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वो १ मिनिट का दृश्य और उसके चेहरे का संतोष…

    वह बहुत तेजी से चावल खा रहा था, जिसमें शायद दाल और कुछ सब्जी मिली हुई थी, पीले रंग की पीतल की तश्तरी से बड़ा सा बर्तन था, उसके बाँहें जो कि साँवली नहीं नहीं काली ही थीं.. उसमें से मसल्स दिख रहे थे… गंदी मैली बनियान या शायद गंदे रंग की बनियान पहने हुआ.. और लुंगी को डबल कर मद्रासी श्टाईल में लपेट कर पहना हुआ था… चेहरे पर गजब का संतोष था.. समय शाम का था लगभग ६.३० बजे का.. चेहरे पर संतोष से ऐसा लग रहा था कि उसने आज जो भी काम किया है उससे वो संतुष्ट है और खुश है कि वह आज का कार्य पूरा कर सका। और यह तो शायद सभी ने महसूस किया होगा जिस दिन कार्य बराबर होता है तो भूख कुछ ज्यादा ही लगती है। दिमाग की किसी ग्रंथी का संबंध जरुर पेट से रहता है।
    यह दृश्य अपने कार्यालय से घर लौटते समय ऑटो से १ मिनिट से भी कम समय में हमने किसी घर में देखा, जो कि सड़क किनारे ही था। केवल १ मिनिट के दृश्य के लिये भी कभी कभी इंसान कितने ही दिन सोचने पर मजबूर हो जाता है।

शीघ्र सेवानिवृत्ति [क्यों ?] [Early Retirement Why ?]

शीघ्र सेवानिवृत्ति क्यों ? [Early Retirement Why ?]

    जब कार्य स्थल पर कठिनाईयाँ आने लगती हैं, तो बहुत से लोग इस स्थिती से पलायन करने के लिये शीघ्र सेवानिवृत्ति के लिये सोचने लगते हैं, परिवार का यह मानना होता है। परंतु आजकल की बदली हुई कार्य की परिस्थितियों को हमारे परिवार नहीं समझ पा रहे हैं , कि कितने दबाब में कार्य करना होता है, जब निजी कंपनियाँ ज्यादा रुपया देती हैं तो हरेक रुपये के एवज में निचोड़ कर काम भी लेती हैं। परिवार को लगता है कि हमारा पुत्र ज्यादा रुपया कमाकर वैभवशाली जीवन निर्वाह कर सकता है, परंतु अगर हम उस पुत्र की मनोस्थिती समझें तो शायद उसकी कार्य करने की परिस्थितियों को समझने में असमर्थ होंगे। क्योंकि जो कार्य आजकल की पीढ़ी कर रही है, जैसे कर रही है वह परिवार के बुजुर्ग समझ ही नहीं सकते, क्योंकि उन्होंने वैश्विक तौर तरीकों से कभी कार्य ही नहीं किया है और न ही उतनी क्षमता का प्रदर्शन किया है। इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी क्षमताओं में कोई कमी थी, परंतु उन्हें उन कार्य परिस्थितियों का अंदाजा ही नहीं है।

    शीघ्र सेवानिवृत्ति एक ऐसा विषयवस्तु और जीवनचर्या है जो कि आज के युवा को बहुत पसंद आ रहा है। शीघ्र सेवानिवृत्ति क्यों लिया जाये ? और इसके बाद करें क्या ? ये सब सवाल होते हैं, हमारे परिवार के बड़े बुजुर्गों के, जिनकी सोच को रुढिवादी बोला जा सकता है, परंतु बेकार नहीं, क्योंकि उन्हें जिंदगी का अनुभव होता है और सोच परिपक्व होती है। हाँ वो हमारे इस शीघ्र सेवानिवृत्ति के निर्णय से एकदम सहमत तो नहीं होंगे, परंतु उन्हें बदली हुई परिस्थितियों को समझाया जा सकता है।

    कितने लोग नौकरी या व्यापार अपनी खुशी से करते हैं और कितने लोग इसे मजबूरी से करते हैं, करना कुछ चाहते हैं परंतु कुछ ओर ही कर रहे होते हैं। जैसे किसी की इच्छा तो वैज्ञानिक बनने की होती है परंतु बन जाते हैं पत्रकार, या बैंकर या कुछ ओर । बस इस प्रकार से केवल अपने जीवन यापन के लिये जिस भी क्षैत्र में मौका मिल जाता है उसी में कार्य करने लगते हैं, फ़िर भले ही मन मारकर कार्य कर रहे होते हैं।

नौकरी या व्यापार क्यों करते हैं ?

