ऐसे ही कीबोर्ड तोड़ता रहूँगा… “यार अपनी किस्मत में तो सटर्डे और सन्डे कपड़े धोना ही लिखा है” … आधुनिक युग में मजदूरी… स्क्रोल व्हील

    क्या लिखूँ समझ में नहीं आ रहा है, क्यों लिखूँ ये भी समझ में नही आ रहा है, बस लिखना है इसलिये लिखते जा रहा हूँ, बहता जा रहा हूँ और ये क्रम रोज ही जारी है, परेशान भी नहीं हो रहा हूँ…. और ना ही परेशान होने की कोशिश कर पाता हूँ…
    कहीं दूर मन में छन से आवाज आती रहती है, कि क्या जिंदगी में पाने के लिये आये हो… क्या कर रहे हो … क्या तुम अपने आप से सन्तुष्ट हो… या अपने में ही अपनी चिंगारी दबाते जा रहे हो… और रोज रोज अपने में ही मरे जा रहे हो… क्या है यह … जिंदगी बहुत तेजी से दौड़ती जा रही है … जैसे रोज कीबोर्ड पर हमारी ऊँगलियाँ … ऊँगलियाँ कीबोर्ड पर दौड़ती नहीं हैं … मजबूरी में चल रही होती हैं … कोई अंदर से चीख रहा है कब तक मैं उसकी आवाज नही सुनूँगा … और ऐसे ही कीबोर्ड तोड़ता रहूँगा… हमेशा दिल घबराया हुआ सा रहता है … आँखें पथरायी हुई सी रहती हैं।
    अब वो देखने की कोशिश कर रहा हूँ जो होता तो है पर मैं उस तरफ़ ध्यान नहीं देता हूँ या सिंपली कहूँ इग्नोर कर देता हूँ..।
    मेरी दिनचर्या के कुछ दृश्य जो घटित तो रोज होते हैं, पर ध्यान मैंने आज दिया –

१. वाशरूम – दो लड़के जो मुंबई से कहीं बाहर से आये हुए लग रहे है, आज शुक्रवार है, इसलिये सब लोग जीन्स और टीशर्ट में ही दिख रहे हैं, मैं लघुशंका के लिये शौचालय खाली है ?, ढ़ूँढ़ता हूँ और कान में उन लड़कों की बातें भी सुनाई दे रही हैं… देखिये हमारा शरीर भी कितना मल्टीटास्किंग है .. हाथ से हम वाशरुम का दरवाजा खोल रहे हैं और कानों से उन दोनों लड़कों की बातें सुन रहे हैं, पहला लड़का दूसरे से “अरे यार कल फ़िर धोबी बनने का दिन आ गया है”, दूसरा बोला “यार अपनी किस्मत में तो सटर्डे और सन्डे कपड़े धोना ही लिखा है”, “कितने साल हो गये कपड़े धोते हुए ….!!!” । इतने में हम वाशरुम के अंदर चले जाते हैं, और वो आवाजें सुनाई देना बंद हो जाती हैं, पर अपने अंदर से आवाज आने लगती हैं, “सोच क्या रहा है, बेटा थोड़े समय पहले तेरी भी यही हालत होती थी, बस अब तेरे दिन फ़िर गये हैं”, और यही सोचते हुए वापिस अपने क्यूबिकल तक आ गये।

