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दिल्ली घूम लिया जाये तो दिमाग भी शांत हो जायेगा
कहीं घूमे हुए बहुत समय हो गया था, इतना अंतराल भी बोर करने लगता है, कि कब हम रूटीन जीवन से इतर हो कुछ अलग सा करें, तो बस पिछले सप्ताहाँत हमने सोच लिया कि इस सप्ताहाँत पर अच्छे से दिल्ली घूम लिया जाये तो दिमाग भी शांत हो जायेगा और ऊर्जा भी आ जायेगी। बहुत दिनों से लग रहा था कि कार में कुछ समस्या है, तो हमने सुबह सबसे पहले कार के पहिये का एलाईनमेंट और बैलैन्सिंग करवाया और उसके दो दिन पहले ही दुर्घटना बीमा के तहत हमने कार की विंड शील्ड कंपनी के सर्विस सेंटर से बदलवाई थी।
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साइड अपर के लोचे और स्लीपर में ठंड को रोकने का इंतजाम
वो सही ही कहते हैं आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है ।
रेल्वे द्वारा तकनीक के इस्तेमाल और कुछ खामियाँ सेवाओं में.. (Technology used by Railway… some problems in services)
पिछले महीने हमने अपनी पूरी यात्रा रेल से की और विभिन्न तरह के अनुभव रहे कुछ अच्छे और कुछ बुरे। कई वर्षों बाद बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर गये थे, हमारा आरक्षण कर्नाटक एक्सप्रेस से था और सीट नंबर भी कन्फ़र्म हो गया था। तब भी मन की तसल्ली के लिये हम आरक्षण चार्ट में देखना उचित समझते हैं, इसलिये आरक्षण चार्ट ढूँढ़ने लगे, तो कहीं भी आरक्षण चार्ट नहीं दिखा। ५-६ बड़े बड़े टीवी स्क्रीन लगे दिखे जिसपर लोग टूट पड़े थे, हमने सोचा चलो देखें कि क्या माजरा है। पता चला कि आरक्षण चार्ट टीवी स्क्रीन पर दिखाये जा रहे हैं, हमने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि रेल्वे तकनीक का इतना अच्छा इस्तेमाल भी कर सकता है। बहुत ही अच्छा लगा कि रेल्वे ने तकनीक का उपयोग बहुत अच्छे से किया जिससे कितने ही कागजों की बर्बादी बच गई।
बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर तकनीक का रूप देखकर रेल्वे के बदलते चेहरे का अहसास हुआ। बस थोड़ी तकलीफ़ हुई कि ट्रेन कौन से प्लेटफ़ॉर्म पर आयेगी यह कहीं भी नहीं पता चल रहा था, हालांकि टीवी पर आने और जाने वाली गाड़ियों का समय के साथ प्लेटफ़ार्म नंबर दिखाया जा रहा था, परंतु हमारी गाड़ी के बारे में कहीं कोई जानकारी नहीं थी। खैर पूछताछ करके पता चला कि ट्रेन एक नंबर प्लेटफ़ार्म पर आने वाली है। पूछताछ खिड़्की भी केवल एक ही थी, जिस पर लंबी लाईन लगी हुई थी और लोग परेशान हो रहे थे। हम चल दिये एक नंबर प्लेटफ़ार्म की और, जैसे ही घुसे ट्रेन सामने ही थी अब डब्बे का पता नहीं चल रहा था क्योंकि पूरी ट्रेन की लोकेशन बाहर नहीं लगी थी, तो वहीं प्रवेश द्वार पर बैठे टी.सी. महोदय से पूछा कि डिब्बा किधर आयेगा, और उन्होंने तत्परता से बता भी दिया ( जो कि हमारी उम्मीद के विपरीत था )।
