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कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ३२

गाढोत्कण्ठाम़् – विरह वेदना से उत्पन्न प्रिय या प्रिया से मिलन की उत्कट इच्छा ही उत्कण्ठा कहलाती है। उत्कण्ठा का लक्षण इस प्रकार है –
रागेष्वलब्धविषयेषु वेदना महती तु या।
संशोषणी तु गात्राणां तामुत्कण्ठां विदुर्बुधा:॥
अर्थात जिससे प्रेम हो उसके न मिलने पर मन में ऐसी वेदना होने लगती है कि जिससे शरीर सूखता जाता है, उसे उत्कण्ठा कहते हैं।

बालाम़् –  षोडशी नवयुवती को कहते हैं। स्त्रियाँ १६ वर्ष तक बाला, ३० वर्ष तक

तरुणी, ५० वर्ष तक प्रौढ़ा तथा उससे ऊपर वृद्धा कहलाती है।


शिशिरमथिताम़् – आचार्य मल्लिनाथ ने शिशिर का अर्थ शीत ऋतु लिया है। विश्व कोश में शिशिर का अर्थ पाला भी है जो कि अधिक उपयुक्त जान पड़ता है, क्योंकि पाला कमलिनी को मार देता है।

अन्यरुपाम़् – यक्ष मेघ को बताता है कि उसकी प्रिया वियोग में इतनी दुर्बल हो गयी होगी कि उसका रुप जो कि पूर्व वर्णित (तन्वी श्यामा आदि) से अत्यन्त बदल गया होगा इसलिए उसे ध्यानपूर्वक देखकर पहिचानना।

असकलव्यक्ति – जैसा कि पीछे बताया गया है कि प्रेषितभर्तृका नायिका श्रृंगार नहीं करती है। अत: यक्षिणी ने भी श्रृंगार नहीं किया होगा तथा बालों को नहीं सँवारा होगा। इस कारण लटकते हुए बालों ने उसके मुख को ढक लिया होगा, जिससे वह पूर्ण रुप से दिखाई नहीं देगा।

बलिव्याकुला – बलि का अर्थ होता है – देवताओं की आरधाना; क्योंकि यक्षिणी का पति शाप के कारण बाहर गया था इसलिए सकुशल लौट आने के लिये सम्भवत: यक्षिणी बलि कार्य करती हो।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ३१

कलबतनुताम़् – यहाँ कलभ को उपमान बनाया गया है; क्योंकि कलभ और मेघ दोनों में ऊँचाई तथा वर्ण की समानता है तथा मेघ इच्छानुसार रुप धारण करने वाला है। यहाँ तनु का अर्थ शरीर न लेकर छोटा लिया गया है। बत्तीस साल की उम्र वाले हाथी के बच्चे को कलभ



कहा जाता है।

तन्वी – संस्कृत काव्यों में तनुता को सौन्दर्य माना गया है। कोमलांगी, कृशांगी आदि के लिये भी तन्वी पद प्रयुक्त होता है।

निम्ननाभि: – कामसूत्र के अनुसार गहरी नाभिवाली स्त्री में कामवासना का आधिक्य होता है।

चकितहरिणीप्रेक्षणा – मुग्धा नायिका की आँखें डरी हुई हरिणी के समान होती हैं। आचार्य मल्लिनाथ ने इस पर टीका करते हुए लिखा है कि एतेनास्या: पद्मिनीत्व व्यज्यते। पद्मिनी का लक्षण इस प्रकार है –
भवति कमलनेत्रा नासिका क्षुद्ररन्ध्रा अविरलकुचयुग्मा चारुकेशी कृशाड़्गी।
मृदुवचनसुशीला गीतवाद्यानुरक्ता सकलतनुसुवेशा पद्मिनी पद्मगन्धा॥
स्त्रियों के चार भेद माने गये हैम – पद्मिनी, हस्तिनी, शड़्खिनी और चित्रिणी।

