Monthly Archives: January 2011
ब्लॉगरी में भी विकृत मानसिकता… (Blogger’s Distorted mindset..)
विकृत मानसिकता जिसे मैं साधारण शब्दों में कहता हूँ मानसिक दिवालियापन या पागलपन, वैसे विकृत मानसिकता के लिये कोई अधिकृत पैमाना नहीं है, अनपढ़ और पढ़ेलिखे समझदार कोई भी हो जरूरी नहीं है कि उनकी मानसिकता विकृत नहीं हो।
और ऐसे ही कुछ उदाहरण मैंने हिन्दी ब्लॉगजगत में देखे पोस्ट पढ़कर पहली बार में ही विकृत मानसिकता का दर्जा मैंने दे दिया। अब यहाँ ब्लॉगर भी बहुत पढ़े लिखे हैं, और जिनके पास बड़ी बड़ी डिग्री है, वे हिन्दी ब्लॉगिंग की प्रगति में महति योगदान निभाने में अपनी जीवन ऊर्जा लगा रहे हैं। धन्य हैं वे ब्लॉगवीर और वीरांगनाएँ जो यह सोचते हैं कि वे हिन्दी लिख रहे हैं तो हिन्दी समृद्ध हो रही है, वाह ब्लॉगरी विकृत मानसिकता।
जितना समय दूसरे ब्लॉगर की टांग खींचने उनकी टिप्पणियों में अनर्गल पोस्ट लिखने में लगा रहे हैं उतना समय अगर किसी अच्छे विषय पर या अपनी दिनचर्या से कोई एक अच्छा सा पल लिखने में लगाते तो शायद उससे पाठक ज्यादा आकर्षित होते। परंतु कैसे स्टॉर ब्लॉगर बनें और कैसे ब्लॉगरों की टाँग खींचे ये सब प्रपंच कोई इन विकृत मानसिकता वाले ब्लॉगर्स से सीखें।
अपन तो अपने में ही मगन हैं, किसी की दो और दो चार में अपना कोई योगदान नहीं है, फ़िर भले ही वे दो और दो पाँच ही क्यों हो रहे हों, पर फ़िर भी पढ़े लिखों की विकृत मानसिकता नहीं देखते बनती। इससे अच्छा है कि … (अब भला मैं ये क्यों लिखूँ, वे खुद ही समझ लें।)
इंडिब्लॉगर मीट बैंगलोर ब्लॉगरों की ताकत – 2 (IndiBlogger.in Meet Bangalore – 2)
इंडिब्लॉगर मीट बैंगलोर ब्लॉगरों की ताकत (IndiBlogger.in Meet Bangalore)
दोपहर के भोजन के बाद सभी ब्लॉगर्स इस्कॉन मंदिर के फ़ोटो लेने में लग गये, वैसे एक बात गौर करने लायक थी कि लगभग सभी ब्लॉगर्स के पास DSLR कैमरे थे, कुछ फ़ोटो ब्लॉगर्स भी थे, जो पूरी ब्लॉगर मीट के दौरान फ़ोटो खींचने में ही व्यस्त रहे।
अक्षयपात्र फ़ाऊँडेशन के चैयरमेन श्री मधु दास हमारे सम्मुख थे, और उन्होंने ब्लॉगर्स के योगदान को सराहा और लोगों को इस बारे में बताने के लिये अपने ब्लॉग पर लिखने की अपील की। ब्लॉगर्स के प्रश्नों के उत्तर भी दिये।
सभी ब्लॉगर्स वापिस से MVT हॉल में आ चुके थे, फ़िर शुरु हुआ एक दूसरे को टिप्पणी देने का सिलसिला, सभी को एक ड्राँईंग शीट अपनी पीठ पर लगाने को दे दी गई, और जैसे हम ब्लॉग पर टिप्पणी देते हैं, वैसे ही एक दूसरे से मिलकर, कैसा लगा और अपने ब्लॉग का पता साझा करने के लिये यह दौर बनाया गया था। बहुत सारे ब्लॉगर्स से मुलाकात हुई, जिसमॆं भारतीय भाषा के एक और ब्लॉगर से मिले जो कि कन्न्ड़ में ब्लॉग लिखते हैं। हमने ब्लॉगर्स को बताया कि हम हिन्दी में ब्लॉग लिखते हैं, तो सबने बहुत सराहा। प्रतिक्रियाएँ भी आई कि हिन्दी कम्प्यूटर पर लिखना क्या इतना आसान है ? हिन्दी में लिखने के कारण फ़िर तो आपके पाठक और पेजलोड भी ज्यादा होंगे इत्यादि बातें हुईं। कुछ ब्लॉगर्स ने बताया कि हिन्दी पढ़ना उन्हें अच्छा लगता है परंतु हिन्दी में यहाँ ज्यादा कुछ उपलब्ध नहीं है, उन्होंने वादा किया कि अब हम हिन्दी ब्लॉग पढ़ा करेंगे, उन्होंने बताया कि हम तो हिन्दी को केवल हिन्दी दिवस के कारण ही जानते हैं, क्योंकि तब विद्यालय में कार्यक्रम होते थे। उन्होंने यह भी जानना चाहा कि हिन्दी दिवस पर आप लोग तो उत्सव मनाते होंगे, कुछ विशिष्ट कार्यक्रम आयोजित होते होंगे, हमने उन्हें बताया कि हिन्दी लिखने वालों के लिये तो रोज ही हिन्दी दिवस है, पर हिन्दी दिवस पर बहुत सारे साहित्यिक आयोजन किये जाते हैं।