    नौकरी या व्यापार करने का मुख्य उद्देश्य होता है, “पैसा कमाना”। और भी उद्देश्य होते हैं जो कि इस प्रकार हो सकते हैं – समाज में अपनी पहचान बनाना, अपनी प्रतिभा से सबको कायल करना, वैभवशाली जीवन शैली को जीना, अपने को संतुष्ट करना, और भी बहुत कुछ।

आखिर कब तक करें –

    जैसी जीवनशैली से आप संतुष्ट हों और उस जीवनशैली में ही मजे में जीवन जी सकें और अपने बच्चों और निर्भर सदस्यों का भविष्य निखार सकें।

    परंपरागत तौर पर ५५ से ६५ वर्ष तक की उम्र सेवानिवृत्ति की मानी जाती है, क्योंकि उस समय आय का एकमात्र साधन घर का मुखिया ही होता था, या फ़िर आय कम होती थी। परंतु अब बदली हुई परिस्थितियों में आय भी बड़ी है, जीवन स्तर भी बड़ा है। पहले सेवानिवृत्ति पर जितना धन सेवानिवृत्त को मिलता था उससे कहीं ज्यादा धन तो आज की पीढ़ी ३५ वर्ष की उम्र में जमा कर लेती है। तो उस धन को निवेश कर आराम से शीघ्र सेवानिवृत्ति का मजा ले सकते हैं, परंतु कोई इस विषय पर नहीं सोचता है, और मशीनी तरीके से पूरी जिंदगी निकाल देते हैं।

    अगर जीवन यापन के लिये जरुरी रकम हमें मिलती रहे तो अपने रहन सहन और घर खर्च की चिंता के बगैर हम अपने मन पसंदीदा कार्य को कर सकते हैं।

    परंतु भविष्य के प्रति अनिंश्चिंत होकर बिना योजना के  वह कार्य करता रहता है। योजना बनाने से सुदृढ़ भविष्य का निर्माण कर सकते हैं, और अपने परिवार और समाज को सही दिशा में बड़ा सकते हैं। जितना समय हम ज्यादा रुपया कमाने में देंगे, उससे कहीं ज्यादा हम अपने परिवार और समाज के लिये समय देने की प्रतिबद्धता कर दे सकते हैं। और अपने राष्ट्र का एक उज्जवल भविष्य निर्माण कर सकते हैं।

पाठकों की राय अपेक्षित है —

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यूनियन कार्बाइड की जहरीली गैस में लोग अभी भी घुटकर मर रहे हैं ।

      कल खबर सुनी कि २५ वर्ष के बाद यूनियन कार्बाइड का फ़ैसला न्यायालय ने दे दिया है, वो २ दिसंबर की काली रात एकदम गहरी स्याह हो उठी जब इस जहरीली गैस ने भोपाल को अपने आगोश में ले लिया था, और आज फ़िर ऐसा लगा कि वापिस वही गैस पूरे देश में फ़ैल गई है, और जिनके पास दिल हैं वे सभी लोग घुटकर मरे जा रहे हैं। मेरा भारत महान, उसके नेता और न्यायपालिका महान !!!


    जहरीली गैस से मरे हुए और मरने वाले लोगों और घुट रहे लोगों को नम श्रद्धांजली।

झमाझम मानसून की बारिश, मुंबई में फ़्रेंच विन्डो के आनंद और छाता

    आज सुबह फ़िर एक नये सप्ताह की शुरुआत हुई, वो भी मानसून की बारिश के साथ, चारों ओर घनघोर बादल छाये हुए थे, और झमाझम बारिश हो रही थी। इसी बीच सुबह हम अपने बेटे को स्कूल बस पर छोड़ने गये तो वो जिद करने लगा कि छाता ले चलो, हमने उससे कहा कि छाते की जरुरत ही नहीं है, ज्यादा तेज बारिश नहीं है। बस हमने इतना कहा और बारिश जोरों की होने लगी, पहले तो पेड़ के नीचे शरण ली, पर बारिश कुछ ज्यादा ही झमाझम थी फ़िर हमने एक दुकान के नीचे शरण ली, जैसे ही बस आयी वैसे ही हम दौड़कर सड़क पर आ गये।

    मुंबई में पहली बारिश नहीं है, दो दिन पहले आधी रात को जबरद्स्त बारिश थी, समय तो हम देख नहीं पाये, पर यहाँ पर प्रचलित फ़्रेंच विन्डो के कारण प्रकृति के आनंद ले लेते हैं। सोते हुए अपने पर कुछ हवा के साथ बूँदे उड़कर आयीं, तो एकदम पता चल गया कि बारिश आ गई है, जल्दी से उठे और विन्डो के काँच बंदकर वापिस से सो लिये।

    आनंद बिल्कुल वैसा था जब अपने घर पर छत पर कभी कभार सो लिया करते थे, और रात को बारिश आ जाती थी, तो गद्दा तकिया चादर सब उठाकर भागते थे, घर में खटखटाते थे, किवाड़ खुलने पर पता चलता कि बारिश बंद हो गई है, तो फ़िर मन मारकर घर में ही सो जाते थे। यह सोचकर गुस्सा आता था कि बारिश को आना ही है तो जरा ज्यादा आये, हमारा बोरिया बिस्तर समेटने में इसको क्या मजा आता है।

    बिस्तर पर लेटे लेटे ही रात में तारे गिन लो, खुली हवा का आनंद लो, यह सब आनंद अपने छत पर सोने में आते थे, अब यही सब आनंद मुंबई के छोटे से फ़्लेट में भी आते हैं, बस अंतर यह है कि ऊपर छत रहती है, यही तो फ़्रेंच विन्डो के आनंद हैं।

    आज सुबह सुबह ही छाते की खोज हुई तो एक छाता अलमारी में लटका हुआ मिल गया, कि चलो अब तो मेरी सुध ली, फ़िर छाते को चेक किया गया, तो ठीक ठाक अवस्था में पाया गया। तय किया गया कि आज ही २ छाते ओर लाने होंगे, मानसून जो आ गया है।

    वैसे हमारी आदत है कि हम छाते का उपयोग कम से कम करते हैं, क्योंकि बारिश प्राकृतिक है और उसका आनंद न लिया तो बस फ़िर ?

    आजकल तो फ़िर भी छाते का उपयोग करने लगे हैं, नहीं तो पहले तो यह हालत थी कि हमारा रेनकोट डिक्की में ही पड़ा रहता था, और हम बारिश के आनंद लेते हुए घर पहुँचते थे [खामख्वाह में रेनकोट भीग जाता और फ़िर उसको सुखाने की जद्दोजहद में लगो] J

    आप सबको भी मानसून की शुभकामनाएँ और बिना छाता और रेनकोट के बारिश को प्राकृतिक रुप में महसूस करके देखें, आनंद आयेगा।

शीघ्र सेवानिवृत्ति क्यों ? कब ? और कैसे ? [Early Retirement why ? when ? and how ?]

    शीघ्र सेवानिवृत्ति एक ऐसा विषय है जो आजकल के युवाओं की पहली पसंद है, आज का युवा जल्दी से जल्दी अपनी वित्तीय स्थिती मजबूत कर अपने इच्छा अनुरुप कार्य करना चाहता है।

    हम अभी उज्जैन गये थे तो अपने मित्र से पूछा कि अगर आज वापिस उज्जैन आना हो और शीघ्र सेवानिवृत्ति का विचार हो तो कम से कम अपने पास कितना पैसा होना चाहिये। तो उसका एकदम से जबाब मिला १ करोड़ रुपया, हम फ़क्क उसका चेहरा देखते ही रह गये, और हम उससे उस १ करोड़ की गणना का गणित पूछने लगे तो वह गणित बताने में अक्षम रहा, और बोला कि ऐसा लगा कि अगर १ करोड़ हो तो जिंदगी अच्छी कटेगी। क्या आप भी ऐसा सोचते हैं ? और ये भी बतायें कि १ करोड़ को कैसे निवेश करेंगे ?



    शीघ्र सेवानिवृत्ति पर हमने अपने लेपटॉप पर बहुत कुछ लिख रखा है, पर इस पर मौत की काली स्क्रीन का साया है, हमें आशा है कि हम उसे जल्दी ही ठीक कर अपने लेख जो कि विन्डोज लाईव राईटर पर लिखे हैं, प्राप्त कर लेंगे। तब तक हम बात करते हैं शीघ्र सेवानिवृत्ति के लिये आवश्यक धन की, आगे हम विस्तृत चर्चा करेंगे कि शीघ्र सेवानिवृत्ति क्यों ? कब ? और कैसे ?

