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सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २६ [संजय द्वारा कर्ण को सारथ्य के गुण सिखाना और घोड़ों की जानकारी….]

     महाराज के रथ का सारथ्य बाबा ने अनेक वर्षों तक बड़े उत्तम ढंग से किया था। परन्तु आजकल वृद्धावस्था के कारण उनमें पहले-जैसी स्फ़ूर्ति नहीं रही थी। उनकी सहायता के लिये महाराज ने गवल्गण नामक सारथी के एक निपुण पुत्र को भी अपनी निजी सेवा के लिये नियुक्त कर रखा था। कभी-कभी महाराज उनको पुकारते थे, उसको सुनकर हम भी यह जान गये थे कि उनका नाम संजय है।

    रथाशाला में वे और पिताजी उत्तम जाति के घोड़े, रथ का सबसे अधिक उपयोगी आँगने का तेल चक्र के लिए कौन-सी लकड़ी टिकाऊ रहती है, रथचक्रों के आरों की संख्या कम होनी चाहिए या अधिक, उनका गति पर क्या परिणाम होता है – आदि-आदि अनेक मनोरंजक विषयों पर चर्चा किया करते थे। मुझसे तो वे सदैव कहते, “कर्ण, तू सूतपुत्र है । तू सदैव यह ध्यान रखना कि उत्तम जाति का घोड़ा कभी धरती पर नहीं बैठता है रात में नींद के लिए भी । और कुलीन सारथी कभी रथनीड़ नहीं छोड़ता है प्राण जाने पर भी। एक बार जिस जगह पर बैठ गये, वहाँ से फ़िर हटना नहीं !”

    “क्या कहते हैं काका ! घोड़ा कभी धरती पर नहीं बैठता है ?” मैं आश्चर्य से पूछता।

   “हाँ । इतना ही नहीं, बल्कि खड़े-खड़े नींद लेनेवाला घोड़ा जब चार खुरों में से एक खुर उठाकर नींद लेने का प्रयत्न करे, तब यह समझ लेना चाहिए कि दीर्घ यात्रा के लिए वह निकम्मा हो चुका है? ध्यान रखो, घोड़ा सब प्राणियों में उत्तम प्राणी है ।“

   “उत्तम !” मैं यों ही पूछता, क्योंकि मेरी इच्छा होती थी कि वे निरन्तर बोलते ही रहें। भारद्वाज पक्षी-जैसी उनकी वाणी भी ऐसी मधुर थी, उनको सतत सुनते रहने की इच्छा होती।

    “केवल उत्तम ही नहीं, प्रयुत बुद्धिमान भी । कर्ण, घोड़े पर बैठकर कभी घने जंगल में जाना पड़े और फ़िर बाहर आने के लिए मार्ग न मिले तो निश्चिन्त होकर हाथ से वल्गा छोड़ दो। यह बुद्धिमान प्राणी तुझको ठीक उसी स्थान पर वापस ले आयेगा, जहाँ से तू चला होगा।“ घोड़ों की प्रकृति की ऐसी बहुत-सी बातें काका बातें करते समय बता जाते।

    उनके मुख से घोड़ों की विविध प्रकृतियाँ, व्याधियाँ और चालें – इस सब बातों का वर्णन सुनते हुए हमारा समय आनन्द से व्यतीत होने लगा। सारथियों के कर्तव्य-कर्म, धार्मिक विधियाँ, सभागृह के नियम आदि की भी वे हमको सूक्ष्म जानकारी देने लगे।

संजय काका सारथ्य-कर्म की निपुणता की बारीकियाँ बताया करते थे।

और ऐसे लड़ाई शुरू की जा सकती है ….. लड़ाई शुरु करने के नये गणित……

मेरी पत्नी ने शयनकक्ष में घुसते ही पूछा “टीवी पर क्या है ?”

मैंने जबाब दिया  “धूल…”

और ऐसे लड़ाई शुरू की जा सकती है …..

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एक साल, एक पति ने अपनी सास के लिये  क्रिसमस के उपहार के रूप में एक कब्रिस्तान में भूखंड खरीद कर दिया।
अगले साल, वह उसने कोई उपहार नहीं खरीदा ।
जब सास ने   उससे पूछा कि क्यों तुमने मुझे कोई उपहार नहीं दिया, उस ने कहा, "क्योंकि तुमने अभी तक मेरे पिछले दिये गये उपहार का उपयोग नहीं किया है !"
और ऐसे लड़ाई शुरू की जा सकती है …..

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मेरी पत्नी ने शादी की सालगिरह पर उपहार के लिये इशारा किया कि उसे क्या चाहिये “मैं ऐसी चीज चाहती हूँ, जो कि चमकदार हो और मात्र ३ सेकंड में ० से २०० हो जाती हो…”

मैंने उसे एक स्केल खरीद कर दे दिया।

और ऐसे लड़ाई शुरू की जा सकती है …..

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २५ [युद्धशाला में कर्ण के अस्त्र और बाणों के प्रकार….]

     मेरा युद्धशाला का कार्यक्रम निश्चित हो गया था। एक महीने की भीतर ही मैंने शूल, तोमर, परिघ, प्रास, शतघ्नी, खड्ग, पट्टिश, भुशुण्डि, गदा, चक्र आदि अनेक शस्त्रों का परिचय प्राप्त कर लिया । धनुष की ओर मेरी विशेष रुचि होने के कारण धनुर्विद्या से सम्बन्धित सभी शस्त्रों का मैंने ध्यानपूर्वक अभ्यास किया। केवल बाण ही अनेक प्रकार के थे।

     कर्णी बाण में दो शूलाग्र होते थे। वह जब पेट में घुस जाता था, तब बाहर निकलते समय आँतें भी बाहर निकल आती थीं। नालीक बाण का फ़लक मोटा होता था तथा उसमें टेढ़े दाँते होते थे, इसलिए शरीर में घुसने पर जब वह बाण बाहर निकाला जाता था तब अपने आस-पास की शिराओं को तोड़कर ही वह बाहर निकलता था। लिप्त बाण के अग्रभाग में विषैली वनस्पति का रस लगा होने के कारण वह बड़ा दाहक होता था। बस्तिक बण शरीर में घुस जाता था। लेकिन बाहर खींचने पर उसका केवल द्ण्ड ही हाथ में आता था और समस्त फ़लक ज्यों का त्यों लक्ष्य के शरीर में रह जाता था। सूची बाण का अग्रभाग सूच्याकार और नुकीला होने के कारण अत्यन्त सूक्ष्म लक्ष्य भी उससे अचूक भेदा जा सकता था। विशेष रुप से आँख की पुतलि को इस बाण से अचूक भेदा जा सकता था। जिह्मा बाण जाता तो टेढ़ा-मेढ़ा था, लेकिन लक्ष्य में बिलकुल ठीक घुसता था। इसके अतिरिक्त गवास्थी अर्थात बैल के हाड़ का, गजास्थी अर्थात हाथी के हाड़ का, कपिश अर्थात काले रंग का, पूती अर्थात उग्र गन्धवाला, कंकमुख, सुवर्णपंख, नाराच, अश्वास्थी, आंजलिक, सन्न्तपर्व, सर्पमुखी आदि बाणों के अनेक प्रकार थे। इन सब बाणों को लक्ष्य पर छोड़ने की शिक्षा मैं मनोयोग से ग्रहण करने वाला था।

     अपनी शिष्यावस्था का एक-एक क्षण मुझको इसी कार्य में लगाना था। पहले तीन वस्तुओं पर मेरा प्रेम था। गंगामाता, सूर्यदेव और माता ने – राधामाता ने — अत्यन्त प्रेम से जो दी थी वह चाँदी की पेटिका; परन्तु युद्धशाला में आने के बाद उसमें एक वस्तु और सम्मिलित हो गयी। वह वस्तु थी धनुष और बाण!

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २४ [गुरु द्रोण का अर्जुन पर कर्ण के मन की कशमकश]

       पहले पन्द्रह दिन तक मैं युद्धशाला के शास्त्रों का केवल परिचय प्राप्त करता रहा। क्योंकि मैं कुछ सीखने की स्थिति में ही नहीं था। गुरुवर्य द्रोण के विचित्र व्यवहार के कारण मेरा मन कहीं रम नहीं रहा था। कभी मन में आता कि युवराजों के इस कबाड़खाने में केवल सूतपुत्र के रुप में अपेक्षित होने से तो अच्छा है कि एकदम चम्पानगरी का मार्ग पकड़ लिया जाये। युद्ध-विद्या की शिक्षा लेकर आखिर मुझे क्या करना है ? अब कौन सा महायुद्ध होने वाला है ? और हो भी तो उसमें मेरा उपयोग ही क्या है ? केवल एक सारथी के रुप में न ? तो फ़िर सारथी को इस युद्ध-विद्या की शिक्षा की क्या आवश्यकता है ? उसको तो घोड़ों की परीक्षा करनी चाहिए और उसकी उच्छश्रंखल प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना सीखना चाहिए। क्या यह काम में चम्पानगरी में रहकर नहीं कर सकता ? दूसरे ही क्षण फ़िर यह विचार आता कि ऐसा करने से कैसे काम चलेगा ? युद्ध-विद्या क्या केवल युद्ध के लिये ही सीखी जाती है ? जिसकी भुजाओं में शक्ति होती है, वह सदैव श्रेष्ठ माना जाता है ? इस युद्धशाला में मैं शक्तिशाली बन सकूँगा ।

