1. Income Details – इस शीट में फ़ॉर्म १६ के अनुसार आय की जानकारियाँ, नाम और पता भरिये। Valideate करिये और Next बटन पर क्लिक कीजिये।2. TDS – इस शीट में नियोक्ता द्वारा काटे गये टैक्स की जानकारी, सैलेरी के अलावा अगर कहीं TDS कटा है और अग्रिम कर की जानकारी Transaction wise दें।3. Taxes paid and verification – इस शीट पर अपने बैंक का खाता नंबर और माइकर कोड टंकित करें साथ ही यहाँ पर आपका टैक्स के बारे में पता चलता है कि टैक्स सही है या और जमा करना है या रिफ़ंड है। अगर यह नहीं आ रहा है तो पहली शीट Income Details पर जाकर Calculate Tax बटन पर क्ल्कि करें।
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क्या सरकार को हमसे किसी भी प्रकार का कर लेने का हक है ?
यह एक बहुत बड़ा सवाल है, क्या सरकार को हमसे किसी भी प्रकार का कर लेने का हक है ? जब सरकार आम आदमी की रक्षा नहीं कर सकती, आम आदमी को मूलभूत सुविधाएँ नहीं प्रदान कर सकती तो सरकार हमसे कर कैसे ले सकती है ?
जब हमें सड़क अच्छी नहीं मिल सकती, बस अच्छी नहीं मिल सकती और तो और सरकार चलाने वाले जनता के मुलाजिम हैं क्योंकि उनको तन्ख्वाह जनता के जमा किये गये कर से मिलती है, वे मुलाजिम ही जनता से आँखें लड़ाते हुए अपना रूतबा दिखाते हैं और जिस काम की तन्ख्वाह लेते हैं, उसका शुल्क भी जनता से भ्रष्टाचार के रूप में बटोरते हैं और बेचारी निरीह जनता इनके दमन चक्र में पिसी जा रही है, अगर कोई आवाज उठाता है तो सचान को जैसे मारा वैसे मारकर मुँह बंद करवा दिया जाता है या फ़िर बाबा रामदेव के ऊपर जैसा दमनकारी चक्र सरकार ने चलाया, चला दिया जाता है।
सरकार अपनी ताकत केवल जनता पर दिखा सकती है, सरकार आतंकवाद, माओवाद और नक्सलियों से निपटने में असक्षम है और वहाँ केवल अपनी राजनीति की रोटियाँ सेकने में लगी है, क्या अगर सरकार सेना की टुकड़ी को नक्सली इलाके में भेज दे तो ये नक्सलवाद एक दिन में खत्म नहीं हो सकता ? या माओवाद खत्म नहीं हो सकता ? हमारे खूफ़िया विभाग समय पर सभी सुरक्षा विभागों को जानकारियाँ दे देते हैं, परंतु उन जानकारियों को फ़ाईलों में दबा दिया जाता है और ढुलमुल रवैया अपनाया जाता है। सुरक्षा विभाग आपस में ही एक दूसरे से बराबर संपर्क में नहीं रहते और समय पर इस प्रकार की जानकारियों का उपयोग नहीं कर पाते, ये लोग असक्षम नहीं है, बल्कि इसके पीछे राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी है।
इतने सब के बाद भी सरकार को क्या हमसे किसी भी प्रकार का कर लेने का हक है ? सरकार हमसे हरेक चीज में तो कर ले रही है, फ़िर वह खाना, पहनना हो या ऐश करना, उस कर से भी पेट नहीं भरता तो तरह तरह के घोटाले भी सामने आते हैं ? और जनता के साथ धोखा किया जाता है ?
