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प्रेम केवल जिस्मानी हो सकता है क्या दिल से नहीं ?

प्रेम में अद्भुत कशिश होती है, प्रेम क्या होता है, प्रेम को क्या कभी किसी ने देखा है, प्रेम को केवल और केवल महसूस किया जा सकता है.. ये शब्द थे राज की डायरी में, जब वह आज की डायरी लिखने बैठा तो अनायास ही दिन में हुई बहस को संक्षेप में लिखने की इच्छा को रोक न सका। राज और विनय दोनों का ही सोचना था कि प्रेम केवल जिस्मानी हो सकता है, प्रेम कभी दिल से बिना किसी आकर्षण के नहीं हो सकता है।
 
राज को पता न था कि नियती में उसके लिये क्या लिखा है और एक दिन सामने वाले घर में रहने वाली गुँजन से आँखें चार हुईं, ऐसे तो गुँजन बचपन से ही घर के सामने रहती है, पर आज जिस गुँजन को वह देख रहा था, उसकी आँखों में एक अलग ही बात थी, जैसे गुँजन की आँखें भँवरे की तरह राज के चारों और घूम रही हों और राज को गुँजन ही गुँजन अपने चारों और नजर आ रही थी, गुँजन का यूँ देखना, मुस्कराना उसे बहुत ही अजीब लग रहा था। गुँजन के जिस्म की तो छोड़ो कभी राज ने गुँजन की कदकाठी पर भी इतना ध्यान नहीं दिया था। 
और आज केवल राज को गुँजन की आँखों में वह राज दिख रहा था। बस पता नहीं कुछ होते हुए भी राज बैचेन हो गया था। उसके जिस्म का एक एक रोंया पुलकित हो उठा था। बस बात इतनी ही नहीं थी, अगर वह हिम्मत जुटाकर आगे बड़कर गुँजन को कुछ कहता तो  उसे पता था कि उसके बुलडॉग जैसे 2 भाई उसकी अच्छी मरम्मत कर देंगे।

पतंगों का मौसम चल रहा था, आसमान में जहाँ देखो वहाँ रंगबिरंगी पतंगें आसमान में उड़ती हुई दिखतीं, राज
को ऐसा लगता कि उसका भी एक अलग आसमान है उसके दिल में गुँजन ने रंगबिरंगे तारों से उसका आसमान अचानक ही रंगीन कर दिया है। राज और गुँजन दोनों अच्छे पतंगबाज हैं, वैसे तो प्रेम सब सिखा देता है, गुँजन का समय अब राज के इंतजार में छत पर कुछ ज्यादा ही कटने लगा था, और वह उतनी देर हवा के रुख का बदलने का इंतजार करती जब तक कि राज के घर की और पुरवाई न बहने लगे, जैसे ही पुरवाई राज के घर का रुख करती झट से गुँजन अपनी पतंग को हवा के रुख में बहा देती और राज के घर के ऊपर लगे डिश एँटीना में अपनी पतंग फँसाकर राज की खिड़की में ज्यादा से ज्यादा देर तक झांकने का प्रयत्न करती, ऐसी ही कुछ हालत राज की थी और उसे लगता कि गुँजन की पतंग बस उसकी डिश में ही उलझी रहे और गुँजन ऐसे ही मेरी तरफ देखती रहे। पता नहीं कबमें राज और गुँजन की उलझन डिश और पतंग जैसी होने लगी, दोनों ही आपस में यह उलझन महसूस कर रहे थे।

अब राज को गुँजन के बिना रहा न जाता और वैसा ही कुछ हाल गुँजन का था, आखिरकार राज ने गुँजन को वेलन्टाइन डे पर अपने दिल की बात इजहार करने की ठानी, एक कागज पर बड़े बड़े शब्दों में लिखा
मैं तुमसे प्यार करने लगा हूँ”, और यह कागज राज ने गुँजन की पतंग के साथ बाँध दिया और पतंग को डिश एँटीना से निकालकर छुट्टी दे दी। गुँजन ने फौरन ही पतंग को उतार कर वह संदेश पड़ा, पर फिर से उसने पतंग उड़ाई और राज ने अपनी छत पर वह पतंग पकड़ ली और उसमें गुँजन का संदेश था, मैं भी तुम्हें पसंद करने लगी हूँ, राज ने पतंग के डोर में एक पतंग और बाँधकर छुट्टी दे दी । और प्रेम के खुले आसमान में स्वतंत्र होकर वह दोनों पतंग एक डोरी से बँधी उड़ने लगीं।
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पतंगबाजी की हमारी कुछ पुरानी यादें, और धागा को सूतकर मांझा बनाना जिसे धार में गुँडे कहते हैं… मकर संक्रांति की याद में… अपना बचपन..

