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ऑटो में १८० रूपयों का खून और साईकिल की बातें….

    आज सुबह से जो रूपयों का खून होना शुरू हुआ कि बस क्या बतायें ?

    खैर बैंगलोर नई जगह है और यह मुंबई जैसा सरल भी नहीं है, बैंगलोर गोल गोल है। मोबाईल पर भी गूगल मैप्स से मदद लेने की बहुत कोशिश करते हैं, परंतु असलियत में तो कुछ और ही निकलता है और कई बार गूगल मैप कोई और ही रास्ता बताता है।

    आज हमें सुबह पुलिस स्टेशन जाना था, पासपोर्ट के वेरिफ़िकेशन के चक्कर में तो, गूगल पुलिस स्टेशन कहीं और बता रहा था और पुलिस स्टेशन निकला ६ किमी. आगे इस चक्कर में ऑटो में हमारे १८० रूपये ठुक गये। जब सही पुलिस स्टेशन मिला तो पता चला कि यहाँ के लिये तो घर के पास से सीधी वोल्वो बस मिलती है।

    खैर हमारी जेब से निकलकर रूपये ऑटो वाले की जेब में जाना लिखा था तो लिखा था, हम क्या कर सकते थे। सोच रहे थे कि ऑटो वाला भी खुश हो रहा होगा कि रोज ऐसे ही १ – २ ढ़क्कन मिल जायें तो मजा ही आ जाये, और हो सकता है कि रोज फ़ँसते भी होंगे।

    जिस काम के लिये गये थे वह काम तो नहीं हुआ परंतु इतने रूपयों का खून हो गया वह जरूर अखर गया। ऐसा लग रहा था कि कोई बिना चाकू दिखाये हमें लूट रहा है और हम भी मजे में लुट रहे हैं।

    इसलिये अब सोच रहे हैं कि जल्दी से कम से कम दो पहिया वाहन तो ले ही लिया जाये, जिससे कम से कम ऐसे लुटने से तो बचेंगे और समय भी बचेगा।

    साईकिल भी दो पहिया है और बैंगलोर शहर में ५-६ किमी. में साईकिल के लिये विशेष ट्रेक बनाये गये हैं, परंतु अभी बैंगलोर के हर हिस्से में इस तरह के ट्रेक बनाना शायद मुश्किल ही है और अगर रोज २० किमी जाना और २० किमी आना हो तो साईकिल से आना जाना सोचने में ही बहुत मुश्किल लगता है। अगर २० किमी साईकिल चलाकर कार्यालय पहुँच भी गये तो कम से कम काम करने लायक तो नहीं रह जायेंगे।

    वैसे हमने हमारे पिताजी को रोज ३५-४० किमी साईकिल चलाते देखा है, और कई बार अगर कहीं आसपास गाँव में जाना है और जाने के लिये कोई साधन न होता था तो साईकिल से बस स्टैंड और फ़िर साईकिल बस के ऊपर और फ़िर उतर कर वापिस से साईकिल की सवारी, इसी तरह से लौटकर आते थे। सोचकर ही रोमांचित होते हैं, कि वे भी क्या दिन होंगे।

    साईकिल चलाने से स्वास्थ्य तो अच्छा रहता ही है और व्यायाम भी हो जाता है। हमारे पुराने कार्यालय में दो पहिया और चार पहिया वाहन की पार्किंग सशुल्क थी, परंतु साईकिल के लिये निशुल्क। हाँ कई जगह साईकिल परेशानी का सबब भी है, जैसे बड़े मॉल साईकिल की पार्किंग नहीं देते, ५ स्टार होटल साईकिल वालों को मुख्य दरवाजे से अंदर ही नहीं जाने देते हैं, और विनम्रता से मना कर देते हैं, साईकिल का अंदर ले जाना मना है।

    हमने भी साईकिल कॉलेज तक बहुत चलाई, और साईकिल से एक दिन में ५० किमी तक भी चले हैं, थक जाते तो ट्रेक्टर ट्राली को पकड़कर सफ़र तय कर लेते थे। बहुत सारी यादें हैं साईकिल की, बाकी कभी और ….

    खैर साईकिल चलाने से भले ही कितने फ़ायदे होते हों परंतु हम साईकिल लेने की तो कतई नहीं सोच रहे, दो पहिया वाहन सुजुकी एक्सेस १२५ बुक करवा रखी है, अब सोच रहे हैं कि खरीद ही लें।

बहिन जी विज्ञापनों से खबरी चैनलों की बोलती बंद की ? या अपराध खत्म हो गये ?

