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मुंबई का सफ़र २३/११/२०१० भाग – २ (Mumbai Travel 23/11/2010 – Part – 2)

    जब हमने टिकिट ले लिया और अपनी निगाहें उस टीवी स्क्रीन पर जमा रखी थीं फ़िर जब पुल पर आये तो वहाँ पर भी इंडिकेटर में हरेक प्लेटफ़ॉर्म के बारे में सूचना होती है, पहले हम २ नंबर प्लेटफ़ॉर्म की ओर रुख कर रहे थे, परंतु तभी देखा कि ४ नंबर पर फ़ास्ट आ रही है, तो उधर की तरफ़ दौड़ पड़े क्योंकि केवल १ मिनिट ही बचा था। समय से लोकल आ गई और चूँकि यह हम उल्टी तरफ़ जा रहे थे, इस तरफ़ के लिये भीड़ सुबह मिलती है तब लोकल में चढ़ना किसी युद्ध से कम नहीं होता है। मालाड़ से आगे वाली तरफ़ के कूपे में ही चढ़ लिये, जिससे चर्चगेट पर ज्यादा दूर नहीं चलना पड़े, बताओ चलने में भी मन में कितना आलस्य भरा होता है। पर आलस्य के साथ साथ समय की बचत भी कम से कम २-४ मिनिट की ही सही।
    मजे में खिड़की के पास की सीट पर बैठ गये और पहले कुछ जरुरी फ़ोन लगाये फ़िर अपने कानकव्वे को फ़ोन में लगाकर एफ़.एम. सुनने लगे।
    एफ़.एम. के भी १२ चैनल आते हैं, अब हम तो कभी कभी सुनने वाले हैं तो बस जहाँ गाना अच्छा होता रुक जाते या फ़िर जो बतौड़ कर रहा होता वहाँ, इस तरह से ५० मिनिट के सफ़र में जाने कितनी बार चैनल बदल डाले होंगे। एफ़.एम. के किसी चैनल पर ही एक रजनीकांत स्पेशल चुटकुला सुना –
    “बचपन में रजनीकांत मुंबई में खेलने आये थे, और अपना एक खिलौना यहीं भूल गये थे, जिसे लोग आजकल एस्सेल वर्ल्ड के नाम से जानते हैं”|
    वर्षों पहले जब हम दिल्ली में थे तब केवल एफ़.एम. का ही सहारा होता था और दिल्ली में उस समय २-३ एफ़.एम. के चैनल ही आते थे, पर आजकल १२ चैनल यहाँ मुंबई में हैं तो दिल्ली में भी कम तो नहीं होंगे।
    लोकल गोरेगाँव, जोगेश्वरी, अंधेरी, बांद्रा, दादर, मुंबई सेंट्रल, चर्चगेट रुकी। बीच के स्टेशन पर नहीं रुकी क्योंकि फ़ास्ट थी लगभग हर तीन छोटे स्टेशन के बाद एक बड़ा जंक्शन जैसे बड़ा स्टेशन आता है। अगर किसी छोटे स्टेशन पर उतरना हो तो स्लो लोकल पकड़ना होती है। बीच में चर्नी रोड़ और मरीन लाईन्स से दायीं तरफ़ दरिया दिखता है, फ़िर चर्चगेट आने वाला होता है तो वानखेड़े स्टेडियम दिखता है, उस दिन वहाँ वेल्डिंग का काम चल रहा था, प्रतीत होता था कि स्टेडियम का जीर्णोद्धार हो रहा है, ये तो बाद में पता चलेगा कि फ़ायदा अधिकारी का हुआ या जनता का।
जारी…

मुंबई का सफ़र २३/११/२०१० भाग – १ (Mumbai Travel 23/11/2010 – Part – 1)

