Category Archives: यात्रा

देवाधिदेव भगवान महाकाल

ब्रहमाण्ड के तीन लोकों में जिन तीन शिवललिङ्गों को सर्वपूज्य माना गया है, उनमें भूलोक-पृथ्वी पर भगवान् महाकाल को ही प्रधानता मिली है –

आकाशे तारकं लिङ्गं, पातालं हाटकेश्वरम् ।

भूलोक च महाकालोः लिङ्गत्रय ! नमोस्तुते ।।

( आकाश में तारक-लिङ्ग, पाताल में हाटकेश्वर तथा भू-लोक में महाकाल के रूप में विराजमान लिङ्गत्रय, आपको नमस्कार है ।)

और पर्याप्त विशाल भूलोक में महाकाल शिवलिङ्ग कहाँ है ? इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिए वराहपुराण में तैत्तिरीय श्रुति के प्रमाण से कहा गया है कि –

नाभिदेशे महाकालस्तन्नाम्ना तत्र वै हरः ।

(नाभिदेश में महाकाल नाम से वे शिव वहाँ विराजमान हैं। )

यह नाभिदेश उज्जयिनी ही है और यहाँ विराजमान भगवान महाकाल ही भूलोक के प्रधान पूज्य देव हैं। सृष्टि का प्रारम्भ महाकाल से ही हूआ यह भी स्पष्ट है –

कालचक्रप्रवर्तको महाकालः प्रतापनः ।

कालचक्र के प्रवर्तक महाकाल प्रतापशाली हैं और इस कालचक्र की प्रवर्तना के कारण ही भगवान् शिव महाकाल के रूप में सर्वमान्य हुए।

उज्जयिनी का गौरव महाकाल से है और महाकाल का गौरव है उज्जयिनी। परस्पर गौरव-साम्य होने पर भी महाकाल की महिमा अपूर्व ही है। और शिवपुराण (ज्ञानसंहिता 38) में द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों की सूचि और उनकी कथाएँ प्राप्त होती हैं।

शादी के १२ वर्ष और जीवन के अनुभव

आज शादी को १२ वर्ष बीत गये, कैसे ये १२ वर्ष पल में निकल गये पता ही नहीं चला, आज से हम फ़िर एक नई यात्रा की और अग्रसर हैं, जैसे हमने १२ वर्ष पूर्व एक नई यात्रा शुरू की थी, जब पहली यात्रा शुरू की थी तब पास कुछ नहीं था, बस कुछ ख्वाब थे और काम करने का हौंसला और अगर बैटर हॉफ़ याने कि जीवन संगिनी आपको समझने वाली मिल जाये, हर चीज में आपका साथ दे तो मंजिलें बहुत मुश्किल नहीं होती हैं।
शादी की १२ सालगिरह में से मुश्किल से आधी हमने साथ बिताई होंगी, हमेशा काम में व्यस्त होने के कारण बहुत कुछ जीवन में छूट सा गया, परंतु हमारी जीवन संगिनी ने कभी इसकी शिकायत नहीं की, हमने जब खुशियों का कारवाँ शुरू किया था, तब हम ये समझ लीजिये खाली हाथ थे और फ़िर जब हमारे आँगन में प्यारी सी किलकारी गूँजी, जिससे जीवन के यथार्थ का रूप समझ में आया।
जीवन यथार्थ रूप में बहुत ही कड़ुवा होता है और मेरे अनुभव से मैंने तो यही पाया है कि यह कड़ुवा दौर सभी की जिंदगी में आता है, बस इस दौर में हम कितनी शिद्दत से इससे लड़ाई करते हैं, यह हमारी सोच, संस्कार और जिद्द पर निर्भर करता है। जीवन के इस रास्ते पर चलते चलते हमने इतने थपेड़े खाये कि अब थपेड़े  अजीब नहीं लगते, यात्रा जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है।
बस जीवन से यही सीखा है कि कितनी भी मुश्किल हो अपने लक्ष्य पर अड़िग रहो, सीधे चलते रहो, मन में प्रसन्नता रखो, धीरज रखो । जीवन इतना भी कठिन नहीं है कि इससे पार ना पा सकें, और खासकर तब और आसान होता है जब हमारी अर्धांगनी उसमें पूर्ण सहयोग करे। जीवन के चार दिन में अगर साथी का सही सहयोग मिलता रहे तो और क्या चाहिये।

आखिरी बात हमेशा अपने वित्तीय निर्णय लेने के पहले अपने जीवनसाथी को अपने निर्णय के बारे में जरूर बतायें, कम से कम इस बहाने घरवाली को हमारे वित्तीय निर्णयों का आधारभूत कारण पता रहता है और उनके संज्ञान में भी रहता है, इससे शायद उनको भी अपने मित्रमंडली में मदद देने में आसानी हो। जीवन और निवेश सरल बनायें, दोनों सुखमय होंगे।

साइड अपर के लोचे और स्लीपर में ठंड को रोकने का इंतजाम

आज फ़िर से साइड अपर सीट मिली है, हालांकि आज 3AC में टिकट करवा रखा है, परंतु फ़िर भी ये साइड अपर का साईज अपने हिसाब से नहीं है । आरक्षण के समय व्यक्ति की उम्र के साथ ही उसकी लंबाई भी जरूर लिखवा लेनी चाहिये जिससे कम से कम कूपे के बीच की बर्थ मिल जाये । और प्रोग्राम में भी सैट कर देना चाहिये कि इतनी लंबाई से ज्यादा व्यक्ति को साइड की सीट नहीं दी जायेगी ।
 
पैसे भी पूरे दो और ढंग से पैर भी नहीं मुड़ते., ऐसा लगता है कि पूरी रात हमने डरे सहमे निकाल दी है, क्योंकि घुटने मोड़ के सोना पड़ता है और घुटने मोड़ के सोने का मतलब यह होता है कि उस व्यक्ति को डर लग रहा है ।ऊपर चढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि जैसे सर्कस के पिंजरे में बंद कर दिया है और सामने के ६ लोग अब उसे देख रहे हैं ।
 
वो तो लालू का बस ज्यादा नहीं चला जो उसने केवल साइड में केवल तीन सीट ही लगवाई थीं, अगर उसका दिमाग ज्यादा तेज चलता तो, ड्राअर जैसी सीटें बनवा देता, ड्राअर खोलो सोओ और ड्राअर अंदर, फ़िर तीन क्या चार या पाँच सीट लग जातीं ।
 
