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प्रेमपत्र.. मेरी कविता

वे प्रेमपत्र जो हमने

एक दूसरे को लिखे थे

कितना प्यार उमड़ता था

उन पत्रों में

तुम्हारा एक एक शब्द

कान में लहरी जैसा गूँजता रहता था

 

पहला प्रेमपत्र तब तक पढ़ता था

जब तक नये शब्द ना आ जायें

तुम्हारे प्रेमपत्रों से

ऊर्जा, संबल और शक्ति मिलते थे

कई बातें और शब्द तो अभी भी

मानस पटल पर अंकित हैं

 

तुम मेरे जीवन में

आग बनकर आयीं

जीवन प्रेम का  दावानल हो गया

आज भी तुम्हारी बातें, शब्द

मुझे उतने ही प्रिय हैं प्रिये

बस वक्त बदल गया है

 

मेरे प्रेमपत्र तुमने अभी भी

सँभाल कर रखे हैं

जिन्हें तुम आज भी पढ़ती हो

और अगर मैं गलती से पकड़ भी लेता हूँ

तो

वह शरमाना आँखें झुकाना

प्यारी सी लजाती हँसी

बेहद प्यारी लगती है

 

एक मैं हूँ

जो तुम्हारे प्रेमपत्र

पता नहीं कहाँ कब

आखिरी बार

रखे थे

पढ़े थे

पत्र भले ही मेरे पास ना हों

सारे शब्द आज भी

हृदय में अंकित हैं

 

एक निवेदन है

तुम फ़िर से प्रेमपत्र लिखो ना !!

मैं झूठ क्यों बोलने लगा हूँ

मैं झूठ क्यों बोलने लगा हूँ

कारण ढूँढ़ रहा हूँ,

पर जीवन के इन रंगों से अंजान हूँ,

बोझ हैं ये झूठ मेरे मन पर..

 

ऐसे गाढ़े विचलित रंग,

जीवन की डोर भी विचलित,

मन का आकाश भी,

और तेरा मेरा रिश्ता भी..

 

तुमसे छिपाना मेरी मजबूरी,

मेरी कमजोरी, मेरी लाचारी,

हासिल क्या होगा,

जीवन दोराहे पर है..

 

तुम पढ़कर विचलित ना होना

जीवन लंबा है,

कभी कहीं किसी आकाश में,

मेरा भी तारा होगा..

चाँद पूर्ण रूप में

चाँद जब रोटी सा गोल होता है,

पूर्ण श्वेत, अपने पूर्ण रूप में,

उसकी आभा और निखर आती है,

मिलते तो रोज हैं छत पर,

पर देखना तुम्हें केवल इसी दिन होता है,

काश की चाँद हर हफ़्ते पूर्ण हो,

महीने में एक बार तुम्हें देखना,

फ़िर दो पखवाड़े उसी सुरमई तस्वीर को,

सीने से चिपकाकर सोता हूँ,

तुम्हारी यादों में रहता हूँ,

तुम्हारे सपने बुनता हूँ,

तुमसे मिलने के लिये बेताब रहता हूँ,

कभी ऐसा लगता है चाँद,

तुम जल्दी आ जाते हो,

पर एक बात कहूँ,

अब मैं बहुत बैचेनी से इंतजार करता हूँ,

तुम मेरी जिंदगी का हिस्सा जो बन चुके हो..

खोह, वीराने और सन्नाटे

    जिंदगी की खोह में चलते हुए वर्षों बीत चुके हैं, कभी इस नीरव से वातावरण में उत्सव आते हैं तो कभी दुख आते हैं और कभी नीरवता होती है जो कहीं खत्म होती नजर नहीं आती। कहीं दूर से थोड़ी सी रोशनी दिखते ही लपककर उसे रोशनी की और बढ़ता हूँ, परंतु वह रोशनी पता नहीं अपने तीव्र वेग से फ़िर पीछे कहीं चली जाती है।

खोह १

    इस खोह में साथ देने के लिये न उल्लू हैं, न चमगादड़ हैं, बस सब जगह भयानक भूत जो दीवालों से चिपके हुए कहीं उल्टॆ टंगे हुए हैं, और मैं अब इन सबका आदी हो चुका हूँ, कभी डर लगता है तो भाग लेता हूँ पर आखिरकार थककर वहीं उन्हीं भूतों के बीच सोना पड़ता है।

लटकते भूत

    शायद मैं भी इन भूतों के लिये अन्जान हूँ, और ये भूत मेरे लिये अन्जान हों, इस अंधेरी खोह में चलना मजबूरी सी जान पड़ती है, कहीं सन्नाटे में, वीराने में कोई हिटलर हुकुम बजा रहा होता है, कहीं कोई सद्दाम अपनी भरपूर ताकत का इस्तेमाल करने के बजाय किसी ऐसी ही खोह में छुप रहा होता है।

अँधेरा १

    इन वीरानों में उत्सवों की आवाजें बहुत ही भयानक लगती हैं, शरीर तो कहीं अच्छी ऊँचाईयों पर है, परंतु जो सबके मन हैं वे ही तो भूत बनकर इन खोह में लटकते रहते हैं, सबके अपने अपने जंगल हैं और अपनी अपनी खोह, वीराने और सन्नाटे सबके अपने जैसे हैं, किसी के लिये इनका भय ज्यादा होता है और किसी के लिये इनका भय कुछ कम होता है।

वीरान जंगल

    बाहर निकलने का रास्ता बहुत ही आसान है, परंतु बाहर निकलते ही कमजोर लोगों को तो दुनिया के भेड़िये और चील कव्वे नोच नोच कर खा जाते हैं, उनके मांस के लोथड़ों को देखकर ही तो और लोग बाहर निकलने की हिम्मत नहीं करते।

खोह की दीवालें

    कुछ बहादुर भी होते हैं जो इस आसान रास्ते को आसानी से पार कर लेते हैं और जिंदगी के सारे सुख पाते हैं, जब मन में करूणा और आत्म की पुकार होगी, तभी यह भयमुक्त वातावरण और जीवन उनके लिये नये रास्ते बनाता है।

मैं तुम और जीवन (मेरी कविता …. विवेक रस्तोगी)

मैं तुम्हारी आत्मीयता से गदगद हूँ
मैं तुम्हारे प्रेम से ओतप्रोत हूँ
इस प्यार के अंकुर को और पनपने दो
तुममें विलीन होने को मैं तत्पर हूँ।तुम्हारे प्रेम से मुझे जो शक्ति मिली है
तुम्हें पाने से मुझे जो भक्ति मिली है
इस संसार को मैं कैसे बताऊँ
तुम्हें पाने के लिये मैंने कितनी मन्नतें की हैं।

जीवन के पलों को तुमने बाँध रखा है
जीवन की हर घड़ी को तुमने थाम रखा है
तुम्हें अपने में कैसे दिखलाऊँ
कि ये सारी पंक्तियाँ केवल तुम्हारे लिये लिखी हैं।

दिवास्वप्न बुरा या अच्छा … मेरी कविता .. विवेक रस्तोगी

एक दिवास्वपन आया मुझे

एक दिन..

श्री भगवान ने आशीर्वाद दिया,

सारे अच्छे लोग देवता रूपी

और

उनके पास हथियार भी वही,

सारे बुरे लोग राक्षस रूपी

और

उनके पास हथियार भी वही

समस्या यह हो गई

कि

देवता लोग कम

और

राक्षस ज्यादा हो गये

तब

श्री भगवान वापिस आये

और

देवता की परिभाषा ठीक की

फ़िर

देवता ज्यादा हो गये

और

राक्षस कम हो गये,

देवताओं ने राक्षसों पर कहर ढ़ाया

और

देवताओं का वास हो गया

फ़िर

कुछ देवता परेशान हो गये

क्योंकि

राक्षस गायब हो गये

तो

कुछ फ़िर से राक्षस बन गये।

जीवन तूफ़ानी दरिया, शून्यहीन चुप्पी और वीराने… मेरी कविता.. विवेक रस्तोगी

    जीवन कभी कभी तूफ़ानी दरिया लगता है और कभी बिल्कुल शुन्यहीन चुप्पी के साथ थमा हुआ दरिया लगता है। कभी लहरें आती हैं, कभी तूफ़ान आते हैं, कभी सन्नाटे आते हैं, कभी वीरानी आती है। जीवन के ये अजीब रंग सात रंगों से भी अजीब हैं, कौन से ये रंग हैं, कहाँ बनते हैं ये रंग, जो मौन भी हैं, जो मुखर भी हैं।

        वीरानों को ढूँढता हूँ, वीराने खुद ही पास आ जाते हैं, क्या मैं वीराने में रहता हूँ, यह उत्सव वीरानों में क्यों नहीं होते, ये उत्सव केवल तूफ़ानों में क्यों होते हैं, ज्यादा रंग केवल उत्सव में ही क्यों होते हैं, और वीराने में गहरे रंग क्यों ?

    क्या जीवन की कहानी है, क्या अंत की रवानी है, बस सब अब प्रपंच लगने लगा है, जीवन की गहराईयों में झांक रहे हैं, जहाँ तूफ़ान के बाद की शांति हो, जहाँ सन्नाटा और वीराना हो, और दो बातें लिखने के लिये अमिट स्याही हो –जिंदगी और वीराने

लम्हों में जिंदगी सिमट कर रह गयी है

बूँदें पानी की, बहता दरिया सी लगती हैं

आग के लिये तिनके कम पड़ने लगे हैं

साँसे थामे रखो, अब ये उखड़ने लगी हैं ।

तुम्हारे लिये, तुम कभी गुलाब होती थीं…. मेरी कविता… विवेक रस्तोगी

तुम कभी

गुलाब होती थीं

तुम कभी

नरम दिल होती थी

तुम कभी

बहुत प्यारी होती थी

तुम कभी

जन्नत होती थी

तुम कभी

खुशियों का खजाना होती थी

तुम कभी

शीतल होती थी

तुम कभी

कुछ और ही होती थी

तुम अभी भी

कभी जैसी ही हो

बस वैसी ही रहना और

आगे भी

तुम कभी, तुम अभी ही रहना।

बस बहुत हुआ… मेरी कविता.. विवेक रस्तोगी

बस बहुत हुआ, जीवन का उत्सव

अब जीवन जीने की इच्छा

क्षीण होने लगी है

जीवंत जीवन की गहराइयाँ

कम होने लगी हैं

अबल प्रबल मन की धाराएँ

प्रवाहित होने लगी हैं

कृतघ्नता प्रेम के साथ

दोषित होने लगी है

ओह मुंबई, मेरे अधूरे प्यार … मेरी कविता …. विवेक रस्तोगी

ओह मुंबई, मेरे अधूरे प्यार

ऐसी प्रेमिका जिसे प्यार किया

पर मजबूरी में वह साथ न रही

दरिया के लहरों में उमड़ती

तुम्हारी चंचल अंगड़ाइयाँ

बलखाती,

इठलाती अदाएँ

वो मरीन ड्राईव

जहाँ सड़क इठलाती है

कितने ही रंग के चेहरे रहते हैं

घूमते हैं,

चूमते हुए रंग बदलते हैं

मुंबई रात में अपनी जवानी में खोई रहती है

दरिया अपनी गहराई में सब राज रखता है

जूहु में रेत की गहराईयों को देखते ही बनता है

दीवारों के किनारे,

कहीं पेड़ और झुरमुट के पीछे

प्यार के दीवाने अपनी दीवानगियों में खोये हुए

रेत को अपना पनाहगार बनाकर

जालिम हसरतें पूरी करते हुए,

शैया बनाकर

कहीं भेलपुरी,

कहीं बड़ापाव का शोर

कहीं टैक्सी, ऑटो और बसों का शोर

सभी में जवानी अंगड़ाईयाँ लेती हैं

पर फ़िर भी मैं तुमसे दूर हूँ

मजबूरी में,

मेरी प्रेमिका

जिंदगी की रेलमपेल है,

भागादौड़ी है

वो भीड़ भरी चीखती हुई लोकल

एकाएक मुझे अच्छी लगने लगी है

वे टकराते,

भागते लोग मुझे अपने से लगने लगे हैं

फ़ुटपाथों पर चिल्लाते हुए वो भाजीवाले

वो फ़ुटपाथ जो मैंने मुंबई की हर सड़क

हर गली में देखे हैं

वो चीखती हुई आवाजें,

जो हर आँखों के पीछे से आती हैं

वो हाइवे के बाजू में टहलना,

आते जाते वाहनों के शोर से मिलने वाली अज्ञात शांति

महालक्ष्मी के पास वो रुकती हुई लहरें

वो सिद्धी विनायक के दर्शन

हाजी अली तक जाती वो सड़क

जहाँ लहरें टकराकर लौट जाती हैं अपने में

वो क्वीन नेकलेस मालाबार हिल्स तक

वो गिरगाँव चौपाटी का छोटा सा किनारा

एलीफ़ेन्टा गुफ़ाओं का गहन सौंदर्य

मोटरबोट में ठंडी हवा का आनंद

गेटवे ऑफ़ इंडिया पर फ़ोटो खिंचाना

सामने गर्व से खड़े ताज को देखना

और भी बहुत कुछ

बस तुम्हें बहुत बहुत याद करता हूँ

मेरी मुंबई … मेरी मुंबई