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ऑटो में १८० रूपयों का खून और साईकिल की बातें….

    आज सुबह से जो रूपयों का खून होना शुरू हुआ कि बस क्या बतायें ?

    खैर बैंगलोर नई जगह है और यह मुंबई जैसा सरल भी नहीं है, बैंगलोर गोल गोल है। मोबाईल पर भी गूगल मैप्स से मदद लेने की बहुत कोशिश करते हैं, परंतु असलियत में तो कुछ और ही निकलता है और कई बार गूगल मैप कोई और ही रास्ता बताता है।

    आज हमें सुबह पुलिस स्टेशन जाना था, पासपोर्ट के वेरिफ़िकेशन के चक्कर में तो, गूगल पुलिस स्टेशन कहीं और बता रहा था और पुलिस स्टेशन निकला ६ किमी. आगे इस चक्कर में ऑटो में हमारे १८० रूपये ठुक गये। जब सही पुलिस स्टेशन मिला तो पता चला कि यहाँ के लिये तो घर के पास से सीधी वोल्वो बस मिलती है।

    खैर हमारी जेब से निकलकर रूपये ऑटो वाले की जेब में जाना लिखा था तो लिखा था, हम क्या कर सकते थे। सोच रहे थे कि ऑटो वाला भी खुश हो रहा होगा कि रोज ऐसे ही १ – २ ढ़क्कन मिल जायें तो मजा ही आ जाये, और हो सकता है कि रोज फ़ँसते भी होंगे।

    जिस काम के लिये गये थे वह काम तो नहीं हुआ परंतु इतने रूपयों का खून हो गया वह जरूर अखर गया। ऐसा लग रहा था कि कोई बिना चाकू दिखाये हमें लूट रहा है और हम भी मजे में लुट रहे हैं।

    इसलिये अब सोच रहे हैं कि जल्दी से कम से कम दो पहिया वाहन तो ले ही लिया जाये, जिससे कम से कम ऐसे लुटने से तो बचेंगे और समय भी बचेगा।

    साईकिल भी दो पहिया है और बैंगलोर शहर में ५-६ किमी. में साईकिल के लिये विशेष ट्रेक बनाये गये हैं, परंतु अभी बैंगलोर के हर हिस्से में इस तरह के ट्रेक बनाना शायद मुश्किल ही है और अगर रोज २० किमी जाना और २० किमी आना हो तो साईकिल से आना जाना सोचने में ही बहुत मुश्किल लगता है। अगर २० किमी साईकिल चलाकर कार्यालय पहुँच भी गये तो कम से कम काम करने लायक तो नहीं रह जायेंगे।

    वैसे हमने हमारे पिताजी को रोज ३५-४० किमी साईकिल चलाते देखा है, और कई बार अगर कहीं आसपास गाँव में जाना है और जाने के लिये कोई साधन न होता था तो साईकिल से बस स्टैंड और फ़िर साईकिल बस के ऊपर और फ़िर उतर कर वापिस से साईकिल की सवारी, इसी तरह से लौटकर आते थे। सोचकर ही रोमांचित होते हैं, कि वे भी क्या दिन होंगे।

    साईकिल चलाने से स्वास्थ्य तो अच्छा रहता ही है और व्यायाम भी हो जाता है। हमारे पुराने कार्यालय में दो पहिया और चार पहिया वाहन की पार्किंग सशुल्क थी, परंतु साईकिल के लिये निशुल्क। हाँ कई जगह साईकिल परेशानी का सबब भी है, जैसे बड़े मॉल साईकिल की पार्किंग नहीं देते, ५ स्टार होटल साईकिल वालों को मुख्य दरवाजे से अंदर ही नहीं जाने देते हैं, और विनम्रता से मना कर देते हैं, साईकिल का अंदर ले जाना मना है।

    हमने भी साईकिल कॉलेज तक बहुत चलाई, और साईकिल से एक दिन में ५० किमी तक भी चले हैं, थक जाते तो ट्रेक्टर ट्राली को पकड़कर सफ़र तय कर लेते थे। बहुत सारी यादें हैं साईकिल की, बाकी कभी और ….

    खैर साईकिल चलाने से भले ही कितने फ़ायदे होते हों परंतु हम साईकिल लेने की तो कतई नहीं सोच रहे, दो पहिया वाहन सुजुकी एक्सेस १२५ बुक करवा रखी है, अब सोच रहे हैं कि खरीद ही लें।

रेल्वे द्वारा तकनीक के इस्तेमाल और कुछ खामियाँ सेवाओं में.. (Technology used by Railway… some problems in services)

    पिछले महीने हमने अपनी पूरी यात्रा रेल से की और विभिन्न तरह के अनुभव रहे कुछ अच्छे और कुछ बुरे। कई वर्षों बाद बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर गये थे, हमारा आरक्षण कर्नाटक एक्सप्रेस से था और सीट नंबर भी कन्फ़र्म हो गया था। तब भी मन की तसल्ली के लिये हम आरक्षण चार्ट में देखना उचित समझते हैं, इसलिये आरक्षण चार्ट ढूँढ़ने लगे, तो कहीं भी आरक्षण चार्ट नहीं दिखा। ५-६ बड़े बड़े टीवी स्क्रीन लगे दिखे जिसपर लोग टूट पड़े थे, हमने सोचा चलो देखें कि क्या माजरा है। पता चला कि आरक्षण चार्ट टीवी स्क्रीन पर दिखाये जा रहे हैं, हमने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि रेल्वे तकनीक का इतना अच्छा इस्तेमाल भी कर सकता है। बहुत ही अच्छा लगा कि रेल्वे ने तकनीक का उपयोग बहुत अच्छे से किया जिससे कितने ही कागजों की बर्बादी बच गई।

    बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर तकनीक का रूप देखकर रेल्वे के बदलते चेहरे का अहसास हुआ। बस थोड़ी तकलीफ़ हुई कि ट्रेन कौन से प्लेटफ़ॉर्म पर आयेगी यह कहीं भी नहीं पता चल रहा था, हालांकि टीवी पर आने और जाने वाली गाड़ियों का समय के साथ प्लेटफ़ार्म नंबर दिखाया जा रहा था, परंतु हमारी गाड़ी के बारे में कहीं कोई जानकारी नहीं थी। खैर पूछताछ करके पता चला कि ट्रेन एक नंबर प्लेटफ़ार्म पर आने वाली है। पूछताछ खिड़्की भी केवल एक ही थी, जिस पर लंबी लाईन लगी हुई थी और लोग परेशान हो रहे थे। हम चल दिये एक नंबर प्लेटफ़ार्म की और, जैसे ही घुसे ट्रेन सामने ही थी अब डब्बे का पता नहीं चल रहा था क्योंकि पूरी ट्रेन की लोकेशन बाहर नहीं लगी थी, तो वहीं प्रवेश द्वार पर बैठे टी.सी. महोदय से पूछा कि डिब्बा किधर आयेगा, और उन्होंने तत्परता से बता भी दिया ( जो कि हमारी उम्मीद के विपरीत था )।

