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अब कॉल से बेहतर है क्विकर NXT (Quikr NXT is best then taking calls)

    नो फिकर बेच क्विकर ये पंचलाईन तो सभी ने सुनी होगी, अभी कुछ ही वर्ष हुए हैं क्विकर को ऑनलाईन बाजार में आये पर जितनी तेजी से इस वेबसाईट ने अपनी जगह बनाई है, शायद ही उतनी तेजी से कोई और वेबसाईट अपनी जगह बना पाई। पहले हम अपनी पुरानी चीजों को बेचने के लिये केवल कबाड़ी वाले पर ही निर्भर रहते थे, जान पहचान वाले कम ही लोग उपयोग की हुई चीजों को लेते थे, और वह चीज हमें या तो सस्ते में ही कबाड़ी को बेचने के लिये मजबूर होना पड़ता था या फिर वह वस्तु पड़े पड़े ही कबाड़ हो जाती थी।
    जब क्विकर नहीं था तब मैंने पता नहीं कितनी ही वस्तुओं को कबाड़ होते देखा है, मेरी पुरानी साईकिल, पुराना वाटर प्यूरिफॉयर, हीटर जिन्हें हमने कबाड़ से बचाने के लिये गमला बना दिया। और वे सब हमें इसलिये हटाने पड़े क्योंकि हमें उसकी जगह कोई और अच्छी तकनीक वाली चीज उपयोग में लाना था, अगर वे सब सामान बिक जाता तो निश्चित ही किसी न किसी का कम बजट में काम हो गया होता और हमें भी कम ही सही पर कुछ मदद तो नई वस्तुएँ खरीदने में मिलती ही । पर उस समये पहुँच भी कम ही आस पास वालों तक ही होती थी।
    आज क्विकर ने इंटरनेट युग में चार चाँद लगा दिये हैं, अब किसी भी पुरानी चीज को बेचने के लिये कबाड़ी या किसी एजेन्ट की जरूरत नहीं पड़ती है, बस क्विकर पर विज्ञापन लगाया और फटाफट से फोन आने शुरू, अपनी सारी जानकारी फोटो के साथ दे दो और फिर कहीं भी घूमते रहो, और ऐसा भी नहीं कि 24 घंटे घर पर बैठे रहो कि कब खरीददार आ जाये पता नहीं, और हम घर पर न हों तो नुक्सान हो जाये, अब तो खरीददार फोन करके आता है।
    अब मैंने अपनी बाईक को बेचना है तो फिर से मैंने क्विकर की सेवायें ली हैं, अपनी बाईक का फोटो लगा दिया और जरूरी जानकारी भी साथ में दे दी है, ये है कि बाजार में मैकेनिक इसके कम दाम बता रहे थे पर क्विकर पर उससे कहीं अधिक के ऑफर मिल रहे हैं।
    जब से Quikr NXT आया है तब से थोड़ा आसानी हो गई है, मैं अधिकतर से काल लेने से बचता हूँ और चैट से ही काम लेना पसंद करता हूँ
  1. क्योंकि ऑफिस में अधिकतर मीटिंग्स में व्यस्त होते हैं, तो जैसे ही समय मिलता है तो हम चैट का जबाव दे सकते हैं, पर फोन नहीं कर सकते ।
  2. ऑफिस में आसपास वाले लोगों को उनके काम में फोन पर बात करने से बाधा पहँचती है।
  3. हँसी का पात्र नहीं बनना पड़ता है, लोग हमेशा से ही दूसरों का मजाक उड़ाते हैं कि बाईक बेचने के लिये क्या एक ही तरह के सवालों के जबाब देता रहता है और कुछ न करते हुए भी शर्मिंदगी का पात्र बनना पड़ता है।
  4. एक बार किसी को सवाल का जबाव दे दिया तो फिर से टाईप करने  की जगह केवल कॉपी पेस्ट से ही काम चल जाता है।
  5. मोबाईल पर चैट किसी को दिखती भी नहीं है और जो काम कर रहे होते हैं, उससे ध्यान नहीं भटकता है और फोन पर बात करने से ध्यान बँटता है।

आईये मिलकर ढ़ूँढे अपनी कठिनाईयाँ और विकास के रास्ते

   
   
