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सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १२

      हमारा रथ राजाप्रसाद के महाद्वार से भीतर प्रविष्ट हुआ। द्वारपालों ने आदर से झुककर पिताजी को अभिवादन किया। रथ अश्वशाला के पास रुका। सामने ही राजाप्रसाद में जाने के लिये ऊपर चढ़ती हुई असंख्य सीढ़ियाँ थीं| यों ही मेरे मन में आया और मैं उनको गिनने लगा । एक सौ पाँच थीं वे ! एकाध सीढ़ी कहीं छूट तो नहीं गयी, इस सन्देहवश मैं उनको पुन: गिनने लगा। अरे ! पिछली बार जब गिनीं थी, तब एक सौ पाँच थीं । अब एक सौ छ: कैसे हो गयीं ? मैं विचार करने लगा । पर मुझे क्या करना है ! यह सोचता हुआ अपना उत्तरीय सँभालता मैं हस्तिनापुर की उस वैभवशाली और पवित्र भूमि पर पैर रखने ही वाला था कि इतने में ही सात काले घोड़ों का रथ एकदम वायु की गति से, घड़-घड़ की ध्वनि करता हुआ महाद्वार से भीतर प्रविष्ट हुआ। किसी प्रतिहारी ने पुकार लगा दी, “हस्तिनापुराधिपति महाराज धृतराष्ट्रपुत्र युवराज शिरोमणी दुर्योधनऽऽ !” समस्त सेवक और द्वारपाल एकदम सावधान होकर खड़े हो गये। पिताजी ने भी रथ की ओर झुककर अभिवादन किया।

     “कहिए चाचाजी, चम्पानगरी से कब आये ?” युवराज ने रथ से उतरते हुए हँसकर पूछा ।

     “अभी-अभी ही आया हूँ, युवराज !” पिताजी ने सविनय उत्तर दिया।

        मैं रथ से उतरते ही युवराज दुर्योधन को देखने लगा । वह चौदह-पन्द्रह वर्ष का होगा। उसने वीर-भेष धारण कर रखा था। उस वेष में वह विष्णु की तरह सुशोभित हो रहा था। हाथ में गुम्बदवाली गदा के कारण तो वह बहुत ही प्रभावशाली दिखाई पड़ रहा था। एक ही झटके में कीदकर वह नीचे उतर आया और पिताजी के पास आया। उसकी गति ऐसी गर्वीली और मोहक थी, जो अन्यत्र दुर्लभ होती है। उसका प्रत्येक चरण मत्त हाथी के चरण की तरह दृढ़ता से पृथ्वी पर पड़ रहा था। भुजदण्ड पर से बार-बार फ़िसलते उत्तरीय को सँभालते हुए वह अपने हाथों को सगर्व झटके दे रहा था। उसकी कंजी आँखें बड़ी भेदक और पानीदार थीं। नाक भाले के फ़लक की तरह सीधी और पैनी थी। लेकिन न जाने क्यों, उसकी केवल एक बात अच्छी नहीं लगी, वह यह कि सारे संसार को किसी अजगर की तरह अपनी कुण्डली में कस लेने की इच्छा करनेवाली उसकी भौहें बड़ी ही मोटी और कुटिल थीं ।

मेरी ओर देखते हुए उसने पिताजी से पूछा, “चाचाजी ! यह कौन है ?”

“यह मेरा पुत्र कर्ण है, युवराज !” पिताजी ने उत्तर दिया।

“कर्ण ! बहुत अच्छा । लेकिन इसको आज किसलिए लाये हैं ?”

“आपकी राजनगरी दिखाने के लिए ।“

“ठीक है, अमात्य से मिल लीजिए । वे इसको सारा नगर दिखा देंगे ।“

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ११

    शोण हाथ उठाकर “भैया रुक जा ! भैया रुक जा ऽऽऽ – “ कहता हुआ रथ के पीछे दौड़ने लगा। माँ ने आगे बड़कर तत्क्षण उसको पकड़ लिया । मैंने सन्तोष की साँस ली। रथ आगे दौड़ने लगा । लेकिन शोण फ़िर माँ के हाथों से छूट गया था। दूर अन्तर पर उसकी छोटी-सी आकृति आगे बढ़ती हुई दिखाई दे रही थी। उत्तरीय सँवारता हुआ एक हाथ उठाये वह अब भी दौड़ रहा था।

    हम लोग नगरी की सीमा तक आ पहुँचे। मैंने सोचा था कि शोण हारकर अन्त में वापस लौट जायेगा। लेकिन हाथ उठाकर वह अब भी दौड़ रहा था। मैंने पिताजी को रथ रोकने को कहा। हमको रुकते देख वह और जोर से दौड़ने लगा। परन्तु भोले-भाले बालक-जैसे लगने वाले शोण में भी कितना बड़ा साहस था ! वह मेरे साथ आना चाहता था, इसलिए वह सब कुछ भूलकर दौड़ लगा रहा था। कितना हठी था वह ! हठी क्यों, कितना स्वाभाविक और निश्छल प्रेम था उसका मुझपर ! थोड़ी देर में ही वह हाँफ़ता हुआ हमारे पास आ गया।

