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irctc.co.in रेल्वे का मिला जुला खेल या इस सरकारी तंत्र के पास संसाधनों Infrastructure की कमी

हम irctc.co.in साईट का उपयोग करते ही रहते हैं क्योंकि हम या हमारे घर में से या फ़िर हमारे किसी न किसी परिचित का टिकिट हम करवाते ही रहते हैं। इस पर भी बहुत बड़ा खेल चल रहा है कहने को तो इंटरनेट के जरिये बहुत ही अच्छी सुविधा मुहैया करवा दी है परंतु अभी भी इसमें बहुत सारे झोल हैं। जिससे irctc या रेल्वे संसाधनों की कमी बताकर तो हाथ नहीं झाड़ सकती है। और जो भी यात्री इंटरनेट से टिकिट करवाते हैं उनके लिये तो कुछ विशेष

छूट होनी चाहिये क्योंकि इससे उनका मेनपावर बच रहा है, जैसे बैंकों में एटीएम से राशी निकास में बैंक को कम खर्च उठाना पड़ता है परंतु अगर ग्राहक बैंक कैश काऊँटर से जाकर निकासी करेगा तो ज्यादा खर्चा होगा, बैंकों ने अपना खर्च कम करने के लिये एटीएम की संख्या बढाना शुरु किया था।

irctc को नियमित ग्राहकों को लुभाने के लिये कोई अच्छी स्कीम देनी चाहिये पर वह तो उन ग्राहकों से ज्यादा शुल्क लेने में लगी है, जो रेल्वे के मेनपावर को बचा रहा है, वाह री मेरी अनपढ़ रेल्वे को चलाने वाली सरकार, तानाशाह डिपार्ट्मेंट।
अगर मुझे मुंबई राजधानी से रतलाम से दिल्ली की यात्रा करनी है और अगर रतलाम से दिल्ली कोटे में सीट उपलब्ध है और अगर मैं irctc से टिकिट करवाता हूँ तो वेटिंग का टिकिट प्राप्त होगा परंतु अगर मैं रेल्वे स्टेशन जाकर रिजर्वेशन करवाता हूँ और तो मुझे कन्फ़र्म टिकिट मिलेगा। पता नहीं क्या खेल है यह या तो इनके सोफ़्टवेयर में ही कुछ प्राब्लम है या फ़िर कोई खेल है।
अब तत्काल की ही बात लें, तत्काल टिकिट रिजर्वेशन के लिये २ दिन पहले खुलता है सुबह आठ बजे, अगर मुझे मुँबई से उज्जैन जाना है तो मुझे उसके लिये अवन्तिका एक्सप्रेस का टिकिट लेना होता है, टिकिट विन्डो को देखे भी अब मुझे शायद दो साल से ज्यादा समय हो गया अब तो irctc से या फ़िर एजेन्ट से करवाते हैं। पीक टाईम पर सुबह चार पाँच बजे से तत्काल टिकिट के लिये लाईन लगना शुरु हो जाती है और फ़िर टिकिट विन्डो वाले लोगों की तानाशाही, टिकिट विन्डो खोलते ही पाँच मिनिट बाद हैं और इतने में तो खेल हो जाते हैं। जैसे अवन्तिका एक्सप्रेस में स्लीपर में १८३ और ३एसी में ४४, २एसी में १४ सीटें तत्काल के लिये आरक्षित होती हैं। इतनी सीटें होने पर भी लगभग ८.०२ बजे ही वेटिंग आ जाता है, और irctc पर server failure का एरर मैसेज मुँह चिढ़ा रहा होता है।
इस एरर मैसेज के लिये हमने कई बार ग्राहक सेवा से संपर्क कर खीज उतारने की कोशिश की पर हमेशा जबाब मिलता कि कृप्या दोबारा कोशिश करें, पर अगर आप एजेन्ट को टिकिट करने के लिये देते हैं तो हमेशा कन्फ़र्म मिलता है, पता नहीं इन एजेन्टों के साथ रेल्वे की क्या सेटिंग है। एजेन्ट पीक टाईम पर रिजर्वेशन चार्ज ६०० रुपये तक लेते हैं भले ही टिकिट ४५० रुपयों का हो।
पता नहीं रेल्वे का सोफ़्टवेयर इस सरकारी तंत्र से कब बाहर निकल पायेगा पर फ़िर भी हम ईमानदारी से टिकिट मिलने की आशा करते हैं, आशा करते हैं कि कोई रेल्वे का अधिकारी इसे पढ़ेगा और व्यवहारिक रुप से खोजबीन कर कुछ सुधार करेगा।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ७

