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एक मुलाकात ताऊ और सुरेश चिपलूनकर से

अभी हम दीवाली की छुट्टियों पर अपने घर उज्जैन गये थे, जिसमें हमारा इंदौर जाने का एक दिन के लिये पहले से प्लान था । इंदौर में हमारे बड़े चाचाजी सपरिवार रहते हैं, तो बस घर की साफ़ सफ़ाई के बाद वह दिन भी आ गया। एक दिन पहले शाम को टेक्सी के लिये फ़ोन कर दिया क्योंकि इंदौर मात्र ५५ कि.मी. है। और चाचीजी से फ़रमाईश भी कर दी कि स्पेशल हमारे लिये दाल बाफ़ले बनाये जायें, ताऊ से पहले ही बात कर ली थी कि हम इंदौर आने वाले हैं तो उन्होंने एकदम कहा कि मिलने जरुर आईयेगा, बहुत ही आत्मीय निमंत्रण था।

कुछ फ़ोटो इंदौर पहुंचने के पहले के –

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उज्जैन से इंदौर का फ़ोरलेन का कार्य प्रगति पर है।

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सांवेर में नरम और मीठे दाने के भुट्टे और बीच में ऊँटों का कारवां।

हम इंदौर पहुंच गये सुबह ही घर पर परिवार के साथ समय कैसे जाता है पता ही नहीं चला फ़िर हमने ताऊ से बात की तो वे बोले कि कभी भी आ जाइये कोई समस्या नहीं है, हमने ये सोचा था कि वे अपने कार्य में व्यस्त होंगे तो हमें टाइम दे पायेंगे या नहीं।

हम पहुंच गये ताऊ के यहाँ उन्होंने बहुत ही सरल तरीके से हमें अपना घर का पता बता दिया था तो हम बिना पूछताछ के ही सीधे उनके घर पहुंच गये। साथ में थीं हमारी धर्मपत्नीजी भी। ताऊ बोले कि ताई अभी दीवाली की खरीदी करने बाजार गई हैं नहीं तो आपको उनसे भी मिलवाते।

ताऊ ने घर पर ही अपना ओफ़िस बना रखा है, बिल्कुल जैसा सोचा था ताऊ वैसा ही निकला। फ़िर आपस में पहले परिचय हुआ (वो तो पहले से ही था) पर ठीक तरीके से, अपने अपने इतिहास को बताया कि पहले क्या करते थे अब क्या करते हैं।

ब्लोगजगत के बारे में बहुत सी चर्चा हुईं, हाँ उनकी बातों से ये जरुर लगा कि वे ब्लोग के लिये बहुत ही गंभीर रहते हैं और अपनी वरिष्ठता होने के साथ वे बहुत गंभीर भी हैं, अधिकतर ब्लोगर्स के सम्पर्क में रहते हैं और वे अपना सेलिब्रिटी स्टॆटस समझते हैं।

उन दिनों हमने ७ दिन का पोस्ट न लिखने का विरोध करा था, उस पर भी काफ़ी बात हुई वे भी बहुत दुखी थे, बहुत सारे ब्लोगर्स के बारे में बात हुई पर खुशी की बात यह है कि ताऊ केवल हिन्दी ब्लोग की तरक्की चाहते हैं और इसके लिये उनके कुछ सपने भी हैं, जो आने वाले दिनों में साकर करेंगे, सफ़लता के लिये हम कामना करते हैं। ताऊ से अल्प समय के इस मिलन में हमने ताऊ से बहुत सारे गुर सीखे।

इंदौर के ब्लोगर्स के बारे में बात हुई तो ताऊ बोले कि केवल दिलीप कवठेकर जी ही हैं और तो किसी को जानता नहीं। फ़िर दो दिन पहले ही कीर्तिश भट्ट जी से बात हुई “बामुलाहिजा” वाले, वे बोले कि अगर हमें पहले से पता होता तो वे भी मिल लेते क्योंकि वे भी इंदौर में ही रहते हैं।

बस फ़ोटो खींचने का बिल्कुल याद ही नहीं रहा। कुछ दिन पहले अविनाश वाचस्पति जी से बात हुई थी तब उन्होंने याद दिलाया था कि किसी भी ब्लोगर से मिलें एक फ़ोटो जरुर खींच लें भले ही अपने मोबाईल से हो।

ये गलती हमने सुरेश चिपलूनकरजी से मिलने गये तो नहीं दोहराई।

हम सुरेशजी से मिलने पहुंचे तो हमने गॉगल लगा रखा था तो वे हमें पहचान ही नहीं पाये पर गॉगल उतारने पर एकदम पहिचान लिये। गले मिलकर दीवाली की हार्दिक शुभाकामनाएँ दी फ़िर बातचीत का सिलसिला शुरु हुआ।