    उसकी किशोर मुखाकृति स्वेद से तर हो गयी थी। वह बहुत थक गया था, लेकिन उस स्थिति में भी तत्क्षण आगे बढ़कर वह तेजी से उछलकर रथ में कूद पड़ा। रुआँसा होकर, हाँफ़ने के कारण टूटे-फ़ूटे शब्दों में, वह बोला, “मुझको छोड़कर जा रहा है ? क्यों रे भैया ? तू जायेगा तो…तो मैं भी तेरे साथ ही चलूँगा; वापस नहीं जाऊँगा मैं? मुझको शोण जैसा स्नेही भाई मिला था।

    नगरी के आस-पास के परिचित स्थल पीछे छूटने लगे। अगल-बगल की घनी वनराजि में चम्पानगरी अदृश्य होने लगी। मेरा बचपन भी अदृश्य होने लगा। आस-पास की वह हरियाली, जिस पर मेरे बचपन के चिह्न अंकित थे, क्षण-प्रतिक्षण मेरी आँखों से ओझल होने लगी।

    दो दिन पहले जिस पठार पर हमने राजसभा का खेल रचा था, नगरी के बाहर का वह पठार सामने आया। उस पर मध्य भाग में वह काल पाषाण एकाकी खड़ा-खड़ा तप रहा था। मुझको राजा के रुप में मान देनेवाला पाषाण का वह कल्पित सिंहासन – महाराज वसुसेन का वह सिंहासन – मुझको मौन भाषा में विदा करने लगा। हाथ उठाकर मैंने उसको और चम्पानगरी को वन्दन किया। मेरा जीवन बचपन की हरियाली छोड़कर दौड़ने लगा – चम्पानगरी से हस्तिनापुर की ओर ।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १०

     दूसरे दिन पिताजी ने मुझको हस्तिनापुर चलने के लिए तैयार रहने को कहा। मैं उनकी आज्ञानुसार आवश्यक एक-एक वस्तु एकत्रित करने लगा। मन में अनेक विचारों का जमघट लगा हुआ था। अब चम्पानगर छोड़ना पड़ेगा। यहाँ के आकाश से स्पर्धा करनेवाले किंशुक, सप्तपर्ण, डण्डणी, मधूक, पाटल और खादिर के वृक्ष अब मुझसे अलग होनेवाले थे। यहाँ के पत्ररथ, श्येन, कोकिल, क्रौंच, कपोत आदि पक्षियों से अब मैं बहुत दूर जानेवाला था।

    ऐसी बहुत सी बातें कर्ण सोचने लगा और हस्तिनापुर के बारे में सोचने लगा कि वह कैसा होगा –

    कैसा होगा वह हस्तिनापुर ! सुनते हैं, वहाँ बड़े-बड़े प्रासाद हैं। प्रचण्ड व्यायामशालाएँ, अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से ठसाठस भरी हुई शस्त्रशालाएँ, हिनहिनाते हुए विशालकाय घोड़ों की पंक्तियों से भरी हुई अश्वशालाएँ, सप्तवर्ण बृक्ष की तरह आकाश के गर्भ में जिनके कलश विराजमान हैं, ऐसे भव्य मन्दिर वहाँ हैं। और द्वार की किवाड़ों की तरह जिनके वक्षस्थल हैं, जिनकी भुजाएँऔर जंघाएँ शक्तिशाली हैं, ऐसे असंख्य योद्धाओं से वह हस्तिनापुर भरा हुआ है। सुनते हैं कि वह कुरुकुल के राजाओं की राजधानी है ! किस दिशा मॆं होगी वह ?

     विचारों में लीन मैं, अपना समान रथ में रखता जा रहा था, शोण भी मेरी मदद कर रहा था, परंतु उसे अब भी यह पता नहीं था कि आज मैं भी जा रहा हूँ। “आज मैं तुझको छोड़कर जाऊँगा” यह बात उससे कैसे कहूँ, यही मेरी समझ में नहीं आ रहा था। जब जाने की तैयारी हो गई तो द्वार पर खड़ी राधामाता को झुककर वन्दन किया उसने मुझे ऊपर उठाते हुए मेरे मस्तक को आघ्राण किया। मुझको ह्र्दय से लगाकर शोक से अवसन्न हो बोली, “एक बात ध्यान रखना वसु ! गंगा के पानी में कभी गहराई में मत जाना !” उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी । मेरे रक्त की एक-एक बूँद उन आँसुओं से अत्यन्त प्रेम से कह रही थी, “मात ! तुम्हारे इस उपदेश का मूल्य मैं कैसे सँभालकर रखूँ ? केवल इतना ही कहता हूँ कि साक्षात मृतु के आने पर भी तेरा वसु सत्य से तिल-भर भी कभी विचलित नहीं होगा !”

    उसे कुछ याद आ गया, पुन: पर्णकुटी में गय़ी, और मेरे हाथ पर एक चाँदी की एक छोटी-सी पेटी रख दी। अत्यन्त दुख-भरे स्वर में वह बोली, “वसु, जब-जब तुझको मेरी याद आये, तब-तब तू इस पेटी का दर्शन किया करना । मेरे स्थान पर इसी को देखना ! यह तुम्हारी माँ ही है, यह समझकर इसको सँभालकर रखना !”

     मैंने पेटी उत्तरीय में अच्छी तरह बाँध ली। माता को फ़िर एक बार वन्दन किया। उसने काँपते हाथ से दही की कुछ बूँदे मेरी हथेली पर डालीं। मैंने उनको ग्रहण किया। एकबार उस सम्पूर्ण पर्णकुटी पर दृष्टि डालकर मैंने उसको आँखों में भर लिया। पिताजी ने मुझसे रथ में बैठने को कहा।

     जैसे ही रथ में मैं बैठा, शोण ने पिताजी से पूछा, “भैया कहाँ जा रहा है ?” अब तक उसकी आँखों में आकुलता थी। वे अब रुआँसी हो गयी थीं।

    “मेरे साथ हस्तिनापुर जा रहा है। तू भीतर जा ।” पिताजी ने घोड़ों की वल्गाएँ अपने हाथ में लेकर एकदम उनकी पीठ पर जोर से कशाघात करते हुए कहा । घोड़े एकदम तेजी से उछले और तेजी से दौड़ने लगे।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ९

       जो कुछ हुआ था, उसका पूरा हाल शाम को शोण ने मुझे सुनाया कि उस वृषभ ने मुझको परास्त करने का बहुत प्रयास किये थे, लेकिन मेरे आगे उसकी एक न चली। लगभग दो घण्टों तक वह उछल-उछलकर अपने सिर को झटकता रहा था। उसने अपने शरीर को बहुत-से विचित्र झटके दिये। बीच-बीच में वह जोर से कूदता, पैरों के खुरों से जमीन कुरेदता; लेकिन अन्त में वह थक गया और चुपचाप खड़ा हो गया। उसके मुँह से झाग निकलने लगा। वह लगातार ’फ़ूँ-फ़ँ’ कर रहा था। इतने में शोण भागते हुए गया और पिताजी को बुला लाया। उन्होंने ही उसके नाथ डाली, लेकिन मेरे हाथों की पकड़ छुड़ाते समय उन्हें बहुत ही परेशानी हुई। सुनते हैं कि मेरी देह के हाथ लगाते ही ऐसी जलन होती थी, जैसे कि आग को छू लिया हो।

      मैं विचारम्ग्न हो गया। दो घंटे तक एक जंगली पशु से जूझते रहने पर भी मेरे शरीर पर कोई खरोंच तक नहीं आयी। क्यों ? मेरा शरीर इतना कैसे तप्त हो गया कि छूते ही छाला पड़ जाता था ?

     मैंने उत्सुकतावश शोण से पूछा, “शोण, खेलते समय कभी तुझे चोट लगी है क्या ?”

वह बोला, “अनेक बार”।

      शोण को चोट लगती है। उसकी देह से रक्त बहता है। तो फ़िर मेरी देह से भी वह बहना ही चाहिए। मैं झटपट उठा और सीधा पर्णकुटी में गया। वहाँ अनेक धनुष-बाण पंक्ति-बद्ध रखे हुए थे। सर्र से उनमें से एक बाण मैंने खींच लिया । निश्चय कर हाथ से उस बाण को मैंने सिर से ऊँचा उठाया कि अब उसकी तीक्ष्ण नोक ठीक पैर के पंजे पर आयेगी, और उस बाण को हाथ से छोड़ दिया। अब वह कच से मेरे पैर में घुस जायेगा, यह सोच सिहरकर मैंने तत्क्षण आँखें मीच लीं। बाण पैर पर पड़ा, लेकिन मुझको केवल इतना ही लगा जैसे कि घास की सींक-सी चुभ गयी हो ! बाण की नोक मेरे पैर की खाल में घुसी नहीं थी। मुझे लगा कि मैंने बाण छोड़ने में ही भूल कर दी है, इसलिये बार-बार मैंने वो बाण अपने पैरों पर गिराया। लेकिन एक बार भी उसकी नोक मेरे पैर की त्वचा में नहीं घुस पायी। मैंने गौर से अपने पैर की ओर देखा। वहाँ छोटा सा घाव तक नहीं हुआ था।

        उत्सुकता और संदेह का राक्षस मेरे सामने अनेक प्रश्नों की लटें बिखारकर नाचने लगा। मैं अपने हाथ में लगे बाण को नोक को विक्षिप्त की तरह जंघा में, बाँहों में, छाती में, पेट में – जहाँ जगह मिली वहीं पूरी शक्ति से घुसाने का प्रयत्न करने लगा। लेकिन कहीं भी वह शरीर के भीतर तिल-भर भी नहीं घुस सका। क्यों नहीं घुस सका वह ? क्या मेरे शरीर की त्वचा अभेद्य है ? मन के आकाश में सन्देह की एक बिजली इस ओर से उस छोर तक चमक गयी। हाँ ! निश्चय ही मेरी सम्पूर्ण देह पर किसी से भी न टूट सकनेवाला अभेद्य कवच होना चाहिये। अभेद्य कवच ! वाह, दौड़ते हुए रथ में से भी यदि मैं कूद पड़ूँ तो मुझको कभी चोट नहीं लगेगी ! पत्थर, कंकड़ या किसी शस्त्र से भी मैं कभी घायल नहीं हो सकूँगा। घायल नहीं हो सकूँगा मतलब – मैं कभी मरुँगा नहीं। कभी नहीं मरुँगा। मेरी यह सुवर्ण रंगी त्वचा सदैव इसी तरह चमकती रहेगी। मैं अमर रहूँगा। मुझे कवच मिला है, मेरे कानों मे जगमगाते हुए कुण्डल हैं। अकेले मुझे ही क्यों मिले हैं ? मैं कौन हूँ ?

      सन्देह की टिटहरी मेरे मन के आकाश में कर्कश स्वर में किकियाने लगी। ऐसा प्रतीत होने लगा कि मैं इन सबसे अलग कोई हूँ, इनमें और मुझमें बहुत बड़ा अन्तर है। लेकिन इन विचारों से स्वयं मुझको बहुत दुख होने लगा । जिस राधामाता का मैंने दूध पिया था, जिसके रक्त-मांस का उत्तराधिकार पाकर मैं बड़ा हुआ था, जिसने मेरे लिए कठिन परिश्रम के पर्वत को धारण किया, उसके प्रेम से – उपर्युक्त विचारों द्वारा क्या मैं कृतघ्न नहीं हो रहा था ? मेरा मन विद्रोह कर उठा और कठोर शब्दों में मुझको चेतावनी देने लगा, “मैं कौन हूँ ? मैं कौन हूँ ? – यह पागलों की तरह मत चिल्ला ! ध्यान रख कि तू तात अधिरथ और राधामाता का पुत्र है ! सूतपुत्र कर्ण है ! शोण का बड़ा भाई कर्ण है ! सारथियों के कुल का एक सारथी है ! एक सारथी !”

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ८

      इस प्रकार हमारी बातें हो ही रही थीं कि एक विशालकाय वृषभ जय-जयकार की चिल्लाहट से बिदक गया। अपनी झब्बेदार पूँछ एकदम खड़ी कर ली। आवाज जिस ओर से आ रही थी, उस ओर कान लगाये, फ़ुफ़कारते हुए, नथुने फ़ुलाये और सींगों को आगे किये हुए वह कान उठाकर सीधा उस और दौड़ने लगा, जिस ओर हम सब बैठे हुए थे। ब्रह्मदत्त ने उसका वह भयंकर रुप देखा और जान बचाकर जिधर अवसर मिला उधर भागता हुआ, वह हाथ ऊँचा कर चिल्लाया, “सेनापति…. महाराज… भागिए-भागिए … राज्य पर … संकट…..”

      वर्षा का पानी धरती पर पड़ते ही जैसे क्षण भर में ही, सब और फ़ैल जाता है, वैसे ही सबके सब क्षण-भर में नौ-दो ग्यारह हो गये। शोण मेरे पास आकर भाग जाने के लिये मेरा हाथ पकड़कर खींचने लगा। मैं झटपट उसी पाषाण पर तनकर खड़ा हो गया। शोण को ऊपर चढ़ाकर उसको अपने पीछे खड़ा कर लिया। झंझावत की तरह वह वृषभ हमारी और आने लगा। उसकी आँखें आग उगल रही थीं। सामने जो कोई वस्तु दिखाई दे, उसी को ठोकर मारकर उसकी धज्जी उडाने के लिये उसके मस्तक की नस-नस शायद व्याकुल हो उठी थी। उसके मुख से निरन्तर लार टपक रही थी। सिंहासन के सम्मुख आते ही वह क्षण-भर रुका। अगले पैरों के खुरों से उसने खर-खर मिट्टी खोदी और सींग गड़ाकर वह सूची बाण की तरह एकदम उछला। मैंने क्षण-भर आकाश की ओर देखा।

       सूर्यदेव अपने रथ के असंख्य घोड़ों को केवल अपने दो हाथों से ही सरलता से सँभाल रहे थे। कुछ समझ में आये, इसके पहले ही मैंने शोण को पीछे धकेल दिया और दूसरे ही क्षण मेरे हाथों की दृढ़ पकड़ वृषभ के सींगों के चारों ओर कस गयी। शोण ने “भै‍ऽयाऽऽ“ कहकर जो चीत्कार किया वह मुझको अस्पष्ट-सा सुनाई दिया। इसके बाद क्या हुआ, यह मुझको अच्छी तरह याद नहीं रहा। लेकिन मुझको उठाकर फ़ेंकने के लिए उसकी सींगों के चारों ओर कसकर लिपटते गये थे। मुझको ऐसा लगा, जैसे कि मेरा शरीर रथचक्र की तप्त लौह-हाल की तरह प्रखर हो गया हो। इसके बाद वसु कौन था, कहाँ था, इसका कुछ भी पता मुझको नहीं चला।

       जिस समय मेरी आँख खुली, मैं उसी पठार पर था, लेकिन मेरा सिर माँ की गोद में था। समीप ही पिताजी खड़े थे। उन्होंने हाथ में उस वृषभ की नाथ पकड़ रखी थी। थोड़ी देर पहले आँखें लाल किये उछलनेवाला वृषभ अब थककर हाँफ़ता हुआ खड़ा था। उसके मुँह से शायद झाग निकल रहा था। मैंने जैसे ही आँखें खोली शोण के मुँह पर एक हँसी आ गई जो कि पहले से मेरे सिर के पास खड़ा था। सब बच्चे मुझे घेरकर खड़े थे, फ़िर मैं अपनी सारी शक्ति एकत्रित करके खड़ा हुआ ये देखने के लिये कि मुझे चोट आ गई होगी क्योंकि मुझे थकान का अनुभव हो रहा था। देह पर कहीं भी जरा-सी खरोंच तक नहीं आयी थी। पिताजी से उस वृषभ की नाथ अपने हाथ में ले ली और हाँफ़ते हुए वृषभ की पीठ पर कसकर थाप मारी। उसकी त्वचा भय से क्षण-भर को सिहर उठी। अपनी पूँछ अन्दर की ओर करता हुआ वह तत्क्षण मुझसे दूर हट गया। पास ही उस वृषभ का गोपाल खड़ा था, मैंने उस वृषभ की नाथ उसके हाथ में दे दी। वह गोपाल आँखें फ़ाड़कर मेरी ओर देखता हुआ अपना वृषभ लेकर चला गया। राजसभा भी समाप्त हो गई।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ७

              एक दिन नगर के सभी बालक इकट्ठे होकर नगर के बाहर पठार पर खेल रहे थे। किसी ने राजसभा का खेल खेलने की कल्पना निकाली थी। राजसभा का चित्र गढ़ रखा था। पिताजी हस्तिनापुर से आये थे और मैं शोण को बुलाने गया था, वो सेनापति बना था। आते ही पिताजी ने एक बड़ी आनन्ददायक बात बतायी कि हस्तिनापुर वापिस जाते समय वे मुझको भी अपने साथ ले जाने वाले थे वहाँ द्रोण नामक अत्यन्त युद्ध-कुशल और विद्वान गुरुदेव हैं, पिताजी मुझको युद्ध-विद्या की शिक्षा प्राप्त करने के लिये उनकी देख-रेख में रखना चाहते थे। इसलिये मैं एकदम शोण को ढूँढ़ता हुआ आया कि मैं उसे समझा बुझाकर यह समाचार बताऊँगा। क्योंकि भय था कि समाचार सुनकर कहीं वह भी हस्तिनापुर चलने की हठ न कर बैठे ! उसको समझाना हम सबके लिये टेढ़ी खीर था।

         पठार के पास जैसे ही मैं पहुँचा शोण ने जोर से पुकारा “वसु भैया, जल्दी आ।“ मैं झटपट उनके पास गया। जैसे ही वहाँ पहुँचा, सब मुझको घेर कर खड़े हो गये। सबके सब बहुत जोर-जोर से चिल्लाने लगे, इसलिए मैं तत्क्षण यह समझ ही नहीं पाया कि वे क्या कह रहे हैं ?

        “राजा…वसु…कुण्डल…सेनापति” आदि विचित्र शब्द गूँजते हुए कानों से टकराने लगे। अन्त में मैं ही जोर से चिल्लाया , “पहले सब चुप तो हो जाओ !”

      “हम सबने राजसभा तैयार की है। केवल योग्य राजा ही हमको नहीं मिल रहा था। तेरे कुण्डलों के कारण हमने तुझी को राजा बनाने का निश्चय किया है।“ सबकी और से ब्रह्मदत्त बोला और सबने एक साथ चिल्लाकर उसका समर्थन किया।

“अरे मैं तो शोण को बुलाने के लिये आया हूँ”। मैं बोला।

       “ऊँहूँ, शोण नहीं, सेनापति ! और सेनापति को बुलाने के लिये महाराज नहीं जाया करते हैं। हम जैसे सेवकों को आज्ञा दी जाती है ।“ नटखट ब्रह्मदत्त धूर्तता से बोला।

     “और आप हैं सेनापति ! आपको महाराज को इस प्रकार नाम लेकर बुलाना उचित है क्या ? कह रहे थे, ’अरे वसु इधर आ !’ सेनापति ही अनुशासन भंग करने लगेंगे तो फ़िर सेना क्या करेगी ?” अमात्य बने हुए ब्रह्मदत्त ने शोण को चेतावनी दी।

     मुझे जबरदस्ती एकदम उस काले पत्थर के सिंहासन पर बैठा दिया और अत्यन्त आदर से झुकता हुआ ब्रह्मदत्त बोला, “चम्पानगराधिपति वसुसेन महाराज की……”

      सबने अत्यन्त आनन्द से उसके प्रत्युत्तर में कहा, “जय हो !” सब नीचे बैठ गये। अब मेरा छुटकारा होना असम्भव था, इसलिये मैं भी राज की शान से बोला, “अमात्य, सभा का काम-काज सभा के सम्मुख प्रस्तुत करने की अनुज्ञा दी जाती है।“

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ६

    हमारी पर्णकुटी के सामने एक बड़ा वट वृक्ष था। वृक्ष क्या, अनेक रंगों के और अनेक प्रकार की बोली बोलने वाले पक्षी जिस पर रहते थे, ऐसा छोटा-सा एक पक्षि-नगर ही था।

    मैं उस वृक्ष की ओर देख रहा था। उसका आकार गदा की तरह था। ऊपर शाखाओं का गोलाकार घेरा और नीचे सुदृढ़ तना। इतने में अजीब-सी ’खाड़’ आवाज हुई, इसलिए मैंने उस ओर देखा। हमारे पड़ोस में रहनेवाला भगदत्त नामक सारथी अपने हाथ में लगे हुए प्रतोद को फ़टकार रहा था। मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। हाथ में लगे प्रतोद को गरदन के चारों ओर लपेटता हुआ वह बोला, “क्यों वसु, क्या देख रहे हो?”

“कुछ नहीं, वह पक्षी देख रहा हूँ।“ मैंने उत्तर दिया।

     “इस वटवृक्ष पर क्या पक्षी देखते हो, पक्षी देखने हों तो अरण्य में अशोक-वृक्ष के पास जाकर देखो। इस वटवृक्ष पर अधिकतर कौए ही रहते हैं। सड़े पके फ़लों को खाने के लिए वे ही आते हैं।“ हाथ में लगे प्रतोद के डण्डे से नीचे पड़े हुए फ़लों को फ़ेंकता हुआ वह बोला।

“कौए ?”

“हाँ ! भारद्वाज, श्येन, कोकिल आदि पक्षी भूले-भटके भले ही आ जायें यहाँ। एकाध कोकिल आ जाता है, वह भी कोकिल की धूर्तता से।“

“धूर्तता कैसी ?” मैंने उत्सुकता से उससे पूछा।

     “अरे, कोकिला अपना अण्डा मादा कौआ की अनुपस्थिती में चुपचाप उसके घोंसले में लाकर रख देती है। अण्डे का रंग और आकार बिल्कुल मादा कौए के अण्डे जैसा ही होता है। इसलिए मादा कौआ को यह सन्देह ही नहीं होता कि अपने घर में किसी और का अण्डा रखा है। फ़िर मादा कौआ कोकिला के अण्डे को सेती है। उसके बाद सप्तस्वर में तान लेकर आस-पास के वातावरण को मुग्ध कर देने वाली कोकिल मादा कौआ के नीड़ में बड़ा होने लगता है।“ उसने प्रतोद को कण्ठ के चारों ओर लपेट लिया।

     “कोकिल और वह मादा कौआ के घोंसले में ?” मैं विचार करने लगा। यह कैसे सम्भव हो सकता है ? भगदत्त की बात असत्य न होगी, इसका क्या प्रमाण है ? और थोड़ी देर के लिए यदि यह सत्य मान भी लिया जाये तो क्या हानि है। हो सकता है मादा कौआ के घर में कोकिल पलता हो। लेकिन वह कौआ बनकर थोड़े ही पलता है। वसन्त ऋतु का अवसर आते ही उसकी सप्तस्वरों की तान पक्षियों से स्पष्ट कह ही देती है कि, “मैं कोकिल हूँ। मैं कोकिल हूँ।“

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ५

    पर्णकुटी में पिताजी के लाये हुए अनेक प्रकार के और अनेक आकारों के धनुष थे। पता नहीं क्यों, लेकिन जब मैंने पहली-पहली बार उनमें से एक धनुष देखा था, और उसके प्रति मुझको जो आकर्षण लगा था, वह अद्भुत था। उसकी कपोत की ग्रीवा की तरह मुड़ी हुई कमान और नखमात्र से छे़ड़ देने पर ही टंकार करनेवाली प्रत्यंचा मुझको बहुत अच्छी लगी थी। पिताजी के हाथ से वह छीनकर उछलते हुए आँगन में घोड़े की पूँछ के बाल से क्रीड़ा करते हुए शोण के पास आया तो वह घोड़े की पूँछ के बाल निकालने में व्यस्त था, ये उसका प्रिय खेल था, मैं उसे बोला कि छोड़ अब इस खेल को, और धनुष दिखाते हुए बोला कि “देख ये है अपना नया खिलौना”।

    उत्सुकता से नाचता हुआ मेरे पास आकर मेरे हाथ से धनुष लेकर बड़ी बड़ी आँखें बनाकर बोलता है “यह तो बड़ा भारी है रे ?”

    और कर्ण के मन में यहीं से धनुर्विद्या के प्रति प्रेम और लगाव हुआ। वह पहले वट वृक्ष पर फ़िर हिलने वाली आम की डालियों के डण्ठल और एक साथ दो बाणों को भिन्न भिन्न लक्ष्यों का वेध करना। कर्ण सीखना चाहता था लक्ष्य को न देखते हुए आवाज की दिशा में बाण चलाना, जैसे साही नामक जन्तु रक्षा के लिये अपनी देह से सौ-दो सौ नलिकाएँ एक साथ छोड़ सकता है, उसी तरह से एक साथ असंख्य बाण छोड़ना सीखना चाहता था।

     कर्ण अकसर अपने कान के मांसल कुंडलों को हाथ लगाकर कुछ महसूस करने की कोशिश करता था। वैसे कुण्डलों के संबंध में कभी भी माँ से कोई भी सन्तोषप्रद उत्तर नहीं मिल सका था। एक बार तो उसने साफ़ साफ़ पूछा था “शोण और मैं – दोनों सगे भाई हैं न, फ़िर उसके क्यों नहीं है कुण्डल ?” भयभीत सी घबराहट में मेरे कुण्डलों की तरफ़ देखती और सचेत होकर कहती “मुझसे मत पूछो यह ! अपने पिताजी से पूछो।“

      मैं (कर्ण) उसी समय पिताजी के पास जाकर वही प्रश्न किया तो उन्होंने बड़ा ही विचित्र उत्तर दिया बोले “गंगामाता से पूछ इसका कारण ! कभी दिया तो इस प्रश्न का उत्तर वही तुझको देगी !” विचारमग्न सा चला गंगामाता भला कैसे उत्तर दे देगी ! क्या नदी कभी बोल सकेगी ? ओह, ये बड़े लोग कैसा व्यवहार करते हैं। छोटों से इस तरह की बातें क्यों करते हैं।

     उसी सायं सबकी दृष्टि से बचकर मैं अकेला ही गंगामाता के तट पर जाकर बैठ गया। उसकी लहर-लहर से मैंने प्रश्न पूछा, परन्तु एक भी लहर मेरे इस प्रश्न का उत्तर न दे सकी। उस दिन मुझको संसार के सभी बड़े लोग कपटी लगे। छोटों को अज्ञान के अन्धकार में रखने का काम वे ही करते हैं, नहीं तो फ़िर इतनी बड़ी गंगामाता चुप क्यों रही ?

      फ़िर वही प्रश्न अगले दिन खेलते समय मैंने शोण से किया, उसके उत्तर को सुनकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह बोला “मैं भी यह बात नहीं जानता हूँ । लेकिन इतना अवश्य है कि तुम्हारे कुण्डल मुझको बहुत ही अच्छे लगते हैं। रात को जब तुम सो जाते हो, ये तारों की तरह अविरत जगमगाते रहते हैं। उनका नीला-सा प्रकाश तुम्हारे लाल गालों पर बिखरा रहता है।“

     मेरे मन में एकदम अनेक प्रश्न उमड़ आये। जो अन्य किसी के पास नहीं थे, ऐसे दो मांसल कुण्डल मेरे कानों में थे। इतना ही नहीं वे चमकते भी थे। मुझको यों ही क्यों मिले ? कौन हूँ मैं ? शोण के दोनों कन्धों को झकझोरते हुए मैंने तड़पकर उससे पूछा, “शोण मैं कौन हूँ ?”

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ४

    लौटते समय सन्ध्या हो जाने के कारण श्येन, कोकिल, कपोत, भारद्वाज, पत्ररथ, क्रौंच आदि अनेक पक्षियों के झुण्ड चित्र-विचित्र आवाजें करते हुए, धूम मचाते नीड़ों की ओर लौटते हुए हमको दिखाई देते। उस समय सूर्यदेव पश्चिम की ओर स्थित दो अत्युच्च पर्वतों के पीछे प्रवेश कर रहे होते थे। दिन भर अविरत दौड़ने के बाद भी उनके रथ के घोड़े जरा भी थके हुए नहीं होते थे। वे दो पर्वत मुझको उनके प्रासाद के विशाल द्वार पर खड़े हुए दो द्वारपाल से लगते थे। क्षण-भर में ही वह तेजपुंज हमारी दृष्टि की ओट में हो जायेगा, इस कल्पना से ही वियोग की एक प्रचण्ड लहर अकारण ही मेरी नस-नस में फ़ैल जाती । मैं एकटक उस बिम्ब की ओर देखता रहता। शोण मुझको जोर से झकझोरकर आकाश में शोर मचाता हुआ गरुड़ पक्षियों का झुण्ड दिखाता। अन्य समस्त पक्षियों की अपेक्षा ये बहुत अधिक ऊँचाई पर उड़ते हुए जाते थे। शोण पूछता, “भैया, ये कौन से पक्षी हैं रे ?”

“गरुड़ ! सभी पक्षियों का राजा !”

“भैया, तू जायेगा क्या रे इन गरुड़ों की तरह …. खूब-खूब ऊँचा ?” वह अनर्गल प्रश्न पूछता ।

“पगले ! मैं क्या पक्षी हूँ जो ऊँचा जाऊँगा ?”

“अच्छा भाई, मैं जाऊँगा गरुड़ की तरह खूब ऊँचा। इतना ऊँचा कि तू कभी देख नहीं पायेगा। बस, अब ठीक है न ?”

    पश्चिमीय क्षितिज की ओर देखने लगता और अन्त में मैं ही उससे एक प्रश्न पूछता, “शोण, वह सूर्य-बिम्ब देख रहे हो ? उस बिम्ब की ओर देखने पर क्या अनुभव कर रहे हो तुम ?”

     मुझे लगता कि वह सूर्य बिम्ब की ओर देखकर जैसा मुझे लगता है उसी तरह की कोई बात अपने शब्दों में कहेगा। लेकिन सूर्य बिम्ब की ओर देखकर उसकी नन्ही आँखें उसके तेज से मिंच जातीं और फ़िर थोड़ी देर बाद आँखें मीड़ता हुआ मेरे कानों की ओर देखकर वह जल्दी कहता, “तेरे चेहरे जैसा लगता है वह, वसु भैया !”

