पतंगबाजी की हमारी कुछ पुरानी यादें, और धागा को सूतकर मांझा बनाना जिसे धार में गुँडे कहते हैं… मकर संक्रांति की याद में… अपना बचपन..

कल अपने ऑफ़िस जाते समय बीच में मलाड़ में एक पतंग की सजी हुई दुकान दिख गई, एक नजर में तो हमारा मन ललचा गया पतंग देखकर, और साथ में मांझा और चकरी भी था।

images तो बस हमें अपने पुराने दिन याद आ गये जब नौकरी की कोई चिंता नहीं थी, अपने स्कूल में पढ़ते थे और मजे में दिनभर पतंग उडाते थे। तब हम लोग राजा भोज की नगरी धार में रहते थे, जहाँ पर विवादित भोजशाला भी है, एक समय था जब धारा में  दंगे होना तो आम बात थी।

हम रहते थे गुरुनानक मार्ग पर बिल्कुल वैंकट बिहारी के मंदिर के पीछे, और् हमारे मोहल्ले के लगभग सभी लोग वहीं से पतंगबाजी करते थे। मकर संक्रांति के पहले से पतंगबाजी की तैयारी जोरशोर से शुरु हो जाती थी, हमारे पास भी एक बड़ा लकड़ी का चकरा था, जो कि हमने स्पेशली बनवाया था।

पतंगबाजी की तैयारी शुरु होती थी मांझा सूतने से, धार में मांझे को गुंडा कहा जाता है, धागा सूतने की प्रक्रिया भी कम दिलचस्प नहीं होती थी, बहुत मेहनत लगती है धागा सूतने में, ये बरेली वाला मांझा भी कहाँ लगता, हमारे सूते हुए मांझे के सामने।

मांझा सूतने की तैयारी शुरु होती थी काँच पीसने से, घर की पुरानी ट्यूबलाईट और् बल्ब के काँच को सावधानी से तोड़कर एक बड़े कपड़े में रखकर्, उसकी पोटली बनाकर् उसे कूट लेते थे जिससे वो काँच के टुकड़े छोटे छोटे हो जायें, और हाथ में भी न लगें,  फ़िर अपने लोहे के मूसल में कूटकर काँच को और बारीक कर लिया जाता था, फ़िर काँच को साड़ी के कपड़े से छानकर उसे अलग रख लेते थे। यह तो पहली चीज तैयार हो गई मांझा सूतने की।

अब और सामग्री होती थी, सरेस, रंग, छोटे छोटे कॉटन के कपड़े और एक छेद वाली डंडी।

सरेस को उबालकर उसमें रंग मिला दो और उसे एक बर्तन में कर लो, बर्तन खराब ही लें क्योंकि बर्तन सरेस डालने के बाद अच्छा नहीं रह जाता है। मांझा और चिकना करना हो तो साबुदाना भी डाल सकते हैं, सामग्री तैयार हो चुकी है, अब धागे और काँच के साथ तैयार हो जाते थे, धागा सूतने के लिये।

पीछे धागे की गिट्टी को इस प्रकार पकड़ा जाता है कि धागा आसानी से तेजी से निकले, फ़िर धागे को उस छेद वाली डंडी में से निकाल कर जो कि सरेस के बर्तन में डुबा कर रखी जाती है, और अब वो कॉटन के कपड़े को तह कर के उसके बीच में काँच भरकर उसे अपनी दो ऊँगलियों से पकड़ लें ध्यान रहे कि धागा इसके बीच में से जाना चाहिये, और अगर ज्यादा पतंग काटनी हो तो उसके बाद थोड़ी दूरी पर ही वापिस से एक और काँच चाला कपड़ा किसी को पकड़ा दें और फ़िर अपनी चकरी में लपेटते जायें। इससे काँच धागे में चिपकता जायेगा रंग के साथ जिससे आप ज्यादा पतंग काट पायेंगे।

ये तो धागा सूत लिया और् अब ये मांझे में बदल गया अभी तो ये गीला है, अब इसे किसी दूसरी चकरी में लपेट लें धीरे धीरे जिससे ये सूख जाये और ये प्रक्रिया तब तक दोहरायें जब तक कि मांझा पूरी तरह से सूख नहीं जाये।

बस फ़िर क्या है मांझा तैयार और पतंगें काटने को तैयार हो जाईये, वैसे हम मांझा इतना कांच वाला सूतते थे कि किसी पतंग को टिकने नहीं देते थे और अपने आसपास का आसमान साफ़ कर देते थे, कांच ज्यादा होता था हमारे गुंडों में इसलिये हमने कभी भी मांझा अपनी ऊँगलियों से नहीं पकड़ा और सीधे चकरी से ही पतंग उडाते थे,  उस समय अपना लोगों में बहुत डर था और् जब हम पतंग उड़ाने जाते थे तो आसपास वाले अपनी पतंगे उतार लेते थे। और आज भी हम सीधे चकरी से ही पतंग उड़ाते हैं, इससे फ़ायदा यह है कि किसी दूसरे पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है कि कोई अपनी चकरी पकड़े और हम हाथ से उड़ायें।

संक्रांति पर तो लगभग हर छत पर रेडियो, टेप, डेक, माईक और बड़े बड़े स्पीकर लगाकर लोग दूसरे की पतंग काटने पर "काटा हैं" या अपनी पतंग कटने पर "कटवाई है" चिल्लाते थे। और जोर जोर से गाने बजते थे, सारे आसमान में पतंगे ही पतंगे दिखती थीं।