खैर डब्बे में पहुँचे तो तप रहा था क्योंकि ए.सी. चालू नहीं किया गया था, थोड़ी देर बाद ए.सी. चालू किया तब जाकर राहत मिली। हमने सोचा कि द्वितिय वातानुकुलित यान में पहले के जैसी अच्छी सुविधाएँ मौजूद होंगी और पॉवर बैकअप होता ही है, तो बहुत दिनों से छूटे हुए ब्लॉग पोस्ट पढ़ लिये जायेंगे । पहले तो हमने अपना जरूरी काम किया तो अपने लेपटॉप की बैटरी नमस्ते हो ली, अब चाहिये था बैटरी चार्ज करने के लिये पॉवर, बस यहीं से हमारा दुख शुरु हो गया। १० मिनिट बाद ही पॉवर गायब हो गया, तो इलेक्ट्रीशियन को पकड़ा गया उसने वापस से रिसेट किया परंतु फ़िर वही कहानी १० मिनिट मॆं फ़िर पॉवर गायब हो गया। उसके बाद जब हम फ़िर से इलेक्ट्रीशियन को ढूँढ़ते हुए पहुँचे तो हमें बताया गया कि इससे आप लेपटॉप नहीं चला पायेंगे केवल मोबाईल रिचार्ज कर पायेंगे। लोड ज्यादा होने पर डिप मार जाती है। कोच नया सा लग रहा था तो पता चला कि रेल्वे ने पुराने कोच को ही नया बनाकर लगा दिया है। खैर यह समस्या हमने मालवा एक्सप्रेस में भी देखी परंतु आते समय राजधानी एक्सप्रेस में यह समस्या नहीं थी। अब क्या समस्या है यह तो रेल्वे विभाग ही जाने। परंतु लंबी दूरी की गाड़ियों में यह सुविधा तो होनी ही चाहिये, आजकल सबके पास लेपटॉप होते हैं और सभी बेतार सुविधा का लाभ लेते हुए अपना काम करते रहते हैं।
द्वितिय वातानुकुलन यान की खासियत हमें यह अच्छी लगती है कि केबिन में सीटें अच्छी चौड़ी होती हैं, परंतु इस बार देखा तो पता चला कि सीटें साधारण चौडाई की थीं। और यह हमने तीनों गाड़ियों में देखा।
जब आगरा में थकेहारे रेल्वे स्टेशन पर पहुँचे तो गर्मी अपने पूरे शबाब पर थी, और ट्रेन आने में लगभग १ घंटा बाकी था, हमने वहाँ उच्चश्रेणी प्रतीक्षालय ढ़ूँढ़ा तो मिल भी गया और ऊपर से सबसे बड़ी खुशी की बात कि ए.सी. भी चल रहे थे, मन प्रसन्न था कि चलो रेल्वे अपने यात्रियों को कुछ सुविधा तो देता है। बस सोफ़े नहीं थे उनकी जगह स्टील की बैंचे डाल रखी थीं जिस पर यात्री ज्यादा देर तक तो बैठकर प्रतीक्षा नहीं कर सकता। आते समय भोपाल में भी हमने रात को ४ घंटे प्रतीक्षालय में बिताये वहाँ पर भी सुविधा अच्छी थी।
जाते समय कर्नाटक एक्सप्रेस का खाना निहायत ही खराब था, केवल खाना था इसलिये खाया, ऐसा लग रहा था जैसे कि रूपये देकर जेल में मिलने वाला खाना खरीद कर खा रहे हैं (वैसे अभी तक जेल का खाना चखा नहीं है), वैसे हमें ऐसा लग रहा था तो हम अपने साथ बहुत सारा माल मत्ता अपने साथ लेकर ही चले थे, तो सब ठीक था। आते समय राजधानी एक्स. का खाना भी कोई बहुत अच्छा नहीं था, पहले जो क्वालिटी खाने की राजधानी एक्स. में मिलती थी अब नहीं मिलती। आते समय तो दाल कम पड़ गई होगी तो उसमें ठंडा पानी मिलाकर परोस दिया गया, लगभग सभी यात्रियों ने इसकी शिकायत की, टी.सी. को बोलो तो वो कहते हैं यह अपनी जिम्मेदारी नहीं और पूछो कि किसकी जिम्मेदारी है तो बस बगलें झांकते नजर आते ।
