कोरोना के इस काल में अगर आप दान देना ही चाहते हैं, तो केवल किसी को सही राह दिखाकर सहायता को भी दान समझ सकते हैं, दवाइयाँ, ऑक्सीजन, अस्पताल में बिस्तर सबकी अपनी एक सीमित मात्रा है, अगर हम थोड़ा समय निकालकर फ़ोन करके, ट्वीटर के ज़रिये भी कुछ मदद कर पायें तो वह भी एक बड़ी मदद होगी। नकारात्मकता को हटाना ही होगा, कोरोना मरीज़ों से फ़ोन पर बात करके उनकी जीवटता को बढ़ाना भी मदद ही होगी, कहने का अर्थ यही है कि जितनी मदद अपनी जगह से कर सकते हों, करें। पीछे न हटें, और जो यह मदद रूपी दान आप कर रहे हैं, उसके लिये किसी को कुछ बताने की ज़रूरत नहीं। बस आप मदद करते चलें।
हमारे लगभग हर पुरातन ग्रंथों में कहा गया है कि कोई भी कार्य स्वार्थवश व भौतिक लाभ से प्रेरित की आकांक्षा से किया जाता है तो वह सात्विक नहीं होता, रजोगुणी हो जाता है। कार्य तो सभी करते हैं परंतु केवल करने का हेतु जो भी मन में होता है, अगर उसमें कुछ लालच होता है, तो ही उसका गुण बदल जाता है। इसलिये हमें सिखाया जाता है कि अपना मन भी शुद्ध रखना है। अपने मन को भटकने नहीं देना है, अपने किसी भी कार्य को दंभपूर्वक न करें, न ही उसमें किसी सम्मान, सत्कार व पूजा की आकांक्षा रखें। वहीं अगर कोई कार्य आप बहुत अच्छा कर रहे हैं, परंतु उसका मंतव्य किसी को पीड़ा पहुँचाना, किसी को नीचा दिखाना या किसी को हानि पहुँचाना है तो आपकी इच्छा तामसी हो जाती है। केवल इच्छा मात्र से ही परिणाम बदल जाता है, गुण बदल जाता है।
अगर कोई भी कार्य आप कर रहे हैं तो कोशिश करें कि अपना मन साफ़ रखें, अपने मन में किसी के लिये बुराई न हो, न ही किसी के बारे में अहित सोचें, तभी वह कार्य सात्विक हो पायेगा। जहाँ दंभ, सम्मान, सत्कार व पूजा कराने की प्रवृत्ति आ जाती है, तो यह राजसी गुण हो जाता है। जिसे रजोगुण भी कहा जाता है।
आजकल दान देना कोई बहुत आसान कार्य नहीं है, क्योंकि यह सभी को भारी पड़ता है। ध्यान रखें कि जब दान देते हैं तो परोपकार की मंशा से, कर्तव्य समझकर, बिना किसी लाभ की भावना के, सही जगह व सही स्थान और सही व योग्य व्यक्ति को दिया जाता है, वही दान सात्विक माना जाता है। वैदिक साहित्य में अविचारपूर्ण दान की संस्तुति नहीं है। वहीं जो दान लाभ की भावना से, कर्मफल की इच्छा से या अनिच्छापूर्वक किया जाता है, दान का गुण बदल जाता है, ऐसा दान रजोगुणी कहलाता है। दान कभी स्वर्ग जाने के लिये दिया जाता है, तो कभी अत्यंत कष्ट से तथा कभी इस पश्चात्ताप के साथ कि मैंने इतना व्यय क्यों किया, कभी कभी अपने वरिष्ठजनों के दबाव में आकर भी दान दे देते हैं। तो ऐसे दान राजस गुण युक्त होते हैं।
वहीं जो दान किसी अपवित्र स्थान, अनुचित समय में, किसी अयोग्य व्यक्ति को या बिना समुचित ध्यान व आदर के साथ दिया जाता है, ऐसा दान तामसीगुण से प्रभावित माना जाता है।किसी ऐसे व्यक्ति या संस्था को दिया गया दान, जो कि मद्यपान व द्यूतक्रीड़ा में संलग्न हो, उन्हें दान नहीं देना चाहिये।इससे ग़लत कार्यों को प्रोत्साहन मिलता है।
यह क्रूरता का काल चल रहा है, इतने परिचितों की मौत की ख़बर ने अंदर तक हिलाकर रख दिया है, दिल मायूस है, लगता है कि कैसे अब उनका परिवार बिना उनके रहेगा। परंतु सत्य तो यही है कि किसी के बिना दुनिया रुकती नहीं है। कलियुग का सबसे बड़ा फ़ायदा ही यह है कि हम ज़्यादा दिन किसी बात को ध्यान नहीं रख पायेंगे, काल हमारी बुद्धि हर लेगा, हमारी याददाश्त कमजोर कर देगा। हमेशा ही कई लोगों से जीवन में ऊर्जा मिलती है, परंतु जब वे चले जाते हैं तो एक प्रकार सा मन में नकारात्मकता तो आ ही जाती है।
अब समय आ गया है कि जब हम अपना मोह त्यागें, और मज़बूत बनें क्योंकि कोई भरोसा ही नहीं कब कौन चला जायेगा, पता नहीं कौन इस वक़्त अपनी ज़िंदगी के लिये साँसों को थामे मौत से लड़ रहा होगा। पता नहीं मौत को इतना क़रीब से देखकर व्यक्ति अंतिम पल में कैसा महसूस करता होगा, सारे रिश्तेनाते, घरबार, पैसे, गहने सब यहीं छूट जायेगा। जिस पल व्यक्ति इस शरीर को छोड़ेगा, और उस पल जो उसके पास होंगे, वे लोग शायद ही उस पल को आजीवन भूल पायेंगे।
मुझे याद है जब एक मित्र के भाई की मृत्यु के बाद हम श्मशान में थे, तो एक मित्र ने मुझसे कहा था देख भई क्या है ये संसार, जब तक उन भैया के अंदर जान थी, साँसें ले रहे थे, तब तक वे इस दुनिया के लिये कुछ थे, पर अब कुछ नहीं, थोड़े समय बाद राख में बदल जायेंगे, कहने को वे अपने जीवन में बहुत कुछ थे, पर मरते समय कुछ काम न आया। मरने के बाद कोई तो ऐसा शहर होगा जहाँ आत्माओं को बसाया जाता होगा, शायद ये आत्मा कहीं अपने ही घर में किसी फूल की ख़ुशबू बन जाती है, या फिर किसी फूल का रूप ले लेती हो, पता ही नहीं चलता, यह एक अनसुलझी पहेली है।