    किसी निजी कार्य की वजह से कई दिनों बाद वापिस मुंबई जाना हुआ, जी हाँ मुंबई जो कि माटुँगा रोड से कोलाबा तक कहलाता है (अगर मैं गलत हूँ तो सुधारियेगा)। मैं रहता हूँ कांदिवली में और कार्यालय है मालाड़ में, जो कि मुंबई महानगरी के उपनगर कहलाते हैं। जब बोरिवली या कांदिवली से लोकल ट्रेन में चढ़ेंगे तो पायेंगे कि कई लोग फ़ोन पर बात करते हुए कह रह होंगे कि आज मुंबई जा रहा हूँ। बाहर से आने वाला व्यक्ति तो बिल्कुल चकित ही होगा कि मुंबई में रहकर भी बोल रहे हैं, कि “मुंबई जा रहे हैं”, वैसे यहाँ अगर चर्चगेट, फ़ोर्ट, नरीमन पाईंट या कोलाबा की तरफ़ जा रहे हैं तो लोग यह भी कहते हुए पाये जाते हैं कि “टाऊन” जा रहा हूँ।
    कार्यालय से चर्चगेट का सफ़र सबसे पहले शुरु हुआ ऑटो से, हम उतरे मालाड़ एस.वी.रोड याने कि स्वामी विवेकानन्द रोड जो कि बोरिवली से शुरु होकर लोअर परेल तक है। और हमेशा इस पर जबरदस्त ट्रॉफ़िक रहता है, क्योंकि इस सड़क की चौड़ाई बहुत ही कम है और वाहनों का दबाब ज्यादा, हालांकि लिंक रोड और पश्चिम महामार्ग (Western Express High Way) से काफ़ी सहारा है, नहीं तो अगर एस.वी.रोड पर फ़ँस गये तो बस फ़िर तो गई भैंस पानी में।
    एस.वी.रोड पर ऑटो से उतरकर मालाड़ स्टेशन शार्टकट से निकले। बहुत कम ऑटो स्टेशन तक जाते हैं क्योंकि वहाँ ट्रॉफ़िक ज्यादा होता है, ऑटो में बैठने वाला भी सोचे कि इससे तो मैं पैदल ही चलकर चला जाता। टिकिट खिड़की पहले माले पर है, गोरेगाँव की तरफ़ वाली, कांदिवली की तरफ़ वाली टिकिट खिड़की के लिये चढ़ना नहीं पड़ता। अपने पर्स से रेल्वे का कार्ड निकाला और ऑटोमेटिक टिकिट वेन्डिंग मशीन पर जाकर अपना टिकिट लिया, चर्चगेट का। आमतौर पर लोकल के टिकिट के लिये लंबी लाईन होती है और कम से कम १५-२० मिनिट लगते ही हैं, अगर व्यक्ति किसी और शहर से आ रहा हो तो सोचेगा कि कम से कम २ घंटे लगेंगे परंतु यहाँ उतनी ही लंबी लाईन १५-२० मिनिट में निपट जाती है, रेल्वे टिकिट खिड़की पर बैठने वाले कर्मचारी अपने इस कार्य में सिद्धहस्त हैं। आजकल तो कंप्यूटर से टिकिट निकालते हैं, तो प्रिंटर को जितना समय लगता है प्रिंट निकालने में उतना ही, नहीं तो इसके पहले तो जब ये खिड़्कियाँ कम्प्यूटरीकृत नहीं हुई थीं, इससे भी जल्दी टिकिट मिलती थी, तब इतनी लाईन को मात्र १० मिनिट लगते थे, पहली बार कम्प्यूटरीकरण के कारण देरी देखी।
    प्लेटफ़ॉर्म नंबर २ और ४ पर चर्चगेट की और जाने वाली लोकल आती हैं, और जहाँ से आप टिकिट लेते हैं, वहीं पर टीवी स्क्रीन पर समय के साथ कौन से प्लेटफ़ार्म नंबर पर लोकल आने वाली है और फ़ास्ट है या स्लो, इतनी सब जानकारी वहाँ पर उपलब्ध होती है। इस जानकारी को देखकर आप अपना निर्णय एकदम ले सकते हैं।

कल १२ अगस्त है, मीटर जाम का

कल १२ अगस्त है, और कल मीटर जाम का दिन है, हम लोग ऑटो टैक्सी का उपयोग नहीं करेंगे, हमने आज भी नहीं किया। आज हमने कल १२ अगस्त के लिये बस से ऑफ़िस आने जाने का ड्राय रन कर लिया। बस से आना जाना सफ़लतापूर्वक रहा।

कल देखते हैं कि कैसा मिजाज रहता है यहाँ की पब्लिक का और ऑटो टैक्सी का !!!