परिमितकथाम़् – पतिव्रता स्त्री पति के दूर चले जाने पर श्रृंगार आदि छोड़ देती है तथा आकर्षित करने वाले वस्त्रों का भी त्याग कर देती है और कम बोलती है। कालिदास की यह नायिका भी पतिव्रता हैं और इसको प्रेषितपतिका नायिका कहा है। याज्ञवल्क्य स्मृति में इस प्रकार की नायिका के लिए क्रीड़ा, हास्य आदि का निषेध किया है –
क्रीड़ां शरीरसंस्कारं स्माजोत्सवदर्शनम़्।
हास्यं परगृहे यानं त्यज्येत़् प्रोषितभर्तृका॥
चक्रवाकीम़् इव – यह प्रसिद्ध है कि चकवा – चकवी दिन के समय साथ साथ रहते हैं, परन्तु रात्रि में एक – दूसरे से बिछुड़ जाते हैं। रात्रि वियोग का कारण किसी मुनि का शाप बताया गया है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि वियोग का कारण है – इन्होंने सीता जी के वियोग में रोते हुए रामचन्द्र जी का उपहास किया था। संस्कृत साहित्य में इनका दाम्पत्य प्रेम आदर्श माना जाता है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ३०

रक्ताशोक: – अशोक दो प्रकार का होता है – (१) श्वेत पुष्पों वाला, (२) लाल पुष्पों वाला। रक्ताशोक का प्रयोग यहाँ साभिप्राय है; क्योंकि रक्ताशोक कामोद्दीपक होता है; अत: प्रेमी लोग अपने घरों में रक्ताशोक को लगाते हैं। कवि प्रसिद्धि के अनुसार किसी सुन्दर युवती के बायें पैर के प्रहार से अशोक वृक्ष में पुष्प निकलते हैं।

केसर: – अशोक वृक्ष की तरह केसर वृक्ष को भी कामोद्दीपक
बताया गया है। यह देखने में सुन्दर होता है तथा इसकी गन्ध भी अच्छी होती है। कवि प्रसिद्धि के अनुसार यह केसर का वृक्ष जब युवतियाँ अपने मुख में मदिरा भरकर इसके ऊपर कुल्ला करती हैं तभी विकसित होता है।

कुरबक – कुरबक वसन्त ऋतु में खिलने वाला गुलाबी रंग का पुष्प है। कवि प्रसिद्धि के अनुसार यह सुन्दर युवती के आलिंगन से विकसित होता है।

दोहद – दोहद का अर्थ गर्भिणी स्त्री की अभिलाषा या उसका इच्छित पदार्थ होता है। गौण रुप से उन वस्तुओं को भी दोहद कहा जाता है जिनसे वृक्ष आदि पर पुष्पादि आते हैं। कुछ स्थलों पर दोहद के स्थान पर दौर्ह्र्द अथवा दौह्र्द (द्वि+ह्रदय)  का प्राकृत रुप है, जो संस्कृत काव्यों में अपना लिया गया है।

वासयष्टि: – घरों में पक्षियों के बैठने के लिए एक लम्बा डण्डा तथा उसके ऊपर कुछ फ़ैली हुई छतरी सी होती है, उसे वासयष्टि कहते हैं। यक्ष के घर में यह वासयष्टि स्वर्णनिर्मित थी। उसको मजबूती प्रदान करने के लिए उसकी जड़ों में चारों ओर मरकत मणियों का चबूतरा बनाया गया था।

लिखितवपुषौ – शड़्ख और पद्य दोनों ही मांगलिक माने जाते हैं, इस कारण प्राय: लोग अपने घर के दरवाजे पर इन्हें बना लेते हैं। यक्ष के घर के द्वार के दोनों ओर शड़्ख और पद्य के पुरुषाकार चित्र बने हुए थे।

शड्खपद्यौ – आचार्य मल्लिनाथ ने शड़्ख और पद्य को कुबेर की निधियों के नाम माने हैं। ये निधियाँ नौ मानी जाती हैं – महापद्य, पद्य, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील और खर्व। परन्तु यहाँ शड़्ख और पद्य का अभिप्राय शंख और कमल से भी हो सकता है। यद्यपि कमल अर्थ में पद्य शब्द का प्रयोग नपुंसकलिड़्ग में होता है, लेकिन यह पुंल्लिड़्ग में भी होता है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २९

दिनकरहयस्पर्धिन: – (सूर्य के घोड़ों से प्रतिस्पर्धा करने वाले) अलकापुरी के घोड़े पत्तों के समान हरे वर्ण वाले हैं। क्योंकि सूर्य के घोड़े भी हरे वर्ण के माने जाते हैं, अत: अलकापुरी के घोड़े रंग में भी तथा वेग में भी सूर्य के घोड़ों से स्पर्धा करते हैं।

प्रत्यदिष्टाभरणरुचय: – आभूषणों की अभिलाषा छोड़े हुए । वीर योद्धाओं का आभूषण शक्तिशाली शत्रु के प्रहार से हुए घाव के निशान होते हैं, स्वर्ण आदि के आभूषण नहीं। अलका के योद्धा रावण की तलवार
के प्रहार सह चुके हैं, इसलिए उनकी आभूषणों की इच्छा समाप्त हो गयी है। पौराणिक आख्यान के अनुसार कुबेर विश्रवा का इडविडा से उत्पन्न पुत्र था। इस तरह वह रावण का अनुज था। कहा जाता है कि एक बार रावण ने कुबेर पर आक्रमण करके उसका पुष्पक विमान तथा कोष छीन लिया था, अत: उस युद्ध में अलकापुरी के योद्धा रावण की तलवार के प्रहार सह चुके थे।

चन्द्रहास – चन्द्रहास रावण की तलवार का नाम था, क्योंकि वह तलवार चन्द्र का उपहास करती थी अर्थात चन्द्र से अधिक चमकने वाली थी, इसलिए उसे चन्द्राहास कहते थे।

भयात़् – शिव पुराण की एक कथा के अनुसार भगवान शिव ने कामदेव को अपने तृतीय नेत्र से भस्म कर दिया था। तभी से उसे अनड़्ग: कहते है और वह भगवान शिव से भयभीत रहता है तथा उनके समक्ष अपने धनुष आदि को धारण नहीं करता। इसलिए अलका में शिव की उपस्थिती से उसे भस्म होने का निरन्तर भय बना रहता है।

वापी – बावड़ी, जिसमें उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हों । काव्यों में धनिकों के गृहों में एवं राजभवनों में इस प्रकार की वापी का प्राय: उल्लेख मिलता है।

इन्द्रनीलै: – यह नीले रंग का एक बहुमूल्य पत्थर होता है। इसे नीलम भी कहते हैं।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २८

गत्युत्कम्पात़् – कमिनियाँ अपने प्रियतमों के पास अभिसार के लिये शीघ्रतापूर्वक जाती हैं, क्योंकि एक तो रात्रि का भय दूसरे किसी को उनके जाने का पता न चल जाये। इसलिये शरीर के हिलने-डुलने से उनके केशपाश में लगे अलंकरण आदि मार्ग में गिर जाते हैं, जिससे यह सूचित हो जाता है कि अभिसारिकाएँ इस मार्ग से गयी हैं।

पत्रच्छेदै: – पत्तों के टुकड़ों से – इससे सिद्ध होता है कि स्त्रियाँ प्राचीन काल में अपने श्रंगार प्रसाधन में फ़ूल-पत्तियों का उपयोग करती थीं।

कामिनीनाम़् – साधारणत: तरुणी और सुन्दर स्त्री को कामिनी कहते हैं। किन्तु यहाँ पर अतिशय काम से पीड़ित स्त्री अर्थ ग्राह्य है, क्योंकि कामश्चाष्टगुण: स्मृत: स्त्रियों का काम वेग पुरुषों की अपेक्षा आठ गुना होता है, चाणक्य की इस उक्ति के अनुसार स्त्रियों को कामिनी कहते हैं। इसलिए इसका अर्थ यहाँ अभिसारिकायें हैं। अभिसारिका दो प्रकार की होती हैं, अपने पास प्रियतम को बुलाने वाली और दूसरी स्वयं प्रियतम के पास जाने वाली, यहाँ पर दूसरी प्रकार की अभिसारिका दृष्टिगोचर होती है।

