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अध्याय १० से ( मगर मछली का ही रूप है )

गीता जी के अध्याय १० में भगवान कृष्ण अपना ऐश्वर्य बताते हैं, जहाँ मैं एक श्लोक पर रुक गया, क्योंकि अभी तक मगर को मैं मछली की तरह नहीं लेता था, परंतु यहाँ पर मगर को मछलियों में ही बताया गया है ।

पवन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम।

झषाणां मकरश्चास्मि स्त्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥३१॥

अर्थात – समस्त पवित्र करने वालों में मैं वायु हूँ, शस्त्रधारियों में राम, मछलियों में मगर तथा नदियों में गंगा हूँ ।

यहाँ पर मगर के बारे में बताया गया है कि समस्त जलचरों में मगर सबसे बड़ा और मनुष्य के लिये सबसे घातक होता है । अत: मगर कृष्ण का प्रतिनिधित्व करता है ।

“राष्ट्र हित में आप भी जुड़िये इस मुहिम से …”

सन 1945 मे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की तथाकथित हवाई दुर्घटना या उनके जापानी सरकार के सहयोग से 1945 के बाद सोवियत रूस मे शरण लेने या बाद मे भारत मे उनके होने के बारे मे हमेशा ही सरकार की ओर से गोलमोल जवाब दिया गया है उन से जुड़ी हुई हर जानकारी को “राष्ट्र हित” का हवाला देते हुये हमेशा ही दबाया गया है … ‘मिशन नेताजी’ और इस से जुड़े हुये मशहूर पत्रकार श्री अनुज धर ने काफी बार सरकार से अनुरोध किया है कि तथ्यो को सार्वजनिक किया जाये ताकि भारत की जनता भी अपने महान नेता के बारे मे जान सके पर हर बार उन को निराशा ही हाथ आई !

मेरा आप से एक अनुरोध है कि इस मुहिम का हिस्सा जरूर बनें … भारत के नागरिक के रूप मे अपने देश के इतिहास को जानने का हक़ आपका भी है … जानिए कैसे और क्यूँ एक महान नेता को चुपचाप गुमनामी के अंधेरे मे चला जाना पड़ा… जानिए कौन कौन था इस साजिश के पीछे … ऐसे कौन से कारण थे जो इतनी बड़ी साजिश रची गई न केवल नेता जी के खिलाफ बल्कि भारत की जनता के भी खिलाफ … ऐसे कौन कौन से “राष्ट्र हित” है जिन के कारण हम अपने नेता जी के बारे मे सच नहीं जान पाये आज तक … जब कि सरकार को सत्य मालूम है … क्यूँ तथ्यों को सार्वजनिक नहीं किया जाता … जानिए आखिर क्या है सत्य …. अब जब अदालत ने भी एक समय सीमा देते हुये यह आदेश दिया है कि एक कमेटी द्वारा जल्द से जल्द इस की जांच करवा रिपोर्ट दी जाये तो अब देर किस लिए हो रही है ???
आप सब मित्रो से अनुरोध है कि यहाँ नीचे दिये गए लिंक पर जाएँ और इस मुहिम का हिस्सा बने और अपने मित्रो से भी अनुरोध करें कि वो भी इस जन चेतना का हिस्सा बने !
Set up a multi-disciplinary inquiry to crack Bhagwanji/Netaji mystery

यहाँ ऊपर दिये गए लिंक मे उल्लेख किए गए पेटीशन का हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है :-

सेवा में,
अखिलेश यादव,

माननीय मुख्यमंत्री

उत्तर प्रदेश सरकार

लखनऊ

प्रिय अखिलेश यादव जी,

इतिहास के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर, आप भारत के सबसे युवा मुख्यमंत्री इस स्थिति में हैं कि देश के सबसे पुराने और सबसे लंबे समय तक चल रहे राजनीतिक विवाद को व्यवस्थित करने की पहल कर सकें| इसलिए देश के युवा अब बहुत आशा से आपकी तरफ देखते हैं कि आप माननीय उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के हाल ही के निर्देश के दृश्य में, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के भाग्य की इस बड़ी पहेली को सुलझाने में आगे बढ़ेंगे|

जबकि आज हर भारतीय ने नेताजी के आसपास के विवाद के बारे में सुना है, बहुत कम लोग जानते हैं कि तीन सबसे मौजूदा सिद्धांतों के संभावित हल वास्तव में उत्तर प्रदेश में केंद्रित है| संक्षेप में, नेताजी के साथ जो भी हुआ उसे समझाने के लिए हमारे सामने आज केवल तीन विकल्प हैं: या तो ताइवान में उनकी मृत्यु हो गई, या रूस या फिर फैजाबाद में | 1985 में जब एक रहस्यमय, अनदेखे संत “भगवनजी” के निधन की सूचना मिली, तब उनकी पहचान के बारे में विवाद फैजाबाद में उभर आया था, और जल्द ही पूरे देश भर की सुर्खियों में प्रमुख्यता से बन गया| यह कहा गया कि यह संत वास्तव में सुभाष चंद्र बोस थे। बाद में, जब स्थानीय पत्रकारिता ने जांच कर इस कोण को सही ठहराया, तब नेताजी की भतीजी ललिता बोस ने एक उचित जांच के लिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। अदालत ने उस संत के सामान को सुरक्षित रखने का अंतरिम आदेश दिया।

भगवनजी, जो अब गुमनामी बाबा के नाम से बेहतर जाने जाते है, एक पूर्ण वैरागी थे, जो नीमसार, अयोध्या, बस्ती और फैजाबाद में किराए के आवास पर रहते थे। वह दिन के उजाले में कभी एक कदम भी बाहर नहीं रखते थे,और अंदर भी अपने चयनित अनुयायियों के छोड़कर किसी को भी अपना चेहरा नहीं दिखाते थे। प्रारंभिक वर्षों में अधिक बोलते नहीं थे परन्तु उनकी गहरी आवाज और फर्राटेदार अंग्रेजी, बांग्ला और हिंदुस्तानी ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया, जिससे वह बचना चाहते थे। जिन लोगों ने उन्हें देखा उनका कहना है कि भगवनजी बुजुर्ग नेताजी की तरह लगते थे। वह अपने जर्मनी, जापान, लंदन में और यहां तक कि साइबेरियाई कैंप में अपने बिताए समय की बात करते थे जहां वे एक विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु की एक मनगढ़ंत कहानी “के बाद पहुँचे थे”। भगवनजी से मिलने वाले नियमित आगंतुकों में पूर्व क्रांतिकारी, प्रमुख नेता और आईएनए गुप्त सेवा कर्मी भी शामिल थे।

2005 में कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेश पर स्थापित जस्टिस एम.के. मुखर्जी आयोग की जांच की रिपोर्ट में पता चला कि सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु 1945 में ताइवान में नहीं हुई थी। सूचनाओं के मुताबिक वास्तव में उनके लापता होने के समय में वे सोवियत रूस की ओर बढ़ रहे थे।

31 जनवरी, 2013 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने ललिता बोस और उस घर के मालिक जहां भगवनजी फैजाबाद में रुके थे, की संयुक्त याचिका के बाद अपनी सरकार को भगवनजी की पहचान के लिए एक पैनल की नियुक्ति पर विचार करने का निर्देशन दिया।

जैसा कि यह पूरा मुद्दा राजनैतिक है और राज्य की गोपनीयता के दायरे में है, हम नहीं जानते कि गोपनीयता के प्रति जागरूक अधिकारियों द्वारा अदालत के फैसले के जवाब में कार्यवाही करने के लिए किस तरह आपको सूचित किया जाएगा। इस मामले में आपके समक्ष निर्णय किये जाने के लिए निम्नलिखित मोर्चों पर सवाल उठाया जा सकता है:

1. फैजाबाद डीएम कार्यालय में उपलब्ध 1985 पुलिस जांच रिपोर्ट के अनुसार भगवनजी नेताजी प्रतीत नहीं होते।

2. मुखर्जी आयोग की खोज के मुताबिक भगवनजी नेताजी नहीं थे।

3. भगवनजी के दातों का डीएनए नेताजी के परिवार के सदस्यों से प्राप्त डीएनए के साथ मेल नहीं खाता।

वास्तव मे, फैजाबाद एसएसपी पुलिस ने जांच में यह निष्कर्ष निकाला था, कि “जांच के बाद यह नहीं पता चला कि मृतक व्यक्ति कौन थे” जिसका सीधा अर्थ निकलता है कि पुलिस को भगवनजी की पहचान के बारे में कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिला।

हम इस तथ्य पर भी आपका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं कि न्यायमूर्ति मुखर्जी आयोग की जांच की रिपोर्ट से यह निष्कर्ष निकला है कि “किसी भी ठोस सबूत के अभाव में यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि भगवनजी नेताजी थे”। दूसरे शब्दों में, आयोग ने स्वीकार किया कि नेताजी को भगवनजी से जोड़ने के सबूत थे, लेकिन ठोस नहीं थे।

आयोग को ठोस सबूत न मिलने का कारण यह है कि फैजाबाद से पाए गए भगवनजी के तथाकथित सात दातों का डी एन ए, नेताजी के परिवार के सदस्यों द्वारा उपलब्ध कराए गए रक्त के नमूनों के साथ मैच नहीं करता था। यह परिक्षण केन्द्रीय सरकार प्रयोगशालाओं में किए गए और आयोग की रिपोर्ट में केन्द्र सरकार के बारे मे अच्छा नहीं लिखा गया। बल्कि, यह माना जाता है कि इस मामले में एक फोरेंसिक धोखाधडी हुई थी।

महोदय, आपको एक उदाहरण देना चाहेंगे कि बंगाली अखबार “आनंदबाजार पत्रिका” ने दिसंबर 2003 में एक रिपोर्ट प्रकाशित कि कि भगवनजी ग्रहण दांत पर डीएनए परीक्षण नकारात्मक था। बाद में, “आनंदबाजार पत्रिका”, जो शुरू से ताइवान एयर क्रेश थिओरी का पक्षधर रहा है, ने भारतीय प्रेस परिषद के समक्ष स्वीकार किया कि यह खबर एक “स्कूप” के आधार पर की गयी थी। लेकिन समस्या यह है कि दिसंबर 2003 में डीएनए परीक्षण भी ठीक से शुरू नहीं किया गया था। अन्य कारकों को ध्यान में ले कर यह एक आसानी से परिणाम निकलता है कि यह “स्कूप” पूर्वनिर्धारित था।

जाहिर है, भारतीय सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश, एम.के. मुखर्जी ऐसी चालों के बारे में जानते थे और यही कारण है कि 2010 में सरकार के विशेषज्ञों द्वारा आयोजित डी एन ए और लिखावट के परिक्षण के निष्कर्षों की अनदेखी करके,उन्होंने एक बयान दिया था कि उन्हें “शत प्रतिशत यकीन है” कि भगवनजी वास्तव में नेताजी थे।यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि सर्वोच्च हस्तलेख विशेषज्ञ श्री बी लाल कपूर ने साबित किया था कि भगवनजी की अंग्रेजी और बंगला लिखावट नेताजी की लिखावट से मेल खाती है।

भगवनजी कहा करते थे की कुछ साल एक साइबेरियाई केंप में बिताने के बाद 1949 में उन्होंने सोवियत रूस छोड़ दिया और उसके बाद गुप्त ऑपरेशनो में लगी हुई विश्व शक्तियों का मुकाबला करने में लगे रहे। उन्हें डर था कि यदि वह खुले में आयेंगे तो विश्व शक्तियां उनके पीछे पड़ जायेंगीं और भारतीय लोगो पर इसके दुष्प्रभाव पड़ेंगे। उन्होंने कहा था कि “मेरा बाहर आना भारत के हित में नहीं है”। उनकी धारणा थी कि भारतीय नेतृत्व के सहापराध के साथ उन्हें युद्ध अपराधी घोषित किया गया था और मित्र शक्तियां उन्हें उनकी 1949 की गतिविधियों के कारण अपना सबसे बड़ा शत्रु समझती थी।

भगवनजी ने यह भी दावा किया था कि जिस दिन 1947 में सत्ता के हस्तांतरण से संबंधित दस्तावेजों को सार्वजनिक किया जाएगा, उस दिन भारतीय जान जायेंगे कि उन्हें गुमनाम/छिपने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ा।