ज्यादा जानकारी के लिये निम्न पोस्टें पढ़ें।

आप लोग १२ अगस्त को क्या करने वाले हो ? ऑटो वाले का सवाल (12th August Meter Jaam)
मुंबई में यात्रियों का बदला १२ अगस्त को ऑटो और टेक्सीवालों से (Revenge of the Commuters)

झाबुआ कॉलेज जाते समय दो तालाब और भी बहुत सारी यादें…. मेरे किस्से … विवेक रस्तोगी

    कॉलेज में पहले वर्ष में ही कॉलेज की हवा लग गयी, झाबुआ जी हाँ यह मध्यप्रदेश में एक आदिवासी क्षैत्र है और यहाँ के भील भिलाले बहुत प्रसिद्ध हैं। पहले भी एक पोस्ट लिखी है यहाँ चटका लगाकर देख सकते हैं “झाबुआ के भील मामा”।

    अपने कॉलेज जाते समय बीच में दो तालाब पड़ते थे, पहला तालाब तो हमारे घर के पास ही था और उसमें पानी थोड़ा कम होता था, केवल बरसात में पुरा जाता था। दूसरा तालाब हमारे कॉलेज के पास था जिसे पार करने के बाद ही कॉलेज जाया जा सकता था। बहुत ही सुन्दर दृश्य बनता था, और खासकर बारिश में तो कहने ही क्या, पुल के ऊपर एक फ़ीट पानी बहता था और कॉलेज आने जाने वाले रेलिंग के सहारे तालाब पार किया करते थे। तालाब में कमल के फ़ूल खिला करते थे कभी कोई कमल पास में खिल गया तो हम उसे ऐसे ही तोड़ लिया करते थे।

    दूर से ही तालाब का पुल दिखाई पड़ता था, वहीं दूर से ही कोई हरे,नीले रंग की स्कर्ट पहनी हुई लड़की दिखाई देती, तो साईकिल और तेज कर देते, पता है पास जाकर देखते कि भील जा रहा है, वहाँ के भील लोगों का पहनावा है यह, शाल को लँगी जैसा लपेट लेंगे और दूर से ऐसा लगेगा कि लड़की जा रही है, पास जाकर देखा तो भील मामा।

एक शेर अर्ज किया करते थे –

“दूर से देखा तो लगा हेमामालिनी बाल हिला रही है,

पास जाकर देखा तो पता चला कि भैंस पूँछ हिला रही है।”

    वहीं पास में भील कमल की जड़ याने कि कमलककड़ी वहीं से तोड़कर बेचते थे। कमल में लक्ष्मीजी रहती हैं, इसलिये हम कमल को बहुत पसंद किया करते थे, एक हमारा मित्र था नाम उसका भी कमल था, बस काला था तो हमने उसका नाम कालिया रख दिया था, और हम लोग कहते थे कमल कालिया, काला पड़ने की भी कहानी है, झाबुआ आने के पहले उसके पिताजी खरगोन में रहते थे, और खरगोन निमाड़ में आता है, कहते हैं निमाड़ की गर्मी में अच्छे अच्छे जल जाते हैं, इतनी झुलसती हुई गर्मी होती है निमाड़ में।

    कॉलेज के इस तालाब के एक किनारे शायद मंदिर था और दूसरे किनारे सर्किट हाऊस था, फ़िर थोड़े आगे जाने पर बायीं तरफ़ आदिवासी होस्टल था और फ़िर कॉलेज, कॉलेज के गेट के पहले एक रास्ता बायीं तरफ़ जाती थी जो कि गोपाल कॉलोनी का शार्टकट था और मेन रोड से बसें और अन्य परिवहन साधन रानापुर की ओर जाते थे, आगे कहाँ जाते थे वह हमें अब याद नहीं आ पा रहा है।