बहुत सारी टिप्पणियाँ लेने और देने के बाद पूछा गया कि सबसे ज्यादा टिप्पणियाँ किसके पास हैं, और इस प्रकार ज्यादा टिप्पणी पाने वालों को अक्षयपात्र फ़ाऊँडेशन ने बच्चों की तस्वीरें उपहार स्वरूप प्रदान की।
टिप्पणियों के दौर के बाद अब था बहस का दौर, जिसमें चार समूहों में सारे ब्लॉगर्स को बाँटा गया, पहला समूह मोबाईल ब्लॉगिंग और टिप्स, दूसरा समूह ऑनलाईन उत्पीड़न online harassment, तीसरा समूह ब्लॉग के सामाजिक दायित्व और चौथा समूह इंडिब्लॉगर के बारे में जानकारी का था।
इसके बाद आखिरी दौर था इंडिब्लॉगर की टीशर्ट वितरण का जिसमें सभी को अपने साईज के अनुसार टीशर्टें दी गई।
फ़िर वापिस से दिन भर की इस मधुर ब्लॉगर मीट के बाद हम लौट चले अपने घर की ओर..
नववर्ष के कैलेण्डर और डायरी… (New Year Calendars and Diary)
दिसंबर लगते ही नववर्ष की चहल पहल शुरु हो जाती है, और साथ ही नववर्ष के कैलेण्डर और डायरी का इंतजार भी ।
किसी जमाने में हमारे पास कैलेण्डर और डायरी का अंबार लग जाता था, लोग अपने आप खुद से ही या तो घर पर दे जाते थे, या फ़िर बुला बुलाकर देते थे, हम खुद को बहुत ही गर्वान्वित महसूस करते थे, इन कागज की चीजों को पाकर और अपने अहम को संतुष्ट कर लेते थे।
अब समय के साथ इतना बड़ा अंतर आ गया है कि लोग हमसे इन कागज के कैलेण्डर और डायरी की उम्मीदें करते हैं, हमारे पास होती नहीं है यह अलग बात है। इन कागज की चीजों के तो हम मोहताज ही हो गये हैं, अब उनकी जगह लेपटॉप ने ले ली है।
पहले हम डायरी लिखा करते थे, अब ब्लॉग लिखते हैं। डायरी में बहुत सारी चीजें ऐसी होती थीं जो कि बेहद निजी होती थीं और उस तक केवल अपनी पहुँच होती थी, पर अब ब्लॉग पर लिखे विचार सभी पढ़ते हैं, निजी विचार भी लिखना चाहते हैं, पर अब डायरी में नहीं लिखना चाहते हैं, वैसे ही सभी लोग कागज को बचाने का उपदेश देते रहते हैं, भले ही खुद कागज का कितना ही दुरुपयोग कर रहे हों।
यह विषय संभवत: मुझे कल ऑफ़िस से आते समय बस में मिला, कोई नववर्ष के कैलेण्डर लेकर जा रहा था, तो हमें अपने पुराने दिन याद आ गये और बस कागज की टीस निकल गई।
अब तो हमारे पास एक ही पांचांग होता है लाला रामस्वरूप का पांचांग, कैलेण्डर नहीं, और डायरी अब विन्डोस लाईव राईटर है। पहले इतने कैलेण्डर होते थे कि कई बार तो दीवालों पर नई कीलें ठोंकनी पड़ती थीं, अब वही कीलें हमें याद करती होंगी कि पहले तो कैलेण्डर के लिये ठोंक दिया और अब हम खाली लगी हुई हैं, क्योंकि कील ऐसी चीज है जो हम ठोक तो देते हैं, पर निकालते नहीं हैं। बिल्कुल यह एक हरे जख्म जैसी होती है, जो हमेशा टीस देती रहती है।
अब हम बहुत कम कीलें ठोंकते हैं, जरुरत हो तो भी पहले अपनी जरुरतें कम कर लेते हैं, परंतु कीलों को सोचने पर मजबूर नहीं करना चाहते ।
रही डायरी की बात तो हमने जितनी डायरी लिखी थीं जिसमें हमारी कविताओं की भी डायरी थी, तो जब हम कार्य के लिये घर से बाहर गये हुए थे तो साफ़ सफ़ाई में हमारी डायरी से रद्दी के पैसे आ गये, अब रद्दी वाले भी इतने आते थे कि कौन से रद्दी वाले को पकड़ें, यही समझ में नहीं आया। इसलिये सालों तक हमने उस गम में कविता नहीं लिखी फ़िर सालों बाद लिखना शूरु की, कम से कम अब तो ये रद्दी में कोई बेच नहीं पायेगा।
तो हे नववर्ष अब कभी भी तुम्हारे आने से कैलेण्डर और डायरी का इंतजार नहीं रहेगा।
क्या ५० वर्ष की उम्र के बाद जीवन बीमा करवाना चाहिये..? (Life Insurance required after 50 …?)