प्रेमाश्रु – ग्रीष्म ऋतु की भयंकर गर्मी पर्वत को तपा डालती है तथा जब प्रथम वर्षा की बूँदें उस पर गिरती हैं तो उसमें से वाष्प निकलती है। आषाढ़ में लम्बे समय के बाद पर्वत जब मेघ से मिलता है, तो उसकी बूँदों से पर्वत से गर्म-गर्म वाष्प निकलती है। कवि ने कल्पना की है कि वे विरह के आँसू निकल रहे हैं।
पत्थरों से टकराने के कारण नदियों का जल हल्का व
स्वास्थ्यकारी माना जाता है।
इन्द्रधनुष वल्मीक के भीतर स्थित महानाग की मणि के किरण समूह से उत्पन्न होता है। कुछ इसे शेषनाग के कुल के सर्पों के नि:श्वास से उत्पन्न बताते हैं। वराहमिहिर ने इन्द्रधनुष की उत्पत्ति के विषय में इस प्रकार लिखा है – ’सूर्यस्य विविधवर्णा: पवनेन विघट्टिता: करा: साभ्रं वियति धनु:संस्थाना ये दृश्यन्ते तदिन्द्रधनु:।’ अर्थात जो सूर्य की अनेक वर्णों की किरणें वायु से बिखरी हुई होकर मेघ-युक्त आकाश में धनुष के आकार की दिखलायी देती हैं, उसे इन्द्रधनुष कहते हैं।
ग्रामीण स्त्रियाँ नागरिक स्त्रियों की अपेक्षा भोली-भाली होती हैं तथा वे कटाक्षपात आदि श्रृंगारिक चेष्टाओं से अनभिज्ञ रहती हैं।
आम्रकूट पर्वत – आम्रकूट नाम वाला पर्वत, इसका यह नाम सार्थक है, क्योंकि इसके आस-पास के जंगलों में आम के वृक्ष अधिकता में पाये जाते हैं। यह विन्ध्याचल पर्वत का पूर्वी भाग है। यहाँ से नर्मदा नदी निकलती है। आधुनिक अमरकण्टक को आम्रकूट माना जाता है।
विमखो न भवति – कोई भी व्यक्ति पहले किये गये उपकारों को नहीं भूलता है और फ़िर यदि कोई मित्र, जिसने उसके ऊपर उपकार किये हैं, उसके पास आता है तो वह उन पूर्व उपकारों को सोचकर उसका स्वागत करता है तथा यथासम्भव सहायता भी करता है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ६