वैसे तो अधिकतर वृद्ध लोगों को ऊपर की बर्थ में जाने पर परेशानी होती है, परंतु ठंड के दिनों में यही वयोवृद्ध स्लीपर कोच में कैसे फ़ुर्ती से ऊपर की बर्थ पर चढ़ जाते हैं और उस समय इनकी फ़ुर्ती देखने लायक होती है, और जब ऊपर चढ़ जाते हैं, तो जो विजयू मुस्कान इनके चेहरे पर होटी है वह देखने लायक होती है। हमने ऐसी पता नहीं कितनी ही यात्राएँ की हैं जिसमें हमें ठंड के दिनों में नीचे की बर्थ मिली और जब भी कोई वृद्ध आता तो लगता कि शायद अब हमसे कहेगा कि ये ऊपर वाली बर्थ पर आप चले जायें, पर कभी किसी ने ठंड के दिनों में नहीं बोला, फ़िर हम खुद ही सोचते कि हम बोल देते हैं, पहली बार बोला भी तो वे सज्जन अपने परिवार के साथ थे, बोले कि देखते नहीं कितनी ठंड है, अब कौन सा हमने रात भर उठना है, अब तो सुबह ही बर्थ से उतरना है। बस उस दिन के बाद से हम अपनी तरफ़ से कभी भी किसी सज्जन को नीचे की बर्थ देने के लिये नहीं बोल पाते हैं।
 
जिस रूट पर यात्रा करते थे उसमें 3AC का कोच नहीं लगता था, और अगर कभी लग भी गया तो केवल एक ही लगता था हमने भी उसी दौरान एक तकनीक ईजाद की, स्लीपर कोच के लिये, स्लीपर कोच में ठंड में सबसे बड़ी समस्या होती है कि उसकी खिड़कियाँ आप कितनी भी अच्छी तरह से बंद कर लो हवा जाने कहाँ से रिस रिस कर आती है, और नीचे वाले बंदे की कुँकड़ू कूँ हो जाती है, और जिसको साद्ड की सीट वाले को तो दो दो खिड़की की हवा खानी पड़ती है,  अपने साथ पकिंग के लिये उपयोग होने वाला दो इंच का चिपकने वाला टेप लेकर चलने लगे, और जब भी नीचे की सीट मिलती या साइड की नीचे वाली सीट मिलती तो पहले खिड़की लगाते और फ़िर उस पर चारों तरफ़ से अपनी पकिंग वाली टेप अच्छे से लगा देते, बस हवा का नामोनिशान गायब हो जाता, और मजे में सोते हुए जाते थे। सुबह उठाकर टेप निकालकर फ़ेंक देते। बाकी सारे नीचे की सीट वाले कातर भाव से हमारी और देख रहे होते थे, वैसे जब भी किसी ने कहा तो हमने उसकी हमेशा टेप लगाकर मदद की।

वो सही ही कहते हैं आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है ।

जीवन के तीन सच

क्राउड मैनेजमेंट

    बेटेलाल के मनोरंजन के लिये पास ही गये थे, तो पता चला कि उस जगह वहीं पास के आई.टी. पार्क का सन्डे फ़ेस्ट चल रहा है और प्रवेश भी केवल उन्हीं आई.टी.पार्क वालों के लिये था, पार्किंग फ़ुल होने के कारण, पार्किंग आई.टी.पार्क में करवाई गई, वहाँ पर भी अव्यवस्था का बोलबाला था, साधारणतया: आई.टी. पार्क में क्राऊड मैनेजमेंट अच्छा होना चाहिये, परंतु मैंने आज तक किसी भी आई.टी. पार्क में क्राऊड मैनेजमेंट ठीक नहीं देखा, सब पढ़े लिखे तीसमारखाँ होते हैं, जो अपने से ऊपर किसी को समझते ही नहीं और अपने से ज्यादा हाइजीनिक भी, भले ही घर में कैसे भी रहते हों, परंतु बाहर तो हमेशा दिखावा जरूरी होता है। भले ही समझदारी कम हो, परंतु आई.टी. पार्क के गेट में प्रवेश करते ही समझदारी कुछ ज्यादा ही विकसित हो जाती है। हमसे हमारा वाहन जबरन आई.टी.पार्क में खड़ा करवाया गया और चार गुना शुल्क वसूला गया। खैर हम तो जल्दी ही वहाँ से निकल लिये, बहुत दिनों बाद कार्पोरेट्स इमारतों के बीच में खुद को असहज महसूस कर रहा था ।

    इतने सबके बाद सोच रहा था कि उज्जैन में सिंहस्थ के दौरान प्रशासन का क्राउड मैनेजमेंट बहुत अच्छा रहता है, वाकई तारीफ़ के काबिल।

गर्लफ़्रेंड

    सुबह कुछ समान लेकर आ रहा था कि बीच में एक जगह रुकना पड़ा, कार खड़ी थी और एक बाईक कुछ ऐसे आकर रुकी कि हमें भी मजबूरन रुकना पड़ा, बंदा जो बाईक चला रहा था, उसने हेलमेट नहीं पहनी थी, और जबरदस्त ब्रेक लगाकर रुकी थी, पीछे सीट पर कन्या थी, कन्या बोली – “क्या हुआ ?” बंदा बोला “हेलमेट के लिये !!” और भी कुछ बोला था जो सुनाई नहीं दिया, शायद “आपसे सुबह के प्रवचन सुनने के बाद सोचा कि अभी मेनरोड आने से पहले ही हेलमेट लगा ली जाये”, कन्या बोली “ओह्ह!! मॉय गॉड, तो आप पर मेरे कटु वचन कब से असर करने लगे”, तो इतना समझ में आया कि बंदा कभी बीबी की बात तो मानता नहीं है, इसलिये वह जरूर उसकी गर्लफ़्रेंड होगी ।

पहचान

    एक नौजवान जोड़ा हमारे फ़्लेट के सामने वाले फ़्लेट में रहता था, उनकी छत खुली हुई थी, जिस पर अधिकतर उनकी शाम बीतती थी, बस उनके साथ समस्या यही थी कि वह केवल एक कमरा था, खैर नये शादीशुदा थे तो शादी के बाद भी बैचलरों जैसा मजा लूट रहे थे, पर जैसे ही नई जिम्मेदारी उनके सर पर आई, उन्हें एकदम से मकान बदलना पड़ा।