बेहतर यह है कि हम अपने जीवन को ऐसे जियें कि जिसमें हम दूसरे को अपने स्वार्थवश कोई परेशानी में न डालें। जब हम मुसीबत में होते हैं तो कोई एक मदद का हाथ कहीं अनजाने में आता है, वह कोई परोपकारी आत्मा होती है। हम बस इतना ही ध्यान रखें कि इन सीमित संसाधनों में दूसरों की भी परेशानी समझें और निःस्वार्थ भाव से जितना हो सके उतनी एक दूसरे की मदद करें। मदद न कर सकें तो रोने के लिये कम से कम अपना कंधा तो आगे बढ़ा ही सकते हैं।
शेयर बाज़ार में हमेशा ही उठापटक होती रहती है, जहाँ निवेशक अनिश्चित रहते हैं कि कौन से स्टॉक में अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा लगायें। क्योंकि आपने भी यह लाईन जरुर पढ़ी होगी – शेयर बाज़ार में निवेश जोखिमों के अधीन है। पर क्या जोखिम है, यह कोई नहीं बताता, किस प्रकार से उन जोखिमों से बचा जाये, यह भी कोई नहीं बताता। इसलिये हम कहते हैं कि हर बढ़ने वाला स्टॉक क्वालिटी स्टॉक नहीं होता।
अब यही समझ लिया जाये कि क्वालिटी स्टॉक क्या होता है – क्वालिटी स्टॉक मतलब कि अच्छी कंपनी, जिसके उत्पाद बढ़िया हों, बाज़ार में आपको दिखते हों, या बाज़ार में उपयोग होने वाले उत्पादों में उनका रॉ मटेरियल के रूप में उनका प्रयोग होता हो। बहुत सी ऐसी कंपनियाँ भी होती हैं जहाँ आपको यह सब नहीं दिखेगा, परंतु वे क्वालिटी स्टॉक होते हैं, तो उसके लिये आपको बहुत पढ़ना होगा, समझना होगा। तभी आप पता लगा पायेंगे कि हाँ यह कंपनी वाक़ई काम क्या करती है। ये जो पढ़ाई का काम है, बहुत ज़रूरी है क्योंकि जितना ज़्यादा समय आप देंगे उतना ही ज़्यादा आपको कंपनी के कार्यों व भविष्य में यह कैसा प्रतिसाद देगी, पर आप कोई राय बना पायेंगे। बस समस्या यही है कि भारत में इसकी कोई औपचारिक पढ़ाई नहीं है, ख़ाली समय में टीवी या टाइमपास करने की जगह सीखने की जिज्ञासा रखना होगी।
स्टॉक का भाव बढ़ता कब है, यह भी समझना होगा, इसमें कई प्रकार की ख़बरें काम करती हैं। जैसे कंपनी को कोई बड़ा ऑर्डर मिला, जिससे कंपनी की वैल्युएशन १-२ वर्ष में अच्छी खासी बढ़ जायेगी या फिर कंपनी ने कोई ऐसा नया उत्पाद निकाला जिसकी बाज़ार में बहुत ज़रूरत है और बाज़ार उस उत्पाद को हाथोंहाथ लेगा, इससे भी कंपनी को बहुत फ़ायदा होगा। तो आपको हमेशा ही बिज़नेस न्यूज़ पर अपनी पैनी नज़र रखनी होगी। साथ ही यह भी सीखना होगा कि क्या वाक़ई इस ख़बर का कोई मतलब भी है या नहीं, या यह ख़बर ही झूठी है, जो कि कुछ ऐसे तत्त्वों के द्वारा फैलायी जा रही है जो इस कंपनी का भाव शेयर बाज़ार में कुछ समय के लिये बढ़ाना चाहते हैं।
किसी भी कंपनी का भाव बढ़ाने वाले लोग ऑपरेटर कहलाते हैं, जहाँ कोई ऐसी कंपनी जिसका न उत्पाद ही अच्छा है, और न ही प्रबंधन, परंतु अचानक ही बाज़ार में उससे संबंधित ख़बरें आपको हर तरफ़ दिखाई देने लगती हैं। धीरे धीरे वह कंपनी का नाम आपके लिये जाना पहचाना हो जाता है, तो आपको उस कंपनी के इर्दगिर्द बनाई कहानी वाली ख़बरों पर विश्वास होने लगता है। ऑपरेटर ये गेम बड़ा पैसा बनाने के लिये करते हैं, ऑपरेटर जब भी ये काम करते हैं तो वे कंपनी के प्रमोटरों के साथ मिले होते हैं, क्योंकि बिना प्रमोटरों की मिलीभगत के ऐसा होना बहुत मुश्किल है। प्रमोटर ऐसी स्थिति में अपना स्टैक बाज़ार से ख़रीदकर बढ़ा लेगा, या फिर दोस्तों के नाम या छद्म कंपनियों के नाम से शेयर ख़रीद लेगा, यही ऑपरेटर करेगा। जब वे अच्छी खासी मात्रा में शेयर ख़रीद लेंगे तब बाज़ार में ख़बरों को फैलाने का काम शुरू करेंगे। जब शेयर अपने उच्चतम स्तर पर होगा, तब प्रमोटर और ऑपरेटर अपने शेयर आम निवेशकों को बेचकर बाहर हो जायेंगे। अब चूँकि उस कंपनी में दम ही नहीं है और बाज़ार में वॉल्यूम अचानक से कम हो जायेगा तो शेयरों का भाव टूटना लाज़मी है।
मैं किसी कंपनी का नाम नहीं लूँगा, परंतु एक उदाहरण से समझाता हूँ किसी कंपनी का भाव 30 रूपये चल रहा है, और ऑपरेटरों ने प्रमोटरों के साथ साँठगाँठ करके बाज़ार में शेयरों का भाव बढ़ाने की बात की, कुछ ही दिनों में कंपनी का भाव 150 रूपयों तक चला गया, फिर 175 रुपये भी हो गया, यह भाव बढ़ने का कार्यकाल 6 महीने से 60 महीने या कुछ ओर भी बड़ा हो सकता है, जब कंपनी के प्रमोटरों और ऑपरेटरों ने देखा कि हाँ अब आम निवेशक उनकी फैलाई ख़बरों पर यक़ीन करने लगा है, तब वे बेचना शुरू करती हैं और जिस तेज़ी से शेयर का भाव ऊपर गया था, उससे ज़्यादा तेज़ी से नीचे आ जाता है, 175 रूपयों से 30 रूपयों तक वापिस शेयर का भाव आने में कुछ ही महीने लगेंगे। और हमारा आम निवेशक इतना भोला होता है कि वह उच्चतम क़ीमत पर शेयरों को ख़ुशी ख़ुशी ख़रीद लेता है, और कभी भी लॉस बुक करने की नहीं सोचता है, जब शेयर वापिस से 30 रूपये हो जाता है तो वह उस शेयर में लंबी अवधि का निवेशक बन जाता है, अपने आप का दिलासा देता है कि कभी न कभी तो इस कंपनी का भाव वापिस से 175 रूपये आयेगा, तब उसे बेच देगा।