खैर अब सभी चीजें तो अच्छी नहीं मिल सकतीं, पर कुल मिलाकर सफ़र अच्छा रहा और अब आगे रेल्वे की सुविधा का उपयोग केवल मजबूरी में ही किया जा सकेगा क्योंकि एक तो ३६-३९ घंटे की यात्रा थकावट से भरपूर होती है और उतना समय घर पर रहने के लिय भी कम हो जाता है। अगर रेल्वे थोड़े सी इन जरूरी चीजों पर ध्यान दे तो यात्रियों को बहुत सुविधा होगी।
अगर पाठकों को पता हो कि इन खामियों की शिकायत कहाँ की जाये, जहाँ कम से कम सुनवाई तो हो, तो बताने का कष्ट करें।
मुंबई का सफ़र २३/११/२०१० भाग – ४ समाप्त (Mumbai Travel 23/11/2010 – Part – 4)
काम निपटाने के बाद वापिस फ़ुटपाथों से होते हुए चर्चगेट स्टेशन की ओर जाने लगे, तो फ़ुटपाथों पर पटरी लगाकर बहुत से लोग बैठे हुए थे, सब अलग अलग तरह की चीजें बेच रहे थे, चीजें वहीं होती जिसे देखकर मन ललचा जाये या जिसकी जरुरत पड़ती रहती हो। और दाम भी इतना कम कि व्यक्ति सोच भी न पाये हाँ मोलभाव तो हर जगह होता है, उसमें महारत होना चाहिये। हम भी चाईनीज खिलौने वाले के पास रुके, बेटेलाल बहुत दिनों से कार की जिद कर रहे थे, कि एक कार और चाहिये, जी हाँ एक और कार क्योंकि एक रिमोट कंट्रोल कार (फ़रारी) पहले ही दिला चुके हैं, वहाँ एक टैंक के रुप वाली कार अच्छी लगी, नैनो भी थी, पर टैंक ज्यादा अच्छा लगा, वह अपने आप चारों तरफ़ अलटता पलटता भी था, दो बैटरी से चलता था, हमें बोला ८० रुपये, हमने कहा सही दाम लगा लो हमें लेना है, भाव नहीं पूछना है, वैसे हम भाव कम ही करते हैं, सामने वाला आदमी अपने आप ही ठीक दाम लगा ले तो भाव करने की जरुरत ही महसूस नहीं होती है। बस उसने हमें बोला कि आखिरी दाम ७० रुपये होगा, तो हम चुपचाप आगे निकल लिये, चर्चगेट स्टेशन के पास पहुँचे तो वहाँ खिलौने वाला एक और दिखा उससे पूछा कि कितना लोगे इस टैंक का वह हमें बोला ६० हम बोले कि ६० में दो सैल भी डालकर दे दो। उसने बिना ना नुकुर करे चुपचाप सैल डाले, गाड़ी चैक की और वापिस डब्बे में गाड़ी पैक करके हाथ में धर दी। हमने रकम चुकाई और चले लोकल पकड़ने के लिये।
स्टेशन पर पहुँचे तो देखा कि ऑटोमेटिक टिकिट वेन्डिंग मशीन बंद पड़ी है, तो टिकिट खिड़की की और १० रुपये लेकर बढ़ लिये, एक बोरिवली का टिकिट लिया और १ रुपया वापिस जेब में रखकर मुड़े ही थे कि देखा कि सामने की तरफ़ दो टिकिट मशीनें लगी हुई थीं, हम रेल्वे प्रशासन को कोसते हुए लोकल की तरफ़ बड़ चले।
