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लड़कियों का सिगरेट पीना और शराब पीना समाज को स्वीकार करना चाहिये, समाज को बदलना होगा

    जब मैंने पहली बार प्रगति मैदान और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के बाहर सिगरेट पीती हुई लड़कियों को देखा था, बड़ा अजीब लगा था कि लड़कियाँ भी सिगरेट पीती हैं। यह बात लगभग १४-१५ वर्ष पुरानी है। अब जब आज अपने आसपास देखता हूँ तो स्थितियाँ बहुत ही तेजी से बदलती जा रही हैं।
    अधिकतर स्मोकिंग जोन लंच के बाद भरेपूरे पाये जाते हैं, और इतने खचाखच होते हैं कि पैर रखने की जगह नहीं होती, अगर वहाँ कोई पैसिव स्मोकर हो तो पैसिव रहने से अच्छा है कि उसे खुद स्मोक शुरु कर देना चाहिये।
    लगभग पिछले ६ वर्षों से महानगरीय स्वरूप देख रहा हूँ। पहले दिल्ली में जहाँ कनॉट प्लेस, करोल बाग, इंडिया गेट हो या लाजपत नगर, डिफ़ेंस कॉलोनी, साऊथ एक्स. कोई भी जगह ले लो, लड़कियाँ समूह में खड़ी देख जायेंगी और उनको मजे से छल्ले उड़ाते हुए देखा जा सकता है।
    वैसे ही मुंबई में हालात ऐसे हैं कि वहाँ पर तो जहाँ मेरा कार्यालय था वहाँ लड़कों से ज्यादा स्मोकर लड़कियाँ थीं, और अगर समूह भी होते तो लड़कियाँ ज्यादा और लड़के कम और शेयर करके सिगरेट पीते हुए देखा जा सकता है। लड़कियाँ यहाँ शराब की दुकान से शराब भी खरीदते हुए देखी जा सकती हैं।
    अब आये बैंगलोर तो यहाँ तो ७०% जनता जवान है और उनकी जवानियों की अंगड़ाईयाँ यत्र तत्र सर्वत्र देखी जा सकती है, अभी जहाँ मेरा कार्यालय है वहाँ दोपहर में स्थिती देखने लायक होती है, सिक्योरिटी वाले बेचारे स्मोकर्स को चेताते चेताते परेशान हो जाते हैं, कि ये कृप्या यहाँ स्मोक न करें यह वर्जित क्षैत्र है, परंतु मजाल कि कोई सुन ले, और एक बात कि बैंगलोर में लगभग ७०% लोग कन्नड़ भाषा नहीं जानते क्योंकि वे सब उत्तर भारत से हैं। मैंने यहाँ बहुत सी लड़कियाँ देखी हैं जो कि चैन स्मोकर्स हैं। और अधिकतर स्मोकर्स लड़कियाँ वही हैं जो कि घर से बाहर रहती हैं।
    अभी थोड़े दिन पहले ही शुक्रवार को  देखा जब हम हायपर सिटी में हमारे आगे कुछ लड़कियाँ बिलिंग करवा रही थीं, व्हिस्की रम और वोद्का ले जा रही थीं और पेप्सी और कंडोम्स की बिलिंग करवा रही थीं, हमने अपनी घरवाली से कहा देखो इन लड़कियों ने सप्ताहांत पर रिलेक्स होने का पूरा इंतजाम कर लिया है, उनको भी कोई फ़र्क नहीं पड़ा क्योंकि महानगर में रहकर सोच बदल ही जाती है, खैर हमें भी अपनी सोच बदलनी होगी।
    आखिर लड़कियाँ भी कमा रही हैं आजाद हैं, स्वतंत्र हैं, घर से बाहर रहते हुए वे अपनी स्वतंत्रता का पूरा फ़ायदा उठाती हैं। यह आधुनिक सोच है और हम तो इसे मान चुके हैं कि जिसे जैसा रहना है वैसा रहे इसलिये अब कहीं कोई लड़की सिगरेट या शराब पीती हुई दिखती भी है तो हमें सामान्य जैसा ही लगता है, समाज को अब बदलना चाहिये वक्त आ गया है कि समाज को यह सच भी स्वीकार करना चाहिये कि लड़कियाँ भी लड़कों की तरह ही स्वतंत्र हैं और उनके यह अधिकार हैं अगर लड़कों के पास सारे अधिकार हैं तो। क्या हमें अपनी पुरातन मानसिकता की बेढ़ी से बाहर नहीं निकलना होगा ?