    आईये मिलकर ढ़ूँढे अपनी कठिनाईयाँ और विकास के रास्ते जो मैं सुबह की चाय के साथ लिख रहा हूँ गलत नहीं लिखूँगा, आजकल ट्विटर और फेसबुक पर हम अगर किसी एक दल के लिये कुछ लिख देते हैं तो हमें अपने वाले ही विकास विरोधी बताकर लतियाना शुरू कर देते हैं। पर हम भी अपना संतुलन ना खोते हुए संयमता बरतते हैं, दिक्कत यह है कि विकास की लहर वाले लोग जबाव देने की जगह हड़काने लगते हैं। क्या वाकई उन्हें लगता है कि इससे सारी दिक्कतें दूर हो जायेंगी, या वाकई उन्हें यह लगता है कि सब ठीक चल रहा है, खैर अब हम क्या बतायें ये तो मानव मन की गहराईयाँ हैं, जो अच्छा लगता है वही पढ़ना चाहता है, वही लिखना चाहता है, वही बोलना चाहता है और वही दूसरों से सुनना चाहता है।
    बाकी सब तो व्यंग्य हैं, पर आज सुबह उठकर हमने सोचा कि वाकई हमें उनका पक्ष भी जानना चाहिये, कि हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा, क्या मुझे रोजमर्रो के कामों में कोई आसानी हुई या वही सब पुरानी परेशानियाँ अभी भी झेलनी पड़ रही हैं।
महँगाई – यह तो सुरसा की मुँह है, बड़ती ही जा रही है, दूध आज से 4 वर्ष पहले बैंगलोर में 21 रू. किलो मिलता था, आज वही दूध 42 रू. हो गया है, अब तो बैंगलोर छोड़े मुझे समय हो
गया, हो सकता है और भी ज्यादा हो गया हो। यहाँ गुड़गाँव में खुला दूध 42 से 46 रू. ली. मिलता है और पैक वाला 44 से 50 रू ली. मिलता है। यहाँ तो मेरी जेब कट ही रही है। न सब्जी के दामों में कमी है न दालों के।
चिकित्सा – थोड़े दिनों पहले बेटेलाल बहुत ज्यादा बीमार थे, पता नहीं कितने डॉक्टरों के चक्कर काटे और जाने कितने टेस्ट करवाये, लूट का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि डॉक्टरों की फीस कम से कम 500 रू. हो गई है और साधारण से टेस्ट के भी 100 – 500 रू. तक वसूले जा रहे हैं, और उनमें भी शुद्धता नहीं है दो अलग अलग लैबों की रिपोर्ट भी अलग आती है, किसी स्थापित मानक का उपयोग नहीं किया जाता है। जबकि हम सरकार को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों कर देते हैं, पर हमें सीधे कोई फायदा नहीं है, यहाँ एक बात का उल्लेख करना चाहूँगा मेरे प्रोजेक्ट से अभी एक बंदा ब्रिटेन से वापस आया तो बोलो कि वहाँ अगर कर लेते हैं तो वैसी सुविधाएँ भी हैं, लिये गये पूरे पैसे का पाई पाई का उपयोग होता है, केवल फोन कर दो तो दो तरह की सुविधाएँ उपलब्ध हैं, पहला तो कि आपको कुछ समस्या हो गई है तो तत्काल एम्बूलेन्स आयेगी और वहीं तात्कालिक  सहायता उपलब्ध करवाकर अगर जरूरत है तो अस्पताल भी ले जायेगी, दूसरी आप फोन करके डॉक्टर से मिलने का समय सुनिश्चित कर सकते हैं, जो कि स्वास्थय बीमे में ही कवर होता है।
सरकारी कार्य – कुछ दिनों पहले अपनी बाईक के कागजों से संबंधित कार्य था, सोचा कि शायद हम सीधे ही करवा पायें, एक छुट्टी भी बर्बाद की और कोई काम भी नहीं हुआ, अगले दिन सुबह एक एजेन्ट को ही पकड़ना पड़ा जैसा कि स्वागत कक्ष पर बैठे बाबू ने कहा, क्योंकि वहाँ पुलिस का कोई सर्टिफिकेट बनवाना पड़ता है, और वहाँ बिना पहचान के काम नहीं होता है, हमें पता नहीं क्या क्या कागजात लाने को बोले गये थे, हमने सब दिखाये पर काम न हुआ, एजेन्ट ने हमसे 300 रू इसी बात के लिये और सर्टिफिकेट बनवा लाया, हमारे जाने की जरूरत भी नहीं पड़ी। क्यों नहीं यह सारा कार्य ऑनलाईन करके जनता को सरकारी मशीनरी की कठिनाईयों से मुक्ती दे दी जाती है। किसी भी सरकारी कार्यालय में जाओ तो पता चलता है कि बिना पैसे के कोई काम नहीं होता है।
ऑटो पुलिस – न ऑटो वाले मीटर से चलते हैं और न ही पुलिस वाले उन्हें कुछ बोलते हैं, हर जगह जाम की स्थिती है।
ट्रॉफिक जाम – पता नहीं कितने हजारों घंटों को नुक्सान ट्रॉफिक जाम में हो जाता है, क्यों नहीं ऐसा बुनियादी ढाँचा बनाया जाता है कि ट्रॉफिक की समस्या से निजात मिले, क्यों नहीं सड़कों को अगले 10 वर्ष बाद की दूरदर्शिता के साथ बनाया जाता है। और पेट्रोल का नुक्सान तो होता ही है।
पेट्रोल – की बात आई तो यह बात करना भी उचित होगा कि जब क्रूड ऑइल जब महँगा था तो पेट्रोल का भाव 86 रू. ली. तक था, पर आज आधे से भी कम है तो भी पेट्रोल का भाव 62 रू. क्यों है, जब पेट्रोल डीजल के भाव बड़ रहे थे, तब तो सभी ने अपने किराये बढ़ा दिये, अब जब कम हो रहे हैं, तो उसका फायदा हमें क्यों नहीं मिल रहा है।
बिजली – इस पर तो अनर्गल वार्तालाप किये जा रहे हैं, कि कई बिजली की कई कंपनियाँ होने से सस्ती हो जायेंगी, अगर ऐसा है तो रेल्वे को भी कई कंपनियों के हाथों में दे दीजिये, बसों में कई कंपनियों की बसें विभिन्न रूट पर चलती हैं पर कहीं कोई सस्ती सेवा उपलब्ध नहीं है, वैसे भी यह सब सरकार के हाथ नहीं है, यह बिजली नियामक तय करते हैं, पता नहीं सरकार जनता को उल्लू क्यों समझती है।
रेल्वे – जब भी मैं घर जाने का प्रोग्राम बनाता हूँ तो टिकट ही उपलब्ध नहीं होते, क्यों न सफर करने वाली आबादी के अनुसार रेल्वे को डिजायन किया जाये, हम यह नहीं कहते कि बुलेट ट्रेन न चलाई जाये वह तो भविष्य की जरूरत है परंतु उससे पहले हमें कम से कम आजकल के टिकट तो मयस्सर होने चाहिये, अगर बुलेट ट्रेन भी आ गई और बुनियादी सुविधाओं का अभाव है तो फिर कैसे उसका भी भरपूर उपयोग भारतवासी कर पायेंगे और अगर संयोग से टिकट मिल भी जाता है तो सुविधाओं में कमी महसूस होती है।
शिक्षा – हम सरकारी स्कूल में पढ़े, तब भी निजी स्कूल थे, परंतु यह कह सकते हैं कि कम से कम सरकारी स्कूलों का स्तर आज से बहुत अच्छा था, मैंने तो आज भी कई सरकारी स्कूल देखें हैं जो निजी स्कूलों से काफी अच्छे हैं, परंतु वे सरकारी प्रयास नहीं है, वह तो किसी प्रधानाध्यापक की मेहनत और कड़ाई के कारण है। सरकारी स्कूल और निजी स्कूल की फीस में जमीन आसमान का अंतर है, ज्यादी फीस देने का यह मतलब नहीं है कि अच्छी शिक्षा मिल रही है, या अच्छा माहौल मिल रहा है, केवल हम अपने बच्चे को अच्छे सहयोगी दे पा रहे हैं, जिनके माता पिता इतनी फीस दे पाने में समर्थ हैं, उनके साथ पढ़ पा रहा है हमारा बच्चा, पर निजी स्कूलों में पढ़ाने वालों का शैक्षिक स्तर सरकारी स्कूल से बदतर है, सरकारी स्कूलों के अच्छे शैक्षिक स्तर वाले गुरूओं को सब जगह घसीट लिया जाता है, उनका सही तरीके से उपयोग नहीं हो जाता और न ही उनके ऊपर दबाव होता है।
    हैं तो और भी बहुत सारी चीजें जिनकी चर्चा में करना चाहता हूँ पर जिनकी बातें मैंने यहाँ की हैं और अगर आपको लगता है कि यह केवल मेरे साथ भेदभाव हो रहा है तो आप ही बतायें कि आपकी जिंदगी पर कोई असर पड़ा हो तो मैं भी आपकी तरह ही सोचने की कोशिश करूँ।

