Tag Archives: बैंगलोर
वैवाहिक संस्था का बदलता स्वरूप… और युवा पीढ़ी..
सामाजिक बंधन कितने जल्दी दम तोड़ते जा रहे हैं, कल तक जो वैवाहिक संस्था में बहुत खुश थे रोज ही उनके ठहाकों की आवाजें आती थीं और आज वैवाहिक संस्था को चलाने वाले वही दो कर्णधार अलग अलग नजर आ रहे थे, एक फ़्लैट की आगे गैलरी में और दूसरा फ़्लैट की पीछे गैलरी में ।
उनका पारिवारिक जीवन बहुत ही अच्छा चल रहा था और उनको देखकर हमेशा लगता था कि परस्पर इनका बंधन मजबूत हो रहा है, परंतु कल पता नहीं क्या हुआ, दोनों के बीच इतनी बड़ी दूरी देखकर मन बेहद दुखी हुआ । दोनों विषादित नजर आ रहे थे, मुझे तो दोनों की हालत देखकर ही इतना बुरा लग रहा था और वे दोनों तो इन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, कितना विषाद होगा उनके बीच।
पति – पत्नि का संबंध |
कैसा लगता होगा जब उसी साथी को देखने की इच्छा ना हो जो आपका जीवन साथी हो, जिसको प्यार करते हों और साथ जीने मरने की कसमें खायी हों। यह रिश्तों की डोर कितनी पतली और नाजुक है जिस पर आजकल की पीढ़ी सँभल नहीं पा रही है। जितनी तेजी से सामाजिक परिवेश बदल रहा है उतनी तेजी से युवा पीढ़ी में परिपक्वता नहीं बढ़ रही है। केवल कैरियर में अच्छा करना परिपक्वता की निशानी नहीं होता, सामाजिक और पारिवारिक समन्वयन परिपक्वता की निशानी होता है।
पिछले वर्ष से इस वैवाहिक संस्था को मजबूत होता हुआ उनके बीच देख रहा था परंतु आज उसने मुझे झकझोर दिया, महनगरीय संस्कृति में किसी के मामले में बोलना अनुचित होता है, दूसरी भाषा दूसरी संस्कृति भी कई मायने में दूरियाँ बड़ा देती हैं, परंतु आखिर परिस्थितियाँ तो सबकी एक जैसी होती हैं, और विषाद भी, केवल विषाद के कारण अलग अलग होते हैं।
युवा पीढ़ी जिस तेजी से वैवाहिक संस्था को मजबूत बनाती है, एकल परिवार में वह वैवाहिक संस्था छोटी छोटी बातों पर बहुत कमजोर पड़ने लगती है और कई बार इसके अच्छे परिणाम देखने को नहीं मिले हैं, परंतु अगर वही युवा जोड़े में एक भी परिपक्व होता है तो वह वैवाहिक संस्था हमेशा मजबूती से कायम होती है।
आजकल वैवाहिक संस्था में दरार कई जगह देखी है, परंतु उससे ज्यादा मैंने प्यार, मजबूती और रिश्तों में प्रगाढ़ता देखी है। मेरी शुभकामनाएँ हैं युवा पीढ़ी के लिये, वे परिपक्व हों और वैवाहिक संस्था का महत्व समझकर जीवन का अवमूल्यन ना करें।
क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ? क्या इसीलिये आत्महत्या के आंकड़े बढ़ रहे हैं ? (Why Childs are not emotional ? why suicidal cases are increasing ?)