Suresh Chiplunkar and Vivek Rastogi

सुरेश चिपलूनकर जी और मैं विवेक रस्तोगी उनकी कर्मस्थली पर

बात शुरु हुई तो पता चला हमारे बहुत से कॉमन दोस्त और पारिवारिक मित्र हैं । फ़िर बात लेखन के ऊपर हुई तो यही कि प्रिंट मीडिया को तो छापने के लिये कुछ चाहिये और वे चोरी से भी परहेज नहीं करते, और अगर लेखक को कुछ दे भी दिया तो ये समझते हैं कि वे कंगाल हो जायेंगे। हमने बताया कि हम भी पहले ऐसे ही लिखते थे परंतु हालात अच्छॆ न देखकर लिखना ही बंद कर दिया।

फ़िर बात शुरु हुई  हमारे ७ दिन के पोस्ट न लिखने के ऊपर तो उनके विचार थे कि ये लोग कभी सुधर ही नहीं सकते इन सबसे अपना मन मत दुखाईये पर हम भी क्या करें हैं तो हम भी हाड़ मास के पुतले ही ना, कोई तो बात दिल को लगेगी ही ना।

सुरेश जी से भी बहुत सारे मुद्दों पर चर्चा हुई, तो उन्होंने कहा कि ब्लोग को एक विचारधारा पर रखकर ही आगे बड़ा जा सकता है, उनकी ये बात सौ फ़ीसदी सत्य है।

ब्लोग की व्यवहारिक कठिनाईयों के बारे में भी बात हुई वे बोले कि कुछ ब्लोगर्स मित्र हैं जो कि तकनीकी मदद करते हैं, क्योंकि हम तकनीकी रुप से उतने सक्षम नहीं हैं।

एग्रीगेटर के बारे में भी बात हुई कि कोई भी फ़्री की चीज पचा नहीं पा रहा है और हमले किये जा रहे हैं।

हमने उन्हें बताया कि हमें उनकी लेखन की कट्टरवादी शैली बहुत पसंद है जो कि राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व की अलख हर दिल में जलाती है।

बहुत सारी बातें की फ़िर हमने उनसे विदा ली, बताईये कैसी लगी मुलाकात ताऊ और सुरेश चिपलूनकर से।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ५

    पर्णकुटी में पिताजी के लाये हुए अनेक प्रकार के और अनेक आकारों के धनुष थे। पता नहीं क्यों, लेकिन जब मैंने पहली-पहली बार उनमें से एक धनुष देखा था, और उसके प्रति मुझको जो आकर्षण लगा था, वह अद्भुत था। उसकी कपोत की ग्रीवा की तरह मुड़ी हुई कमान और नखमात्र से छे़ड़ देने पर ही टंकार करनेवाली प्रत्यंचा मुझको बहुत अच्छी लगी थी। पिताजी के हाथ से वह छीनकर उछलते हुए आँगन में घोड़े की पूँछ के बाल से क्रीड़ा करते हुए शोण के पास आया तो वह घोड़े की पूँछ के बाल निकालने में व्यस्त था, ये उसका प्रिय खेल था, मैं उसे बोला कि छोड़ अब इस खेल को, और धनुष दिखाते हुए बोला कि “देख ये है अपना नया खिलौना”।

    उत्सुकता से नाचता हुआ मेरे पास आकर मेरे हाथ से धनुष लेकर बड़ी बड़ी आँखें बनाकर बोलता है “यह तो बड़ा भारी है रे ?”

    और कर्ण के मन में यहीं से धनुर्विद्या के प्रति प्रेम और लगाव हुआ। वह पहले वट वृक्ष पर फ़िर हिलने वाली आम की डालियों के डण्ठल और एक साथ दो बाणों को भिन्न भिन्न लक्ष्यों का वेध करना। कर्ण सीखना चाहता था लक्ष्य को न देखते हुए आवाज की दिशा में बाण चलाना, जैसे साही नामक जन्तु रक्षा के लिये अपनी देह से सौ-दो सौ नलिकाएँ एक साथ छोड़ सकता है, उसी तरह से एक साथ असंख्य बाण छोड़ना सीखना चाहता था।