    कुछ दिनों पहले IBN7 के दो पत्रकारों को बहिनजी के दो कानूनी रक्षकों ने अंदर कर दिया था और देख लेने की धमकी दी थी, जैसे ही मीडिया में मामला उछला वैसे ही आला अफ़सर सफ़ाई देने पहुँच गये कि यह उनका निजी मामला था, इसमें सरकार का कोई हाथ नहीं है।

    इसके पहले भी मीडिया के साथ इस तरह के मामले हो चुके हैं, परंतु उस समय मीडिया इतना संगठित नहीं था और यह भी कह सकते हैं कि व्यावसायिक मामलों के मद्देनजर कभी खुलकर नहीं बोल पाते थे। परंतु इस बार मीडिया ने हिम्मत करी और खुलकर सभी चैनलों ने इसका विरोध किया तो खुद बहिनजी और प्रधानमंत्रीजी को मीडिया से मुखतिब होने के लिये आना पड़ा। यह भी कह सकते हैं कि अब मीडिया परिपक्व हो चुका है और अब उसके पास व्यावसायिक विज्ञापनों की कमी नहीं है।

    जब से यह मामला हो गया है, उसके बाद उन दोनों कानूनी रक्षकों को सस्पेंड कर दिया गया परंतु अब उनका क्या हुआ उसकी कोई खबर नहीं है। शायद मामले को रफ़ा दफ़ा कर दिया गया होगा।

    अब लगभग हर खबरी चैनल पर बहिनजी के विज्ञापन की भरमार है, या तो बहिनजी की सरकार मजबूर है विज्ञापन देने के लिये, या फ़िर बहिनजी अपनी जनता की खून पसीने की कमाई को सम्मान नहीं देती हैं और इस तरह विज्ञापन में पैसा बहा रही हैं।

    अब उत्तरप्रदेश में हो रहे अपराधों का इन खबरी चैनलों ने प्रसारण कम कर दिया है, आखिर खबरी चैनलों को अच्छे खासे पैसों से बहिन जी ने खरीद जो लिया है, नहीं तो पहले यह हालत थी कि १-२ चैनलों पर ही विज्ञापन दिखते थे, और बहिन जी के प्रदेश के अपराधों का समाचार चल रहा है जिसमें उनके खुद के मंत्री तक लिप्त थे और ब्रेक में बहिन जी के प्रदेश के विका का विज्ञापन आता था।

    खैर अब यह तो खबरी चैनल ही बता सकते हैं कि अपराध खत्म हो गये या मिलने वाले बोनस से उनके कैमरों ने उधर देखना बंद कर दिया है।

नौकरी है टैलेन्ट नहीं

    आज सीएनबीसी पर यह कार्यक्रम “नौकरी है टैलेन्ट नहीं” देख रहे थे। वाकई सोचने को मजबूर थे कि आज बाजार में नौकरी है परंतु सही स्किल के लोग उपलब्ध नहीं हैं, सबसे पहले मुझे लगता है इसके लिये विद्यालय और महाविद्यालय जिम्मेदार हैं, जहाँ से पढ़ लिखकर ये अनस्किल्ड लोग निकलते हैं।

    आज जग प्रतियोगी हो चला है। अगर इस प्रतियोगिता में आना भी है तो भी उसके लिये प्रतियोगी को कम से कम थोड़ा बहुत स्किल्ड होना चाहिये। जो कि पढ़ाई के वातावरण पर निर्भर करता है।

    आज इंडस्ट्री में ० से २ वर्ष तक के अनुभव वाले लोगों में स्किल की खासी कमी है, कंपनियों को भी अपने यहाँ काम करने वाले अनस्किल्ड वर्कर्स को प्रशिक्षण पर जोर देना होगा, और इसके लिये कंपनियों को बजट भी रखना होगा।

    अगर काम करने वाले स्किल्ड होंगे तो वे ज्यादा अच्छे से और ज्यादा बेहतर तरीके से अपना काम कर पायेंगे, जिससे कंपनी और कंपनी के उपभोक्ताओं को तो सीधे तौर पर फ़ायदा होगा ही और समाज को अप्रत्यक्ष रूप से फ़ायदा होगा।

    अच्छे स्किल्ड वर्कर होने से बेहतर कार्य कम लागत में पूर्ण हो पायेगा। इसके लिये आजकल कंपनियाँ आजकल अपने वर्कर्स को स्किल्ड बनाने के लिये विशेष कार्यक्रमों का आयोजन भी कर रही हैं और जिन कंपनियों के लिये आंतरिक रूप से यह संभव नहीं है, वे इस प्रोसेस को आऊटसोर्स कर रही हैं।

    खैर कंपनियाँ इस बात पर ध्यान दे रही हैं, यह सभी के लिये अच्छी है।

लड़कियों का सिगरेट पीना और शराब पीना समाज को स्वीकार करना चाहिये, समाज को बदलना होगा