शिक्षा में बदलाव बेहद तेजी से हो रहे हैं और शिक्षक और छात्र के संबंध भी उतनी ही तेजी से बदलते जा रहे हैं। कल के अखबार की मुख्य खबर थी यहाँ बैंगलोर में इंजीनियरिंग महाविद्यालय के छात्र ने होस्टल के कमरे में पंखे से फ़ांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। खबर लगते ही हजारों के झुंड में छात्र इकठ्ठे हो गये और महाविद्यालय प्रशासन के खिलाफ़ नारेबाजी करने लगे। पुलिस बुलाई गई, परंतु छात्रों ने पुलिस को भी खदेड़ दिया और महाविद्यालय की इमारत को भी नुक्सान पहुँचाया। बाद में महाविद्यालय के मालिक का बयान आया कि वह छात्र कमजोर दिल का था और लगातार पिछले तीन वर्षों से उस छात्र का प्रदर्शन बहुत कमजोर था।
यह खब्रर पढ़ने के लिये नहीं लिखी हैं मैंने, सही बताऊँ तो मैंने कल अखबार ही नहीं पढ़ा था पर कल रात्रि भोजन पर भाई से चर्चा हो रही थी तब इस और ध्यान गया और आज सुबह कल का अखबार पढ़ पाया । मन अजीब हो उठा और लगा क्या महाविद्यालय प्रशासन ने कभी उस छात्र के मन में क्या चल रहा है, यह जानने की कोशिश की। महाविद्यालय प्रशासन महज छात्र के घर एक पत्र भेजकर अपनी जिम्मेदारी से तो नहीं बच सकता ।
आज छात्र बहुत ही संवेदनशील परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, क्योंकि वे अब भावुक नहीं रहे, अब छात्रों से भावनाओं के बल पर कोई भी कार्य करवाना असंभव है। उसके पीछे बहुत सारे कारण जिम्मेदार हैं, परवरिश के बेहतर माहौल में कमी, शिक्षकों से अच्छा समन्वयन न होना । ऐसे बहुत सारे कारण हैं। क्योंकि आजकल बच्चों को इंटरनेट पर सब मिल जाता है तो कई बच्चे तो दोस्त भी नहीं बनाते हैं और इंटरनेट पर ही अपना समय बिताते पाये जाते हैं।
अब मेरे मन में जो सवाल उठ रहे हैं कि क्या महाविद्यालय का छात्र पर अच्छे प्रदर्शन के लिये दबाब बनाना उचित था, और अगर दबाब बनाया गया तो उसे क्या उचित मार्गदर्शन दिया गया । छात्र के घर पर पत्र भेजने से छात्र की मानसिक हालात को समझा जा सकता है। हरेक छात्र के माता-पिता यही सोचते हैं कि बेटा अच्छा पढ़ रहा है परंतु अगर महाविद्यालय से इस प्रकार का पत्र मिले तो वे यकीनन ही अपने बेटे पर क्रुद्ध होंगे, और उसे परिस्थिती से बचने के लिये उस छात्र ने आत्महत्या कर ली हो ? छात्र तो पहले से ही विषादग्रसित था, उसको मनोवैज्ञानिक तरीके से संभालना चाहिये था। परंतु ऐसा ना हुआ, अब उन माता-पिता पर क्या गुजर रही होगी जिन्होंने अपना जवान बेटा इसलिये खो दिया क्योंकि वह पढ़ाई में कमजोर था, नहीं ? वह पढ़ाई में कमजोर होने के कारण विषादग्रसित हो चला था।
पढ़ाई में कमजोर होना कोई बुरी बात तो नहीं, पढ़ाई ही तो सबकुछ नहीं है, उससे बढ़कर होता है जीवन जीने का हौसला और उस विषादित परिस्थिती से निकालने में सहायक परिवेश और परवरिश। कमजोर पढ़ाई वाले पता नहीं कितनी आगे निकल गये हैं और पढ़ाई वाले कहीं पीछे रह गये हैं।
मुख्य सवाल जो मेरे मन में है और उसका उत्तर खोजने की कोशिश जारी है मनन जारी है, क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ? और उनके आधुनिक परिवेश में उन्हें कैसी परवरिश देनी चाहिये ?
हैलो… हिन्दी आता है क्या ? (Hello ! Do you know Hindi ?)
