सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३४ [कर्ण की अपने गुरु के प्रति श्रद्धा…..]

       काल के वायु के साथ ही ऐसे दिन और रात के अनेक सूखे-हरे पत्ते उड़ गये। प्रतिदिन प्रत्युषा में उठना, गंगा में जी भरकर डुबकियाँ लगाना, प्रात:काल से दोपहर तक, जबतक पीठ अच्छी तरह गरम न हो जाये, गंगा में रहकर ही सूर्यदेव की आराधना करना, दिन-भर युद्धशाला में शूल, तोमर, शतघ्नी, प्रास, भुशुण्डी, खड़्ग, गदा, पट्टिश आदि भिन्न-भिन्न प्रका के शस्त्र फ़िराना, समय अपर्याप्त लगने पर रात में शोण को लेकर पलीते के धूमिल प्रकाश में अचूक लक्ष्य-भेद करना और अन्त में सारे दिन की घटनाओं का चिन्तन करते हुए, कभी-कभी चम्पानगरी की स्मृतियाँ मन ही मन दुहराते हुए, सो जाना। इसी लीक पर चलते हुए छह वर्ष बीत गये।

      बचपन का वसु अब मन के प्रांगण में दौड़ नहीं लगाता था। चम्पानगरी का स्थान अब हस्तिनापुर ने ले लिया था। चम्पानगरी में गंगा के किनारे बालू में अंकित होनेवाले छोटे-छोटे पैर अब हस्तिनापुर की भूमि पर दृढ़ता से पड़ने लगे थे। काल का अजगर छह वर्ष निगल चुका था। छह बर्ष ! इन छह वर्षों में क्या हुआ और क्या नहीं हुआ, यह सब कहा जाये तो वह अलग ही कहानी बन जायेगी। इन छह वर्षों में मैं तो युद्धशाला का एक शिष्य मात्र था। यहाँ कभी किसी ने मेरे साथ शिष्य का-सा व्यवहार नहीं किया। द्रोणाचार्य की देख-रेख में कृपाचार्य के पथक में मेरा नाम था। उस पथक में हस्तिनापुर के सभी साधारण शिष्य थे। उन साधारण शिष्यों में मैं सबसे अधिक साधारण था। शिष्यों की भीड़ में कृपाचार्य अथवा द्रोणाचार्य ने कभी मुझसे पूछताछ नहीं की थी। और सच पूछो तो वे मुझसे कुछ पूछें, मेरी पीठ पर अपना हाथ फ़ेरें, यह इच्छा मेरे मन में भी कभी नहीं हुई। जब-जब शास्त्र का कोई कठिन दाँव मेरी समझ में न आता, तब तब मैं क्षण-भर आँखें बन्द कर अपने गुरु का – सूर्यदेव का – स्मरण करता और पल-भर में उस दाँव को समझकर अलग हट जाता, जैसे यक्षिणी ने जादू की छड़ी घुमा दी हो। श्रद्धा में बड़ी शक्ति होती है। किसी न किसी पर श्रद्धा रखे बिना मनुष्य जीवित ही नहीं रह सकता।

       शिष्यावस्था में मेरी सारी श्रद्धा अपने गुरु पर थी। भय से तो मेरा लेशमात्र भी परिचय नहीं था। परन्तु कभी-कभी मेरा मन केवल इसी बात के लिए विद्रोह कर उठता था कि शाला के ये दोनों गुरुदेव कभी मुझसे बात क्यों नहीं करते ? कर्ण को वे पत्थर का एक पुतला समझते हैं क्या ? प्यासे व्यक्ति को समुद्र में रहते हुए भी एक बूँद पानी पीने को नहीं मिले, मेरी दशा भी ऐसी ही हो जाती। अपने इन विचारों को मैं यदि किसी से प्रकट भी करता तो शोण के अतिरिक्त और था ही कौन मेरे पास ! मेर मन घुटता जा रहा था। बड़े लोग छोटों को अपने पास बुलाकर उनके दोष दिखायें तब तो ठीक है। लेकिन यदि उनकी उपेक्षा करें तो ?…तो उनके मन का अंकुर घुटने लगता है। फ़िर जहाँ उसको रास्ता मिलता है वहीं से वह बाहर निकलता है। इन छह वर्षों में मुझको क्या प्राप्त हुआ था ? घोर असह्य उपेक्षा। ज्वलन्त तिरस्कार। कर्ण नामक कोई एक शिष्य इस युद्धशाला में भी अपने आप ही बनय गया। कृपाचार्य और द्रोणाचार्य के प्रति आदर होने के बजाय शंका आ पैठी। मुझे ऐसा लगता कि वे मेरे नाममात्र के लिये गुरु हैं। जो शिष्यों के मन नहीं जानते हैं, वे कैसे गुरु ? जो प्रेम की फ़ूँक से शिष्यों के मन की कली प्रफ़ुल्लित नहीं करते, वे कैसे गुरु ? मेरा मन गुरु-प्रेम के लिए तरसता था। इसीलिए मैं प्रतिदिन अपने गुरु का हाथ अपनी पीठ पर तब तक फ़िरवाता था, जबतक कि पीठ गर्म नहीं हो जाती थी। हाँ तब तक सूर्यदेव को अर्ध्य देता रहता। नित्य इसी प्रकार तप्त होने के कारण मेरी पीठ प्रखर हो गयी थी।

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