विरहणी स्त्रियों का चित्रण – जिन स्त्रियों के पति परदेश चले गये हैं, ऐसी स्त्रियां शारीरिक श्रृंगार नहीं करती हैं। ऐसी स्थिती में उनके केश  बिखरे होने के कारण मुख और आंखों पर आये हुए हैं। वे स्त्रियाँ मेघ को देखने के कारण उन केशों के अग्रभाग को ऊपर से पकड़े होंगी।
प्राचीन काल में आधुनिक युग के समान आवागमन के साधन नहीं थे, इसलिये व्यक्ति वर्षा ऋतु अपने घर व्यतीत करते थे। शेष आठ माह घर
से बाहत अपना व्यापार, नौकरी आदि करते थे। इसी कारण हिन्दुओं के प्राय: सभी त्योहार (होली को छोड़्कर) इसी वर्षा ऋतु में होते हैं। दीपावली मनाने के बाद व्यक्ति बाहर चले जाते थे और वर्षा आरम्भ होने के साथ ही अपने घर लौट आते थे। इस कारण आकाश में मेघ को देखकर उनकी पत़्नियों को यह विश्वास होने लगता था कि अब उनके पति लौटने वाले हैं।
पुत्र को जन्म देने कारण पत़्नी को ’जाया’ कहा जाता है।
कुसुमसदृशं – पुष्प के समान (कोमल) प्राण वाले। उत्तररामचरितमानस में भी स्त्रियों के चित्त को पुष्प के समान कोमल बताया गया है।
शिलीन्ध्र को कुकुरमत्ता भी कहते हैं। ग्रामों में प्राय: छोटे छोटे बच्चे साँप की छत्री भी कहते हैं। यह वर्षा ऋतु में पृथ्वी को फ़ोड़ कर निकलते हैं। कुकुरमुत्तों के उगने से पृथ्वी का उपजाऊ होना माना जाता है।
मानस सरोवर हिमालय के ऊपर, कैलाश पर्वत पर स्थित है। कैलाश पर्वत हिमालय के उत्तर में स्थित है। कहते हैं कि इसको ब्रह्मा ने अपने मन से बनाया था। इसलिए इसे मानस या ब्रह्मसर भी कहा जाता है। वर्षाकाल से भिन्न समय में मानसरोवर हिम से दूषित हो जाता है और हिम से हंसों को रोग लग जाता है। इसलिये वर्षाकाल में ही राजहंस मानसरोवर जाते हैं तथा शरदऋतु के आगमन के साथ ही मैदानों में आ जाते हैं।
काव्यों में हंसों का कमल-नाल खाना प्रसिद्ध है। वे इसका दूध पीते हैं।
राजहंस – एक श्वेत पक्षी जिसकी चोंच और पैर लाल होते हैं, जो नीर-क्षीर-विवेक के लिये प्रसिद्ध है।

गणपति विसर्जन अनंत चतुर्दशी पर सीधे मुँबई से विवेक रस्तोगी..

अनंत चतुर्दशी पर वैसे तो मुँबई में छुट्टी का ही माहौल रहता है, गणपति उत्सव मुँबई का सबसे बड़ा त्यौहार होता है। भीड़ और उनकी श्रद्धा और उनकी भक्ति देखते ही रह जायेंगे। छोटे बड़े गणपति मुँबई के रास्तों से अपने विसर्जन स्थलों पर रवाना हो गये हैं, गणपति विसर्जन के लिये २ बजे से निकलना शुरु हो गये थे, हम अपने ऑफ़िस से निकलने में थोड़ा लेट
हो गये, करीबन ५ बजे निकले फ़िर करीबन ४५ मिनिट बाद ऑटो मिला और फ़िर एक घंटे में ट्रेफ़िक के कारण बड़ी मुश्किल से घर पहुँचे। लगता था जैसे जनसैलाब सड़कों पर उमड़ आया है, सड़कों पर दौड़ने वाले वाहन तो जैसे गायब ही हो गये।
बस हर जगह गणपति विसर्जन के लिये  जाते हुए लोगों के हुजूम, गुलाल से सारोबार, डांस करते हुए, बड़े बड़े स्पीकर के साथ वाहन और कई जगह प्रसाद बँट रहा था उसके लिये लंबी लगी हुई लाईन और जगह जगह स्वागत मंच। बचपन से लेकर पचपन से ज्यादा तक के लोग पूरे आनंद के साथ भाग ले रहे  हैं।
सप्तमी पर हम लोग दादार चौपाटी पर गणपती विसर्जन देखने गये थे, उस दिन गौरी गणपति था और बहुत संख्या में लोग पहुँचे थे। बड़े तामझाम के साथ मंडल अपने गणपति को लेकर जा रहे थे, एक मंडल में तो बहुत बड़े ड्रम लड़के और लड़कियाँ अपने कमर पर बाँध कर बजा रहे थे हम तो देखकर ही दंग रह गये। उनके पीछे लेझिम के साथ नृत्य करते हुए लोग।
कुछ फ़ोटो मैंने अपने मोबाईल से खींचे हैं फ़ोटो क्वालिटी बहुत अच्छी नहीं है, फ़िर भी देखिये –