    जब मैंने पहली बार प्रगति मैदान और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के बाहर सिगरेट पीती हुई लड़कियों को देखा था, बड़ा अजीब लगा था कि लड़कियाँ भी सिगरेट पीती हैं। यह बात लगभग १४-१५ वर्ष पुरानी है। अब जब आज अपने आसपास देखता हूँ तो स्थितियाँ बहुत ही तेजी से बदलती जा रही हैं।
    अधिकतर स्मोकिंग जोन लंच के बाद भरेपूरे पाये जाते हैं, और इतने खचाखच होते हैं कि पैर रखने की जगह नहीं होती, अगर वहाँ कोई पैसिव स्मोकर हो तो पैसिव रहने से अच्छा है कि उसे खुद स्मोक शुरु कर देना चाहिये।
    लगभग पिछले ६ वर्षों से महानगरीय स्वरूप देख रहा हूँ। पहले दिल्ली में जहाँ कनॉट प्लेस, करोल बाग, इंडिया गेट हो या लाजपत नगर, डिफ़ेंस कॉलोनी, साऊथ एक्स. कोई भी जगह ले लो, लड़कियाँ समूह में खड़ी देख जायेंगी और उनको मजे से छल्ले उड़ाते हुए देखा जा सकता है।
    वैसे ही मुंबई में हालात ऐसे हैं कि वहाँ पर तो जहाँ मेरा कार्यालय था वहाँ लड़कों से ज्यादा स्मोकर लड़कियाँ थीं, और अगर समूह भी होते तो लड़कियाँ ज्यादा और लड़के कम और शेयर करके सिगरेट पीते हुए देखा जा सकता है। लड़कियाँ यहाँ शराब की दुकान से शराब भी खरीदते हुए देखी जा सकती हैं।
    अब आये बैंगलोर तो यहाँ तो ७०% जनता जवान है और उनकी जवानियों की अंगड़ाईयाँ यत्र तत्र सर्वत्र देखी जा सकती है, अभी जहाँ मेरा कार्यालय है वहाँ दोपहर में स्थिती देखने लायक होती है, सिक्योरिटी वाले बेचारे स्मोकर्स को चेताते चेताते परेशान हो जाते हैं, कि ये कृप्या यहाँ स्मोक न करें यह वर्जित क्षैत्र है, परंतु मजाल कि कोई सुन ले, और एक बात कि बैंगलोर में लगभग ७०% लोग कन्नड़ भाषा नहीं जानते क्योंकि वे सब उत्तर भारत से हैं। मैंने यहाँ बहुत सी लड़कियाँ देखी हैं जो कि चैन स्मोकर्स हैं। और अधिकतर स्मोकर्स लड़कियाँ वही हैं जो कि घर से बाहर रहती हैं।
    अभी थोड़े दिन पहले ही शुक्रवार को  देखा जब हम हायपर सिटी में हमारे आगे कुछ लड़कियाँ बिलिंग करवा रही थीं, व्हिस्की रम और वोद्का ले जा रही थीं और पेप्सी और कंडोम्स की बिलिंग करवा रही थीं, हमने अपनी घरवाली से कहा देखो इन लड़कियों ने सप्ताहांत पर रिलेक्स होने का पूरा इंतजाम कर लिया है, उनको भी कोई फ़र्क नहीं पड़ा क्योंकि महानगर में रहकर सोच बदल ही जाती है, खैर हमें भी अपनी सोच बदलनी होगी।
    आखिर लड़कियाँ भी कमा रही हैं आजाद हैं, स्वतंत्र हैं, घर से बाहर रहते हुए वे अपनी स्वतंत्रता का पूरा फ़ायदा उठाती हैं। यह आधुनिक सोच है और हम तो इसे मान चुके हैं कि जिसे जैसा रहना है वैसा रहे इसलिये अब कहीं कोई लड़की सिगरेट या शराब पीती हुई दिखती भी है तो हमें सामान्य जैसा ही लगता है, समाज को अब बदलना चाहिये वक्त आ गया है कि समाज को यह सच भी स्वीकार करना चाहिये कि लड़कियाँ भी लड़कों की तरह ही स्वतंत्र हैं और उनके यह अधिकार हैं अगर लड़कों के पास सारे अधिकार हैं तो। क्या हमें अपनी पुरातन मानसिकता की बेढ़ी से बाहर नहीं निकलना होगा ?

रेलयात्रा में अनजाने लोगों से यादगार मुलाकातें और उनकी ही सुनाई गई एक कहानी… (My Railway Journey..)

    रेलयात्रा करते हुए अधिकतर अनजाने लोगों से अलग ही तरह की बातें होती हैं, जिसमें सब बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं, और लगभग हर बार नयी तरह की जानकारी मिलती है।

    इस बार कर्नाटक एक्सप्रेस से जाते समय एक स्टेशन मास्टर से मुलाकात हुई जो कि अपने परिवार के साथ ७ दिन की छुट्टी के लिये अपने गाँव जा रहे थे। घर में सबसे बड़े हैं और अपने चचेरे भाईयों को उनके भविष्य के बारे में महत्वपूर्ण राय देते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि उनके भाई उनके मार्गदर्शन को मानते भी हैं और उनके मार्गदर्शन पर चलते हुए दो भाई सरकारी नौकरी में भी लग गये हैं, अब उन्हें तीसरे की चिंता है।

    ऐसे ही बातें चल रहीं थीं तो उन्होंने एक बहुत ही अच्छी छोटी सी कहानी सुनाई, कि अच्छे लोगों के साथ ही हमेशा बुरा क्यों होता है और हम यह भी सोचते हैं कि फ़लाना कितने बुरे काम करता है परंतु भगवान उसको कभी सजा नहीं देते।