हम किसी भी प्रकार का कर देने में कोई आपत्ति नहीं है, परंतु हमारे कर के रुपयों से क्या किया जा रहा है, वह तो हमें बताया जाये।
मानते हैं कि सेना का शासन अच्छा नहीं होता, परंतु अब स्थिती इतनी खराब हो चुकी है कि अगर सेना का शासन लगा दिया जाये तो भी हमें अपने भारत को सुधारने में बहुत समय लगेगा, या फ़िर जनता को ही कानून अपने हाथ में लेकर अपने हिसाब से कानून का पालन करवाना पड़ेगा ?
क्या आप २० रुपये में एक दिन का खाना खा सकते हैं ?
क्या आप २० रुपये में एक दिन का खाना खा सकते हैं ?
यह प्रश्न बहुत ही व्यवहारिक है, क्योंकि सरकार ने गरीबी रेखा के लिये जो सीमा निर्धारित की है वह है २० रूपये प्रतिदिन, अगर कोई २० रूपये प्रतिदिन से ज्यादा कमाता है तो वह गरीबी रेखा में नहीं आता है।
भारतीय प्रबंधन संस्थान, बैंगलोर के ७५ छात्रों ने समूहों में बँटकर गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों का जमीनी संघर्ष जाना। भारतीय प्रबंधन संस्थान के छात्रों के लिये २० रूपये कोई बहुत बड़ी चीज नहीं है, जब वे चले तो उन्होंने अपने पास केवल २० रूपये ही रखे और खाने की कोई भी सामग्री नहीं रखी।
जब उन्होंने २० रूपयों में पूरा दिन गुजारा तो उन्हें पैसे की कीमत पता चली और उन्होंने देखा कि गरीबी रेखा के नीचे वाले कैसे जीवन यापन करते होंगे। २० रूपये से ज्यादा की तो एक दिन में नाश्ता या सिगरेट पीने वाले प्रबंधन संस्थान के छात्र सकते में थे, और इन लोगों के लिये मूलभूत सुविधाओं को कैसे जुटाया जाये ये सोचने पर मजबूर थे। मूलभुत सुविधाओं का न होने के लिये सरकार को ही दोषी नहीं माना जा सकत है।
इस महँगाई के जमाने में उन्हें अगर सब्जी खाना हो तो पत्तेदार सब्जी थोड़ी बहुत आ सकती है, या फ़िर शाम को बची हुई गली सी सब्जी में से उन्हें सब्जी खरीदनी पड़ती है। चावल भी अगर १० रूपये किलो मिले तब जाकर उनके लिये खाना २० रूपये में एक दिन का पड़ेगा। परंतु चावल अगर देखें तो कम से कम २०-२२ रूपये है, वह भी लोकल सोना मसूरी मोटा चावल। अगर गेहूँ ही देखें तो कम से कम १६ रूपये किलो है और पिसवाने का ४ रुपये तो २० रूपये किलो तो आटा भी पड़ता है।
अपने को तो सोचकर ही पसीने आते हैं, कि कैसे २० रूपये में दिन भर में खाना खाया जा सकता है जबकि १० रूपये की चाय या कॉफ़ी ही बाजार में मिलती है। नाश्ते में भी २० रूपये कम पड़ते हैं।
वाकई २० रूपये में एक दिन निकालना बहुत मुश्किल है, और गरीबी रेखा के नीचे वालों को तो तब तक दिन निकालने हैं, जब तक कि वे इस गरीबी रेखा को पार नहीं कर लेते।
भारतीय प्रबंधन संस्थान के छात्रों ने गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का जीवन स्तर सुधारने और मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के लिये संकल्प लिया।
स्पीड पोस्ट के भाव देखकर होश उड़ गये ?