03092009174723 03092009174533
गणपति विसर्जन के लिये ले जाते हुए
 03092009174604 03092009181950
सड़कों पर भीड़
29082009193035 29082009222108
वर्ली सी लिंक ब्रिज दादर चौपाटी से
03092009181032
ट्रेफ़िक

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ५

यक्ष का प्रिया विरह – यक्ष कितना दुर्बल हो गया है अपनी प्रिये से दूर होकर कि उसके हाथ में जो स्वर्ण कंकण पहन रखा था वह ढ़ीला हो जाने के कारण गिर पड़ा था, जिससे उसकी कलाई सूनी हो गई थी।
कालिदास के अनुसार – आषाढ़ के प्रथम दिन से ही वर्षा का प्रारम्भ होता है।
वप्रक्रीड़ा उस क्रीड़ा को कहते हैं जब प्राय: मस्त सांड, हाथी, भैंसे
आदि पशु टीले की मिट्टी को सींग से उखाड़ते हैं, इसे उत्खातकेलि भी कहते हैं।
सुखी किसे माना जाता है – प्रिया से युक्त वयक्ति को, धन से युक्त को नहीं।
अर्घ्य किसी विशेष व्यक्ति, अतिथि या देवता आदि को दिया जाता है।
गुह्यक और यक्ष ये दो अलग अलग देवयोनियाँ मानी जाती हैं, परंतु कालिदास ने इन दोनों को एक-दूसरे का पर्यायवाची माना है।
अत्यधिक काम-पीड़ित व्यक्ति अपना विवेक खो बैठते हैं और उन्हें जड़-चेतन में भी भेद प्रतीत नहीं होता। प्राय: काम-पीड़ित व्यक्ति विरह के क्षणों में अपनी प्रिया के फ़ोटो, वस्त्रादि से बातें करते हैं।
पुराणों के अनुसार प्रलयकाल में संहार करने वाले मेघों को पुष्करावर्तक कहते हैं। इसी कारण पुष्कर और आवर्तक को मेघ जाति में श्रेष्ठ माना जाता है।
अलका – यह धन के देवता कुबेर की राजधानी मानी जाती है। इसमें बड़े-बड़े धनी यक्षों का निवास बताया गया है। यह कैलाश पर्वत पर स्थित मानी जाती है। इसके वसुधारा, वसुस्थली तथा प्रभा ये अन्य नाम भी कहे जाते हैं।
पुराणों के अनुसार कुबेर की राजधानी अलका के बाहर एक उद्यान था जिसे गन्धर्वों के एक राजा चित्ररथ ने बनाया था। उस अलका के महल, बाह्य उद्यान में रहने वाले शिव के सिर पर स्थित चन्द्रमा की चाँदनी से प्रकाशित होते रहते थे।
पवनपदवीम़् – क्योंकि वायु सदा आकाश में ही चलती है, इस कारण आकाश को वायु मार्ग भी कहते हैं।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बार में – ४

मेघदूतम़् में यक्ष को एक वर्ष अपनी यक्षिणी से दूर रहने का शाप मिला है, यक्ष रामगिरी पर्वत के आश्रम में निवास करता है और यक्षिणी अलकापुरी हिमालय पर निवास करती है।
शाप का कारण – कवि ने शाप का कारण यक्ष द्वारा अपने कार्य से असावधानी करना बताया है, परंतु साफ़ साफ़ नहीं बताया गया है कि शाप
का कारण क्या था। कुछ विद्वानों के अनुसार –