    एक गाँव में दो दोस्त रहते थे और शाम के समय पगडंडी पर घूम रहे थे, पहला वाला दोस्त बहुत ईमानदार और नेक था और दूसरा दोस्त बेहद बदमाश और बुरी संगत वाला व्यक्ति था। तभी एक मोटर साईकिल से एक आदमी निकला तो उसकी जेब से एक १००० रूपये का नोट गिर गया। तो पहला दोस्त दूसरे से बोला कि चलो जिसका नोट गिरा है उसे मैं जानता हूँ, उसे दे आते हैं। दूसरा दोस्त बोला कि अरे नहीं बिल्कुल भी नहीं ये हमारी किस्मत का है इसलिये यहाँ उस आदमी की जेब से गिरा है, यह नोट उस आदमी की किस्मत में नहीं था, हमारी किस्मत में था, चल दोनों आधा आधा कर लेते हैं, ५०० रूपये तुम रखो और ५०० रूपये मैं रखता हूँ।

    पहले दोस्त ने मना कर दिया कि मैं तो ऐसे पैसे नहीं रखता तो दूसरा दोस्त बोला कि चल छोड़ मेरी ही किस्मत में पूरे १००० रूपये लिखे हैं, पर फ़िर भी पहला दोस्त उसे समझाता रहा कि देखो ये रूपये हमारे नहीं हैं, हम उसे वापिस लौटा देते हैं। परंतु दूसरा दोस्त मानने को तैयार ही नहीं होता है।

    चलते चलते अचानक पहले वाले दोस्त को पैर में कांटा लग जाता है और वह दर्द से बिलबिला उठता है। और दूसरा दुष्ट दोस्त १००० रूपये का नोट हाथ में लेकर नाचता रहता है।

    पार्वती जी शिव जी के साथ यह सब देखती रहती हैं। और शिव जी से शिकायत करती हैं कि यह कैसा न्याय है प्रभु, जो सीधा साधा ईमानदार है उसको मिला कांटा और जो दुष्ट और पापी है उसे मिला १००० रूपया। शिव जी पार्वती जी को बोलते हैं, ये सब मेरे हाथ में नहीं है, इसका हिसाब किताब तो चित्रगुप्त के पास रहता है। पार्वती जी कहती है कि प्रभु मुझे इनके बारे में जानना है आप चित्रगुप्त को बुलवाईये। चित्रगुप्त को बुलाया जाता है, और प्रभु उनसे कहते हैं, बताओ चित्रगुप्त इन दोनों दोस्तों के बारे में पार्वती जी को बताओ।

    चित्रगुप्त कहते हैं पहला दोस्त जो कि इस जन्म में पुण्यात्मा ईमानदार है, पिछले जन्म में महापापी दुष्ट था, इसकी तो बचपन में ही अकालमृत्यु लिखी थी, परंतु अपने कर्मों के कारण इसके बुरे कर्मों के फ़लों का नाश हो गया और आज जो इसे कांटा चुभा है वह इसके पिछले जन्मों में किये गये बुरे कर्मों का अंत था, अब इसके पुण्य इसके साथ ही रहेंगे।

    पार्वती जी बोलीं – चित्रगुप्त जी दूसरे दोस्त के बारे में बताईये। चित्रगुप्त कहते हैं दूसरा दोस्त पिछले जन्म में बहुत पुण्यात्मा और ईमानदार था परंतु इस जन्म में महापापी दुष्टात्मा है, अगर यह इस जन्म में भी पुण्यात्मा होता तो इसे तो राजगद्दी पर बैठना था, परंतु दुष्ट है इसलिये आज इसका पिछले जन्मों का पुण्य खत्म हो गया और इसे राजगद्दी की जगह १००० रूपयों से ही संतोष करना पड़ रहा है। और अब इसके पाप इसके खाते में लिखे जायेंगे।

रेल्वे द्वारा तकनीक के इस्तेमाल और कुछ खामियाँ सेवाओं में.. (Technology used by Railway… some problems in services)

    पिछले महीने हमने अपनी पूरी यात्रा रेल से की और विभिन्न तरह के अनुभव रहे कुछ अच्छे और कुछ बुरे। कई वर्षों बाद बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर गये थे, हमारा आरक्षण कर्नाटक एक्सप्रेस से था और सीट नंबर भी कन्फ़र्म हो गया था। तब भी मन की तसल्ली के लिये हम आरक्षण चार्ट में देखना उचित समझते हैं, इसलिये आरक्षण चार्ट ढूँढ़ने लगे, तो कहीं भी आरक्षण चार्ट नहीं दिखा। ५-६ बड़े बड़े टीवी स्क्रीन लगे दिखे जिसपर लोग टूट पड़े थे, हमने सोचा चलो देखें कि क्या माजरा है। पता चला कि आरक्षण चार्ट टीवी स्क्रीन पर दिखाये जा रहे हैं, हमने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि रेल्वे तकनीक का इतना अच्छा इस्तेमाल भी कर सकता है। बहुत ही अच्छा लगा कि रेल्वे ने तकनीक का उपयोग बहुत अच्छे से किया जिससे कितने ही कागजों की बर्बादी बच गई।

    बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर तकनीक का रूप देखकर रेल्वे के बदलते चेहरे का अहसास हुआ। बस थोड़ी तकलीफ़ हुई कि ट्रेन कौन से प्लेटफ़ॉर्म पर आयेगी यह कहीं भी नहीं पता चल रहा था, हालांकि टीवी पर आने और जाने वाली गाड़ियों का समय के साथ प्लेटफ़ार्म नंबर दिखाया जा रहा था, परंतु हमारी गाड़ी के बारे में कहीं कोई जानकारी नहीं थी। खैर पूछताछ करके पता चला कि ट्रेन एक नंबर प्लेटफ़ार्म पर आने वाली है। पूछताछ खिड़्की भी केवल एक ही थी, जिस पर लंबी लाईन लगी हुई थी और लोग परेशान हो रहे थे। हम चल दिये एक नंबर प्लेटफ़ार्म की और, जैसे ही घुसे ट्रेन सामने ही थी अब डब्बे का पता नहीं चल रहा था क्योंकि पूरी ट्रेन की लोकेशन बाहर नहीं लगी थी, तो वहीं प्रवेश द्वार पर बैठे टी.सी. महोदय से पूछा कि डिब्बा किधर आयेगा, और उन्होंने तत्परता से बता भी दिया ( जो कि हमारी उम्मीद के विपरीत था )।

    खैर डब्बे में पहुँचे तो तप रहा था क्योंकि ए.सी. चालू नहीं किया गया था, थोड़ी देर बाद ए.सी. चालू किया तब जाकर राहत मिली। हमने सोचा कि द्वितिय वातानुकुलित यान में पहले के जैसी अच्छी सुविधाएँ मौजूद होंगी और पॉवर बैकअप होता ही है, तो बहुत दिनों से छूटे हुए ब्लॉग पोस्ट पढ़ लिये जायेंगे । पहले तो हमने अपना जरूरी काम किया तो अपने लेपटॉप की बैटरी नमस्ते हो ली, अब चाहिये था बैटरी चार्ज करने के लिये पॉवर, बस यहीं से हमारा दुख शुरु हो गया। १० मिनिट बाद ही पॉवर गायब हो गया, तो इलेक्ट्रीशियन को पकड़ा गया उसने वापस से रिसेट किया परंतु फ़िर वही कहानी १० मिनिट मॆं फ़िर पॉवर गायब हो गया। उसके बाद जब हम फ़िर से इलेक्ट्रीशियन को ढूँढ़ते हुए पहुँचे तो हमें बताया गया कि इससे आप लेपटॉप नहीं चला पायेंगे केवल मोबाईल रिचार्ज कर पायेंगे। लोड ज्यादा होने पर डिप मार जाती है। कोच नया सा लग रहा था तो पता चला कि रेल्वे ने पुराने कोच को ही नया बनाकर लगा दिया है। खैर यह समस्या हमने मालवा एक्सप्रेस में भी देखी परंतु आते समय राजधानी एक्सप्रेस में यह समस्या नहीं थी। अब क्या समस्या है यह तो रेल्वे विभाग ही जाने। परंतु लंबी दूरी की गाड़ियों में यह सुविधा तो होनी ही चाहिये, आजकल सबके पास लेपटॉप होते हैं और सभी बेतार सुविधा का लाभ लेते हुए अपना काम करते रहते हैं।

    द्वितिय वातानुकुलन यान की खासियत हमें यह अच्छी लगती है कि केबिन में सीटें अच्छी चौड़ी होती हैं, परंतु इस बार देखा तो पता चला कि सीटें साधारण चौडाई की थीं। और यह हमने तीनों गाड़ियों में देखा।

    जब आगरा में थकेहारे रेल्वे स्टेशन पर पहुँचे तो गर्मी अपने पूरे शबाब पर थी, और ट्रेन आने में लगभग १ घंटा बाकी था, हमने वहाँ उच्चश्रेणी प्रतीक्षालय ढ़ूँढ़ा तो मिल भी गया और ऊपर से सबसे बड़ी खुशी की बात कि ए.सी. भी चल रहे थे, मन प्रसन्न था कि चलो रेल्वे अपने यात्रियों को कुछ सुविधा तो देता है। बस सोफ़े नहीं थे उनकी जगह स्टील की बैंचे डाल रखी थीं जिस पर यात्री ज्यादा देर तक तो बैठकर प्रतीक्षा नहीं कर सकता। आते समय भोपाल में भी हमने रात को ४ घंटे प्रतीक्षालय में बिताये वहाँ पर भी सुविधा अच्छी थी।