अभी बहुत दिनों बाद कूरियर और स्पीडपोस्ट करने की जरूरत पड़ी, तो बदले हुए भाव देखकर होश उड़ गये, भाव इतने बड़े हुए हैं कि अच्छे अच्छों के होश उड़ जायें।
कूरियर सेवा शुरू हुए भारत में लगभग २ दशक हो चले हैं, परंतु कूरियर ने पिछले एक दशक से जो जोर पकड़ा है वह ऐतिहासिक है और कूरियर सेवाओं ने डाक विभाग को हाशिये पर ला खड़ा किया है। आज भारत में कुकुरमुत्तों की तरह जाने कितनी ही कूरियर सेवाएँ हैं, कूरियर सेवाएँ निजी हैं तो यह विश्वास करना लाजिमी है कि सेवाएँ अच्छी होंगी, परंतु यह सत्य नहीं है। कूरियर सेवा किसी हद तक जनता का विश्वास जीतने में कायम तो रहीं, परंतु जो लोग डाक विभाग की सेवाओं का उपयोग करते रहे उनको डिगा नहीं पायी।
कूरियर सेवा की अपनी एक पहुँच होती है, वह ज्यादा से ज्यादा जिला स्तर तक या तहसील स्तर तक ही अपनी सेवाएँ प्रदान करते हैं, और भारतीय डाक विभाग की सेवाएँ पूरे विश्व में सबसे बड़ी हैं, भारतीय डाक विभाग की सेवाएँ छोटे से छोटे गाँव तक में मौजूद हैं।
एक जगह स्पीड पोस्ट करना था तो मजबूरी में हमें पोस्ट ऑफ़िस जाना पड़ा तो पता चला कि शनिवार को १२.३० बजे ही पोस्ट ऑफ़िस बंद् हो जाता है, फ़िर सोमवार को घरवाली को भेजना पड़ा, तो पता चला कि लाईन लगी हुई थी, और लगभग सभी लोग टेलीफ़ोन का बिल जमा करने के लिये लाईन में लगे हुए थे, अब बताईये डाक जो कि डाकविभाग का मुख्य कार्य है उसे हाशिये पर डाक विभाग ने धकेल दिया है और टेलीफ़ोन बिल जमा कर रहा है। हाँ यह है कि टेलीफ़ोन विभाग से डाक विभाग को कमीशन मिलता है, तो क्या डाक विभाग अपने मुख्य कार्य को प्राथमिकता से करना छोड़ देगा। अब पोस्ट ऑफ़िस के लाल डिब्बे भी हर चौराहों पर नहीं दिखते हैं।
परंतु एक बात अच्छी लगी जो शायद सबको अच्छी लगे कि उतने ही वजन के कूरियर के और उतनी ही दूरी पर भेजने के कूरियर सेवा ने ५० रुपये लिये और जबकि स्पीडपोस्ट सेवा ने २५ रुपये लिये। दोनों ही सेवाओं में लगभग ४८ घंटों से ज्यादा का समय लगता है, परंतु अगर आप अपने कूरियर या स्पीडपोस्ट को ट्रेक करना चाहते हैं, तो यहाँ पर भी स्पीडपोस्ट की बेहतर ट्रेकिंग विश्वस्तर की है और कूरियर सेवाओं को इसमें भी मात करती है। यहाँ तक कि कई विश्वस्तर कूरियर कंपनियाँ भी इस तरह की जबरदस्त ट्रेकिंग का इस्तेमाल नहीं करती हैं।
उसके बाद हमने सोचा कि आखिर क्यों डाक विभाग की सेवाओं से लोग भागने लगे हैं, तो पाया कि कूरियर सर्विसेस लगभग हर गली चौराहों के नुक्कड़ पर किसी न किसी दुकान में मिल जाती है, और लगभग पूरे समय आप कभी भी कूरियर कर सकते हैं, जबकि डाक विभाग का सरकारी समय निर्धारित है, और उस पर भी आपको लाईन में लगना पड़ता है तो आजकल समय किस के पास है, जो लाईन में लगे और डाक विभाग की सेवाओं का उपयोग करे।
६-७ वर्ष पहले उज्जैन में डाक विभाग ने कार्यालयों के लिये एक सेवा शुरू की थी, जिसके तहत शाम के समय डाकविभाग से कर्मचारी आता था और सारी डाक ले जाता था, अब पता नहीं कि वह सेवा उपलब्ध है या नहीं, परंतु उस समय लगभग हर बैंक और सरकारी कार्यालयों ने इसे तत्काल प्रभाव से उपयोग करना शुरू कर दिया था। अब शायद यह सेवा नहीं है, क्यूँकि अभी जब उज्जैन गये थे तो बैंकों में वापिस से कूरियर सेवाओं ने अपनी जड़ें जमा ली थीं, परंतु अन्य सरकारी कार्यालयों का पता नहीं है।
कूरियर में एक अच्छी बात यह है कि आप फ़ोन कर दो वह आपके स्थान से ही आपकी डाक पिक अप कर लेगा और आप निश्चिंत हो जायेंगे, परंतु डाकविभाग के साथ ऐसा नहीं है, डाकविभाग को अपने तंत्र को प्रभावी रूप से इस्तेमाल करना होगा और उन्हें व्यावसायिक बुद्धि का परिचय देते हुए ठोस कदम उठाने होंगे। कुछ अच्छी सेवाएँ ग्राहकों के लिये देना होंगी, जिससे डाकविभाग के मजबूत तंत्र का फ़ायदा आम जनता को हो।
ऑटो में १८० रूपयों का खून और साईकिल की बातें….
आज सुबह से जो रूपयों का खून होना शुरू हुआ कि बस क्या बतायें ?
खैर बैंगलोर नई जगह है और यह मुंबई जैसा सरल भी नहीं है, बैंगलोर गोल गोल है। मोबाईल पर भी गूगल मैप्स से मदद लेने की बहुत कोशिश करते हैं, परंतु असलियत में तो कुछ और ही निकलता है और कई बार गूगल मैप कोई और ही रास्ता बताता है।
आज हमें सुबह पुलिस स्टेशन जाना था, पासपोर्ट के वेरिफ़िकेशन के चक्कर में तो, गूगल पुलिस स्टेशन कहीं और बता रहा था और पुलिस स्टेशन निकला ६ किमी. आगे इस चक्कर में ऑटो में हमारे १८० रूपये ठुक गये। जब सही पुलिस स्टेशन मिला तो पता चला कि यहाँ के लिये तो घर के पास से सीधी वोल्वो बस मिलती है।
खैर हमारी जेब से निकलकर रूपये ऑटो वाले की जेब में जाना लिखा था तो लिखा था, हम क्या कर सकते थे। सोच रहे थे कि ऑटो वाला भी खुश हो रहा होगा कि रोज ऐसे ही १ – २ ढ़क्कन मिल जायें तो मजा ही आ जाये, और हो सकता है कि रोज फ़ँसते भी होंगे।
जिस काम के लिये गये थे वह काम तो नहीं हुआ परंतु इतने रूपयों का खून हो गया वह जरूर अखर गया। ऐसा लग रहा था कि कोई बिना चाकू दिखाये हमें लूट रहा है और हम भी मजे में लुट रहे हैं।
इसलिये अब सोच रहे हैं कि जल्दी से कम से कम दो पहिया वाहन तो ले ही लिया जाये, जिससे कम से कम ऐसे लुटने से तो बचेंगे और समय भी बचेगा।
साईकिल भी दो पहिया है और बैंगलोर शहर में ५-६ किमी. में साईकिल के लिये विशेष ट्रेक बनाये गये हैं, परंतु अभी बैंगलोर के हर हिस्से में इस तरह के ट्रेक बनाना शायद मुश्किल ही है और अगर रोज २० किमी जाना और २० किमी आना हो तो साईकिल से आना जाना सोचने में ही बहुत मुश्किल लगता है। अगर २० किमी साईकिल चलाकर कार्यालय पहुँच भी गये तो कम से कम काम करने लायक तो नहीं रह जायेंगे।
वैसे हमने हमारे पिताजी को रोज ३५-४० किमी साईकिल चलाते देखा है, और कई बार अगर कहीं आसपास गाँव में जाना है और जाने के लिये कोई साधन न होता था तो साईकिल से बस स्टैंड और फ़िर साईकिल बस के ऊपर और फ़िर उतर कर वापिस से साईकिल की सवारी, इसी तरह से लौटकर आते थे। सोचकर ही रोमांचित होते हैं, कि वे भी क्या दिन होंगे।