सुबह पतंग उड़ाने जाते थे तो घर तो तभी लौटते थे जब शाम को पतंग दिखनी बंद हो जाती थी, या फ़िर हमारे माताजी या पिताजी में से कोई एक डंडा लेकर आता दिखता था।

इतनी ऊँची पतंग उड़ाते थे कि शाम को पतंग उतारने की हिम्मत ही नहीं होती थी, इसलिये अपने हाथ से धागा तोड़कर या तो किसी को दे देते थे या फ़िर वहीं कहीं बाँधकर घर चले जाते थे।

बहुत मधुर यादें हैं पतंगबाजी की, ऐसा लगा कि यह पोस्ट लिखते लिखते मैं अपने पुराने दिनों में चला गया। आप भी अपने पतंगबाजी के अनुभव बताईयेगा जरुर।

17 thoughts on “पतंगबाजी की हमारी कुछ पुरानी यादें, और धागा को सूतकर मांझा बनाना जिसे धार में गुँडे कहते हैं… मकर संक्रांति की याद में… अपना बचपन..

  1. क्या बात है जी, एकदम मजेदार यादें हैं ये तो। पतंगबाजी में हुनर के साथ थोडी हुल्लड भी जरूरी हो जाती है…वो काटा…..वो ढील….खींच…खींच….सभी आवाजें एकदम से याद आ गई हैं इस पोस्ट से।

  2. काश मेरी भी कभी पतंग उड़ पायी होती –कभी कमबख्त उडी ही नहीं ..
    अब आपका ये डिस्क्रिप्शन पढ़ कर फिर पूरी प्रक्रिया में मन डूबना चाहता है

  3. अनुभव …
    इसे हम गुड्डी उड़ाना कहते थे।
    पिताजी का थप्पड़।
    पीछे-पीछे और धड़ाम से नीचे।
    संक्रांति पर्व की बधाई।

  4. रंग बिरंगी पतंगों की छटा बड़ी निराली लगती है…उड़ाया तो कभी नहीं…पर इसका लुत्फ़ लेने छत पर जरूर पहुँच जाती थी…दिल्ली में १५ अगस्त को पतंग उडाई जाती है और मुंबई में मकर संक्रांति…दोनों जगह एक सा ही उत्साह देखा है,लोगों में ..
    आप प्लीज़ समय निकाल कर अपने बेटे को जरूर सिखाएं क्यूंकि मेरे बच्चे जब छोटे थे..पतंग ,चरखी सब खरीद लेते और जिद कर मुझे छत पर ले जाते…पर सिखाये कौन?…मुंबई में पतियों को कहाँ छुट्टी मिलती है…आप छुट्टी लेकर ही सही..उसके साथ जरूर पतंग उड़ायें.

  5. @रश्मिजी – मेरा बेटा अभी पाँच साल का है परंतु पतंगबाजी में उस्ताद है, बेटा बाप से आगे है। वह पतंगबाजी पिछले साल ही सीख चुका है। और मैं कोशिश करता हूँ कि और भी बच्चों को पतंगबाजी सिखाऊँ परंतु कुछ अभिभावक तैयार नहीं होते तो कुछ टीवीबाज बच्चे पतंगबाजी करना नहीं चाहते पर फ़िर भी मेरा तो यही अनुभव है कि पतंगबाजी एक नशा है और अच्छा खेल है। कोशिश रहती है हर साल कि कम से कम संक्रांति के दिन तो छुट्टी लें और पतंगबाजी करें नहीं तो हमेशा ३-४ दिन तो हम पतंगबाजी के लिये समर्पित करते ही हैं।

  6. पुराने दिन याद दिला दिए। माँजा हमने भी खूब सूँता है और पतंगें और गरारियाँ भी खुद ही बनाई हैं। पता नहीं क्या क्या तलाशते थे पसारी के यहाँ, समंदर फेन, धोली मूसली कमरकस और न जाने क्या क्या!

  7. वाह वाह आप ने तो हमे हमारी पिटाई याद दिला दी इस माँजा के चक्कर मै, माँजा तो हम भी ऎसे ही तेयार करते थे, लेकिन पीसा हुआ शीशा हम ने एक शीशी मै रखा था, पिता जी का पेट खराब रहता था, ओर वो कोई सफ़ेद चुरण वेसी ही शीशी मै लाते थे, ओर उन्होने उस शीशे को चुरण समझ कर फ़ांकना चाहा फ़िर कुछ सोच कर रुक गये, फ़िर जब हम घर आये तो हमारा क्या हाल हुआ होगा बताने की जरुरत नही, लेकिन हमारा प्रेम फ़िर भी इस मुये मांजे से नही टुटाआप ने बीते दिन याद दिला दिये,धन्यवाद

  8. हमें तो कभी पतंग उडानी आई ही नहीं। बस दोस्त की चरखी पकड़ लेते थे और पतंग को उड़ते हुए देखकर खुश हो लेते थे। एक बार एक पतंग लूटी और दस दिन तक उसे संभाल कर रखा। जब उड़ाने लगे तो एक मिनट में ही फट गई और खेल ख़त्म हो गया।

  9. छोटे भाई को सीखाने के बहाने मैने भी पतंग उडाने और धागे मजबूत करने के सारे गुर सीख लिए थे .. आपकी पोस्‍ट पढकर बचपन की यादें ताजी हो गयी !!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *