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कालू कुत्ते, लंगूर और महिलायें

आज सुबह घूमने निकले तो सबसे पहले अपना ब्लूटूथ कनकव्वा लगाया और ऑडिबल्स पर किताब Do epic shit सुनना शुरू की। अच्छी किताब है, दिमाग के जाले मिटाने के लिये इस तरह की मैनेजमेंट व पर्सनल स्किल वाली किताबें पढ़ना चाहिये, वैसे हमने जिस दिन यह किताब पढ़ना शुरू की थी, उसी दिन बेटेलाल को इन किताबें की हार्डकॉपी ऑर्डर कर दी थी।

सूरज भाई निकल ही रहे थे, गली के 2 कुत्ते दोनों ही कालू हैं, एक के दोनों कान खड़े रहते हैं, दूसरे वाले के एक कान में समस्या है, तो 45 डिग्री पर उसका एक कान मुड़ा रहता है। वो अक्सर किसी ने किसी कार की छत पर बैठा दिखता है। जब हम यहाँ आये थे, तब इन दोनों कालुओं ने हम पर खूब भौंका, पर अब शायद पहचान गये हैं कि ये लोग भी अपने ही भाई बंद लोग हैं। पर अब भी मूड होने पर भौंकते जरूर हैं।

हमारे घूमने वाले रास्ते में कम से कम 15-20 गली के कुत्ते हैं ही और सबके सब जबरस्त भौंकते हैं, पर अभी रोज ही हम घूमने जा रहे हैं तो वे सब भी पहचान गये हैं, तो अब कोई दौड़ाने वाला जैसा कोई दिखता नहीं।

इस रूट पर घूमते हुए काफी दिन हो गये, पर आज जीरो प्वाइंट ब्रिज शुरू होने पर ही सीधे हाथ पर ही एक मजार दिखी, जिस पर एक भाई सुबह सुबह सजदा कर रहे थे, वहीं पास की एक गुमटी में चाय गुटखा बेचने वाले शख्श ने सड़क पर सामने भैरू के मंदिर को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और आँखें बंदकर कुछ बुदबुदाया और फिर दोनों कानों को हल्के से पकड़ा और फिर ईसा मसीह के सजदा वाली स्टाइल में माथे को छुआ और फिर दिल की जगह छुआ। इतनी सी देर में इतना सब कुछ देखकर इतना तो विश्वास हो गया कि कोई हमें कितना भी तोड़ने की कोशिश करे, पर आम आदमी अपनी आदतें नहीं छोड़ेगा।

तीन महिलाओं ने हमारे आगे चलने की ठानी थी और ब्रिज पर वे आगे चल रही थीं जब पास पहुंचे तो हमने कहा जरा जगह मिलेगी, पर वे तीनों अपनी बातें में इतनी मशगूल थीं कि शायद हमें सुना नहीं, पर जब एक महिला ने हमें देखा तो आगे जगह घेरकर चल रही महिला को कहा ‘अरे दरी जरा जगो दे दे’, तो उस महिला ने ‘हो’ कहा और साइड हो गईं, हम आगे निकल गये। आगे निकलते ही रेल की पटरी दिखने लगे गईं। जहाँ ब्रिज के नीचे रेल्वे लाईन शुरू होती हैं, तो दोनों और 6 फिट की जाली ब्रिज पर लगा दी गई हैं, बस उसी समय हमने देखा काले मुँह के बंदर जिन्हें लंगूर कहते हैं, अपने पूरे कुनबे के साथ लंगूर घूम रहे थे, थोड़ा डर भी लगा पर वे शायद जंगल के लंगूर थे, उनको हमसे कोई मतलब नहीं था, और वो हम शहरवालों को बिना छेड़े अपने रास्ते पर निकल गये।

ब्रिज के खत्म होते ही ठेलेवाले भिया खड़े थे, जहाँ पोहे जलेबी का कालजयी मालवी नाश्ता मिल रहा था, आज कचोरी, समोसे और आलूबड़ा मिसिंग थे। 5-6 लोग नाश्ता कर रहे थे, सब अपनी मस्ती में मस्त थे। ब्रिज पर आते हुए देखा था कि साबरमती एक्सप्रेस उज्जैन आ रही है, लौटते समय देखा कि साबरमती एक्सप्रेस वापिस चल दी है, पहले भी हमने देखा था कई बार आते जाते दोनों समय साबरमती एक्सप्रेस आउटर पर ही खड़ी दिखी थी। आते आते देखा कई लोग जो रोज ही उस समय आते जाते हैं वे अपनी सोमवार की प्रक्रिया शुरू कर चुके हैं।