इसलिये मैं कहता हूँ कि शेयर बाज़ार में एक्शन कम करना चाहिये, एक्शन के मुक़ाबले पढ़ाई कम से कम एक लाख गुना होनी चाहिये, तभी आपको अच्छे और ऐसे बुरे शेयर जो कि ऑपरेटर व प्रमोटर मिलकर चलाते हैं, समझ में आयेगा।
कोरोना वायरस का यह समय केवल स्वास्थ्य के लिये ही नहीं, बल्कि जीवन के बहुत से पहलुओं के लिये सही नहीं है। यह कोरोना काल बेहद कठिन है, जिसे निकालना बहुत कष्टप्रद है। कोरोना के डर से न केवल बड़े, बूढ़े बल्कि बच्चे भी प्रभावित हो रहे हैं। बच्चों के लिये यह दौर बहुत कठिन हो रहा है, बच्चों का सर्वांगीण विकास चारदीवारी में सिमट कर रह गया है। बच्चा शुद्ध हवा के लिये भी तरस गया है।
बच्चों के लिये कोरोना बहुत कष्टप्रद साबित होता जा रहा है, बच्चों का बालपन सामाजिक तौर पर घुलने मिलने का होता है, इससे ही उन्हें समाज की बहुत सी बातों का पता चलता है, व बच्चे सामाजिक होते हैं। अब बच्चों को न पढ़ाई के लिये विद्यालय जाना है, न खेलने के लिये मैदान में, और जब बाहर जाना ही नहीं है तो दोस्तों से मिलने, उनसे बात करने की तो बात ही छोड़ दीजिये। बच्चे अपने मन की बात, दिल की बात आख़िर किस से कहें, दोस्त लोग होते हैं तो वे हँसी मज़ाक़ भी करते हैं, मस्तियाँ भी करते हैं, परंतु घर की चार दीवार में क़ैद होकर कौन मस्ती कर पाया है, स्वच्छंद हो पाया है।
बच्चों का अधिकतर समय कमरे के किसी एक कोने में अपने टेबल कुर्सी पर लेपटॉप, मोबाईल पर ऑनलाइन कक्षा में ही बीत जाता है, फिर उन पर गृहकार्य का भी दवाब होता है, कोई बच्चों की मनोदशा समझना नहीं चाहता, किसी के पास समय नहीं है। बच्चों में अब इस प्रकार की दिनचर्या को जीने की आदत सी हो गई है। बच्चों में अब सामाजिकता भी ख़त्म होती जा रही है। बच्चों में प्रश्न पूछने की कला, उत्तर देने की कला जो बच्चों के बीच किसी विद्यालय के कक्ष में आती है वह कभी भी मोबाईल या लेपटॉप के सामने विकसित होने की संभावना नहीं है।
न विद्यालय इस बात के लिये चिंतित हैं और न ही शिक्षक, वे तो बस अपनी कक्षा पूर्ण करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। बच्चों में प्रतियोगी भाव भी तभी आता है जब बच्चे एक दूसरे को देखते हैं। बच्चे आपस में ही बहुत कुछ सीखते हैं, जिसे घर में नहीं सिखाया जा सकता है, परंतु यह इन बच्चों का दुर्भाग्य कहें या ख़राब समय कि उनकी इस बालावस्था में कोरोना आया है। बच्चों में यह समय कहीं न कहीं बहुत गहरे उनके दिमाग़ में पूरी ज़िंदगी बैठी रहेगी। बच्चे जब बड़े भी हो जायेंगे, तो बहुत से व्यवहारिक परिवर्तन होंगे, कुछ अच्छे होंगे तो कुछ नहीं, यह तो अब भविष्य ही बतायेगा।
आजकल सब जगह कोरोना का तांडव फैला हुआ है, सरकार ने जनता को लूटने का नया तरीक़ा निकाला है, जो मास्क नहीं पहना है, उससे २००० रूपये का जुर्माना वसूल किया जायेगा, मास्क जो कि अधिकतम १०० रूपये का आता है, कुछ लोग वाक़ई लापरवाह हैं, और कुछ के पास मास्क ख़रीदने के पैसे नहीं भी हैं, तो क्या उसके लिये इतना बड़ा जुर्माना वसूल करना उचित है, यह महामारी है और इसमें सरकार का कर्त्तव्य है कि सरकार जनता को मास्क की उपलब्धता करवाये, परंतु मास्क देने की जगह हर जगह लूट जारी है। अगर सर्जीकल मास्क भी मास प्रोडक्शन करवाये जायें तो शायद क़ीमत प्रति मास्क २ रूपये से ज़्यादा नहीं होगी। क्यों नहीं सरकार मास्क के स्टॉक लगाकर फ़्री में मास्क देती, चलो फ़्री में न सही, स्टॉक लगवाकर २ रूपये में मास्क बेच ही ले।
कई जगह तो पुलिस द्वारा मार पिटाई के वीडियो भी आ रहे हैं, अरे भई मास्क न लगाना जुर्म ही हो गया है, मतलब कि अगर वह मास्क नहीं लगा रहा है तो वह तो वैसे भी मरा हुआ ही है, तो आप क्यों उस पर लठ्ठ पेल रहे हो। थोड़ा संयम रखिये, थोड़ी मानवीयता रखिये, वैसे भी कोरोना किसी का दोस्त नहीं है, सभी का दुश्मन है। दुश्मन को मिलकर हराया जाता है, न कि एक दूसरे से लड़कर, और वैसे भी ध्यान रखें ये पॉवर, पैसा सब यहीं रह जायेगा, लोग मरने के बाद आपको न गरियायें, आपको कम से कम ग़लत रूप में याद न करें, इतना तो कर ही सकते हैं, कोई अगर आपके मरने के बाद भी आपको गाली दें तो बताओ आपने जीवन में क्या कमाया? गालियाँ!