    खैर डब्बे में पहुँचे तो तप रहा था क्योंकि ए.सी. चालू नहीं किया गया था, थोड़ी देर बाद ए.सी. चालू किया तब जाकर राहत मिली। हमने सोचा कि द्वितिय वातानुकुलित यान में पहले के जैसी अच्छी सुविधाएँ मौजूद होंगी और पॉवर बैकअप होता ही है, तो बहुत दिनों से छूटे हुए ब्लॉग पोस्ट पढ़ लिये जायेंगे । पहले तो हमने अपना जरूरी काम किया तो अपने लेपटॉप की बैटरी नमस्ते हो ली, अब चाहिये था बैटरी चार्ज करने के लिये पॉवर, बस यहीं से हमारा दुख शुरु हो गया। १० मिनिट बाद ही पॉवर गायब हो गया, तो इलेक्ट्रीशियन को पकड़ा गया उसने वापस से रिसेट किया परंतु फ़िर वही कहानी १० मिनिट मॆं फ़िर पॉवर गायब हो गया। उसके बाद जब हम फ़िर से इलेक्ट्रीशियन को ढूँढ़ते हुए पहुँचे तो हमें बताया गया कि इससे आप लेपटॉप नहीं चला पायेंगे केवल मोबाईल रिचार्ज कर पायेंगे। लोड ज्यादा होने पर डिप मार जाती है। कोच नया सा लग रहा था तो पता चला कि रेल्वे ने पुराने कोच को ही नया बनाकर लगा दिया है। खैर यह समस्या हमने मालवा एक्सप्रेस में भी देखी परंतु आते समय राजधानी एक्सप्रेस में यह समस्या नहीं थी। अब क्या समस्या है यह तो रेल्वे विभाग ही जाने। परंतु लंबी दूरी की गाड़ियों में यह सुविधा तो होनी ही चाहिये, आजकल सबके पास लेपटॉप होते हैं और सभी बेतार सुविधा का लाभ लेते हुए अपना काम करते रहते हैं।

    द्वितिय वातानुकुलन यान की खासियत हमें यह अच्छी लगती है कि केबिन में सीटें अच्छी चौड़ी होती हैं, परंतु इस बार देखा तो पता चला कि सीटें साधारण चौडाई की थीं। और यह हमने तीनों गाड़ियों में देखा।

    जब आगरा में थकेहारे रेल्वे स्टेशन पर पहुँचे तो गर्मी अपने पूरे शबाब पर थी, और ट्रेन आने में लगभग १ घंटा बाकी था, हमने वहाँ उच्चश्रेणी प्रतीक्षालय ढ़ूँढ़ा तो मिल भी गया और ऊपर से सबसे बड़ी खुशी की बात कि ए.सी. भी चल रहे थे, मन प्रसन्न था कि चलो रेल्वे अपने यात्रियों को कुछ सुविधा तो देता है। बस सोफ़े नहीं थे उनकी जगह स्टील की बैंचे डाल रखी थीं जिस पर यात्री ज्यादा देर तक तो बैठकर प्रतीक्षा नहीं कर सकता। आते समय भोपाल में भी हमने रात को ४ घंटे प्रतीक्षालय में बिताये वहाँ पर भी सुविधा अच्छी थी।

    जाते समय कर्नाटक एक्सप्रेस का खाना निहायत ही खराब था, केवल खाना था इसलिये खाया, ऐसा लग रहा था जैसे कि रूपये देकर जेल में मिलने वाला खाना खरीद कर खा रहे हैं (वैसे अभी तक जेल का खाना चखा नहीं है), वैसे हमें ऐसा लग रहा था तो हम अपने साथ बहुत सारा माल मत्ता अपने साथ लेकर ही चले थे, तो सब ठीक था। आते समय राजधानी एक्स. का खाना भी कोई बहुत अच्छा नहीं था, पहले जो क्वालिटी खाने की राजधानी एक्स. में मिलती थी अब नहीं मिलती। आते समय तो दाल कम पड़ गई होगी तो उसमें ठंडा पानी मिलाकर परोस दिया गया, लगभग सभी यात्रियों ने इसकी शिकायत की, टी.सी. को बोलो तो वो कहते हैं यह अपनी जिम्मेदारी नहीं और पूछो कि किसकी जिम्मेदारी है तो बस बगलें झांकते नजर आते ।

    खैर अब सभी चीजें तो अच्छी नहीं मिल सकतीं, पर कुल मिलाकर सफ़र अच्छा रहा और अब आगे रेल्वे की सुविधा का उपयोग केवल मजबूरी में ही किया जा सकेगा क्योंकि एक तो ३६-३९ घंटे की यात्रा थकावट से भरपूर होती है और उतना समय घर पर रहने के लिय भी कम हो जाता है। अगर रेल्वे थोड़े सी इन जरूरी चीजों पर ध्यान दे तो यात्रियों को बहुत सुविधा होगी।

    अगर पाठकों को पता हो कि इन खामियों की शिकायत कहाँ की जाये, जहाँ कम से कम सुनवाई तो हो, तो बताने का कष्ट करें।

बैंगलोर की वोल्वो परिवहन व्यवस्था (Bangalore’s Volvo Bus Transportation Facility)

    रोज सुबह ऑफ़िस जाना और वापिस आना, सब अपने सुविधानुसार करते हैं। वैसे ही हम भी सरकार की वोल्वो बस का उपयोग करते हैं, बैंगलोर में सरकार ने वोल्वो की बस सुविधा इतनी अच्छी है कि अपनी गाड़ी लेने का मन ही नहीं करता है। यहाँ वोल्वो का नाम “वज्र” दे रखा है। चूँकि हम मुंबई में लंबे समय रह चुके हैं तो २०-२५ मिनिट चलना अपने लिये कोई बड़ी बात नहीं और वह भी मुंबईया रफ़्तार से, इसलिये कहीं भी आने जाने के लिये वोल्वो का ही उपयोग करते हैं।