हम लौटते हुए देख रहे थे कि सूरज भाई अब आसमान में 40 डिग्री पर आ चुके थे और स्कूल की बसें भी आकर किसी न किसी बच्चे का इंतजार कर रही थीं।

आज की सुबह की सैर

घर से निकलने में ही आज 7.40 हो गये, फिर भी हमने सोचा देर से ही सही पर घूम तो आते ही हैं वरना दिन भर फिर समय ही नहीं मिलेगा। सुबह मौसम ठंडा रहता है पर फिर भी हम हाफ टीशर्ट में घूमने निकल पड़ते हैं और दुनिया अपने बच्चों को छोड़ने स्कूल जा रही होती है वे सब जरकिन पहने हुए होते हैं। घर से निकलते ही थोड़ी दूर के बाद नागेश्वर पार्श्वनाथ मंदिर पड़ता है जोकि जैन मंदिर है। और जैन धर्मावलंबी सुबह 6:00 बजे से ही अपना शोला पहनकर दर्शन के लिए जाते हैं। आज जब तक हम पहुंचे तब तक सब दर्शन करके जा चुके थे।

फिर जैसे ही हम पिछले सिंहस्थ पर बने हैं नई सड़क पर घूमने निकले तो सामने ही सूरज भाई ने पूरे 60 डिग्री पर हमें दर्शन दिए, झट से हमने फोटो खींच लिया और फेसबुक पर डाल दिया। पहले कभी यहां पर हीरा मिल हुआ करती थी, जहां पर मजदूरों की साइकिलें लाइन से खड़ी होती थी और हीरा मिल का गेट हुआ करता था। जहां पर कपड़ा बना करता था, आज वहां रोड बनी हुई है तो कोई कितना भी घमंड कर ले, एक ना एक दिन उसका समाप्ति का दिन आ ही जाता है, इसलिए घमंड स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

इसी सड़क पर आगे बढ़ते हुए जो उज्जैन की नई इनर रिंग रोड बनाई गई है, वह आ जाती है। उसके पहले सीधे हाथ पर हीरामल की चाल है, जो पहले भी थी और अभी भी है, उनकी बरसों से यही मांग है कि यह घर उनके नाम कर दिया जाए पर कोई सुनवाई नहीं हुई है। वहीं पर ही सीधे हाथ पर 2-3 मंदिर बना दिए गए हैं उल्टे हाथ पर एक महावीर हनुमान जी का मंदिर है, थोड़ा सा आगे चौराहे पर जाने पर महादेव का मंदिर बना हुआ है, उसी के पास एक तालाब है, जिसमें गणपति विसर्जन होता है।

यहीं से दाई और मुड़ने पर फ्रीगंज जाने के लिए पुल आ जाता है, जो कि पिछले सिंहस्थ में बनाया गया था और पुल में ऐसा लगता है कि आधा ही पैसा लगाया गया। क्योंकि पुल बहुत ही संकरा है, पुल पर चलते रहने पर पुल की दीवाल पर स्वच्छ मध्य प्रदेश और स्वच्छ उज्जैन के नारे लिखे हुए देखे जा सकते हैं, परंतु उसी नारे के नीचे जमी धूल उन नारों का मखौल उड़ाती हुई देखी जा सकती है।

थोड़ा आगे जाने पर रेलवे लाइन का विहंगम दृश्य देखने को मिलता है जिसमें आज एक मालगाड़ी आते-आते रोक दी गई इसे आउटर कहा जाता है और बहुत ही लंबी मालगाड़ी थी जिसका दूसरा चोर दिखाई नहीं दे रहा था, वहीं आसपास बस्ती में एक बड़ा सा कुआं है जिसमें से एक व्यक्ति कुए से बाल्टी से पानी निकाल रहा था और एक व्यक्ति ही खड़ा होकर मछलियों के लिए कुछ खाने की चीजें भेज रहा था। इंसान में भी कितना मतभेद होता है, परंतु फिर भी कोई लड़ाई नहीं कोई झगड़ा नहीं कोई हाइजीन नहीं, सब अपने तरीके से जी ही रहे हैं। हालांकि उसका कोई छायाचित्र नहीं लिया। पर आप लिखे हुए ऐसे दृश्य को अपनी आंखों में उकेर सकते हैं।