     कर्ण अकसर अपने कान के मांसल कुंडलों को हाथ लगाकर कुछ महसूस करने की कोशिश करता था। वैसे कुण्डलों के संबंध में कभी भी माँ से कोई भी सन्तोषप्रद उत्तर नहीं मिल सका था। एक बार तो उसने साफ़ साफ़ पूछा था “शोण और मैं – दोनों सगे भाई हैं न, फ़िर उसके क्यों नहीं है कुण्डल ?” भयभीत सी घबराहट में मेरे कुण्डलों की तरफ़ देखती और सचेत होकर कहती “मुझसे मत पूछो यह ! अपने पिताजी से पूछो।“

      मैं (कर्ण) उसी समय पिताजी के पास जाकर वही प्रश्न किया तो उन्होंने बड़ा ही विचित्र उत्तर दिया बोले “गंगामाता से पूछ इसका कारण ! कभी दिया तो इस प्रश्न का उत्तर वही तुझको देगी !” विचारमग्न सा चला गंगामाता भला कैसे उत्तर दे देगी ! क्या नदी कभी बोल सकेगी ? ओह, ये बड़े लोग कैसा व्यवहार करते हैं। छोटों से इस तरह की बातें क्यों करते हैं।

     उसी सायं सबकी दृष्टि से बचकर मैं अकेला ही गंगामाता के तट पर जाकर बैठ गया। उसकी लहर-लहर से मैंने प्रश्न पूछा, परन्तु एक भी लहर मेरे इस प्रश्न का उत्तर न दे सकी। उस दिन मुझको संसार के सभी बड़े लोग कपटी लगे। छोटों को अज्ञान के अन्धकार में रखने का काम वे ही करते हैं, नहीं तो फ़िर इतनी बड़ी गंगामाता चुप क्यों रही ?

      फ़िर वही प्रश्न अगले दिन खेलते समय मैंने शोण से किया, उसके उत्तर को सुनकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह बोला “मैं भी यह बात नहीं जानता हूँ । लेकिन इतना अवश्य है कि तुम्हारे कुण्डल मुझको बहुत ही अच्छे लगते हैं। रात को जब तुम सो जाते हो, ये तारों की तरह अविरत जगमगाते रहते हैं। उनका नीला-सा प्रकाश तुम्हारे लाल गालों पर बिखरा रहता है।“

     मेरे मन में एकदम अनेक प्रश्न उमड़ आये। जो अन्य किसी के पास नहीं थे, ऐसे दो मांसल कुण्डल मेरे कानों में थे। इतना ही नहीं वे चमकते भी थे। मुझको यों ही क्यों मिले ? कौन हूँ मैं ? शोण के दोनों कन्धों को झकझोरते हुए मैंने तड़पकर उससे पूछा, “शोण मैं कौन हूँ ?”

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ४

    लौटते समय सन्ध्या हो जाने के कारण श्येन, कोकिल, कपोत, भारद्वाज, पत्ररथ, क्रौंच आदि अनेक पक्षियों के झुण्ड चित्र-विचित्र आवाजें करते हुए, धूम मचाते नीड़ों की ओर लौटते हुए हमको दिखाई देते। उस समय सूर्यदेव पश्चिम की ओर स्थित दो अत्युच्च पर्वतों के पीछे प्रवेश कर रहे होते थे। दिन भर अविरत दौड़ने के बाद भी उनके रथ के घोड़े जरा भी थके हुए नहीं होते थे। वे दो पर्वत मुझको उनके प्रासाद के विशाल द्वार पर खड़े हुए दो द्वारपाल से लगते थे। क्षण-भर में ही वह तेजपुंज हमारी दृष्टि की ओट में हो जायेगा, इस कल्पना से ही वियोग की एक प्रचण्ड लहर अकारण ही मेरी नस-नस में फ़ैल जाती । मैं एकटक उस बिम्ब की ओर देखता रहता। शोण मुझको जोर से झकझोरकर आकाश में शोर मचाता हुआ गरुड़ पक्षियों का झुण्ड दिखाता। अन्य समस्त पक्षियों की अपेक्षा ये बहुत अधिक ऊँचाई पर उड़ते हुए जाते थे। शोण पूछता, “भैया, ये कौन से पक्षी हैं रे ?”

“गरुड़ ! सभी पक्षियों का राजा !”

“भैया, तू जायेगा क्या रे इन गरुड़ों की तरह …. खूब-खूब ऊँचा ?” वह अनर्गल प्रश्न पूछता ।

“पगले ! मैं क्या पक्षी हूँ जो ऊँचा जाऊँगा ?”

“अच्छा भाई, मैं जाऊँगा गरुड़ की तरह खूब ऊँचा। इतना ऊँचा कि तू कभी देख नहीं पायेगा। बस, अब ठीक है न ?”