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माइक्रोसॉफ़्ट का बग “मौत की काली स्क्रीन” समाधान ढूँढ़ रहे हैं, Black Screen of Death

हमारा लेपटॉप – सोनी वायो, VGN-CR506E

 हमारा लेपटॉप फ़ँस गया Black Screen of Death के चुंगल में, उपाय ढूँढ़ रहे हैं। यह एक बग है जो कि माइक्रोसॉफ़्ट के OS  में होता है। इसमें लोगिन स्क्रीन के बाद काली स्क्रीन दिखाई देती है, और हमारा विस्टा कोई भी गतिविधी करने से मना कर देता है। जब कल अपना लेपटॉप खोला तो ये वाला बग आया हमारे OS में, अब गूगल पर अपने डेस्कटॉप में इसका समाधान ढ़ूँढ रहे हैं।

जितने भी समाधान बताये गये हैं, वह सब कर चुके या कोशिश कर रहे हैं, परंतु अभी तक सफ़लता नहीं मिली 
है –
१. Ctrl + Alt + Del बटन दबाकर टॉस्क मैनेजर में जाकर नये टॉस्क पर क्लिक कर iexplorer.exe करें तो यह शुरु हो जायेगा।
२. रजिस्ट्री में संपादन के लिये remove C:WINDOWSsystem32driversntndis.exe from
KEY_LOCAL_MACHINESOFTWAREMicrosoftWindows
NTCurrentVersionWinlogonShellexplorer.exe
C:WINDOWSsystem32driversntndis.exe
समस्या यह है कि किसी भी तरह से हम इस विस्टा को कंट्रोल नहीं कर पा रहे हैं, F8 दबाने के पश्चात सेफ़ मोड में भी नहीं आ रहा है, Last good configuration भी नहीं चल रहा है,  विन्डो पीई से अब USB से बेकअप ले रहे हैं, फ़िर देखते हैं कि क्या कर सकते हैं।
अभी कोशिश जारी है, क्योंकि उसमें विन्डोज लाईव राईटर में कुछ लेख हमने लिखे हुए हैं, उन्हें बचाना है। और कुछ महत्वपूर्ण फ़ाईलें भी हैं। खोज जारी है, और तो और हमारी विस्टा की रिकवरी डिस्क भी काम नहीं कर रही है, अब विस्टा को डाऊनलोड कर इंस्टाल करना होगा।
यहाँ हम इसके सवाल के जबाब के लिये घूम चुके हैं – 

कुछ गंभीर चिंतन [लेपटॉप, गर्मी, लेखन की विषयवस्तु, ब्लॉगरी, अधूरापन]

      सुबह कुछ लिखने का मन था, लेपटॉप खोला लिखने के लिये तो पता नहीं क्या समस्या उसमें आ गयी है, तो अब मन मारकर अपने बेटे के संगणक पर लिख रहे हैं, क्योंकि जो सुविधाजनक स्थिती हाथों की और टाईपिंग पेड की  होती है, वह संगणक (डेस्कटॉप) पर नहीं।


    गर्मी ऐसी हो रही है कि अच्छे अच्छों के पसीने छुटा दिये हैं, कहीं भी बाहर थोड़ी देर के लिये खड़े हो जाओ, तो शर्ट और बनियान के नीचे से पीठ पर रीढ़ की हड्डी के ऊपर, गर्दन से पसीने की धार बहने लगती है, और पूरे जिस्म पर चिपचिपानी गर्मी से चिलचिलाता पसीना, यहाँ तक कि सुबह नहाकर गुसलखाने से बाहर निकलो तो बाहर निकलते ही पसीने से नहा लो, नहाना न नहाना सब बराबर है। सुबह उठने के बाद की ताजगी पता नहीं कहां खो गई है।

    सुबह मन हुआ कि चलो कुछ इस विषय पर लिखा जाये जो कि सभी के काम आयेगा, परंतु तभी अखबार आ गया, तो उसमें उसी विषय पर जिन दोनों विषयों पर हम लिखने की सोच रहे थे, वही आलेख छपे थे, लगा कि इन अखबार वालों को भी लगता है कि ब्लॉगर्स के लिये लिखने को कुछ छोड़ना नहीं है, वैसे लिखने की तो हम ८-१० दिन से सोच रहे थे, परंतु व्यस्तता के कारण संभव न हो सका।

    अब सोच रहे हैं कि वापस नये सिरे से विषयवस्तु पर सोचा जाये और लिखा जाये, क्योंकि वित्तीय विषयों पर हिन्दी में लेखन बहुत ही कम है, जो कि आम जन को जागरुक बनाये। निवेश के मायने बताये।