आसुस का ऑल इन वन पीसी और ईबुक दोनों ही अच्छी लग रही हैं

    मैंने अपना पहला लेपटॉप लगभग 8 वर्ष पहले अमेरिका से मँगवाया था, फिर मुझे ऑफिस से लेपटॉप मिल गया तो हमारे लेपटॉप को बेटेलाल ने हथिया लिया और उस लेपटॉप की जो ऐसी तैसी करी है, कि उसका पहले तो कीबोर्ड तोड़ा, तभी बैटरी ने भी दम तोड़ दिया, और थोड़े दिनों बाद लेपटॉप की स्क्रीन भी मोड़ मोड़ कर उसकी स्क्रीन से भी दिखना बंद हो गया। अब वह लेपटॉप केवल डेस्कटॉप बन कर रह गया है, हमने स्क्रीन का आऊटपुट पुराने रखे मॉनिटर पर कर दिया और वायरलैस कीबोर्ड माउस अलग से दे दिया। अब लगभग एक वर्ष से हमारे बेटेलाल इसका ही उपयोग कर रहे हैं, जब हम उपयोग करते हैं तो लगता है कि अब नया ले ही लेना चाहिये, पर अब लेपटॉप नहीं डेस्कटॉप ।
    डेस्कटॉप वह भी ऐसा कि जिसमें सीपीयू न हो, केवल मॉनीटर हो और सारी सुविधाएँ जैसे कि 3.0 यू.एस.बी.,

लेपटॉप का डेस्कटॉपी जुगाड़

एच.डी.एम.आई. जिससे में अपने टीवी पर आराम से फिल्म देख सकूँ। स्कीन बड़ी हो कम से कम 21 इंच, टच सुविधा के साथ होनी चाहिये, उसमें अपने आप में ही बैटरी बैकअप हो, जिससे बिजली न होने पर कम से कम में काम तो कर सकूँगा। कैमरा हो, जिससे मैं जब भी बाहर होता हूँ तो मैं परिवार के साथ वीडियो चैट कर सकूँ, खुद में ही स्पीकर भी हों, और कीबोर्ड, माऊस अलग से लगा सकें। टच वाले सारे गेम्स खेले जा सकें और मोबाईल जैसा ही ऊँगलियों से पिक्चर कम या ज्यादा कर सकूँ। 3डी गेम्स खेल सकूँ, तो ये सब खासियत मुझे मिली

ASUS All In One PC ET2040 में, जिसमें ये सारी सुविधाएँ बेहतरीन तरीके से उपलब्ध हैं। इसकी एक खासियत यह अच्छी है कि इसमें पहली बार गैस्चर क्न्ट्रोल उपलब्ध है। तो मैं इस डेस्कटाप की स्कीन को किचन में गैस प्लैटफॉर्म के नीचे रखने की जगह बना सकता हूँ, जिससे हमारी श्रीमतीजी खाना बनाते समय किचन में भी इंटरनेट का इस्तेमाल कर सकेंगी, फिर वह यूट्यूब पर वीडियो देखना हो या फिर इंटरनेट सर्फ करना हो।

    जब मैं लंबे सफर पर जाता हूँ तो पढ़ने के लिये टेबलेट या किताब अपने पास रखता हूँ, पर लेपटॉप की बैटरी जल्दी खत्म हो जाती है, तो फिर एयरपोर्ट पर चार्जिंग के लिये प्वाईंट ढ़ूँढ़ने में अच्छी खासी मशक्कत हो जाती है, उसके लिये एक ऐसे छोटे से लेपटॉप की जरूरत महसूस होती थी जिसमें कि बैटरी बैकअप जबरदस्त हो और बिल्कुल पतला, छोटा से हो, ज्यादा  हार्डडिस्क न भी हो तो भी चलेगा। जब मैंने ASUS EeeBook X205TA देखा तो लगा वाह यही तो मैं ढ़ूँढ़ रहा था, इसमें 32 जीबी की स्टेट हार्डडिस्क है और 128 जीबी तक का बाहर से एस.डी. कार्ड का उपयोग कर सकते हैं। 29.4 सेंटीमीटर की स्क्रीन लिखने के लिये बहुत होती है, और एयर क्रॉफ्ट की सीच के लिये उपयुक्त भी होती है।
    मैं जल्दी ही ASUS EeeBook X205TA and ASUS All In One PC ET2040 अपने उपयोग के लिये लेने की सोच रहा हूँ।

 