ऑफ़िस से आते समय थोड़ा पहले ही घर के लिये उतरना पड़ा तो सिग्नल पर एक आदमी टकराया और बोला “हैलो… हिन्दी आता है क्या?” हमने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और चुपचाप चल दिये कि जैसे अपने को नहीं किसी और को बोला हो।
कई बार ऐसे व्यक्ति मिले हैं, जो कि उत्तर भारतीय लोगों को निशाना बनाते हैं और उनसे मदद के नाम पर ठगी करते हैं, इसलिये अब तो हम बिल्कुल मदद नहीं करते हैं, हाँ इसमें अगर कोई जरूरतमंद होता है तो भी उसकी जानबूझकर मदद नहीं कर पाते हैं।
ये वाक्ये केवल बैंगलोर में ही नहीं भारत में लगभग सभी जगह होते हैं। अगर बात करने रूक जाओ तो उसकी आँखों मॆं विशेष चमक आ जाती है और पता नहीं कहाँ से उसका परिवार भी प्रकट हो जाता है जिसमें अमूमन उसकी पत्नी और एक याद दो बच्चे होते हैं, जो कि फ़टॆहाल होते हैं। और फ़िर शुरू होता है खेल रूपये ऐंठने का । कहा जाता है हम दूर दराज से आये हैं और यहाँ काम नहीं मिल पाया है और अब खाने के भी पैसे नहीं है, खाने के ही पैसे दे दीजिये, घर वापस जाना है कैसे जायें समझ नहीं आ रहा । इस सबसे ही माजरा समझ में आ जाता है कि इन लोगों ने लोगों के हृदय को झकझोर कर रूपये ऐंठने का धंधा बना रखा है ।
क्योंकि जहाँ तक मैं सोचता हूँ आज भी दूर दराज के गाँव का कोई भी व्यक्ति शहर कुछ करने आयेगा तो पहली बात तो वह अकेला आयेगा ना कि अपने परिवार के साथ, और अगर वह कुछ करना चाहता है तो बड़े शहरों में इतना काम होता है कि कोई न कोई काम मिल ही जाता है, और अगर कोई काम न करना चाहे तो वह अलग बात है।
गाँव का व्यक्ति कभी भी अपने स्वाभिमान से डिगेगा नहीं, कि उसे भीख माँगनी पड़ जाये, वह भूखे रह लेगा या वापिस बिना टिकट जैसे तैसे अपने गाँव वापिस चले जायेगा, किंतु शायद ही वह अपने स्वाभिमान से समझौता करेगा, हो सकता है कि कुछ लोगों की परिस्थितियाँ अलग हों। किंतु इतने सारे लोगों की परिस्थितियाँ तो एक जैसी नहीं हो सकतीं।
होगेन्नाकल जलप्रपात अप्रितम सौंदर्य (Hogenakkal Fall)
गालों पर तिरंगा.. भ्रष्टाचार..जन्माष्टमी..इस्कॉन..और अमूल बेबी बॉय
शाम को घर से निकले कृष्णजी के दर्शन के लिये तो देखा कि घर के सामने ही चाट की दुकान पर युवाओं की भीड़ उमड़ी हुई है और चाटवाले भैया का हाथ खाली नहीं है, कहीं किसी नौजवान युवक और युवतियों के गालों पर तिरंगा बना हुआ है तो किसी ने तिरंगे रंग की टीशर्ट पहन रखी थी। सब भ्रष्टाचार का विरोध कर के आ रहे थे। बैंगलोर में भ्रष्टाचार का विरोध फ़्रीडम पार्क में हो रहा है जिसके बारे में आज बैंगलोर मिरर में एक समाचार भी आया है कि ऑटो वाले जमकर चाँदी काट रहे हैं, मीटर के ऊपर ५०-१०० रूपये तक माँगे जा रहे हैं और पुलिस वाले चुपचाप हैं और लोगों को कह रहे हैं कि यही तो इनके कमाने के दिन हैं।