  • ब्रह्मपुराण में शाप का कारण स्वामी की पूजा के लिये फ़ूलों का न लाना बताया गया है।
  • कुबेर के उद्योगों की ठीक प्रकार से रक्षा न करना मानते हैं।
  • यक्ष ने अपने गण की प्रथा के अनुसार सुहागरात को अपनी पत़्नी पर गणपति के अधिकार को सहन नहीं किया, अत: गण के नियम के अनुसार उसे एक वर्ष का प्रवास अंगीकार करना पड़ा।

शाप की अवधि देवोत्थान एकादशी को जब विष्णु भगवान शेष शय्या से उठेंगे उसी दिन मेरा शाप खत्म होगा। अत: यह स्पष्ट होता है कि यक्ष को शाप देवोत्थान एकादशी के दिन ही दिया गया होगा।
कवि ने यक्ष का नाम भी नहीं दिया है क्योंकि उसने स्वामी की आज्ञा का पालन नहीं किया और ऐसे व्यक्ति का नाम देना परम्परा से निषिद्ध था।
यक्ष देवताओं की ही श्रेणी है। ’अष्टविकल्पो देव:’ इस उक्ति के अनुसार – ब्रह्मा, प्रजापति, इन्द्र, पितृगण, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और पिशाच ये देवताओं के आठ भेद हैं। यक्षों का कार्य कुबेर के उद्यान की रक्षा करना है।
रामगिरि पर्वत जहाँ यक्ष ने एक वर्ष व्यतीत किया था, प्रसिद्ध टीकाकार वल्लभ मल्लिनाथ ने इस रामगिरि कोचित्रकूट माना है।
ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिये ग्रन्थ के आरंभ में मंगलाचरण किया जाता है। मंगलाचरण तीन प्रकार का होता है –
१. आशीर्वादात्मक
२. नमस्क्रियात्मक
३. वस्तुनिर्देशात्मक
’आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वाऽपि तन्मुखम़्’ यहाँ इस काव्य में तीसरे प्रकार का अर्थात वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण अपनाया गया है।
सम्पूर्ण काव्य में मन्दाक्रांता छन्द का प्रयोग हुआ है, जिसके प्रत्येक पाद में १७ अक्षर होते हैं। वे मगण, भगण, नगण, तगण, और दो गुरु इस क्रम में होते हैं तथा चौथे, दसवें, सत्रहवें अक्षर पर यति होती है।
मेघदूत में विप्रलम्भ श्रंगार का वर्णन है।

ऑटो वाले का बेहतरीन डायलॉग

ऑफ़िस से घर आने के लिये ऑटो में बैठे तो उसने एक बेहतरीन डायलॉग बोला जो कि हमने उससे २-३ बार उससे सुना कि हमें याद
हो जाये और हम उसे ब्लॉग पर डाल सकें। वैसे तो ये फ़िल्मी डायलॉग लगता है परंतु हमें याद नहीं आ रहा –
“हम तो बावन पत्तों में एक पत्ते हैं, वो भी गुलाम के और गुलाम भी हुकुम का, आपके हुकुम का”
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कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बार में – 3 (महाकवि कालिदास की सात रचनाएँ भाग – २)

५. मालविकाग्निमित्र – यह श्रंगार रस प्रधान ५ अंकों का नाटक है। यह कालिदास की प्रथम नाट्य कृति है; इसलिए इसमें वह लालित्य, माधुर्य एवं भावगाम्भीर्य दृष्टिगोचर नहीं होता तो विक्रमोर्वशीय अथवा अभिज्ञानशाकुन्तलम में है। विदिशा का राजा अग्निमित्र

इस नाटक का नायक है तथा विदर्भराज की भगिनी मालविका इसकी नायिका है। इस नाटक में इन दोनों की प्रणय कथा है। “वस्तुत: यह नाटक राजमहलों में चलने वाले प्रणय षड़्यन्त्रों का उन्मूलक है तथा इसमें नाट्यक्रिया का समग्र सूत्र विदूषक के हाथों में समर्पित है।”