इस पुल के बन जाने से फ्रीगंज का रास्ता अच्छा हो गया है और दूरी कम हो गई है। जब ब्रिज खत्म होने आ जाता है, तो उल्टे हाथ पर दो-तीन बड़े बड़े अस्पताल खुले हुए हैं, और उनके पहले दारु की दुकान है और फर्स्ट फ्लोर पर बढ़िया बैठ कर पीने की जगह भी है वह ब्रिज से ही दिखाई देता है। वहीं पर एक ही होती अपने कुत्ते को लेकर घूम रही थी और स्वच्छ उज्जैन की ऐसी तैसी कर रही थी। पुल खत्म हुआ और वापस जाने के लिए फुल क्रॉस करके दूसरी तरफ आ गए। वहीं पर एक ठेले पर सुबह सुबह नाश्ते की खुशबू आ जाती है वह पोहे जलेबी पकोड़े और चाय बनाता है। थोड़ा आगे आने पर उज्जैन रेलवे स्टेशन की तरफ का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।

पुल उतरते ही राजनेताओं के बड़े-बड़े पोस्टर लगे थे, कोई लोकल नेता कांग्रेस कमेटी का मेंबर चुन लिया गया था। तो दुनिया भर के छुटभैया नेता और बड़े नेताओं के फोटो लगे हुए थे, पर सबसे बड़ा फोटो उन्हीं का था जिनको यह सदस्यता हासिल हुई थी। और इस तरह थोड़ी देर में ही हमारी यह सैर खत्म हो गई।

सुबह घूमना क्यों चाहिये?

सुबह घूमना क्यों चाहिये?

सुबह घूमने के कई फायदे होते हैं जो हमारी तनाव से मुक्ति दिलाते हैं। निम्नलिखित हैं कुछ मुख्य फायदे:

  1. सुबह की सैर से शरीर का तापमान नियंत्रित रहता है और एनर्जी लेवल बढ़ता है।
  2. सुबह की सैर तनाव को कम करती है और मन को शांति देती है।
  3. सुबह की सैर शरीर के अक्सर इस्तेमाल होने वाले जोड़ों को स्ट्रेच करती है जिससे जोड़ों के दर्द का निवारण होता है।
  4. सुबह की सैर दिन की शुरुआत में मानसिक तनाव से राहत दिलाती है जिससे दिनभर की दुविधाओं का सामना आसान होता है।
  5. सुबह की सैर से सुबह की शुरुआत में धूप और ताजगी मिलती है जो शरीर को फायदेमंद होता है।
  6. सुबह की सैर नए जगहों का दौरा करने का मौका देती है जिससे व्यक्ति को नए दृश्य देखने का मौका मिलता है।

इसलिए, सुबह घूमना आपके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होता है।

कुछ लम्हें.. लिफ़्ट, संवाद, अखबार और समय

    सुनहली सुबह को उठकर नित्यक्रम से निवृत्त होकर, घूमने के लिये प्रकृति के बीच निकल पड़ना, प्रकृति के बीच घूमने का एक अपना ही अलग आनंद होता है, जब मैं अपने अपार्टमेंट के फ़्लेट से बाहर निकलता हूँ तो वहाँ केवल चार फ़्लेट, दो लिफ़्ट और एक सीढ़ियों के दरवाजे होते हुए भी हमेशा सन्नाटा ही पसरा हुआ पाता हूँ, सीढ़ियों से उतरने की सोचता नहीं, क्योंकि आठ माला उतरने से अच्छा है कि लिफ़्ट से ही उतर लिया जाये, वैसे ही आने में भी । कई बार सोचता हूँ कि अगर लिफ़्ट का अस्तित्व ना होता तो मुँबई में क्या केवल चार माले के घर ही होते, तब इतनी सारी बाहर से आई हुई जनता कैसे और कहाँ रहती, परंतु कुछ चीजों ने जिंदगी के कई प्रश्नों को हल कर दिया है।