    कोई  बातचीत हम लोगों के बीच नहीं थी, केवल एक खामोश पहचान थी, चेहरों की पहचान, यहाँ तक कि मुस्कान भी नहीं अगर कभी हम मुस्करा भी दिये तो वे सपाट चेहरे के रहते थे, तो हमें लगा कि उन्हें पहचान बढ़ाना ठीक नहीं लगता, हमने भी अपनी तरफ़ से पहचान बढ़ाने का उपक्रम बंद कर दिया, इसी बीच उन्होंने कार ली, बिल्कुल नई कार, जिसे रखने के लिये मकान मालिक के घर में जगह ऐसी थी कि अगर मकान मालिक की कार निकालनी हो तो उन्हें अपनी कार निकालनी पड़ेगी याने की रेल के डब्बे की स्टाईल में, तो रोज सुबह ६ बजे उनके रिवर्स मारने की संगीत की आवाज सुनाई देने लगती थी, खुद से ही दोनों पति पत्नि ने कार सीखी और फ़िर रात को उनकी पत्नी थोड़ा बायें थोड़ा दाहिने कहकर कार को मकान में पार्क करवाती थीं। हमें लगा कि उन्होंने कार केवल अंदर और बाहर करने के लिये ही ली है क्योंकि वे लोग कार से कहीं और जाते ही नहीं थे।

    खैर उन्होंने मकान बदल लिया, फ़िर काफ़ी दिनों तक दिखे नहीं, हम भी बैंगलोर से बाहर थे अब काफ़ी दिनों बाद बैंगलोर में आना हुआ तो आमना सामना हो गया, वे अपनी जिम्मेदारी को गोद में लेकर आ रहे थे, तो देखकर हम थोड़ी देर तो असमंजस में थे कि ये वही बंदा है पर तुरंत ही उसकी और से एक मुस्कान आई तो हमने भी एक मुस्कान पलट कर फ़ेंक दी और इस तरह से मुस्कान की पहचान तो हो ही गई।

जुहु गोविंदा रेस्त्रां, समुद्र का किनारा, अमिताभ का घर और बुलेट ।

    सुबह मित्र को फ़ोन किया कि इस सप्ताहांत का क्या कार्यक्रम है, उनसे मैं शायद ३ वर्षों बाद मिल रहा था और ये मित्र मेरे आध्यात्मिक जीवन में बहुत महत्व रखते हैं। ये आध्यात्म को इतने गहरे से समझना और किसी और की जरूरत को समझने वाले मैंने वाकई बहुत ही कम लोग देखे हैं। उन्होंने कहा कि मैं ऑफ़िस से सीधा आपको लेने आ रहा हूँ फ़िर जुहु इस्कॉन स्थित गोविंदा रेस्त्रां में आज दोपहर का भोजन ग्रहण किया जायेगा।

    दोपहर में बिल्कुल समय पर हमारे मित्र हमें लेने आ गये और फ़िर amitabhहम चल दिये जुहु, एक सिग्नल पर हमारे मित्र ने बताया कि यह सामने जो घर है युगपुरूष अमिताभ बच्चन का घर है, तो सहसा ही अमिताभ का चेहरा आँखों के सामने घूम गया और अभी हाल ही में आई फ़िल्म बॉम्बे टॉकीज के अमिताभ बच्चन के ऊपर फ़िल्माये गये दृश्य याद हो आये। फ़िर लगा व्यक्ति कितना भी सफ़ल हो, परंतु रहना तो उसे धरती पर ही है और रहना भी घर में ही है, बस वह जिन ऐश्वर्य का सुख भोग सकता है वह हर कोई नहीं भोग सकता ।

  iskcon-juhu-govindas-01  गलियों में से होते हुए हम गोविंदा रेस्त्रां की तरफ़ बड़ रहे थे, इतने में तेज बारिश आ गई, मौसम खुला हुआ था, तेज धूप निकली हुई थी। मुंबई में यही खासियत है कब बारिश आ जाये कोई भरोसा नहीं। हम गोविंदा रेस्त्रां पहुँच चुके थे, वहाँ दरवाजे पर हमारी और समान की सुरक्षा जाँच हुई और हम रेस्त्रां में दाखिल हुए, संगमरमर की सीढ़ियों से होते हुए एक विशाल हॉल में आये जहँ  बैठने के लिये सोफ़े लगे हुए थे, जिनसे यह प्रतीत होता था, कि यहाँ पर प्रतीक्षारत लोगों को बैठाया जाता है, जब रेस्त्रां में जगह नहीं होती होगी। यहाँ दोपहर का भोजन ३.३० तक होता है।

    रेस्त्रां अंदर से बहुत अच्छी तरह से सुसज्जित था और बहुत सारे लोग govinda-sभोजन से तृप्त हो रहे थे। यहाँ पर खाना बफ़ेट होता है, विभिन्न प्रकार के सलाद, पकोड़े, चाट  पनीर की सब्जियाँ, रोटी, चावल, रायता और मिठाईयाँ उपलब्ध थीं। खाना बहुत ही स्वादिष्ट था, साथ में फ़लों का रस, केहरी पना और मठ्ठा भी परोसा जा रहा था। खाने के बाद में आइसक्रीम का प्रबंध भी था। और इस सबके लिये एक व्यक्ति के खाने का खर्च ३५०/- खाने के हिसाब से हमें ठीक लगा । हालांकि अगर आजकल के आधुनिक बफ़ेट रेस्त्रां में और महँगा होता है परंतु यहाँ खाने का स्वाद, गुणवत्ता एवं इतने प्रकार की खाद्य पदार्थ के सामने  आधुनिक रेस्त्रां का टिकना मुश्किल है। खैर यह तो अपनी अपनी पसंद है।

    भोजन से तृप्त होकर हम बाहर निकले और हमारे मित्र ने पूछा कि जुहु बीच चलोगे, हमने कहा बिल्कुल चलो हमें लहरों की आवाज सुनने का सुखद आनंद लेना है, मचलती और वेगों से आती लहरों को देखना है, वहाँ से पैदल ही हम जुहु बीच की और चल दिये मुश्किल से ५ मिनिट में हम जुहु बीच पर थे, प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य को मानव किस तरह से नष्ट करता है, जुहु बीच इसका जीवंत उदाहरण है, बीच पर जहाँ तक देखो वहाँ तक कचरा और पोलिथीन बिखरे पड़े थे। जोड़े कहीं ना कहीं एकांत ढूँढ़ रहे थे। बहुत से युगल हाथों में हाथ डाल बीच पर समुद्र के किनारे टहल रहे थे। जो पहली बार आये थे समुद्र देखने वे और कुछ मनमौजी लोग समुद्र के पानी में भीगने गये हुए थे। पता नहीं इतने गंदे पानी में कैसे भीग सकते हैं, अगर समुद्र का पानी साफ़ हो तो नहाने का अपना अलग मजा है। बीच पर समुद्र के पास शांति से थोड़ा समय बिताने के बाद वापस जाना निश्चय किया गया।

