सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३३ [द्वन्द्वयुद्ध के दाँव….]

     छह वर्षों का समय तो ऐसे उड़ गया जैसे पक्षियों का झुण्ड उड़ जाता है। उसका पता भी न चला। युद्धशास्त्र में कुछ भी सीखना शेष नहीं बचा। बल्कि मैंने और शोण ने रात में जो अतिरिक्त अभ्यास किया था, उसके कारण हमने प्रत्येक शास्त्र के कुछ ऐसे विशिष्ट कौशल सीख लिये थे जो केवल हम ही जानते थे। कुश्ती के अखाड़े में मैंने केवल लगातार परिश्रम ही नहीं किया, बल्कि एक ही समय चार-चार मल्लयुवकों के साथ मैंने कुश्ती भी लड़ी थी। न जाने क्यों व्यायाम करते समय मुझको थकावट कभी नहीं मालूम पड़ती थी। इसके विपरीत जैसे-जैसे मैं व्यायाम करता जाता वैसे ही वैसे मेरा शरीर तप्त होता जाता। कभी-कभी वह इतना तप्त हो जाता था कि मेरे साथ कुश्ती लड़नेवाले जोड़ीदार कहते, “कर्ण, सीधा जा और दो-चार घड़ी गंगा के पानी में अच्छी तरह डुबकी लगाकर पहले अपना शरीर थोड़ा ठण्डा कर उसके बाद ही हमको अपने साथ कुश्ती लड़ने के लिये बुला। यह तेरा शरीर है या रथ की प्रखर तप्त हाल ?”

     मेरे बाहुकण्टक दाँव से तो वे इतने घबराते कि उस दाँव को चलाने के लिए मैं जैसे ही चपलतापूर्वक अपने शरीर्को सक्रिय करने लगता, वे अपने-आप एकदम चित्त हो जाते । इस दाँव की एक विशेषता थी। प्रतिद्वन्द्वी की गरदन इस दाँव में जकड़ ली जाती थी। शरीर की सारी शक्ति हाथ में एकत्रित कर उसका दबाब धीरे-धीरे बढ़ाते जाने पर प्रतिद्वन्द्वी का दम घुटने लगता था और वह मर जाता था। उस समय उसके हाथ और पैर पीठ पर गट्ठर की तरह ऐसे बँध जाते थे कि गरदन पर रखे हाथ को हटाने की शक्ति उसमें होने पर भी वह उसको हटा नहीं पाता था। यह मेरा विशेष सुरक्षित दाँव था। और युद्धशास्त्र के नियम के अनुसार वह केवल द्वन्द्वयुद्ध के समय ही इतनी क्रूरता से प्रयोग में लया जा सकता था। द्वन्द्व का अर्थ एक ही था। उसमें दो योद्धाओं में से एक ही बचता था। इस युद्ध जब मरने के डर से शरण में आ ही जाता था, तो उसको जीवनदान मिलता था। परन्तु वह जीवनदान विधवा स्त्री के जीवन की तरह होता था। योद्धाओं के राज्य में इस प्रकार जीवनदान माँगनेवाले का मूल्य तिनके के बराबर भी नहीं होता है। ऐसे द्वन्द्वयुद्ध में काम आनेवाले सभी दाँव मैंने सीख लिये थे। परन्तु मेरा सबसे अधिक विश्वास एक ही दाँव पर था – बाहुकण्टक पर।

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