    वैसे भी परेशानी बताकर तो आती नहीं है, जो काम हम चाहते हैं कि हो जाये तो अगर आसान काम भी होगा तो भी उसमें इतनी मुश्किलें आयेंगी, कि हम भी सोचेंगे कि वाकई जब समय खराब हो तो छोटी से छोटी मुश्किल भी बड़ी हो जाती है। वैसे एक बात और हम शायद उल्टा सोचते हैं, जब समय खराब होने की बातें कर रहे होते हैं, तो शायद समय अच्छा चल रहा होता है, क्योंकि अगर खराब होता तो बहुत कुछ खराब हो सकता था, परंतु कुछ नहीं हुआ। तो ये सोचकर शांति रखना चाहिये और संतुष्टि से जीवन बिताना चाहिये।

    वैसे भी आज के लेखन के विषय पर जो हमने सोचा था, हम उससे पथभ्रष्ट हो चुके हैं, जो विषय था वो तो मीठे सपनीले सपने के साथ ही खत्म हो गया, जब तक याद था तब तक हमारा निजी संगणक (लेपटॉप) ही नहीं खुला। अब भूल बिसार गये। जल्दी ही कुछ नई रचनाएँ लिखने की जरुरत है, जो हमारी उँगलियों की खुराक है।

    कल ही हमारी श्रीमतीजी ने बोला कि क्या हुआ आज संगणक नहीं खुला और ब्लॉगरी शुरु नहीं हुई, तो हमें अहसास हुआ कि हमारे साथ ही कुछ गलत है, क्यों मन उचाट हुआ जा रहा है, क्यों मन विमुख हुआ जा रहा है, लगता है जिंदगी में कुछ चीजें अधूरी हैं, अधूरेपन का अहसास होता है, इस रिक्तता की पूर्ति कैसे होगी पता नहीं ?

ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – ८ [बच्चों की चिल्लपों पूरी ट्रेन में, और एक ब्लॉगर से मुलाकात] आखिरी भाग

पहला भागदूसरा भाग, तीसरा भाग, चौथा भाग, पाँचवा भाग, छठा भाग, सातवां भाग

    ट्रेन में हमारे बेटेलाल को खेलने के लिये अपनी ही उम्र का एक और दोस्त अपने ही कंपार्टमेंट में मिल गया, और क्या मस्ती शुरु की है, दोनों एक से बढ़कर एक करतब दिखाने की कोशिश कर रहे थे। पूरा डब्बा ही बच्चों से भरा हुआ था, लग रहा था कि अभी स्कूल की छुट्टियाँ चल रही हैं।

    ट्रेन में बैठते ही हमारे बेटेलाल को भूख लगने लगती है चाय पीने की इच्छा होने लगती है, उस वक्त तो कुछ भी खिला लो पता नहीं उनके पेट में कौन घुसकर बैठ जाता है।

    बेटेलाल अपने दोस्त के साथ मस्ती में मगन थे, फ़िर शौक चर्राया कि अपर बर्थ पर जायेंगे, तो बस फ़ट से अपर बर्थ पर चढ़ लिये, उनके दोस्त के मम्मी और पापा हमसे कहते रहे कि अरे गिर जायेगा, हम बोले हमने ट्रेंड किया है चिंता नहीं कीजिये नहीं गिरेगा। तो बस उसकी देखा देखी उनके दोस्त भी अपर बर्थ पर जाने की जिद करने लगे, उनके पापा ने चढ़ा तो दिया पर उनका दिल घबरा रहा था, अपर बर्थ पर जाने के बाद तो दोस्त की भी हालत खराब हो गई, वो झट से नीचे आने की जिद करने लगा, तो बेटेलाल ने खूब मजाक उडाई। फ़िर वो भी नीचे आ गये आखिर उनके दोस्त जो नीचे आ गये थे। बस फ़िर रुमाल से पिस्टल बनाकर खेलना शुरु किया फ़िर तकिये से मारा मारी। एक और लड़का जो कि देहरादून से आ रहा था और इंदौर जा रहा था, बोला कि इन बच्चों में कितनी एनर्जी रहती है जब तक जागते रहेंगे तब तक मस्ती ही चलती रहती है और मुँह बंद नहीं होता। काश अपने अंदर भी अभी इतनी एनर्जी होती।