साईकिल चलाने से स्वास्थ्य तो अच्छा रहता ही है और व्यायाम भी हो जाता है। हमारे पुराने कार्यालय में दो पहिया और चार पहिया वाहन की पार्किंग सशुल्क थी, परंतु साईकिल के लिये निशुल्क। हाँ कई जगह साईकिल परेशानी का सबब भी है, जैसे बड़े मॉल साईकिल की पार्किंग नहीं देते, ५ स्टार होटल साईकिल वालों को मुख्य दरवाजे से अंदर ही नहीं जाने देते हैं, और विनम्रता से मना कर देते हैं, साईकिल का अंदर ले जाना मना है।
हमने भी साईकिल कॉलेज तक बहुत चलाई, और साईकिल से एक दिन में ५० किमी तक भी चले हैं, थक जाते तो ट्रेक्टर ट्राली को पकड़कर सफ़र तय कर लेते थे। बहुत सारी यादें हैं साईकिल की, बाकी कभी और ….
खैर साईकिल चलाने से भले ही कितने फ़ायदे होते हों परंतु हम साईकिल लेने की तो कतई नहीं सोच रहे, दो पहिया वाहन सुजुकी एक्सेस १२५ बुक करवा रखी है, अब सोच रहे हैं कि खरीद ही लें।
बहिन जी विज्ञापनों से खबरी चैनलों की बोलती बंद की ? या अपराध खत्म हो गये ?
कुछ दिनों पहले IBN7 के दो पत्रकारों को बहिनजी के दो कानूनी रक्षकों ने अंदर कर दिया था और देख लेने की धमकी दी थी, जैसे ही मीडिया में मामला उछला वैसे ही आला अफ़सर सफ़ाई देने पहुँच गये कि यह उनका निजी मामला था, इसमें सरकार का कोई हाथ नहीं है।
इसके पहले भी मीडिया के साथ इस तरह के मामले हो चुके हैं, परंतु उस समय मीडिया इतना संगठित नहीं था और यह भी कह सकते हैं कि व्यावसायिक मामलों के मद्देनजर कभी खुलकर नहीं बोल पाते थे। परंतु इस बार मीडिया ने हिम्मत करी और खुलकर सभी चैनलों ने इसका विरोध किया तो खुद बहिनजी और प्रधानमंत्रीजी को मीडिया से मुखतिब होने के लिये आना पड़ा। यह भी कह सकते हैं कि अब मीडिया परिपक्व हो चुका है और अब उसके पास व्यावसायिक विज्ञापनों की कमी नहीं है।
जब से यह मामला हो गया है, उसके बाद उन दोनों कानूनी रक्षकों को सस्पेंड कर दिया गया परंतु अब उनका क्या हुआ उसकी कोई खबर नहीं है। शायद मामले को रफ़ा दफ़ा कर दिया गया होगा।
अब लगभग हर खबरी चैनल पर बहिनजी के विज्ञापन की भरमार है, या तो बहिनजी की सरकार मजबूर है विज्ञापन देने के लिये, या फ़िर बहिनजी अपनी जनता की खून पसीने की कमाई को सम्मान नहीं देती हैं और इस तरह विज्ञापन में पैसा बहा रही हैं।
अब उत्तरप्रदेश में हो रहे अपराधों का इन खबरी चैनलों ने प्रसारण कम कर दिया है, आखिर खबरी चैनलों को अच्छे खासे पैसों से बहिन जी ने खरीद जो लिया है, नहीं तो पहले यह हालत थी कि १-२ चैनलों पर ही विज्ञापन दिखते थे, और बहिन जी के प्रदेश के अपराधों का समाचार चल रहा है जिसमें उनके खुद के मंत्री तक लिप्त थे और ब्रेक में बहिन जी के प्रदेश के विका का विज्ञापन आता था।
खैर अब यह तो खबरी चैनल ही बता सकते हैं कि अपराध खत्म हो गये या मिलने वाले बोनस से उनके कैमरों ने उधर देखना बंद कर दिया है।