बड़ा अजीब लगता है कि लोग ऑटो वालों के भ्रष्टाचार से परेशान हैं और ज्यादा पैसा लेना भी तो जनता के साथ भ्रष्टाचार है और उसके बाद जनता भ्रष्टाचार का विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, “मैं अन्ना हूँ।” और भी फ़लाना ढ़िकाना… पर खुद भ्रष्टाचार खत्म नहीं करेंगे, अरे भई जनता समझो कि भ्रष्टाचार खुद ही खत्म करना होगा।
यहीं घर के पास ही एक कन्वेंशन सेंटर में इस्कॉन बैंगलोर ने जन्माष्टमी के अवसर पर आयोजन किया था, आयोजन भव्य था। दर्शन कर लिये पर पता नहीं चल रहा था कि ये मधु प्रभू वाला इस्कॉन है या मुंबई इस्कॉन वाला, आपकी जानकारी के लिये बता दूँ कि मधु प्रभू वाले राजाजी नगर, विजय नगर वाले मंदिर का इस्कॉन संस्था ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहिष्कार किया हुआ है। इस्कॉन मुंबई ने बैंगलोर में शेषाद्रीपुरम में अपना एक मंदिर बनाया है और अब एच.बी.आर. लेआऊट में एक और मंदिर बन रहा है।
दर्शन करने के बाद महामंत्र “हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे” का श्रवण किया और फ़िर चल दिये प्रसादम की और जहाँ पर हलवा और पुलैगेरा चावल थे दोनों ही अपने मनपसंद बस पेटभर कर आस्वादन किया गया।
घर आये फ़िर न्यूज चैनल देखे तो पता चला कि अन्ना फ़ौज से भगौड़े नहीं हैं जो कि थोड़े दिनों पहले शासन करने वाली राजनैतिक पार्टी के लोग बयान दे रहे थे। अब तो वे बेचारे किसी को मुँह दिखाने लायक भी नहीं रहे, अरे भई बोलो मगर यह तो नहीं कि जो आये मुँह में बोल डालो, सब के सब दिग्विजय सिंह से टक्कर लेने में लगे हैं। वैसे आजकल ये महाशय चुप हैं, और नौजवान अमूल बेबी बॉय मुँह में निप्पल लेकर बैठे हुए हैं, क्योंकि उनको पता है कि अगर उन्होंने अन्ना का नाम भी लिया तो उन्हें मिलेगा गन्ना ।
बेचारे बाबा नौजवानों को अपने साथ लाना चाहते थे और देखकर हर कोई दंग है कि ७४ वर्षीय अन्ना के साथ सारे नौजवान सड़क पर उतर आये हैं, मम्मी अमरीका गई है बाबा की निप्पल बदले कौन ?
एक ब्लॉगर मीट बैंगलोर में जो कि बारिश के कारण नहीं हो पाई ।
शाम को लगभग ५ – ५.३० बजे विभाजी से मिलना तय हुआ था और हमने फ़ोन करके प्रवीण पांडे जी को भी खबर कर दी थी। अभिषेक से बात हुई परंतु अभीषेक ने बताया कि उनका कार्यक्रम व्यस्त है। घर से बराबर समय पर निकले और जैसे ही वोल्वो में बैठे, जोरदार बारिश होने लगी। आधे रास्ते पहुँचते पहुँचते बारिश अपने पूरे उफ़ान पर थी और इस बारिश और हममें केवल वोल्वो के खिड़की पर लगे काँच का फ़ासला था।
अंदर हम सीट पर बैठे बारिश का मजा ले रहे थे और बाहर काँच की खिड़की के उस तरफ़ बारिश का झर झर जल बहता जा रहा था, जैसे मन की बातें कभी रुकती नहीं हैं, मन के घोड़े दौड़ते ही रहते हैं, इस बारिश में हमने आगे न जाने का निर्णय लिया, क्योंकि बारिश तेज थी और भले ही छतरी पास हो पर भीग तो जाते ही हैं, और आज कुछ ऐसा था कि हम अपने को भिगो नहीं सकते थे।