रेल्वे द्वारा तकनीक के इस्तेमाल और कुछ खामियाँ सेवाओं में.. (Technology used by Railway… some problems in services)

    पिछले महीने हमने अपनी पूरी यात्रा रेल से की और विभिन्न तरह के अनुभव रहे कुछ अच्छे और कुछ बुरे। कई वर्षों बाद बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर गये थे, हमारा आरक्षण कर्नाटक एक्सप्रेस से था और सीट नंबर भी कन्फ़र्म हो गया था। तब भी मन की तसल्ली के लिये हम आरक्षण चार्ट में देखना उचित समझते हैं, इसलिये आरक्षण चार्ट ढूँढ़ने लगे, तो कहीं भी आरक्षण चार्ट नहीं दिखा। ५-६ बड़े बड़े टीवी स्क्रीन लगे दिखे जिसपर लोग टूट पड़े थे, हमने सोचा चलो देखें कि क्या माजरा है। पता चला कि आरक्षण चार्ट टीवी स्क्रीन पर दिखाये जा रहे हैं, हमने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि रेल्वे तकनीक का इतना अच्छा इस्तेमाल भी कर सकता है। बहुत ही अच्छा लगा कि रेल्वे ने तकनीक का उपयोग बहुत अच्छे से किया जिससे कितने ही कागजों की बर्बादी बच गई।

    बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर तकनीक का रूप देखकर रेल्वे के बदलते चेहरे का अहसास हुआ। बस थोड़ी तकलीफ़ हुई कि ट्रेन कौन से प्लेटफ़ॉर्म पर आयेगी यह कहीं भी नहीं पता चल रहा था, हालांकि टीवी पर आने और जाने वाली गाड़ियों का समय के साथ प्लेटफ़ार्म नंबर दिखाया जा रहा था, परंतु हमारी गाड़ी के बारे में कहीं कोई जानकारी नहीं थी। खैर पूछताछ करके पता चला कि ट्रेन एक नंबर प्लेटफ़ार्म पर आने वाली है। पूछताछ खिड़्की भी केवल एक ही थी, जिस पर लंबी लाईन लगी हुई थी और लोग परेशान हो रहे थे। हम चल दिये एक नंबर प्लेटफ़ार्म की और, जैसे ही घुसे ट्रेन सामने ही थी अब डब्बे का पता नहीं चल रहा था क्योंकि पूरी ट्रेन की लोकेशन बाहर नहीं लगी थी, तो वहीं प्रवेश द्वार पर बैठे टी.सी. महोदय से पूछा कि डिब्बा किधर आयेगा, और उन्होंने तत्परता से बता भी दिया ( जो कि हमारी उम्मीद के विपरीत था )।

    खैर डब्बे में पहुँचे तो तप रहा था क्योंकि ए.सी. चालू नहीं किया गया था, थोड़ी देर बाद ए.सी. चालू किया तब जाकर राहत मिली। हमने सोचा कि द्वितिय वातानुकुलित यान में पहले के जैसी अच्छी सुविधाएँ मौजूद होंगी और पॉवर बैकअप होता ही है, तो बहुत दिनों से छूटे हुए ब्लॉग पोस्ट पढ़ लिये जायेंगे । पहले तो हमने अपना जरूरी काम किया तो अपने लेपटॉप की बैटरी नमस्ते हो ली, अब चाहिये था बैटरी चार्ज करने के लिये पॉवर, बस यहीं से हमारा दुख शुरु हो गया। १० मिनिट बाद ही पॉवर गायब हो गया, तो इलेक्ट्रीशियन को पकड़ा गया उसने वापस से रिसेट किया परंतु फ़िर वही कहानी १० मिनिट मॆं फ़िर पॉवर गायब हो गया। उसके बाद जब हम फ़िर से इलेक्ट्रीशियन को ढूँढ़ते हुए पहुँचे तो हमें बताया गया कि इससे आप लेपटॉप नहीं चला पायेंगे केवल मोबाईल रिचार्ज कर पायेंगे। लोड ज्यादा होने पर डिप मार जाती है। कोच नया सा लग रहा था तो पता चला कि रेल्वे ने पुराने कोच को ही नया बनाकर लगा दिया है। खैर यह समस्या हमने मालवा एक्सप्रेस में भी देखी परंतु आते समय राजधानी एक्सप्रेस में यह समस्या नहीं थी। अब क्या समस्या है यह तो रेल्वे विभाग ही जाने। परंतु लंबी दूरी की गाड़ियों में यह सुविधा तो होनी ही चाहिये, आजकल सबके पास लेपटॉप होते हैं और सभी बेतार सुविधा का लाभ लेते हुए अपना काम करते रहते हैं।

    द्वितिय वातानुकुलन यान की खासियत हमें यह अच्छी लगती है कि केबिन में सीटें अच्छी चौड़ी होती हैं, परंतु इस बार देखा तो पता चला कि सीटें साधारण चौडाई की थीं। और यह हमने तीनों गाड़ियों में देखा।

    जब आगरा में थकेहारे रेल्वे स्टेशन पर पहुँचे तो गर्मी अपने पूरे शबाब पर थी, और ट्रेन आने में लगभग १ घंटा बाकी था, हमने वहाँ उच्चश्रेणी प्रतीक्षालय ढ़ूँढ़ा तो मिल भी गया और ऊपर से सबसे बड़ी खुशी की बात कि ए.सी. भी चल रहे थे, मन प्रसन्न था कि चलो रेल्वे अपने यात्रियों को कुछ सुविधा तो देता है। बस सोफ़े नहीं थे उनकी जगह स्टील की बैंचे डाल रखी थीं जिस पर यात्री ज्यादा देर तक तो बैठकर प्रतीक्षा नहीं कर सकता। आते समय भोपाल में भी हमने रात को ४ घंटे प्रतीक्षालय में बिताये वहाँ पर भी सुविधा अच्छी थी।