जिस धसक से प्रशासन जनता से डरा धमकाकर जुर्माना वसूल कर रही है, क्या उसी धसक से उनकी हिम्मत है कि राजनेताओं से भी वे जुर्माना वसूल कर सकें, उनमें जमकर लठ्ठ बरसा सके, क्या जनता में इतनी हिम्मत है कि वे प्रशासन से कह सकें कि जाओ पहले नेताओं से जुर्माना वसूल करके दिखाओ, फिर हमसे वसूल कर लें, दरअसल जनता डरपोक दब्बू है, पुलिस ने प्रशासन ने अपनी मानवीयता खो दी है, वे केवल चाटुकारिता से काम लेते हैं या नियमों को दिखाकर डराते हैं, जबकि वे ख़ुद ही जानते हैं कि नियम बनाने वाले ही खुलेआम नियमों की अवहेलना कर रहे हैं।
कोरोना ने कई जीवनों के आयाम बदल दिये, परिवार के बीच के समीकरण बदल दिये, कोई भले बहुत अपना ही क्यों न मृत्यु को प्राप्त हो जाये, पर कोरोना के डर से हम कहीं जा नहीं पा रहे हैं, कितना विकट समय है कि हम अपने संबंधियों परिवारों में भी नहीं जा पा रहे हैं, न दुख बाँट पा रहे हैं, न सुख बाँट पा रहे हैं। यह अमानवीयता की चरम सीमा है, वह इसलिये क्योंकि अभी ख़ुद को बचाने का संघर्ष है, जो चला गया उसे तो लौटाकर नहीं लाया जा सकता, परंतु जो ज़िंदा हैं कम से कम उनको तो बचाये जाने का संघर्ष करना चाहिये। यह प्रकृति बहुत रौद्र रूप धारण कर चुकी है, वह चाहती है कि अधिक से अधिक लोग काल कवलित हों, तो यह अब मानव प्रजाति की कठिन परीक्षा की घड़ी है, बचने का तरीक़ा बहुत आसान है, पर मरने का तरीक़ा बहुत उससे भी आसान है।
यह एक वर्चुअल करेंसी है और हर क्रिप्टो कॉइन का एक यूनिक नंबर होता है जैसे कि नोट पर एक सीरियल नंबर होता है। ट्रांज़ेक्शन इलेक्ट्रॉनिक लेज़र से वेरिफाई होते हैं, जिसे ब्लॉकचैन (Blockchain)भी कहते हैं।
क्रिप्टोकरेंसी कैसे बनाई जाती है ओर स्टोर की जाती है
कॉइन को कठिन मैथमैटिकल पजल्स को सॉल्व करके बनाया जाता है और यह प्रोसेस कंप्यूटर पर एक कॉम्प्लेक्स प्रोग्राम द्वारा की जाती है,जिसे की माइनिंग (Mining) कहा जाता है। माईनिंग करने के लिये कंप्यूटर का हार्डवेयर बहुत उन्नत होना चाहिये व आधुनिक ग्राफिकल प्रोसेसिंग यूनिट (GPU) लगते हैं। इन क्वाईन्स को वैलेट में स्टोर किया जाता है, जो कि डिजिटल डायरेक्टरी होती हैं और पासवर्ड से सुरक्षित होते हैं। क्वाईन्स को बहुत छोटी यूनिट में भी तोड़ा जा सकता है और वे सारी यूनिट अपने आप में यूनिक होती हैं। आप एक क्वाईन को बेचने या खरीदने के लिये यानि ट्रेड के लिये सौ करोड़वे हिस्से तक में उपयोग कर सकते हैं।
क्रिप्टोकरेंसी को कौन कंट्रोल करता है और कौन वैरिफाई करता है?
क्रिप्टो क्राउड कंट्रोल्ड होती हैं, मतलब कि जो लोग क्रिप्टो माईनिंग का काम करते हैं वे लोग इन ट्रांजेक्शनों को वैरिफाई करते हैं, ब्लॉकचैन किसी भी होने वाले ट्रांजेक्शन को वैरिफाई करता है। जब ब्लॉकचैन को अधिकतम लोग देखकर सहमत होते हैं कि क्वाईन संख्या xxxxको वैलेट A से वैलेट B में ट्रांसफर किया जा सकता है, तब ट्रांजेक्शन क्लियर होता है और ब्ल़ॉकचैन में एक नई एंट्री बनती है।
बाजार में कितनी क्रिप्टोकरेंसी हैं?