    वोल्वो बसों की निरंतरता भी अच्छी है लगभग हर ५-१० मिनिट में व्यस्त रूट की वोल्वो बस उपलब्ध है, कुछ रूट ऐसे भी हैं जहाँ निरंतरता ३० मिनिट से १ घंटे तक की है। टिकट की कीमत भी कम से कम १० रूपये और अधिकतम ४५ रूपये है, यदि दिन भर में ज्यादा यात्रा करनी है तो ८५ रुपये का दिन भर का पास खरीद सकते हैं, जिसमें वोल्वो समेत लगभग सभी बैंगलोर लोकल वाली बसों में यात्रा कर सकते हैं। इस पास से केवल वायु वज्र और बैंगलोर राऊँड बसों में यात्रा नहीं कर सकते हैं। पूरे महीने का पास भी है, जो कि बहुत ही सस्ता पड़ता है, लगभग १३५० रूपयों का, जिसमें किसी भी रूट पर कितनी भी बार पूरे महीने में यात्रा की जा सकती है।

    आरामदायक सीट होने के साथ ही वातानुकुलित होना इस वोल्वो बस की विशेषता है, और अगर आप अपने साथ अपना सूटकेस या बैग भी ले जा रहे हैं तो उसके लिये अतिरिक्त शुल्क नहीं लिया जाता है। इसमें दोनों दरवाजों पर चालक का नियंत्रण रहता है, टिकट देने के लिये कुछ कंडक्टरों के पास हैंडहैल्ड मशीन होती है, जिस पर टिकट कहाँ से कहाँ तक के लिये दिया जा रहा है और उसका शुल्क टंकित रहता है। ज्यादातर चालक परंपरागत टिकट देते हैं, वोल्वो के स्टॉप कम होते हैं, और बहुत ही कम समय में अधिक गति पकड़ना इसकी विशेषता है। सड़कें अच्छी होने की वजह से झटके नहीं लगते और अगर कहीं सड़क ठीक ना भी हो तो भी इसके शॉक अप अच्छॆ हैं, झटके नहीं लगते हैं।

    गंतव्य बोर्ड पर लिखा होता है जो कि इलेक्ट्रॉनिक होता है, जिस पर बस का नंबर और स्थान लिखा होता है, यह कन्न्ड़ और आंग्ल भाषा मॆं होता है। वोल्वो में एक चौंकाने वाली बात हमॆं पता चली कि इसमॆं गियर आटोमेटिक होते हैं, केवल एक्सीलेटर और ब्रेक होता है। बिल्कुल बड़ी लेडीज टूव्हीलर जैसी, बस यह चार पहियों की होती है। इसलिये जब चालक ब्रेक मारता है तो जोर का झटका लगता है, जो कि गियर वाली गाड़ियों में बहुत कम लगता है।

    वैसे वोल्वो बस चालक कहीं पर भी रोक लेते हैं, अगर यात्री चढ़ाने होते हैं पर उतारने के लिये केवल बस स्टॉप पर ही रोकते हैं। सबसे अच्छी बात कि इन बसों में सीटों के लिये कोई आरक्षण नहीं होता। वोल्वो बस से जितनी ज्यादा कमाई होगी उतना ही ज्यादा कमीशन कंडक्टर और चालक को मिलता है, इसलिये चालक और कंडक्टर दोनों ही ज्यादा यात्रियों को लेने के चक्कर में रहते हैं। जिससे बेहतरीन सेवा तो मिलती ही है अपितु यात्री अपने गंतव्य पर जल्दी पहुँच जाते हैं।

    ऐसे ही हवाईअड्डा बैंगलोर से लगभग ४५ कि.मी. दूर स्थित है, और वायुवज्र वोल्वो सेवा लगभग बैंगलोर के हर हिस्से को जोड़ती है और इसका अधिकतम किराया १८० रुपये है, समान रखने के लिये अलग से स्टैंड बनाये गये हैं, इन बसों की निरंतरता कम है और लगभग हर रूट पर १ घंटे का अंतराल है। हवाई अड्डे से बैंगलोर आने के लिये टैक्सियों की सुविधा भी है, जो कि १५ रुपये कि.मी. से मीटर से चलती हैं, इनमें रात्रि के लिये कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं लिया जाता है। अगर बस टर्मिनल तक आयें तो कुछ टैक्सियाँ जो कि बैंगलोर जा रही होती हैं, उनसे मोलभाव किया जा सकता है और अधिकतम ३५० रूपये में बैंगलोर पहुँचा जा सकता है, जबकि मीटर वाली टैक्सी मॆं मीटर से किराया देना होता है जो कि दूरी पर निर्भर करता है अगर आप ४५ कि.मी. जा रहे हैं तो लगभग ७५० रूपयों का मीटर बनता है।

    ऑफ़िस जाने के लिये बहुत सारी कंपनियों में कैब / बस की सुविधा भी रहती है, और अगर आपको कहीं जाना है तो कंपनी की कैब / बस को हाथ देने में बुराई नहीं है वे लंबी दूरी के भी केवल १० रूपये लेती हैं, क्योंकि वे अपने कंपनी के कर्मियों को छोड़कर वापिस जा रही होती हैं।

    बैंगलोर के यातायात परिवहन के बारे में इतनी जानकारी शायद बहुत है। एक बात और गूगल मैप पर जब आप Get Direction by Public Transport ढूँढ़ते हैं तो यह वज्र और वायु वज्र बसों की जानकारी देती है, जिससे आपको पता चलता है कि उस रूट पर कौन सी बस से आप सफ़र कर सकते हैं। बैंगलोर की सभी बसों के बारे में अधिक जानकारी www.bmtcinfo.com पर Route Search से भी ले सकते हैं।

खटमल को कैसे मारें, खटमल को कैसे खत्म करें..? सहायता करें !(How To remove Bed Bugs, How to finish Bed Bugs ? Help !)