खासा दिलचस्प है कि , दिसम्बर 2012 में विदेश और राष्ट्रमंडल कार्यालय, लंदन, ने हम में से एक को बताया कि वह सत्ता हस्तांतरण के विषय में एक फ़ाइल रोके हुए है जो “धारा 27 (1) (क) सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम (अंतरराष्ट्रीय संबंधों) के तहत संवेदनशील बनी हुई है और इसका प्रकाशन संबंधित देशों के साथ हमारे संबंधों में समझौता कर सकता है” ।

महोदय, इस सारे विवरण का उद्देश्य सिर्फ इस मामले की संवेदनशीलता को आपके प्रकाश में लाना है। यह बात वैसी नहीं है जैसी कि पहली नजर में लगती है। इस याचिका के हस्ताक्षरकर्ता चाहते है कि सच्चाई को बाहर आना चाहिए। हमें पता होना चाहिए कि भगवनजी कौन थे। वह नेताजी थे या कोई “ठग” जैसा कि कुछ लोगों ने आरोप लगाया है? क्या वह वास्तव में 1955 में भारत आने से पहले रूस और चीन में थे, या नेताजी को रूस में ही मार दिया गया था जैसा कि बहुत लोगों का कहना है।

माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के न्यायमूर्ति देवी प्रसाद सिंह और न्यायमूर्ति वीरेन्द्र कुमार दीक्षित, भगवनजी के तथ्यों के विषय में एक पूरी तरह से जांच के सुझाव से काफी प्रभावित है। इसलिए हमारा आपसे अनुरोध है कि आप अपने प्रशासन को अदालत के निर्णय का पालन करने हेतू आदेश दें। आपकी सरकार उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में विशेषज्ञों और उच्च अधिकारियों की एक टीम को मिलाकर एक समिति की नियुक्ति करे जो गुमनामी बाबा उर्फ भगवनजी की पहचान के सम्बन्ध में जांच करे।

यह भी अनुरोध है कि आपकी सरकार द्वारा संस्थापित जांच –

1. बहु – अनुशासनात्मक होनी चाहिए, जिससे इसे देश के किसी भी कोने से किसी भी व्यक्ति को शपथ लेकर सूचना देने को वाध्य करने का अधिकार हो । और यह और किसी भी राज्य या केन्द्रीय सरकार के कार्यालय से सरकारी रिकॉर्ड की मांग कर सके।

2. सेवानिवृत्त पुलिस, आईबी, रॉ और राज्य खुफिया अधिकारी इसके सदस्य हो। सभी सेवारत और सेवानिवृत्त अधिकारियों, विशेष रूप से उन लोगों को, जो खुफिया विभाग से सम्बंधित है,उत्तर प्रदेश सरकार को गोपनीयता की शपथ से छूट दे ताकि वे स्वतंत्र रूप से सर्वोच्च राष्ट्रीय हितों के लिए अपदस्थ हो सकें।

3. इसके सदस्यों में नागरिक समाज के प्रतिनिधि और प्रख्यात पत्रकार हो ताकि पारदर्शिता और निष्पक्षता को सुनिश्चित किया जा सके। ये जांच 6 महीने में खत्म की जानी चाहिए।

4. केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा आयोजित नेताजी और भगवनजी के बारे में सभी गुप्त रिकॉर्ड मंगवाए जाने पर विचार करें। खुफिया एजेंसियों के रिकॉर्ड को भी शामिल करना चाहिए। उत्तर प्रदेश कार्यालयों में खुफिया ब्यूरो के पूर्ण रिकॉर्ड मंगावाये जाने चाहिए और किसी भी परिस्थिति में आईबी स्थानीय कार्यालयों को कागज का एक भी टुकड़ा नष्ट करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

5.सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि भगवनजी की लिखावट और अन्य फोरेंसिक सामग्री को किसी प्रतिष्ठित अमेरिकन या ब्रिटिश प्रयोगशाला में भेजा जाये.

हमें पूरी उम्मीद है कि आप, मुख्यमंत्री और युवा नेता के तौर पर दुनिया भर में हम नेताजी के प्रसंशकों की इस इच्छा को अवश्य पूरा करेंगे |

सादर

आपका भवदीय

अनुज धर

लेखक “India’s biggest cover-up”

चन्द्रचूर घोष

प्रमुख – www.subhaschandrabose.org और नेताजी के ऊपर आने वाली एक पुस्तक के लेखक

ट्रेड यूनियन पर एक संवाद फ़ेसबुक से


Vivek Rastogi

Yesterday at 8:03am ·

  • ये हड़ताल अपने समझ में नहीं आती, ये सब लोग ज्यादा काम करके ज्यादा कमाई करवायें संस्थानों की फ़िर बोलें अब हमारा वेतन बढ़ाओ भत्ते बढ़ाओ

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    • Arpit Singh Pandya, Dhyanshree Shailesh Vyas and 2 others like this.

       

    • सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी संस्‍थान कभी लाभ में नहीं आते… क्‍या आप कॉर्पोरेट को नहीं जानते…

      Yesterday at 8:28am · Unlike · 2

       

    • Vivek Rastogi संस्थान लाभ में आते हैं, पर इसके लिये पहले कर्मचारी को सोचना चाहिये, वैसे हमें लगता नहीं कि कार्पोरेट में ट्रेड यूनियन भी चलती हैं, और अगर चलती हैं तो वे सही तरह से काम नहीं करतीं, जो ट्रेड यूनियन के नेता लोग होते हैं वो तो होते ही अकर्मण्य हैं और दूसरों को भी वैसा ही करने की कोशिश करते हैं

      Yesterday at 8:32am · Like · 1

       

    • सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी कोई लाभकारी संस्‍थान बता पाएंगे, जो अपने कर्मचारियों, श्रमिकों को पूरा लाभ देता है…

      23 hours ago · Unlike · 1

       

    • Vivek Rastogi हमने तो ऐसे बहुत सारे संस्थान देखे हैं

      23 hours ago · Like

       

    • सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी चलिए कोई एक बता दीजिए, फिर शायद मेरे भी विचार बदल जाएं…

      23 hours ago · Unlike · 1

       

    • Vivek Rastogi क्योंकि हमने तो इसमें से एक में काम भी किया है, नाम बताना ठीक नहीं होगा

      23 hours ago · Like

       

    • सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी निश्‍चय की आपकी कंपनी ने मुनाफा लेकर उसे सभी कार्मिकों में बराबर बांट दिया होगा और मालिक आज भी अपने कार्मिकों के स्‍तर का ही जीवन यापन कर रहा होगा। आप लकी हैं… जो आपको ऐसा संस्‍थान मिला।