    पश्चिमीय क्षितिज की ओर देखने लगता और अन्त में मैं ही उससे एक प्रश्न पूछता, “शोण, वह सूर्य-बिम्ब देख रहे हो ? उस बिम्ब की ओर देखने पर क्या अनुभव कर रहे हो तुम ?”

     मुझे लगता कि वह सूर्य बिम्ब की ओर देखकर जैसा मुझे लगता है उसी तरह की कोई बात अपने शब्दों में कहेगा। लेकिन सूर्य बिम्ब की ओर देखकर उसकी नन्ही आँखें उसके तेज से मिंच जातीं और फ़िर थोड़ी देर बाद आँखें मीड़ता हुआ मेरे कानों की ओर देखकर वह जल्दी कहता, “तेरे चेहरे जैसा लगता है वह, वसु भैया !”

मैं अपने कानों से हाथ लगाता। दो मांसल कुण्डल हाथ में आ जाते। कहते हैं कि ये मेरे जन्म से ही हैं !

     शोण की शिकायत शुरु हो जाती , “तुझपर ही माँ का प्यार अधिक है, भैया ! देख ले, इसीलिए उसने तुझको ही ये कुण्डल दिये हैं ! मेरे पास कहाँ है कुण्डल ?”

     आवेश में मैं हाथ में लगे प्रतोद का प्रहार घोड़ों की पीठ पर करने लगता। अपने खुर उछालकर रास्ते पर धूल उड़ाते हुए वे हिनहिनाते हुए वायुवेग से दौड़ने लगते । पास बैठा हुआ, शोण, दौड़ते हुए घोड़े, पीछे छूटते जाते अशोक, ताल, किंशुक, मधूक, पाटल, तमाल, कदम्ब, शाल, सप्तपर्ण आदि के ऊँचे घने पत्तोंवाले वृक्ष – इनमें से किसी का भी मुझको भान नहीं रहता। केवल सामने का पीछे भागता हुआ मार्ग और उसके मोड़ – बस यही दिखाई देते। मेरे मन में एक विचार कौंध जाता —- “ पीछे छूटते हुए इस रास्ते के साथ साथ मैं प्रकाश के साम्राज्य से किसी अन्धकारमय भयानक समुद्र की ओर खिंचा चला जा रहा हूँ ।“

पाँच मीटर दूरी से इस फ़ोटो को देखिये, पास से कुछ और ओर दूर से कुछ और

इस फ़ोटो को ध्यान से देखिये पास से यह अलबर्ट आइन्सटीन दिखाई देंगे परंतु अगर ५ मीटर दूरी से देखेंगे तो यह मार्लिन मुनरो दिखाई देगी।

अब कुर्सी से उठने का कष्ट तो करना ही पड़ेगा। एक बार देखिये तो सही –

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सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३

        मेरे पिता कौरवराज धृतराष्ट्र के रथ के राजसारथी थे। वे अधिकतर कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर में रहा करते थे। वह नगर तो बहुत दूर था। कभी कभी वे वहाँ से एक बड़ा रथ लेकर चम्पानगरी में आते थे। उस समय मेरे और शोण के उत्साह का रुप कुछ और ही होता था। जैसे ही पर्णकुटी के द्वार पर रथ खड़ा होता था, शोण उसमें कूद पड़ता और घोड़ों की वल्गाएँ पिताजी के हाथों से हठात़् अपने हाथों में लेकर जोर से मुझको पुकारता, “वसु भैया, अरे जल्दी आ । चलो, हम गंगा के किनारे से सीप ले आयें।“ उसकी पुकार सुनकर मैं अपूप खाना वैस ही छोड़कर पर्णकुटी से बाहर आता।

         फ़िर हम दोनों मिलकर पिताजी के रथ में बैठकर वायुवेग से नगर के बाहर गंगा के किनारे की ओर जाते। हलके पीले रंग के वे पाँच घोड़े अपने पुष्ट पूँछों के बालों को फ़ुलाकर, कान खड़े कर स्वच्छन्द उछलते जाते। जब वह वल्गाओं से घोड़ो को नियन्त्रित करने की कोशिश करता तो उसे देखते ही बनता और मुझे बुलाता, तो मुझको उससे विलक्षण प्रेम होने लगता। वल्गाएँ मैं अपने हाथ में ले लेता और वह प्रतोद का दण्ड उलटा कर घोड़ों के अयाल तितर बितर कर देता। ’हा ऽऽ हा ऽऽ’ कहकर उनको दौड़ाने के लिये प्रतोद के डण्डे से जब वह मारता तब घोड़े चेतकर पहले की अपेक्षा और अधिक तेज दौड़ने लगते। फ़िर हम दोनों लगभग आधा योजन की दूरी पार कर गंगामाता के किनारे रुकते। लेकिन मेरे हाथ पैर सुन्न हो जाते, अकारण ही मुझे लगता कि अवश्य ही इस पानी से मेरा कुछ संबंध है, उसी क्षण दूसरा विचार आता । छि:, भला पानी से मनुष्य का क्या नाता हो सकता है ? वह तो प्यास से व्याकुल प्राणी को तृप्ती प्रदान करने वाला एक साधन मात्र है वह ! अपनी छोटी-छोटी आँखों से मैं उस पात्र को गटागट पी लेता। उस समय मेरी इच्छा होती कि यदि मेरे सम्पूर्ण शरीर में आँखें होतीं, तो कितना अच्छा होता !