    परजीवी खटमल महाराज पता नहीं कहाँ से हमारे फ़्लेट में घुस चुके हैं, पहले इक्का दुक्का थे तो हमने ध्यान नहीं दिया परंतु  कल रात को बिस्तर पर सोने गये तो देखा तकिये के किनारों पर लाईन से पैठ बना चुके थे, हमने तुरत फ़ुरत सारे तकियों और कुशन के गिलाफ़ उतारे और चादर भी हटाकर सब पर काकरोच वाला हिट छिड़का, फ़िर गद्दे पर भी हिट छिड़क दिया और बैडरूम का दरवाजा बन्द करके बाहर कमरे में सो गये।

    सुबह उठकर फ़िर देखा तो पता चला कि खटमलों को कुछ भी नहीं हुआ तो सभी गिलाफ़ों और चादर को वाशिंग मशीन में डालकर धो डाला तो खटमलों की फ़ौज का खात्मा हो चुका था। फ़िर गद्दे की तलाशी ली गई तो कुछ अण्डे दिखे तो वो पेंचकस से रगड़ कर खत्म कर दिये।

    अच्छी खासी मेहनत मशक्कत करवा दी खटमल महाराज ने, फ़िर गूगल पर ढूँढ़ा कि कोई घरेलू इलाज मिल जाये परंतु पता चला कि ये लाईलाज है, वैसे इनसे कोई नुक्सान नहीं है, परंतु सोते समय पूरे शरीर पर रेंगते रहते हैं और काटते रहते हैं, सात दिन में कम से कम इनको खून का भोजन चाहिये, खटमल की औसत उम्र ३०० दिन होती है और एक बार में खटमल ५० अण्डे देते हैं, और इनकी फ़ौज इतनी जल्दी तैयार होती है, कि इंसान को सोचने तक का मौका न मिले। तभी एक ब्लॉग पर भी नजर गई थी, उसमें बताया गया था कि मंदसौर के पास भानपुरा के पास किसी गाँव में एक जड़ी बूटी है, जिसको घर में लटकाने से  सात दिन में खटमल खत्म हो जाते हैं। एक और खबर पढी थी मुंबई की, कि घर में इतने खटमल हैं कि परिवार कार में सोने को मजबूर है।

    अब घरेलू इलाज को ढूँढ़ रहे हैं, क्यूँकि यह समस्या तो ऐसी है कि अब लगी ही रहेगी, क्यूँकि इमारत में फ़्लेट ज्यादा हैं और ये कमबख्त खटमल कहीं से भी रेंगते हुए आ जाते हैं, और इनकी चलने की गति भी बहुत तेज होती है, दीवार और टाईल्स पर भी बिना किसी मुश्किल के चढ़ लेते हैं।

    खैर फ़िलहाल हिट का असर तो कमरे में दिख रहा है, और खटमल भी नहीं दिख रहे हैं, थोड़ी राहत लग रही है, अब जब बिस्तर पर जायेंगे तभी पता चलेगा कि कितनी राहत है। अगर किसी पाठक के पास इन खटमलों को खत्म करने का कोई देसी इलाज हो तो जरूर बतायें, बहुत सारे लोगों का भला होगा।

बस में हमने सुनी दो टूटे दिलों की दास्तान…

    ऑफ़िस से आते समय रोज ही कोई न कोई नया वाकया पेश आता है और वह अपने आप में जिंदगी का बड़ा अनुभव होता है।

    पहले तो सामने वाली सीट पर एक लड़की बैठी थी, जो कि मोबाईल पर किसी से चहक कर बातें कर रही थी, उसके पास लेनोवो का IDEALPAD नाम का लेपटॉप का कवर और उसका बैग था, लेपटॉप अपनी नई पैकेजिंग में था और उसके ऊपर के टैग अभी तक उसी पर झूल रहे थे, वह लड़की अपने लेपटॉप के बारे मॆं ही किसी को बता रही थी, जो कि शायद उसका बहुत करीबी होगा जिससे वह खुशी बांट सकती थी। “देख एक समय वो था और एक समय यह है कि अब मैंने लेपटॉप तक ले लिया है, अच्छे दिन आ गये हैं, और मैं इस बात से बहुत खुश हूँ।”

    थोड़ी देर बात करने के बाद उस लड़की ने अपना आई.पोड कान में लगाया और अगले ही स्टॉप पर उतर गई।

    उसके बाद दोनों सीट खाली हों गई क्योंकि एक सीट पर तो वह लड़की खुद बैठी थी और दूसरी सीट पर उसका समान ।

    उसी स्टॉप से एक लड़का और लड़की चढ़े, दोनों संभ्रांत घर से लग रहे थे, और लड़की बहुत सुन्दर थी (सुन्दर लड़की की तारीफ़ करना कोई बुरी बात तो नहीं, मतलब कि सुन्दर कहना)। दोनों ने आकर्षक कपड़े पहने हुए थे, और उनकी बातें शुरु हुईं।

    पहले लड़का बोला कि “मैं पहले ३ हजार रुपये कमाता था और पंद्रह सौ रुपये जमाकर बाकी पंद्रह सौ से घर चलाता था और उसी समय वह मेरी जिंदगी में आई और मेरी जिंदगी में इस कदर शामिल हो गई, जैसे जिस्म से साँस । तभी उसकी जिंदगी में एक लड़का आया और उसके पास वह सब कुछ था जो मेरे पास नहीं था और वह उसके पास चली गई, मेरे दोस्तों ने मुझे बहुत समझाया था कि लड़कियों के चक्कर में मत पड़, पर जब आदमी का दिल मजबूर होता है तो  दिमाग चलना बंद हो जाता है।”

    लड़की ने ठंडी सांस भरी और कहा “ओह्ह्ह्ह”

    अब लड़की बोली “मैं और वह करीबन ४ साल पहले मिले थे और बहुत अच्छे मित्र थे, धीरे धीरे कब इतने पास आ गये पता ही नहीं चला, उसकी अच्छी नौकरी लग गई और वह टोरोंटो चला गया और मुझे बिसरा दिया, मुझे उसने अपनी जिंदगी से हर तरह से ब्लॉक कर दिया, अपने हर कॉन्टेक्ट को मिटा दिया, जो हमारे कॉमन फ़्रेंड्स थे उन तक को उसने ब्लॉक कर दिया और अपना नया मोबाईल नंबर नहीं दिया।””

    “पता नहीं किस बात पर वह मुझसे उखड़ा था और अगर ब्रेकअप करना ही था तो कम से कम मुझे बोला तो होता तो मैं भी मानसिक रुप से तैयार रहती, लेकिन उसने अपने लिये रास्ता खुला रखा और मुझे पता है कि जब जिंदगी में उसे कहीं भी मेरी जरूरत होगी तो वह फ़िर कोई नई अच्छी सी कहानी लेकर मेरे पास आयेगा और मनाने की कोशिश करेगा,  आखिरकार मैंने भी फ़ैसला लिया कि अब ब्रेकअप ही सही, और मैंने भी अपने सारे कॉन्टेक्ट्स उसके लिये ब्लॉक कर दिये हैं, अपना जीमैल का पता भी बदल दिया, पर ऐसा मेरी किस्मत में ही क्यूँ लिखा था”।

    दोनों बहुत ही रुआँसे और मायूस नजर आ रहे थे, वे बहुत धीमे बातें कर रहे थे परंतु फ़िर भी उनकी बहुत ही गोपनीय बातें सुन ही लीं, यह मेरी गलती है और वे दोनों बातें करते हुए सकुचा भी रहे थे, क्यूँकि वाकई अगर कोई परिचित सुन ले तो अच्छा नहीं लगेगा। उन दोनों की बातें इतनी दर्द से भरी हुईं थीं कि उनकी बातें न सुनने का निर्णय मेरे लिये असाध्य रहा।

    खैर मेरा बस स्टॉप आ गया और मैं उतर गया, उन दोनों को वोल्वो के काँच से देखते हुए उनके लिये दुआ करते हुए कि भगवान इन दुखी दिलों पर रहम की बारिश कर और उनके ऊपर कृपा कर।

वन्डरला एम्य़ूजमेंट पार्क बैंगलोर याने कि मनोरंजन की फ़ुल गारंटी (Wonderla Bangalore Means Full Enjoyment)

    वन्डरला एम्यूजमेंट पार्क बैंगलोर मैसूर रोड पर बैंगलोर से लगभग ३५ किलोमीटर दूर है, और यह मैसूर हाईवे से लगभग १.७ कि.मी. अंदर है, अगर अपने वाहन से जा रहे हैं तो यहाँ पार्किंग की सुविधा उपलब्ध है और बहुत ही विशाल पार्किंग है।

Wonderla Harsh  Harsh with His friend

वन्डरला एम्यूजमेंट पार्क याने कि मनोरंजन की फ़ुल गारंटी, मनोरंजन पार्क को अच्छा साफ़ सुथरा रखा गया है और लगभग ७ एकड़ क्षैत्र में बनाया गया है।

    वन्डरला का एन्ट्री टिकिट बच्चों के लिये ऊँचाई के अनुसार है, एन्ट्री टिकिट ऑनलाईन भी खरीद सकते हैं या फ़िर वहाँ जाकर लाईन में लगकर क्रेडिट कार्ड या नकद खरीद सकते हैं, दोनों की अलग अलग लाईनें हैं।

MonkeyFace WaterPlayPool

    सप्ताहांत और सार्वजनिक अवकाश वाले दिन वन्डरला का टिकिट बड़ों के लिये 680 रुपये और बच्चों के लिये 490 रुपयों का होता है। ज्यादा जानकारी वन्डरला की वेबसाईट से ली जा सकती है ।

यहाँ पर तीन प्रकार की राईड्स हैं – ड्राय राईड्स, वॉटर राईड्स और किड्स राईड्स।

    लगभग सभी ड्राय राईड्स में बैठने के लिये बहुत ही हिम्मत चाहिये होती है, क्योंकि या तो राईड्स बहुत तेजी से नीचे से ऊपर या ऊपर से नीचे आती हैं, या फ़िर थोड़ा ऊपर जाकर गोल गोल घुमाती हैं। वैसे हमने तो बहुत मजे किये सबसे अच्छा लगा मावेरिक । और रोमांच के लिये नेट वॉक है, नेट वॉक बहुत दिनों बात देखी थी इसलिये ६-७ बार वॉक कर ली, इसके पहले एन.सी.सी. में आर्मी अटैचमेन्ट केम्प में की थीं।

High Wheels Elephant ride

    वॉटर राईड्स में प्ले पूल्स, वेव पूल्स, लेजी रिवर, रेन डिस्को और बहुत सारी राईड्स हैं, कुछ फ़ैमिली राईड्स भी हैं। पानी की स्वच्छता का भरोसा वन्डरला देता है परंतु हमें उतना भरोसेमंद नहीं लगा, पानी में लोगों ने गंदगी फ़ैलायी हुई थी, अत: पानी को मुँह में न जाने दें और कोशिश करें कि अपना सिर बचा कर रखें, ज्यादा भीग न पाये।

Elephant ride in Wonderla Ride in Wonderla

    किड्स राईड्स में जम्पिंग फ़्रॉग्स, मिनि एक्सप्रेस, मेरी घोस्ट्स, मिनि पाईरेट शिप, कोन्वॉय, फ़ंकी मंकी और भी बहुत सारी राईड्स हैं। इन राईड्स में बिल्कुल बड़ों की राईड्स जैसा ही मजा है बस इसमें बच्चों की सुरक्षा के लिहाज से ऊँचाई और रफ़्तार कम है।

Kids Ride Monkey face

    सबसे बाद में हमने देखा म्यूजिकल फ़ाऊँटेन और लेजर शो, जो कि थोड़ी देर का ही है, परंतु बेहतरीन है, म्यूजिकल फ़ाऊँटेन तो बहुत जगह देखने को मिलेंगे, पर जो लेजर शो वन्डरला में है वैसा तो कहीं देखा ही नहीं।

    खाने के लिये बहुत सारे रेस्टोरेंट उपलब्ध हैं, बाहर से खाने पीने की वस्तुएँ अंदर ले जाने की मनाही है, पर फ़िर भी सबके भाव बहुत ज्यादा महँगे नहीं हैं, पर हमें खाने की गुणवत्ता ज्यादा ठीक नहीं लगी, पर अगर ज्यादा थके रहते हैं और बहुत तेज भूख लगती है तो कुछ भी खाने को मिल जाये अच्छा ही लगता है।

दिल के मरीज,  रक्तचाप के मरीजों के लिये राईड्स पर मनाही है।

    कुल मिलाकर वन्डरला मनोरंजन पार्क जाना एक बहुत ही अच्छा अनुभव रहा, बस कोशिश करॆं कि सप्ताहांत की जगह सप्ताह में किसी दिन जायें तो भीड़ कम मिलेगी और सारी राईड्स के मजे ले पायेंगे।

बेचारे बैंगलोर के मच्छर भी ना अपना मच्छरपना नहीं कर पा रहे हैं… और मुंबई के मच्छर उस्ताद हैं (Bangalor & Mumbai Mosquitoes)

    जब से बैंगलोर आये हैं, पता नहीं क्यों मुंबई से तुलना की आदत लग गई है, हरेक चीज में। खैर यह तो मानवीय स्वभाव है, हमें जहाँ रहने की आदत हो जाती है और जब नई जगह जाना पड़ता है तो उस माहौल में ढ़लने वाला जो समय है वह तुलना में ही निकलता है। यह चीज वैवाहिक जीवन में प्रवेश करने पर भी होती है 🙂 यकीन नहीं होता तो किसी नये नवेले युगल दंपत्ति से पूछ कर देखें। और यह वस्तुस्थिती शादी के ४-५ वर्ष के बाद भी उत्पन्न होती है फ़िर तो दंपत्ति को आदत पड़ जाती है।

    जी तो आज तुलना है मच्छरों की, जी हाँ बैंगलोर के मच्छरों की। मुंबई के मच्छर इतने चालाक हैं, जैसे उनमें भी मुंबई की भाईगिरी के गुण आ गये हों।

    मच्छरों को मारने के उपाय भी बहुत सारे हैं, और हमने सभी अपनाये भी हैं पर साथ ही मुंबई के मच्छरों की चालाकी और धूर्तता भी देखियेगा और बेचारे बैंगलोर के मच्छरों का सीधापन..