     इस युवराज अर्जुन को भी दिखा दूँगा कि संसार में वही अकेला धनुर्धर नहीं है। लेकिन इस बेचारे अर्जुन ने मेरा क्या बिगाड़ा है ! उससे यह स्पर्धा क्यों करुँ ! स्पर्धा सदैव व्यक्ति को अन्धा कर देती है। गुरुवर्य उससे स्नेह करते हैं तो इसमें उसका क्या दोष है ! गुरु प्रेम करें – यह कौन शिष्य नहीं चाहेगा ! और कौन ऐसा गुरु है जो भली-भाँति परीक्षा लिये बिना शिष्य को इतने समीप कर लेगा ! यदि यही बात है, तो गुरुदेव ! मैं भी आपकी कसौटी पर खरा उतरुँगा । केवल एक धनुर्धर होने के कारण ही यदि आप उस अर्जुन को इतना स्नेह करते हैं, तो मैं उससे भी श्रेष्ठ धनुर्धर बनूँगा। परन्तु मैं यदि धनुर्धर हो भी जाऊँ तो उसका क्या उपयोग ! आप तो मुझको कभी अपना शिष्य मानेंगे ही नहीं।

     यदि युवराज अर्जुन गुरुवर्य का इतना लाड़ला था, तो इसका बुरा उसके भाई मान सकते थे, बात मुझको क्यों लगती है ? मेरी और युवराज अर्जुन का ऐसा क्या सम्बन्ध है ? कुछ भी तो नहीं है । मैं एक सूतपुत्र हूँ । वह एक युवराज हैं । उसका मार्ग दूसरा है और मेरा दूसरा । जीवन के मार्ग पर चलने वाले हम दोनों ऐसे यात्री हैं जो एक-दूसरे से एकदम भिन्न हैं। जाओ, युवराज अर्जुन ! खूब बड़े बनो । अजेय धनुर्धर बनो, यदि कभी अवसर आया तो यह सूतपुत्र कर्ण तुम्हारे रथ के घोड़ों को सँभालने के लिये सारथ्य करेगा।

मैंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अर्जुन हो या कोई और हो, मैं किसी के प्रति भी विद्वेष नहीं रखूँगा। यहाँ के सभी युवराजों के और मेरे मार्ग भिन्न-भिन्न हैं। जन्म ने ही उनका निर्धारण कर दिया है। चूँकि मेरी बड़ी इच्छा है, केवल इसीलिए मैं धनुर्विद्या सीखूँगा। मेरी भी इच्छा होती है कि केवल ध्वनि की दिशा में कहीं भी बाण छोडूँ, एक ही समय असंख्य बाण दसों दिशाओं में छोडूँ। गुरु कौन है, इस बात का महत्व ही क्या है ? महत्व की बात तो वास्तव में यह है कि विद्या के प्रति शिष्य में कितनी लगन है ! मैं तन-मन एक कर दूँगा । विद्या के लिए विद्या ग्रहण करुँगा। मैंने पक्का निश्चय कर लिया।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २३ [कर्ण, कृपाचार्य, दु:शासन…]

    चबूतरे की सीढ़ियाँ उतरने लगे। मेरा मन अब शान्त हो गया था। सामने गुरुदेव द्रोण और युवराज अर्जुन चबूतरे की ओर आ रहे थे। अर्जुन मेरी ओर देखकर हँसा, लेकिन मुझको हँसी नहीं आयी। मुझको ऐसा लगा जैसे उसके हँसने में भी एक प्रकार का व्यंग्य है।

    मुझको पितामह भीष्म की याद आयी। इस अर्जुन के पितामह थे वे। लेकिन दोनों में कहीं समानता नहीं थी। दोनों के स्वभाव और व्यवहार में कितना अन्तर था। जाते-जाते कुछ पूछने के विचार से अर्जुन ने मुझसे पूछा, “यह कौन है ?”

“मेरा छोटा भाई !” मैंने अभिमानपूर्वक कहा।

“यह भी इस शाला में आयेगा क्या ?” गुरुदेव द्रोण ने पूछा।

“जी हाँ ।“ मैंने उत्तर दिया।

“जाओ उस ओर कृप हैं, उनके पथक में सम्मिलित हो जाओ।“

     मैंने कुछ भी न कहा। उनको नमस्कार करने की भी मेरी इच्छा न हुई। जाते-जाते मैंने अर्जुन की ओर मुड़कर देखा। वह तो आश्चर्य से मेरे कानों के कुण्डलों की ओर एकटक देख रहा था।

    हम कृपाचार्य के पथक में आये। कृपाचार्य द्रोणाचार्य जी के साले थे। उनकी देख-रेख में अनेक युवक धनुर्विद्या की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। क्षण-भर के लिए मेरे मन में यह विचार आया कि ये ढ़ेर सारे राजकुमार क्यों जहाँ-तहाँ अपनी अकड़ दिखा रहे हैं ? उस दुर्योधन का सा रोब एक में भी है क्या ? एक भी ऐसा है क्या, जिसकी चाल दुर्योधन की चाल की तरह शानदार हो ? है कोई ऐसा माई का लाल जिसकी दृष्टि उसकी दृष्टि की तरह भेदक हो ?

    इतने में युवराज दुर्योधन ही सामने से आता हुआ मुझको दिखाई दिया। उसके पास जायेंगे तो निश्चय ही हमारी कुशल-क्षेम पूछेगा – यह सोचकर मैं उसकी ओर चलने लगा। उसके पास भी गया, लेकिन युवराज दुर्योधन नहीं था। उसमें और दुर्योधन में अद्भुत समता थी। उसकी देह पर जो वस्त्र थे उससे यह तो निश्चित था कि वह युवराज था। लेकिन युवराज किनमें से था कौरवों में से या पाण्डवों में से, चूँकि दुर्योधन में और इसमें बड़ी समता है, इसलिए यह कौरवों में से ही होगा, लेकिन कौरवों मे से यह कौन है ? इतने में ही कृपाचार्य ने उसको पुकारा, “दु:शासन !” वह भी जल्दी-जल्दी उनकी ओर चला गया। तो वह दु:शासन था ? अहा, दुर्योधन में और उसमें कितनी समानता थी। एक को छिपाइये और दूसरे को दिखाइए। युवराज दुर्योधन और युवराज दु:शासन। दोनों की चाल में वही शान थी। दोनों की दृष्टि में वही भेदकता थी। कहीं दु:शासन दुर्योधन की प्रतिच्छाया ही तो नहीं था ?

अवसर… मौका… जो पहला मिले छोड़ो मत…

एक जवान आदमी किसान की खूबसूरत लड़की से शादी करना चाहता था, वह किसान के पास शादी की अनुमति लेने गया।

किसान ने उस जवान की ओर देखा और बोला जाओ उस खेत में खड़े हो जाओ। मैं एक एक करके तीन सांडों को छोडूँगा। अगर तुमने एक भी सांड की पूँछ पकड़ ली तो तुम मेरी बेटी से शादी कर सकते हो।

जवान आदमी खेत में जाकर खड़ा हो गया और पहले सांड के आने का इंतजार करने लगा। खलिहान का दरवाजा खोला गया पहला सांड बाहर आया, बहुत ही भीमकाय शरीर वाला उसने पहली बार इतना बड़ा सांड देखा था। उसने सोचा कि अगला सांड इससे बेहतर विकल्प होगा, इसलिए वह एक ओर भाग लिया और वह सांड उसके सामने से निकल गया।

खलिहान का दरवाजा वापिस से खोला गया, देखकर यकीन नहीं हुआ। इतना बड़ा और भयंकर सांड उसने पहली बाद देखा था, उसे देखकर तो वह जड़ हो गया। उसने सोचा कि  अच्छा है कि मेरा  अगले सांड का इंतजार करना ठीक रहेगा और अगला सांड एक बेहतर विकल्प होगा। इसलिए वह एक ओर भाग लिया और वह सांड उसके सामने से निकल गया।

खलिहान का दरवाजा तीसरी बार खोला गया, उसके चेहरे पर मुस्कान आ गयी, यह सबसे कमजोर सांड था, इससे कमजोर सांड उसने आज तक नहीं देखा था। उसने अपने आप से कहा यही तो मेरा सांड है, जिसका मैं इंतजार कर रहा था। वह सांड दौड़ा चला आ रहा था और इस जवान ने अपनी स्थिती ठीक की और सांड की पूँछ पकड़ने के लिये तैयार हो गया, और कूद पड़ा, लेकिन यह क्या उस सांड की तो पूँछ ही नहीं थी।

नैतिक शिक्षा – जीवन अवसरों से भरा पड़ा है, जो भी अवसर पहले मिले उसे ले लो, छोड़ो मत।

परिवर्तन के बिना प्रगति असंभव है, और जो अपना मन नहीं बदल सकते, वे कुछ नहीं बदल सकते।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २२ [कर्ण के नये गुरु, जो खुद कर्ण ने बनाये..]

     जैसे ही मैं राजभवन पहुँचा, पिताजी ने मुझको तैयार रहने को कहा। क्योंकि युद्धशाला में जाना था, इसलिए मैं तुरन्त ही तैयार हो गया। माँ ने जो पेटिका दी थी, वह मैंने एक आले में सँभालकर रख दी थी । उस पर पारिजात के चार पुष्प चढ़ाये। उसको वन्दन कर मैं धीरे से बोला, “माँ ! मुझको आशीर्वाद दो । तुम्हारा वसु जीवन के मार्ग पर एक महत्वपूर्ण मोड़ आज ले रहा है । युद्धशाला में जाने का आज पहल दिन है ।“

पिताजी ने बाहर से ही पुकारा, “कर्ण ! शोण ! जल्दी चलो।“

    हम तीनों युद्धशाला में आये । कल की अपेक्षा आज तो वहाँ बहुत अधिक युवक एकत्रित थे। वे सभी मध्य में स्थित उस चबूतरे के चारों ओर शान्तिपूर्वक बैठे हुए थे। सबके सम्मिलित शान्त और गम्भीर स्वर सुनाई पड़ रहे थे। शायद प्रात:काल की प्रार्थना हो रही थी।

    “ऊँ ईशावास्यम इदम सर्वम…” । प्रार्थना बहुत देर तक चलती रही। मैंने पिताजी को वापस जाने को कहा।

“अनुशासन रखना।“ यह कहकर वे लौट गये।

    बीच में बैठे हुए गुरुदेव द्रोण शान्तिपूर्वक उठकर खड़े हो गये। उन्होंने अपने दोनों हाथ उठाकर अपने सभी शिष्यों को आशीर्वाद दिया। मैं शोण को लेकर आगे बढ़ा । हम दोनों ने झुककर गुरुदेव को प्रणाम किया। मुझको आशा थी कि अपना हाथ उठाकर वे हमको भी आशीर्वाद देंगे। लेकिन इतने में ही अर्जुन उनके सामने आ गया और वे अर्जुन के कन्धे पर हाथ रखकर उससे कुछ बातें करते हुए वहाँ से चले गये।

     मैंने सदैव की तरह पूर्व दिशा में आकाश की ओर देखा । तप्त लाल लोहे के गोले की तरह सूर्यदेव आकाश की नीली छत को जला रहे थे। मेरी निराशा क्षण-भर में नौ-दो ग्यारह हो गयी। बस, महासामर्थ्यशाली उस तेज के अतिरिक्त अधिक योग्य गुरु इस त्रिभुवन में दूसरा कौन होगा ? किसी अन्य के आशीर्वाद की भीख माँगने की आवश्यकता ही क्या है ? आज से मेरे वास्तविक गुरु ये ही हैं। आज से बस इन्हीं की पूजा, आज से इन्हीं की आज्ञा। तत्क्षण मैं पत्थर के उस चबूतरे पर चढ़ गया। वहाँ पुष्पों से सजा हुआ धनुष रखा था। वह मैंने हाथ में उठा लिया और जितना ऊँचा उठा सकता था, उतना ऊँचा उठाकर मैं बोला, “संसार के समस्त अन्धकार को नष्ट करने वाले सूर्यदेव ! आज से मैं तुम्हारा शिष्य हूँ। मुझको आशीर्वाद दो। मुझको मार्ग दिखाओ।“ उस धनुष को मस्तक से लगाकर मैंने झुककर उस तेज को प्रणाम किया।