    खैर फ़िर खाना शुरु किया गया, और फ़िर बेटेलाल को पकड़ कर अपर बर्थ पर ले गये कि बेटा अब बाप बेटे दोनों मिलकर सोयेंगे। फ़िर उन्हें २-३ कहानी सुनाई पर सोने का नाम नहीं लिया, बोले कि लाईट जल रही है, पहले उसे बंद करवाओ, तो लाईट बंद करवाई फ़िर तो २ मिनिट भी नहीं लगे और सो लिये। हम फ़िर नीचे उतर कर आये और बर्थ खोलकर बेडरोल व्यवस्थित किया और बेटेलाल को मिडिल बर्थ पर सुलाकर, और अपने बेग की टेक लगा दी जिससे गिरे नहीं। और सोने चल दिये क्योंकि सुबह ५ बजे उज्जैन आ जाता है। रात को एक बार फ़िर नींद खुली तो देखा कहीं ट्रेन रुकी हुई है, पता चला कि ट्रेन ३ घंटे देरी से चल रही है, और किसी पैसेन्जर ट्रेन के लिये इस एक्सप्रेस ट्रेन को रोका गया है। हम फ़िर सो लिये सुबह छ: बजे हमारे बेटेलाल की सुप्रभात हो गई, और फ़िर चढ़ गये हमारे ऊपर कि डैडी उठो सुबह हो गई, उज्जैन आने वाला है देखा तो शाजापुर आने को अभी समय था, हमने कहा बेटा सोने दो और खुद भी सो जाओ या खिड़की के पास बैठकर बाहर के नजारे देखो। हम तो सो लिये पर बेटेलाल ने अपनी माँ की खासी परेड ली। सुबह साढ़े सात हमारे बेटेलाल फ़िर जोर से चिल्लाये डैडी उज्जैन आ गया, हमने कहा अरे अभी नहीं आयेगा, अभी तो कम से कम आधा घंटा और लगेगा, तो नीचे से हमारी घरवाली और आंटी दोनों बोलीं एक स्वर में “उज्जैन आ गया है”, अब तो हम बिजली की फ़ुर्ती से नीचे उतरे और फ़टाफ़ट समान उठाकर उतर लिये।

   प्लेटफ़ॉर्म नंबर ६ पर आने की जगह आज रेल्वे ने हम पर कृपा करके ट्रेन को प्लेटफ़ॉर्म नंबर १ पर लगाया था, तो हमारी तो बांछें खिल गईं, बस फ़िर बाहर निकले तो ऑटो करने की इच्छा नहीं थी, तांगे में जाने को जी चाह रहा था, पर एक ऑटो वाला पट गया, तो तांगे को मन मसोस कर छोड़ ऑटो में चल दिये।

    दो दिन जमकर नींद निकाली गय़ी यहाँ तक कि दोस्तों को भी नहीं बताया कि हम उज्जैन में हैं। फ़िर किसी तरह तीसरे दिन घर से निकले भरी दोपहर में दोस्तों से मिले फ़िर सुरेश चिपलूनकर जी से मिले और बहुत सारी बातें की। फ़िर चल दिये घर क्योंकि महाकाल जाना था, हमारा महाकाल जाने का प्रिय समय रात को ९.३० बजे का है, क्योंकि उस समय बिना भीड़ के अच्छे से दर्शन हो जाते हैं, और नदी भी अच्छी लगती है, रामघाट पर। फ़िर वहाँ कालाखट्टा बर्फ़गोला और आते आते छत्री चौक पर फ़ेमस कुल्फ़ी। उसके एक दिन पहले ही शाम परिवार के साथ घूमने गये थे तो पानी बताशे और फ़्रीगंज में फ़ेमस कुल्फ़ी खाई थी।

    चौथे दिन याने कि १९ मई को वापिस हमें मुंबई की यात्रा करनी थी और हम वापिस मुंबई चल दिये अवन्तिका एक्सप्रेस से, अपनी उज्जैन छोड़कर जहाँ हमारी आत्मा बसती है, जहाँ हमारे प्राण लगे रहते हैं, केवल पैसे कमाने के लिये इस पुण्य भूमि से दूर रह रहे हैं। बहुत बुरा लगता है। जल्दी ही वापिस उज्जैन जाने की इच्छा है, इस बारे में भी सुरेश चिपलूनकर जी से विस्तृत में बात हुई।

    मुंबई आते हुए भी बहुत सारी घटनाएँ हुई और लोग भी मिले परंतु कुछ खास नहीं, सुबह ५.३० पर ट्रेन बोरिवली पहुँच गय़ी और हम ऑटो पकड़कर १० मिनिट में अपने घर पहुँच गये। इस तरह हमारी लंबी यात्रा अंतत: सुखद रही।

कुल यात्रा २५२५ किलोमीटर की तय की गई।

ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – ७ [कुछ चित्र मेरी यात्रा के, धौलपुर, उज्जैन रामघाट, महाकाल नंदीगृह और विजयपथ उपन्यास]

धौलपुर के कुछ फ़ोटो, जो कि हमने रिक्शे पर से अपने नये मोबाईल से खींचे।
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धौलपुर स्टेशन के कुछ और फ़ोटो जिसमें हमारे “लाल” लाल रंग के कपड़ों में नजर आ रहे हैं, इन्हें श्टाईल में फ़ोटो खिंचाने का बहुत शौक है।