१. अब हम तो मच्छर मारने के लिये इलेक्ट्रानिक रेकेट का उपयोग करते हैं।

मुंबई में जब सोने से पहले रेकेट लेकर निकलते थे, (अरे घर में, पूरी सोसायटी में नहीं) तो मच्छरों को या तो गंध लग जाती थी या उन्होंने अपनी आँखों में बढ़िया से लैंस लगवा लिये थे, जैसे ही रेकेट लेकर जाते मच्छर अपनी मच्छरी दिखा जाते और फ़टाक से उडकर छत पर बैठ जाते या फ़िर बिल्कुल छ्त और दीवार के कोने में बैठ जाते और हमें ऐसा लगता कि चिढ़ाते हुए कहते कि आ बेटा अब कैसे भुनेगा हमें, हम भी कभी बिस्तर पर खड़े होकर तो कभी स्टूल पर खड़े होकर तो कभी खिड़की पर खड़े होकर मारने की कोशिश करते पर ये मच्छर उसके पहले ही उड़ी मार जाते। हम मन मसोस कर रह जाते और फ़िर खिड़की खोलकर मारने की कोशिश करते तो बाहर उड़ी मार जाते और खिड़की के बाहर आँखों के सामने स्थिर उडकर हमें हमारे मुँह पर चिढ़ाते। और अगर किसी उड़ते हुए मच्छर को रेकेट से मारने की कोशिश करो तो वह क्या गजब की पलटी मारकर भाग लेता है।

बैंगलोर में बेचारे मच्छर बहुत आलसी हैं, जहाँ बैठे हैं वहीं बैठे रहेंगे, चालाकी और मच्छरी भाव यहाँ के मच्छरों में है ही नहीं। हम रेकेट लेकर घर में निकलते हैं तो बेचारे चुपचाप रेकेट में भुन जाते हैं, अगर कोई उड़ भी रहा है तो सीधा रेकेट में ही घुस लेता है। दीवार पर बैठा है तो यूँ नहीं कि थोड़ा ऊपर बैठे या छत पर बैठे, सीधा सादा सामने ही दीवार पर बैठ जायेगा और अपन भी बहुत ही इत्मिनान से रेकेट से निपटा देते हैं।

रेकेट उपयोग करने का फ़ायदा – सबसे बड़ा फ़ायदा कि हर दीवार या अलमारी पर खून के दाग या मच्छरों के दाग नहीं पड़े होते हैं, आप बैठे हुए आलस करते हुए, कविता करते हुए मच्छरों को और उड़ते हुए कानों में गुन गुन करते हुए मच्छरों को बहुत ही अच्छे तरीके से रेकेट से निपटा सकते हैं, पहले थोड़ी सी प्रेक्टिस की जरुरत होती है, पर जल्दी ही मच्छर अच्छे से प्रेक्टिस करवा देते हैं।

२. ऑल आऊट, गुडनाईट और भी पता नहीं कितने लिक्विड आते हैं, मच्छरों को मारने के लिये पर मुंबई में मच्छरों का जैसे इन सभी कंपनियों के साथ समझौता था और जो भी ये कंपनियों वाले इन लिक्विड में डालते थे तो मच्छरों को उसकी रेसेपी साझा कर देते होंगे जिससे मच्छर पहले ही इनके खिलाफ़ तैयार हो जाये। वैसे बैंगलोर के मच्छर भी कुछ ही ऐसे हैं, वरना तो अधिकतर तो इन लिक्विड के सामने टिक ही नहीं पाते, मच्छरों को सेटिंग करना अपने मुख्यमंत्री से सीख लेना चाहिये। यही हालात वो क्वाईल के साथ भी है।

३. हाथ से ताली बजाकर या मुठ्ठी बंद्कर कर मच्छर मारना – मुंबई में तो  ताली बजाकर मच्छर मारना लगभग नामुमकिन ही था और अगर कोई कोशिश भी करेगा तो ये मच्छर उस बेचारे को ताली पीटने वाला बनाकर छोड़ते हैं, और फ़िर भी मरते नहीं हैं, मुठ्ठी की तो बात ही छोड़ दीजिये, और साथ ही “साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है” इस गाने का टेप लेकर चलते हैं।  जो मच्छर अपनी मच्छरी से ताली से नहीं मरता वो मुठ्ठी बंद करने से क्या मरेगा। और इधर बैंगलोर में एक मच्छर एक ताली या एक मुठ्ठी, बस मच्छर खत्म। क्या आलसी मच्छर हैं यहाँ के उड़ते भी ऐसे हैं जैसे अपने पर एहसान कर रहे हों, इतनी आसानी से मार सकते हैं कि देखने की बात है।

तो कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि मुंबई के मच्छरों को बैंगलोर में ट्रैंनिग देने की जरुरत है और अच्छे रोजगार की संभावना भी है, साथ ही अच्छा खून भी उपलब्ध है, चूँकि बैंगलोर के मच्छर अपने मच्छरपना कर पाने में अभ्यस्त नहीं हैं तो उनके लिये हर तरह की वैरायटी का स्वच्छ खून उपलब्ध है। आईये मुंबई के मच्छरों आपका स्वागत करने के लिये बैंगलोर के मच्छर राह तक रहे हैं ।

कुछ पल मूँगफ़ली के दाने, भेलपुरी और बस का सफ़र, मुंबई और बैंगलोर

    ऑफ़िस से पैदल ही बाहर निकल पड़ा था, आज अकेला ही था, कोई साथ न था, या तो पहले निकल गये थे या फ़िर रुके हुए थे, मैं ही थोड़ा समय के बीच से निकल गया था। पता नहीं इन कांक्रीट के जंगलों में सोचता हुआ चला जा रहा था। आज तो वो मूँगफ़ली वाला ठेला भी नहीं था, जिससे अक्सर मैं पाँच रुपये के मूँगफ़ली के दाने बोले तो टाईमपास लेता था, पाँच रुपये में ४-५ कुप्पी, उसका भी अपना नापने का अलग ही पैमाना है, बिल्कुल फ़ुल बोतल के ढ्क्कन के साईज की कुप्पी है उसकी। अपनी पुरानी आदत जो पिछले ५-६ साल से मुंबई में लग गयी है, चलते हुए ही खा लेना।

    यहाँ तो सब ऐसे घूर घूर कर देखते हैं, कि जैसे चलते चलते खाकर गुनाह कर रहे हों, या फ़िर जैसे मैं उनका अनुशासन तोड़ रहा हूँ। पर अपन भी बिना किसी की परवाह किये अपने नमकीन वाले मूँगफ़ली के दाने टूँगते हुए अपने बस स्टॉप की ओर बड़ते जाते हैं।

     अब मूँगफ़ली वाला नहीं था और भूख भी लग रही थी थोड़ी कुनमुनी सी, जिसमें केवल टूँगने के लिये कुछ चाहिये होता है, वहीं बस स्टॉप के पास के भेलपुरी वाले को देखा था, देखा था क्या रोज ही देखते हैं, सोचा कि चलो आज इसको भी निपटा लिया जाये।

    १५-२० मिनिट चलने के बाद पहुँच लिये उसके पास, टमाटर काट रहा था, वो भी धीरे धीरे, उसको देखकर ही लगगया कि ये व्यक्ति यहीं का है, अगर मुंबई का भेलपुरी वाला होता तो पूछिये ही मत उनकी प्याज, आलू और टमाटर काटने की रफ़्तार देखते ही बनती है, वह भी चाकू से नहीं, एक पत्ती जैसी चीज होती है जिस पर उनका हाथ बैठ चुका होता है।

    सोचा कि चलो काटने दो, अब इसको क्या बोलें। सब समान भेलपुरी का एक स्टील के भगौने में चमचे से मिलाया और कागज की पुंगी बनाकर उसमें दे दिया और साथ ही एक प्लास्टिक का चम्मच, हमने कहा कि भई अपने को तो पपड़ी चाहिये, और पपड़ी लेकर चल पड़े बस स्टॉप की ओर।

    हालांकि भेलपुरी मुंबई की ही फ़ेमस है, परंतु अब तो हर जगह होड़ लगी है, एक दूसरे के पकवान बनाने की, जबकि मुंबई और बैंगलोर में जमीन आसमान का फ़र्क है, यहाँ मिनिटों में लेट होने पर कुछ नहीं होता, पर वहाँ मुंबई मिनिट मिनिट का हिसाब रखती है।

    वहाँ बस स्टॉप पर खड़े होकर बस का इंतजार भी कर रहे थे और साथ में भेलपुरी खाते भी जा रहे थे, तो लोग फ़िर घूर घूर कर देखना शुरु कर दिये जैसे कि मैं कोई एलियन हूँ। बस आई और हम भेलपुरी खाते हुए बस में चढ़ लिये, कंडक्टर टिकट देने आया तो उसके मनोभावों से लग रहा था कि अभी बोलेगा कि बस में भेलपुरी खाना मना है, परंतु वह चुपचाप टिकट देकर और अनखने से निकल लिया, अब बारी आई आसपास वालों की, तो शाम का समय रहता है, सबको हल्की भूख तो लगती ही है, मुंह में पानी भी आ रहा होगा पर करें क्या मांग तो सकते नहीं ना…! 😉  हम चटकार लेकर भेलपुरी खतम किये और वो कागज की पुंगी बेग के साईड जेब में डाली और बोतल निकाल कर पानी पीकर एक अच्छी सी डकार ली।

हालांकि सबके चेहरे अतृप्त लग रहे थे, पर मैं पूर्ण तृप्त था।

बेनरगट्टा राष्ट्रीय उद्यान, बैंगलोर की सैर (Banerghatta National Park)

    बेनरगट्टा राष्ट्रीय उद्यान घूमने की बहुत दिनों से इच्छा थी, फ़िर एकाएक बैंगलोर मिरर में खबर आई कि कर्नाटक के सारे राष्ट्रीय उद्यानों के प्रवेश शुल्क और सफ़ारी शुल्क १ फ़रवरी से बेइंतहां बढ़ाये जा रहे हैं, तो हमने सोचा कि चलो १ फ़रवरी के पहले ही उद्यान का भ्रमण कर आया जाये।
  बेनरगट्टा नेशनल पार्क मेरे घर से लगभग ३३ किमी है, और मैं बैंगलोर में नया नया हूँ इसलिये बस रूट्स की ज्यादा जानकारी भी नहीं थी, तो बैंगलोर महानगर परिवहन विभाग के अंतर्जाल से जानकारी ली, परंतु वहाँ पर बहुत लंबा रूट दर्शाया जा रहा था। फ़िर हमने अपने भाई की मदद ली, वह भी आजकल बैंगलोर में ही है और अभी २ सप्ताह पहले ही घूम कर आये थे।
    तो पता चला कि हम जिस रूट से जाने की सोच रहे थे वह ५५ किमी लंबा था और उन्होंने हमें ३२ किमी वाला बस रूट बताया, जिसमें हमें एक जगह बस बदलनी थी।
    सुबह लगभग सवा आठ बजे हम घर से निकल लिये, क्योंकि उद्यान का समय सुबह ९ बजे से ६ बजे तक है, हमने सोचा कि जल्दी पहुँचेंगे तो भीड़ कम मिलेगी और सुबह सुबह वैसे भी ताजगी रहती है। माराथल्ली पहुँचकर पहले सुबह का नाश्ता किया, नाश्ते में था इडली, मसाला डोसा और काफ़ी। फ़िर से वोल्वो पकड़कर पहुँचे, बीटीएम लेआऊट जहाँ से हमें बेनरगट्टा नेशनल पार्क जाने वाली बस मिलनी थी, वहाँ जब हम बस स्टॉप पर पहुँच ही रहे थे कि उस रूट की बस हमारे सामने ही निकल गई, और अब अगली बस आधा घंटे के बाद का समय था। उस समय ऐसा लग रहा था कि काश अपनी गाड़ी होती तो इतना इंतजार न करना पड़ता, परंतु जो मजा इस इंतजार में था वह अपनी गाड़ी होने पर थोड़े ही न आता।
    जब तक भ्रमण में रोमांच न हो तो यात्रा का आनंद नहीं होता है, इंतजार यात्रा के आनंद को दोगुना करता है, क्योंकि बहुत सी ऐसी चीजें और लोगों से मुलाकात होती है, जो शायद अपनी गाड़ी होने पर नहीं होती है।
     बैंगलोर में एक अच्छी बात है कि वोल्वो एसी बस में दिनभर का गोल्ड पास ८५ रुपये का बनता है जिसमें वायु वज्र जो कि अंतर्राष्टीय हवाई अड्डे की सेवा है और दैनिक बैंगलोर दर्शन बस में नहीं बैठ सकते हैं, बाकी हरेक BMTC की बस में बैठ सकते हैं। बेनरगट्टा राष्टीय उद्यान पहुँचने के लिये मेजेस्टिक बस स्टैंड से एसी वोल्वो बस 365 मिलती है, और यह सेवा लगभग हर आधा घंटे में उपलब्ध है।
    बेनरगट्टा राष्ट्रीय उद्यान पहुँचकर ऐसा लगा कि बहुत दिनों बाद साँस ले रहे हैं, इतनी शुद्ध हवा, अहा मन में ताजगी भर आई।
    सबसे पहले टिकिट खिड़की पहुँचे वहाँ वयस्क का टिकिट १६० रुपये और बच्चों का टिकिट ८५ रुपये था, जिसमें ग्रांड सफ़ारी (भालू, शेर, चीता, सफ़ेड चीता,हाथी) और चिडियाघर का शुल्क था।
    जैसे ही हम चिडियाघर में दाखिल हुए वहीं लाईन लगी हुई थी, ग्रांड सफ़ारी की, उस समय लाईन लंबी नहीं थी, क्योंकि हम जल्दी पहुँचे थे (वैसे भी जंगल में जाने का मजा सुबह ६ बजे के आसपास ही होता है, पर यहाँ सुबह ६ बजे शायद कोई नहीं होता होगा।)।
    ग्रांड सफ़ारी यात्रा शुरु हुई, पहले हाथी दिखा फ़िर चीतल, बारहसिंघा, नीलगाय इत्यादि जानवर दिखने लगे। अब बस पहुँची भालू वाले जंगल में, बहुत सारे भालू बस के पास ही बैठे हुए दिखे, काफ़ी लंबे लंबे नाखून थे। बहुत फ़ोटो खींचे गये। इसी प्रकार शेर, चीता और सफ़ेद चीते के जंगल में बस गई और बिल्कुल पास से दिखाया गया, बस के एकदम बगल में या बिल्कुल सामने, बेहद करीब।