    जाते समय कर्नाटक एक्सप्रेस का खाना निहायत ही खराब था, केवल खाना था इसलिये खाया, ऐसा लग रहा था जैसे कि रूपये देकर जेल में मिलने वाला खाना खरीद कर खा रहे हैं (वैसे अभी तक जेल का खाना चखा नहीं है), वैसे हमें ऐसा लग रहा था तो हम अपने साथ बहुत सारा माल मत्ता अपने साथ लेकर ही चले थे, तो सब ठीक था। आते समय राजधानी एक्स. का खाना भी कोई बहुत अच्छा नहीं था, पहले जो क्वालिटी खाने की राजधानी एक्स. में मिलती थी अब नहीं मिलती। आते समय तो दाल कम पड़ गई होगी तो उसमें ठंडा पानी मिलाकर परोस दिया गया, लगभग सभी यात्रियों ने इसकी शिकायत की, टी.सी. को बोलो तो वो कहते हैं यह अपनी जिम्मेदारी नहीं और पूछो कि किसकी जिम्मेदारी है तो बस बगलें झांकते नजर आते ।

    खैर अब सभी चीजें तो अच्छी नहीं मिल सकतीं, पर कुल मिलाकर सफ़र अच्छा रहा और अब आगे रेल्वे की सुविधा का उपयोग केवल मजबूरी में ही किया जा सकेगा क्योंकि एक तो ३६-३९ घंटे की यात्रा थकावट से भरपूर होती है और उतना समय घर पर रहने के लिय भी कम हो जाता है। अगर रेल्वे थोड़े सी इन जरूरी चीजों पर ध्यान दे तो यात्रियों को बहुत सुविधा होगी।

    अगर पाठकों को पता हो कि इन खामियों की शिकायत कहाँ की जाये, जहाँ कम से कम सुनवाई तो हो, तो बताने का कष्ट करें।

बच्चों के शार्टब्रेक मॆं खाने के लिये क्या दिया जाये, स्कूल ने नोटिस निकाला

    बेटेलाल ने जब से स्कूल जाना शुरु किया है तब से उनके शार्ट ब्रेक और लंच के नाटक फ़िर से शुरु हो गये हैं। रोज जिद की जाती है कि मैगी, पास्ता, पिज्जा या बर्गर दो। हम बेटेलाल को रोज मना करते हैं, मगर कई बार तो जिद पर अड़ लेते हैं, सब बच्चे लाते हैं, और एक आप हैं कि मुझे इन चीजों के लिये मना करते हैं। हमने कितनी ही बार समझाया कि बेटा मैगी, पास्ता, पिज्जा ठंडे हो जाने पर बुल्कुल अच्छे नहीं लगते और स्वास्थ्य के लिये हानिकारक भी होते हैं। इस तरह से लगभग रोज की कहानी हो चली थी। और इस बात से लगभग सभी अभिभावक परेशान रहते हैं।
    शार्ट ब्रेक में अलग अलग चीजें दिया करते हैं अलग तरह के बिस्किट तो कभी उनकी कोई मनपसंदीदा नमकीन या मिठाई और खाने में रोटी सब्जी या परांठा सब्जी। पर बेटेलाल हैं कि कहते हैं उन्हें रोटी सब्जी नहीं मैगी दिया करें, पास्ता दिया करें। पैरेंट्स टीचर मीटिंग के दौरान स्कूल में उनकी मैडम ने हमें पहले ही मना कर दिया था कि बच्चों को यह सब चीजें नहीं दिया करें। परंतु बच्चे हैं कि मानते ही नहीं, घर पर इतनी जिद करते हैं और आसमान सिर पर उठा लेते हैं।
    दो दिन पहले बेटेलाल की स्कूल की वेबसाईट पर नोटिस में शार्ट ब्रेक में मेनू आ गया, जिसमें हर दिन का मेन्यू निश्चित है। अब बेटेलाल को समझा रहे हैं कि बेटा अभी भी मान जाओ नहीं तो स्कूल वाले अब लंच का भी मेन्यू दे देंगे फ़िर क्या करोगे ?
    हमेशा लंच बॉक्स में सब्जी बची हुई आती है, अब देखते हैं कि इस सबका क्या असर होता है। अभिभावक कितना भी समझा लें परंतु बच्चों को समझ में नहीं आता, अगर शिक्षक स्कूल में बोले तो वह बच्चों के लिये पत्थर की लकीर होता है।
    पहले कक्षा में ही लंच करना होता था, अब थोड़ी बड़ी कक्षा में आ गये हैं तो उनकी क्लॉस टीचर बच्चों को स्कूल के छोटे बगीचे में लंच करने ले जाती हैं और लंच करने के बाद टिफ़िन वापिस अपनी क्लॉस में रखकर फ़िर से बच्चे बगीचे में खेलने आ जाते हैं। बेटेलाल के मुँह से यह सब बातें सुनने के बाद अपने स्कूल के दिन याद आ जाते हैं।

बच्चों के साथ कार्टून देखिये, कि आखिर कार्टून में परोसा क्या जा रहा है। (Must Watch Cartoon Channels with your Child…? Check what is there… ?)