    कॉलेज के गेट में प्रवेश करते ही पार्किंग के लिये दो स्टेंड बने हुए थे जिसमें शेड भी लगे थे, और आगे जाने पर “शहीद चंद्रशेखर आजाद” की प्रतिमा लगी थी, और हमारे कॉलेज का नाम है “शहीद चंद्रशेखर आजाद महाविद्यालय, झाबुआ”, फ़िर कॉलेज की इमारत और पीछे की ओर बड़ा मैदान। जहाँ पर हम एन.सी.सी. की परेड किया करते थे फ़िर बाद में करवाते थे। बहुत सी यादें जुड़ी हुई हैं।

shahid chandra shekhar aazad

शहीद चंद्रशेखर आजाद को मेरा नमन

मुंबई में हवस, हो सकता है कि गलती लड़्की की ही हो।

सीन १ – ऑफ़िस से निकलते हुए

    ऑफ़िस से निकले, गलियारे से होते हुए पैसेज में आये, वहाँ चार लिफ़्ट हैं बड़ी बड़ी, २५ लोग तो आराम से आ जायें इतनी बड़ी, पर हम साधारणतया: आते जाते समय सीढ़ियों का ही इस्तेमाल करते हैं, जिससे मन को शांति रहती है कि चलो कुछ तो व्यायाम हो गया। जैसे ही पैसेज में पहुँचे तो एक लिफ़्ट का इंडिकेटर नीचे जाने का इशारा कर रहा था, और हम लिफ़्ट के लोभ में उसमें सवार हो लिये।

    लिफ़्ट से नीचे जाते समय एक सुविधा होती है कि कोई न कोई पहले से रहता है तो ग्राऊँड फ़्लोर का बटन नहीं दबाना पड़ता है, जबकि इसके उलट ऊपर जाना हो तो बटन दबा है या नहीं अपने फ़्लोर का ध्यान रखना पड़ता है।

    जैसे ही लिफ़्ट में पहुँचे तो देखा कि एक लड़की पहले से थी, मोबाईल हाथ में और मोबाईल का हेंड्स फ़्री कान में लगा हुआ, किसी गाने का आनंद उठा रही थी, हमने एक नजर देखा और लिफ़्ट के कांच में अपने को निहारने लगे कि कितने मोटे हो गये हैं, बाल बराबर हैं या नहीं, तो ध्यान दिया कि वो लड़की टकाटक हमारी ओर देखे जा रही थी, बस हमें शरम आ गई, वैसे ये कोई विशेष बात नहीं है, विपरीत लिंगी आकर्षण में सब देखते हैं।

    पर मुंबई में लोगों की नजरें बहुत खराब होती हैं, आप नजर से पहचान सकते हैं कि साधारण तरीके से देख रहा है या हवस की नजर से, कोई भी कैसा भी हो बस हवस का शिकार होता है, फ़िर भले ही वो नजर की हवस हो या मन को तृप्त करने की।

सीन २ – बस को पकड़ने की जद्दोजहद

    हम सबकुछ भूलकर ऑटो लेने निकल पड़े, तो बस स्टॉप से होकर गुजरे थोड़ा आगे सिग्नल है लिंक रोड का, जिस पर शाम के समय लम्बा ट्राफ़िक रहता है, बसें एक के पीछे एक लगी रहती हैं, एक बस स्टॉप पर नहीं रुकी और एक लड़का और एक लड़की उस बस के पीछे दौड़ने लगे, क्योंकि आगे सिग्नल था और बस की गति कम थी और जैसे तैसे बस में सवार हो लिये, लड़के और लड़की ने जमकर सुनाई कंडक्टर को, इतने मॆं उसके पीछे वाली बस से एक लड़की उतरी और आगे वाली बस में चढ़ने की कोशिश में दौड़ने लगी, परंतु जब तक चढ़ पाती सिग्नल हरा हो गया और बस की गति तेज हो गई और इस चक्कर में वह चढ़ नहीं पाई।

    उसके बाद उसने बस न पकड़ पाने और अपनी नादानी में पहले तो अपना पैर पटका और फ़िर एक हाथ की हथेली पर दूसरे हाथ से मुक्का बनाकर बस न पकड़ पाने की असफ़लता प्रदर्शित की, जब उसे ध्यान आया कि वह सड़क पर यह कर रही है तो सकपकाकर आसपास देखा तो पाया कि हम उसकी गतिविधियों को देख रहे हैं, तो मुस्करा उठी और हम भी।