एसएनपी क्रिप्टो इंडेक्स जो की लॉन्च होने वाला है, वे लगभग 500 क्रिप्टोकरेंसी ही ट्रैक करेंगे, जबकि करंसी हजारों की संख्या में उपलब्ध है, मुख्य क्रिप्टो है बिटक्वाईन, जिसकी आज एक ट्रिलियन डॉलर की मार्केट वैल्यू है और इथेरियम जिसकी दस बिलियन डॉलर मार्केट वैल्यू है।
क्या क्रिप्टोकरंसी अपनी कीमत के लिये किसी से लिंक होती हैं?
जी नहीं, क्रिप्टोकरंसी किसी भी एसेट से लिंक नहीं होती हैं? कुछ स्टेबल क्वाईन हैं जो कि अमरीकी डॉलर एसेट से लिंक होती हैं या फिर कई अन्य करंसी से लिंक होती हैं। फेसबुक एक क्रिप्टोकरंसी कंसोर्टियम बना रहा है, जिसमें आने वाले एक नई करेंसी डाईम कई अन्य करंसी के साथ लिंक होगी। चीन अपनी खुद की क्रिप्टोकरंसी ला रहा है, जो की चीन सेंट्रल बैंक के कंट्रोल मे रहेगी, चीन के सेंट्रल बैंक का नाम है The People’s Bank of China.
क्या क्रिप्टोकरंसी को कानूनन तरीके से ट्रेड कर सकते हैं?
जी हाँ, क्रिप्टोकरंसी के लिये बहुत से ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म उपलब्ध हैं, जहाँ बहुत सी क्रिप्टोकरंसी की ट्रेडिंग होती है। 35-40 करोड़ रूपये में ट्रांजेक्शन रोज ही होते हैं।
क्या क्रिप्टोकरंसी से ट्रांजेक्शन भी कर सकते हैं?
जी हाँ ट्रांजेक्शन भी कर सकते हैं, बस अभी यह उतना कॉमन नहीं है। परंतु यह रैमिटेंस (Remittance) के तौर पर ज्यादा उपयोग होता है क्रिप्टोकरंसी बेचने या खरीदने पर ब्रोकरेज बहुत कम होता है, वहीं बैंकों के चार्जेस USD INR पर इनसे ज्यादा होते हैं। मतलब कि अगर आप बिटक्वाईन डॉलर में खरीद रहे हैं और रुपये में बेच रहे हैं। कुछ कंपनियाँ क्रिप्टो को करंसी स्वॉप के लिये भी उपयोग करती हैं। टेस्ला से अगर कार खरीदनी है तो वहाँ आप बिटक्वाईन में भुगतान कर सकते हैं। क्रिप्टो ऑनलाईन गेमिंग व ऑनलाईन केसिनो में भी बहुत पॉपुलर है। क्योंकि इन ट्रांजेक्शनों को कोई ट्रेक नहीं कर सकता, या बहुत मुश्किल होता है, इसलिये इसका जबरदस्त तरीके से उपयोग ड्रग डील्स व साईबर क्राईम में होता है।
क्रिप्टो से ट्रांजेक्शन करना कठिन क्यों है?
क्रिप्टो बहुत ही ज्यादा वोलेटाईल है। ट्रांजेक्शन बहुत धीमे होते हैं – किसी भी ट्रांजेक्शन के होने के पहले बहुत से लोगों द्वारा ब्लॉकचैन में चैक करना जरूरी होता है।
भारतीय नियामक क्यों इन नई एसेट्स के बारे में कन्फ्यूज हैं?
नियामक को पहले क्रिप्टो की परिभाषा बनानी होगी, कि इस पर टैक्स कैसे लगायेंगे। क्या ये कलाकृति (Art) है या करंसी है या कुछ और?बहुत से देशों ने जैसे कि जापान, कोरिया, आस्ट्रेलिया आदि ने क्रिप्टोकरंसी पर टैक्सेशन पर अपनी बात साफ कर दी है, लेकिन भारत ने अभी तक नहीं साफ की है। भारतीय नियामकों की चिंता है कि हर वर्ष लगभग 80 बिलियन डॉलर का रैमिटेंस जो होता है, क्रिप्टकरंसी लीगल करने के बाद सीधा असर रैमिटेंस पर पड़ेगा। साथ ही वे नाखुश है कि क्रिप्टोकरंसी के ट्रांजेक्शन को ट्रेस नहीं किया जा सकता है।
कार्बन फुटप्रिंट के लिये क्यों चिंता है?
माईनिंग के लिये ज्यादा शक्तिशाली कंप्यूटर चाहिये होते हैं, जिसमें विशेष चिप्स और GPU होते हैं जो कि बहुत बिजली खाते हैं। विश्वभर में आज क्रिप्टो माईनिंग के लिये जितनी बिजली की खपत हो रही है, जितनी कि बेल्जियम जैसे देश की बिजली की आपूर्ति के बराबर होती है। समस्या यह है कि यह रिनिवेबल एनर्जी नहीं है, इसलिये इसका कार्बन पर ज्यादा असर होगा।
ब्लॉकचैन कैसे काम करता है?
माईनिंग से हर क्वाईन की हिस्ट्री रिकार्ड होकर उस ट्रांजेक्शन की एंट्री ब्लॉकचैन में होती है। बस यह समझ लीजिये कि ये एक काँच का लॉकर है जिसमें अलग अलग सीरियल नंबर के नोट रखे हैं, और यह लॉकर उन्हीं लोगों के द्वारा ऑपरेट किये जा सकते हैं जिनके पास पासवर्ड है, पर उन्हें हर कोई देख सकता है। अगर एक लॉकर का मालिक कुछ क्रिप्टोक्वाईन किसी ओर को देना चाहता है यानि कि किसी ओर लॉकर में ट्रांसफर करना चाहता है तो देखने वाले पहले यह देखेंगे कि जो क्रिप्टोक्वाइन देना चाहता है उस लॉकर में क्वाईन है या नहीं, और कहीं यह डबल ट्रांजेक्शन तो नहीं हो रहा कि पहले भी इसका ट्रांजेक्शन हो चुका है और फिर से एटेम्पट हो रहा है।
बहुत से लोग ब्लॉकचैन को देख सकते हैं और उसकी कॉपी डाऊनलोड कर सकते हैं। हर होने वाला ट्रांजेक्शन को देखने वाले अधिकतम लोगों द्वारा कन्फर्म करा जाता है। एक बार ट्रांजेक्शन सफल हो गया और ब्लॉकचैन में एन्ट्री हो गई तो उसे न बदला जा सकता है और न ही कैंसल किया जा सकता है और न ही देखा जा सकता है। और बहुत सारी कॉपियों में होने के कारण ब्लॉकचैन में फ्रॉड करना बहुत मुश्किल या यूँ कहें कि नामुमकिन है।
ब्लॉकचैन को और कैसे उपयोग कर सकते हैं?