कल अपने ऑफ़िस जाते समय बीच में मलाड़ में एक पतंग की सजी हुई दुकान दिख गई, एक नजर में तो हमारा मन ललचा गया पतंग देखकर, और साथ में मांझा और चकरी भी था।

images तो बस हमें अपने पुराने दिन याद आ गये जब नौकरी की कोई चिंता नहीं थी, अपने स्कूल में पढ़ते थे और मजे में दिनभर पतंग उडाते थे। तब हम लोग राजा भोज की नगरी धार में रहते थे, जहाँ पर विवादित भोजशाला भी है, एक समय था जब धारा में  दंगे होना तो आम बात थी।

हम रहते थे गुरुनानक मार्ग पर बिल्कुल वैंकट बिहारी के मंदिर के पीछे, और् हमारे मोहल्ले के लगभग सभी लोग वहीं से पतंगबाजी करते थे। मकर संक्रांति के पहले से पतंगबाजी की तैयारी जोरशोर से शुरु हो जाती थी, हमारे पास भी एक बड़ा लकड़ी का चकरा था, जो कि हमने स्पेशली बनवाया था।

पतंगबाजी की तैयारी शुरु होती थी मांझा सूतने से, धार में मांझे को गुंडा कहा जाता है, धागा सूतने की प्रक्रिया भी कम दिलचस्प नहीं होती थी, बहुत मेहनत लगती है धागा सूतने में, ये बरेली वाला मांझा भी कहाँ लगता, हमारे सूते हुए मांझे के सामने।

मांझा सूतने की तैयारी शुरु होती थी काँच पीसने से, घर की पुरानी ट्यूबलाईट और् बल्ब के काँच को सावधानी से तोड़कर एक बड़े कपड़े में रखकर्, उसकी पोटली बनाकर् उसे कूट लेते थे जिससे वो काँच के टुकड़े छोटे छोटे हो जायें, और हाथ में भी न लगें,  फ़िर अपने लोहे के मूसल में कूटकर काँच को और बारीक कर लिया जाता था, फ़िर काँच को साड़ी के कपड़े से छानकर उसे अलग रख लेते थे। यह तो पहली चीज तैयार हो गई मांझा सूतने की।

अब और सामग्री होती थी, सरेस, रंग, छोटे छोटे कॉटन के कपड़े और एक छेद वाली डंडी।

सरेस को उबालकर उसमें रंग मिला दो और उसे एक बर्तन में कर लो, बर्तन खराब ही लें क्योंकि बर्तन सरेस डालने के बाद अच्छा नहीं रह जाता है। मांझा और चिकना करना हो तो साबुदाना भी डाल सकते हैं, सामग्री तैयार हो चुकी है, अब धागे और काँच के साथ तैयार हो जाते थे, धागा सूतने के लिये।

पीछे धागे की गिट्टी को इस प्रकार पकड़ा जाता है कि धागा आसानी से तेजी से निकले, फ़िर धागे को उस छेद वाली डंडी में से निकाल कर जो कि सरेस के बर्तन में डुबा कर रखी जाती है, और अब वो कॉटन के कपड़े को तह कर के उसके बीच में काँच भरकर उसे अपनी दो ऊँगलियों से पकड़ लें ध्यान रहे कि धागा इसके बीच में से जाना चाहिये, और अगर ज्यादा पतंग काटनी हो तो उसके बाद थोड़ी दूरी पर ही वापिस से एक और काँच चाला कपड़ा किसी को पकड़ा दें और फ़िर अपनी चकरी में लपेटते जायें। इससे काँच धागे में चिपकता जायेगा रंग के साथ जिससे आप ज्यादा पतंग काट पायेंगे।

ये तो धागा सूत लिया और् अब ये मांझे में बदल गया अभी तो ये गीला है, अब इसे किसी दूसरी चकरी में लपेट लें धीरे धीरे जिससे ये सूख जाये और ये प्रक्रिया तब तक दोहरायें जब तक कि मांझा पूरी तरह से सूख नहीं जाये।

बस फ़िर क्या है मांझा तैयार और पतंगें काटने को तैयार हो जाईये, वैसे हम मांझा इतना कांच वाला सूतते थे कि किसी पतंग को टिकने नहीं देते थे और अपने आसपास का आसमान साफ़ कर देते थे, कांच ज्यादा होता था हमारे गुंडों में इसलिये हमने कभी भी मांझा अपनी ऊँगलियों से नहीं पकड़ा और सीधे चकरी से ही पतंग उडाते थे,  उस समय अपना लोगों में बहुत डर था और् जब हम पतंग उड़ाने जाते थे तो आसपास वाले अपनी पतंगे उतार लेते थे। और आज भी हम सीधे चकरी से ही पतंग उड़ाते हैं, इससे फ़ायदा यह है कि किसी दूसरे पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है कि कोई अपनी चकरी पकड़े और हम हाथ से उड़ायें।

संक्रांति पर तो लगभग हर छत पर रेडियो, टेप, डेक, माईक और बड़े बड़े स्पीकर लगाकर लोग दूसरे की पतंग काटने पर "काटा हैं" या अपनी पतंग कटने पर "कटवाई है" चिल्लाते थे। और जोर जोर से गाने बजते थे, सारे आसमान में पतंगे ही पतंगे दिखती थीं।

सुबह पतंग उड़ाने जाते थे तो घर तो तभी लौटते थे जब शाम को पतंग दिखनी बंद हो जाती थी, या फ़िर हमारे माताजी या पिताजी में से कोई एक डंडा लेकर आता दिखता था।

इतनी ऊँची पतंग उड़ाते थे कि शाम को पतंग उतारने की हिम्मत ही नहीं होती थी, इसलिये अपने हाथ से धागा तोड़कर या तो किसी को दे देते थे या फ़िर वहीं कहीं बाँधकर घर चले जाते थे।

बहुत मधुर यादें हैं पतंगबाजी की, ऐसा लगा कि यह पोस्ट लिखते लिखते मैं अपने पुराने दिनों में चला गया। आप भी अपने पतंगबाजी के अनुभव बताईयेगा जरुर।