    समय साथ में बिताना था, तो हम मित्र के फ़्लेट में उनके साथ ही चल दिये, खाने के बाद का नशा अब चेहरों पर दिखने लगा था, सोचा थोड़ा लोट लगा ली जाये और फ़िर बातें की जायेंगी, खैर बातें तो जारी ही थीं। थोड़ी देर आराम करने के बाद अचानक ही एक मित्र के बारे में बात होने लगीं, वे भी पास ही में रहते थे। उनसे फ़ोन पर बात की गई और उनके यहाँ जाने का निश्चय किया गया। हमारे मित्र ने हमसे कहा Bulletआप अब हमारी बुलेट से चलो, और आप ही बुलेट चलाओ। हमने कहा कि हमने तो वर्षों पहले बुलेट चलाई थी, तो पता नहीं चला पायेंगे या नहीं। हमारे मित्र बोले आप चिंता मत करो, आराम से चला पाओगे। हमने भी बुलेट की सवारी की और देखा कि बुलेट में भी बहुत सारे आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध करवा दी गई हैं। अब केवल बटन दबाने पर भी बुलेट शुरू हो जाती है और बुलेट की आवाज मन को सुहाती है। बुलेट की सवारी राजा सवारी कहलाती है। आदमी बुलेट पर ही असली जवाँ मर्द दिखता है, लोग उसी की और देखते हैं, बहुत सारे बदलाव बुलेट चलाने के दौरान महसूस हुए, पर वर्षों बाद ऐसा लगा कि वाकई बुलेट ही असली दोपहिया सवारी है।

    अपने दूसरे मित्र के घर पहुँचे जो हमारे पारिवारिक मित्र हैं, वहाँ बातों का जो दौर चला, समय का पता ही नहीं चला, हमने मित्रों से विदा ली, हमारे मित्र ने कहा इधर ही रुक जाओ, हमने कहा, नहीं हम जहाँ रुके हैं वह भी पास ही है तो हम वहीं जाते हैं। (जब हम खाना खाने के बाद मित्र के घर लोटने पहुँचे तो देखा कि उनके यहाँ गद्दे नहीं हैं, वे तो चटाई पर ही सोते हैं, वे पक्के भक्त आदमी हैं, हमारी परेशानी को समझ उन्होंने हमारे लिये उनके पास रखी रजाई को चटाई पर बिछाकर थोड़ा गद्देदार बनाने का प्रयास किया, हम भी लोट लिये, परंतु आरामतलब शरीर १० मिनिट से ज्यादा नहीं लेट सका) और हमने उनसे कहा कि कामना तो गद्दे पर सोने की ही है, इसलिये भी जाना ही चाहिये।

    इस प्रकार अपने मित्रों से मिलकर उनके साथ समय बिताकर आत्मा तृप्त हो गई।

रात्रि का सफ़र और दिन भर नींद

    इस बार सफ़र कुछ जल्दी ही हो गया, केवल तीन दिन ही भारत में परिवार के साथ व्यतीत कर पाये थे कि तीसरे दिन की रात्रि को ही घर से निकलना था, क्योंकि सुबह ४.३० बजे की फ़्लाईट थी और अंतर्राष्ट्रीय यात्रा के लिये ३ घंटे पहले पहुँचना होता है, वैसे तो वेब चेक इन कर लिया था, तो १.५ घंटे पहले भी पहुँचते तो काम चल जाता । परंतु हमने सोचा कि दो बजे तो निकलना ही है उसकी जगह १२ बजे ही निकल लेते हैं, अगर नींद नहीं खुली तो खामखाँ में घर पर ही सोते रह जायेंगे, और फ़िर २ बजे जरा नींद ज्यादा ही आती है, तो टैक्सी ड्राइवर साब भी झपकी मार लिये गाड़ी चलाते हुए तो बस कल्याण ही हो जायेगा।

समय से मतलब कि १ बजे रात्रि को हवाई अड्डे पहुँच गये, सोचा इतनी जल्दी भी क्या करेंगे, उधर जाकर । पहले कैफ़ोचीनो पीते हैं आराम से और फ़िर थोड़ी देर बैंगलोर की रात की ठंडक के मजे लेते हैं। जींस के जैकेट में भी ठंडक कुछ ज्यादा ही लग रही थी, सो ज्यादा देर बैठने का आनंद भी नहीं लूट पाये। चाँद की हसीन रोशनी में कोहरा देखना कभी कभी ही नसीब होता है। हवा में भरपूर नमी थी, और जितने भी लोग घूम रहे थे या बैठे थे, वे अपने भरपूर गरम कपड़े होने के बावजूद ठिठुर रहे थे। वैसे भी बैंगलोर में इस तरह से रात बिताने का संयोग से बनता है।

खैर जल्दी ही चाँद के आँचल से निकल कर हवाईअड्डे की पक्की इमारत के आगोश में आ गये। पता चला कि फ़्लाईट एक घंटा देरी से है, सोचा कि पहले लगता था कि केवल ट्रेन और बस ही देरी से चलते हैं और तो और ये हवाई कंपनी वाले एस.एम.एस. भी नहीं करते हैं । जब चेक इन के काऊँटर पर देखने पहुँचे तो लंबी लाईन लगी थी, और वेब चेकइन की लाईन खाली थी, हमारे एक और मित्र भी मिल गये थे लाईन में लगने के पहले, तो दोनों साथ ही चेक इन की लाईन में लग लिये और कब एक घंटा बातों में व्यतीत हो गया, पता ही नहीं चला, जब काऊँटर पर पहुँचे तो अधिकारी महोदय मुस्कराकर बोले कि आपने तो वेबचेक इन कर लिया था फ़िर इधर, हम कहे नींद नहीं आ रही थी, तो सोचा कैसे टाईम पास किया जाये सो लाईन में लग लिये, वे भी हँस पड़े। इमिग्रेशन फ़ॉर्म भरने के बाद इमिग्रेशन और सुरक्षा की बाधाएँ पार कीं, तो पाया सब हिन्दी बोलने वाले थे, और सुरक्षा में जो अधिकारी मौजूद थे वे तो ठॆठ हिन्दी बोल रहे थे, जैसे कि अधिकतर उत्तर भारत के राज्यों में बोली जाती है।