    अपार्टमेंट से बाहर पहुँचते ही, झट से सुरक्षाकर्मी सलाम ठोंकता है और हम छोटे वाले दरवाजे से होते हुए हाईवे पर आ जाते हैं, दरवाजे के बाहर सीधा हाईवे ही है, सड़क पार एक छोटा सा उद्यान है, जहाँ सुबह लोग अपनी कैलोरी जलाने आते हैं, पर फ़िर भी वहाँ एकांत का सन्नाट पसरा हुआ है, यहाँ पर फ़िर भी लोग सुबह एक दूसरे को देखकर मुस्करा लेते हैं, सुप्रभात, जय राम जी की कह लेते हैं, पर कई शहरों में तो आपस में रोज देखने के बाद भी कभी कोई संवाद ही नहीं होता, संवाद पता नहीं किस घुटन में जीता है, जहाँ आपस में या खुद में ही लगता है कि शायद संवाद मौन है, और मौन ही संवाद है।

    वापिस आकर पसीने में भीगे हुए, ताजा अखबार और दूध की थैली खुद ही दरवाजे से उठाकर लाते हैं,  फ़िर अपने फ़्लेट में डाइनिंग टेबल की कुर्सियों को खींचकर पहले जूते मोजे उतारते हैं और फ़िर रोज की तरह पंखा चालू करना भूल गये होते हैं तो पंखा चालू करके, अपने पसीने पर गर्वित होते हुए अखबार पढ़ने लगते हैं, जैसे पसीना बहाकर पता नहीं किस पर अहसान करके आये हैं। अखबार भी क्या चीज है, जरा से पन्नों में दुनिया भर की खबरें भरी होती हैं, पर खबरें केवल वही होती हैं जो मीडिया हमें पढ़ाना चाहता है, हमारे भारत विकास की खबरें कहीं नहीं हैं, या भारत को विकास की और कैसे अग्रसर कैसे किया जाये, परिचय भी नहीं है जो लोग विकास का कार्य कर रहे हैं, पता नहीं कैसा अखबार है, बस इनमें उन्हीं लोगों का जिक्र है जो कुछ ना कुछ लूट रहे हैं, या लूटने की तैयारी कर रहे हैं। मुझे तो अब इन खबरों से ऊबकाई आने लगती है।

    तैयार होकर ऑफ़िस जाने का समय हो गया है, बारिश में लेदर के जूते पहनने का मन नहीं करता, आखिर महँगे जो आते हैं, बारिश में सैंडल में ही जाना ठीक लगता है, जिसको जो समझना हो समझे । अपार्टमेंट से बाहर निकलते ही फ़िर वही मुंबई की चिल्लपों कहीं मुलुन्ड वाली बस तो कहीं वाशी जाने वाली बस, अब हम जिधर जाते हैं उधर की बस मिलना मुश्किल होता है, तो ऑटो ही पकड़ना होता है और ऑटो पकड़ना भी एक युद्ध ही होता है, जितने भी यात्री वहाँ खड़े होते हैं, सब पहचान के होते हैं और आपस में एक दूसरे को जानते हैं, अगर उसी तरफ़ वे यात्रा कर रहे होते हैं तो खुशी खुशी उन्हें ड्रॉप भी कर देते हैं, पता नहीं मुंबई में ऐसी क्या चीज है जो आदमी को बदल देती है, शायद समय !! क्योंकि समय की सबके पास कमी है और सब अपने समय का सदुपयोग करना चाहते हैं ।

सुबह का अलार्म अच्छा लगता है क्या “किर्र किर्र” ? आप भी बताईये अपने अनुभव…. ? हमने तो इस पर विजय प्राप्त कर ली :)

रोज सुबह उठने के लिये अलार्म की आवाज अच्छी लगती है क्या ?
अलार्म की “किर्र किर्र” किसे अच्छी लगती है, जब हमने सुबह घूमने जाने का निर्णय लिया था तब तो अलार्म दुश्मन जैसा जान पड़ता था कि “हाय” अभी तो मीठी नींद चल ही रही थी, अभी तो सोये ही थे और ये मुआ अलार्म बज पड़ा और जैसे ही अलार्म की किर्र किर्र कान में पड़ती, हम उसका टेंटुआ ऐसा दबाते कि जैसे किसी दुश्मन का दबाते हों, पर ये मुआ अलार्म तो रोज ही बजता जाता है। अगर दुश्मन का टेंटुआ दबाते तो वो शायद ही उठ पाते पर ये अलार्म जान पर ही आ पड़ता है।
अब धीरे धीरे अलार्म की जरुरत खत्म हो गयी है, हमारी जैविक घड़ी अब सक्रिय हो गई है। इसलिये अब अलार्म का “किर्र किर्र” करने का भाने या न भाने का संबंध ही खत्म हो गया है।
अब हमारी तो जैविक घड़ी अपनी सक्रियता से चल रही है, और हम तो अलार्म बजने के पहले ही उठ पड़ते हैं।
आप बताईये अपने अनुभव कि कैसा अनुभव है अलार्म का ….?

जन्मदिन पर दिनचर्या उज्जैन में [सुबह की “जबेली”] भाग १

    उज्जैन आकर बहुत ही सुकून महसूस होता है, जो राहत यहाँ मिलती है वह कहीं और नहीं मिलती। बुजुर्गों ने सही ही कहा है कि “अपना घर अपना घर ही होता है, और परदेस परदेस !!”

    उज्जैन आते आते हमारी एक ऊँगली की चट पकने लगी थी, और उज्जैन आकर तो अपने पूरे शबाब पर थी, हम अपने फ़ैमिली डॉक्टर के पास गये कि चीरा लगाकर पट्टी कर दें पर उन्होंने एक देसी नुस्खा बता दिया। बर्फ़ को पीसकर कप में भरलें और फ़िर उसमें दिन में ४-५ बार अपनी ऊँगली को १० मिनिट तक रखें, अब तक हम यह नुस्खा ३ बार दोहरा चुके हैं, तो दर्द कम नहीं हुआ परंतु सूजन जरुर थोड़ी कम हो गई है, जब दस मिनिट बाद ऊँगली बाहर निकालते हैं तो ऐसा लगता है कि ऊँगली कें अंदर कोई तेजी से दौड़ रहा है, जो कि शायद पीप रहता है। ऐसा लगता है कि मेरी उँगली कहीं दौड़ जायेगी।

    कल हमारा जन्मदिन था, पता नहीं क्यों पर रुटीन में ही दिन निकल गया, उज्जैन की हवा को महसूस करने और घर पर अपने माता पिता के साथ समय कैसे हवा हो गया पता ही नहीं चला।

    ३ अप्रैल की रात १२.०१ मिनिट पर पाबला जी का फ़ोन आ गया, और सबसे पहले उन्होंने हमें जन्मदिन की शुभकामनाएँ दी, हालांकि हमारी नींद में खलल पड़ चुका था परंतु हम पाबला जी का स्नेह और आशीर्वाद पाकर खुद को अभिभूत महसूस कर रहे थे। एकदम ब्लॉग जगत ने हमारी दुनिया ही बदल दी है या कहें कि हमारी एक आभासी दुनिया भी है जहाँ के लोग संवेदनशील हैं और एक दूसरे के सुखदुख में शामिल होने को तत्पर रहते हैं।

    फ़िर १२.२५ पर हमारी प्रिय बहना का फ़ोन आया जो कि मिस काल हो चुका था, तो हम वापिस से नींद के आगोश में जाने के पहले अपने प्रिय और दुष्ट मोबाईल फ़ोन को भी नींद के आगोश में सुला चुके थे, कि अब कोई भी प्रिय हमारी नींद में खलल न डाल पाये, और हम अपनी नींद पूरी कर सकें। आखिर पूरी लंबी नींद शरीर की बहुत ही सख्त जरुरत है।

    सुबह छ: बजे अपनी सुप्रभात हुई और फ़िर वहीं रुटीन, फ़्रेश हुए फ़िर फ़टाफ़ट सुबह की सैर के लिये निकल पड़े और अपनी ही कॉलोनी के चक्कर काटने लगे, बहुत दिनों बाद कोई ऐसी जगह देख रहे थे जहाँ कि मल्टीस्टोरी नहीं थीं, केवल खुला आसमान दिख रहा था। जो सुख महसूस हो रहा था, वह शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।