लड़कियों का सिगरेट पीना और शराब पीना समाज को स्वीकार करना चाहिये, समाज को बदलना होगा
रेल्वे द्वारा तकनीक के इस्तेमाल और कुछ खामियाँ सेवाओं में.. (Technology used by Railway… some problems in services)
पिछले महीने हमने अपनी पूरी यात्रा रेल से की और विभिन्न तरह के अनुभव रहे कुछ अच्छे और कुछ बुरे। कई वर्षों बाद बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर गये थे, हमारा आरक्षण कर्नाटक एक्सप्रेस से था और सीट नंबर भी कन्फ़र्म हो गया था। तब भी मन की तसल्ली के लिये हम आरक्षण चार्ट में देखना उचित समझते हैं, इसलिये आरक्षण चार्ट ढूँढ़ने लगे, तो कहीं भी आरक्षण चार्ट नहीं दिखा। ५-६ बड़े बड़े टीवी स्क्रीन लगे दिखे जिसपर लोग टूट पड़े थे, हमने सोचा चलो देखें कि क्या माजरा है। पता चला कि आरक्षण चार्ट टीवी स्क्रीन पर दिखाये जा रहे हैं, हमने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि रेल्वे तकनीक का इतना अच्छा इस्तेमाल भी कर सकता है। बहुत ही अच्छा लगा कि रेल्वे ने तकनीक का उपयोग बहुत अच्छे से किया जिससे कितने ही कागजों की बर्बादी बच गई।
बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर तकनीक का रूप देखकर रेल्वे के बदलते चेहरे का अहसास हुआ। बस थोड़ी तकलीफ़ हुई कि ट्रेन कौन से प्लेटफ़ॉर्म पर आयेगी यह कहीं भी नहीं पता चल रहा था, हालांकि टीवी पर आने और जाने वाली गाड़ियों का समय के साथ प्लेटफ़ार्म नंबर दिखाया जा रहा था, परंतु हमारी गाड़ी के बारे में कहीं कोई जानकारी नहीं थी। खैर पूछताछ करके पता चला कि ट्रेन एक नंबर प्लेटफ़ार्म पर आने वाली है। पूछताछ खिड़्की भी केवल एक ही थी, जिस पर लंबी लाईन लगी हुई थी और लोग परेशान हो रहे थे। हम चल दिये एक नंबर प्लेटफ़ार्म की और, जैसे ही घुसे ट्रेन सामने ही थी अब डब्बे का पता नहीं चल रहा था क्योंकि पूरी ट्रेन की लोकेशन बाहर नहीं लगी थी, तो वहीं प्रवेश द्वार पर बैठे टी.सी. महोदय से पूछा कि डिब्बा किधर आयेगा, और उन्होंने तत्परता से बता भी दिया ( जो कि हमारी उम्मीद के विपरीत था )।
खैर डब्बे में पहुँचे तो तप रहा था क्योंकि ए.सी. चालू नहीं किया गया था, थोड़ी देर बाद ए.सी. चालू किया तब जाकर राहत मिली। हमने सोचा कि द्वितिय वातानुकुलित यान में पहले के जैसी अच्छी सुविधाएँ मौजूद होंगी और पॉवर बैकअप होता ही है, तो बहुत दिनों से छूटे हुए ब्लॉग पोस्ट पढ़ लिये जायेंगे । पहले तो हमने अपना जरूरी काम किया तो अपने लेपटॉप की बैटरी नमस्ते हो ली, अब चाहिये था बैटरी चार्ज करने के लिये पॉवर, बस यहीं से हमारा दुख शुरु हो गया। १० मिनिट बाद ही पॉवर गायब हो गया, तो इलेक्ट्रीशियन को पकड़ा गया उसने वापस से रिसेट किया परंतु फ़िर वही कहानी १० मिनिट मॆं फ़िर पॉवर गायब हो गया। उसके बाद जब हम फ़िर से इलेक्ट्रीशियन को ढूँढ़ते हुए