२. कैंटीन – शाम चार बजते बजते दिन बोझिल सा होने लगा है.. जैसे इस नीरस सी जिंदगी में और कुछ बचा ही नहीं है … अंदर ए.सी. की ठंडी हवा भी अजीब सी घुटन पैदा करती है … आज भूख कुछ ज्यादा लगी तो सोचा कि चलो आज कैंटीन में कुछ खा लेते हैं .. पता चला कि आज मिस्सल पाव है … पहले तो मन एकदम खिल गया कि चलो आज यही खा लेते हैं … वैसे भी अपना मनपसंद है … पर जैसा हर बार होता है … अपने साथ … वही हुआ … पाव खत्म हो गया और ब्रेड से मिस्सल खानी पड़ी … हर बार ऐसा ही होता है जिंदगी में, मैं सोच में डूब गया कि मुझे जो चाहिये होता है या जो करने का मन होता है वह या तो होता ही नही है या फ़िर कुछ हिस्सा बचा होता है … और हमेशा हम अपनी कुँडली को कोसते रहते हैं, क्योंकि इसमें हम कुछ कर नही सकते हैं।
३. क्यूबिकल – अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा हम इस क्यूबिकल में गुजार देते हैं, जहाँ बेजान सी लकड़ी की डेस्क, सामने काँच का पार्टीशन, एक फ़ोन, पानी की बोतल और हर समय कोसता हुआ खाली चाय का कप रहता है, पास ही भगवान श्रीकृष्ण का फ़ोटो जो काम के बीच में याद दिलाता रहता है कि तुम अभी भी जिंदा हो और तुम्हारी जिंदगी में धार्मिकता बची हुई है, अपनी घूमने वाली कुर्सी पर बैठकर मजदूरी करके शाम को ए.सी. की तपन से बाहर आकर गरम हवा बिल्कुल हिमालय की ताजगी देती है।
४. मजदूर – आज के इस आधुनिक युग में मजदूरी की परिभाषा वही है, बस मजदूरी बदल गयी है, काम बदल गया है, मजदूरी का पैमाना बदल गया है, हम धूप में पत्थर नहीं तोड़ते हैं न ही हमारा शरीर हट्टा कट्टा है और न ही शरीर से पसीना चू रहा होता है … और न ही सूखी रोटी खा रहे होते हैं … केवल एक ही समानता है विद्रुप आहत दिल। और मजदूर मजबूरी में, जो कि केवल पैसे के लिये अपने दिल और मन  पर बारबार चोट कर रहा है। हम हुए आधुनिक मजदूर पर दिल और मन से बिल्कुल अभिन्न हैं पारंपरागत मजदूरी से …  हम उससे जुड़े हुए हैं।
५. माऊस – अपनी कुर्सी में धँसकर केवल माऊस चलाते जाओ, कभी लेफ़्ट क्लिक करो कभी राईट, कभी स्क्रोल व्हील घुमाते रहो। इतने साल हो गये इस माऊस को पर देखो टेक्नोलाजी कि माऊसे आगे की कोई चीज आयी ही नहीं, वो बेचारा माऊस सोच रहा होगा कि ये इंसा कब तक ट्रेकबाल या रोशनी के सहारे मुझे दौड़ाता रहेगा, मुझे भी आजादी दो, मुक्ति दो मैं थक गया हूँ।

5 thoughts on “ऐसे ही कीबोर्ड तोड़ता रहूँगा… “यार अपनी किस्मत में तो सटर्डे और सन्डे कपड़े धोना ही लिखा है” … आधुनिक युग में मजदूरी… स्क्रोल व्हील

  1. विवेक भाई की जय हो,
    मजा आ गया भाई, पहली बार किसी नें माऊस की सुनी है, बेचारा नाच नाच कर परेशान हो गया है ।

    कैन्टीन, क्यूबिकल और मज़दूर… हा हा यार लिखा तो सही है, मजदूर नहीं, बंधुआ मज़दूर लिखो भाई…

    और हां कपडे अच्छे से साफ़ कर लेना… मैं भी कल यही काम करूंगा…. इंजीनियर हूं ना… सटर्डे और संडे को इसी काम में लाता हूं…

  2. सच्चाई सभी जानते हैं पर इसका क्या मतलब याद दिला दिला कर सभी का दिल दुखाया जाए?
    मेरे अलमीरा से भी कपडे झांक रहे हैं.. 🙁

  3. सर, आप लोगों को तो सटर्डे और संडे की छुट्टी मिल भी जाती है…मुझे तो बस संडे की छुट्टी रहती है फिक्स..सटर्डे की छुट्टी कभी मिल गयी तो बस मजा आ जाता है.. 🙂

    वैसे हम भी यही करते हैं.अभी भी देखिये कुछ कपड़े रखे हुए हैं धोने के लिए, बस जा ही रहा हूँ धोने… 🙁

    और माऊस की टेक्नोलोजी बदलने वाली ही है 😉

  4. एक शेर याद आ रहा है " करना है तो तू ऐसे काम कर , एक ऊंचे बांस पर तू चढ़ उतर / हर कदम रखना कि जैसे अब गिरा काट दे सस्पेंस में सारी उमर |

  5. शाम चार बजते बजते दिन बोझिल सा होने लगा है.. जैसे इस नीरस सी जिंदगी में और कुछ बचा ही नहीं है … अंदर ए.सी. की ठंडी हवा भी अजीब सी घुटन पैदा करती है … आज भूख कुछ ज्यादा लगी तो सोचा कि चलो आज कैंटीन में कुछ खा लेते हैं .. पता चला कि आज मिस्सल पाव है … पहले तो मन एकदम खिल गया कि चलो आज यही खा लेते हैं … वैसे भी अपना मनपसंद है … पर जैसा हर बार होता है … अपने साथ … वही हुआ … पाव खत्म हो गया और ब्रेड से मिस्सल खानी पड़ी … हर बार ऐसा ही होता है जिंदगी में, मैं सोच में डूब गया कि मुझे जो चाहिये होता है या जो करने का मन होता है वह या तो होता ही नही है या फ़िर कुछ हिस्सा बचा होता है … और हमेशा हम अपनी कुँडली को कोसते रहते हैं, क्योंकि इसमें हम कुछ कर नही सकते हैं।
    adhikansh ke jeewandhara ka sar likh diya aapne to..rochak.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *