सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३६ [कर्ण का तारुण्य… यौवन के रथ के पाँच घोड़े.… पुरुषार्थ, महत्वाकांक्षा, निर्भयता, अभिमान और औदार्य ]

     तारुण्य ! जवलन्त धमनियों का अविरत स्पन्दन । प्रकृति द्वारा मानव को प्रदत्त सबसे श्रेष्ठ वरदान। जीचन के नगर का एकमात्र राजपथ। प्रकृति के साम्राज्य का वसन्त, मन-मयूर के पूर्ण फ़ैले हुए पंख, विकसित शरीर-भुजंग का सुन्दर चितकबरा फ़न, भावनाओं के उद्यान का सुगन्धित केवड़ा, विश्वकर्ता के अविरत दौड़नेवाले रथ में सबसे शानदार घोड़ा, मनुष्य का गर्व से सिर उठाकर चलने का समय, कुछ न कुछ अर्जन करने का समय, शक्ति का और स्फ़ूर्ति का काल, कुछ न कुछ करना चाहिए, इस भावना को सच्चे अर्थों में प्रतीत कराने वाला काल।

    बचपन की सभी वस्तुओं का रंग हरा होता है। युवावस्था की सभी वस्तुओं का रंग गुलाबी और केसरिया होता है। युवक की दृष्टि की उडान क्षितिज को छूनवाले आकाश को भी पार कर जाती है। प्रत्येक गतिअमान और प्रकाशवान वस्तु की ओर उसका सहज सुन्दर खिंचाव होता है। जहाँ-जहाँ जो कुछ असम्भव होता है उसको सम्भव करने की अंगभूत तरंग उसमॆं होती है।

    आजकल मुझको अपनी ही, बचपन की और किशोरावस्था की, कुछ बातों पर हँसी आती थी। गंगा को गंगामाता कहनेवाला कर्ण, उसके किनारे पर उत्तरीय में सीपियाँ इकट्ठी करनेवाला कर्ण, गरुड़ की तरह आकाश में उड़ने की बात करनेवाला कर्ण, बालकों के आग्रह को स्वीकार कर राजा के रुप में पत्थर के सिंहासन पर बैठनेवाला कर्ण, अपने कुण्डल कैसे चमकते हैं – यह गंगा के पानी में निहारनेवाला कर्ण ! – कितनी प्रवंचना थी उस समय के आन्न्द में ! कितनी अन्धी थी उस समय की श्रद्धा ! कितना सन्देह ! कितना अज्ञान !

    यह सब धुँधला होता गया। काल के प्रहार ने सब कुछ ध्वस्त कर दिया। जीवन के रथ की वल्गाएँ युवावस्था के सारथी ने अपने हाथ में ले लीं। इस रथ में पाँच घोड़े होते हैं। पुरुषार्थ, महत्वाकांक्षा, निर्भयता, अभिमान और औदार्य।

     जो सामर्थ्यशाली होता है, वही है यौवन। प्रकाश कभी काला होता है क्या ? ऐसा सामर्थ्यशाली यौवन ही अपने साथ औरों का मान बड़ाता है।

   महत्वाकांक्षा तो युवक का स्थायी भाव है। मैं महान बनूँगा। परिस्थिति के मस्तक पर पैर रखकर मैं उसको झुका दूँगा, यह विचारधारा ही तरुण को ऊँचा उठाती है।

   निर्भयता तरुण के जीवन-संगीत का सबसे ऊँचा स्वर है। इस स्वर की भग्न और बिखरी हुई ध्वनि है भय। फ़टे बाँस की-सी ध्वनि भी कभी-कभी किसी को अच्छी लाती है। जग ऊँचे स्वर की तान सुनने को उत्सुक होता है, फ़टी हुई आवाज नहीं।

   अभिमान है युवावस्था का आत्मा। जिस मनुष्य में श्रद्धा नहीं है, वह मनुष्य नहीं है। और जिस तरुण में अभिमान नहीं है, वह तरुण नहीं है। तरुण मनुष्य अपनी श्रद्धाओं पर सदैव अभिमान करता है। समय आने पर उनके लिए प्राण तक देने को वह तैयार रहा करता है।

   और उदारता है यौवन का अलंकार। अपनी शक्ति का अन्य दुर्बलों के संरक्षण के लिये किया गया उपयोग। स्वयं जीवित रहकर दूसरों को जीने देने का अमूल्य साधन।

   ऐसी होती है तरुणाई। जहाँ यह होती है वहाँ अपमान से व्यक्ति चिढ़ता है। जहाँ यह होती है वहाँ अपने न्यायपूर्ण अधिकार पर किसी के आक्रमण से व्यक्ति क्रुद्ध हो उठता है। जहाँ यह होती है वहाँ यह अन्याय के पक्ष का उन्मूलन कर देती है। जहाँ यह होती है वहीं वास्तव में विजय होती है, वहीं प्रकाश होता है। प्रकाश न हो तो फ़िर अन्धकार ! अपमान का आलिंगन करने वाला अन्धकार ! पराजय के विष को अमृत समझकर पचा जानेवाला अन्धकार ! अन्याय का समर्थन करनेवाला अन्धकार ! आक्रमण से भयभीत होनेवाला अन्धकार !!

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