      23 hours ago · Unlike · 1

       

    • सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी अब यह मत कहिएगा कि जिसकी जितनी योग्‍यता थी, उसे उतना दिया गया। योग्‍यता का पैमाना बनाने का अधिकार कुछ लोग अपने पास सुरक्षित रखते हैं, ताकि उस लाठी से बड़े वर्ग को हांका जा सके…

      23 hours ago · Unlike · 1

       

    • Vivek Rastogi वेतन कभी भी बराबर नहीं बाँटा जा सकता है, वेतनवृद्धी भी कर्मचारी के काम करने के ऊपर निर्भर करती है, परंतु बाजार से अधिक वेतन और सुविधाएँ देना ही मुनाफ़ा बाँटना कहलाता है, योग्यता के अनुसार ही वेतन होता है, क्योंकि कोई व्यक्ति एक काम जो ७ दिन में कर सकता …See More

      23 hours ago · Like

       

    • सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी हूंम्। एक व्‍यक्ति एक संस्‍थान में काम करता है और तीस हजार रुपए महीने तनख्‍वाह पाता है। फिर वह संस्‍थान को छोड़ देता है और उसी संस्‍थान को ठेके पर काम करके देता है और तीन लाख रुपए महीने के कमाता है। पहले कर्मचारी था फिर व्‍यवसायी हो गया। योग्‍यता में अंतर कहां आया?

      23 hours ago · Like

       

    • Vivek Rastogi यही तो योग्यता में अंतर है, कि कंपनी उसकी योग्यता नहीं समझ पायी या कंपनी समझ भी पाई मगर कंपनी के पास उसके लिये उस स्तर की जगह नहीं होगी, क्योंकि हर स्तर पर निर्धारित संख्या होती है, योग्यता के आधार पर संख्या कम या ज्यादा नहीं की जा सकती क्योंकि इससे उत्पादकता पर अंतर पड़ता है और उस व्यक्ति ने रिस्क लेकर अपना खुद का काम शुरू कर दिया तो वह अपनी योग्यता का भरपूर इस्तेमाल कर सकता है ।

      23 hours ago · Like · 1

       

    • सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी जब कंपनी योग्‍यता को समझ नहीं पाती तो मुनाफा कैसे कमाती है >

      23 hours ago · Like

       

    • Vivek Rastogi मुनाफ़ा अगर नहीं होगा तो यह मानकर चलिये कि कोई भी धरम करने नहीं बैठा है, कंपनीं अगले दिन ही बंद हो जायेगी, कंपनी सब समझती है, अगर कर्मचारी को लगता है कि उसकी योग्यता की पूछ यहाँ नहीं है तो दूसरी कंपनी में अपनी योग्यता अनुसार पद के लिये देखे उस कंपनी से निकल ले और अपनी योग्यता का भरपूर दोहन करे, इसमें सबका लाभ है, नये लोगों को मौका भी अच्छा मिलता है और व्यक्ति को अपनी योग्यता को समझने का भी।

      23 hours ago · Like · 1

       

    • सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी यही कैपिटलिज्‍म है.. इसी का विरोध हो रहा है। यह विरोध विचारधाराओं का है…

      23 hours ago · Like

       

    • Vivek Rastogi हमें तो इसमें कुछ गलत नहीं लगता है, बात सही है कि विरोध विचारधाराओं का है पर कम परिश्रम और अधिक परिश्रम का पारिश्रमिक अलग अलग तो होना ही चाहिये। अगर दो मजदूर एक चौराहे पर खड़े हैं और आपको कोई काम करवाना है जो १ दिन का है, परंतु पहला मजदूर १ दिन में ठीकठाक परिश्रम करके कार्य पूर्ण कर देगा और दूसरा थोड़ा ढ़ीला है और आराम से कार्य करते हुए २ दिन में पूरा करेगा, तो आप किसको कार्य करने का काम देंगे। बिल्कुल योग्यता वाले को ही देंगे, आप उसी काम का दोगुना मेहनताना क्यों देना चाहेंगे जब वही काम दूसरा व्यक्ति एक दिन में कर रहा है, तो बाजार में रहना है तो पूरी मेहनत और परिश्रम के साथ अच्छे से कार्य पूर्ण करना भी व्यक्ति की जिम्मेदारी है, और अगर इसका विरोध हो रहा है तो मैं तो कहूँगा कि बेहतर है कि सभी को बाहर का रास्ता दिखा दें और नये सिरे से कर्मियों को लेकर काम शुरू किया जाये।

      23 hours ago · Like

       

    • सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी श्रमिक और मजदूर की योग्‍यता के पैमाने अलग अलग हैं। मालिक ने कितना रिस्‍क लिया, यह उसकी योग्‍यता है, श्रमिक ने कितना काम किया, यह श्रमिक की योग्‍यता है। रिस्‍क लेने पर मालिक केवल दिवालिया तक होता है, जबकि श्रमिक की काम के दौरान दुर्घटना से मृत्‍यु तक हो सकती है…
      आप पूर्व निर्धारित पैमानों पर दोनों को कस रहे हैं। दोनों के लिए एक पैमाना बनाने के साथ ही आपकी दृष्टि बदल सकती है…

      22 hours ago · Like

       

    • Arpit Singh Pandya Nice discussion……..good to know few things….

      19 hours ago via mobile · Unlike · 1

       

    • Vivek Rastogi मालिक रिस्क लेता है तभी तो वह मालिक है, अगर श्रमिक रिस्क लेता तो वह मालिक ना होता, क्योंकि इतने सारे संसाधनों को इकट्ठा करके चलाना मालिक के बस का काम है और श्रमिक तो केवल मालिक के आदेशों का पालन करता है। सबकी रिस्क के अलग अलग मायने होते हैं, यह तो श्रमिक की पसंद है कि वह काम के दौरान ऐसे काम करना पसंद करता है या नहीं कि जिसमें दुर्घटना का अंदेशा है, तो यह उसकी मजबूरी है कि वह उस कार्य के अलावा और कोई कार्य नहीं कर सकता और अगर श्रमिक को पहले से यह सब पता है तो इसमें मालिक ने उसका उपयोग नहीं किया वरन उसे बराबर पारिश्रमिक देकर उसके परिश्रम को खरीदा है।

      18 hours ago · Like · 1

दाम्पत्य जीवन के १२ सुनहरे वर्ष

जीवन निर्जीव था, बिल्कुल रेगिस्तान जैसा जहाँ आँधियाँ तो आती थीं, बबंडर तो आते थे, परंतु केवल रेत के, जहाँ कोई दूसरा उन उड़ती हुई रेत को नहीं देख पाता था, बस अकेला यह निर्जीव उन रेत के रेलों के बीच इधर से उधर बहता रहता था। ये रेत और रेगिस्तान बहुत लंपट होते हैं, जब कभी सोचने में आता कि शायद यहाँ जल होता पर मृगतृष्णा उन सपनों को साकार होने के पहले ही कहीं किसी दूर देस में विलीन कर देती। ये अंधड़ भी उन मृगतृष्णाओं से मिले हुए थे।

तभी कहीं से मेरी जिंदगी में एक सावन की फ़ुहार, बसंत की बयार आई, जहाँ मैं अपने ऊपर बीते हुए उन अंधड़ों के प्रकोप को भूल गया, केवल हर तरफ़ चारों ओर जीवन में स्नेहिल प्रेम की झिलमिल बारिश थी, कहीं पीले रंग के कहीं लाल रंग के कहीं ओर भी चटक रंग के फ़ूल कहीं से मेरी जिंदगी में प्रवेश कर चुके थे।

आज ठीक १२  बरस हो गये हैं तुम्हें मेरी जिंदगी में आकर, और तुमने मेरे मन के रेगिस्तान को जो उपवन का रूप दिया है, वह मेरे लिये बहुत है, आज ही के दिन मेरी जिंदगी का नया चेप्टर शुरू हुआ था जिसकी शुरूआत तुमने की थी जिससे मैंने अपनी जिंदगी में एकदम कई नये रंगों का आना देखा, मेरी जिंदगी में १२ वर्ष पहले अचानक ही बसंत आ गया था जो कि कहीं बसंत पंचमी के आसपास था।

जीवन की दो महत्वपूर्ण उपयोगी चीजें पानी और पेपर नेपकीन

    जब से देश के बाहर आना शुरू किया है तब से दो चीजों की महत्ता पता चल गई है, पहला पानी और दूसरा है पेपर नैपकीन । अपने भारत में तो कोई समस्या नहीं, पानी भी बहुत है और हाथ धो भी लिये तो अपने ही रूमाल से पोंछना पड़ते हैं, क्योंकि साधारणतया: पेपर नेपकीन उपलब्ध नहीं होते।

    जब सऊदी आये तो यहाँ सब कुछ बदला हुआ था, पहली बार शौचालय में घुसे तो लगा कि अपने पुरूष वाले शौचालय में नहीं हैं गलती से महिलाओं वाले शौचालय में घुस आये हैं, बाहर जाकर देखा तो शेख को चिन्हित करता फ़ोटो लगा था, तब वापिस अंदर आ गये। क्योंकि पुरूषों वाले शौचालय में दोनों तरह के साधन उपलब्ध होते हैं और यहाँ केवल पश्चिमी और देशी पद्धति वाले बंद दरवाजे के शौचालय उपलब्ध थे, वो खुलेवाले खड़े होकर निवृत्त होने वाले शौचालय नहीं थे। बहुत आश्चर्य हुआ परंतु फ़िर भी बाहर निकले और साथी को बताया कि इधर तो ऐसे ही शौचालय हैं और अपने को तो वैसे वाले की आदत है। क्योंकि दुबई या अबुधाबी में साधारणतया: इस तरह के शौचालय भी उपलब्ध हैं।

    अब यहाँ पर टॉयलेट पेपर भी वो अपने २-३ तह वाला नहीं यहाँ पर तो सीधा पेपर रोल लोड कर देते हैं और फ़िर चाहे जितना पेपर खींचो और हाथ मुँह पोंछ लो, यह पेपर रोल पहले तो हमें बड़ा अजीब लगा था पर अब तो इसकी आदत पड़ गई है,  हमने कई लोगों को देखा हाथ मुँह धोकर इतना पेपर खींचते हैं कि अच्छा खासा छोटा तौलिया बन जाता है और फ़िर हाथ मुँह पैर सब उसी से पोंछ लेते हैं।

Hand Towel DispensersPaper Roll

    Auto cut paper towel dispensersकुछ रेस्टोरेंट में ऐसे ही रोल होते हैं परंतु उसमें कटर साथ में होते हैं, कुछ जो देसी किस्म के रेस्टोरेंट होते हैं, वहाँ बड़े बड़े रोल तार में करके लटका दिये जाते हैं, जितना मर्जी हो पेपर खींचो और हाथ पोंछ लो, पता नहीं यहाँ पर रोज ही कितने ही पेपर नेपकीन की खपत होती होगी, और तो और वो टिश्यु पेपर का अलग उपयोग किया जाता है।

    पानी लगभग सभी जगह बहुत ही कम मात्रा में उपलब्ध होता है, अधिकतर जगह पानी का फ़ोर्स बहुत कम होता है जिससे पानी के खर्च पर नियंत्रण रखा जा सके। यहाँ जेद्दाह में पानी अधिकतर डिस्टीलेशन से होता है, पीने का पानी अधिकतर इपोर्ट होता है। परंतु पर केपिटा पानी का खर्च दुनिया में सबसे ज्यादा होता है, वैसे अभी थोड़े दिन पहले ही दोहा कतार के बारे में पढ़ रहे थे, उधर भी यही कहा जा रहा था। पता नहीं दोनों में ज्यादा पानी का उपयोग कौन करता है।

    जब तक दुनिया के लिये इनके पास ईंधन है, ये अपनी अमीरी से सबको रिझाते रहेंगे । वैसे एक बात और बता दूँ कि यहाँ पेट्रोल भारतीय रूपये में ७ रूपये लीटर और पानी १५ रूपये का ६०० एम.एल. है।

वो भी क्या दिन थे..

वे दिन बीते हुए भी अभी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ है, जब न ये आधुनिक दूरसंचार के बेतार वाले उपकरण थे और न ही ये अंतर्जाल और आपस में बातचीत के लिये सुविधाएँ उपलब्ध थीं।

अगर कहीं जाना भी होता था तो उस समय पहले से ही कार्यक्रम तय हो जाते थे और फ़िर नियत वक्त पर मिल लिया करते थे, ऑफ़िस के सहकर्मी से मिलना हो या फ़िर दोस्तों के साथ मिलना हो। कई चीजें नियत थीं, फ़लाना समय पर फ़लानी जगह पर मिलन है, उस समय वह अड्डा हुआ करता था। अगर कोई पूछ भी ले तो कोई भी आसानी से बता दिया करते थे कि शाम के वक्त तो अभी वे उस जगह मिलेंगे उसके बाद वे उस जगह अपने दोस्तों के साथ होंगे फ़िर घर निकल जायेंगे।

अगर कोई किसी कारणवश नियत जगह पर नहीं पहुँच पाता तो साथी सोचते कि शायद कुछ जरूरी कार्य आन पड़ा होगा, नहीं तो अपने अड्डे पर जरूर मिलता। कोई ज्यादा ही चिंतित होता तो झट से अपनी साइकिल लेकर खोज में निकल पड़ता था ।

उन दिनों शायद दोस्तों और परिवारों के बीच समय का मानक एक ही था, थोड़ा बहुत ही समय आगे पीछे हुआ करता था। समय का महत्व वाकई उन दिनों में हुआ करता था, ना ज्यादा दोपहिया वाहन हुआ करते थे और ना ही चौपहिया वाहन। उन दिनों अधिकतर व्यक्ति अपनी शारीरिक ऊर्जा पर ही निर्भर हुआ करता था फ़िर चाहे वो पैदल चलना हो या साइकिल चलाना । खबरें भी तेजी से अपना रास्ता तय करती थीं, खबरों को रास्ता तय करने के लिये किसी दूरसंचार उपकरणों पर आश्रित नहीं रहना पड़ता था।

शाम को घूमने जाने के लिये दोस्त लोग घर के बाहर से आवाज दिया करते थे, अगर ज्यादा समय लगने वाला होता तो बता दिया जाता था कि आज किधर की तरफ़ घूमने जाने वाले हैं, लगभग हर चौराहे और रास्ते के लोग, लगभग सभी को जानते थे, और वे पीछे आने वाले लोगों का मार्ग प्रशस्त कर दिया करते थे, बस अभी दस मिनिट पहले ही इधर से निकले हैं।

समय की धुरी उन दिनों निश्चित थी, समय अपनी गति से चलता था, समय को कोई भी अपनी गति से चलाने की कोशिश नहीं करता था। आज आधुनिक उपकरणों के बीच में सभी लोग समय को अपनी गति से चलाने की कोशिश करते हैं, परंतु समय फ़िर भी अपनी ही गति से चल रहा है, जैसे पहले चला करता था, सबके मानसिक धरातल बदल गये हैं, आज भी यही याद आता है “वो भी क्या दिन थे” ।

भारतीय मानसिकता घाटे में बाहर निकलने की नहीं है

हाल ही में ऐसे बहुत सारे लोगों से मिलना हुआ जो कि शेयर बाजार की समझ नहीं रखते परंतु फ़िर भी शेयर बाजार में अपना निवेश कर बैठे थे, वह भी तब मतलब कि २००८ – २००९ जब बाजार अपनी उच्च अवस्था पर था। उस समय हालात यह थे कि जिसको कुछ पता नहीं था वह भी शेयर बाजार में रूचि लेने लगा था और अपना निवेश बाजार में करके उस रैली का फ़ायदा उठाना चाहता था, परंतु उसे शेयर बाजार के मुगलों की जानकारी नहीं थी, जैसे ही आम आदमी का पैसा शेयर बाजार में आया, मुगलों ने अपनी कारीगरी दिखाई और बाजार को आसमान से उठाकर जमीन पर पटक दिया।

और ये नये निवेशक केवल बाजार को औंधे मुँह गिरते देखते रहे, चूँकि इन्होंने अपने गाढ़ी कमाई का पैसा लगाया था तो सोचा कि घाटा लेने से अच्छा है कि थोड़ा इंतजार कर लिया जाये और जब अपने भाव मिल जायेंगे तब बाजार से बाहर हो जायेंगे, परंतु उनका दुर्भाग्य कि वह दिन कभी नहीं आया। क्योंकि उन दिनों अच्छी कंपनियों के साथ साथ बेकार कंपनियों के भाव भी आसमान छू रहे थे, ये नवागत निवेशक अपने आप को उस बाजार में शामिल कर अपने आप को फ़न्ने खाँ समझ रहे थे। आज की हालात में भी उनके पोर्टफ़ोलियो ७०% घाटा दर्शा रहे हैं, हम तो उन्हें अब भी यही सलाह दे रहे हैं कि ३०% जो मिल रहा है उसे निकालकर किसी अच्छी म्यूचयल फ़ंड में डाल दो, तो अगले कुछ अरसे में कम से कम आपने जितना पैसा लगाया था उतना तो हो ही जायेगा।

किंतु भारतीय मानसिकता घाटे में बाहर निकलने की नहीं है, हमें तो बस सुनहरे स्वप्न देखने को चाहिये, जब घाटा होता है तो कहते हैं कि अपनी तो किस्मत ही खराब थी, और जब मुनाफ़ा होता है तो कहते हैं देखा अपनी अक्ल का कमाल, हारना किसी को अच्छा नहीं लगता । परंतु निवेश जो कि आम इंसान अपनी गाढ़ी कमाई से करता है उसे अपने निवेश को हमेशा व्यावसायिक नजरिये से देखना चाहिये।

हमेशा निवेश करते समय अपना घाटा सहने की शक्ति का आकलन कर लें, हमेशा स्टॉप लॉस लगाकर बाजार में निवेश करें, अगर अच्छी कंपनी में निवेश कर रहे हैं तो उसके अच्छे परिणामों का इंतजार भी करें। परंतु हमारे भारतीय निवेशक करते हमेशा उल्टा हैं। बाजार में निवेश का कोई समय बुरा नहीं होता, फ़िर भले ही इन्डेक्स कम हो या ज्यादा । केवल निवेशक को अपनी रकम ऐसी कंपनी में निवेश करनी चाहिये जो उस समय कम भाव पर हो, और इसके लिये तगड़े विश्लेषण और अपने कुछ अच्छे जानकारों की सलाह लेनी चाहिये।