       शोण के बालप्रश्नों की बौछारें होने लगती – “भैया, ये सीपियाँ क्या पानी से ही बनती हैं रे ?”

“हाँ”

“फ़िर तो इनपर ये सारे रंग पानी ने ही किये होंगे ?”

“हाँ”

“तो फ़िर पानी में ये रंग क्यों नहीं देखाई पड़ते ?”

        और मैं उसके प्रश्नों का उत्तर देना कभी कभी टाल देता था। क्योंकि मैं जानता था कि एक प्रश्न के बाद दूसरा प्रश्न उसके पास अवश्य तैयार होगा। और सच पूछो तो कभी-कभी उसके प्रश्न का उत्तर मुझे भी ज्ञात नहीं होता था। उसके प्रश्नों को दूर करने का प्रयत्न करने के लिये मैं कहता “चल, हम लोगों को बहुत देर हो गयी है।“

भारतीय आसानी से क्यों पहचाने जाते हैं (WHY ARE INDIANS EASY TO IDENTIFY) एक पोस्ट आंग्लभाषा में

डिसक्लेमर – कृप्या कोई भी पाठक कही हुई बात का बुरा न माने, पोस्ट को किसी के ऊपर भी हमला न माना जाये केवल मनोरंजन मात्र माना जाय।

एक ईमेल आयी है WHY ARE INDIANS EASY TO IDENTIFY देखिये कुछ तथ्य, कुछ मुझे बुरे लगे पर फ़िर भी कहीं न कहीं इनमें से बहुत सारी चीजें अपने में पायीं, आप भी देखिये और बताईये कि आपमें कितने गुण हैं –

WHY ARE INDIANS EASY TO IDENTIFY
We are like this only so true, so very true……….

1. Everything you eat is savored in garlic, onion and tomatoes.

2.. You try and reuse gift wrappers, gift boxes, and of course aluminum foil.

3. You are always standing next to the two largest size suitcases at the Airport.

4. You arrive one or two hours late to a party – and think it’s normal.

5. You peel the stamps off letters that the Postal Service missed to stamp.

6. You recycle Wedding Gifts, Birthday Gifts and Anniversary Gifts.

7. You name your children in rhythms (example, Sita & Gita, Ram & Shyam, Kamini & Shamini..)

8. All your children have pet names, which sound nowhere, close to their real names.

9. You take Indian snacks anywhere it says ‘No Food Allowed.’

10. You talk for an hour at the front door when leaving someone’s house.

11. You load up the family car with as many people as possible.

12. HIGH PRIORITY ***** You use plastic to cover anything new in your house
whether it’s the remote control, VCR, carpet or new couch. *****

13. Your parents tell you not to care what your friends think, but they won’t let you do certain things because of what the other ‘Uncles and Aunties’ will think.

14. You buy and display crockery, which is never used, as it is for special occasions, which never happen.

15. You have a vinyl tablecloth on your kitchen table.

16.. You use grocery bags to hold garbage.

17. You keep leftover food in your fridge in as many numbers of bowls as possible.

18. Your kitchen shelf is full of jars, varieties of bowls and plastic utensils (got free with purchase of other stuff)

19. You carry a stash of your own food whenever you travel (and travel means any car ride longer than 15 minutes).

20. You own a rice cooker or a pressure cooker.

21. You fight over who pays the dinner bill.

22. You live with your parents and you are 40 years old. (And they prefer it that way).

23. You don’t use measuring cups when cooking.

24. You never learnt how to stand in a queue.

25. You can only travel if there are 5 persons at least to see you off or receive you whether you are traveling by bus, train or plane.

26. If she is NOT your daughter, you always take interest in knowing whose daughter has run with whose son and feel proud to spread it at the velocity of more than the speed of light.

27. You only make long distance calls after

11p.m.

28. If you don’t live at home, when your parents call, they ask if you’ve eaten, even if it’smidnight.

29. You call an older person you never met before Uncle or Aunty.

30. When your parents meet strangers and talk for a few minutes, you discover you’re talking to a distant cousin.

31. Your parents don’t realize phone connections to foreign countries have improved in the last two decades, and still scream at the top of their lungs when making foreign calls.

32. You have bed sheets on your sofas so as to keep them
from getting dirty.

33. Its embarrassing if you’re wedding has less than 600 people.

34. All your Tupperware is stained with food color.

35. You have drinking glasses made of steel.

36. You have mastered the art of bargaining in shopping.

37. You have really enjoyed reading this post – forward it
to as many Indians as possible.

I STILL LOVE TO BE AN INDIAN

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २

         चम्पानगर। मैं कर्ण और मेरा छोटा भाई श्रोण – हमारा वह छोटा सा संसार ! शोण ! हाँ शोण ही ! उसका मूल नाम था शत्रुन्तप। लेकिन सब उसे शोण ही कहते थे। शोण मेरा छोटा भाई था। यों तो वृकरथ नामक मेरा एक और भी भाई था, लेकिन वह बचपन में ही विकटों के राज्य में अपनी मौसी के पास चला गया था। शोण और मैं – हम दो ही रह गये थे। मेरे बचपन का संसार मेरे और उसकी स्मृतियों से ही भरा हुआ था। चम्पानगरी की विशुद्ध हवा में पलनेवाले दो भोले-भाले प्राणों का अद्भुत कल्पनाओं से भरा हुआ छोटा सा संसार था वह। वहाँ झूठी प्रतिष्ठा के बनावटी दिखावे नहीं थे या अपने स्वार्थ के लिये एक-दूसरे को फ़ूटी आँख से भी न देख सकनेवाली असूया नहीं थी। वह केवल दो भाईयों का नि:स्वार्थ विश्व था और उस विश्व के केवल दो ही द्वारपाल थे। एक हमारी माता — राधा और दूसरे हमारे पिता —- अधिरथ। आज भी उन दोनों की स्मृतियाँ मेरे हृदय के एक अत्यन्त कोमल तार को झंकृत कर देती हैं और अनजाने ही कृतज्ञता से कुछ बोझिल से तथा ममता से कुछ रससिक्त से दो अश्रुबिन्दु तत्क्षण मेरी आँखों में छलक आते हैं। लेकिन क्षणभर के लिये ही ! तुरन्त ही मैं उनको पोंछ लेता हूँ । क्योंकि मैं जानता हूँ कि आँसू दुर्बल मन का प्रतीक है। संसार के किसी भी दुख की आग अश्रु के जल से कभी बुझा नहीं करती। लेकिन फ़िर भी, जबतक आँसू की ये दो बूँदें छलक नहीं पड़तीं, तबतक मुझको यह प्रतीत ही नहीं होता कि मेरा मन हल्का हो गया है ! क्योंकि आँसू की इन दो बूँदों के अतिरिक्त, अपने जीवन में मैं उनको ऐसा कुछ भी दे नहीं सका, जो बहुत अधिक मूल्यवान हो ! और इनकी अपेक्षा अधिक मूल्यवान कोई अन्य वस्तु है, जो माता-पिता के प्रति प्रेम के प्रतीकस्वरुप दी जा सकती है – ऐसा मैं समझता भी नहीं। मेरे माता-पिता ने कभी किसी प्रकार की आशा मुझसे नहीं की थी। उन्होंने मुझको जो कुछ दिया था, वह निरा प्रेम ही था।
          मेरी माँ तो ममता का विशाल समुद्र ही थी। मुझको बचपन में सभी नगरजन वसुसेन कहते थे। मेरा छोटा भाई शोण, मुझको सदैव ’वसुभैया’ कहते था। माँ तो मुझको दिन में सैकड़ों बार ’वसु-वसु’ कहकर बुलाती थी। उसने मुझको केवल अपना दूध ही नहीं पिलाया था, बल्कि उसके विशुद्ध प्रेम का अमृत भी मैं अब तक जी भरकर पीता आया था। सबको समान भाव से प्रेम करने के लिये ही मानो उसका जन्म हुआ था। सारा चम्पानगर उसको ’राधामाता’ कहता था। मेरे कानों में दो जन्मजात कुण्डल थे। उनकी चर्चा वह नगर के लोगों से प्राय: करती ही रहती थी। मैं क्षण भर के लिए भी आँखों से ओझल हो जाता था, वह घबरा जाती थी। बार बार मेरे सिर पर हाथ फ़िराकर वह प्रेम से मुझसे कहती, “वसु! गंगा की ओर भूलकर भी मत जाना, अच्छा ऽ !”
“क्यों नहीं जाऊँ ?” मैं पूछता ।
“देखो, बड़े लोगों का कहना मानते हैं। जब जाने को मना किया जाये, तो नहीं जाना चाहिए !”
“तू सचमुच बहुत डरपोक है, माँ ! अरी, चले जायेंगे तो क्या हो जायेगा ?”
“नहीं रे वसु !” मुझको एकदम पास खींचकर मेरे बालों में अपनी लम्बी ऊँगलियाँ फ़िराती हुई वह मुझसे पूछती, “वसु, मैं तुझको अच्छी लगती हूँ या नहीं ?”
“आँ हाँ !” कहकर मैं सिर हिलाता। मेरे कानों में लय के साथ हिलनेवाले कुण्डलों की ओर विस्मय से देखती हुई वह कहती, “तो फ़िर मेरा आदेश समझकर कभी गंगा की ओर मत जाना।“ वह मुझको कसकर जकड़ती हुई कहती और एक अजाना भय उसकी आँखों में होता।
उसका मन रखने के लिये मैं कहता, “तू कहती है तो नहीं जाऊँगा। बस अब तो ठीक ?”
और उसका वात्सल्य उमड़ पड़ता मुझे अलिंगन में कसकर मेरे सिर और कानों को पटापट चूमती। उस समय मेरी इच्छा होती कि मैं इसी तरह गोद में समा जाऊँ।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १

        आज मैं कुछ कहना चाहता हूँ ! मेरी बात को सुनकर कुछ लोग चौकेंगे ! कहेंगे, जो काल के मुख में जा चुके, वे कैसे बोलने लगे ? लेकिन एक समय ऐसा भी आता है, जब ऐसे लोगों को भी बोलना पड़ता है ! जब जब हाड़-मांस के जीवित पुतले मृतकों की तरह आचरण करने लगते हैं, तब-तब मृतकों को जीवित होकर बोलना ही पड़ता है ! आह, आज मैं औरों के लिये कुछ कहने नहीं जा रहा हूँ, क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि इस तरह की बात करने वाला मैं कोई बहुत बड़ा दार्शनिक नहीं हूँ ! संसार मेरे सामने एक युद्ध-क्षेत्र में बाणों का केवल एक तरकश ! अनेक प्रकार की, अनेक आकारों की विविध घटानाओं के बाण जिसमें ठसाठस भरे हुए हैं – बस ऐसा ही केवल एक तरकश !!
        आज अपने जीवन के उस तरकश को मैं सबके सामने अच्छी तरह खोलकर दिखा देना चाहता हूँ ! उसमें रखे हुए विविध घटनाओं के बाणों को – बिल्कुल एक-सी सभी घटानाओं के बाणों को – मैं मुक्त मन से अपने ही हाथों से सबको दिखा देना चाहता हूँ। अपने दिव्य फ़लकों से चमचमाते हुए, अपने पुरुष और आकर्षक आकार के कारण तत्क्षण मन को मोह लेने वाले, साथ ही टूटे हुए पुच्छ के कारण दयनीय दिखाई देने वाले तथा जहाँ-तहाँ टूटे हुए फ़लकों के कारण अटपटे और अजीब से प्रतीत होने वाले इन सभी बाणों को – और वे भी जैसे हैं वैसा ही – मैं आज सबको दिखाना चाहता हूँ !
        विश्व की श्रेष्ठ वीरता की तुला पर मैं उनकी अच्छी तरह परख कराना चाहता हूँ। धरणीतल के समस्त मातृत्व के द्वारा आज मैं उनका वास्तविक मूल्य निश्चित कराना चाहता हूँ। पृथ्वीतल के एक-एक की गुरुता द्वारा मैं उनका वास्तविक मूल्य निश्चित करना चाहता हूँ। प्राणों की बाजी लगा देनेवाली मित्रता के द्वारा मैं आज उनकी परीक्षा कराना चाहता हूँ। हार्दिक फ़ुहारों से भीग जाने वाले बन्धुत्व के द्वारा मैं उनका वास्तविक मूल्यांकन कराना चाहता हूँ।
        भीतर से – मेरे मन के एकदम गहन-गम्भीर अन्तरतम से एक आवाज बार-बार मुझको सुनाई देने लगी है। दृढ़ निश्चय के साथ जैसे-जैसे मैं मन ही मन उस आवाज को रोकने का प्रयत्न करता हूँ, वैसे-ही-वैसे हवा के तीव्र झोंकों से अग्नि की ज्वाला जैसे बुझने के बजाये पहले की अपेक्षा और अधिक जोर से भड़क उठती है, वैसे ही वह बार-बार गरजकर मुझसे कहती है, “कहो कर्ण ! अपनी जीवन गाथा आज सबको बता दो। वह कथा तुम ऐसी भाषा में कहो कि सब समझ सकें, क्योंकि आज परिस्थिति ही ऐसी है। सारा संसार कह रहा है, ’कर्ण, तेरा जीवन तो चिथड़े के समान था !’ कहो, गरजकर सबसे कहो कि वह चिथड़ा नहीं था, बल्कि वह तो गोटा किनारवाला एक अतलसी राजवस्त्र था। केवल – परिस्थितियों के निर्दय कँटीले बाड़े से उलझने से ही उसके सहस्त्रों चिथड़े हो गये थे। जिस किसी के हाथ में वे पड़े, उसने मनमाने ढंग से उनका प्रचार किया। और फ़िर भी तुमको उस राजवस्त्र पर इतना अभिमान क्यों है ?”