चारों प्लेटफ़ॉर्म पर बोरिवली की लोकल के बोर्ड लगे थे, दो बोर्ड पर स्लो थी और दो पर फ़ास्ट, हमने ४ नंबर प्लेटफ़ार्म वाली लोकल पकड़ी क्योंकि उस समय ६.४२ हो रहे थे और वह ६.५२ की फ़ास्ट लोकल थी, तो बैठने की जगह आराम से मिल जाती, और हम आराम से बैठ भी गये, पहले कूपे में ही, क्योंकि हमें कांदिवली उतरना था और वहाँ पुल पहले कूपे के पास में ही आता है। भूख भी लग रही थी, सोचा कि कोई भेलपुरी वाला आता होगा तो ले लेंगे, परंतु किस्मत कि कोई भेलपुरी वाला नहीं आया, और हम वहीं बैठे हुए सफ़र शुरु होने का इंतजार करने लगे। जैसे जैसे लोकल के जाने का समय नजदीक आता जा रहा था, वैसे ही भीड़ का दबाब बड़ने लगा।
बाहर मतलब प्लेटफ़ॉर्म पर और अंदर लोकल में भी लगातार २६/११ के मद्देनजर सतर्कता बरतने की सलाह दी जा रही थी, अगर कोई भी संदिग्ध वस्तु दिखे तो फ़ौरन वर्दी में गश्त कर रहे पुलिस अधिकारियों को जानकारी दें। इस तरह से आतंक के विरुद्ध सघन अभियान चलाया जा रहा था।
हम फ़िर अपना कानकव्वा (हैंड्सफ़्री) मोबाईल में लगाकर एफ़.एम. चैनल सुनने लगे, साथ ही कुछ फ़ोन करने थे, जो करे पर लोकल में होने की वजह से आवाज साफ़ नहीं थी, आवाज कट रही थी, और काल ड्राप हो रही थी, हमने अपने मित्र को बोला कि बाद में काल करते हैं, हालांकि वह काल अभी तक नहीं कर पाये हैं, केवल आलस्य के कारण। लोकल ट्रेन में फ़ोन की आवाज इसलिये साफ़ नहीं आती है, क्योंकि हाई वोल्टेज वायर ट्रेन के पास होते हैं।
तकरीबन ४५ मिनिट में हम कांदिवली पहुँच गये, फ़िर पुल पारकर बस स्थानक की ओर बड़ चले, वहाँ फ़िर लाईन लगी हुई थी, जाते ही २ मिनिट में बस आ गई, मुंबई में सबसे अच्छी बात है कि लोग अनुशासन से रहते हैं, और जो इसका पालन नहीं करता है, उसे सिखा दिया जाता है, और यह अनुशासन हर शहर के लिये जरुरी होता है। बस का टिकिट लिया ७ रुपये का और दूरी होगी मुश्किल से ३-४ किमी., कैसी विसंगती है कि लोकल में ९ रुपये में हम ३५ किमी. आ गये और बस में ७ रुपये में ३-४ किमी., फ़िर भी बेस्ट बोलती है कि किराया और बढ़ाना चाहिये। आखिरकार दिनभर की भागदौड़ के बाद घर पहुँच गये लगभग रात के ९.३० बजे।
मुंबई का सफ़र २३/११/२०१० भाग – ३ (Mumbai Travel 23/11/2010 – Part – 3)
लोकल आखिरकार चर्चगेट स्टेशन पर पहुँच ही गयी, पर लोकल से उतरना भी आसान नहीं है, क्योंकि मैं चर्चगेट पहुँचा था लगभग शाम के ५.४० बजे और शाम ५.०० बजे से रात ९-९.३० बजे तक वहाँ से बोरिवली या विरार के लिये आने वाले लोगों की भीड़ लगी रहती है, और जैसे ही लोकल रुकती है, वैसे ही सीट के लिये लोग लोकल में टूट पड़ते हैं, घमासान मच जाता है, उतरने वाले यात्री चुपचाप दुबके हुए खड़े होते हैं, जब भीड़ का वेग कम हो जाता है तब उतरते हैं, अगर कोई नया व्यक्ति मुंबई में आया होता है और उसे यह सब पता नहीं होता है तो या तो कोई बता देता है और वह चुपचाप वैसा ही करता है नहीं तो बेचारे का मुँह ही टूटता है, और लोगों की गाली अलग खाता है।