जैसे कि घाटे के लिये आकलन करना चाहिये बिल्कुल वैसे ही मुनाफ़े का भी पहले से आकलन करना चाहिये, अगर १०% के मुनाफ़े की उम्मीद कर रहे हैं तो बेहतर है कि उतने पर ही मुनाफ़ा लेकर बाहर हो जायें, परंतु हमारे यहाँ के निवेशक इस पर भी ध्यान नहीं देते, हमारे यहाँ के निवेशक को जरूरत है बेहतर विश्लेषण की जो कि उसे खुद करना चाहिये, हमेशा ध्यान रखें अगर कोई निवेशक को टिप दे रहा है कि फ़लाना शेयर खरीद लें या बेच दें तो उसमें कहीं ना कहीं उसका निजी स्वार्थ है। कार्य हमेशा वही करना चाहिये जिसमें आपको खुद ज्ञान हो, दूसरों के भरोसे दुनिया में कभी नहीं चला जाता, दूसरों के भरोसे चलने वाले हमेशा धोखा ही खाते हैं। बेहतर है कि पहले सीखें और फ़िर कुछ करें ।

रात्रि का सफ़र और दिन भर नींद

    इस बार सफ़र कुछ जल्दी ही हो गया, केवल तीन दिन ही भारत में परिवार के साथ व्यतीत कर पाये थे कि तीसरे दिन की रात्रि को ही घर से निकलना था, क्योंकि सुबह ४.३० बजे की फ़्लाईट थी और अंतर्राष्ट्रीय यात्रा के लिये ३ घंटे पहले पहुँचना होता है, वैसे तो वेब चेक इन कर लिया था, तो १.५ घंटे पहले भी पहुँचते तो काम चल जाता । परंतु हमने सोचा कि दो बजे तो निकलना ही है उसकी जगह १२ बजे ही निकल लेते हैं, अगर नींद नहीं खुली तो खामखाँ में घर पर ही सोते रह जायेंगे, और फ़िर २ बजे जरा नींद ज्यादा ही आती है, तो टैक्सी ड्राइवर साब भी झपकी मार लिये गाड़ी चलाते हुए तो बस कल्याण ही हो जायेगा।

समय से मतलब कि १ बजे रात्रि को हवाई अड्डे पहुँच गये, सोचा इतनी जल्दी भी क्या करेंगे, उधर जाकर । पहले कैफ़ोचीनो पीते हैं आराम से और फ़िर थोड़ी देर बैंगलोर की रात की ठंडक के मजे लेते हैं। जींस के जैकेट में भी ठंडक कुछ ज्यादा ही लग रही थी, सो ज्यादा देर बैठने का आनंद भी नहीं लूट पाये। चाँद की हसीन रोशनी में कोहरा देखना कभी कभी ही नसीब होता है। हवा में भरपूर नमी थी, और जितने भी लोग घूम रहे थे या बैठे थे, वे अपने भरपूर गरम कपड़े होने के बावजूद ठिठुर रहे थे। वैसे भी बैंगलोर में इस तरह से रात बिताने का संयोग से बनता है।

खैर जल्दी ही चाँद के आँचल से निकल कर हवाईअड्डे की पक्की इमारत के आगोश में आ गये। पता चला कि फ़्लाईट एक घंटा देरी से है, सोचा कि पहले लगता था कि केवल ट्रेन और बस ही देरी से चलते हैं और तो और ये हवाई कंपनी वाले एस.एम.एस. भी नहीं करते हैं । जब चेक इन के काऊँटर पर देखने पहुँचे तो लंबी लाईन लगी थी, और वेब चेकइन की लाईन खाली थी, हमारे एक और मित्र भी मिल गये थे लाईन में लगने के पहले, तो दोनों साथ ही चेक इन की लाईन में लग लिये और कब एक घंटा बातों में व्यतीत हो गया, पता ही नहीं चला, जब काऊँटर पर पहुँचे तो अधिकारी महोदय मुस्कराकर बोले कि आपने तो वेबचेक इन कर लिया था फ़िर इधर, हम कहे नींद नहीं आ रही थी, तो सोचा कैसे टाईम पास किया जाये सो लाईन में लग लिये, वे भी हँस पड़े। इमिग्रेशन फ़ॉर्म भरने के बाद इमिग्रेशन और सुरक्षा की बाधाएँ पार कीं, तो पाया सब हिन्दी बोलने वाले थे, और सुरक्षा में जो अधिकारी मौजूद थे वे तो ठॆठ हिन्दी बोल रहे थे, जैसे कि अधिकतर उत्तर भारत के राज्यों में बोली जाती है।

फ़िर लंबी कुर्सी पर लेट लिये पर नींद को हम आने नहीं दे रहे थे क्योंकि ३ घंटे बचे थे और एक बार हम सो जायें तो उठने की गारंटी तो अपनी है नहीं, तो बेहतर था कि जागकर नींद को न आने दिया जाये। जब फ़्लाईट में घुस गये तो सुबह के पाँच बज चुके थे और साढ़े पाँच को उड़नी थी, अपन तो कंबल ओढ़कर सो लिये।

लगभग चार घंटे की फ़्लाईट में पूरा समय सोकर निकाला, जब सुबह अबूधाबी पहुँचे तो केवल आठ ही बज रहे थे, याने की भारत में दस, हम समय से दो घंटे तेजी से भाग लिये थे, और अब हमें फ़िर ७ घंटे का इंतजार करना था, सो फ़िर लंबी आराम कुर्सी पकड़ी और सो लिये । घर से परांठे बनवाकर लाये थे, जब भूख लगी खाकर फ़िर सुस्ता लिये।

आखिरकार आठ घंटे इंतजार करने के बाद अपनी अगली फ़्लाईट का वक्त हो गया और सऊदी पहुँच गये, इधर भी पूरी फ़्लाईट में सोते सोते गये। इमिग्रेशन में १ घंटा लग गया फ़िर आधे घंटे में होटल पहुँच गये और फ़िर जल्दी ही शुभरात्रि कर बिस्तर में घुस गये।

कुछ फ़ोटो खींचे थे, अबूधाबी के ऊपर से वो हमारे टेबलेट में पड़े हैं, अभी लोड करने में आलस आ रहा है, तो फ़ोटो अगली पोस्ट में लगा देंगे।