सकलमबलामण्डनम़् – (सम्पूर्ण स्त्रियों की प्रसाधन सामग्री को) भाव यह है कि अकेला कल्पवृक्ष ही वहाँ की स्त्रियों के लिये समस्त प्रसाधन सामग्री प्रस्तुत कर देता है। यह प्रसाधन सामग्री चार प्रकार की बतायी है। रसाकर के अनुसार –
कचधार्यं देहधार्यं परिधेयं विलेपनम़्।
चतुर्धा भूषणं प्राहु: स्त्रीणां मन्मथदैशिकम़्॥
अर्थात कचधार्य, देहधार्य, परिधेय और विलेपन – ये चार प्रकार की है। पुष्पोद़्भेदम़् (कचधार्य) [केशों में धारण करने योग्य], मधु तथा भूषणानां विकल्पान (देहधार्य) [शरीर पर धारण करने योग्य], चित्रं वास: (परिधेय) [पहने जाने वाला], लाक्षारागम़् (विलेपन) [लेप किया जाने वाला]। इस प्रकार ये स्त्रियों के काम के उपदेशक चार प्रकार के अलंकार होते हैं।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २७

नीवीबन्धोच्छ्वसितशिथिलम़् – अधोवस्त्र की गांठ के खुल जाने के कारण ढीला। नीवी का अर्थ स्त्रियों के नीचे के वस्त्र की गांठ होता है तथा नीवी अधोवस्त्र को भी कहते हैं।

बिम्बाधराणाम़् – बिम्ब फ़ल के समान (लाल) ओष्ठ वाली स्त्री को बिम्बाधरा कहते हैं। अथवा प्रियतम के बार-बार चुम्बन
करने से अथवा दशनक्षत करने के काराण बिम्ब फ़ल के समान जिनके लाल ओष्टः हैं, वे बिम्बाऽधरा कहलाती हैं, अथवा शब्दार्णव के अनुसार स्त्री विशेष को बिम्बाऽधरा कहते हैं –
विशेषा: कामिनी कान्ता भीरुर्बिम्बाऽधराड़्गना।
विफ़लप्रेरणा – निष्फ़ल वेग वाली – अभिप्राय यह है कि जब रति क्रीड़ा के लिए प्रियतम अपनी प्रेमिकाओं के वस्त्र उतारते हैं तो वे प्रेमिकाएँ उनके सामने नग्नावस्था में लज्जा के मारे शर्म से गढ़ जाती हैं; अत: वे मणियों के प्रज्ज्वलित दीपकों को बुझाने का प्रयास करती हैं और उनके ऊपर मुट्ठी भरकर चूर्ण फ़ेंकती हैं, किन्तु वे दीपक नहीं बुझते; क्योंकि वे तेल के दीपक नहीं हैं वे तो मणिमय दीपक हैं। इस कारण उनका प्रयास निष्फ़ल रहता है। इस प्रकार यहाँ प्रेमिकाओं का मुग्धापन व्यञ्जित होता है, वे मुग्धा भोली-भाली नायिकाएँ हैं, जो प्रियतम के सहवास से लजाती हैं।

सततगतिना – निरन्तर गति करने वाली, वायु सदा संचरण करती रहती है; अत: निरन्तर गतिशील रहने के कारण वायु को सततगति कहते हैं।

विमानप्रभूमी – विमान – सात मंजिलों वाले ऊँचे भवनों को कहते हैं, अग्रभूमि ऊपर का भाग, छत, छज्जा, अटारी। यहाँ अग्रभूमि का अभिप्राय अटारी या सबसे ऊपर की मंजिल है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २६

कुसुमशरजात़् – कामदेव के धनुष का दण्ड इक्षु से बना माना जाता है तथा प्रत्यञ्चा काले काले भौरों की श्रेणी से तथा उससे छोड़े जाने वाले वाण पाँच माने जाते हैं


इष्टसंयोगसाध्यात़् – अलका निवासी ज्वरादि से पीड़ित नहीं होते थे और यदि वे किसी से पीड़ित होते थे तो काम जन्य सन्ताप से
और वह प्रिय मिलन से दूर हो जाता था।


प्रणयकलहात़् – प्रेमी पति के किसी अपराध के कारण पत्नी के रुठ जाने को प्रणयकलह कहा जाता है। यक्षों का पत्नियों से केवल मान के कारण ही क्षणिक वियोग होता था, किसी वैधव्य या प्रवास आदि के कारण नहीं।


वित्तेशानाम़् – वित्त का ईश अर्थात धन का स्वामी। वित्तेश कुबेर और यक्ष दोनों के लिये प्रयुक्त होता है। यक्ष चूँकि कुबेर के कोष की रक्षा करते हैं इसलिए उन्हें भी वित्तेश कहा जाता है।