 

 

     एक जगह तो ५-६ शेर एकसाथ बैठे थे तो लगा कि इनकी ब्लॉगरी मीट चल रही है, और वहीं एक शेर पिजरे के ऊपर चढ़ लिया था तो दूसरा शेर अपने पैर से उसकी टांग खींचकर नीचे उतारने की कोशिश कर रहा था, ऐसा लग रहा था कि जंगल में भी शेर दिल्ली वाली बातों को समझने लगे हैं।
    ग्रांड सफ़ारी के बाद हम पहुँचे तितलियों के उद्यान में, जहाँ का शुल्क २५ रुपये अलग था, तितलियों के बारे में बहुत ही अच्छी और उपयोगी जानकारियाँ मिलीं। इस उद्यान में इतनी शुद्ध हवा थी कि आत्मा प्रसन्न हो गई।
    उसके बाद फ़िर चिड़ियाघर के प्रवेश द्वार पर पहुँचे और वहाँ पहले भुट्टे खाये, फ़िर चिड़ियाघर के जानवर देखे, सबसे अच्छा लगा तेंदुआ, बिल्कुल पोज बनाकर बैठा हुआ था, जैसे उसे पता हो कि आज बहुत सारे लोग उसे ही देखने आनेवाले हैं।
   वहीं पास ही क्रोकोडायल पड़ा था, मुँह खुला है तो खुला ही है, बहुत ही आलसी जानवर जान पड़ता है, परंतु जब शिकार सामने आता है तो इससे फ़ुर्तीला भी कोई नहीं है। बहुत दिनों बाद उल्लू देखे।
    हाथी की सवारी भी थी, परंतु उन हाथियों की दुरदर्शा देखकर उन पर बैठकर देखने की इच्छा ही नहीं हुई। बिल्कुल मरियल से लग रहे थे, ऐसा लग रहा था कि जंगल विभाग ने हाथी को बंधुआ मजदूर बनाकर रखा है, वह केवल कमाऊ पूत है।
    वहीं राष्ट्रीय उद्यान में एक अच्छी बात लगी कि प्लास्टिक प्रतिबंधित थी, और अगर आप प्लास्टिक पोलिथीन में चिप्स खा रहे हैं, तो वहीं कर्मी कागज के पैकेट में आपके चिप्स करके आपको दे देंगे। पर फ़िर भी आखिर हैं तो हम भारतीय ही, अंदर जगह जगह प्लास्टिक बैग्स देखकर मन खिन्न भी हुआ।
    आखिरकार हम लोग २.३० बजे दोपहर को वापिस निकल पड़े घर के लिये। दिन भर आनंद रहा, पर शेरों के शासन से वापिस अपने मानव निर्मित शासित जगह जाने में बड़ा अजीब लग रहा था।
     इसके पहले भी हम कई राष्ट्रीय उद्यान घूम चुके हैं परंतु अब तक सबसे बढ़िया हमें सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान ही लगा है।

बैंगलोर में ४ ब्लॉगरों और एक पाठक का मिलन (4 Blogger’s and 1 Blog Reader Meet at Bangalore)

आज की ताजा खबर बैंगलोर में ४ ब्लॉगर्स और एक पाठक का मिलन हुआ ।

४ ब्लॉगर थे –

देव कुमार झा

मनीषा जी

विवेक रस्तोगी

हर्ष रस्तोगी

१ पाठक – हमारी धर्मपत्नी वाणी

बहुत सारे ज्वलंत मुद्दों पर बातें हुईं, और सौहार्दपूर्ण तरीके से बैंगलोर में ब्लॉगर मिलन संपन्न हुआ।

ज्वलंत मुद्दों में शामिल थे –

भाजपा द्वारा कर्नाटक बंद और आम जनता की तकलीफ़

भ्रष्टाचार

मुंबई

उड़नतश्तरी समीर लाल जी की कृति – “देख लूँ तो चलूँ”

दक्षिण भारत में हिन्दी

ए.टी.एम. से पैसे निकालने में हुई गड़बड़ी

ब्लॉग वार्ता

जिन ब्लॉगर्स का जिक्र हुआ इस छोटे से मिलन में वे हैं –

उड़नतश्तरी समीर लाल जी, घुघुती बासुती जी, प्रवीण पाण्डे जी, प्रशांत प्रियदर्शी जी PD, अभिषेक कुमार।

फ़ोटो कल देवकुमार झा जी द्वारा प्रकाशित किया जायेगा तब इस पोस्ट में भी लगा देंगे 🙂