क्या ५० वर्ष की उम्र के बाद जीवन बीमा करवाना चाहिये..?
यह एक आम प्रश्न नहीं है, अक्सर प्रश्न होता है “५० वर्ष के बाद मुझे कौन सा जीवन बीमा करवाना चाहिये”, पर उसके पहले हमें यह समझना होगा कि क्या ५० वर्ष की उम्र के बाद जीवन बीमा करवाना चाहिये और अगर करवाना चाहिये तो कितना करवाना चाहिये ?
इस प्रश्न का उत्तर समझने के लिये पहले जीवन बीमा क्यों करवाना चाहिये यह समझना होगा।
जीवन बीमा लिया जाता है आश्रितों की आर्थिक सुरक्षा के लिये, जिससे अगर बीमित व्यक्ति जो कि घर चलाने वाला भी होता है वह परिवार का साथ बीम में ही छोड़ जाये, साधारण शब्दों में उसकी मृत्यु हो जाये, तो आश्रित परिवार उसके बीमित धन से अपनी आगामी जिंदगी उसी प्रकार के जीवन स्तर पर जी सके।
अब एक उदाहरण लेते हैं, रमेश की उम्र है २१ वर्ष और अभी अभी उसकी अच्छी नौकरी लगी है, अब आयकर में बचत के लिये वह जीवनबीमा लेना चाहता है, उसने मुझसे पूछा कि कौन सा जीवनबीमा लेना चाहिये, तो सबसे पहला मेरा प्रश्न था कि तुम पर कितने आश्रित लोग हैं, वह ठगा सा मेरा मुँह देखता रहा, और बोला कि “कोई नहीं”।
फ़िर मैंने कहा तुम्हें जीवन बीमा लेने की जरुरत ही क्या है, जीवन बीमा केवल और केवल उनके लिये होता है जिनके ऊपर परिवार आश्रित होता है।
तो उसका अगला प्रश्न था “मुझे बीमा कब लेना चाहिये ?”
मेरा जबाब था “जब शादी हो जाये तब, जब तुम्हारे बच्चे हो जायें तो उस बीमे का वापिस से मूल्यांकन करके जीवन बीमित राशि और ज्यादा करनी चाहिये”
जीवन बीमा में आपकी बीमा राशि कितनी हो यह उम्र के पड़ाव पर निर्भर करता है, बीमित राशि ज्यादा होना चाहिये जवान होने पर और जैसे जैसे आपके जीवन में स्थिरता आती जाती है, आप अपने वित्तीय लक्ष्य पूरे करते जाते हैं, आपको अपने बीमित राशि को कम करते जाना चाहिये।
किरण की उम्र २५ वर्ष है और अभी नई नई शादी हुई है, उसकी नववधु के लिये अब किरण जिम्मेदार हो गया है, उसको आर्थिक सुरक्षा के लिये अब तुरंत ही जीवन बीमा लेना चाहिये, और इतनी राशि का लेना चाहिये कि अगर आज उसकी मृत्यु भी हो जाये तो उसकी पत्नी उस बीमित धन से अपना पूर्ण जीवन निकाल सके।
जब बच्चे हो जायें तो जीवन बीमा का वापिस से मूल्यांकन करना चाहिये। और फ़िर जैसे जैसे आप जीवन में अपने वित्तीय लक्ष्य प्राप्त करते जायें वैसे वैसे बीमित राशि कम करते जायें। बीमित राशि २५ वर्ष के नौजवान की और ५० वर्ष के व्यक्ति की एक समान नहीं हो सकती। क्योंकि २५ वर्ष की उम्र में व्यक्ति अपना जीवन शुरु करता है, उसके पास कोई बचत नहीं होती और यहाँ वह अपना वित्तीय लक्ष्य निर्धारित करता है। जबकि ५० वर्ष की उम्र में व्यक्ति अपने कई वित्तीय लक्ष्य प्राप्त कर चुका होता है, जैसे कि कार, घर और अच्छी बचत अपनी सेवानिवृत्ति के लिये, ५० वर्ष की उम्र के बाद व्यक्ति बहुत ही अच्छी वित्तीय अवस्था में होता है, उसका जितना वित्तीय लक्ष्य पूर्ण नहीं हुआ है और जितनी जिम्मेदारी बाकी है, केवल उतना ही जीवन बीमा करवाना चाहिये। और यह हर व्यक्ति का अलग अलग हो सकता है।
इंडिब्लॉगर मीट बैंगलोर ब्लॉगरों की ताकत (IndiBlogger.in Meet Bangalore)