त्वरित निर्णय लेते हुए फ़ोन पर बात करके आगे जाना निरस्त किया गया, क्योंकि बारिश होने के बाद सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था दम तोड़ देती है।
प्रवीण जी को जैसे ही फ़ोन किया उन्होंने कहा कि इस बारिश का जरूर कुछ आपके साथ संबंध है, जब भी हम लोगों के मिलने का होता है यह बारिश जरूर होती है और मिलना नहीं हो पाता है। पहले भी एक बार ऐसा हो चुका है।
तो यह था विवरण उस ब्लॉगर मीट का जो कि बैंगलोर में हो न सकी, जल्दी ही जब ब्लॉगर मिलेंगे तो उसका विवरण दिया जायेगा।
देखो ऑटो में जवानी उछल रही है
रोज रात्रि भोजन के पश्चात अपनी घरवाली के साथ एकाध घंटा घूम लेते हैं, जिससे बहुत सारी बातें भी हो जाती हैं, और पान खाना भी हो जाता है।
वैसे तो यहाँ बैंगलोर में हमने जितने जवान लोग भारत के हरेक हिस्से से आये हुए देखे हैं, उतने शायद ही किसी और शहर में होंगे, क्योंकि बैंगलोर आई.टी. हब है। पर यहाँ लोगों को (जवान लोगों) अपनी मर्यादा में ही देखा था, परंतु आज जब हम मैन आई.टी.पी.एल. (ITPL is a IT Park in Bangalore) रोड होते हुए घर की ओर जा रहे थे, तो अचानक एक ऑटो पर नजर पड़ गयी, उस ऑटो में एक जवान जोड़ा बैठा हुआ था और अचानक बात करते करते लड़की लड़के के सीने से चिपट गई। और हमारे मुंह से निकल गया “देखो ऑटो में जवानी उछल रही है”।
बैंगलोर में यह हमारे लिये नया सा है, क्योंकि यहाँ का वातावरण उतना स्वच्छंद नहीं है जितना कि मुंबई का। मुंबई में तो दो जवान दिलों का मिलन कहीं भी हो जाता है, और ऑटो में तो ये समझ लीजिये कि बस यही होता है, अगर जवान जोड़ा है तो, वहाँ यह सब साधारण सा लगता था, परंतु जब यहाँ आये तो थोड़ा कसा हुआ वातावरण पाया, इसलिये आज थोड़ा ठीक नहीं लगा। इसका कारण यह भी हो सकता है कि कभी हमें यह मौका नहीं मिला।
मुंबई में तो ऑटो वाले खुद ही कई बार चिल्लाकर ऐसी सवारियों को दूर कर देते हैं, परंतु जवान दिलों को कोई रोक सका है ?
वोल्वो में आज का सफ़र..
आज फ़िर काम से थोड़ा दूर जाना पड़ा तो वोल्वो में लगभग एक घंटा जाने और एक घंटा आने का सफ़र करना पड़ा, वैसे तो सब ठीक रहा। परंतु हम ऐसे ही आज अपने सफ़र का अध्ययन कर रहे थे, तो सोचा कि क्यों ना डिजिटाईज कर लिया जाये। कितनी अच्छी बात हो अगर कोई ऐसा गेजेट आ जाये कि मन की बातों को अपने आप ही टाईप कर ले हाँ इसके लिये उसे मन से परमीशन और पासवर्ड दोनों ही लेने होंगे नहीं तो बहुत गड़बड़ हो सकती है और तब तो बहुत ही, जब वह पोस्ट बन कर प्रकाशित हो जाये।
जाते समय हम वोल्वो की आगे वाली सीट पर बैठे जिसमें कि चार सीट आमने सामने होती हैं, पहले से ही एक यात्री बैठी हुई थी हम भी उन्हीं के पास में बैठ लिये, फ़िर भी सामने की दो सीटें खाली थीं, उनमें से एक पर हमने अपना बैगपैक एक सीट पर रख दिया और अपने बैग में से इकॉनामिक टॉइम्स निकाल कर पढ़ने लगे, सामने वाली दो सीटें खाली ही थीं और अधिकतर हम उन पर बैठना पसंद नहीं करते क्योंकि वह वोल्वो की दिशा के विपरीत होती है और कई बार उससे असहज महसूस होता है।
थोड़ी देर बाद ही वह यात्री उतर गईं और हमने खिड़की के पास वाली सीट पर कब्जा कर लिया, फ़िर एक और यात्री आईं और वे हमारी पुरानी वाली सीट पर विराजमान हो गईं, उनके साथ ही एक परिवार चढ़ा जिसमें माता, पिता और उनकी लड़की थे, तो वे भी एक एक सीट संभाल कर बैठ लिये और पिता हमारी सामने वाली सीट पर बैठ गये, हमने अपना बैगपैक अपनी गोदी में रखा और अखबार को मोड़कर पढ़ने लगे, तो पीछे वाली साईड से वे सज्जन भी पढ़ने लगे, हम भी कनखियों से देख रहे थे, खैर यह तो सबके साथ होता है।
थोड़ी देर में यह परिवार उतर गया तो हमने अपना बैगपैक सामने वाली सीट पर रख दिया, तब तक हम अखबार को निपटा चुके थे, और फ़िर एक किताब बैग में से निकाल ली, यह किताब भी शुरू किये बहुत दिन हो गये थे और मात्र छ: पन्ने ही पढ़ पाये थे, वहीं से आगे पढ़ने की कोशिश की तो लय नहीं बैठ रही थी, इसलिये वापिस से पहला पन्ना पलटा और पढ़ने लगे, दो ही पन्ने पढ़ पाये थे कि तब तक वोल्वो किसी नई सड़क पर दाखिल हो चुकी थी, जो कि हमारे लिये नई थी, तो किताब बंद करके रास्ता देखने लगे और फ़िर धीरे से किताब को बैग में सरका दिया गया। हम अपने गंतव्य पर पहुंचने के लिये और आगे जाना था, गंतव्य पर बस खाली हो गई और हम पैदल ही चल दिये।
अपना काम निपटाकर वापिस से बस में चढ़ लिये यह वोल्वो बस नहीं थी, साधारण बस थी क्योंकि उस रूट पर वोल्वो चलती ही नहीं है, पूरी बस भरी हुई थी और सबसे आखिरी वाली सीट मिली, परंतु बस बिल्कुल साफ़ थी, जो कि सरकारी बसों के लिये उदाहरण है। खैर अपने बस स्टॉप पर उतरे और वोल्वो में चढ़ लिये घर जाने के लिये, अबकि बार वोल्वो में पीछे की तरफ़ की सीट पर काबिज हुए और खिड़की के पास वाली पर बैठ लिये, साथ वाली पर बैगपैक रखा, ऊपर ए.सी. को बटन से ठीक किया और फ़िर सोचा कि चलो किताब पढ़ना शुरू किया जाये परंतु थकान इतनी हो चली थी कि पढ़ने की इच्छा नहीं थी और भूख भी लग रही थी।
पीछे सीट पर एक लड़की बैठी हुई थी जो कि रास्ते में पड़ने वाले एक मॉल में किसी लड़के से मिलने जा रही थी, और बार बार फ़ोन करके या फ़ोन को रिसीव करके अपनी लोकेशन बता रही थी, अब बातचीत को विस्तारपूर्वक नहीं लिखता नहीं तो पोस्ट बहुत लंबी हो जायेगी।
खैर थोड़ी देर बाद ही हमारी पास की सीट पर फ़िर एक सज्जन आ गये और हमने वापिस से बैग अपनी गोदी में रखा और मोबाईल में कान-कव्वा लगाकर कुछ जरूरी फ़ोन लगाने लगे, पर बैंगलोर में कुछ सड़कों पर मोबाईल के सिग्नल नहीं मिलते हैं, बार बार कनेक्शन एरर करके फ़ोन कट जाता था। सड़क पर ट्रॉफ़िक कम था इसलिये घर जल्दी पहुँच लिये।
अब वोल्वो के बारे में तभी लिखेंगे जब कुछ विशेष होगा।
ऑटो में १८० रूपयों का खून और साईकिल की बातें….
आज सुबह से जो रूपयों का खून होना शुरू हुआ कि बस क्या बतायें ?
खैर बैंगलोर नई जगह है और यह मुंबई जैसा सरल भी नहीं है, बैंगलोर गोल गोल है। मोबाईल पर भी गूगल मैप्स से मदद लेने की बहुत कोशिश करते हैं, परंतु असलियत में तो कुछ और ही निकलता है और कई बार गूगल मैप कोई और ही रास्ता बताता है।
आज हमें सुबह पुलिस स्टेशन जाना था, पासपोर्ट के वेरिफ़िकेशन के चक्कर में तो, गूगल पुलिस स्टेशन कहीं और बता रहा था और पुलिस स्टेशन निकला ६ किमी. आगे इस चक्कर में ऑटो में हमारे १८० रूपये ठुक गये। जब सही पुलिस स्टेशन मिला तो पता चला कि यहाँ के लिये तो घर के पास से सीधी वोल्वो बस मिलती है।
खैर हमारी जेब से निकलकर रूपये ऑटो वाले की जेब में जाना लिखा था तो लिखा था, हम क्या कर सकते थे। सोच रहे थे कि ऑटो वाला भी खुश हो रहा होगा कि रोज ऐसे ही १ – २ ढ़क्कन मिल जायें तो मजा ही आ जाये, और हो सकता है कि रोज फ़ँसते भी होंगे।
जिस काम के लिये गये थे वह काम तो नहीं हुआ परंतु इतने रूपयों का खून हो गया वह जरूर अखर गया। ऐसा लग रहा था कि कोई बिना चाकू दिखाये हमें लूट रहा है और हम भी मजे में लुट रहे हैं।
इसलिये अब सोच रहे हैं कि जल्दी से कम से कम दो पहिया वाहन तो ले ही लिया जाये, जिससे कम से कम ऐसे लुटने से तो बचेंगे और समय भी बचेगा।
साईकिल भी दो पहिया है और बैंगलोर शहर में ५-६ किमी. में साईकिल के लिये विशेष ट्रेक बनाये गये हैं, परंतु अभी बैंगलोर के हर हिस्से में इस तरह के ट्रेक बनाना शायद मुश्किल ही है और अगर रोज २० किमी जाना और २० किमी आना हो तो साईकिल से आना जाना सोचने में ही बहुत मुश्किल लगता है। अगर २० किमी साईकिल चलाकर कार्यालय पहुँच भी गये तो कम से कम काम करने लायक तो नहीं रह जायेंगे।
वैसे हमने हमारे पिताजी को रोज ३५-४० किमी साईकिल चलाते देखा है, और कई बार अगर कहीं आसपास गाँव में जाना है और जाने के लिये कोई साधन न होता था तो साईकिल से बस स्टैंड और फ़िर साईकिल बस के ऊपर और फ़िर उतर कर वापिस से साईकिल की सवारी, इसी तरह से लौटकर आते थे। सोचकर ही रोमांचित होते हैं, कि वे भी क्या दिन होंगे।
साईकिल चलाने से स्वास्थ्य तो अच्छा रहता ही है और व्यायाम भी हो जाता है। हमारे पुराने कार्यालय में दो पहिया और चार पहिया वाहन की पार्किंग सशुल्क थी, परंतु साईकिल के लिये निशुल्क। हाँ कई जगह साईकिल परेशानी का सबब भी है, जैसे बड़े मॉल साईकिल की पार्किंग नहीं देते, ५ स्टार होटल साईकिल वालों को मुख्य दरवाजे से अंदर ही नहीं जाने देते हैं, और विनम्रता से मना कर देते हैं, साईकिल का अंदर ले जाना मना है।
हमने भी साईकिल कॉलेज तक बहुत चलाई, और साईकिल से एक दिन में ५० किमी तक भी चले हैं, थक जाते तो ट्रेक्टर ट्राली को पकड़कर सफ़र तय कर लेते थे। बहुत सारी यादें हैं साईकिल की, बाकी कभी और ….
खैर साईकिल चलाने से भले ही कितने फ़ायदे होते हों परंतु हम साईकिल लेने की तो कतई नहीं सोच रहे, दो पहिया वाहन सुजुकी एक्सेस १२५ बुक करवा रखी है, अब सोच रहे हैं कि खरीद ही लें।