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स्टेशन के कुछ फ़ोटो और ट्रेन में बैठने के बाद के कुछ फ़ोटो…

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उज्जैन रामघाट के कुछ फ़ोटो, मतलब नदी किनारे, जहाँ सिंहस्थ पर पैर रखने की जगह नहीं होती है।

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महाकाल मंदिर उज्जैन के नंदीगृह में खींचा गया फ़ोटो

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विजयपथ उपन्यास जो कि इस बात उज्जैन प्रवास पर हमने पढ़ा। ओमप्रकाश कश्यप जी इसके लेखक हैं और आपका ब्लॉग भी है।

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जारी ….

ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – ६ [मोबाईल का अलार्म, मवाली दंपत्ति की असलियत सामने आई]

    झांसी से ट्रेन चलने लगी, अब कंपार्टमेंट में हम तीन लोग ही बचे, मवाली दंपत्ति और मैं। मवाली श्रीमती जी के पास उनके मोबाईल पर फ़ोन पर फ़ोन आये जा रहे थे पर वे उठा नहीं रही थीं, इस पर वे उस मवाली से बोलीं कि देखो कितने फ़ोन आ रहे हैं, और मैं उठा भी नहीं सकती, तो लड़का बोला कि फ़ोन उठाकर बात तो कर ही लो, इस पर लड़की बोली कि फ़ोन उठाया तो ट्रेन की आवाज आयेगी और उनको पता चल जायेगा कि मैं तुम्हारे साथ ट्रेन में हूँ। सुबह किसी स्टेशन पर पहुँचकर फ़ोन करुँगी और बोल दूँगी कि फ़ोन नीचे कमरे में था और मैं छत पर घूम रही थी।
    हमने भी अपना खाना निकाल कर खाना शुरु कर दिया था और साथ में यह घटनाक्रम हो रहा था, अब तो हमें पक्का यकीन हो गया कि ये शादीशुदा नहीं हैं और ये लड़की इसके चक्कर में आ गई है, या पता नहीं कुछ और पर रात घिरने के साथ ही उनकी हरकतें बढ़ने लगीं। लड़का और लड़की इस तरीके से बैठे थे कि वे चेहरे को चूम सकें और चूम भी रहे थे, हम बेचारे खिड़की के बाहर अँधेरे में ट्रेन से मनोहारी दृश्य देख रहे थे।
    अपना खाना हो गया और हमने अपने बैग से चादर और तकिया निकाल लिया कि एकाध घंटा सो लिया जाये अब धौलपुर १ बजे के पहले तो नहीं आने वाला है, और अपने मोबाईल में अलार्म भी लगा लिया, ये जानते हुए भी कि अगर एक बार सो गये तो फ़िर अलार्म क्या कोई नहीं उठा सकता है, जब तक कि नींद पूरी नहीं हो जाये। चादर बिछाई, तकिये में हवा भरी और लोअर बर्थ पर ही सो लिये, मवाली दंपत्ति ओह माफ़ कीजियेगा अब दंपत्ति नहीं कहूँगा केवल मवाली कहूँगा, क्योंकि अब पता चल गया है कि वे दंपत्ति नहीं हैं, वे भी सोने की तैयारी करने लगे, लड़के ने चादर अपर बर्थ पर बिछा दी और लड़की सोने के लिये चली गई, लड़का बाहर सिगरेट फ़ूँकने।
    हमने उससे जाने से पहले बोला कि भई हमें ग्वालियर में उठा देना, नहीं तो पता नहीं कहाँ उतरेंगे। वो ओके बोलकर चल दिया। इसी दौरान हमारी आँख लग गई, थोड़ी देर मतलब कितनी देर वो हमें भी नहीं पता पर आँख थोड़ी से खुली तो देखा कि मवाली लड़का ऊपर बर्थ पर बैठा हुआ है और लड़की उसकी गोदी में सिर रखकर लेटी हुई है। मोबाईल पर बातें हो रहीं थीं और हाथ भी घूम रहे थे, हमने सोचा कि ये सब देखने से अच्छा है कि सो ही जायें, और वैसे भी हमारी आँखें खुलने का नाम नहीं ले रही थीं। हम फ़िर सो लिये।