    फ़िर वापिस आकर घर पर हमसे पूछा गया कि क्या खायेंगे ब्रेकफ़ास्ट में, हम तो हमेशा तत्पर रहते हैं अपने मनपसंदीदा पोहा जलेबी के नाश्ते के लिये। वैसे हमारी फ़रमाईश हमेशा पूरी होती है भले ही अनमने मन से, पर होती है। जलेबी लेने के लिये हम अपने बेटेलाल के साथ चल दिये बाजार अपनी बाइक पर, पुरानी उज्जैन में पर थोड़ी आगे सर्राफ़े पर जाकर पता चला कि आज सैयदना साहब का ९९ वाँ जन्मदिन है तो उसकी खुशी में बोहरा समाज का जुलूस निकल रहा है, फ़िर हमने सोचा कि चलो तेलीवाड़ा की तरफ़ से चला जाये परंतु वहाँ पर भी जुलूस से रास्ता बंद था, तो हमारे बेटेलाल को चिंता हो गई कि अब हमारी “जबेली” का क्या होगा !!! हमने कहा बेटा आज भोलागुरु की जलेबी नहीं खाने को मिलेगी आज हमें फ़्रीगंज जाकर श्रीगंगा की जलेबी खाना पड़ेगी। हमने अपनी बाइक मोड़ी और चल दिये फ़्रीगंज ….

    और अपने दोस्त की दुकान से अपने बेटेलाल की “जबेली” लेकर घर चल दिये। अब अगर यही मुंबई होता तो वहाँ इतना घूमना नहीं पड़ता था, केवल आपके पास दुकान का फ़ोन नंबर होना चाहिये और फ़ोन कर दो, कोई भी चीज चाहिये घर पर १५ मिनिट में हाजिर। पर उज्जैन में कल्पना करना भी मुश्किल है, कि फ़ोन पर जलेबी घर आयेगी 🙁

कुछ एडवान्टेज अगर मुंबई के हैं तो कुछ उज्जैन के भी हैं।

जॉगर्स पार्क में सैर वाले सड़क पर आ गये और दयाल प्रभू का लेक्चर “Developing The Culture Of Blessings”

    हम सुबह की सैर करने वाले जो कि बगीचे में जाते थे, और बगीचे का नाम है जागर्स पार्क। रोज सुबह सुबह प्राकृतिक आनंद लेते हुए सैर किया करते थे पर अब बगीचा १० दिनों के लिये साज-सँभाल के लिये बंद है, अभी हाल ही में बगीचे में आजीबाबा पार्क बनाया गया है, मतलब केवल वृद्ध लोगों के लिये जिसमें बहुत ही अच्छा रंग वगैरह किया गया है, अब यहाँ मुंबई में पास में कोई बीच तो है नहीं कि सुबह या शाम की सैर में समुंदर किनारे बीच पर जाकर मटक आयें। वैसे यहाँ बीच जो हैं पास में वो हैं अक्सा बीच मलाड, गोराई बीच गोराई बोरिवली और जुहू बीच मुंबई।
    आज जब सुबह घूमने को निकले तो अपने स्पोर्ट शूज में मरीना बीच की रेत झाड़ी तो अनायास ही ऐसा लगा कि काश हम हमारे अतीत की रेत भी ऐसे ही झाड़ कर निकाल पाते और फ़िर से वापिस कुछ नया सा शुरु कर पाते पर वास्तविकता में ऐसा होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
    आज सुबह जब हम घूमने निकले तो सब हमें घूर घूर कर देख रहे थे हमारे हेयर स्टाईल के कारण, हम फ़िर से गंजी करवा लिये हैं, और सोच रहे हैं कि यही हेयर स्टाईल रखी जाये। और साथ में सुन रहे थे दयाल प्रभू का लेक्चर “Developing The Culture Of Blessings” हालांकि पूरा नहीं हो पाया, पर जो ज्ञान मिला वह है – “श्रीमद्भागवद गीता को केवल वही समझ सकता है जिसने अपने आप को भगवान श्रीकृष्ण को अर्पित कर दिया हो, जिसने खुद को सर्वाकर्षक कृष्ण को अर्पित नहीं किया वह गीता के ज्ञान से वंचित है।” भगवान श्रीकृष्ण को कैसे अर्पित किया जाये वह भी बताया है, श्रवण, कीर्तन, अर्पण, आत्मनिवेदन। पहली तीन श्रवण, कीर्तन, अर्पण तो सबके लिये संभव है पर आत्मनिवेदन मतलब खुद को और खुद की सारी वस्तुओं को सर्वाकर्षक कृष्ण को समर्पित कर देना बहुत ही कठिन है इस भौतिकवादी युग में, अगर जिसने यह भी कर दिया तो वह गीता का ज्ञान निश्चय ही प्राप्त कर सकता है।
    फ़िर सड़क पर सैर पूरी करने के बाद मन में यही विचार आया कि देखो सब बगीचे में घूमने वाले सड़क पर आ गये। सुबह हम यहाँ पहली बार सड़क पर घूमने निकले थे तो बहुत सारी नयी चीजें देखने को मिलीं। जैसे एक दो अखबार वाले नहीं थे बल्कि लगभग हर दूसरी बंद दुकान के ओटले पर अखबार वाले बैठे थे और अखबारों को शायद बिल्डिंग के हिसाब से जमा रहे थे। पाव वाले अपनी साईकलों पर पाव की डिलेवरी दे रहे थे, स्कूल जाते बच्चे कौतुहल से अचानक आई सुबह के सैर करनेवालों की भीड़ को देखकर आश्चर्यचकित थे। तब हमें लगा कि केवल सुबह की सैर करने वाले ही नहीं जल्दी उठते हैं बल्कि स्कूल जाने वाले और कुछ लोग जिन्हें जल्दी अपने कार्यालय जाना होता है वे भी उठते हैं। सैर पूरी करने के बाद जल्दी ही घर आ गये क्योंकि सड़कों पर स्कूल बसों का और वाहनों का ट्राफ़िक बढ़ने लगा था।
    घर पर आकर अपना मेल देखा तो डॉ मनोज मिश्र जी का एक ईमेल मुस्कराता हुआ हमारा इंतजार कर रहा था, फ़िर आदरणीय मिश्रजी का फ़ोन आया और कुछ बातें भी हुई, धन्य हुए इस ब्लॉगरी से हम जिससे हम एक अलग ही विचारों की दुनिया के लोगों से रुबरु हुए हैं।