फ़िर लंबी कुर्सी पर लेट लिये पर नींद को हम आने नहीं दे रहे थे क्योंकि ३ घंटे बचे थे और एक बार हम सो जायें तो उठने की गारंटी तो अपनी है नहीं, तो बेहतर था कि जागकर नींद को न आने दिया जाये। जब फ़्लाईट में घुस गये तो सुबह के पाँच बज चुके थे और साढ़े पाँच को उड़नी थी, अपन तो कंबल ओढ़कर सो लिये।

लगभग चार घंटे की फ़्लाईट में पूरा समय सोकर निकाला, जब सुबह अबूधाबी पहुँचे तो केवल आठ ही बज रहे थे, याने की भारत में दस, हम समय से दो घंटे तेजी से भाग लिये थे, और अब हमें फ़िर ७ घंटे का इंतजार करना था, सो फ़िर लंबी आराम कुर्सी पकड़ी और सो लिये । घर से परांठे बनवाकर लाये थे, जब भूख लगी खाकर फ़िर सुस्ता लिये।

आखिरकार आठ घंटे इंतजार करने के बाद अपनी अगली फ़्लाईट का वक्त हो गया और सऊदी पहुँच गये, इधर भी पूरी फ़्लाईट में सोते सोते गये। इमिग्रेशन में १ घंटा लग गया फ़िर आधे घंटे में होटल पहुँच गये और फ़िर जल्दी ही शुभरात्रि कर बिस्तर में घुस गये।

कुछ फ़ोटो खींचे थे, अबूधाबी के ऊपर से वो हमारे टेबलेट में पड़े हैं, अभी लोड करने में आलस आ रहा है, तो फ़ोटो अगली पोस्ट में लगा देंगे।

पैसे पेड़ पर उगते हैं पता बता रहे हमारे बेटे लाल…

जब हम घर पर रहते हैं तो बेटेलाल को हम ही सुबह उठाते हैं, और कुछ संवाद भी हो जाते हैं, कुछ दिनों पहले महाराज अपनी एक किताब गुमा आये और अब बोल रहे हैं कि पैसे दे दीजिये हम नई किताब खरीद लायेंगे। अपनी आदत के अनुसार हमने कह दिया “पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं” और अब तो यह हमारे प्रधानमंत्री जी ने भी पुष्ट कर दिया है।

हमने कहा बेटेलाल पहले जाकर अपनी किताब ढूँढ़ो जैसे डायरी गुमी थी और बाद में मिल गई वैसे ही वह भी मिल जायेगी, चिंता मत करो। पर ये महाराज आश्वस्त हैं नहीं मिलेगी। तभी हमने फ़िर से बोला बेटा पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं, तो हम तो इसके लिये पैसे नहीं देने वाले हैं।

पैसे का पेड़

हमें तभी बेटेलाल का जबाब मिला “हमें कुछ नहीं पता, हमें तो किताब लेनी है, और पैसे चाहिये!!!”, हमने फ़िर से कहा बेटा पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं, कहते हैं – “पैसे पेड़ पर उगते हैं”, हमने कहा फ़िर पता बताओ हम अभी वहीं से पैसे तोड़ लाते हैं और प्रधानमंत्री जी को भी बता देते हैं, बेटेलाल पूछते हैं कि ये प्रधानमंत्री जी कहाँ रहते हैं, हमने कहा दिल्ली में रहते हैं, बेटेलाल कहते हैं “उईई मैं तो इतनी दूर नहीं जा रहा उनको बताने कि पैसे का पेड़ कहाँ है”, हमने कहा अच्छा हमें तो बता दो।

बेटेलाल कहते हैं “वो पेड़ यहाँ बैंगलोर में थोड़े ही है, वह तो जयपुर में है, जयपुर में कांदिवली गाँव है, हमने कहा ओय्ये कांदिवली तो मुँबई में है, तो बेटेलाल कहते हैं अच्छा जयपुर की जगहों के नाम बताओ, हमने कहा हमें भी पता नहीं तो कहते हैं कि पुर्रपुर्रपुरम में है।

खैर यह संवाद तो इतना ही रहा, पर इतने संवाद में यह बात समझ में आ गई कि बेटेलाल को भी पता है कि पैसे का पेड़ नहीं है और कहीं उगते भी नहीं है, उनके लिये तो डैडी ही पैसे का पेड़ हैं, बस डैडी को हिलाओ और पैसे गिरने लगेंगे । मैं भी बेटे की मासूमियत भरी बातों को कहीं और से जोड़कर देखने लगा और अब सोच रहा हूँ कि काश मैं भी बच्चों जैसा पावन पवित्र मन वाला होता और इन बातों को यहीं खत्म कर कहीं किसी और काम में व्यस्त हो जाता ।

धूम्रपान कक्ष, खालिस उर्दू और विमान दल का देरी से आना जेद्दाह यात्रा भाग ३ (Smoking chamber, Urdu and Late Crew Jeddah Travel Part 3)

अपनी कॉफ़ी खत्म करने के बाद वापिस से कस्टम फ़्री के लंबे से हॉल में फ़िर से घूमने लगे, थोड़ी देर बाद थक गये तो सोचा चलो अपने दिये गये द्वार के पास ही बैठा जाये, बीच में एक जगह सिगरेट की कसैली गंध आ रही थी, आस पास देखा तो समझ नहीं आया कि कहाँ से आ रही है, फ़िर हमारे सहकर्मी जो कि हमारे बहुत अच्छॆ मित्र भी हैं, उन्होंने इशारे में सिगरेट की गुमटी जैसी चीज दिखाई, बस अंतर यह था कि यह गुमटी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डॆ के अंदर है, उसके पीछे ही काँच का एक केबिन बना हुआ है, जहाँ लगभग ६ बड़े ऐश ट्रे रखे हुए थे और उस छोटे से धूम्रपान कक्ष में कई लोग धूम्रपान कर रहे थे । लोगों ने अपने सुविधा अनुसार कैसी कैसी चीजें इजाद कर ली हैं ।

जहाँ हमारा द्वार था, वही एक कोने में ३ सीटें खाली थी, जिस पर हम दोनों जाकर पसर लिये, जब हम वहाँ बैठे तो उसी समय कुछ मलेशियन युवतियाँ भी उस सीट की और बढ़ीं थीं, परंतु हमे विराजमान होते देख दूसरी और मुड़ गईं । थोड़ी देर बाद ही एयर इंडिया की कोई फ़्लाईट उड़ने वाली थी तो एयर इंडिया का स्टॉफ़ वॉकी टॉकी लेकर नाम लेकर पुकार रहा था, हवाई अड्डे पर द्वार के पास यह आम बात है ।