यौवनात़् – यक्ष देवयोनि मानी जाती है, इसलिए उनमें वृद्धावस्था नहीं होती, वे सदा युवावस्था में ही रहते हैं।


मन्दाकिन्या: – गंगा के अनेक नाम हैं; जैसे – जह्नुतनया, जाह्नवी, भागीरथी, मन्दाकिनी आदि। गंगा स्वर्ग, मर्त्य और पाताल तीनों लोकों में अवस्थित है। स्वर्ग में रहने वाली गंगा को मन्दाकिनी, मर्त्यलोक में स्थित गंगा  को भागीरथी तथा पाताल में स्थित गंगा को भोगवती कहते हैं। केदारनाथ से होकर बहने वाली गंगा की धारा को भी मन्दाकिनी कहते हैं। पौराणिक आख्यानों में हिमालय को देवताओं का वास स्थान बताया गया है। इसी कारण कैलाश में स्थित अलका की समीपवर्तिनी गंगा को मन्दाकिनी कहा जाता है।


कनकसिकतामुष्टिनिक्षेपगूडै: – यह एक देशी खेल है । इसमें एक बालक हाथ में मणि आदि को लेकर किसी रेत के ढेर में छिपाता है और दूसरे बालक एकत्रित किये गये रेत में उसे ढूँढते हैं। शब्दार्णव में इस खेल को गुप्तमणि या गूढ़्मणि नाम से पुकारा जाता है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २५

उन्मत्तभ्रमरमुखरा: – अलकापुरी में वृक्षों पर सभी ऋतुओं में सदा पुष्प विकसित रहते हैं, इसीलिये भ्रमर भी नित्य उन पर गुञ्जारते रहते हैं।

पादपा नित्यपुष्पा: – यद्यपि वृक्षों पर समय-समय पर पुष्प विकसित होते हैं परन्तु वहाँ अलकापुरी में वृक्ष सदा पुष्पों से युक्त रहते हैं।

हंसश्रेणीरचितरशना – हंस कमलनाल खाते हैं, अलकापुरी में कमलनियों पर
सदा कमल विकसित होते रहते हैं, इसलिये वहाँ कमलनियाँ सदा हंसों से घिरी रहती हैं।

नित्यभास्वत्कलापा: – वहाँ अलकापुरी में घर-घर में पालतू मोर हैं और मोर वर्षा की काली-काली घटा देखकर कूकते हैं तथा वर्षा ऋतु में ही इनके पंखों में चमक आती है, किन्तु अलकापुरी में सदा मोर कूकते रहते हैं और उनके पंखों में चमक रहती है।

नित्यज्योत्स्ना: – क्योंकि सिर पर चन्द्रमा की कला को धारण किये हुये शिव सदा अलकापुरी के उद्यान में रहते हैं, इस कारण वहाँ की रात्रियाँ सदा चाँदनी से युक्त होती हैं।

प्रतिहततमोवृत्तिरम्या: – इससे ज्ञात होता है कि अलकापुरी में रात्रियाँ सदा प्रकाश से युक्त रहती हैं; इसलिए वहाँ कभी भी कृष्ण पक्ष नहीं होता, सदा शुक्लपक्ष ही रहता है।

आनन्दोत्थम़् – अलकापुरी में यक्षों की आँखों में आँसू हर्ष के कारण ही आते थे, दु:ख के कारण नहीं। भाव यह है कि वहाँ अलकापुरी में दु:ख नाम की कोई वस्तु नहीं है। सब और सदा सुख ही सुख रहता है, इसलिए यक्षों की आँखों में जो आँसू दिखायी देते हैं वे सब आनन्द के कारण हैं, दु:ख के कारण नहीं।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २४

हलभृत इव – बलराम गौरवर्ण के थे और वे नीले वस्त्र धारण करते थे। जब वे कन्धे पर नीला दुपट्टा रखते थे तो और भी सुन्दर प्रतीत होते थे। इसी की कल्पना कवि ने की है कि कैलाश पर्वत श्वेत है और उस पर काला मेघ बलराम की शोभा को धारण कर लेगा।

हेमाम्भोजप्रसवि – यह मान्यता है कि गंगा आदि के दिव्य जलों में स्वर्णकमल
उगते हैं, परन्तु यहाँ स्वर्णकमल कहने का अभिप्राय यह है कि उषाकाल में सूर्य की किरणों से उनकी छटा सुनहरी हो जाती है।