    कल बेटेलाल के साथ बुद्धुबक्से को देख रहे थे और उनके कार्टून चैनल निक्स पर डोरीमोन आ रहा था, हालांकि हमने अपने बचपन में कभी कार्टून नहीं देखे, उस समय आते भी थे तो केवल विदेशी कार्टून स्पाईडरमैन या फ़िर रामायण देख लो।

    आजकल तो बुद्धुबक्से पर करीबन १०-१२ चैनल कार्टून के लिये ही हैं, जिस पर २४ घंटे कार्टून परोसे जाते हैं, जिसमें कुछ डिज्नी के हैं, कुछ जापानी और कुछ भारतीय। हालांकि इन चैनलों पर आजकल डिजनी के प्रसिद्ध कार्टून डोनाल्ड डक और मिकी माऊस कम ही देखने को मिलते हैं ।

    बच्चों के साथ कार्टून देखने का अपना अलग मजा है, वापिस से हम बचपन के युग में पहुँच जाते हैं, और बच्चों की सायकोलोजी भी समझने का मौका मिलता है, बहुत से वाक्य जो हमारे बेटेलाल बोलते हैं, पता चला कि कार्टून चैनल्स की देन है। कुछ कार्टूनों में तो वाकई हिन्दी में गजब अनुवाद किया गया है, परंतु कुछ कार्टूनों को तो बैन कर देना चाहिये। यहाँ तक कि कार्टून में आवाजें भी हिन्दी फ़िल्म अभिनेताओं से मिलती होती हैं, जो कि सुनने पर आसानी से पहचानी जा सकती हैं।

    वैसे आजकल भारतीय कार्टून भी बहुतायत में उपलब्ध हैं और अच्छे शिक्षाप्रद एपीसोड आते हैं, परंतु अच्छे विचार और अच्छे संस्कार केवल कार्टून से नहीं डाले जा सकते हैं, क्योंकि इस तरह के कार्टून केवल १०-१५% ही होते हैं, बाकी के तो बकवास ही होते हैं।

    जैसे हमारे बेटेलाल कल हमसे कह रहे थे “डैडी ये डोरीमोन कहाँ मिलता है, अपन भी एक डोरीमोन ले आते हैं, जो कि मुझे ढेर सारे गेजेड्ट्स लाकर देगा।”

    मूल केवल यह है कि बच्चे कार्टून जरूर देख रहे हैं, परंतु कार्टून में क्या परोसा जा रहा है उसे नजरअंदाज मत कीजिये और आप भी कार्टून देखिये और बच्चों को स्वच्छ और अच्छॆ कार्टून देखने को प्रेरित कीजिये।

३७ घंटे का लंबा सफ़र और अब बांके बिहारी के दर्शन

    आखिरकार ३७ घंटे का लंबा सफ़र कल सुबह खत्म हुआ और थकान तो बिल्कुल थी ही नहीं, बिल्कुल भी नहीं। शायद बहुत वर्षों बाद इतना सोये और आत्मचिंतन का समय मिला। एक तरह से इसके लिये रेल्वे की कर्नाटक एक्सप्रेस के ए.सी. २ के उस डिब्बे को भी धन्यवाद ज्ञापित होना चाहिये अगर उसके प्लग में पॉवर आती तो पूरा समय हम लेपटॉप पर ही बिता देते। अच्छा हुआ कि पॉवर नहीं थी।

    और इतने आराम के बाद भरपूर ऊर्जा का एहसास हुआ, जैसा कि आमतौर पर होता है कि हर सफ़र के बाद जिंदगी के कुछ पाठ सीखने को मिलते हैं, इस बार भी मिले। वह अब अगली किसी पोस्ट में लिखेंगे, भरपूर ऊर्जा से युक्त जब हमने अपने ट्रेन के सफ़र का अंत ग्वालियर में किया और बस स्टैंड की तरफ़ बड़े तो गर्मी के तलख मिजाज का अहसास हो गया, हालांकि उस समय सुबह के ५.३० बजे थे और गर्मी के तेवर देखते ही बन रहे थे, हम ए.सी. से निकलने के बाद पसीने में तर हो रहे थे। बस स्टैंड पहुँचते ही चंबल के लोगों की तल्खी का अंदाज दिखने लगा।

    दिल्ली जाने वाली बस में धौलपुर के लिये बैठे, बस थी एम.पी. रोडवेज की जो कि बहुत ही ज्यादा घाटॆ में चल रही है और या तो बंद होने वाली है या हो चुकी है, पूरी जानकारी नहीं है। सरकारें कोई सी भी आ जायें पर घाटे में चलने वाले उपक्रमों का हाल वही रहता है, कोई रेड इंक को बदलना ही नहीं चाहता है।

    हम भी एम.पी. रोडवेज की बस में ही चढ़ लिये पीछॆ ही राजस्थान रोडवेज की बस थी, दोनों बसों में देखते ही जमीन आसमान का अंतर पता चल रहा था, कहाँ एम.पी. की खटारा बस और कहाँ राजस्थान की ए.वन. नई दुल्हन सी चमचमाती मोटर। खैर एम.पी. का सपोर्ट करते हुए हम चढ़ लिये। और एक घंटे की जगह दो घंटे में धौलपुर पहुँच गये।