चर्चगेट स्टेशन पर कोई गेट नहीं है बस स्टॆशन का नाम चर्चगेट है, हम बाहर निकल रहे थे, और भीड़ अपने पूरे वेग से लोकल पकड़ने की और प्लेटफ़ॉर्म की और बड़ रही थी, हमें भीड़ को चीरते हुए आगे बड़ना पड़ रहा था। फ़िर उल्टे हाथ की ओर का सबवे पकड़कर सीधे अहिल्याबाई होलकर बस स्थानक तक पहुँचे, इसी सबवे में सड़क की एक लड़ाई का शूट हुआ था, जिसमें संजय दत्त ४-५ गुंडों को मारते हैं।
सबसे पहले हमने ५ रुपये का छोटा ग्लास गन्ने का रस पिया, लोग कहते हैं कि यह हाईजीनिक नहीं है, परंतु अगर मन हो तो वह कर ही लेना चाहिये, फ़िर बाद में जो होगा वो देखेंगे, परंतु अगर कुछ होना होता तो शायद बहुत सारे लोगों को हो गया होता। फ़िर अपने नोकिया ई ६३ पर गूगल मैप्स खोला और डी.एन.रोड जहाँ जाना था, रास्ता देखा और चल पड़े, वैसे तो फ़ोर्ट का पूरा एरिया पैदल कई बार नापा है, परंतु इस बार कई दिनों बाद जाना हुआ था, तो कहीं गलत रास्ते पर न पहुँच जायें इसलिये गूगल मैप की सहायता ले ही ली।
बीच में २-३ सिग्नल भी थे जहाँ पर सिगनल लाल बत्ती होने तक लगातार वाहन अपनी पूरी रफ़्तार से चौराहे पार करते रहते हैं, और लाल बत्ती होते ही गजब की रफ़्तार से ब्रेक भी लगा देते हैं। यह देखना भी किसी रोमांच से कम नहीं होता है, बीच में ही फ़ैशन स्ट्रीट भी पड़ती है, जहाँ कम बजट में अच्छी चीजें मिल जाती हैं, मोल भाव करना ही होता है, बस आपको मोलभाव करने में महारत होनी चाहिये। फ़िर पहुँचे हुतात्मा चौक, जिसे शायद हार्निमेन सर्किल और फ़्लोरा फ़ाऊँटेन भी कहा जाता है, जहाँ चारों तरफ़ पुरानी इमारते दिखेंगी परंतु उसमें कार्यालय सारे अंतर्राष्ट्रीय बैंक या कंपनी के होंगे, बहुत सारी भारतीय कंपनियों के भी कार्यालय यहाँ हैं।
वैसे जितने खुले फ़ुटपाथ मुंबई के इस क्षैत्र में हैं उतने शायद ही कहीं और होंगे। यह फ़ुटपाथों का स्वर्ग है, यहाँ पैदल चलने का अपना अलग ही मजा है, पुरानी इमारतें देखते जाओ, चमकती सड़कों पर डबल डेकर बसें और पुरानी फ़िएट टैक्सी इसका सुखद अहसास बड़ा देती है। डी.एन. रोड पर पहुँचकर जहाँ हमें जाना था, वह इमारत देखते ही याद आ गई, और फ़िर हम अपना काम निपटाने चल दिये।
जारी…
मुंबई का सफ़र २३/११/२०१० भाग – २ (Mumbai Travel 23/11/2010 – Part – 2)
मुंबई का सफ़र २३/११/२०१० भाग – १ (Mumbai Travel 23/11/2010 – Part – 1)
मुंबई से उज्जैन यात्रा सीट पर पहुँचते ही १५ वर्ष पुरानी यादें ताजा हुईं 2 (Travel from Mumbai to Ujjain 2)
पिछला विवरण निम्न पोस्ट की लिंक पर चटका लगाकर पढ़ सकते हैं।
मुंबई से उज्जैन रक्षाबंधन पर यात्रा का माहौल और मुंबई की बारिश १ (Travel from Mumbai to Ujjain 1)
बोरिवली से हमारी ट्रेन का सही समय वैसे तो ७.४२ का है परंतु हमने कभी भी इसे समय पर आते नहीं देखा है, जयपुर वाली ट्रेन का समय ठीक १५ मिनिट पहले का है, वह अवन्तिका के समय पर आती है, और फ़िर एक लोकल विरार की और फ़िर लगभग ८.०० बजे अवन्तिका आती है।
