अन्त में आधे-आधे प्रहरों को दिन में ग्रहण किया गया जाता है। इस प्रकार रात्रि में तीन प्रहर और दिन में पाँच प्रहर बचते हैं।


बहु विगणयन – जो व्यक्ति दु:ख में अपना धैर्य नहीं खोता, वह दु:ख के समय यह विचार करके कि आगे चलकर सुख प्राप्त होगा तो मैं ये-ये करुँगा, ऐसा सोचता रहता है। यही स्थिति यक्ष की है। वह भी शाप की समाप्ति पर जब अपनी प्रिया से मिलेगा तो उस समय क्या क्या करना है, ये योजनाएँ बनाता हुआ विरहकाल व्यतीत कर रहा है।

चक्रनेमिक्रमेण – इस पद से कवि ने लौकिक सत्य का उद़्घाटन किया है। जिस प्रकार रथ जब चलता है तो पहिये का किनारा जो भूमि को स्पर्श करता है, वह ऊपर चला जाता है और जो ऊपर होता है वह घूमते हुए नीचे आ जाता है। वैसे ही मनुष्यों की दशा में भी सुख, दु:ख आते हैं- कभी सुख आता है, तो कभी दु:ख।

भुजगशयनादुत्थिते – भारतीय परम्परा के अनुसार भगवान विष्णु आषाढ़ शुक्ल एकादशी को शेषनाग शय्या पर क्षीरसागर में सोते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को उठते हैं। इस एकादशी को क्रमश: हरिशयनी एकादशी तथा हरिप्रबोधिनी एकादशी कहते हैं। लोकभाषा में इन्हें देव सोनी ग्यास और देव उठानी ग्यास भी कहते हैं। इनके बीच के समय को “देव सोना” कहा जाता है। इसमें विवाहादि शूभ कार्य नहीं किया जाता उस समय भगवान की पूजा करनी चाहिये।

विरहगणितम़् – विरह काल में व्यक्ति अनेक बातें सोचता है कि अपने प्रिय अथवा प्रिया के मिलने पर ऐसे मिलूँगा, ऐसे रुठूँगा, ऐसे मनाऊँगा आदि। यक्ष व यक्षिणी भी यही सब बातें सोच रहे हैं कि मिलने पर वे इन्हें पूरी करेंगे।

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