बैंकों द्वारा ब्लॉकचैन को इंटर्नल ऑडिट में उपयोग किया जा रहा है। बड़े फ्रॉड जैसे कि बारिंग बैंक में निक लेसन ने किया और नीरव मोदी ने पंजाब नेशनल बैंक में किया, वो असंभव होते।
ब्ल़ॉकचैन को हर उस जगह उपयोग किया जा सकता है जहाँ परस्पर विश्वास नहीं है, जैसे कि अगर सरकार ने किसी कार्य के लिये ठेकेदार को नियुक्त किया और उस पैसे को किसी एस्क्रो में डाल दिया फिर उस लोकेलिटी के १०० लोगों को ब्लॉकचैन में डाल दिया, अब जब ये १०० लोग उसके काम होने के बाद ब्लॉकचैन में अपनी सहमति देंगे तो ठेकेदार को ऑटोमैटिक पैसा मिल जायेगा। इससे न ही भुगतान में देरी होगी और न ही रिश्वत होगी।
कोरोना में बहुत से अपने जा रहे हैं, कभी कोई बहुत करीबी तो कभी कोई जान पहचान वाला, तो कभी किसी दोस्त की जान पहचान वाला, दुख यही है कि सब जा रहे हैं। जाने से कोई रोक भी नहीं सकता, क्योंकि यह बीमारी है ही ऐसी ख़तरनाक, लोग फिर भी जान से क़ीमती कुछ ओर समझ रहे हैं, अपना ध्यान न रखकर खुलेआम बाज़ार में घूम रहे हैं, काश कि सभी लोग इस गंभीरता को समझें। कल अपने मित्र के व्हाट्सएप के स्टेटस से पता चला कि भैया अचानक ही कोरोना का ग्रास बन गये।
हालाँकि यादें धुँधली हैं, परंतु फिर भी मुझे याद आता है कि भैया से पहले मुलाक़ात धार में एकलव्य में हुई थी, और हम लोग वहाँ उनके एकलव्य के ऑफिस में जाकर कभी किताबें पढ़ा करते थे तो कभी कोई विज्ञान का कोई प्रयोग सीखा करते थे, बहुत सी बातें वहाँ से सीखीं, पर एक बात ओर पता चली कि व्यवहारिक विज्ञान सीखने में बहुत से लोगों की रुचि नहीं थी। हमें एकलव्य केवल इसलिये अच्छा लगता था कि वहाँ वैज्ञानिक गतिविधियों के साथ ही कुछ किताबें भी पढ़ने को मिलती थीं।उन्होंने ही बर्ड वाचिंग के बारे में बताया, कई बार उनके साथ गया और पक्षियों को जाना, तब पता चल कि बर्ड वाचिंग भी एक शौक़, एक विधा होती है।
जो किताबें वहाँ पढ़ने को मिलती थीं, उस तरह की किताबें बाज़ार में कहीं भी पढ़ने के लिये उपलब्ध नहीं थीं, ख़ासकर चकमक जिसमें हर तरह की विधा का समावेश हुआ करता था, भैया का छोटा भाई विष्णु मेरा अच्छा मित्र रहा और है, इस कारण उनसे पारिवारिक संबंध भी रहे, जब हम धार से झाबुआ चले गये तो यह बातचीत का दौर लगभग ख़त्म सा हुआ था, परंतु बीच बीच में उज्जैन आना जाना लगा रहता था, तब भैया उज्जैन में ही रहने आ गये थे, तब मैं कई बार उनसे मिलने उनके घर चला जाता था, वे तथा उनका परिवार बहुत ही आत्मीय थे, हैं। भैया का जाना मेरी व्यक्तिगत क्षति है, जिसे भरा नहीं जा सकता। यह आघात सहने का उनके परिवार को असीम बल मिले, और आत्मा को शांति मिले, यही प्रार्थना है।
लिखने में बहुत तकलीफ़ होती है, लिखते नहीं बनता, जब कोई बहुत आत्मीय चला जाता है, परंतु अब दौर इस प्रकार का आ गया है, कि हम जाने वाले के लिये कुछ कर नहीं सकते, जो लोग जीवित हैं, उनका बचाया जाना जरुरी है, ख़ुद को बचाना ही आज की सबसे बड़ी मानवता है, अगर आपने ख़ुद को बचा लिया तो यह समझ लीजिये कि आपने समाज के कम से कम 50 लोगों को बचा लिया।घर में रहिये सुरक्षित रहिये, बाहर जाना भी पड़े तो सुरक्षा के सारे उपाय जरुर अपनायें।
बहुत मुश्किल से मेरी चाय छूटी थी, वह भी लगभग ३ वर्ष तक, ३ वर्ष तक मैंने दूध की चाय नहीं पी, दूध के बने उत्पादों को छोड़ दिया था, मतलब हालत यह थी कि घर में पनीर की सब्ज़ी बेटेलाल बनाते थे और हम केवल फ़ोटो खींचकर ही संतुष्ट हो लेते थे, फिर कोरोना आया तब भी हमने अपने ऊपर बहुत कंट्रोल रखा, चाय पीने की इच्छा होती थी, तो लेमन टी पी लेते थे, या गरम पानी ही पी लेते थे।
दूध के पदार्थ का सेवन करने से कोलोस्ट्रॉल में वृद्धि होती है, वैसे ही तेल वाली चीजें खाने से ट्राईग्लिसराईड बढ़ता है, तो सोचा कि ये जो ह्रदय में जाकर जमता है, जाता तो केवल एक ही जगह से वह है हमारा मुँह और स्वादग्रंथी जीभ, तो बहुत कोशिशों के बाद हम कामयाब हुए, हम यक़ीन रखते हैं कि केवल संभाषण ही नहीं करना है, उस पर अमल भी करना है, ऐसे ही दौड़ लगाने की बढ़िया से आदत लग गई थी, पर कुछ निजी समस्याओं के चलते धीरे धीरे वह भी छूट गई, बहुत ग़ुस्सा आता है अपने आप पर, जब अच्छी आदतें छूट जाती हैं।