    जाते समय कर्नाटक एक्सप्रेस का खाना निहायत ही खराब था, केवल खाना था इसलिये खाया, ऐसा लग रहा था जैसे कि रूपये देकर जेल में मिलने वाला खाना खरीद कर खा रहे हैं (वैसे अभी तक जेल का खाना चखा नहीं है), वैसे हमें ऐसा लग रहा था तो हम अपने साथ बहुत सारा माल मत्ता अपने साथ लेकर ही चले थे, तो सब ठीक था। आते समय राजधानी एक्स. का खाना भी कोई बहुत अच्छा नहीं था, पहले जो क्वालिटी खाने की राजधानी एक्स. में मिलती थी अब नहीं मिलती। आते समय तो दाल कम पड़ गई होगी तो उसमें ठंडा पानी मिलाकर परोस दिया गया, लगभग सभी यात्रियों ने इसकी शिकायत की, टी.सी. को बोलो तो वो कहते हैं यह अपनी जिम्मेदारी नहीं और पूछो कि किसकी जिम्मेदारी है तो बस बगलें झांकते नजर आते ।

    खैर अब सभी चीजें तो अच्छी नहीं मिल सकतीं, पर कुल मिलाकर सफ़र अच्छा रहा और अब आगे रेल्वे की सुविधा का उपयोग केवल मजबूरी में ही किया जा सकेगा क्योंकि एक तो ३६-३९ घंटे की यात्रा थकावट से भरपूर होती है और उतना समय घर पर रहने के लिय भी कम हो जाता है। अगर रेल्वे थोड़े सी इन जरूरी चीजों पर ध्यान दे तो यात्रियों को बहुत सुविधा होगी।

    अगर पाठकों को पता हो कि इन खामियों की शिकायत कहाँ की जाये, जहाँ कम से कम सुनवाई तो हो, तो बताने का कष्ट करें।

बच्चों के शार्टब्रेक मॆं खाने के लिये क्या दिया जाये, स्कूल ने नोटिस निकाला

    बेटेलाल ने जब से स्कूल जाना शुरु किया है तब से उनके शार्ट ब्रेक और लंच के नाटक फ़िर से शुरु हो गये हैं। रोज जिद की जाती है कि मैगी, पास्ता, पिज्जा या बर्गर दो। हम बेटेलाल को रोज मना करते हैं, मगर कई बार तो जिद पर अड़ लेते हैं, सब बच्चे लाते हैं, और एक आप हैं कि मुझे इन चीजों के लिये मना करते हैं। हमने कितनी ही बार समझाया कि बेटा मैगी, पास्ता, पिज्जा ठंडे हो जाने पर बुल्कुल अच्छे नहीं लगते और स्वास्थ्य के लिये हानिकारक भी होते हैं। इस तरह से लगभग रोज की कहानी हो चली थी। और इस बात से लगभग सभी अभिभावक परेशान रहते हैं।
    शार्ट ब्रेक में अलग अलग चीजें दिया करते हैं अलग तरह के बिस्किट तो कभी उनकी कोई मनपसंदीदा नमकीन या मिठाई और खाने में रोटी सब्जी या परांठा सब्जी। पर बेटेलाल हैं कि कहते हैं उन्हें रोटी सब्जी नहीं मैगी दिया करें, पास्ता दिया करें। पैरेंट्स टीचर मीटिंग के दौरान स्कूल में उनकी मैडम ने हमें पहले ही मना कर दिया था कि बच्चों को यह सब चीजें नहीं दिया करें। परंतु बच्चे हैं कि मानते ही नहीं, घर पर इतनी जिद करते हैं और आसमान सिर पर उठा लेते हैं।
    दो दिन पहले बेटेलाल की स्कूल की वेबसाईट पर नोटिस में शार्ट ब्रेक में मेनू आ गया, जिसमें हर दिन का मेन्यू निश्चित है। अब बेटेलाल को समझा रहे हैं कि बेटा अभी भी मान जाओ नहीं तो स्कूल वाले अब लंच का भी मेन्यू दे देंगे फ़िर क्या करोगे ?
    हमेशा लंच बॉक्स में सब्जी बची हुई आती है, अब देखते हैं कि इस सबका क्या असर होता है। अभिभावक कितना भी समझा लें परंतु बच्चों को समझ में नहीं आता, अगर शिक्षक स्कूल में बोले तो वह बच्चों के लिये पत्थर की लकीर होता है।
    पहले कक्षा में ही लंच करना होता था, अब थोड़ी बड़ी कक्षा में आ गये हैं तो उनकी क्लॉस टीचर बच्चों को स्कूल के छोटे बगीचे में लंच करने ले जाती हैं और लंच करने के बाद टिफ़िन वापिस अपनी क्लॉस में रखकर फ़िर से बच्चे बगीचे में खेलने आ जाते हैं। बेटेलाल के मुँह से यह सब बातें सुनने के बाद अपने स्कूल के दिन याद आ जाते हैं।

क्या बच्चों को होस्टल में नहीं डालना चाहिये ? (Should not put children in Hostel ?)