इतनी भीड़ रहती है कि प्लेटफ़ार्म पर समझ ही नहीं आता कि कैसे थोड़ा समय बिताया जाये। अपने समान पर ध्यान रखने में और अगर बच्चा साथ में हो तो उसके साथ तो वक्त कैसे बीतता है समझ सकते हैं।
पुरानी एक पोस्ट की भी याद आ गई – “ऐ टकल्या”, विरार भाईंदर की लोकल की खासियत और २५,००० वोल्ट
हमारे मित्र साथ में जा रहे थे, तो उन्होंने बेटेलाल को आम के रस वाली एक बोतल दिला दी, और एक कोल्डड्रिंक ले आये, बस पहले हमारे बेटेलाल ने सबके साथ पहले कोल्डड्रिंक साफ़ किया वह भी भरपूर ड्रामेबाजी के साथ, और फ़िर अपनी आम के रस वाली बोतल, बेटेलाल ने आसपास के इंतजार कर रहे यात्रियों का जमकर मनोरंजन किया।
जयपुर वाली ट्रेन आ गई, और राखी की छुट्टी के कारण यात्रियों की भीड़ का रेला ट्रेन पर टूट पड़ा, २-३ मिनिट बाद चली ही थी कि एकदम किसी ने चैन खींच दी, तो जैसी आवाज आ रही थी उससे हमें साफ़ पता चल रहा था कि वातानुकुलित डिब्बे में से चैन खींची गई है। दो सिपाही दौड़कर देखने गये, तभी हम देखते हैं कि एक दंपत्ति अपने दो बच्चों के साथ दौड़ा हुआ आ रहा है और कुली उनका सूटकेस लेकर दौड़ा हुआ आ रहा है, इतनी देर में वे सामने ही वातानुकुलित डिब्बे में चढ़ गये, तभी ट्रेन चल पड़ी, हमें संतोष हुआ कि चलो कम से कम ट्रेन नहीं छूटी।
फ़िर एक विरार लोकल आयी, धीमी बारिश जारी थी पर विरार वाले हैं कि मानते ही नहीं, मोटर कैबिन के बंद दरवाजे पर भी दो लोग लटके हुए जाते हैं, दो डब्बे के बीच में ऊपर चढ़ने के लिये एंगल होते हैं, उस पर भी चढ़ कर जायेंगे, और एक दो लोग तो छत पर भी चढ़ जायेंगे अपनी श्यानपत्ती दिखाने के चक्कर में, जबकि सबको पता है कि छत पर यात्रा करना मतलब सीधे २५ हजार वोल्ट के तार की चपेट में आना है।
बेटेलाल का ट्रेन में खींचा गया फ़ोटो
अब हमारा इंतजार खत्म हुआ, अवन्तिका एक्सप्रेस हमारे सामने आ पहुँची, ऐसा लगा कि हमारे डब्बे में सब बोरिवली से ही चढ़ रहे हैं, कुछ लोग मुंबई सेंट्रल से भी आये थे पर बोरिवली से कुछ ज्यादा ही लोग थे। जैसे तैसे चढ़ लिये और अपने कूपे में पहुँचकर समान जमाने लगे।
हमारी चार सीट थीं, और दो लोग पहले से ही मौजूद थे, एक भाईसाहब और एक लड़की, भाईसाहब हमसे ऊपर वाली सीट लेकर सोने निकल लिये, हम लोग बैठकर बात कर रहे थे, तो हमने ऐसे ही एक नजर लड़की की तरफ़ देखा तो लगा कि इसे कहीं देखा है, पर फ़िर लगा कि शायद नजरों का धोखा हो, पर वह लड़की भी हमें पहचानने की कोशिश कर रही थी, ऐसा हमें लगा।
