पिस रहा हूँ
मानसिक दबाब के
अनगिनत
पाटों में,
क्या होगा
सहनशीलता का,
गठ्ठर जिंदगी का
भारी होता ही जा रहा है,
अंतहीन सीमाएँ हैं
इस विशाल और विद्रुप
जिंदगी की,
अंतत: भविष्य के
गर्भ में
कुछ है खौफ़नाक
सचेतनता सा,
जिसे मैं
रोक पाने में असमर्थ हूँ !
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
..क्या भाई??
समझ सकता हूं बन्धु। हम भी यह महसूस करते हैं। इतना बढ़िया अभिव्यक्त नहीं कर पाते – बस!
गट्ठर भारी होता जा रहा है…
बेहतर….
अंतत: भविष्य के
गर्भ में
कुछ है खौफ़नाक
सचेतनता सा,
जिसे मैं
रोक पाने में असमर्थ हूँ !
bahut sundar rachna
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
धैर्य बनाए रखिये, कन्धा भिड़ाये रखिये.
जब तक आखिरी सांस है अपना बोझ उठाये रखिये.
कभी हाथ ना फैलाना हो,
यह सम्मान बनाए रखिये.