    “बच्चे मन के सच्चे सारे जग के राजदुलारे, ये वो नन्हे फ़ूल हैं जो भगवान को लगते प्यारे”, बच्चों के ऊपर लिखा गया बहुत पुराना गीत याद आ गया । जिसमें उनके मन को भी बताया गया है कि बच्चे मन के सच्चे होते हैं और उनका मन दर्पण की तरह साफ़ होता है कोई कपट नहीं कोई लालच नहीं।

    कल फ़िल्म “हरे कृष्णा हरे राम” देख रहा था तो आखिरी में जैनिस उर्फ़ जसबीर (जीनत अमान) का संवाद देवानंद से दिखाया गया है, जिसमें जैनिस का एक संवाद कि “मुझे घर की जगह होस्टल मिला”। बहुत गहरे तक उतर गया कि आखिर होस्टल क्यूँ ?

    क्या होस्टल में बच्चे ज्यादा पढ़ते हैं या माता पिता यह सोचकर भेज देते हैं कि कम से कम उनकी तरफ़ से पढ़ाई लिखाई करवाने की जिम्मेदारी खत्म, केवल फ़ीस भरी और बोर्डिंग में डाल दिया। होस्टल या बोर्डिंग में डालने की और भी कोई वजह हो सकती है। खैर मुझे तो समझ में नहीं आती केवल इसके कि बच्चे जो बोर्डिंग में रहते हैं, वो बचपन से ही भला बुरा समझने लगते हैं, और जो घर में रहते हैं वे धीरे धीरे जिंदगी के अनुभवों से सीखते हैं।

    बोर्डिंग में रहने वाले बच्चों का जीवन बिल्कुल संयमित होता है, समय पर सारे कार्य करने होते हैं और घर पर रहने वाले बच्चों के लिये आजादी रहती है वे कुछ भी कर सकते हैं, वे दीन दुनिया और सामाजिकता में अपने आप को लबालब पाते हैं, और बोर्डिंग में रहने वाले बच्चों को यह सब तो नहीं मिल पाता पर जो हम उम्र बच्चों का साथ और अपने ही कक्षा के बच्चों से मस्ती करने को मिलती है वो घर वाले बच्चों को नहीं मिल पाती।

    हमारे एक परिचित हैं उन्होंने एक प्रसिद्ध स्कूल में अपने बच्चे को डालने की सोची कि बोर्डिंग भी है और फ़ीस भी बहुत थी, स्कूल भी काफ़ी अच्छा था, परंतु अंतिम समय पर माता पिता अपने दिल के हाथों मजबूर हो गये और बच्चे को बोर्डिंग में नहीं डाला।

    तो क्या बोर्डिंग में डालने वाले माता पिता अपने बच्चों से प्यार नहीं करते ? ऐसा तो कतई नहीं है, और मैं भी इस बात से सहमत नहीं हूँ परंतु ऐसी क्या चीज है जो माता पिता को बोर्डिंग में डालने पर मजबूर करती है ? विश्लेषण की आवश्यकता है ?

टाटा ने सुनाई फ़िरंगियों को खरी खरी, अंतर है मानसिकता का, विकसित और विकासशील राष्ट्र का… (Tata in london)

    टाटा समूह के प्रमुख रतन टाटा ने कल लंदन में फ़िरंगियों को खरी खरी सुनाई, कि फ़िरंगी लोग ज्यादा काम नहीं करना चाहते और काम करने की इच्छाशक्ति की कमी है।

    अगर शाम को मीटिंग चल रही है और वह छ: बजे तक चलने वाली है तो लोग ५ बजे यह कहकर निकल लेंगे कि हमारी ट्रेन का समय हो गया है और अब हमें घर जाना है, यह घर जाने का समय है।

    सिंगूर का उदाहरण देते हुए बताया कि लगभग ८५% प्लांट तैयार था पर समस्या को देखते हुए गुजरात में नैनो कार का प्लांट लगाया गया और सारे उपकरणों को भी सिंगूर से गुजरात लाया गया और समय पर उत्पादन शुरू किया गया। सारी कानूनी कागजी कार्यवाही भी समय से कर ली गई। अगर यही बात लंदन में की जाये कि प्लांट की जगह समस्या के कारण आखिरी समय पर बदलना है तो यहाँ के प्रबंधन के हाथ पैर फ़ूल जायेंगे और कानूनी कागजी कार्यवाही का हवाला देकर जगह नहीं बदल पायेंगे। फ़िरंगियों की काम करने की इच्छाशक्ति में कमी है और बहुत गहरी निराशा फ़िरंगियों में भरी हुई है।

    ये तो समाचार था परंतु इसके पीछे क्या कारण हैं, वे टाटा ने नहीं सोचे होंगे क्योंकि उनको तो भारत के कर्मचारियों के साथ काम करने की आदत है जो कि वक्त पड़ने पर लगातार अपने काम के समय से भी ज्यादा काम कर सकते हैं। और वाकई कई बार उत्पादन कंपनियों में इसकी जरूरत भी होती है।

    इसके पीछे मानसिकता का बहुत बड़ा अंतर है, भारत विकासशील राष्ट्र है, भारत में बेरोजगारी है, और भारतीय रुपये का मूल्य जानते हैं, उन्हें पता है कि अगर काम ठीक चलेगा तो सब ठीक चलेगा और अगर काम ठीक नहीं चलेगा तो कुछ ठीक नहीं चलेगा।

    पर फ़िरंगियों का देश विकसित देशों की श्रेणी में आता है और उन्हें ज्यादा काम करने की आदत भी इसीलिये नहीं है और करना भी नहीं चाहते हैं क्यूँकि उनको इसकी जरूरत नहीं है, फ़िरंगी लोग Work Life Balance का फ़ार्मुला अपनाते हैं, कि सबको बराबर समय दिया जाये, और अपने समय का सही तरीके से उपयोग करते हैं।

    भले ही टाटा ने फ़िरंगियों की दो बड़ी कंपनियों को खरीद लिया है परंतु उनके प्लांट में काम तो उनसे ही करवाना है, इसलिये टाटा को शायद उनकी इन आदतों को भी स्वीकारना होगा और भारतियों से उनकी तुलना करना बंद करनी होगी। अभी भारत को विकसित देश की श्रेणी में आने के लिये भारी मश्क्कत का सामना करना है।

    विकसित देश की श्रेणी में आने के लिये राजनैतिक इच्छाशक्ति चाहिये जो कि भारत की सरकार में नहीं है, उद्योंगों को बढ़ावा देने के लिये सरकार को नियम शिथिल करना होंगे और भ्रष्टाचार का खात्मा करना होगा।  अगर इतना ही हो गया तो भारत के विकसित देशों की श्रेणी में आने से कोई नहीं रोक सकता।

     हमारी अर्थव्यवस्था बहुत मजबूत है और भारत दुनिया में बहुत बड़ा बाजार है, तभी तो अमेरिका की कंपनियाँ भारत में अपनी दुकानें खोलने को मरी जा रही हैं, पर भारत को अभी अमेरिकी दुकानों की जरूरत नहीं है, पहले भारत अंदर से अपने को सुधार ले फ़िर हालात यह होंगे कि फ़िरंगियों और अमेरिकी धरती पर भारतीय दुकानों के परचम लहरायेंगे।

स्पीकएशिया कैसे अपना उल्लू साध रहा है और कितना रुपया ये कमा चुके हैं सर्वे के नाम पर

    स्पीकएशिया वाले अभी भी जनता को उल्लू बना रहे हैं, अभी आज तारक बाजपेयी जो कि स्पीकएशिया के सी.ओ.ओ. हैं उन्होंने अपना वीडियो जारी किया है, और यह वीडियो गुप्त रूप से उनके खास बनाये गये शब्द स्पीकएशियन लोगों के लिये है। जिसमें तारक बाजपेयी अभी भी जनता को बरगलाने का काम कर रहे हैं और कह रहे हैं कि हम बिल्कुल नया कॉन्सेप्ट बाजार में लाये हैं और इसलिये कोई भी इसको पचा नहीं पा रहा है। और खासकर स्पीकएशियन लोगों से निवेदन किया गया है कि जो ११ हजार रुपये आपसे लिये जा रहे हैं, वह निवेश नहीं है इसके बारे में आप अपने जान पहचान और आसपास के लोगों को बताते जाईये कि यह निवेश नहीं है यह तो आपकी सदस्यता शुल्क है।
    अगर हम इतनी तेजी से बड़े हैं तो केवल इसलिये कि हमारा कॉन्सेप्ट बिल्कुल नया है, पहले सैंकड़ों और हजारों में थे और अब लाखों में हैं और इस वर्ष के अंत तक करोड़ हो जायेंगे।
    अब हम अगर हिसाब लगायें तो पता लगेगा कि इन लोगों ने कितना बड़ा घोटाला करने की ठानी है, क्या आप सोच सकते हैं कि कोई कंपनी महीने में कितने सर्वे करवायेगी और अगर करवायेगी भी तो क्या उस कंपनी को हर सप्ताह सर्वे के लिये इतने लाख या करोड़ लोग चाहियेंगे। अगर १९ लाख लोगों के हिसाब से ही देखा जाये तो हर सप्ताह दो सर्वे देते हैं और अगर मान लिया जाये कि एक कंपनी एक सर्वे देती है तो उस एक सर्वे की कीमत उस कंपनी को लगभग १० करोड़ रुपये चुकाना पड़ रही है।
    अब खुद ही सोचिये कि जैसे जैसे लोग बड़ते जायेंगे वैसे वैसे सर्वे की कीमत कंपनी के लिये बढ़ती जायेगी, तो ऐसी कितनी कंपनियाँ हैं जो हर सप्ताह सर्वे करवाना पसंद करेंगी, शायद एक भी नहीं।
   पहले तो यह जानते हैं कि सर्वे क्यों किया जाता है –
  • जब किसी कंपनी को अपना नया उत्पाद बाजार में उतारना होता है।
  • जब कंपनी को अपने जमा जमाये उत्पाद की बिक्री और बढ़ानी हो।
  • जब कंपनी को अपने प्रतियोगी उत्पाद से कड़ी टक्कर मिल रही हो।
  • जब कंपनी को अपने द्वारा दी जा रही सेवाओं से संतुष्टि ना हो।
    और भी ऐसे बहुत सारे कारण होते हैं, परंतु इनमें से कोई ऐसा कारण नहीं है कि कंपनी हर सप्ताह इतनी बड़ी संख्या में सर्वे करवाये। इस तरह के सर्वे होते भी हैं तो शायद वर्ष भर में एक या एक भी नहीं।
    स्पीकएशिया एक फ़ूलता गुब्बारा है जो कि तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा जनता को बरगलाकर उस गुब्बारे में भर रहा है, और जिस दिन ये बुद्धिजीवी वर्ग इसको उठा नहीं पायेगा, उस दिन करोड़ों रुपयों का चूना लगाकर गायब हो जायेगा।
    इसके प्रबंधन में जितने भी लोग हैं वे तो अपनी मलाई लेकर चट हो जायेंगे और बेचारा फ़ँसेगा वो बेचारा आम बेरोजगार आदमी जो इनके झोल में फ़ँसा हुआ है। प्रबंधन के लोगों ने तो आसानी से १० करोड़ से ज्यादा बना लिये होंगे और अब मजे करेंगे अगर कानून के खेल में फ़ँस भी गये तो आसानी से निकल लेंगे। सभी जानते हैं कि कानून व्यवस्था बनाये रखने में राजनैतिक स्वार्थ हैं और इच्छाशक्ति की कमी है।
    यह ईमेल जो कि स्पीकएशिया के लोगों द्वारा बाजार में फ़ैलाया जा रहा है।
खैर स्पीकएशिया के सी.ओ.ओ.तारक बाजपेयी का वीडियो इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं।