फ़िर अपनी भूली बिसरी स्मृतियों के अध्याय को टटोलने लगे और साथ में बात भी कर रहे थे, फ़िर थोड़ी देर बाद याद आ गया कि अरे ये तो १५ वर्ष पुरानी बात है, पर ऐसा लग रहा था कि कल की ही बात हो, वह शायद हमारे परिवार को देखकर बात करने में संकोच कर रही थी, हमने अपनी पत्नी और मित्र को बताया कि यह लड़की १५ वर्ष पहले हमारे साथ पढ़ती थी, पर हमें नाम याद नहीं आ रहा है, और इसकी बड़ी बहन बड़ौदा में रहती है, जो कि मिलने भी आयेगी। ये दोनों हमें बोले कि जाओ फ़िर बात करो हमने सोचा छोड़ो कहाँ अपने परिवार और मित्र के सामने पुरानी बातों को उजागर किया जाये, वो भी सोचेगी कि पता नहीं क्या क्या बात होगी, तो इसलिये हमने बात ही नहीं की।
१५ वर्ष पुराने पहचान वाले आसपास बिल्कुल अंजान बनकर बैठे रहे, बड़ौदा आया और उनकी बहन मिलने भी आयीं, शायद वे भी उज्जैन आ रही थीं परंतु पूना वाली ट्रेन से, जो कि इसके १५ मिनिट पीछे चलती है। बिना बात किये हम उज्जैन में उतर गये। परंतु एकदम १५ वर्ष पुराने दिन ऐसे हमारी नजरों के सामने घूम गये थे जैसे कि कल की ही बात हो।
ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – ८ [बच्चों की चिल्लपों पूरी ट्रेन में, और एक ब्लॉगर से मुलाकात] आखिरी भाग
पहला भाग, दूसरा भाग, तीसरा भाग, चौथा भाग, पाँचवा भाग, छठा भाग, सातवां भाग
ट्रेन में हमारे बेटेलाल को खेलने के लिये अपनी ही उम्र का एक और दोस्त अपने ही कंपार्टमेंट में मिल गया, और क्या मस्ती शुरु की है, दोनों एक से बढ़कर एक करतब दिखाने की कोशिश कर रहे थे। पूरा डब्बा ही बच्चों से भरा हुआ था, लग रहा था कि अभी स्कूल की छुट्टियाँ चल रही हैं।
ट्रेन में बैठते ही हमारे बेटेलाल को भूख लगने लगती है चाय पीने की इच्छा होने लगती है, उस वक्त तो कुछ भी खिला लो पता नहीं उनके पेट में कौन घुसकर बैठ जाता है।
बेटेलाल अपने दोस्त के साथ मस्ती में मगन थे, फ़िर शौक चर्राया कि अपर बर्थ पर जायेंगे, तो बस फ़ट से अपर बर्थ पर चढ़ लिये, उनके दोस्त के मम्मी और पापा हमसे कहते रहे कि अरे गिर जायेगा, हम बोले हमने ट्रेंड किया है चिंता नहीं कीजिये नहीं गिरेगा। तो बस उसकी देखा देखी उनके दोस्त भी अपर बर्थ पर जाने की जिद करने लगे, उनके पापा ने चढ़ा तो दिया पर उनका दिल घबरा रहा था, अपर बर्थ पर जाने के बाद तो दोस्त की भी हालत खराब हो गई, वो झट से नीचे आने की जिद करने लगा, तो बेटेलाल ने खूब मजाक उडाई। फ़िर वो भी नीचे आ गये आखिर उनके दोस्त जो नीचे आ गये थे। बस फ़िर रुमाल से पिस्टल बनाकर खेलना शुरु किया फ़िर तकिये से मारा मारी। एक और लड़का जो कि देहरादून से आ रहा था और इंदौर जा रहा था, बोला कि इन बच्चों में कितनी एनर्जी रहती है जब तक जागते रहेंगे तब तक मस्ती ही चलती रहती है और मुँह बंद नहीं होता। काश अपने अंदर भी अभी इतनी एनर्जी होती।