सीन ३ – हो सकता है कि गलती लड़्की की ही हो।

    ऑटो में घर जा रहे थे कि एस.वी.रोड मलाड पर एक नजारा देखा, मोटर साइकिल पर एक लड़का बैठा था और एक लड़की उसके पास में खड़ी थी, लड़के ने लड़की की सूट की कॉलर पकड़ रखी थी और दूसरे हाथ से घूँसा दिखा रखा था।

    तो ऑटो वाला बोला कि इस लड़के को लोग अभी जम कर पिटेंगे तभी इसको समझ में आयेगा। तो मैं बोला कि तुम ये क्यों सोचते हो कि लड़के की गलती होगी हो सकता है कि लड़की सड़क पर बीच में चल रही होगी और लड़का बाईक से गिरते हुए या उसकी दुर्घटना होने से बच गया होगा, इसलिये गुस्सा हो रहा होगा। ऑटो वाला बोला परंतु ऐसा थोड़े ही होता है।

    मैंने उसको बोला कि स्कूटर और ट्रक की टक्कर में लोग बेचारे ट्रक वाले को ही मारते हैं, क्यों क्योंकि स्कूटर छोटी गाड़ी है, पर गलती तो स्कूटर की भी हो सकती है ना !! तो बोलता है कि हाँ साहब बराबर बोलते हैं। हो सकता है कि गलती लड़्की की ही हो।

९वीं कक्षा में चुंबन, 7 वर्ष के भतीजे के दोस्त की गर्लफ़्रेंड [kiss in 9th Class, Grilfriend of 7 year old boy]

    आज सुबह दिन की शुरुआत कोई खास नहीं थी पर फ़िर भी कुछ लम्हें लिखना चाहूँगा, सुबह ऑफ़िस के लिये घर से निकले तो बहुत तेज बारिश शुरु हो गई, और हम ऑटो लेकर निकल पड़े ऑफ़िस की ओर। रास्ते में याद आ गई पुरानी कुछ बातें जो कि एक साथी के साथ हमने की थीं। समाज मॆं दो चीजों के बारे में खुलकर बात नहीं की जाती है, एक है पैसा और दूसरा है काम (Sex), हम थोड़ी बहुत कोशिश कर रहे हैं कि पैसे के बारे में खुलकर बातें हों जैसे कि और विषयों पर होती है, एक बार हमने अपने एक साथी के साथ “काम” के ऊपर भी खुलकर बात करने की कोशिश की।
हमने सीधे पूछा कि “तुम्हारी कोई गर्लफ़्रेंड है”,
मित्र बोला “नहीं आजकल तो कोई नहीं है, पर पहले ९ रह चुकी हैं।”
मैंने पूछा “तुमने पहली बार कितनी उम्र में लड़की का चुंबन लिया था”
तो वह शरमा गया और बोला “बोस कोई लफ़ड़ा है तुम मेरी पोलपट्टी लेकर मेरे से कोई काम करवाने वाले हो”
मैंने कहा “नहीं भई मैं तो बस ऐसे ही पूछ रहा हूँ।”
तो बोला “मैं जब ९ वीं क्लास में पढ़ता था तब पहली बार एक लड़की का चुँबन लिया था”
मैंने फ़िर से धैर्य के साथ पूछा “क्या साथ मॆं पढ़ती थी ?”
मित्र बोला “नहीं, दो साल छोटी थी, और घर पर आना जाना था, सामने की बिल्डिंग में रहती थी”
मैंने पूछा “चुंबन कहाँ लिया था, स्कूल में या घर में या कहीं और ?”
अब तो वो और सशंकित हो गया, फ़िर बोला “बोस जरुर कोई लफ़ड़ा है !!”
मैंने कहा “अरे मैं तो बस ऐसे ही पूछ रहा हूँ, कि मैं अपनी जिंदगी में कितना पीछे रहा हूँ और हमारी आज की पीढ़ी क्या कर रही है ?”
तब बोला “घर में चुंबन लिया था”
और फ़िर आज की युवा पीढ़ी के लिये बोलता है कि “अपने भतीजे के साथ बाजार गये थे, तो बाजार में भतीजे की सहपाठिन मिल गई, उसने हाय हैलो किया और मम्मी से बोला कि “मम्मी ये मेरे दोस्त की गर्लफ़्रेंड है”, और उनका भतीजा दूसरी कक्षा में पड़ता है।
फ़िर बोला “हमने तो ९ वीं में चुंबन लिया था, पार आज कल की पीढ़ी में यह ५-६ कक्षा में ही हो जाता है”
हमें आश्चर्य होने लगा कि हम शायद अब बहुत ही बूढ़े हो गये हैं, इसलिये हमने शादी के पहले चुंबन नहीं लिया यार फ़िर हम किसी और ही सभ्यता में रहते थे।
अब आप बताईये आपने पहली बार चुंबन कब लिया था 🙂