कोहरा, डिफॉगर और कोहरे का अहसास

घर की छत से लिया कोहरे का फोटो
    आजकल अपनी सुबह थोड़ी देर से ही हो पाती है, उसके दो कारण हैं एक तो देर रात घर पहुँचना और दूसरा ठंड। जब बारिश होती है तो उस दिन कोहरा थोड़ा कम होता है, पर जबरदस्त कोहरे का आमंत्रण होता है, जब धूप आ जाती है, तो कोहरा कम होने की उम्मीद जग जाती है। कोहरा अकसर नदी नाले और खुली जगह जैसे कि जंगल में ज्यादा होता है, कोहरे में ही सड़क पर बीच में पोती गई सफेद लाईनों का महत्व पता चलता है, अभी तक कम से कम 2-3 बार इन सफेद लाईनों के सहारे ही गाड़ी चलाई है। कोहरा जब जबरदस्त होता है तो हम अपने मोबाईल पर जीपीएस चालू करके कार में लगा लेते हैं, तो कम से कम मोड़ और कहाँ तक पहुँच गये हैं पता चल जाता है। कई बार कोहरे में गाड़ी चलाने पर यह पता ही नहीं चलता कि आप किधर तक पहुँच गये हो।
घर की छत से लिया कोहरे का फोटो
    कोहरे के कारण कई बार हमने ट्विटर और फेसबुक पर डिफॉगर के बारे में जानना चाहा, तो अलग अलग राय मिलीं, पर सबसे अच्छी राय मिली ब्लॉगर मित्र काजल कुमार जी की, कि गाड़ी में हीटर चालू करके रखिये, तो काँच पर कोहरा नहीं जमेगा और आगे पीछे दोनों काँचों को साफ भी रखेगा। थोड़े दिनों पहले करोलबाग गये थे तो वहाँ केवल गाड़ी के काँच की एक दुकान है, वहाँ पूछा तो हमें बताया गया कि डिफॉगर वाला शीशा मिल तो जायेगा पर गाड़ी की वारंटी खत्म हो जायेगी, हमने सोचा कि छोड़ो जो होगा देखेंगे।
     खैर उस काँच वाले ने जाते जाते हमें एक नेक सलाह भी दी कि कोहरे में आप अपनी गाड़ी की डिफॉगर लाईट चालू रखें जिससे कम से कम आपको पाँच मीटर तो साफ दिखेगा, गाड़ी धीमे चलाईयेगा, दोनों तरफ के काँचों को थोड़ा सा खुला रखें और हीटर चालू रखें तो आपको पीछे काँच के डिफॉगर की कमी ही महसूस ही नहीं होगी।
    अब तो कोहरे में गाड़ी चलाने आदत सी हो गई है, तो अब कोहरे के होने और न होने का ज्यादा अंतर नहीं पड़ता है, कोहरे के अपने गणित होते हैं, पहली बार मैंने बिल्कुल बच्चों जैसे गाड़ी का पूरा काँच खोलकर हाथ बाहर निकालकर कोहरे का अहसास किया था, जब हाथ पूरा भीग गया तभी पता चला कि कोहरा क्या होता है, पता नहीं क्यों हर चीज को अनुभव करने की मानव-मन की इच्छा कब पूर्ण होगी।

मेरे नये वर्ष का नया निश्चय मैक्रोमेक्स कैनवास टैब पी-666 के साथ

    वर्षों पहले जब मैं महाविद्यालय में पढ़ता था, तब मेरा कविता, नाटक और कहानियाँ लिखने का शौक था और उस समय मैं कविताओं को तो अपने नोटबुक के बीच वाले पन्ने पर लिखकर उसे फाड़ लिया करता था, उस एक पन्ने को लिखकर मैं जेब में रख लेता था और अपने दोस्तों के बीच कविता प्रस्तुत करता था। नाटक और कहानियों को लिखने के लिये ज्यादा समय और ज्यादा पन्नों की जरूरत हमेशा से महसूस होती थी, और मित्रों को नाटक और कहानियों को सुनाने में समय भी ज्यादा लगता था। उस समय सोचता था कि जिस तेजी से मैं सोचता हूँ, काश कोई ऐसा यंत्र या तकनीकी हो जिससे वह लिखती जाये और मेरे बहते हुए विचार जो कि मेरे मन में किसी अदृश्य डोरी से खिंचकर आते हैं, उनका तनिक भी क्षरण न हो पाये, और सारे विचारों को मैं संग्रहित कर सकूँ।
    थोड़े समय बाद मैं टेपरिकारर्डर में रिकार्ड करने लगा, परंतु कभी बिजली साथ न देती तो कभी कैसेट उलझ जाती और अपना कहा, अपने प्रवाहशील विचारों को, मंथन को पाना दुश्कर कार्य होता था, उन रचनाओं और विचारों को वापस लाने के लिये तरह तरह के खटकर्म भी हमने किये, परंतु देखा इसमें तो पन्ने पर लिखने से ज्यादा ऊर्जा और श्रम लग रहा है, तो वापिस पन्ने पर आ गये। विचारों को प्रवाहमान होना जारी रहा, परंतु उन्हें लिख पाना मेरे लिये उतना ही दुश्कर कार्य होता।
    फिर आया कंप्यूटर का जमाना, जहाँ पर हमने हिन्दी की टायपिंग रफ्तार पर अपनी पकड़ बना ली और कंप्यूटर पर लिखने लगे, परंतु कुछ समस्याएँ यहाँ भी बनी रहतीं, कभी ऑपरेटिंग सिस्टम तो कभी वर्ड प्रोसेसर कर करप्ट हो जाता, फिर हम मोबाईल में अपनी बातों को रिकार्ड करने लगे, परंतु उसे सुनकर लिखने का समय मिलना बहुत मुश्किल होता, आज भी पता नहीं कितने ही विचार मेरे मोबाईल के मैमोरी कार्ड में संचित हैं, जिन्हें मैं आज तक पन्नों पर नहीं उतार पाया।
    इस वर्ष हमने अपने पुराने शौक याने कि अपने प्रवाहमान विचारों को कविता, नाटक और कहानियों में ढ़ालने का दृढ़ निश्चय किया है। अब एन्ड्रॉयड में हिन्दी में भी बोलकर लिखने वाली सुविधा आ गई है, तो हम अब अपने मैक्रोमेक्स कैनवास टैब पी-666 पर बोलेंगे और हमारा यह कैनवास टैब बिना हैंग हुए हमारे पुराने शौक को जीवंत कर देगा, इसमें 3जी सुविधा का फायदा उठाते हुए हम सीधे इन सारी फाईलों को गूगल ड्राईव पर सहेज पायेंगे। इसका तेज प्रोसेसर हमारी सारी बातों को समझकर सीधे हिन्दी में सामने वर्ड प्रोसेसर में लिख देगा, और हम फिर से कविता, नाटक और कहानियों में रम जायेंगे, टैब का फायदा यह है कि हमें अब पन्नों को जेब में नहीं रखना होगा और टैब पर ही बोलकर लिखने से हमारी सारी कृतियाँ सहेजी होंगी, तो इंटरनेट के होने की बाध्यता भी खत्म हो जायेगी, और हम अपनी कविता, नाटक और कहानियों को अपने मित्रों को सीधे टैब से पढ़कर ही सुना सकते हैं, और सीधे अपने ब्लॉग पर पब्लिश भी कर सकते हैं, जिससे कहीं न कहीं हम कार्बन उत्सर्जन को भी कम करने में मदद करेंगे।
 