अब हालत यह है कि लगभग सब चीजें वापिस से चालू हो गई हैं, हाँ चाय अब सुबह और शाम दो बार ही पी रहे हैं, परंतु बारबार चाय पीते याद यही आता है कि सीधे हम २ चम्मच शक्कर पी रहे हैं, कोलोस्ट्रॉल की इतनी मात्रा धमनियों में जा रही है, तेल का खाना खा रहे हैं तो ग्लानि खाते समय भी होती है, पर सच बताऊँ तो इस आमोद प्रमोद के चक्कर में मन की जीत हो रही है, जीभ पर बिल्कुल भी क़ाबू नहीं रहा। एक समय था जब कैरियर की शुरूआत की थी तब दिन में 8-10 चाय तो आराम से हो जाती थी, साथ ही चाय के बाद पान खाने की आदत भी बन गई थी।
इस बार यह चाय की आदत जनवरी २०२१ से फिर से लगी, पहले पापा अस्पताल में एडमिट थे, तो कोरोना के चक्कर में बाहर का खाना शुरू हुआ, चाय भी पी फिर एक सप्ताह के बाद घरवाली को एक सप्ताह के लिये एडमिट करवाया तो न न करते चाय, पका खाना, तेलीय खाना, नाश्ता सबकुछ की आदत लग गयी। पापा को कंजस्टिव हार्ड फेलियर हुआ था, ३ दिन सीसीयू में रहने के बाद अब ठीक हैं, घरवाली को DVT (Deep vein thrombosis) होने का पता चला, और दोनों ही खतरनाक सीरियस वाली बीमारियाँ हुईं, दिमाग का बिल्कुल दही हो गया। पापा अब बढ़िया से हैं।
घरवाली की तकलीफ़ देखते नहीं बनती, पहले एक महीना तो पूरे बिस्तर पर ही रहने को बोला था डॉक्टर ने, अब कहा है कि आराम के साथ साथ धीमे धीमे काम भी करो, अब इलाज २ वर्ष का है, DVT एकदम से नहीं होता, और पकड़ भी तभी आता है जब यह अपने पीक पर पहुँच जाता है, पहले पैरों में सूजन होती थी, फिर उतर जाती थी, कभी इस बारे में ध्यान ही नहीं दिया, फिर जब अक्टूबर से चलना भी मुश्किल हो गया तो डॉक्टर के चक्कर लगाये, डॉक्टर ने दर्द कम करने की दवाई दी, एक्स-रे भी करवाया, पर पता न चला, जब पैरों के लिंफ नोड्स में सूजन आई तब अल्ट्रासाउंड करवाने पर पता चला कि ये तो DVT है, याने कि अंदरूनी रक्तवाहिकाओं में रक्त का थक्का जम गया है, फिर डॉक्टर मित्र से सलाह की तो पता चला कि इस बीमारी के लिये हमारा प्राथमिक डॉक्टर कॉर्डियो वेस्कुलर सर्जन होना चाहिये, जिससे पता चल जाये कि यह रक्त का थक्का कहीं ह्रदय की ओर तो नहीं बढ़ रहा है।कॉर्डियो वेस्कुलर सर्जन ने इको कॉर्डियोग्राम करवाया तो वहाँ कोई समस्या नहीं मिली। और बताया कि आपके जो इंटर्नल सर्जन ने इलाज बताया है वही इलाज करना है, इलाज था कि पहले ४ दिन अस्पताल में भर्ती होकर खून के पतला होने के इंजेक्शन लगवाने थे, ओर फिर २ वर्ष तक ब्लड थिनर की टेबलेट चलेंगी।
DVT होने की कई वजहें होती है, एक मुख्य वजह यह समझ आई कि जिनका T3 एन्जाईम कम होता है, यह एन्जाईम शरीर में खून को पतला करने का काम करता है, वहीं विटामिन K जो कि खून गाढ़ा करता है, जैसे की हरे पत्तियों की सब्ज़ियाँ, बहुत ज़्यादा लेने पर यह समस्या पैदा हो जाती है, एक ही जगह ज़्यादा देर खड़े रहने से भी ये समस्याएँ होती हैं, जैसे कि सर्जन और शिक्षकों को ये बीमारियाँ बहुत आम हैं, तो उनको पैरों में Stocking पहनने चाहिये, जिससे रक्त का प्रवाह बना रहता है।
तो खैर यहीं से हमारा चाय, नमकीन, बिस्कुट, बाज़ार का नाश्ता सब कुछ चालू हो गया, अब फिर से कंट्रोल करने की शुरूआत करनी है। देखते हैं कि कितनी जल्दी सफल हो पाते हैं।
उज्जैन में एक मित्र से बात हो रही थी दो दिन पहले –
मैं – भिया जै महाकाल
मित्र – जै माकाल
मैं – कोरोना कैसा फैल रिया है गुरु
मित्र – अरे फैलने दो अपने को कई, अपन तो धरमिंदर ओर अमिताभ के जैसे हो रिये हैं आजकल जान हथेली पे लेके घूम रिये हैं, मास्क वास्क सोसल डिस्टनसिंग चल री है, पन बार निकलना नि छोर सकते, पहले तो उज्जैनी तो एबले नि जूनी उज्जैन के महा एबले
हमने कहा भिया ध्यान रखो
भाई बोला – भिया पेट भी है परिवार भी है, एबले बनेंगे तो ही पेट भर पायेंगे नि परिवार चला पायेंगे।
हम शब्दहीन थे।
यह तो मित्रों की बात हुई परंतु कोरोना के कारण बेहद ही ख़राब स्थिति है अपना ध्यान रखें, अभी बातों के दौरान पता चला भाई से कि उनके एक मित्रवत मात्र 29 वर्ष की आयु में ही काल का ग्रास बन गये, वहीं उज्जैन में एक दंपत्ति को लगभग एक साथ ही कोरोना के शिकार हुए।
यहाँ भाषण नहीं करेंगे वो तो सभी लोग कर रहे हैं, परंतु इतना ध्यान रखें कि क्षणिक सुख के लिये कि बाहर न निकलें, जाना ज़रूरी हो तो पहले घर पर सारी चीजों की सूचि बनाकर रख लें, बार बार बाज़ार न जायें, ध्यान से रहें, अपने कारण परिवार को तकलीफ़ में न डालें, यह ऐसी बीमारी है जो परिजनों को तो डस ही लेगी साथ ही आपको आर्थिक तौर पर भी अच्छा ख़ासा नुक़सान पहुँचायेगी, जान पहचान क्या कोई करीबी भी आपकी चाहकर भी मदद नहीं कर पायेगा। सब कुछ आपके अपने हाथों में है।
घर पर रहें, मन न लगे तो भगवान में मन रमायें, भगवान में मन न लगे तो यूट्यूब देखकर कुछ सीख लें, न सीखने का मन हो तो जो भी आप करना चाह रहे थे, पर न कर पाये वही देख लें, मनोरंजन कर लें, बस घर पर रहें। ज़रूरी हो तभी बाहर निकलें, नहीं तो बस यह समझ लीजिये कि आप साक्षात यमराज को ही घर ला रहे हैं।
जिनको न पता हो उनके लिये – उज्जैन में महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है।
आज सुबह अपने मैक पर कमांड स्पेस दबाकर विनवर्ड लिखकर खोलने की कोशिश कर रहा था, पर सजेशन में आया हुआ बिना देखे ही क्लिक कर दिया। वर्डस्टार का विकिपीडिया पेज खुल गया। वर्डस्टार का नाम देखते ही अपने वो पुराने दिन याद आ गये जब हमने कंप्यूटर सीखा था और वर्डस्टार, लोटस 123 और डीबेस पर अपनी मास्टरी थी। मुझे लगता है कि हम लोग तकनीक के युग में बहुत पीछे रहे। और एक बात कि पाइरेसी के बिना कोई सॉफ़्टवेयर प्रसिद्ध नहीं हुआ, अगर सबको सॉफ़्टवेयर लाइसेंस ख़रीदना होता तो, शायद ही भारत में लोग कंप्यूटर की तरफ़ आकर्षित होते।
सॉफ़्टवेयर व हार्डवेयर कंपनियाँ यह जानती थीं कि हार्डवेयर में पाइरेसी नहीं की जा सकती, परंतु अगर सॉफ़्टवेयर पाइरेसी नहीं करने दी गई तो हार्डवेयर याने कि कंप्यूटर भी नहीं बिकेगा। उस समय कंप्यूटर ख़रीदने पर सॉफ़्टवेयर इंस्टाल करने के लिये बक़ायदा सूचि बनाकर दी जाती थी। कंप्यूटर बेचने वाला सारे सॉफ़्टवेयर व अपनी तरफ़ से भी कुछ पाइरेटेड सॉफ़्टवेयर डालकर दे देते थे। मेरा पहला पीसी 486 dx 2 था और सीखना 286, 386 से शुरू किया था।
वर्डप्रोसेसर में उस समय वर्डस्टॉर, वर्डपरफेक्ट अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर थे, वहीं डाटाबेस के लिये डीबेस, प्रोग्रामिंग के लिये भी डीबेस, बेसिक, सी, सी प्लस प्लस थे और स्प्रेडशीट के लिये लोटस १२३ एकमात्र बेताज बादशाह था। ये सब प्रोग्राम अधिकतर पाइरेटेड ही मिलते थे, ख़रीदना कोई नहीं चाहता था, क्योंकि इनकी क़ीमत बहुत ज़्यादा थी या फिर ये सब आउटडेटेड हो चुके थे, और अमेरिका में उस समय कुछ नया चल रहा होता था, जो भारत में आने में बहुत समय लगता था, वर्डस्टार अमेरिका में लगभग 1984 में ख़त्म होने की कगार पर था वहीं भारत में वर्ष 2000 तक तो मैंने ही लोगों को उपयोग करते देखा है, यह पहला ऐसा वर्ड प्रोसेसर था जिसने कंपनी को एक साल में ही मिलियन डॉलर कंपनी बना दिया था, ढ़लान इसलिये शुरू हुआ कि यह लेजर प्रिंटर को सपोर्ट नहीं करता था।
सॉफ़्टवेयर की दुनिया में वर्डस्टार पाइरेसी में अव्वल नंबर पर रहा है, शायद माइक्रोसॉफ़्ट ऑफिस उसके बाद हो, माइक्रोसॉफ़्ट ऑफिस भी केवल इसलिये ही पापुलर है कि बिल गेट्स ने शुरुआत में पाइरेसी पर कंट्रोल नहीं किया, शायद उनका मक़सद यह था कि पहले ये तीसरी दुनिया के लोग सीखें और काम करना शुरू करें, क्योंकि लाइसेंस है या नहीं, ढूँढना कोई बहुत आसान काम नहीं था।
कहीं न कहीं सॉफ़्टवेयर कंपनियों की तरफ़ से भी पाइरेसी के लिये ढ़ील थी और दूसरा वे जानते थे कि पाइरेसी वर्जन उपयोग करने वाले लोगों को ढूँढना और फिर उन पर कार्यवाही करना बेहद दुश्कर कार्य है। आज कोई भी नया सॉफ़्टवेयर तभी प्रसिद्ध होता है जब वह फ़्री में उपलब्ध हो या फिर पाइरेसी के साथ उपलब्ध हो।