इकोनोमिक टॉइम्स (Economics Times) और टॉइम्स ऑफ़ इंडिया (Times of India) में वित्तीय प्रबंधन पर लिखी जाती है ब्लॉगों से चुराई हुई सामग्री ?

    इकोनोमिक टॉइम्स (Economics Times) और टॉइम्स ऑफ़ इंडिया (Times of India) बहुत सारे लोग पढ़ते होंगे। सोमवार को इकोनोमिक टॉइम्स में वेल्थ (Wealth) और ऐसे ही टॉइम्स ऑफ़ इंडिया (Times of India) में भी आता है, जिसमें वित्तीय प्रबंधन के बारे में बताया जाता है, पिछले दो महीनों से लगातार इन दोनों अखबारों को पढ़ रहा हूँ, तो देखा कि वित्तीय प्रबंधन पर लिखी गई सारी सामग्री वित्तीय ब्लॉगों से उठायी गई है, और ब्लॉगों पर लिखी गई सामग्री को फ़िर से नये रूप से लिखकर पाठकों को परोसा गया है।

    अखबार को सोचना चाहिये कि पाठक वर्ग बहुत समझदार हो गया है, और अगर उनके लेखक अपनी रिसर्च और अपने विश्लेषण के साथ नहीं लिख सकते तो उनकी जगह ब्लॉगरों को ही लेखक के तौर पर रख लेना चाहिये। शायद अखबार के मालिकों और उनके संपादकों को यह बात पता नहीं हो।

    पर यह कितना सही है कि मेहनत किसी और ने की और उसके दम पर इन अखबार के लेखक अपनी रोजीरोटी चलायें। कहानी को थोड़ा बहुत बदल दिया जाता है, पर जो सार होता है वह वही होता है जो कि असली लेख में होता है।

    जो पाठक वित्तीय ब्लॉग पढ़ते होंगे, वे इसे एकदम समझ जायेंगे। इस बारे में मेरी चैटिंग भी हुई एक वित्तीय ब्लॉगर से तो उनका कहना था कि “ब्लॉगर क्या करेगा, ये तो अखबार को सोचना चाहिये, विषय कोई मेरी उत्पत्ति तो है नहीं, कोई भी लिख सकता है, बस मेरी ही पोस्ट को अलग रूप से लिख देया है”।

    कुछ दिन पहले मेरी बात एक वित्तीय विशेषज्ञ और  वित्तीय अंतर्जाल चलाने वाले मित्र से हो रही थी, उनसे भी यही चर्चा हुई तो वो बोले कि उन्होंने मेरे ब्लॉग कल्पतरू पर जो लेख पढ़े थे और जिस तरह से लिखा था, बिल्कुल उसी तरह से अखबार ने लिखा था, और आपकी याद आ गई। तो मैंने उनसे कहा कि ब्लॉगर कर ही क्या सकता है, यह तो इन बेशरम अखबारों को सोचना चाहिये, और उन लेखकों को जो चुराई गई सामग्री से अपनी वाही वाही कर रहे हैं।

    पहले बिल्कुल मन नहीं था इस विषय पर पोस्ट लिखने का परंतु जब मेरी कई लोगों से बात हुई तो लगा कि कहीं से शुरूआत तो करनी ही होगी, नहीं तो न पाठक को पता चलेगा और ना ही अखबारों के मालिकों और संपादकों को, तो यह पोस्ट लिखी गई है उन अखबारों के लिये जो चुराई हुई सामग्री लिख रहे हैं और उनको पता रहना चाहिये कि पाठक प्रबुद्ध है और जागरूक भी।

अब स्पीक एशिया ऑनलाईन SpeakAsiaOnline.com का क्या होगा ? लालच की पराकाष्ठा कर दी ।

पहली पोस्ट – स्पीक एशिया ऑनलाईन संभावित बड़ा घोटाला तो नहीं (Probable Scam SpeakAsiaOnline.com !!)