खैर फ़िर खाना शुरु किया गया, और फ़िर बेटेलाल को पकड़ कर अपर बर्थ पर ले गये कि बेटा अब बाप बेटे दोनों मिलकर सोयेंगे। फ़िर उन्हें २-३ कहानी सुनाई पर सोने का नाम नहीं लिया, बोले कि लाईट जल रही है, पहले उसे बंद करवाओ, तो लाईट बंद करवाई फ़िर तो २ मिनिट भी नहीं लगे और सो लिये। हम फ़िर नीचे उतर कर आये और बर्थ खोलकर बेडरोल व्यवस्थित किया और बेटेलाल को मिडिल बर्थ पर सुलाकर, और अपने बेग की टेक लगा दी जिससे गिरे नहीं। और सोने चल दिये क्योंकि सुबह ५ बजे उज्जैन आ जाता है। रात को एक बार फ़िर नींद खुली तो देखा कहीं ट्रेन रुकी हुई है, पता चला कि ट्रेन ३ घंटे देरी से चल रही है, और किसी पैसेन्जर ट्रेन के लिये इस एक्सप्रेस ट्रेन को रोका गया है। हम फ़िर सो लिये सुबह छ: बजे हमारे बेटेलाल की सुप्रभात हो गई, और फ़िर चढ़ गये हमारे ऊपर कि डैडी उठो सुबह हो गई, उज्जैन आने वाला है देखा तो शाजापुर आने को अभी समय था, हमने कहा बेटा सोने दो और खुद भी सो जाओ या खिड़की के पास बैठकर बाहर के नजारे देखो। हम तो सो लिये पर बेटेलाल ने अपनी माँ की खासी परेड ली। सुबह साढ़े सात हमारे बेटेलाल फ़िर जोर से चिल्लाये डैडी उज्जैन आ गया, हमने कहा अरे अभी नहीं आयेगा, अभी तो कम से कम आधा घंटा और लगेगा, तो नीचे से हमारी घरवाली और आंटी दोनों बोलीं एक स्वर में “उज्जैन आ गया है”, अब तो हम बिजली की फ़ुर्ती से नीचे उतरे और फ़टाफ़ट समान उठाकर उतर लिये।
प्लेटफ़ॉर्म नंबर ६ पर आने की जगह आज रेल्वे ने हम पर कृपा करके ट्रेन को प्लेटफ़ॉर्म नंबर १ पर लगाया था, तो हमारी तो बांछें खिल गईं, बस फ़िर बाहर निकले तो ऑटो करने की इच्छा नहीं थी, तांगे में जाने को जी चाह रहा था, पर एक ऑटो वाला पट गया, तो तांगे को मन मसोस कर छोड़ ऑटो में चल दिये।
दो दिन जमकर नींद निकाली गय़ी यहाँ तक कि दोस्तों को भी नहीं बताया कि हम उज्जैन में हैं। फ़िर किसी तरह तीसरे दिन घर से निकले भरी दोपहर में दोस्तों से मिले फ़िर सुरेश चिपलूनकर जी से मिले और बहुत सारी बातें की। फ़िर चल दिये घर क्योंकि महाकाल जाना था, हमारा महाकाल जाने का प्रिय समय रात को ९.३० बजे का है, क्योंकि उस समय बिना भीड़ के अच्छे से दर्शन हो जाते हैं, और नदी भी अच्छी लगती है, रामघाट पर। फ़िर वहाँ कालाखट्टा बर्फ़गोला और आते आते छत्री चौक पर फ़ेमस कुल्फ़ी। उसके एक दिन पहले ही शाम परिवार के साथ घूमने गये थे तो पानी बताशे और फ़्रीगंज में फ़ेमस कुल्फ़ी खाई थी।
चौथे दिन याने कि १९ मई को वापिस हमें मुंबई की यात्रा करनी थी और हम वापिस मुंबई चल दिये अवन्तिका एक्सप्रेस से, अपनी उज्जैन छोड़कर जहाँ हमारी आत्मा बसती है, जहाँ हमारे प्राण लगे रहते हैं, केवल पैसे कमाने के लिये इस पुण्य भूमि से दूर रह रहे हैं। बहुत बुरा लगता है। जल्दी ही वापिस उज्जैन जाने की इच्छा है, इस बारे में भी सुरेश चिपलूनकर जी से विस्तृत में बात हुई।
मुंबई आते हुए भी बहुत सारी घटनाएँ हुई और लोग भी मिले परंतु कुछ खास नहीं, सुबह ५.३० पर ट्रेन बोरिवली पहुँच गय़ी और हम ऑटो पकड़कर १० मिनिट में अपने घर पहुँच गये। इस तरह हमारी लंबी यात्रा अंतत: सुखद रही।
कुल यात्रा २५२५ किलोमीटर की तय की गई।