वो काँच का दरवाजा

    दोपहर का समय था, घर से ५०% डिस्काऊँट और एक खरीदो एक मुफ़्त  का लाभ लेने के लिये निकले, बैंगलोर सेंट्रल मॉल में ३ घंटे में एथिनिक और वेस्टर्न की बहुत सी खरीदारी कर घर की और लौट रहे थे, कि बीच में ही एक दुकान पड़ी जहाँ पर ना चाहते हुए भी गाड़ी रोकना पड़ी, वो दुकान थी लगेज कंपनी का शोरूम, क्योंकि मुझे दो लगेज और लेना थे, तो सोचा कि अभी मॉडल देख लें और कुछ उपहार के वाऊचर भी रखे हैं, उसके लिये भी पूछ लेंगे कि अगर वे इस शोरूम पर ले लेंगे।
    बात की गई, लगेज फ़ाईनल किये गये, उपहार वाऊचर भी चलने के लिये हाँ हो गई, परंतु खरीदारी में और समय लगता, और ठीक ५ मिनिट घर पहुँचने में लगते और १० मिनिट बाद बेटेलाल की स्कूल बस आने को थी, अगर बीच में यातायात मिला तो ५ मिनिट की जगह १० मिनिट भी लग सकते हैं।
    शोरूम से निकलते हुए जल्दी में काँच के दरवाजे का अहसास ही नहीं हुआ, और तेजी से निकलते हुए गये थे, रफ़्तार तीव्र थी, वो काँच का दरवाजा खुलता भी केवल अंदर की तरफ़ था और बाहर काँच के दरवाजे के ऊपर एक छोटा सा स्टॉपर लगा हुआ था कि बाहर ना खुले, हम उससे धम्म से भिड़ गये, दिन में तारे नजर आने लगे, ऐसा लगा मानो माथे पर किसी ने बहुत जोर से हथौड़ा मार दिया हो, परंतु कुछ कर नहीं सकते थे, आँख के ऊपर बहुत जोर की लगी थी, केवल अच्छा यह रहा कि खून नहीं निकला या चमड़ी नहीं हटी और ना ही कटी।
    वो काँच का दरवाजा बहुत मोटा था, इसलिये काँच के दरवाजे को तो कुछ नहीं हुआ, फ़िर हमने गाड़ी के मिरर में जाकर अपने माथे का जायजा लिया और हाथ से दबाकर बैठ गये, करीब २ मिनिट दबाने के बाद लगा कि यह दर्द ऐसे नहीं जाने वाला क्योंकि सीधे हड्डी में लगा है तो बेहतर है कि घर पहुँचा जाये और आयोडेक्स लगा लिया जाये। घर पहुँचे आयोडेक्स लगा लिया, परंतु दर्द कम होने का नामोनिशान नहीं था, खैर यह भी एक अच्छा अनुभव रहा।

अब हालत यह है कि उसके बाद से किसी भी दरवाजे से निकलना होता है तो पहले अच्छे से पड़ताल कर लेते हैं, संतुष्ट हो लेते हैं फ़िर ही निकलते हैं, दर्द तो अब भी बहुत है, सूजन कम है। समय के साथ साथ सब ठीक हो जाता है, गहरे जख्म भी भर जाते हैं।

ब्लॉगिंग की शुरूआत के अनुभव (भाग ३)

हमने २००५ में कृतिदेव फ़ोंट(kruti dev Font)  से विन्डोज ९५ (Windows 95) में ब्लॉग लेखन (blog writing)  की शुरूआत की थी, उस समय और भी प्रसिद्ध फ़ोंट (Famous font) थे, पर हमें क्या लगभग सभी को कृतिदेव (Kruti Dev Font) ही पसंद आता था। इधर कृतिदेव (Kruti Dev Font) में लिखते थे और इंटरनेट पर प्रकाशित करने की कोशिश भी करते थे, परंतु कई बार इंटरनेट की रफ़्तार बहुत धीमी होने के कारण, पोस्टें अपने कंप्यूटर में ही रह जाती थीं।
कृतिदेव (Kruti Dev Font) में लिखा पहले हमने ईमेल में कॉपी पेस्ट करके अपने दोस्त को भेजा, तो उन्हें पढ़ने में नहीं आया, तब पता चला कि उनके कंप्यूटर में कृतिदेव फ़ोंट (Kruti Dev Font) ही नहीं है, जब उन्होंने कृतिदेव फ़ोंट (Kruti Dev Font) को संस्थापित किया और फ़िर से ईमेल को खोला और उसकी कुछ सैटिंग इनटरनेट एक्स्प्लोरर ब्राऊजर में की, तब जाकर वे ईमेल को पढ़ने में सफ़ल रहे, हमारे लिये तो यह भी एक बहुत बड़ी उपलब्धि था, आखिर हमने अपनी मातृभाषा हिन्दी में पहली बार ईमेल लिखा था, और जो पढ़ा भी गया।
इधर साथ ही ब्लॉगर पर अपना ब्लॉग बनाने की कोशिश भी जारी थी, एक तो इन्टरनेट की दुनिया के लिये हम नये नवेले थे और दूसरी तरफ़ कोई बताने वाला नहीं था, क्योंकि ब्लॉगिंग में किसी का ध्यान ही नहीं था, कुछ भी करने के लिये रूचि का होना बहुत जरूरी है, उस समय लोग अधिकतर सायबर कैफ़े (Cyber cafe) में याहू के पब्लिक चैट करने के लिये जाते थे, जो कि उस समय काफ़ी प्रसिद्ध था। Your asl please !!! यह उनका पहला वाक्य होता था।
ब्लॉगर प्लेटफ़ॉर्म का पता भी हमें किसी ब्लॉग के एक्स्टेंशन से मिला था, जो कि हमने लायकोस और नेटस्केप सर्च इंजिन में जाकर ढूँढ़ा था, जब ब्लॉग बनाने पहुँचे तो ब्लॉगर ने हमारे पते के लिये ब्लॉग का पता पूछा, उस समय हम अपना उपनाम कल्पतरू लगाना बेहद पसंद करते थे, और इसी नाम से कई कविताएँ अखबारों में प्रकाशित भी हो चुकी थीं, सो हमने अपने ब्लॉग का नाम कल्पतरू ही रखने का निश्चय किया।
पहली पोस्ट को हमने कई प्रकार से लिखा, कई स्टाईल में लिखा, पेजमेकर में डिजाईन बनाकर लिखा, कोरल फ़ोटोशाप में अलगर तरीके से लिखा, पर पेजमेकर और कोरल की फ़ाईल्स ब्लॉगर अपलोड ही नहीं करता था, और ना ही कॉपी पेस्ट का कार्यक्रम सफ़ल हो रहा था, आखिरकार हमने वर्ड में लिखा हुआ पहला ब्लॉग लेख कॉपी करके ब्लॉगर के कंपोज / नये पोस्ट के बक्से में पेस्ट किया, जिसमें भी हम उसकी फ़ॉर्मेटिंग वगैराह नहीं कर पाये। पर आखिरकार २८ जून २००५ को हमने अपना पहला ब्लॉग लेख प्रकाशित कर ही दिया, हालांकि उस समय हमें ब्लॉग पर केवल हिन्दी लिखने के लिये आये थे, क्योंकि हमारे सामने यह एक बहुत बड़ी बाधा थी, और अपने आप से वादा भी था, कि आखिर इन्टरनेट पर हिन्दी कैसे लिखी जा रही है, और हम इसे लिखकर बतायेंगे भी, तो पहली पोस्ट किसी अखबार में छपी एक छोटी सी कहानी थी जो हमने टाईप करके प्रकाशित की थी।
उस समय पहली पोस्ट पर कोई टिप्पणी नहीं आई थी, पर अगली पोस्ट जो कि हमने १२ जुलाई २००५ को लिखी थी, जिसे अगस्त में पढ़ा गया, और पहली टिप्पणी थी देबाशीष की, जिसमें उन्होंने हमें बताया था कि फ़ीड में कुछ समस्या है, तो वापिस से सारी पोस्टें सुधारनी होंगी। फ़िर नितिन बागला और अनूप शुक्ल जी की टिप्पणी आई। अनूप जी की टिप्पणी से हमें बहुत साहस बँधा कि चलो कोई तो है जो अपने को झेलने को तैयार है, उनकी पहली टिप्पणी हमारे ब्लॉग पर थी “स्वागत है आपका हिंदी ब्लागजगत में । पत्थर पर लिखी जा सकने योग्य रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी।”
जारी…

ब्लॉगिंग की शुरूआत के अनुभव (भाग १)

    बरसों बीत गये इस बात को पर आज भी ऐसा लगता है कि सारे परिदृश्य बस अभी बीते हैं, किसी चलचित्र की भांति आँखों के सामने चल रहे हैं, जब मुझे घर पर 486 DX2 जेनिथ कंपनी का कम्प्यूटर घर पर दिला दिया गया था, जिसका मुख्य उद्देश्य था, अपनी क्षमताओं को अच्छी तरह से परखना और निखारना।
    साथ ही उस समय कम्प्यूटर घर पर होना बहुत ही विलासिता की बात मानी जाती थी, तो खाली समय का सदुपयोग हमने प्रोजेक्ट वर्क के जरिये कमाने के लिये भी करना फ़ैसला किया था, जिसमें जन्म कुँडली, हिन्दी एवं अंग्रेजी में थिसिस और भी बहुत सारे कार्य जो उस समय विन्डोज ३.११ पर कर सकते थे। विन्डोज ९५ उस समय बस बाजार में आया ही था, पर हमारे पास केवल ५१२ एम.बी. रेम थी, जिस पर विन्डोज ९५ रो धोकर चल जाता था, पर हाँ रेड हैट लाईनिक्स जबरदस्त चलता था। इसी काल में हमने अक्षर हिन्दी का वर्डस्टार जैसा टूल था, इस्तेमाल करना शुरू किया और हिन्दी की टायपिंग का जबरदस्त किया, फ़िर कृतिदेव वगैराह फ़ोन्ट में विन्डोज में टायपिंग भी करी।
    घर पर इन्टरनेट नहीं था, तो मित्रों का सहारा था, जिन मित्रों के पास इन्टरनेट होता था, उनके पास जाकर याहू, लायकोस और ईमेल.कॉम खोलकर कुछ सीखने की कोशिश करते थे, हालांकि उस दौर में क्या सीखना है, कैसे सीखना है, यह बताने वाला भी कोई नहीं था, बस इतना पता था कि अपना ईमेल अकाऊँट होना बहुत जरूरी है। तो लगभग सारे ईमेल प्रदाताओं पर हमारे ईमेल अकाऊँट हैं। और वही सारे अकाऊँट अधिकतर हमारे पास हैं, पर अब जो अधिकतर उपयोग करते हैं वह है जीमेल, जो कि काफ़ी बाद में आया और हॉटमेल, याहू, यूएसए.नेट, इंडियाटाईम्स, इन्डिया.कॉम जैसे प्रदाताओं को पानी पिला दिया।
    इस समय तक हमें ब्लॉगिंग की ए बी सी डी भी पता नहीं थी, और यह बात है १९९५-१९९७ के बीच की । तब हम कम्प्य़ूटर का अधिकतम उपयोग प्रोग्रामिंग, अकाऊँटिंग, खेलने या टायपिंग के लिये ही किया करते थे, उस समय पता ही नहीं था कि किसी वेबसाईट पर लिखा भी जा सकता है, अपने विचार छापे भी जा सकते हैं।
    कुछ वर्ष बाद हमें पता चला कि हिन्दी का इन्टरनेट पर बहुत उपयोग हो रहा है, एक बैंक के अधिकारी थे, जो रोज अपनी शाम सायबर कैफ़े में रंगीन करने जाते थे, हम इसी कारण उनसे थोड़ा दूर ही रहते थे। और वो हमें रोज ही पकड़ने की कोशिश करते थे, कि कुछ अच्छी सी वेबसाईट दिखा दो, कुछ सिखा दो, हम कुछ ना कुछ बहाना बनाकर खिसक लेते थे, एक दिन उनसे बातें हो रही थीं, तो बैंक के मैनेजर बोले अरे यार तुम बंदे की पूरी बात तो सुन लो, कुछ नई चीज सीखना चाहता है, समझना चाहता है, तो हम उनके साथ सायबर कैफ़े में जाने को राजी हुए, क्योंकि सायबर कैफ़े भी हमारे दोस्त का ही था, तो थोड़ा अजीब लगता था । तब उन्होंने हमें बताया कि इन्टरनेट पर हिन्दी कैसे लिखी जाती है, हमें लगा यह बंदा क्या मजाक कर रहा है । बोला कि चलो हम तुमको हिन्दी में लिखा हुआ दिखाते हैं, हमने देखा तो मुँह खुला रह गया, जैसे हमने दुनिया का आठवां आश्चर्य देख लिया हो। अब उनकी जिज्ञासा यह थी कि हिन्दी में लिखते कैसे हैं और वेबसाईट पर कैसे डालते हैं, इस समय तक हमारे घर पर इन्टरनेट आ चुका था। पर इन्टरनेट बहुत मंद गति से चलता था।
जारी..