कालिदास ने प्रारम्भ में ही सूत्रधार से कहलवाया है –
पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम़्।
सन्त: परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढ: परप्रत्ययनेयबुद्धि:॥
अर्थात पुरानी होने से ही न तो सभी वस्तुएँ अच्छी होती हैं और न नयी होने से बुरी तथा हेय। विवेकशील व्यक्ति अपनी बुद्धि से परीक्षा करके श्रेष्ठकर वस्तु को अंगीकार कर लेते हैं और मूर्ख लोग दूसरों को बताने पर ग्राह्य अथवा अग्राह्य का निर्णय करते हैं।
वस्तुत: यह नाटक नाट्य-साहित्य के वैभवशाली अध्याय का प्रथम पृष्ठ है।
६. विक्रमोर्वशीय – यह पाँच अंकों का एक त्रोटक (उपरुपक) है, इसमें राजा पुरुरवा तथा अप्सरा उर्वशी की प्रणय कथा वर्णित है। इसमें श्रंगार रस की प्रधानता है, पात्रों की संख्या कम है। इसकी कथा ऋग्वेद (१०/२५) तथा शतपथ ब्राह्मण (११/५/१) से ली गयी है। महाकवि कालिदास ने इस नाटक को मानवीय प्रेम की अत्यन्त मधुर एवं सुकुमार कहानी में परिणत कर दिया है। इसके प्राकृति दृश्य बड़े रमणीय हैं।
७. अभिज्ञानशाकुन्तलम़् – अभिज्ञानशाकुन्तलम़् न केवल संस्कृत-साहित्य का, अपितु विश्वसाहित्य का सर्वोत्कृष्ट नाटक है। यह कालिदास की अन्तिम रचना है। इसके सात अंकों में राजा दुष्यन्त और शकुन्तला की प्रणय-कथा निबद्ध है। इसका कथानक महाभारत के आदि पर्व के शकुन्तलोपाख्यान से लिया गया है। कण्व के माध्यम से एक पिता का पुत्री को दिया गया उपदेश आज २,००० वर्षों के बाद भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उस समय में था।
भारतीय आलोचकों ने ’काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला’ कहकर इस नाटक की प्रशंसा की है। भारतीय आलोचकों के समान ही विदेशी आलोचकों ने भी इस नाटक की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। जब सन १७९१ में जार्जफ़ोस्टर ने इसका जर्मनी में अनुवाद किया, तो उसे देखकर जर्मन विद्वान गेटे इतने गद्गद हुए कि उन्होंने उसकी प्रशंसा में एक कविता लिख डाली थी।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बार में – 3 (महाकवि कालिदास की सात रचनाएँ भाग १)

कालिदास ने कितने ग्रन्थों की रचना की, यह भी एक विवादित प्रश़्न है। इस विवाद का कारण है संस्कृत साहित्याकाश में एक से अधिक कालिदासों का होना। राजशेखर (१० भीं शताब्दी ई.) तक कम से कम तीन