पहुँचे तो हमें बताया गया कि इससे आप लेपटॉप नहीं चला पायेंगे केवल मोबाईल रिचार्ज कर पायेंगे। लोड ज्यादा होने पर डिप मार जाती है। कोच नया सा लग रहा था तो पता चला कि रेल्वे ने पुराने कोच को ही नया बनाकर लगा दिया है। खैर यह समस्या हमने मालवा एक्सप्रेस में भी देखी परंतु आते समय राजधानी एक्सप्रेस में यह समस्या नहीं थी। अब क्या समस्या है यह तो रेल्वे विभाग ही जाने। परंतु लंबी दूरी की गाड़ियों में यह सुविधा तो होनी ही चाहिये, आजकल सबके पास लेपटॉप होते हैं और सभी बेतार सुविधा का लाभ लेते हुए अपना काम करते रहते हैं।
द्वितिय वातानुकुलन यान की खासियत हमें यह अच्छी लगती है कि केबिन में सीटें अच्छी चौड़ी होती हैं, परंतु इस बार देखा तो पता चला कि सीटें साधारण चौडाई की थीं। और यह हमने तीनों गाड़ियों में देखा।
जब आगरा में थकेहारे रेल्वे स्टेशन पर पहुँचे तो गर्मी अपने पूरे शबाब पर थी, और ट्रेन आने में लगभग १ घंटा बाकी था, हमने वहाँ उच्चश्रेणी प्रतीक्षालय ढ़ूँढ़ा तो मिल भी गया और ऊपर से सबसे बड़ी खुशी की बात कि ए.सी. भी चल रहे थे, मन प्रसन्न था कि चलो रेल्वे अपने यात्रियों को कुछ सुविधा तो देता है। बस सोफ़े नहीं थे उनकी जगह स्टील की बैंचे डाल रखी थीं जिस पर यात्री ज्यादा देर तक तो बैठकर प्रतीक्षा नहीं कर सकता। आते समय भोपाल में भी हमने रात को ४ घंटे प्रतीक्षालय में बिताये वहाँ पर भी सुविधा अच्छी थी।
जाते समय कर्नाटक एक्सप्रेस का खाना निहायत ही खराब था, केवल खाना था इसलिये खाया, ऐसा लग रहा था जैसे कि रूपये देकर जेल में मिलने वाला खाना खरीद कर खा रहे हैं (वैसे अभी तक जेल का खाना चखा नहीं है), वैसे हमें ऐसा लग रहा था तो हम अपने साथ बहुत सारा माल मत्ता अपने साथ लेकर ही चले थे, तो सब ठीक था। आते समय राजधानी एक्स. का खाना भी कोई बहुत अच्छा नहीं था, पहले जो क्वालिटी खाने की राजधानी एक्स. में मिलती थी अब नहीं मिलती। आते समय तो दाल कम पड़ गई होगी तो उसमें ठंडा पानी मिलाकर परोस दिया गया, लगभग सभी यात्रियों ने इसकी शिकायत की, टी.सी. को बोलो तो वो कहते हैं यह अपनी जिम्मेदारी नहीं और पूछो कि किसकी जिम्मेदारी है तो बस बगलें झांकते नजर आते ।
खैर अब सभी चीजें तो अच्छी नहीं मिल सकतीं, पर कुल मिलाकर सफ़र अच्छा रहा और अब आगे रेल्वे की सुविधा का उपयोग केवल मजबूरी में ही किया जा सकेगा क्योंकि एक तो ३६-३९ घंटे की यात्रा थकावट से भरपूर होती है और उतना समय घर पर रहने के लिय भी कम हो जाता है। अगर रेल्वे थोड़े सी इन जरूरी चीजों पर ध्यान दे तो यात्रियों को बहुत सुविधा होगी।
अगर पाठकों को पता हो कि इन खामियों की शिकायत कहाँ की जाये, जहाँ कम से कम सुनवाई तो हो, तो बताने का कष्ट करें।
बच्चों के शार्टब्रेक मॆं खाने के लिये क्या दिया जाये, स्कूल ने नोटिस निकाला
क्या बच्चों को होस्टल में नहीं डालना चाहिये ? (Should not put children in Hostel ?)