उसी दिन से सऊदी में रमजान शुरू हो चुका था और भारत में एक दिन बाद शुरू होने वाला था, इसलिये उमराह करने वाले लोगों की संख्या ज्यादा थी, अधिकतर लोग सफ़ेद कपड़ों में दिखाई दे रहे थे, उमराह (एक तरह से तीर्थयात्रा) करने वाले लोग अपने कपड़ों में अलग ही नजर आ जाते हैं। चूँकि हमारी यह फ़्लाईट मुँबई से सीधी जेद्दाह की थी, इसलिये मुस्लिम धर्मालुओं की संख्या हमें ज्यादा ही दिखाई दे रही थी, बिजनेस के सिलसिले में हमें तो केवल २५-३० लोग ही जाते दिखे, बाकी सब उमराह करने वाले थे।

हमारी फ़्लाईट की उद्घोषणा हुई, उद्घोषणा पहले अंग्रेजी और फ़िर हिन्दी में हुई, हिन्दी में उद्घोषणा सुनकर बहुत खुशी हुई। अपना बोर्डिंग पास लेकर हम भी द्वार पर जा पहुँचे, बोर्डिंग पास का एक टुकड़ा अपने पास रखने के बाद और सुरक्षा टैग पर सील देखने के बाद हमें विमान की और जाने वाली एयरलाईंस की बस में चढ़ा दिया गया, और उसी रास्ते से वापिस हवाईपट्टी पर ले जाने लगे जिस रास्ते से शटल आई थी । और इस बस में बैठने के लिये मात्र ६-८ सीटें होती हैं और बाकी लोगों को केवल खड़ा होना होता है। हमने सोचा देखो जब इमिग्रेशन के लिये छोड़ा था तो कितनी इज्जत के साथ शटल से लेकर गये थे और अब बस में खड़ा करके ले जा रहे हैं।

बस में सब भेड़ बकरियों जैसे ठूँस दिये जाते हैं और कई लोग थे जो पहली बार ही हवाई यात्रा कर रहे थे और कई लोग थे जो पहली बार अंतर्राष्ट्रीय हवाई यात्रा कर रहे थे, अधिकतर उमराह वाले थे, बस में हमारे पास ही दो तीन परिवार खड़े थे जो कि फ़ोन पर अपनी सलामती की खबर दे रहे थे और लोगों की दुआ ले रहे थे क्योंकि वाकई मक्का जाना सबकी किस्मत में कहाँ होता है।

कई बार खालिस उर्दू ही कानों में सुनाई देती थी, उर्दू का अपना ही एक अदब है एक लहजा है और एक शालीनता है।

हवाई पट्टी पर हमारी बस पहुँच चुकी थी और हम बस से उतरने ही वाले थे कि पता चला कि अभी तक हवाई जहाज का उडानदल पहुँचा नहीं है, उडान दल भी हमारी बस में से आगे के दरवाजे से उतरा और हमें बताया गया कि  लगभग ५ मिनिट इंतजार कीजिये और दल ने हवाई जहाज में जाकर पहले आना समान रखा और जो भी प्राथमिक औपचारिकताएँ होती हैं वे पूरी करीं और फ़िर ग्राऊँड स्टॉफ़ को निर्देशित किया गया कि यात्रियों को भेजा जाये।

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जब सीढ़ियों से विमान में चढ़ रहे थे तो विमान के बड़े पंखे और बड़े प्रोपेलर देखते ही बनते थे, प्रोपेलर पर स्पष्ट रूप से लिखा गया था कि प्रोपेलर के आगे किसी भी मानव का खड़ा होना निषेध है, अब अपन कोई वैज्ञानिक तो है नहीं, हो सकता है कि ये प्रोपेलर में इतनी ताकत होती हो कि वह मानव को अपने अंदर खींच ले । विमान में दोनों तरफ़ दरवाजे होते हैं, मतलब आगे और पीछे की तरफ़, परंतु उस दिन संसाधनों की कमी के वजह से एक ही दरवाजा आगे वाला खोला गया था।

विमान के अंदर पहुँचे तो विमान देखकर लगा कि यह तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सेवा नहीं है, क्योंकि इसके पहले भी हम वाया दुबई होकर एक यात्रा कर चुके थे, तो अब हम स्पष्ट रूप से अंतर कर सकते थे। खैर अपना समान रखा और अपनी खिड़की वाली सीट सँभाली, खिड़की वाली सीट का अपना ही एक महत्व होता है, चाहे बच्चा हो या वृद्ध सबको खिड़की वाली सीट ही चाहिये होती है।

थोड़ी देर बाद टीवी स्क्रीन अवतरित हुई जिसमें लगभग एक ही पंक्ति के १६ लोग देख सकते थे, और आवाज सुनने के लिये अपनी सीट पर हेडफ़ोन को लगाना था, और फ़िल्म “कहानी” शुरू हुई, हालांकि हमने फ़िल्म देखी हुई थी परंतु करने के लिये और कुछ था भी नहीं सोचा चलो एक बार और देख ली जाये, फ़िर खाना भी साथ में खा लिया गया। और फ़िल्म खत्म होने के बाद और कुछ करने के लिये था ही नहीं, तो मजबूरी में सो लिया गया।

रात ११.४० अरब समय से हम जेद्दाह पहुँच चुके थे और उस समय भारत में लगभग सुबह २.१० हो रहे थे, हमने तब तक अपनी अरब की सिम अपने मोबाईल में लगा ली थी और घर पर फ़ोन करके बता दिया कि हम सही सलामत पहुँच गये हैं।

हवाई अड्डे पर इंतजार और शटल जेद्दाह यात्रा भाग १ (Mumbai Airport & Shuttle Jeddah Travel Part 1)

इमिग्रेशन, सुरक्षा जाँच और अपने घर के परांठे जेद्दाह यात्रा भाग २ [Security, Immigration and Home made Parathe Jeddah Travel Part 2]

इमिग्रेशन, १२० की रफ़्तार, अलग तरह की कारें और रमादान महीना– जेद्दाह यात्रा भाग–४ (Immigration, Speed of 120Km, Different type of Cars and Ramadan Month Jeddah Travel–4)

इमिग्रेशन, सुरक्षा जाँच और अपने घर के परांठे जेद्दाह यात्रा भाग २ [Security, Immigration and Home made Parathe Jeddah Travel Part 2]

भाग १

शटल से मुंबई के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पहुँच गये, वहाँ कौन से गेट से हमें अंदर जाना है, कोई बताने वाला नहीं था, जब हम गलत गेट पर पहुँच गये तो वहाँ खड़े जवान ने बताया कि आप गलत गेट पर आ गये हैं, आपको तो पहले गेट पर जाना है, हम फ़िर से अपने सही गेट की ओर चल पड़े। बहुत सारे यात्री जो कि मस्कट और दम्माम जा रहे थे, वे भी उसी गेट की ओर चल पड़े क्योंकि वे भी हमारे साथ ही बस से उतरे थे।

मस्कट और दम्माम जाने वाले अधिकतर भारतीय अपनी वेशभूषा से कर्मचारी लग रहे थे, जिससे पता चल रहा था कि ये लोग अपने परिवार के लिये पैसे कमाने के लिये अपना देश छोड़कर दूसरे देश जाने को मजबूर हैं। कई बार न चाहते हुए भी अपने आप की तुलना उनसे कर बैठते थे, हम भी तो यही कर रहे हैं।

गेट पर हमारी सुरक्षा जाँच नहीं की गई केवल बोर्डिंग पास देखा गया, शायद शटल से आने के कारण हमें सुरक्षा जाँच से ढ़ील दे दी गई थी, उसके बाद हम जैसे ही इमारत में प्रविष्ट हुए वहाँ पहला हॉल इमिग्रेशन का था, जहाँ हमें हमारे कागजात अधिकारियों को दिखाने थे और भारत निकास की सील लगाई जाती है, वहाँ निकास पत्र भी भरना होता है जिसमें अपनी तमाम जानकारियाँ देनी पड़्ती हैं।

मुंबई में भी इमिग्रेशन में ज्यादा समय नहीं लगा, साधारणतया: लाईन का खेल होता है, और अधिकारी के ऊपर भी होता है कि उसे कितना तेज काम करना आता है और कितना आलस करना आता है, कुछ अधिकारी बेहद चुस्त होते हैं और फ़टाफ़ट अपनी पैनी निगाहों से सारी जाँच सतर्कता के साथ फ़टाफ़ट पूर्ण कर लेते हैं और कुछ अधिकारी तो कागजात ही पलट कर देखते रहते हैं, ऐसा लगता है कि इनको प्रशिक्षण ही नहीं दिया गया है और फ़िर बाद में यात्री को ही पूछते हैं कि यह कागज कहाँ है, और वह कागज अलग से दिखता रहता है,  बेहतर है कि ऐसे अधिकारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाये, इस तरह के कारनामों से भारत का बहुत नाम रोशन होता है ।

इमिग्रेशन अधिकारी हमसे पूछते हैं, अरे आपका तो जन्मस्थान मध्यप्रदेश का है फ़िर आप मुँबई में कैसे, हमने कहा कि हम तो बैंगलोर रहते हैं और जाने की फ़्लाईट वाया मुंबई मिली है, तो कहते हैं अच्छा अच्छा, मतलब जन्म होने के बाद आप बैंगलोर चले गये, मन में आया अब इस बुडबक को क्या कहते कि कब गये और क्यों गये, हमने कहा नहीं जी नौकरी के लिये बैंगलोर में रहते हैं, वे बोले अच्छा अच्छा ! और हमें सुरक्षा जाँच पर जाने के हरी बत्ती दे दी गई, हमें अपने कागजात दे दिये गये और हमने अपने कागजात को जांचा और सुरक्षा जांच के लिये चल दिये।

उसी हाल में सुरक्षा जाँच के लिये थोड़ा लंबा चले तो वहाँ देखा कि बहुत भीड़ लगी हुई है, हम भी वहीं खड़े हो गये, तो एक विशिष्ट लाईन अलग से लगी हुई थी, सुरक्षा कर्मी ने हमें उस लाईन में लगने को कहा और हमने अपना जेब का सारा समान मतलब पर्स, घड़ी, सिक्के, मोबाईल और बेल्ट अपने हैंड बैग में रख दिया और लेपटॉप निकालकर ट्रे में रख दिया, फ़िर कई स्तरीय सुरक्षा जाँचों के मध्य से निकले।

जब अपना लेपटॉप बैग में रखने लगे तभी एक सुरक्षा कर्मी ने हम से एक बैग दिखाते हुए पूछा कि क्या यह बैग आपका है, हमने मना किया तो एक और व्यक्ति ने आकर दावा किया तो उन्हें वह बैग खोलने को कहा गया और उसमें लाईटर था, तो सुरक्षाकर्मी ने उनका लाईटर जब्त किया और एक रजिस्टर में उनका पूरा विवरण नोट कर लिया गया, बहुत आश्चर्य होता है कि अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सुरक्षा जाँच में विवरण नोट करने के लिये आज भी रजिस्टर का उपयोग हो रहा है, क्यों नहीं इन चीजों का डिजिटलाईजेशन किया जा रहा है, जिससे एजेंसियों को जाँच करने में मदद मिलेगी और किसी छेड़ छाड़ की आशंका भी नहीं रहेगी।

सुरक्षा जाँच के बाद हम अंतर्राष्ट्रीय टर्मिनल के गेटों पर आ गये जहाँ कि गेटों की संख्या निर्देशित थी, और यात्री उन निर्देशों को देखकर अपने प्रस्थान द्वार पर जा सकते हैं। हमारे पास काफ़ी समय था, तो हम कस्टम फ़्री एरिया देखने के लिये निकल पड़े, क्योंकि जहाँ से हमारे फ़्लाईट थी वहाँ उस प्रस्थान द्वार के पास बहुत भीड़ थी, पहले हमने अपने घर के पराठे खाये और फ़िर चाय काफ़ी के लिये निकल पड़े। सभी चीजों के भाव देखकर हमें लगने लगा कि हम वाकई अब भारत के बाहर आ गये हैं और अंतर्राष्ट्रीय हो गये हैं, क्योंकि सारे भाव अंतर्राष्ट्रीय बाजार के ही लग रहे थे। फ़िर भी कहीं एक कोने में हमें ठीक ठाक भाव वाली कॉफ़ी मिल गई और हमने वहाँ से कॉफ़ी लेकर आराम से बैठकर पेय का आनंद लिया ।

वहीं पर एक प्रार्थना कक्ष बना हुआ था जिस पर कि सभी धर्मों के निशान बने हुए थे पर वहाँ केवल मुस्लिम धर्मावलम्बी अपनी प्रार्थना अदा कर रहे थे, और कोई दिख भी नहीं रहा था, पर हमें अच्छी बात यह लगी कि यहाँ किसी विशेष धर्म के लिये प्रार्थना कक्ष नहीं बना है, जबकि लगभग सभी जगहों पर हमने देखा है कि विशेष धर्म के निशान के साथ प्रार्थना कक्ष बना है। अंतर्राष्ट्रीय स्थलों पर सर्वधर्म समान समझना चाहिये और सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करना चाहिये।

प्रार्थना कक्ष

प्रार्थना कक्ष

मुंबई हवाई अड्डे पर

दुबई स्थित प्रार्थना कक्षधर्म विशेष प्रार्थना कक्ष

दुबई हवाई अड्डे पर                              सिंगापुर हवाई अड्डे पर

हवाई अड्डे पर इंतजार और शटल जेद्दाह यात्रा भाग १ (Mumbai Airport & Shuttle Jeddah Travel Part 1)

धूम्रपान कक्ष, खालिस उर्दू और विमान दल का देरी से आना जेद्दाह यात्रा भाग ३ (Smoking chamber, Urdu and Late Crew Jeddah Travel Part 3)

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हवाई अड्डे पर इंतजार और शटल जेद्दाह यात्रा भाग १ (Mumbai Airport & Shuttle Jeddah Travel Part 1)

इस बार की जेद्दाह यात्रा बहुत कुछ यादें और अपनी छापें जीवन में छोड़ गयी, एक अलग ही तरह का अनुभव था जो कि जीवन में पहली बार हुआ। इस बार २० जुलाई को बैंगलोर से दोपहर की जेट की फ़्लाईट थी और वाया मुंबई जेद्दाह जाना था, अच्छी बात यह थी कि मुंबई से सीधी फ़्लाईट थी।
बैंगलोर से मुंबई अंतर्देशीय हवाईयात्रा हुई परंतु चेकइन बैग बैंगलोर में ही जेद्दाह तक के लिये ले लिया गया। बैंगलोर में टर्मिनल पर जाने के लिये दो स्वचलित सीढ़ियाँ हैं जिसमें सीधी तरफ़ वाली सीढ़ी जो कि अधिकतर अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों के यात्रियों द्वारा उपयोग में लायी जाती हैं, वही पास ही सऊदी एयर लाईन्स का काऊँटर है, जिनकी सीधी उड़ान जेद्दाह वाया रियाद है। वहाँ बहुत सारे मुस्लिम धर्मावलम्बी जो कि उमराह पर मक्का और मदीना जा रहे थे, लाईन में खड़े थे और सब के सब सफ़ेद कपड़ों में थे। ऊपर जहाँ से टर्मिनल के लिये रास्ता है वहाँ स्थित शौचालय में यही लोग नहा रहे थे और पूरा शौचालय इस तरह बन पड़ा था कि जैसे यह एयरपोर्ट का नहीं कोई आम शौचालय हो।
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अंतर्देशीय हवाईअड्डे से शटल में जाते हुए कुछ फ़ोटो
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बरबस ही मुंबई में ऑटो पर नजर गई तो फ़ोटो खींचने का लोभ संवरण ना कर सके।
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विरार से अलीबाग की टैक्सी और नवनिर्माणाधीन पुल (कुबरी)
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ये वही कॉफ़ी शाप है जहाँ इमिग्रेशन के बाद सबसे सस्ती कॉफ़ी मिली थी, और आराम करता हुआ एक विमान।
मुंबई समय से पहुँच गये और खराब बात यह थी कि जेट कनेक्ट की फ़्लाईट में खाना पीना फ़्री नहीं मिलता है, जबकि जेट एयरवेज की फ़्लाईट में खाना फ़्री होता है। दोपहर हो चली थी, खाना सुबह १० बजे घर से ही खाकर चले थे, साथ ही दूध में मले आटे के परांठे बँधवा लिये थे, जिससे अगर आगे भूख लगे तो उसे इन परांठे से शांत किया जा सकता है। मुंबई जाते समय फ़्लाईट में सॉफ़्टड्रिंक और सैंडविच खाया जिसके भाव आसमान के माफ़िक ही थे। परांठे इसलिये रख लिये गये थे कि अगर खाना न खाते बना तो परांठे खाने का आखिरी रास्ता होंगे।
मुंबई से अगली फ़्लाईट लगभग ५ घंटे बाद का था, अब हमें अंतर्देशीय से अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर जाना था। अंतर्देशीय हवाईअड्डे पर उतरने के बाद हम सबसे पहले शौचालय के लिये चल दिये, वहाँ देखा कि सफ़ाई का नामोनिशान नहीं था, कम से कम मुंबई के स्तर का तो नहीं था, लगता है कि हवाईअड्डे केवल शुल्क लेते हैं और बेहतर व्यवस्था के नाम पर अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेते हैं।
वहीं कन्वेयर बेल्ट पर लोगों के समान घूम रहे थे और उसी हाल के बीचों बीच में एक पिलर के पास अंतर्देशीय से अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे जाने के लिये शटल सेवा के लिये बोर्डिंग पास देखकर शटल के पास दिये जा रहे थे । जिसपर ON PRIORITY लिखा था और वहीं टीवी पर शटल का समय देखा तो पता चला कि अब अगली शटल आधे घंटे बाद है और यात्रियों की लाईन इतनी लंबी थी, कि हमने कई बार सोचा क्यों ना बाहर से टैक्सी करके चला जाया जाये। लोगों को वहीं खड़ा इंतजार करते हुए देख रहे थे, और लोग अपने पास पासपोर्ट और बोर्डिंग पास को बार बार चेक कर रहे हैं।
खैर ठीक ३० मिनिट से १० मिनिट पहले शटल आ गई, अच्छी खासी ए.सी. वोल्वो बस थी, शटल से बड़ी इज्जत के साथ अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर अंदर से ही ले जाया गया, जिसमें कि पास ही झुग्गी झोपड़ियों के लिये प्रसिद्ध धारावी दीवार से ही लगी थी, धारावी और अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के बीच केवल फ़ेंसिंग थी, शायद उसमें करंट दौड़ रहा हो। अंतर्राष्ट्रीय मानकों के हिसाब से यह बिल्कुल भी मान्य नहीं होगा।