कालिदास हो चुके थे –

एकोऽपि जीयते हन्त कालिदासो न केनचित़्।
श्रृङ्गारे ललितोद़्गारेकालिदास्त्रयी किमु॥
यह निर्विवाद रुप से सिद्ध है कि सात रचनाएँ तो निश्चित रुप से उसी कालिदास की हैं जो अग्निमित्र के समय में थे, शेष रचनाएँ अन्य कवियों की हैं, जिन्होंने सम्भवत: कालिदास की उपाधि धारण की होगी। इन सात रचनाओं में तीन नाटक, दो महाकाव्य तथा दो गीति काव्य हैं। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –
१. ऋतुसंहार – यह कालिदास की सर्वप्रथम रचना मानी जाती है; क्योंकि इसकी शैली उस स्तर की नहीं है, जिस स्तर की अन्य रचनाओं की है। वस्तुत: ऋतुसंहार का मुख्य उद्देश्य भारतवर्ष की ऋतुओं से परिचय कराना था, श्रृंगार की प्रधानता नहीं। इसमें छ: सर्ग और १४४ श्लोक हैं, जिसमें कवि ने बड़े ही मनोरम ढंग से ग्रीष्म से प्रारम्भ करके बसन्त तक छ: ऋतुओं का वर्णन किया है। शरद वर्णन निस्सन्देह ऋतुसंहार का श्रेष्ठ अंश है।
२. मेघदूत – मेघदूत कालिदास की एक सशक्त रचना है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यदि कालिदास की अन्य रचनाएँ न होतीं, केवल अकेला मेघदूत ही होता तो भी उनकी कीर्ति में कोई अन्तर न पड़ता। संस्कृत-साहित्य के गीति-काव्यों में सर्वप्रथम इसकी ही गणना होती है। कालिदास की कल्पना की ऊँची उड़ान और परिपक्व कला का यह एक ऐसा नमूना है, जिसकी टक्कर का विश्व में दूसरा नहीं है। मेघदूत ’मंदाक्रांता’ में लिखा हुआ १२१ श्लोकों का एक छोटा सा काव्य है। इसके दो भाग हैं – पूर्वमेघ और उत्तरमेघ।
३. कुमारसम्भव – यह महाकवि कालिदास का प्रथम महाकाव्य है। इसकी रचना ऋतुसंहार तथा मालविकाग्निमित्र के बाद तथा रघुवंश और अभिज्ञानशाकुन्तलम़् से निश्चित रुप से पहले की है। कुमारसम्भव के १७ सर्गों में शिव और पार्वती के पुत्र कार्तिकेय के जन्म तथा उसके द्वारा देवसेना का सेनापति बन कर तरकासुर के वध की कहानी वर्णित है। काव्यशास्त्रों में उदाहरण केवल आटः सर्गों तक ही मिलते हैं तथा नाम के अनुसार कुमार का जन्म अष्टम सर्ग में ही हो जाता है और यहीं काव्य का उद्देश्य भी पूर्ण हो जाता है। कुछ विद्वान तो केवल सप्तम सर्ग तक ही कालिदास की रचना मानते हैं; क्योंकि अष्टम सर्ग में कवि ने जगज्जननी माता पार्वती के सम्भोग श्रंगार का जितना सूक्ष्म वर्णन किया है, वैसा कालिदास जैसे कवि अपने आराध्य देव का नग्न चित्रण नहीं कर सकते थे। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि श्रंगार के नग्न वर्णन के कारण पार्वती जी क्रुद्ध हो गयी थीं और उन्होंने कालिदास को शाप दे दिया था। इसी कारण यह ग्रन्थ अपूर्ण ही रह गया था। सच्चाई चाहे जो हो, परन्तु इस काव्य के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। कुमारसम्भव के सारे प्रेम का वेग मंगल-मिलन में समाप्त हुआ है।
४. रघुवंश – कुछ विद्वान रघुवंश को कालिदास की अन्तिम कृति मानते हैं। परन्तु ध्यान से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि अभिज्ञानशाकुन्तलम़् इनकी अन्तिम कृति थी और रघुवंश उससे पहली। इसमें १९ सर्ग हैं, जिसमें महाकवि ने सूर्यवंशीय राजा दिलीप से अग्निवर्ण तक २९ राजाओं का वर्णन किया है। रघुवंश एक चरित्र महाकाव्य है। इसमें दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम आदि राजाओं को आदर्श सम्राटों के रुप में चित्रित किया गया है। इसी प्रकार इन्दुमती, सीता, कुमुद़्वती आदि रानियों का भी वर्णन है। अलंकारों और रसों का पुष्ट परिपाक इस महाकाव्य में सर्वत्र देखने को मिलता है। कालिदास जिस श्लोक के कारण दीपशिखा कालिदास कहलाये वह श्लोक भी रघुवंश में ही इन्दुमती स्वयंवर में है। उपमा, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों की छटा के साथ वीर, करुण, वीभत्स, श्रंगार, आदि रसों की छटा भी दर्शनीय है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बार में – २

          महाकवि कालिदास के बारे में और भी किवदंतियां प्रचलित हैं-
          एक किंवदन्ती के अनुसार इनकी मृत्यु वेश्या के हाथों हुई। कहते हैं कि जिस विद्योत्तमा के तिरस्कार के कारण ये महामूर्ख से इतने बड़े विद्वान बने, उसकी ये माता और गुरु के समान पूजा करने लगे। ये देखकर उसे बहुत दु:ख हुआ और उसने शाप

दे दिया कि तुम्हारी मृत्यु किसी स्त्री के हाथ से ही होगी।

      एक बार ये अपने मित्र लंका के राजा कुमारदास से मिलने गये। उन्होंने वहाँ वेश्या के घर, दीवार पर लिखा हुआ, ’कमले कमलोत्पत्ति: श्रुयते न तु दृश्यते’ देखा। कालिदास ने दूसरी पंक्ति ’बाले तव मुखाम्भोजे कथमिन्दीवरद्वयम़्’ लिखकर श्लोक पूर्ण कर दिया। राजा ने श्लोक पूर्ति के लिये स्वर्णमुद्राओं की घोषणा की हुई थी। इसी मोह के कारण वेश्या ने कालिदास की हत्या कर दी। राजा को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने भी आवेश में आकर कालिदास की चिता में अपने प्राण त्याग दिये।
    परन्तु कालिदास की रचनाओं का अध्ययन करने पर यह किंवदन्ती नि:सार प्रतीत होती है; क्योंकि इस प्रकार के सरस्वती के वरदपुत्र पर इस प्रकार दुश्चरित्रता का आरोप स्वयं ही खण्डित हो जाता है।
    एक अन्य जनश्रुति के अनुसार कालिदास विक्रमादित्य की सभा के नवरत़्नों में से एक थे । इस किंवदन्ती का आधार ज्योतिर्विदाभरण का यह श्लोक है –
धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशकुर्वेतालभट्टं घटखर्परकालिदासा:।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते: सभायां रत़्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥
     वैसे तो कालिदास के काल के बारे में विद्वानों में अलग अलग राय हैं परंतु कालिदास के काल के बारे में एक तथ्य प्रकाश में आया है, जिसका श्रेय डॉ. एकान्त बिहारी को है। १८ अक्टूबर १९६४ के “साप्ताहिक हिन्दुस्तान” के अंक में इससे सम्बन्धित कुछ सामग्री प्रकाशित हुई। उज्जयिनी से कुछ दूरी पर भैरवगढ़ नामक स्थान से मिली हुई क्षिप्रा नदी के पास दो शिलाखण्ड मिले, इन पर कालिदास से सम्बन्धित कुछ लेख अंकित हैं। इनके अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि “कालिदास अवन्ति देश में उत्पन्न हुए थे और उनका समय शुड़्ग़ राजा अग्निमित्र से लेकर विक्रमादित्य तक रहा होगा।”  इस शिलालेख से केवल इतना ही आभास होता है कि यह शिलालेख महाराज विक्रम की आज्ञा से हरिस्वामी नामक किसी अधिकारी के आदेश से खुदवाया गया था।
      शिलालेखों पर लिखे हुए श्लोकों का भाव यह है कि महाकवि कालिदास अवन्ती में उत्पन्न हुए तथा वहाँ विदिशा नाम की नगरी में शुड़्ग़ पुत्र अग्निमित्र द्वारा इनका सम्मान किया गया था। इन्होंने ऋतुसंहार, मेघदूत, मालविकाग्निमित्र, रघुवंश, अभिज्ञानशाकुन्तलम़्, विक्रमोर्वशीय तथा कुमारसम्भव – इन सात ग्रंथों की रचना की थी। महाकवि ने अपने जीवन का अन्तिम समय महाराज विक्रमार्क (विक्रमादित्य) के आश्रय में व्यतीत किया था। कृत संवत के अन्त में तथा विक्रम संवत के प्रारम्भ में कार्तिक शुक्ला एकादशी, रविवार के दिन ९५ वर्ष की आयु में इनकी मृत्यु हुई। कालिदास का समय ईसा पूर्व ५६ वर्ष मानना अधिक उचित होगा।