“बच्चे मन के सच्चे सारे जग के राजदुलारे, ये वो नन्हे फ़ूल हैं जो भगवान को लगते प्यारे”, बच्चों के ऊपर लिखा गया बहुत पुराना गीत याद आ गया । जिसमें उनके मन को भी बताया गया है कि बच्चे मन के सच्चे होते हैं और उनका मन दर्पण की तरह साफ़ होता है कोई कपट नहीं कोई लालच नहीं।
कल फ़िल्म “हरे कृष्णा हरे राम” देख रहा था तो आखिरी में जैनिस उर्फ़ जसबीर (जीनत अमान) का संवाद देवानंद से दिखाया गया है, जिसमें जैनिस का एक संवाद कि “मुझे घर की जगह होस्टल मिला”। बहुत गहरे तक उतर गया कि आखिर होस्टल क्यूँ ?
क्या होस्टल में बच्चे ज्यादा पढ़ते हैं या माता पिता यह सोचकर भेज देते हैं कि कम से कम उनकी तरफ़ से पढ़ाई लिखाई करवाने की जिम्मेदारी खत्म, केवल फ़ीस भरी और बोर्डिंग में डाल दिया। होस्टल या बोर्डिंग में डालने की और भी कोई वजह हो सकती है। खैर मुझे तो समझ में नहीं आती केवल इसके कि बच्चे जो बोर्डिंग में रहते हैं, वो बचपन से ही भला बुरा समझने लगते हैं, और जो घर में रहते हैं वे धीरे धीरे जिंदगी के अनुभवों से सीखते हैं।
बोर्डिंग में रहने वाले बच्चों का जीवन बिल्कुल संयमित होता है, समय पर सारे कार्य करने होते हैं और घर पर रहने वाले बच्चों के लिये आजादी रहती है वे कुछ भी कर सकते हैं, वे दीन दुनिया और सामाजिकता में अपने आप को लबालब पाते हैं, और बोर्डिंग में रहने वाले बच्चों को यह सब तो नहीं मिल पाता पर जो हम उम्र बच्चों का साथ और अपने ही कक्षा के बच्चों से मस्ती करने को मिलती है वो घर वाले बच्चों को नहीं मिल पाती।
हमारे एक परिचित हैं उन्होंने एक प्रसिद्ध स्कूल में अपने बच्चे को डालने की सोची कि बोर्डिंग भी है और फ़ीस भी बहुत थी, स्कूल भी काफ़ी अच्छा था, परंतु अंतिम समय पर माता पिता अपने दिल के हाथों मजबूर हो गये और बच्चे को बोर्डिंग में नहीं डाला।
तो क्या बोर्डिंग में डालने वाले माता पिता अपने बच्चों से प्यार नहीं करते ? ऐसा तो कतई नहीं है, और मैं भी इस बात से सहमत नहीं हूँ परंतु ऐसी क्या चीज है जो माता पिता को बोर्डिंग में डालने पर मजबूर करती है ? विश्लेषण की आवश्यकता है ?