देवराज इंद्र और नृपश्रेष्ठ ययाति के बीच वार्तालाप

देवराज इंद्र और नृपश्रेष्ठ ययाति के बीच वार्तालाप हुआ और इंद्र ने पूछा पुरु तुमसे वृद्धावस्था लेकर तुम्हारे स्वरूप में इस पृथ्वी पर विचरण करने लगा तो, उस समय राज्य देकर तुमने उसको क्या आदेश दिया था?

ययाति ने कहा – मनुष्य दीनता, शठता और क्रोध न करे। कुटिलता, मात्सर्य और वैर कहीं न करे। माता-पिता, विद्वान, तपस्वी तथा क्षमाशील पुरुष का बुद्धिमान मनुष्य कभी अपमान न करे। शक्तिशाली मनुष्य सदा क्षमा करता है। दुष्ट मनुष्य साधु पुरुष से और दुर्बल अधिक बलवान से द्वैष करता है। इसी प्रकार गुणहीन मनुष्य गुणवान से डाह रखता है। इंद्र! यह कलि का लक्षण है।

क्रोध करने वालों से वह पुरुष श्रेष्ठ है, जो कभी क्रोध नहीं करता, इसी प्रकार असहनशील से सहनशील उत्तम है, मनुष्येतर प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठ है और मूर्खों से विद्वान उत्तम है।

यदि कोई किसी की निंदा करता है या उसे गाली देता है तो वह बदले में निंदा या गाली-गलौच न करे; क्योंकि जो गाली या निंदा सह लेता है, उस पुरूष का आंतरिक दुख ही गाली देनेवाले या अपमान करने वाले को जला डालता है, साथ ही उसके पुण्य को भी वह ले लेता है।

क्रोधवश किसी के मर्म-स्थान पर चोट न पहुँचाये, किसी के प्रति कठोर बात भी मुँह से न निकालें। अनुचित उपाय से शत्रु को वश में न करें, जो जी को जलाने वाली हो, जिससे दूसरे को उद्वेग होता हो, ऐसी बातें मुँह से न बोलें; क्योंकि पापी लोग ही ऐसी बातें बोला करते हैं।

जो स्वभाव का कठोर हो, दूसरों के मर्म को चोट पहुंचाता हो, तीखी बातें बोलता हो और कठोर वचनरूपी काँटों से दूसरे मनुष्य को पीड़ा देता हौज़ उसे अत्यंत दरिद्र या अभागा समझें। (उसको देखना भी बुरा है, क्योंकि) वह कड़वी बोली के रूप में अपने मुँह में बँधी हुई एक पिशाचनी को ढो रहा है।

अपना बर्ताव और व्यवहार ऐसा रखें, जिससे साधु पुरूष सामने तो सत्कार करे ही, पीठ पीछे भी उनके द्वारा अपनी रक्षा हो। दुष्ट लोगों की कही हुई अनुचित बातें सदा सह लेनी चाहिये तथा श्रेष्ठ पुरुषों के सदाचार का आश्रय लेकर साधु पुरुषों के व्यवहार को अपनाना चाहिये।

दुष्ट मनुष्यों के मुख से कटु वचनरूपी बाण सदा छूटते रहते हैं, जिनसे आहत होकर मनुष्य रात दिन शोक और चिंता में डूबा रहता है। वे वाग्बाण दूसरों के मर्मस्थानों पर ही चोट करते हैं। अतः विद्वान पुरुष दूसरे के प्रति ऐसी कठोर वाणी का प्रयोग न करे।

सभी प्राणियों के प्रति दया और मैत्री का बर्तावज़ दान और सबके प्रति मधुर वाणी का प्रयोग -तीनों लोकों में इनके समान कोई वशीकरण नहीं है। इसलिये कभी कठोर वचन न बोलें। सदा सांत्वनापूर्ण मधुर वचन ही बोलें। पूजनीय पुरुषों का आदर-सत्कार करें। दूसरों को दान दें और स्वयं कभी कुछ न माँगें।

आदिपर्व सम्भवपर्व अध्याय 87

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