मैं अपने कानों से हाथ लगाता। दो मांसल कुण्डल हाथ में आ जाते। कहते हैं कि ये मेरे जन्म से ही हैं !

     शोण की शिकायत शुरु हो जाती , “तुझपर ही माँ का प्यार अधिक है, भैया ! देख ले, इसीलिए उसने तुझको ही ये कुण्डल दिये हैं ! मेरे पास कहाँ है कुण्डल ?”

     आवेश में मैं हाथ में लगे प्रतोद का प्रहार घोड़ों की पीठ पर करने लगता। अपने खुर उछालकर रास्ते पर धूल उड़ाते हुए वे हिनहिनाते हुए वायुवेग से दौड़ने लगते । पास बैठा हुआ, शोण, दौड़ते हुए घोड़े, पीछे छूटते जाते अशोक, ताल, किंशुक, मधूक, पाटल, तमाल, कदम्ब, शाल, सप्तपर्ण आदि के ऊँचे घने पत्तोंवाले वृक्ष – इनमें से किसी का भी मुझको भान नहीं रहता। केवल सामने का पीछे भागता हुआ मार्ग और उसके मोड़ – बस यही दिखाई देते। मेरे मन में एक विचार कौंध जाता —- “ पीछे छूटते हुए इस रास्ते के साथ साथ मैं प्रकाश के साम्राज्य से किसी अन्धकारमय भयानक समुद्र की ओर खिंचा चला जा रहा हूँ ।“

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३

        मेरे पिता कौरवराज धृतराष्ट्र के रथ के राजसारथी थे। वे अधिकतर कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर में रहा करते थे। वह नगर तो बहुत दूर था। कभी कभी वे वहाँ से एक बड़ा रथ लेकर चम्पानगरी में आते थे। उस समय मेरे और शोण के उत्साह का रुप कुछ और ही होता था। जैसे ही पर्णकुटी के द्वार पर रथ खड़ा होता था, शोण उसमें कूद पड़ता और घोड़ों की वल्गाएँ पिताजी के हाथों से हठात़् अपने हाथों में लेकर जोर से मुझको पुकारता, “वसु भैया, अरे जल्दी आ । चलो, हम गंगा के किनारे से सीप ले आयें।“ उसकी पुकार सुनकर मैं अपूप खाना वैस ही छोड़कर पर्णकुटी से बाहर आता।

         फ़िर हम दोनों मिलकर पिताजी के रथ में बैठकर वायुवेग से नगर के बाहर गंगा के किनारे की ओर जाते। हलके पीले रंग के वे पाँच घोड़े अपने पुष्ट पूँछों के बालों को फ़ुलाकर, कान खड़े कर स्वच्छन्द उछलते जाते। जब वह वल्गाओं से घोड़ो को नियन्त्रित करने की कोशिश करता तो उसे देखते ही बनता और मुझे बुलाता, तो मुझको उससे विलक्षण प्रेम होने लगता। वल्गाएँ मैं अपने हाथ में ले लेता और वह प्रतोद का दण्ड उलटा कर घोड़ों के अयाल तितर बितर कर देता। ’हा ऽऽ हा ऽऽ’ कहकर उनको दौड़ाने के लिये प्रतोद के डण्डे से जब वह मारता तब घोड़े चेतकर पहले की अपेक्षा और अधिक तेज दौड़ने लगते। फ़िर हम दोनों लगभग आधा योजन की दूरी पार कर गंगामाता के किनारे रुकते। लेकिन मेरे हाथ पैर सुन्न हो जाते, अकारण ही मुझे लगता कि अवश्य ही इस पानी से मेरा कुछ संबंध है, उसी क्षण दूसरा विचार आता । छि:, भला पानी से मनुष्य का क्या नाता हो सकता है ? वह तो प्यास से व्याकुल प्राणी को तृप्ती प्रदान करने वाला एक साधन मात्र है वह ! अपनी छोटी-छोटी आँखों से मैं उस पात्र को गटागट पी लेता। उस समय मेरी इच्छा होती कि यदि मेरे सम्पूर्ण शरीर में आँखें होतीं, तो कितना अच्छा होता !

       शोण के बालप्रश्नों की बौछारें होने लगती – “भैया, ये सीपियाँ क्या पानी से ही बनती हैं रे ?”

“हाँ”

“फ़िर तो इनपर ये सारे रंग पानी ने ही किये होंगे ?”

“हाँ”

“तो फ़िर पानी में ये रंग क्यों नहीं देखाई पड़ते ?”

        और मैं उसके प्रश्नों का उत्तर देना कभी कभी टाल देता था। क्योंकि मैं जानता था कि एक प्रश्न के बाद दूसरा प्रश्न उसके पास अवश्य तैयार होगा। और सच पूछो तो कभी-कभी उसके प्रश्न का उत्तर मुझे भी ज्ञात नहीं होता था। उसके प्रश्नों को दूर करने का प्रयत्न करने के लिये मैं कहता “चल, हम लोगों को बहुत देर हो गयी है।“