सुबह की सैर, श्रीमद्भागवदम और गीता जी का ज्ञान …

    आज की सैर के लिये हम निकले तो थोड़ा समय ज्यादा हो गया था और हम सुन रहे थे द्वारकाधीश प्रभू का लेक्चर “Sanyas Means Krishna Centered Love”। रोज सुबह एक लेक्चर सुन लेते हैं जिससे कृष्णजी के प्रति अनुराग और गहरा होता जाता है और श्रीमद्भागवदम और गीता जी से कुछ सीखने को मिल जाता है। अब वेद तो हम पढ़ने से रहे, क्योंकि वेद संस्कृत में लिखे हैं और संस्कृत संपूर्ण व्याकरण के साथ सीखने के लिये पूरे १२ वर्ष लगते हैं और फ़िर वैदिक खगोल और ज्योतिष का भी ज्ञान होना चाहिये इसलिये निर्मल भाषा में हम संदर्भ सुनकर इस तुच्छ जीवन का उद्धार करना चाहते हैं। और हर समय मन में महामंत्र रहता है..

“हरे कृष्णा हरे कृष्णा
कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे”
    आज सुबह की सैर करने हम यहाँ के पॉश इलाके में गये जहाँ जयललिता, रजनीकांत, मुख्यमंत्री करुणानिधी रहते हैं, अच्छी खासी धूप निकल आने के बाद भी यहाँ सड़कों पर घनी छांव थी, फ़िर मुख्य सड़क पर अमेरिका का वीजा केन्द्र भी पड़ा क्या बड़ा और क्या छोटा सब लाईन में दीवार के किनारे खड़े थे अपने वीजा आवेदन के साथ, और सुरक्षाकर्मी मुस्तैद थे अपनी बंदूकों के साथ।
    सुबह घूमने जाने का एक नुकसान  भी है, कि लगने लगता है जब व्यक्ति मोटा होता है या उसे वजन घटाना होता है तभी वह मजबूरी में घूमता है, जगह जगह वजन की मशीन और फ़्री फ़ेट चैक अप के पोस्टर लिये लोग अपना व्यापार करने के लिये खड़े रहते हैं, और घूमने वालों को देखो तो ९८% केवल मोटे लोग ही दीखते हैं और केवल २% तंदरुस्त लोग घूमने वाले दीखते हैं।
कुछ और फ़ोटो चैन्नई के –
दीवारों पर सांस्कृतिक लोकनृत्यों के उकेरे हुए चित्र –
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