    फ़िर आँख खुली तो पाया कि ट्रेन ग्वालियर में खड़ी है, और ये मवाली लोग अपने में ही मशगूल हैं, पर देखने लायक स्थिती में नहीं हैं, पता नहीं लोग घर पर ये सब क्यों नहीं करते हैं ? क्या ये आजादी सबको अच्छी लगती है ? ये प्रश्न खुद से था या किसी ओर से ये भी नहीं पता। क्योंकि इस तरह के दृश्य अवन्तिका एक्सप्रेस जो कि मुंबई से इंदौर चलती है आम होते हैं, कालेज से आई नये लड़के लड़कियों की फ़ौज किसी सोफ़्टवेयर कंपनी में रिक्रूट हुई होती है और जहाँ ३-४ दिन की छूट्टियाँ हुईं तो रिजर्वेशन की मारा मारी तो होती ही है, आरक्षित बर्थ कम होती हैं तो लड़के लड़कियाँ युगल बनाकर अपर बर्थ पर एक दूसरे से चिपककर सो जाते हैं, पता नहीं ये सब अपनी संस्कृति का कितना ध्यान रखते हैं, पर ये आजादी निश्चित ही ठीक नहीं है। हम इस संदर्भ में और कुछ लिखना नहीं चाह रहे हैं, इसलिये माफ़ी चाहते हैं, क्योंकि ये सब देखकर मन खिन्न हो जाता है, कि माँ बाप ने पता नहीं कितने अरमानों से इन लोगों को भविष्य संवारने के लिये यहाँ भेजा है और ये देखो पता नहीं क्या संवार रहे हैं।
    ग्वालियर में हम उठ कर बैठ गये क्योंकि अब हमारा सफ़र केवल ४५ मिनिट का था और हम सोने का खतरा मोल नहीं लेना नहीं चाहते थे, ट्रेन अपनी फ़ुल रफ़्तार से भागी जा रही थी और हम खिड़की के पास बैठकर बाहर से आती गरम हवा का लुत्फ़ ले रहे थे। डबरा निकला फ़िर आया मुरैना स्टेशन तो हमने भी फ़ोन करके बोला कि मुरैना निकल गया है स्टेशन लेने भेज दो, क्योंकि रात को १ बजे धौलपुर में स्टेशन से अकेले निकलना सुरक्षित नहीं रहता है, लूट होती ही रहती है। हालांकि हमारे पास ऐसा कुछ था नहीं परंतु डर तो डर ही होता है।
    हम अपना समान लेकर ट्रेन के दरवाजे के पास आ गये, वहाँ पर लोग अपनी चादर बिछाकर सोये हुए थे जिनको रिजर्वेशन नहीं मिला था, निकलने के लिये पूरी जगह छोड़ी हुई थी कि किसी को आने जाने में तकलीफ़ न हो। रात थी इसलिये चंबल की घाटियाँ दिख नहीं रही थीं पर हम उन्हें महसूस कर रहे थे, मैंने २-३ बार इन बीहड़ घाटियों को बहुत पास से देखा है, जहाँ प्रसिद्ध डाकुओं ने राज किया है, और आज भी बहुत डाकू हैं। फ़िर चंबल का पुल आया वहाँ से धौलपुर केवल ५ मिनिट का रास्ता होता है। आखिरकार ट्रेन स्टेशन पर रुकी और हम चल दिये घर की ओर अपने साले साहब के साथ।
    शाम को वापिस उज्जैन के लिये निकलना था, इसलिये बातचीत सुबह पर छोड़कर चुपचाप सो लिये। बातचीत होती रही, साथ हम सोते भी रहे थकान के कारण, दिन में कहीं मिलने जाना था तो २-३ घंटे बाजार में मिल भी आये। धौलपुर में तो अभी से ही दोपहर मॆं लू चलने लगी थी, बहुत दिनों बाद लू का अहसास हुआ था। शाम को हमारी ट्रेन ५.३० बजे थी देहरादून इंदौर, ३ ए.सी. में पहले से ही रिजर्वेशन था इसलिये निश्चिंत थे कि बस गर्मी थोड़ी देर और सहनी है। जब घर से निकले थे तब ट्रेन केवल ५ मिनिट लेट बतायी गयी थी, और धीरे धीरे पूरे ५० मिनिट लेट हो गयी। रेल्वे की संचार क्षमता पर हमें कोई शक नहीं परंतु कार्य करने वाले तो आदमी ही हैं ना, कितनी ही बार हमने इस बाबत झांसी मंडल में शिकायत भी की है, परंतु वही ढ़ांक के तीन पात। हर बार झांसी मंडल से एक पत्र आ जाता है कि शिकायत दुरुस्त की गई है, अब आगे से शिकायत नहीं होगी, अब तो खैर हमने शिकायत करना ही बंद कर दी है।



जारी….