कल्पद्रुम – कल्पवृक्ष पाँच देव वृक्षों में से है, ऐसी मान्यता है कि यह मन के अनुकूल वस्तुएँ प्रदान करने वाला वृक्ष है –
नमस्ते कल्पवृक्षाय चिन्तितान्न्प्रदाय च।
विश्वम्भराय देवाय नमस्ते विश्वमूर्तये॥
लीलाकमलम़् – कमल का पुष्प जब क्रीड़ा के लिए हाथ में लिया जाता है तब उसे लीलाकमल कहते हैं। कालिदास ने कुमारसम्भव और रघुवंश में भी उसका उल्लेख किया है। कमल ग्रीष्म और शरद़् में खिलता है। कुन्द हेमन्त ऋतु में, लोध्र शिशिर में, कुरबक वसन्त में, शिरीष ग्रीष्म में खिलता है तथा कदम्ब वर्षा ऋतु के आने के साथ विकसित होता है। इस प्रकार वर्णन करके महाकवि ने यह दिखाया है कि अलकापुरी में छ: ऋतुओं की शोभा सदा रहती है।

लोध्र प्रसवरजसा – लोध्र पुष्प की धूलि से – यह मुख पर लगाने के लिये पाउडर की तरह प्रयुक्त होता है। इससे स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में भी स्त्रियाँ मुख पर पाउडर का प्रयोग करती थीं।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २३

बलिनियमनाभ्युद्यतस्य विष्णो: – बलि प्रह्लाद का पौत्र तथा विरोचन का पुत्र था। वह असुरों का राजा था तथा दानशीलता के लिये प्रसिद्ध था। विष्णु वामन का अवतार लेकर ब्राह्मण के वेश में बलि के यहाँ पहुँचे और तीन पग पृथ्वी की याचना की और बलि के स्वीकार कर लेने पर पहले पग में पृथ्वी और दूसरे

पग में आकाश को नाप लिया। तीसरे पग के लिये जब कोई स्थान न रहा तब बलि ने अपना सिर विष्णु के समक्ष रख दिया। विष्णु ने तीसरे पग में उसे नापकर बलि को पाताल भेज दिया।


दशमुखभुजोच्छ्वासितप्रस्थसन्धे: – यहाँ महाकवि कालिदास ने वा.रा. के उत्तरकाण्ड सर्ग १६ की कथा की ओर संकेत किया है कि जब रावण अपने भाई कुबेर को जीतकर वापिस आ रहा था तभी उसका पुष्पक विमान रुक गया। रावण ने देखा वहाँ शिव के गण खड़े थे। उन्होंने रावण को पर्वत से होकर जाने को मना किया, जब गण नहीं माने तब रावण को बड़ा क्रोध आया और उसने कैलाश पर्वत को उखाड़ फ़ेंकना चाहा। तभी शिव ने पर्वत को अपने पैर के अँगूठे से दबा दिया। पीड़ा से वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा; इसलिये उसे रावण (रुशब्दे – रवीति इति रावण:) कहने लगे। तब उसने शिव की पूजा की तथा शिव ने प्रसन्न होकर चन्द्रहास खड़्ग दी।

त्रिदशवनितादर्पणस्य – कैलाश पर्वत इतना निर्मल है कि उसमें देवाड्गनाएँ अपना मुख देखकर प्रसाधन कर लेती हैं। इसीलिए इसको देवताओं की स्त्रियों का दर्पण कहा गया है। त्रिदश देवता को कहते हैं। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार दी है – तिस्र: दशा: येषां ते त्रिदशा: अर्थात़् जिनकी तीन अवस्थाएँ शैशव, कौमार्य और युवावस्था होती हैं, उनकी वृद्धावस्था नहीं होती। दूसरे – तृतीया दशा येषां ते अर्थात जिसकी केवल तृतीय ही अर्थात़् युवावस्था ही होती है। तीसरे – त्रि:दश परिमाणमेषामस्तीति त्रिदशा: अर्थात़् तीन बार दश – तीस अर्थात ३० वर्ष की अवस्था वाले, देवता सदा तीस वर्ष की अवस्था के ही रहते हैं।