इंडिबस हमारे रूट पर नहीं आई तो हम इंडिब्लॉगर मीट में शिरकत करने बैंगलोर के बस परिवहन से इस्कॉन मंदिर पहुंचे। आयोजन एमवीटी (Multi Vision Theatre) में था और अक्षयपात्र एनजीओ जो कि इस्कॉन चलाता है,के द्वारा प्रायोजित था। अक्षयपात्र अभी लगभग १२ लाख से ज्यादा बच्चों को दोपहर का भोजन स्कूल में शिक्षा के लिये देता है, जिससे शिक्षा के लिये गरीब बच्चे प्रोत्साहित हों।
अक्षयपात्र वर्ष २००० में शुरु हुआ था, और करीब १५०० बच्चों को खाना प्रायोजित करने से शुरुआत की थी, वर्ष २०२० तक अक्षयपात्र यह संख्या ५० लाख पहुंचाना चाहता है, और यह भारत का सबसे बड़ा एनजीओ है, कुछ दिनों पहले ही अक्षयपात्र के लिये इंडिब्लॉगर पर प्रतियोगिता थी, जिसमें लगभग १८० ब्लॉगरों ने भाग लिया था, जिससे अक्षयपात्र की वेबसाईट पर बहुत ट्रॉफ़िक बड़ गया और उन्होंने ब्लॉगरों के जरिये अपनी बात जन जन तक पहुंचाने की कोशिश की है। पहले एक महीने में अक्षयपात्र की वेबसाईट पर करीबन १५०० नये लोग आते थे, पर इंडिब्लॉगर पर प्रतियोगिता के बाद अब लगभग रोज ही ४००० नये लोग उनकी वेबसाईट देखते हैं।
इंडिब्लॉगर मीट का समय अपराह्न १२.३० से ४.३० तय किया गया था, पर दोनों इंडिबसें अपने निर्धारित समय से करीब एक घंटा देरी से आने के कारण मीट लगभग १.३० बजे शुरु की गई, अक्षयपात्र के स्वयंसेवकों ने व्यवस्था बहुत ही अच्छे से संभाली हुई थी, अक्षयपात्र का काऊँटर सर्वप्रथम था और वहाँ पर अक्षयपात्र के बारे में जानकारी उपलब्ध करवायी जा रही थी साथ ही एक बैज भी दिया जा रहा था “I Support Akshaypatra Foundation”| ब्लॉगरों के लिये स्वागत पेय और नाश्ता (समोसे) थे, और अंदर हॉल में प्रवेश करते ही इंडिब्लॉगर का काऊँटर था जहाँ तीन लेपटॉप रखे थे, वहाँ अपना पंजीकृत ईमेल आई.डी. लिखना था जिससे पता चले कि आप इंडिब्लॉगर के सदस्य हैं, हॉल में वाईफ़ाई भी उपलब्ध था, करीब हर दूसरा ब्लॉगर अपना लेपटॉप खोलकर बैठा था, और अपने आसपास वाले ब्लॉगरों से मिल रहा था।
इंडिब्लॉगर से अनूप माईक पर थे और मीट की शुरुआत में उन्होंने इस्कॉन के वाईस प्रेसीडेन्ट चंचलपति दास से मुखतिब करवाया, चंचलपति दास ने अक्षयपात्र के बारे में बताया और ब्लॉगरों को अक्षयपात्र के लिये लिखने के लिये प्रोत्साहित किया।
फ़िर शुरु हुआ हॉल ऑफ़ द फ़ेम ३० सेकण्ड का चक्र जिसमें कम्प्यूटर के द्वारा चुने गये ६० ब्लॉगरों को अपना परिचय देना था, सभी ब्लॉगरों का परिचय बहुत मुश्किल था क्योंकि लगभग ३०० ब्लॉगर वहाँ पर उपस्थित थे।
एक ब्लॉगर जो कि पहले ५ वर्षों तक सॉफ़्टवेयर में नौकरी करते थे, फ़िर दुनिया घूमने के लिये नौकरी छोड़कर अपना शौक पूरा करने निकल पड़े और एक वर्ष में लगभग ११ देश घूम आये और अंतत: धन खत्म होते ही वापिस लौट गये और अब फ़िर से नौकरी की तलाश में हैं, ब्लॉग का नाम भी अच्छा लगा – गूगीगोसग्लोबल |
एक अन्य ब्लॉगर थे जो कि कविताएँ लिखते हैं तो उन्होंने अपने ब्लॉग पर मल्लिका सेहरावत पर कविता लिखी थी, और काफ़ी चर्चित भी हुई थी, और उन्हें मल्लिका सेहरावत का फ़ोन भी आया था, पूरा हॉल सीटियों से गूँज उठा था।
एक ब्लॉगर थे अगड़मबगड़म उन्होंने कहा कि मेरे दोस्त मेरी बातें नहीं सुनते थे तो ब्लॉग लिखना शुरु कर दिया अब उन्हें कई लोग पढ़ते हैं।
हॉल ऑफ़ फ़ेम के बाद हुआ भोजन का दौर, भोजन अक्षयपात्र स्कूल के बच्चों को दोपहर में उपलब्ध करवाता है, भोजन में चावल का एक नमकीन व्यंजन एक मीठा व्यंजन और चिवड़ा था, बहुत ही स्वादिष्ट भोजन था।
जारी..
वाहन जरुरी है बैंगलोर में.. सरकार पर केस लगाते हैं, बैंगलोर को महंगी गैस और मुंबई को सस्ती गैस (Vehicle is must in Bangalore)..
बैंगलोर आये अभी चंद ही दिन हुए हैं, खैर अब तो यह भी कह सकते हैं कि एक महीना और ४ दिन पूरे हो गये हैं। यहाँ पर आकर सबसे जरूरी चीज लगी कि गाड़ी अपनी होनी चाहिये, मुंबई में लगभग ५-६ वर्ष रहे पर वहाँ गाड़ी की जरुरत कभी महसूस नहीं हुई, क्योंकि वहाँ पर सार्वजनिक परिवहन अच्छा और सस्ता है, वहाँ ऑटो और टैक्सी भी मीटर से चलते हैं, कभी कोई बिना मीटर से चलने के लिये नहीं बोलेगा। मुंबई में रहकर कभी भी ऑटो वाले से संतुष्ट नहीं थे पर अब मुंबई से बाहर आकर उन्हीं की कमी सबसे ज्यादा महसूस कर रहे हैं। कहीं भी जाना हो तो सार्वजनिक परिवहन का उपयोग कर लिया, उसका सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि आपको कभी खुद वाहन चलाना नहीं पड़ता है, याने कि सारथी फ़्री में :), पास जाना हो तो ऑटो, और दूर जाना हो तो बस या लोकल ट्रेन। बस के स्टॉप भी बराबर बने हुए हैं, और उस स्टॉप पर रुकने वाली बसों के नंबर भी लिखे रहते हैं, और कई स्टॉप पर उनके रूट भी लिखे रहते हैं।
बैंगलोर में बसें हैं पर स्टॉप गायब हैं, अब जाहिर है कि स्टॉप गायब है तो नंबर भी नहीं होंगे और जब नंबर ही नहीं हैं तो रूट की तो बात बेमानी है। ऑटो वाले तो यहाँ लूटने के लिये बैठे हैं और यहाँ के प्रशासन ने शायद आँखें बंद कर रखी हैं। मेरे घर से बेटे का स्कूल मुश्किल से १ कि.मी. होगा, एक दिन जल्दी में जाना था तो ऑटो से पूछा ६० रुपये थोड़ा बहस करी तो ४० रुपये बोला, उससे कम में जाने को तैयार ही नहीं। कहीं भी आसपास जाना हो या दूर जाना हो तो ऑटो की लूट ही लूट है। यहाँ मीटर से चलने को तैयार ही नहीं होते जबकि ऑटो का किराया यहाँ मुंबई से महंगा है और सी.एन.जी. का भाव लगभग बराबर है।
मुंबई में पहले १.६ किमी के ११ रुपये और फ़िर हर कि.मी. के लगभग ६.५० रुपये है। और बैंगलोर में पहले २ किमी के १७ रुपये और फ़िर ९ रुपये हर किमी के । एक बार ऐसे ही ऑटो वाले से बहस हो गई तो हमने भी कह दिया कि बैंगलोर तो लुटेरों का शहर है, मुंबई में भी गैस इतनी तो सस्ती नहीं है, तो ऑटो वाला कहता है कि मुंबई में गैस १६ रुपये मिलती है और यहाँ ४० रुपये, हम उससे भिड़ लिये बोले कि भई चलो फ़िर तो अपन “सरकार पर केस लगाते हैं, बैंगलोर को महंगी गैस और मुंबई को सस्ती गैस, इस बात में तो हम तुम्हारे साथ हैं, लाओ तुम्हारा मोबाईल नंबर कल टाईम्स ऑफ़ इंडिया को देंगे तो वो आपका साक्षात्कार लेंगे और तुम्हारा फ़ोटो भी छापेंगे”, तो वो खिसियाती हँसी के साथ चुपके से निकल लिया।
खैर इस तरह के वाकये तो होते ही रहेंगे अब इसीलिये खुद का वाहन खरीदने के लिये गंभीरता से सोच रहे हैं, वैसे हम इसके सख्त खिलाफ़ हैं, अब हम देश के बारे में नहीं सोचेंगे तो क्या हमारा पड़ोसी सोचेगा। अगर शुरुआत खुद से न की जाये तो ओरों से उम्मीद नहीं की जानी चाहिये, परंतु अब लगता है कि बैंगलोर वाले हमारी इस सोच को बदलने में कामयाब हो गये हैं। समस्या यहाँ पर भी हर जगह पार्किंग की है, चार पहिया पार्किंग के लिये तो यह देखा कि लोग युद्ध ही लड़ते हैं, पर फ़िर भी दो पहिया आराम से कहीं भी कुन्ने काने में घुसा दो, थोड़ी जगह कर लगा दो, दो पहिया में इतनी समस्या नहीं है।
अभी दो दिन पहले ही पढ़ा था कि सरकार यहाँ साईकिल वालों के लिये विशेष लेन बना रही है, तो हमारे मन में ख्याल आया कि फ़िर तो साईकिल भी ले सकते हैं और मजे में घूम भी सकते हैं, परंतु यह लेन शायद हमारे घर के आसपास कहीं नहीं है, इसलिये फ़िलहाल तो यह भी केवल ख्याल ही रह गया।
दो पहिया वाहन खरीदने का ज्यादा गंभीरता से विचार कर रहे हैं। वह भी बिना गियर का, अभी तक हमने हांडा की एक्टिवा, महिन्द्रा की डुयोरो, हीरो हांडा की प्लेजर और टीवीएस की वेबो देखी, सबसे अच्छी तो एक्टिवा लग रही है, पर अभी सुजुकी की एक्सेस १२५ देखना बाकी है, और सबसे बड़ी बात उक्त वाहन एकदम उपलब्ध नहीं हैं, ९० दिन की लाईन है, प्रतीक्षा है। बताईये या तो लोग ज्यादा वाहन खरीदने लगे हैं या फ़िर इन कंपनियों की उत्पादन क्षमता कम है, या फ़िर इसमें भी बैंगलोर के लोगों का कमाल है। अभी सोच रहे हैं, देखते हैं कि अगले सप्ताह तक बुकिंग करवा दें और फ़िर वाहन तो ३ महीने बाद ही मिलने वाला है, तब तक ऐसे ही बैंगलोर को कोसते रहेंगे, शायद बैंगलोर वाले पढ़ रहे हों कि एक ब्लॉगर कितनी बुराई कर रहा है बैंगलोर की।
आज इंडिब्लॉगर मीट में जा रहे हैं, फ़िर पता नहीं ऐसे कितने किस्से निकल आयेंगे।
बैंगलोर मेरी नजर से.. मुंबई की तुलना में.. (Bangalore my views.. Comparing with Mumbai)
मुंबई में ५ से भी ज्यादा वर्ष बिताने के बाद हम अब बैंगलोर आ पहुँचे हैं। मुंबई में इतने वर्षों से रहते हुए मुंबई की काफ़ी चीजों के आदि हो चुके थे जिसमें सबसे बड़ी चीज है “आत्म अनुशासन” (Self Discipline) और भी कई चीजें जैसे ऑटो, टैक्सी, बस और सबसे ज्यादा मुंबईकर जो लोग मुंबई में रहते हैं। मेरी नजर में मुंबईकर बहुत ही अनुशासित नागरिक हैं और शायद ही भारत में आपको उतने अनुशासित नागरिक मिलें।
हमने पहले से ही बैंगलोर के बारे में बहुत कुछ पढ़ लिया था और जान लिया था कि ज्यादा समस्या न हो, परंतु नेट से मिला ज्ञान सीमित ही होता है, जब व्यवहारिक दुनिया में आते हैं तभी असलियत का सामना होता है।
तड़के ४ दिसंबर को मुंबई से निकले थे बैंगलोर के लिये ७ बजे के आसपास की उड़ान थी, घर से बाहर निकले और ऑटो किया वह शायद हमारा आखिरी सफ़र था मीटर से ऑटो में बैठने का। उसके बाद बैंगलोर पहुँचे ९ बजे के आसपास, तो वहाँ से निर्धारित रूट की बीआईएएल (BIAL) की बस ली जिसे वायु वज्र भी कहते हैं, जिसका अधिकतम किराया १८० रुपये है, बैंगलोर में हवाईअड्डा हमारे रुकने की जगह से लगभग ४५ कि.मी. है और बस बहुत ही करीब में छोड़ देती है। सबसे अच्छी बैंगलोर की हमें बस सर्विस लगी, फ़िर चाहे वायु वज्र हो या वज्र (वोल्वो बस जो कि बैंगलोर शहर में चलती हैं)।
सुबह भाई के साथ घर ढूँढने के लिये निकले, तो पता चला कि बैंगलोर में १ महीने पहले घर ढूँढ़ना पड़ता है, यहाँ पहले से ही लोग घर किराये के लिये पक्के कर लेते हैं, मुंबई में भी ऐसा होता है परंतु बहुत कम, आप जब चाहें तब किराये के घर में जा सकते हैं। मुंबई में दलाल २ महीने की दलाली लेता है और यहाँ एक महीने की, वैसे थोड़ा समय हो तो बिना दलाली के भी किराये के घर मिल जाते हैं। आखिरकार पहले ही दिन शाम को हमारा किराये का घर पक्का हो गया जो कि लगभग २० दिन बाद मिलना तय हुआ। यहाँ पर किरायानामा (Rent Agreement) पंजीकृत नहीं करवाया जाता केवल १०० रुपये के स्टाम्प पेपर पर बना लिया जाता है, जबकि मुंबई में पंजीकृत कार्यालय में पंजीकृत करवाना जरुरी है।
सोमवार की सुबह गेस्ट हाऊस जाना तय हुआ तो ऑटो कम से कम २०० रुपये बिना मीटर के जाने को बोलेंगे, हमारे भाई ने बताया, तो हमने कहा इससे अच्छा तो यह है कि मीटर वाली टैक्सी (मेरु केब) को बुला लिया जाये और निकल लिया जाये, हमने फ़ोन किया और ५ मिनिट में टैक्सी हाजिर हो गई, गेस्ट हाऊस में चेक-इन करने के बाद उसने हमें अपने ऑफ़िस भी छोड़ दिया और कुल २२२ रुपये का मीटर बना, और अगर अलग से ऑटो करते तो गेस्ट हाऊस से ऑफ़िस जाने के ७० रुपये ले लेते।
इसी बीच परिवार को भी मुंबई से ले आये और ऑटो वालों का गजब ही हाल था, मात्र १ किमी के कम से कम ४० रुपये माँगते हैं और ३ किमी के ७० रुपये, इससे तो अच्छे मुंबई के ऑटो थे कम से कम मीटर से तो चलते हैं। यहाँ पर एक नई चीज मिली जिसको देखो वह टिप माँगता मिलता है, जैसे कि भुखमरी फ़ैली हो, कोई भी समान रखने आये या कुछ सर्विस देने तो ऊपर से टिप जरुर मांगता है, जबकि मुंबई में ऐसा कुछ नहीं है।
बैंगलोर के बारे में अच्छी बात लगी कि वज्र वोल्वो बस की सर्विस हर २-३ मिनिट में है, जिस रुट में हम रहते हैं, और कहीं भी हाथ दो तो रुक जाती है, वह शायद इसलिये क्योंकि बैंगलोर में बस के स्टॉप कहाँ हैं, पता ही नहीं चलता क्योंकि बहुत ही कम जगह पर चिह्नित किया हुआ है, नहीं तो नये लोगों के लिये तो बहुत परेशानी है। जबकि मुंबई में बस के रुकने के स्टॉप चिह्नित कर उसपर रुट नंबर भी लिखा रहता है, बस वहाँ केवल स्टॉप पर ही रुकती है, हाथ देने पर तो बिल्कुल नहीं रुकती।
अभी तो बहुत कुछ बाकी है, यह अभी तक का मेरा अच्छा अनुभव रहा बैंगलोर में और उम्मीद है कि बैंगलोर के लोग मेरी यह धारणा बदलने नहीं देंगे कि बैंगलोर के लोग बहुत अच्छे हैं।
मुंबई गाथा मिसल पावभाजी और गोविंदा.. भाग ८ ( Missal, PaoBhaji and Govinda.. Mumbai Part 8)
वहीं स्टेशन पर लोकल विक्रेता मिसल और बड़ा पाव बेच रहे थे, हमने सोचा कि अभी तो ट्रेन आने में समय है क्यों न मुंबई की इन प्रसिद्ध चीजों को खा लिया जाये, फ़िर पता नहीं कब मौका आये। हम चल पड़े लोकल विक्रेता के पास और एक मिसल लिया और एक बड़ा पाव लिया। स्वाद ठीक था परंतु हमें तो मुंबई की चीजों का आनंद उठाने का जुनून जो था, फ़िर उसी के पास भेल भी थी तो वह भी ले ली, मुंबई के इन स्वादिष्ट व्यंजनों का क्या कहना, मजा आ गया। वैसे यहाँ जितनी भी चीजें आप भूख लगने पर खा सकते हैं वह सब ऐसी होती हैं, जिन्हें आप कहीं भी जाते हुए खा सकते हैं, मतलब कि चलते हुए खा सकते हैं, वह इसलिये भी हो सकता है कि मुंबई में लोगों के पास समय नहीं होता है या यह भी बोल सकते हैं कि मुंबई में लोग एक एक मिनिट की कीमत समझते हैं।
हम कौतुहल से अब भी ट्रेन को देख रहे थे, हमारी ट्रेन दो – तीन बार आकर निकल चुकी थी परंतु हम खाने में व्यस्त हो गये थे इसलिये अगली ट्रेन आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। ट्रेन आई और हम उसमें आराम से सवार हो लिये, ट्रेन के दूसरे दर्जे में बैठे थे, पहले तो सुनने में ही अजीब लग रहा था कि सैकण्ड क्लॉस में जाना है फ़र्स्ट में नहीं। ट्रेन के दरवाजे अच्छे चौड़े थे और बीच में एक खंबा लगा हुआ था, सीट लकड़ी के पटियों की थी जो कि अमूमन हर ट्रेन के सैकेण्ड क्लॉस के डिब्बे में होती थी। पर यहाँ सीट थोड़ी कम चौड़ी थी जबकि पैसेन्जर में सीट ज्यादा चौड़ी होती है।
मुंबई सेंट्रल पहुँचकर अपनी पैसेन्जर का टिकट लिया और पैसेन्जर में चढ़ लिये, पैसेन्जर ट्रेन में तो बहुत घूमे थे परंतु मुंबई की पैसेन्जर में पहली बार बैठे थे, हमारे वरिष्ठ हमें बता तो रहे थे परंतु कुछ समझ में नहीं आ रहा था। सफ़र करते हुए एक स्टेशन आया विरार, तब हमें याद आया गोविंदा जिसे कहते हैं “विरार का छोकरा”। गोविंदा ने विरार से मुंबई रोज इन्हीं पैसेन्जर से जाकर संघर्ष किया था और आज बहुत संघर्ष करने के बाद वह अभिनेता बना है।
हमारी गाड़ी धीरे धीरे निकल रही थी, और आखिरकार हमारा स्टेशन बोईसर आ ही गया, यह एक छोटा सा कस्बा है, जहाँ बहुत सारी उत्पादक इकाईयाँ हैं और थोड़ी दूर ही भाभा परमाणु केंद्र भी है। हम स्टेशन से बाहर निकले तो देखा बिल्कुल गाँव, हमने माथा पीट लिया कि बताओ कहाँ मुंबई सोचकर आये थे और सारे स्वप्न धाराशायी हो गये, नौकरी में तो ऐसा ही होता है बेटा करो गाँव में ऐश वो भी मुंबई के गाँव में।
मुंबई गाथा लोकल के प्लेटफ़ॉर्म पर .. भाग ७ (On local platform .. Mumbai Part 7)
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दादर में टिकिट लेने के बाद अब लोकल में बैठने का इंतजार था, और लोकल को टीवी में देखकर और अपने दोस्तों के मुख से बखाने गये शब्द याद आने लगे, भरी हुई लोकल और मुंबई की तेज रफ़्तार जिंदगी। इसीलिये ही हमारे प्रबंधन ने दोपहर के २ बजे ही हमें भेज दिया था कि जल्दी निकल जाओगे तो भीड़ नहीं मिलेगी। यह सब देखकर तो और भी रोमांचित हो उठे थे। कि जरुर लोकल कोई बहुत ही गजब चीज है तभी तो यह मुंबई की जीवन रेखा कहलाती है।
फ़िर हमारे वरिष्ठ ने हमसे कहा कि फ़लाने प्लेटफ़ॉर्म पर चलते हैं, वहाँ फ़ास्ट लोकल आयेगी हमने उनसे पूछा कि ये फ़ास्ट क्या होता है तब वे बोले कि स्लो भी होती है, अब तो बस हमारे लिये अति ही हो गई थी, भई फ़ास्ट और स्लो होता क्या है, ये तो बताओ। तब वरिष्ठ बोले कि फ़ास्ट मतलब कि बड़े स्टेशन पर ही रुकती है जैसे कि वेस्टर्न लाईन पर बोरिवली, अंधेरी, बांद्रा, दादर, मुंबई सेंट्रल और चर्चगेट जबकि स्लो हरेक स्टेशन पर रुकती है। और हरेक प्लेटफ़ॉर्म पर अलग ही तरह की एक प्लेट लगी होती है जिसमें पहले गंतव्य लिखा होता है कि कहाँ जा रही है, जैसे BO मतलब बोरिवली फ़िर समय लिखा होता है फ़िर F या S लिखा होता है और फ़िर कितने मिनिट में ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर आने वाली है, हम भी हैरान थे कि इतनी जानकारी कैसे लोगों को एक साथ हो जाती है
जैसे ही लोकल के प्लेटफ़ॉर्म पर आये वहाँ इतनी भीड़ थी कि अपने पैसेन्जर के लिये भी इतनी भीड़ नहीं होती है, हमने कहा कि क्या बहुत देर से कोई ट्रेन नहीं आई है तो हमारे वरिष्ठ बोले, ट्रेन तो हर २-३ मिनिट में आती है परंतु जनता इतनी ज्यादा है कि बस ! इसलिये ऐसा लगता है। वाकई हम दूसरे प्लेटफ़ॉर्म पर देख रहे थे एक ट्रेन आई और प्लेटफ़ॉर्म खाली पर फ़िर २ मिनिट में वापिस उतना ही भरा हुआ नजर आता।
अपने आप में बहुत ही रोमांचित क्षण थे वे मुंबई के प्लेटफ़ॉर्म पर, दोस्तों की बतायी हुई बातें बार बार याद आ रही थीं, और अब खुद को अच्छा लग रहा था कि देखो आ गये हम भी मायानगरी मुंबई, सपनों का शहर मुंबई, जहाँ का दिन ही रात से शुरु होता है, जहाँ २४ घंटे जीवन व्यस्त रहता है।
वहीं खड़े खड़े हम आने जाने वालों को देख रहे थे, और मुंबई की लड़्कियों को देख रहे थे, सुना था कि मुंबई में दो चीज कब मेहरबान हो जाये कह नहीं सकते एक बारिश और दूसरी लड़की, एक और बात सुनी थी कि जिंदगी में कभी दो चीजों के पीछे नहीं भागना चाहिये पहली बस दूसरी लड़की एक जाती है तो दूसरी आती है। शायद यह भी मुंबई के लिये ही कहावत बनायी गई होगी। वहाँ की लड़्कियों के कपड़े जो पहने होतीं हम आँखें फ़ाड़फ़ाड़ कर देख रहे थे कि इनको बिल्कुल शर्म ही नहीं है, क्या कुछ भी पहनकर निकल लेती हैं। अब आखिर हम पहली बार बड़े शहर आये थे और वह भी मायानगरी मुंबई में तो अब यह सब हमको मुंबई के हिसाब से वाजिब भी लगने लगा।
जारी..