भारत की आधारभूत समस्याएँ और उसके समाधान.. सैनिटरी नैपकीन और पानी

    बहुत दिनों से सोच रहा हूँ रिवर्स माइग्रेशन के लिये, रिवर्स माइग्रेशन मतलब कि अपने आधार पर लौटना, जहाँ आप पले बढ़े जहाँ आपके बचपन के साथीगण हैं,  देशांतर गमन शायद ठीक शब्द हो। लौटकर जाना बहुत बड़ा फ़ैसला नहीं है, पर लौटकर वापिस वहाँ अपना समय किस तरह से समाज के लिये लगायें, यह एक कठिन फ़ैसला है। अभी पिछले दिनों जब मैं अपने कुछ व्यावसायिक मित्रों से अपने गृहनिवास में बात कर रहा था, जब मैंने उनको अपना मन्तव्य बनाया तो एक मित्र ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा “बोस सब उज्जैन वापिस आकर समाज सेवा ही करना चाहते हैं, एक दिन ऐसा आयेगा कि सब समाजसेवक ही होंगे, सेवा करवाने वाले कम”, उस मित्र की बात वाकई बहुत दिलचस्प लगी, अगर इतने लोग सेवा करने वाले उपलब्ध हैं पर कर नहीं पा रहे हैं तो उनको बस एक नई दिशा देने की जरूरत है।
    कुछ समय बाद ही इंडीब्लॉगर ने फ़्रेंकलिन टेंपलटन इन्वेस्टमेन्ट्स के साथ “द इंडिया काँरवा” प्रस्तुत किया जिसमें अपने विचार उन वक्ताओं के लिये देने थे जिन्होंने बिल्कुल सतही तौर पर समाज के साथ काम किया और टेडेक्स गेटवे मुंबई दिसम्बर २०१२ में उन्होंने अपने विचार रखे। उनके विचार सुनकर अपने तो दिमाग के सारे दरवाजे खुल गये, हम सोच रहे थे कि करें क्या ? परंतु यहाँ तो लोग आधारभूत समस्याओं से ही सामना कर रहे हैं, उनके लिये कुछ बड़ा करने से पहले, उनकी आधारभूत समस्याओं को समझा जाये और उस पर कार्य किया जाये।
    अरुनाचलम मुरुगनाथम मेरे लिये नया नाम था, परंतु जब मैंने इनकी कहानी सुनना शुरू कि जो इतनी दिलचस्प थी, कि मैं इनके कार्य करने और कुछ करने की जिद से बहुत प्रभावित हुआ, अरुनाचलम में शुरू से ही कुछ करने की इच्छा थी, जिस तरह से उन्होंने महिलाओं के लिये सैनिटरी नैपकीन का अविष्कार किया, जिससे महिलाएँ अपने खुद के लिये यह आधारभूत सुविधा पा सकें, जिस तरह से उनके किये गये अविष्कार से जितनी बड़ी आबादी को यह लाभ मिल सकेगा, कितने ही लोगों को रोजगार मिल सकेगा, सैनिटरी नैपकीन की बात महिलाएँ तो क्या पुरूष भी दबे शब्दों में बात करते हैं पर अरुनाचलम नें यही बात मंच तक लाई और इसके लिये कार्य कर इतनी महँगी चीज को बिल्कुल ही पहुँच वाले दामों में भारत की महिलाओं को उपलब्ध करवाया।
अरुनाचलम मुरुगनाथम की दिलचस्प यात्रा आप यहाँ सुन सकते हैं।
सिन्थिया कोनिग ने भारत की सबसे आधारभूत समस्या और सबसे भारी समस्या को समझा और उसका एक अच्छा, हल्का सा समाधान भी दिया। जैसा कि हम सब लोग जानते हैं भारत की सबसे बड़ी समस्या है पानी, जो कि सहजता से उपलब्ध नहीं है और जहाँ उपलब्ध है वहाँ से घर लाने में कितने श्रम की जरूरत होती है, आज भी गाँवों में महिलाएँ सिर पर पानी ढो़कर लाती हैं, और पानी बहुत भारी होता है। इसके लिये सिन्थिया कोनिग ने एक रोलर का अविष्कार किया जो कि ड्रम के आकार का है और पानी भरने के बाद उसे आसानी से खींचा जा सकता है, पानी अधिक मात्रा में लाया जा सकता है और सबसे बड़ी बात कि इसकी कीमत गाँव वालों की पहुँच में है मात्र ९७५ – १००० रूपये।
सिन्थिया कोनिक का दिलचस्प व्याख्यान यहाँ सुन सकते हैं, कैसे उन्होंने भारी पानी को हल्का कर दिया।
सुप्रियो दास, अच्छे खासे इंजीनियर थे, परंतु कुछ करने की इच्छाशक्ति ने उन्हें अपने खुद के लिये काम करने के लिये प्रेरित किया, और उन्होंने बहुत सारे अविष्कार भी किये, जिसमें उनका सबसे अच्छा और अधिकतर जनता को फ़ायदा पहुँचाने वाला है, जिम्बा !! जब सुप्रियो दास ने देखा कि हमारे यहाँ केवल अच्छा पीने लायक साफ़ पानी ना मिलने के कारण ही हजारों मौतें रोज हो रही हैं, उन्होंने इसके लिये बहुत शोध किया और पाया कि पर्याप्त मात्रा में क्लोरीन नहीं मिलाया जा रहा है या बहुत ही सस्ता क्लोरीन उपलब्ध ही नहीं है और अगर है भी तो कम या ज्यादा होने से नुकसानदायक है, तब उन्होंने जिम्बा उत्पाद बनाया जो कि पानी के स्रोत पर ही लगा दिया जाता है तो जहाँ से लोग पानी लेते हैं, उन्हें पर्याप्त मात्रा में क्लोरीन मिला हुआ पानी मिल रहा है, जिससे आश्चर्यजनक तरीके से जहाँ भी प्रयोग हुए अच्छे नतीजे मिले और सबसे बड़ी बात कि इस यंत्र में कोई भी ऐसी चीज नहीं लगी कि वह खराब हो सके।
सुप्रियो दास की क्लोरीन की कहानी, कैसे पानी को पीने लायक बनाया
    इन तीन अविष्कारों से मैं बहुत प्रभावित हुआ, अगर कुछ करने की ठान लो तो कुछ भी असंभव नहीं है, बस काम करना है यह सोच हमारी दृढ़ होनी चाहिये।
    यह पोस्ट फ़्रेंकलिन टेंपलटन द्वारा आयोजित टेडेक्स गेटवे मुंबई २०१२ में आयोजित “द इंडिया काँरवा” में कुछ महत्वपूर्ण सामाजिक और आधारभूत समस्यों से प्रेरित होकर लिखी गई है। Franklin Templeton Investments partnered the TEDxGateway Mumbai in December 2012.