मेरे घर में चोरी और भारत के लोकतंत्र का मजाक नक्सलवादियों का भारत बंद आज

    आज सुबह सुबह घर (उज्जैन) से माताजी का फ़ोन आया कि बेटा आज एक दुर्घटना हो गई, तुम्हारा कमरे में पीछे से चोर घुस गये और लॉकर में से समान ले गये। अब हम सुबह सुबह नींद में कुछ समझ ही नहीं पाये ।

    फ़िर पूरा वाकया बयान किया कि सुबह पौने पाँच बजे पापाजी उठे तो हमारे कमरे में उन्हें खटपट की आवाज आई, चूँकि हम वहाँ रहते नहीं हैं तो हमारा कमरा बाहर से बंद ही रखा जाता है। तो पापाजी ने  आवाज लगाई कि अंदर कौन है, तो कुछ जबाब नहीं आया, और चोर/चोरों ने बाहर से तीनों दरवाजों की कुण्डी भी लगा दी थी, फ़िर पापाजी ने किरायेदार को मोबाईल करके बुलाया और बाहर से दरवाजे खोले गये। फ़िर पीछे जाकर देखा जहाँ हमारेक मरे की खिड़की थी और जहाँ से कमरे में चोर लोहे की मजबूत जाली को मोड़कर और खिड़की खोलकर घुसे थे, फ़िर कमरे का मुआयना किया तो लॉकर तोड़ा गया था जो कि लोहे की अलमारी में था। कागज सुरक्षित थे, बस जो पर्स था उसका सारा समान गायब था अब उसमें क्या था याद करने की कोशिश की तो थोड़ा बहुत समान याद आया, और हाँ नकद याद था तो सब मिलाकर याद बन पड़ा कि लगभग १५-२० हजार का समान होगा, चाँदी का समान था अब चाँदी का भाव भी तो आसमान छू रहा है।

    वैसे तो उज्जैन में घर असुरक्षित हो गये हैं, चोर पूरी तरह से सक्रिय हैं, पुलिस के पास बराबर हफ़्ता पहुँच जाता होगा ये हमें उम्मीद है। अब सोचा जा रहा है कि घर में सिक्योरिटी सिस्टम लगा दिया जाये।

    वैसे हमने घर पर कहा है कि पुलिस में चोरी की रिपोर्ट जरुर दर्ज करवायें।

    सुबह सुबह हमने टीवी न्यूज देखी कि बारिश के क्या हाल हैं क्योंकि रात भर मुंबई में भारी बरसात हुई है, परंतु टीवी तो अपने किस्मत के सितारे में ज्यादा व्यस्त थे, तभी नीचे बस दो ही ब्रेकिंग न्यूज थीं ।

१. पंजाब हरियाणा में बारिश का कहर

२. नक्सलियों ने आज भारत बंद की घोषणा की, गृह मंत्रालय ने अलर्ट जारी किया।

    तो उपरोक्त दोनों में हमारे भारत बंद वाले शूरवीर कहाँ हैं, बाहर सड़क पर निकलें और बाढ़ में फ़ँसे लोगों की मदद करें और नक्सलियों से सामना करें।

“सन्ध्या-सुन्दरी” कविता सूर्यकान्त त्रिपाठी ’निराला’ रचित “कविश्री” से

दिवसावसान का था समय,

मेघमयआसमान से उतर रही है

वह सन्ध्या-सुन्दरी परी-सी

धीरे धीरे धीरे।

तिमिराञ्चल में चञ्चलता का नहीं कहीं आभास,

मधुर मधुर है दोनों उसके अधर,

किन्तु जरा गम्भीर, – नहीं है उनमें हास-विलास,।

हँसता है तो केवल तारा एक

गूँथा हुआ उन घँघराले काले-काले बालों से,

हृदयराज्य की रानी का वह करता है अभीषेक।

अलसता की-सी लता

किन्तु कोमलता की वह कली

सखी नीरवता के कन्धे पर डाले बाँह,

छाँह सी अम्बर पथ से चली।

नहीं बजती उसके हाथों में कोई वीणा,

नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप,

नूपुरों में भी रुनझुन रुनझुन नहीं,

सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द सा “चुप, चुप, चुप”

                                              है गूँज रहा सब कहीं –

व्योम-मण्डल में – जगतीतल में –

सोती शान्त सरोवर पर उस अमल कमलिनी-दल-में-

सौन्दर्य गर्विता सरिता के अति विस्तृत वक्ष:स्थल में-

धीर वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में –

उत्ताल-तरङ्गाघात प्रलय घन गर्जन-जलाधि प्रबल में-

क्षिति-में — जल में नभ में अनिल-अनल में,

सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा “चुप, चुप, चुप”

                                               है गूँज रहा सब कहीं, –

और क्या है ? कुछ नहीं।

मदिरा की वह नदी बहती आती,

थके हुए जीवों को वह सस्नेह

                                  प्याला एक पिलाती,

सुलाती उन्हें अङ्कों पर अपने,

दिखलाती फ़िर विस्मृति के वह अगणित मीठे सपने;

अर्धरात्रि की निश्चलता में हो जाती जब लीन,

कवि का बढ़ जाता अनुराग,

विरहाकुल कमनीय कण्ठ से

आप निकल पड़ता तब एक विहाग।

“बादल राग” कविता सूर्यकान्त त्रिपाठी ’निराला’ रचित “कविश्री” से

निर्दय विप्लव की प्लावित माया –

यह तेरी रण-तरी,

भरी आकांक्षाओं से,

घन भेरी-गर्जन से सजग, सुप्त अंकुर

उर् में पृथ्वी के, आशाओं से

नव जीवन की, ऊँचा कर सिर,

ताक रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल !

                                           फ़िर फ़िर

बार बार गर्जन,

वर्षण है मूषलधार,

हृदय थाम लेता संसार,

सुन-सुन घोर वज्र हुंकार।

अशनि-पात से शायित उन्नत शत शत वीर,

क्षत विक्षत-हत अचल शरीर,

         गगनस्पर्शी स्पर्धा-धीर।

हँसते हैं छोटे पौधे लघु-भार-

                   शस्य अपार,

हिल हिल,

खिल खिल,

हाथ हिलाते,

तुझे बुलाते,

विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।

अट्टालिका नहीं है रे

                         आतङ्क भवन,

सदा पङ्क ही पर होता जल विप्लव प्लावन

क्षूद्र प्रफ़ुल्ल जलज से सदा छलकता नीर,

रोग शोक में भी हँसता है शैशब का सुकुमार शरीर।

रुद्ध कोश, है क्षुब्ध तोष,

अंगना-अंग से लिपटे भी

आतंक-अङ्क पर काँप रहे हैं

धनी, वज्रगर्जन से, बादल,

त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे हैं।

जीर्ण-बाहु, शीर्ण शरीर,

तुझे बुलाता कृषक अधीर,

ऐ विप्लव के वीर!

चूस लिया है उसका सार,

हाड़मात्र ही हैं आधार,

ऐ जीवन के पारावार !

भारत बंद करने से क्या होगा ? जिम्मेदार लोगों को बंद करो ! मैं इसका विरोध करता हूँ !!

    भारत बंद को राजनैतिक दलों ने जनता को अपनी ताकत बताने का हथियार बना दिया है, और टी.वी. पर देखकर ही पता चल रहा था कि राजनीति में अब केवल और केवल गुंडों का ही अस्तित्व है, क्या आम आदमी ऐसा कर सकता है ??

पुतला बनाकर जलाना

टायर जलाना बीच सड़क पर

डंडा लेकर लहराना

इत्यादि

शायद आपका जबाब भी होगा “नहीं”, पर क्यों और ये लोग कौन हैं जो ये सब कर रहे हैं –

    आम आदमी तो बेचारा अपने घर में दुबका बैठा अपनी रोजी रोटी की चिंता कर रहा था और ये बदमाशी करने वाले लोग राजनैतिक दलों के आश्रय प्राप्त लोग हैं, जिन्हें अगर २-४ लठ्ठ पड़ भी गये तो उसकी भी सारी व्यवस्था इन दलों ने कर रखी है। टी.वी. पर फ़ुटेज दिखाये जा रहे थे लोग डंडे खा रहे थे पर बड़े नेता ४-५ पंक्ति पीछे मीडिया को चेहरा दिखा रहे हैं, फ़िर ब्रेकिंग न्यूज भी आ जाती है कि फ़लाने नेता प्रदर्शन करते गिरफ़्तार, सब अपने को बचा रहे हैं, बस भाड़े के आदमी पिट रहे हैं।

    जो राष्ट्र का एक दिन का नुकसान इन दंगाईयों ने किया, उसकी भरपाई कैसे होगी ? जो हम लोगों के कर से खरीदी गई या बनाई गई सार्वजनिक वस्तुओं की तोड़ फ़ोड़ की गई है, उसका हर्जाना क्या ये खुद भरने आयेंगे ? आम आदमी को सरेआम बेईज्जत करना, क्या ये राजनैतिक दलों को शोभा देता है, (जैसा कि टीवी फ़ुटेज में दिखाया गया, बोरिवली में लोकल से उतारकर लोगों को चांटे मारे गये)। तो इन राजनैतिक पार्टियों को बंद का साफ़ साफ़ मतलब समझा देना था। बंद महँगाई के खिलाफ़ नहीं था बंद था अमन के खिलाफ़, बंद था शांति के खिलाफ़, बंद था आम आदमी के खिलाफ़।

    अगर इन राजनैतिक दलों को वाकई काम करना है तो कुछ ऐसा करते जिससे एक दिन के लिये महँगाई कम हो। अपनी गाड़ियों से सब्जियाँ और दूध भिजवाते तो लागत कम होती और आम आदमी को एक दिन के लिये महँगाई से राहत मिलती। ऐसे बहुत से काम हैं जो किये जा सकते हैं, पर इन सबके लिये इनकी अकल नहीं चलती है।

शायद इस बंद का समर्थन हम भी करते अगर इसका कोई फ़ायदा होता, हमारे फ़ायदे –

सब्जी ५०-८० रुपये किलो है वो १०-२० रुपये किलो हो जायें।

दाल १००-१६० रुपये किलो हैं वो ४०-५० रुपये किलो हो जायें।

दूध ३० – ३९ रुपये लीटर है वो १५-२० रुपये लीटर हो जाये।

पानी बताशे १५ रुपये के ६ मिलते हैं, वो ५-६ रुपये के ६ हो जायें। 🙂

    भले ही पेट्रोल, डीजल और गैस के भाव बड़ें वो सहन कर लेंगे पर अगर आम जरुरत की चीजें ही इतनी महँगी होंगी तो जीना ही मुश्किल हो जायेगा, पेट्रोल डीजल नहीं होगा तो सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल किया जा सकता है। सरकार हड़ताल करने वाले राजनैतिक दलों की भी थी और भविष्य में भी आयेगी परंतु क्या इन लोगों ने महँगाई कम करने के लिये कोई कदम उठाया ? नहीं क्यों इसका कारण इनको भारत बंद के पहले जनता को बताना चाहिये था, और ये भी बताना चाहिये था कि सरकार कैसे महँगाई कम कर सकती है ? आखिर ये भी तो सरकार चलाना जानते हैं। कैसे करों को कम किया जा सकता है, कैसे कमाई बढाई जा सकती है, फ़िर ये भारत बंद से क्या हासिल होगा ?   कुछ नहीं बस जनता को अपनी शक्ति प्रदर्शन दिखाने के ढ़ोंग के अलावा और कुछ नहीं है ये भारत बंद ।

“भारत बंद – मैं इसका विरोध करता हूँ”