आज बांके बिहारी के दर्शन के लिये निकल रहे हैं, वृन्दावन धाम।

॥ जय बांके बिहारी लाल की ॥

प्रवीण पाण्डे जी के ब्लॉग पोस्ट का फ़ायदा और xBox काइनेक्ट

    ब्लॉग से नुकसान तो शायद कम ही होंगे पर फ़ायदे बहुत हैं। प्रवीण पांडे जी ने अपने ब्लॉग में कुछ दिनों पहले xBox काइनेक्ट का विवरण लिखा था और मैं पिछले तीन वर्षों से लगभग इसी तरह की चीज ढूँढ़ रहा था, जब मुंबई में था तो Wii का गेमिंग कन्सोल देखा था परंतु उसमें खेलने के लिये एक रिमोट को पकड़ना होता था, जो कि मुझे पसंद नहीं था।

    हाथ में रिमोट न चाहने का कारण था हमारे बेटेलाल, क्यूँकि अगर फ़ेंक दिया बज गया बैंडबाजा महँगे गेमिंग कन्सोल का, इसलिये कुछ ऐसी तकनीक वाला कन्सोल चाहिये था जिसमें बिना रिमोट पकड़े खेल सकें, इसी बीच माइक्रोसॉफ़्ट ने xBox के साथ काइनेक्ट बाजार में उतारा परंतु इसके बारे में हमने कहीं सुना नहीं था। सुना तो प्रवीण जी के ब्लॉग से, ब्लॉग का हमारे लिये एक फ़ायदा ।

    प्रवीण जी से xBox के बारे में पूरी जानकारी ली और एक शोरूम में जाकर डेमो भी देख लिया, बस हमको भा गया, कीमत हालांकि कुछ ज्यादा थी परंतु जैसी चीज अपने को चाहिये हो मिल जाये तो कीमत मायने नहीं रखती है।

    इसी बीच हमारे छोटे भाई का अमेरिका जाना हो गया, और हमने ऑनलाईन वहाँ का भाव देखा तो लगभग ४० प्रतिशत रुपयों की बचत हो रही थी तो हमने अपने भाई को बोला कि हमारे लिये एक xBox ले आओ, हमारा xBox मई के दूसरे सप्ताह में हमारे पास आ गया। पर अब समस्या यह थी कि xBox का पॉवर एडॉप्टर अमेरिका वाला था जो कि 110 – 130 वोल्ट होता है और यह भारत में नहीं चल सकता था।

    अमेरिका का पॉवर एडॉप्टर भारत में कैसे चलेगा गूगल में बहुत ढूँढ़ा, कई प्रकार के समाधान मिले, कि अमेरिका से भारत का पॉवर कन्वर्टर ले लो जिसमें एक ट्रांसफ़ॉर्मर लगा होता है और चल जायेगा, हम लेकर भी आये परंतु काम नहीं बना, फ़िर गूगल पर ढूँढ़ा गया, तो पता चला कि इस समस्या से केवल हम ही दो-चार नहीं हो रहे हैं, इस समस्या से बहुत सारे लोग ग्रसित हैं।

    इस बाबत हमने एक बड़े शोरूम पर भी पूछताछ की तो उन्होंने हमें एक मोबाईल नंबर दिया और कहा कि आपकी समस्या का समाधान यहाँ हो जायेगा, हमने फ़ोन किया तो पता चला कि ये किसी निजी दुकान का नंबर था जो कि चीन निर्मित थर्ड पार्टी पॉवर एडॉप्टर बेचते हैं और उसकी केवल टेस्टिंग वारंटी है, और उसकी कीमत हमें लगभग ३२०० रूपये बताई गई और बताया गया कि लगभग ३०० लोग उनसे खरीद चुके हैं।

    ऐसे ही एक और समाधान मिला कि स्टेप अप / स्टेप डाऊन ट्रासफ़ॉर्मर का उपयोग करें, हमने अपने पास की इलेक्ट्रिक दुकान को इसे लाने के लिये बोल भी दिया।

    जब xBox के अंतर्जाल पर घूम रहे थे तो भारत का उपभोक्ता सेवा का फ़ोन नंबर मिला और हमने माइक्रोसॉफ़्ट को फ़ोन किया तो उन्होंने xBox से संबंधित जानकारी ली और हमने पॉवर एडॉप्टर संबंधी समस्या माइक्रोसॉफ़्ट के सामने रखी तो उपभोक्ता सेवा अधिकारी ने हमसे कहा कि आप चिंता न करें हम आपकी समस्या का समाधान करेंगे। आपने अमेरिका से xBox खरीदा है तो क्या हुआ, हम आपको भारत का पॉवर एडॉप्टर कंपनी की गुड विल के लिये कॉम्लीमेंटरी देंगे, और आप अपना अमेरिका वाला पॉवर एडॉप्टर भी अपने पास रखें जब अमेरिका जायें तब उसका उपयोग करें, उनका इस बाबत ईमेल भी तुरंत ही मिल गया और ५ दिनों में ही हमें माइक्रोसॉफ़्ट से पॉवर एडॉप्टर भी मिल गया, हमने चलाकर भी देख लिया, और इस प्रकार माइक्रोसॉफ़्ट ने हमारी समस्या का समाधान कर दिया।

जय हो प्रवीण जी की और जय हो माइक्रोसॉफ़्ट वाले बिल्लू भैया की।