    मेरी पहली पोस्ट स्पीक एशिया ऑनलाईन SpeakAsiaOnline.com पर १७ अप्रैल को थी, इससे पहले तो मैंने इस कंपनी के बारे में कुछ सुना भी नहीं था। खैर अब मछली मगरमच्छ हो गई है और अब सब उसका क्रेडिट लेने में लगे हैं।

    जबकि अक्टूबर में मनीलाईफ़ पत्रिका ने इनके व्यवसाय के बारे में आपत्ति जताते हुए लिखा था कि रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया, आर्थिक अन्वेषण ब्यूरो क्या सो रहे हैं ?

    खैर अब तो सबके सामने सच आ ही गया है, १ महीने पहले इस कंपनी के पास ९ लाख लोग थे और १ महीने में ही १० लाख लोगों को जोड़ लिया है। सोचिये अब यह संख्या बढ़कर १९ लाख हो गई है।यह तो लालच और बिना कुछ करे कमाने की हम भारतियों की पराकाष्ठा है।

    कई ऐसे लोगों को देखा जो कि ४-५ हजार की निजी नौकरी कर रहे थे और जैसे तैसे अपना घर चला रहे थे, उन्होंने लाख रुपये स्पीक एशिया ऑनलाईन SpeakAsiaOnline.com में लगाकर ४० हजार कमाने के ख्बाब देखे और अब कंपनी के ऊपर मीडिया और सरकार का दबाब पड़ने लगा है, अगर स्पीक एशिया ऑनलाईन SpeakAsiaOnline.com गायब हो गई तो इन लोगों के लाख रुपये कौन लौटायेगा और सबसे बड़ी बात क्या इनको आसानी से वापिस नौकरी मिल पायेगी। आज यह घोटाला लगभग 1900 करोड़ रुपये का हो चुका है।

    और जो लोग इससे कमा रहे हैं, वे मीडिया और सरकार का विरोध कर रहे हैं, कि स्पीक एशिया ऑनलाईन SpeakAsiaOnline.com एक तो भारत के बेरोजगारों को रोजगार दे रहा है और सभी लोग उसे बंद करवाने के पीछे पड़े हैं, और इन बेरोजगारों और लालची लोगों को क्या यह बात समझ में नहीं आती है,  कि ये मीडिया और सरकार केवल स्पीक एशिया ऑनलाईन SpeakAsiaOnline.com के पीछे ही क्यों पड़े हैं, और किसी कंपनी के पीछे क्यों नहीं। अगर स्पीक एशिया ऑनलाईन SpeakAsiaOnline.com बताये कि उनकी आमदनी का क्या जरिया है, और अपनी बैलेन्स शीट सबके सामने रखे तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा।

    अगर नेट और सर्वे से पैसे कमाना इतना ही आसान होता तो शायद नेट का उपयोग करने वाले लोग करोड़पति अरबपति हो चुके होते।

    अभी कुछ दिन पहले २ लाख लोगों को स्टॉकगुरुइंडिया ५०० करोड़ का चूना लगाकर गायब हो चुकी है, उनका व्यापार भी कुछ इनकी तरह से ही था।

    वैसे भी हिन्दुस्तान टाईम्स सिंगापुर जाकर स्पीक एशिया ऑनलाईन SpeakAsiaOnline.com के ऑफ़िस की पड़ताल आज कर चुका है, और वहाँ कुछ भी नहीं मिला है। और अब आयकर विभाग की भी आँख खुली है (चलो देर से ही सही, जब जागो तब सवेरा)।

खटमल को कैसे मारें, खटमल को कैसे खत्म करें..? सहायता करें !(How To remove Bed Bugs, How to finish Bed Bugs ? Help !)

    परजीवी खटमल महाराज पता नहीं कहाँ से हमारे फ़्लेट में घुस चुके हैं, पहले इक्का दुक्का थे तो हमने ध्यान नहीं दिया परंतु  कल रात को बिस्तर पर सोने गये तो देखा तकिये के किनारों पर लाईन से पैठ बना चुके थे, हमने तुरत फ़ुरत सारे तकियों और कुशन के गिलाफ़ उतारे और चादर भी हटाकर सब पर काकरोच वाला हिट छिड़का, फ़िर गद्दे पर भी हिट छिड़क दिया और बैडरूम का दरवाजा बन्द करके बाहर कमरे में सो गये।