आधुनिक संचार क्रांति एवं संचार के नए आयाम, इंटरनेट, ई-मेल, डॉट कॉम (वेबसाइट) – निबंध

    प्रगति कि पथ पर मानव बहुत दूर चला आया है। जीवन के हर क्षेत्र में कई ऐसे मुकाम प्राप्त हो गये हैं जो हमें जीवन की सभी सुविधाएँ, सभी आराम प्रदान करते हैं। आज संसार मानव की मुट्ठी में समाया हुआ है। जीवन के क्षेत्रों में सबसे अधिक क्रांतिकारी कदम संचार क्षेत्र में उठाए गये हैं। अनेक नये स्रोत, नए साधन और नई सुविधाएँ प्राप्त कर ली गई हैं जो हमें आधुनिकता के दौर में काफ़ी ऊपर ले जाकर खड़ा करता है। ऐसे ही संचार साधनों में आज एक बड़ा ही सहज नाम है इंटरनेट।
    यूँ तो इसकी शुरुआत १९६९ में एडवान्स्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसीज द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका के चार विश्वविद्यालयों के कम्प्यूटरों की नेटवर्किंग करके की गई थी। इसका विकास मुख्य रूप से शिक्षा, शोध एवं सरकरी संस्थाओं के लिये किया गया था। इसके पीछे मुख्य उद्देश्य था संचार माध्यमों को वैसी आपात स्थिती में भी बनाए रखना जब सारे माध्यम निष्फ़ल हो जाएँ। १९७१ तक इस कम्पनी ने लगभग दो दर्जन कम्प्यूटरों को इस नेट से जोड़ दिया था। १९७२ में शुरूआत हुई ई-मेल अर्थात इलेक्ट्रोनिक मेल की जिसने संचार जगत में क्रांति ला दी।
    इंटरनेट प्रणाली में प्रॉटोकॉल एवं एफ़. टी.पी. (फ़ाईल ट्रांस्फ़र प्रॉटोकॉल) की सहायता से इंटरनेट प्रयोगकर्ता किसी भी कम्प्यूटर से जुड़कर फ़ाइलें डाउनलोड कर सकता है। १९७३ में ट्रांसमीशन कंट्रोल प्रॉटोकॉल जिसे इंटरनेट प्रॉटोकॉल को डिजाइन किया गया। १९८३ तक यह इंटरनेट पर एवं कम्प्यूटर के बीच संचार माध्यम बन गया।
    मोन्ट्रीयल के पीटर ड्यूस ने पहली बार १९८९ में मैक-गिल यूनिवर्सिटी में इंटरनेट इंडेक्स बनाने का प्रयोग किया। इसके साथ ही थिंकिंग मशीन कॉर्पोरेशन के बिड्स्टर क्रहले ने एक दूसरा इंडेक्सिंग सिस्सड वाइड एरिया इन्फ़ोर्मेशन सर्वर विकसित किया। उसी दौरान यूरोपियन लेबोरेटरी फ़ॉर पार्टिकल फ़िजिक्स के बर्नर्स ली ने इंटरनेट पर सूचना के वितरण के लिये एक नई तकनीक विकसित की जिसे वर्ल्ड-वाइड वेब के नाम से जाना गया। यह हाइपर टैक्सट पर आधारित होता है जो किसी इंटरनेट प्रयोगकर्ता को इंटरनेट की विभिन्न साइट्स पर एक डॉक्यूमेन्ट को दूसरे को जोड़ता है। यह काम हाइपर-लिंक के माध्यम से होता है। हाइपर-लिंक विशेष रूप से प्रोग्राम किए गए शब्दों, बटन अथवा ग्राफ़िक्स को कहते हैं।
    धीरे धीरे इंटरनेट के क्षेत्र में कई विकास हुए। १९९४ में नेटस्केप कॉम्यूनिकेशन और १९९५ में माइक्रोसॉफ़्ट के ब्राउजर बाजार में उपलब्ध हो गए जिससे इंटरनेट का प्रयोग काफ़ी आसान हो गया। १९९६ तक इंटरनेट की लोकप्रियता काफ़ी बढ़ गई। लगभग ४.५ करोड़ लोगों ने इंटरनेट का प्रयोग करना शुरू कर दिया। इनमें सार्वाधिक संख्या अमेरिका (३ करोड़) की थी, यूरोप से ९० लाख और ६० लाख एशिया एवं प्रशांत क्षेत्रों से था।
    ई-कॉम की अवधारणा काफ़ी तेजी से फ़ैलती गई। संचार माध्य के नए-नए रास्ते खुलते गए। नई-नई शब्दावलियाँ जैसे ई-मेल, वेबसाईट (डॉट कॉम), वायरस आदि इसके अध्यायों में जुड़ते रहे। समय के साथ साथ कई समस्याएँ भी आईं जैसे Y2K वर्ष २००० में आई और उससे सॉफ़्टवेयर्स में कई तरह के बदलाव करने पड़े । कई नये वायरस समय-समय पर दुनिया के लाखों कम्प्यूटरों को प्रभावित करते रहे। इन समस्याओं से जूझते हुए संचार का क्षेत्र आगे बढ़ता रहा। भारत भी अपनी भागीदारी इन उपलब्धियों में जोड़ता रहा है।