ज्ञान –
“छोटे योगी, मैं देख रहा हूँ कि तुम अपने गुरु से दूर भाग रहे हो। उनके पास वह सब कुछ है जिसकी तुम्हें आवश्यकता है; तुम्हें उनके पास लौट जाना चाहिये।” आगे उन्होंने कहा, “पर्वत तुम्हारे गुरु नहीं बन सकते” – दो दिन पहले श्रीयुक्तेश्वरजी द्वारा प्रकट किया गया वही विचार।
“सिद्ध जन केवल पर्वतों में ही निवास करें, ऐसा कोई विधि का विधान नहीं है।” मेरी ओर रहस्यपूर्ण दृष्टि से देखते हुए वे कहते जा रहे थे : “भारत और तिब्बत के हिमालय शिखरों का सन्तों पर कोई एकाधिकार नहीं है। जिसे अपने अन्दर पाने का कष्ट न किया जाय, उसे शरीर को यहाँ -वहाँ ले जाने से प्राप्त नहीं किया जा सकता। जैसे ही साधक आध्यात्मिक ज्ञानलाभ के लिये विश्व के अंतिम छोर तक भी जाने को तैयार हो जाता है, उसक गुरु उसके पास ही प्रकट हो जाता है।”
मन ही मन मैं इस बात से सहमत हो गया।
“क्या तुम एक ऐसे छोटे-से कमरे की अपने लिये व्यवस्था कर सकते हो जिसका दरवाजा बंद कर तुम अन्दर एकान्त में रह सको ?”
“जी, हाँ ।” मेरे मन में यह विचार उभर आया कि ये सन्तवर इतनी विलक्षण गति से सामान्य स्तर की बातों से व्यक्तिगत स्तर पर उतर आते हैं।
“तो वही तुम्हारी गुफ़ा है।” योगिराज ने ज्ञान जगा देने वाली एक ऐसी दृष्टि मुझ पर डाली कि मैं उसे आज तक नहीं भूल पाया। “वही तुम्हारा पावन पर्वत है। वहीं तुम्हें ईश्वर की प्राप्ति होगी।”
उनके इन सरल शब्दों ने हिमालय के लिये मेरे मन में बैठी तीव्र आसक्ति एक पल में समाप्त कर दी। धान के एक दाहक खेत में मैं पर्वतों और अनंत बर्फ़ के स्वप्न से जाग गया।
क्रोध –
क्रोध केवल इच्छा के अवरोध से उत्पन्न होता है। मैं कभी दूसरों से कोई उपेक्षा नहीं रखता, इसलिये उनका कोई भी कार्य मेरी इच्छाओं के विपरीत नहीं हो सकता। मैं अपने किसी स्वार्थ के लिये तुम्हारा उपयोग कई नहीं करता; मैं तो केवल तुम्हारे सच्चे सुख में ही खुश हूँ।”
ईश्वर –
“इहलौकिक सुखों से हम कितनी जल्दी ऊब जाते हैं ! भौतिक सुखों की कामनाओं का अन्त नहीं है; मनुष्य कभी पूर्ण तृप्त नहीं होता और एक के बाद दूसरे लक्ष्य के पीछे दौड़ता ही रहता है। सुख के लिये वह जिस “कुछ और” की खोज करता रहता है वह ’कुछ और’ ईश्वर ही है और केवल वही शाश्वत आनन्द प्रदान कर सकता है।
“बाह्य इच्छाएँ हमें अभ्यनतर के ’स्वर्ग’ से बाहर खींच लाती हैं; वे मिथ्या आनन्द देती हैं जो आत्मिक आनन्द का छद्म आभास मात्र है। खोया हुआ आनतरिक स्वर्ग दिव्य ध्यान के द्वारा शिघ्र ही पुन: प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर अकल्पित नित्य-नूतनता है, अत: हम कभी उससे ऊब नहीं सकते। परमानन्द अनन्त काल तक सदा के लिये आह्लादक विविधताओं से भरा हो उससे क्या कभी किसी का मन भर सकता है ?”
“अब समझ में आया गुरुदेव, कि सन्तों ने ईश्वर को अगाध क्यों कहा है। अमर जीवन भी ईश्वर को समझने के लिये पर्याप्त नहीं है।”
कौन समझ पाया है ईश्वर को…
कम से कम, मैं तो नहीं ही समझ पाया।
संतो का तो पूरी दुनिया पर ही अधिकार है अगर वो लालच में न आये तो।
इस पुस्तक ने बहुत प्रभावित किया है।
बहुत सरल और बहुत गूढ़!