    सुबह उठकर फ़िर देखा तो पता चला कि खटमलों को कुछ भी नहीं हुआ तो सभी गिलाफ़ों और चादर को वाशिंग मशीन में डालकर धो डाला तो खटमलों की फ़ौज का खात्मा हो चुका था। फ़िर गद्दे की तलाशी ली गई तो कुछ अण्डे दिखे तो वो पेंचकस से रगड़ कर खत्म कर दिये।

    अच्छी खासी मेहनत मशक्कत करवा दी खटमल महाराज ने, फ़िर गूगल पर ढूँढ़ा कि कोई घरेलू इलाज मिल जाये परंतु पता चला कि ये लाईलाज है, वैसे इनसे कोई नुक्सान नहीं है, परंतु सोते समय पूरे शरीर पर रेंगते रहते हैं और काटते रहते हैं, सात दिन में कम से कम इनको खून का भोजन चाहिये, खटमल की औसत उम्र ३०० दिन होती है और एक बार में खटमल ५० अण्डे देते हैं, और इनकी फ़ौज इतनी जल्दी तैयार होती है, कि इंसान को सोचने तक का मौका न मिले। तभी एक ब्लॉग पर भी नजर गई थी, उसमें बताया गया था कि मंदसौर के पास भानपुरा के पास किसी गाँव में एक जड़ी बूटी है, जिसको घर में लटकाने से  सात दिन में खटमल खत्म हो जाते हैं। एक और खबर पढी थी मुंबई की, कि घर में इतने खटमल हैं कि परिवार कार में सोने को मजबूर है।

    अब घरेलू इलाज को ढूँढ़ रहे हैं, क्यूँकि यह समस्या तो ऐसी है कि अब लगी ही रहेगी, क्यूँकि इमारत में फ़्लेट ज्यादा हैं और ये कमबख्त खटमल कहीं से भी रेंगते हुए आ जाते हैं, और इनकी चलने की गति भी बहुत तेज होती है, दीवार और टाईल्स पर भी बिना किसी मुश्किल के चढ़ लेते हैं।

    खैर फ़िलहाल हिट का असर तो कमरे में दिख रहा है, और खटमल भी नहीं दिख रहे हैं, थोड़ी राहत लग रही है, अब जब बिस्तर पर जायेंगे तभी पता चलेगा कि कितनी राहत है। अगर किसी पाठक के पास इन खटमलों को खत्म करने का कोई देसी इलाज हो तो जरूर बतायें, बहुत सारे लोगों का भला होगा।

व्यक्ति के दिमाग का फ़ितूर और कैसे छोटी छोटी चीजें हमारा जीवन हमारी आदत बदल देती हैं ।

    व्यक्ति के दिमाग में अगर कोई बात बैठ जाये तो उसे निकालना बहुत ही मुश्किल होती है, और हमें वह बात पता नहीं कहाँ से हर समय याद आ जाती है।

    मसलन थोड़े समय पहले हमने आयुर्वेद की एक किताब में पढ़ा था कि नहाते वक्त सीधे सर पर पानी नहीं डालना चाहिये पहले पैर पर फ़िर धड़ पर और फ़िर अंत में सिर पर पानी डालना चाहिये, इससे शरीर अनुकूल होता जाता है और बीमारियों से बचाव भी होता है। और कुछ हुआ हो या ना हुआ हो, आज तक वही याद रहता है और उसी तरह से नहा रहे हैं व कभी अगर गलती से भी गलती करने की कोशिश होती है तो फ़ौरन सुधार देते हैं, यह बात पता नहीं दिमाग में हमेशा याद रहती है कि कहीं कोई अनिष्ट ना हो जाये।

    ऐसे ही थोड़े दिन पहले एक ईमेल आया कि अगर बटुआ आप जेब में रखते हैं तो रीढ़ की हड्डी ९० डिग्री से कुछ डिग्री झुक जाती है, क्योंकि एक और बटुआ होने से व्यक्ति एक तरफ़ झुक जाता है, बात तो सही है, पता नहीं कितनी सही और कितनी गलत परंतु हाँ अब बटुआ पीछे से निकल जा चुका है, बटुआ रखने का स्थान बदल दिया गया है।

    अब अगर बटुआ पीछे पैंट की जेब में रखा भी हो तो एकदम से वह ईमेल याद आ जाता है, और अपनी रीढ़ की हड्डी की फ़िक्र में बटुए की जगह बदल देते हैं। हालांकि यह ईमेल खोजा परंतु मिला नहीं अगर कभी मिला तो जरूर पोस्ट पर लगाऊँगा।

    पहले मोबाईल शर्ट की ऊपर की जेब में रखते थे तो सबने मना कर दिया और न्यूज चैनल वालों ने तो हल्ला ही मचा दिया था, बस वह आदत जो छूटी है आज तक छूटी ही है, और अगर कभी गलती से कभी शर्ट में मोबाईल रख भी लिया तो जल्दी से निकाल कर हाथ में ले लेते हैं, नहीं तो ऐसा लगता है कि जिन लोगों ने मना किया था वे सब अपनी आँखें बस मुझ पर ही गड़ाये हुए हैं।

इस तरह की छोटी छोटी चीजें हमारा जीवन हमारी आदत बदल देती हैं।