स्नूज कार्यक्रम और सुबह का आलस

अगर ऑफ़िस जाने का समय जल्दी का हो तो सुबह उठने में कभी कभी आलस्य आने लगता है, रोज उसी समय उठो, रात को रोज अलार्म चेक करो कि हाँ भई अलार्म चल भी रहा है, जब से मोबाईल में अलार्म लगाने लगे हैं, तो मोबाईल झट से गणना करके बता भी देता है कि कितने घंटे और कितने मिनिट अलार्म बजने में लगे हैं, और लगता है कि अरे केवल इतनी ही देर सोने को मिलेगा।

सुबह उठना बचपन से अच्छा लगता है, ऐसा नहीं है कि अब नहीं लगता परंतु कभी कभी देर तक सोने की इच्छा हो जाती है और ये अलार्म इतनी जल्दी बज जाता है कि बस, ऐसा लगता है कि अभी अभी सोये थे और इतनी जल्दी सुबह हो गई, अभी नई अलार्म लगाया है जिसमें पक्षिओं के कोलाहल के बीच मधुर ध्वनि सुनाई पड़ती है, इस अलार्म को सुनकर तो नींद और लेने का मन करता है, ऐसा लगने लगता है कि कहीं बागीचे में ठंडी बयार में घास पर लेटे हुए इन आवाजों को सुन रहे हैं।

अभी कम से कम रोज ४-५ बार तो स्नूज करना पड़ता है ५ मिनिट के स्नूज में फ़िर भी २०-२५ मिनिट सो जाते हैं, इसे कहते हैं अर्धचेतन अवस्था, और जो सपना पूरा नहीं हो पाता है, उसे फ़ास्ट फ़ार्वर्ड करके पूरा कर लेते हैं।

स्नूज का कार्यक्रम अच्छा लगा मोबाईल में, नहीं तो पहले जब घरवाले उठाते थे तो कभी कभी प्रवचन से दिन की शुरूआत होती थी, पर अब अलार्म ने आसान कर दिया है, पहले वाली घड़ी में स्नूज वाला कार्यक्रम नहीं था।

दिन भर एक्सेल, वर्ड, पीडीएफ़ और ईमेल में गुजरता है, लंबे लंबे फ़ोन कॉल होते हैं, कभी पढ़ते हुए कभी सुनते हुए और कभी बोलते हुए उन तन्हाईयों में भी कोई विचार आ जाता है। पता नहीं ये विचार कहाँ कितनी जगह लेते हैं, जरा सी स्पेस मिली नहीं और विचार घुस जाता है। जो दिन भर करते हैं वही सपने रात में आते हैं, कभी किसी एक्सेल शीट में काम कर रहे होते हैं और काम चल रहा होता है, गणनाएँ कठिन होती हैं तो रात को सपने में भी वहीं एक्सेल शीट घूम रही होती है, और सपने में भी उसके सॉल्यूशन पर काम चलता रहता है।

कई बार ऐसा लगता है कि लंच के बाद ऑफ़िस खत्म हो जाना चाहिये, लंच के बाद घनघोर आलस आता है, मुँह में उबासी और आँखों में नींद होती है। पर जब कार्य होता है तो कार्य तो करना ही पड़ता है।

हम स्नूज कार्यक्रम का अच्छा उपयोग कर रहे हैं, अब सोचते हैं कि कोई मोबाईल ऐसा नहीं आये जिसमें नहीं उठने पर वो करंट मार दे या पानी की बाल्टी डाल दे ।

स्वप्न की पटकथा के लेखक और अभिनयकर्ता

स्वप्न हमारी मूर्क्षित जिंदगी के वे पल होते हैं जहाँ हम हमारे आसपास की घटनाओं और आसपास रहने वाले व्यक्तियों को देखते हैं। दिनभर में जो भी घटना हम पर प्रभाव डालती है उससे जुड़ी वे बातें जो हम देखना चाहते हैं और वास्तव में देखी नहीं हैं, वास्तव में स्वप्न में अपने आप वह कहानी बुन जाती है और हम उसे फ़िल्म जैसा देखते हैं।

कई बार हम अपने स्वप्न की कहानी खुद चला रहे होते हैं और यहाँ तक कि जो कार्यकलाप हम स्वप्न में देख रहे होते हैं, उन कार्यकलापों में हम उन वास्तविक व्यक्तियों की प्रतिमूर्ति अभिनय के रूप में देख रहे होते हैं, जिन्हें हम जानते हैं कि यह व्यक्ति इन कार्यकलापों में संलग्न है या अच्छा करता है।

स्वप्न अकारण भी नहीं होते हैं शायद प्रकृति की देन है कि हम स्वप्न में भी मनोरंजन चाहते हैं, और उस आनंद की अनुभूति करना चाहते हैं, जो वास्तव में कहीं पर भी नहीं है, देशकाल वातावरण कहीं का भी हो सकता है, जहाँ वास्तव में स्वप्नदर्शी गया ही नहीं हो, परंतु इस का एक बिंदु यह भी है कि व्यक्ति स्वप्न में अपनी सारी क्षमताओं का प्रदर्शन करता है, जो कि वास्तव में उसके पास होती ही नहीं हैं, यह भी कह सकते हैं कि उन क्षमताओं को व्यक्ति पाना चाहता है परंतु वास्तविक जिंदगी में वह पा नहीं सकता या उतना दृढ़ नहीं बन पाता कि वह उन क्षमताओं का अधिकारी पात्र हो।

स्वप्न अर्धचेतन अवस्था में भी होते हैं, जिसमें हम आधे जड़ और आधे चेतन होते हैं, जिसमें स्वप्न की कहानी की डोर स्वयं स्वप्नदर्शा के पास होती है, परंतु अर्धचेतन होने पर भी वह अपना स्वप्न पूर्ण कर पाता है, अधिकतर ऐसे स्वप्न प्रात:काल उठने के पहले होते हैं, यह वह समय होता है जब व्यक्ति अर्धचेतन अवस्था में अपने स्वप्न को किसी फ़िल्म की तरह अपने रंगमंच पर अपने कलाकारों के साथ बुन रहा होता है।

स्वप्न हमेशा वैयक्तिक चिंतन से संबंधित होते हैं, जैसा चिंतन पार्श्व मष्तिष्क में चल रहा होता है, वही स्वप्न की पटकथा निर्धारित करता है, बेहतर है कि हम अच्छे वातावरण में अच्छे विचारों के साथ रहें और अच्छे स्वप्न देखें।