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ तथ्य

    मृत्युंजय मतलब होता है मृत्यु पर विजय। मैंने अपना स्नातक हिन्दी साहित्य में किया इसलिये हिन्दी साहित्य पढ़ने में बहुत ज्यादा रुचि है। चूँकि साहित्यिक किताबें बाजार में बहुत ही दुर्लभ हैं और उस समय हमारी किताबें खरीदने की इच्छाशक्ति भी नहीं थी। हमारे पिताजी को शुरु से ही साहित्यिक किताबें पढ़ने का शौक था तो हर जिला मुख्यालय में शासकीय वाचनालय एवं पुस्तकालय होता है, बस वो लाते थे और हम भी पढ़ते थे, एक बार पढ़ने का सफ़र शुरु किया तो वो आज तक रुका नहीं है, हिन्दी के लगभग सभी साहित्यकारों को पढ़ा जिनकी किताबें पुस्तकालय में उपलब्ध होती थीं। कुछ किताबें ऐसी होती थीं जिसके लिये रोज चक्कर लगाने पड़ते थे।
    हमें ऐसी दो किताबों के नाम याद हैं पहली थी मृत्युंजय, दूसरी है लोकमान्य तिलक रचित “गीता”। जिसमें हमने मृत्युंजय को पढ़ लिया है और वाकई मृत्युंजय को पढ़़ना जीवन के सर्वोच्च आनंद की अनुभूति लगा। ऐसा लगा कि कुछ चीज जीवन में अपूर्ण थी और कहीं न कहीं मेरे अंदर कमी थी वह पूरी हो गई।
       “मृत्युंजय” में हमने सीखा, देखा कर्ण की सहनशीलता, उदारता, कर्त्तव्यनिष्ठा, निश्चल प्रेम, दान के लिये तत्परता और भी बहुत कुछ जिसका शब्दों में उल्लेख करना मेरे लिये असंभव है। बहुत से ऐसे तथ्य उन पात्रों के बारे में जो महाभारत से जुड़े हुए हैं, सबसे ज्यादा कर्ण और दुर्योधन और पांडवों के बारे में। वाकई इसके लेखक शिवाजी सावन्त की कर्ण के रहस्यों को जानने की इच्छाशक्ति के कारण ही यह सर्व सुलभ है। उनको मेरा प्रणाम है।
    
     मेरी अगली पोस्टों पर मृत्युंजय से मिले तथ्यों को पढ़ेंगे, जिसके बारे में आम दुनिया सर्वथा अनभिज्ञ है और आप लोगों को भी जानकर आश्चर्य होगा। हर जगह केवल कर्ण का जिक्र होता है कर्ण के परिवार से सर्वथा अनभिज्ञ हैं, इसमें कर्ण के परिवार का भी पूर्ण विवरण दिया गया है और बताया गया है कि किसी भी व्यक्ति के सफ़ल और असफ़ल जीवन के पीछे परिवार भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालांकि कर्ण को शुरु से ही इस दुविधा में दिखाया गया है कि एक आम आदमी के घर में रहते हुए भी मेरे पास इतना ओज और बल कैसे आया क्या मुझे जन्म देने वाले माँ बाप यहीं हैं, जिनके घर पर मैं रह रहा हूँ। और भी बहुत कुछ।
     शिवाजी सावन्त ने मूलत: इस उपन्यास की रचना मराठी भाषा में किया है और इस कालजयी उपन्यास की रचना कई भाषाओं में हो चुकी है, हिन्दी अनुवाद ओम शिवराज ने किया है।