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कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – १२

प्रार्थनाचाटुकार: – प्रिया के रमण करने से थक जाने पर प्रेमी फ़िर रमण करने के लिये उसकी खुशामद करता है, मीठी-मीठी बातें करता है तथा थकान को दूर कर शरीर में ताजगी उत्पन्न करता है, उसी प्रकार शिप्रा नदी का पवन प्रेमियों के समान रमणियों की सम्भोग-थकान को दूर कर रहा है।
खण्डिता नायिका – जो पति के चरित्र पर सन्देह करती है

तो नायक उसे प्रसन्न करने के लिए मीठी-मीठी बातें बनाते हैं। साहित्य दर्पण में खण्डिता नायिका का लक्षण इस प्रकार किया है –

पार्श्वमेति प्रियो यस्या अन्यसंयोगचिह्नित:।
सा खण्डितेति कथिता धीरैरीर्ष्याकषायिता॥
अर्थात दूसरी स्त्री से संभोग से चिह्नित होकर प्रिय जिसके पास जाता है, ईर्ष्या से युक्त उस नायिका को ’खण्डिता’ कहते हैं।
परन्तु आचार्य मल्लिनाथ ने पूर्वोक्त खण्डिता नायिका की कल्पना का खण्डन किया है। उनका कथन है कि खण्डिता नायिका के साथ पहले जब रति ही नहीं हुई, फ़िर रति की थकावट दूर करने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।
कवि ने उज्जयिनी के वैभव का वर्णन करते हुए लिखा है –
समुद्र में जल तो रहता ही है तथा उसमें रत़्न भी रहते हैं, परन्तु विशाला के बाजारों में रत़्नों के ढेरों को देखकर ऐसा अनुमान होता है कि समुद्र के सारे रत़्न निकालकर इस बाजार में ही रख दिये गये हैं। अब समुद्र में केवल जलमात्र ही शेष बचा है और उसका रत़्नाकर नाम अयथार्थ हो गया है।
नलगिरि: – प्रद्योत के हाथी का नाम नलगिरि बताया है, जबकि कथासरित्सागर में नलगिरि के स्थान पर नडागिरि बताया है और यह राजा चण्डमहासेन का हाथी था।
प्राचीन काल में स्त्रियाँ सिर धोने के बाद केशों को सुगन्धित द्रव्यों के धुएँ से सुखाती थीं।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ११

उज्जयिनी के लिये मेघदूतम़् में महाकवि कालिदास ने लिखा है –
यक्ष मेघ को निर्देश देता है कि अवन्ति देश में पहुँचकर उज्जयिनी
में अवश्य जाना –
प्राप्यावन्तीनुदयनकथाकोविदग्रामवृद्धाऩ़्
पूर्वोद्दिष्टामुपसर पुरीं श्रीविशालां विशालाम़् ।
स्वल्पीभूते सुचरितफ़ले स्वर्गिणां गां गतानां
शेषै: पुण्यैर्हतमिव दिव: कान्तिमत्खण्डमेकम़्॥
अनुवाद : – जहाँ के ग्रामों के वृद्ध जन उदयन की कथाओं के जानने वाले हैं, ऐसे अवन्ति प्रदेश को प्राप्त कर, पहले बतायी गयी, सम्पत्ति से सम्पन्न, उज्जयिनी नाम की नगरी में जाना, (जो) मानो पुण्य कर्मों के फ़ल के कम हो जाने पर पृथ्वी पर आये हुए स्वर्ग वालों के (देवताओं के) शेष पुण्यों के द्वारा लाया गया स्वर्ग का एक उज्जवल टुकड़ा है।
उदयनकथाकोविदग्रामवृद्धाऩ़् – कवि ने उदयन की कथा की और संकेत किया है। यह कथा मूल रुप से गुणाढ़्य की वृहतकथा में मिलती है, परन्तु यह ग्रन्थ पैशाची में लिखा है और अपने मूलरुप में आज अप्राप्य है। इसका संस्कृत अनुवाद सोमदेव ने कथासरित्सागर तथा क्षेमेन्द्र ने वृहत्कथा-मञ्जरी नाम से किया है। कथासरित्सागर में यह कथा लम्बक २ से ८ तक विस्तृत रुप से वर्णित है। संक्षेप में कथा इस प्रकार है – “पृथ्वी पर वत्स नाम का एक देश है, जिसमें कौशाम्बी नाम की नगरी है। वहां परीक्षित का पौत्र जनमेजय का पुत्र शतानीक राजा था। उसके सहस्त्रानीक नामक पुत्र था। सहस्त्रानीक की पत़्नी का नाम मृगावती था। उनके पुत्र का नाम उदयन था। उदयन ने उज्जैन के राजा चण्डमहासेन की पुत्री वासवदत्ता का अपहरण कर उससे विवाह किया। उसके बाद मगध के राजा प्रद्योत की पुत्री पद्मावती से विवाह कर लिया। उसके वासवदत्ता से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम नरवाहनदत्त रखा।
इसके अतिरिक्त यह कथा भास के सवप्नवासवदत्तम़् तथा प्रतिज्ञायौगन्धरायणम़् नामक नाटकों में भी लगभग इसी रुप में मिलती है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – १०

मेघ को नायक और निर्विन्ध्या नदी को नायिका बनाते हुए कालिदास कहते हैं कि नायिका के कमर पर बाँधी हुई करधनी, झन-झन करती हुई कामोद्दीपक मानी जाती है। तरंगों के चलायमान होने पर शब्द करते हुए पक्षियों की पंक्तियाँ निर्विन्ध्या की करधनी मानी गयी है।
प्रणयवचनम़् – जिस प्रकार नायिका कमर की करधनी की झंकार बढ़ाकर मदमाती चाल से बार बार नाभी प्रदर्शन द्वारा नायक प्रणय का निमन्त्रण देती है, उसी प्रकार

निर्विन्ध्या भी तरंगों के चलने से शब्द करते हुये पक्षियों की पंक्तियों से, पत्थरों पर लड़खड़ा कर बहने से अर्थात मदमाती चाल से तथा बार बार भँवरों के प्रदर्शन से अपने नायक मेघ को प्रणय का निमन्त्रण दे रही है।हाव भाव के द्वारा ही प्रेमिका प्रेमी को प्रणय का प्रथम वचन कहती है, मुख से नहीं बोलती, अपितु इस प्रकार अंग प्रदर्शन करती है ये ही उसके प्रणय वचन है।

नदी को विरहणी नायिका का आरोप किया गया है, इसलिए उसकी क्षीण जलधारा को वेणी कहा गया है। प्राचीन काल में विरहिणी स्त्रियाँ केशों की केवल एक वेणी बनाती थीं। रतिरहस्य के अनुसार यहाँ पाँचवी कामावस्था का वर्णन किया गया है –
नयनप्रीति: प्रथमं चित्राऽऽसड़्गस्ततोऽथ सड़्कल्प:।
निद्राच्छेदस्तनुता विषयनिवृत्तिस्त्रपानाश:॥
उन्मादो मूर्च्छा मृतितित्येता: स्मरदशा: दशैव स्यु:।
अर्थात पहली नेत्र प्रीति, दूसरी चित्र की आसक्ति, तीसरी संकल्प, चौथी निद्रानाश, पाँचवी कृशता, छठी शब्द स्पर्श आदि विषयों की निवृत्ति, सातवीं लजजानाश, आठवीं पागलपन, नवीं मूर्च्छा और दसवीं मृत्यु – इस प्रकार दस कामावस्थायें हैं।
काली सिन्धु – मालवा में काली सिन्धु नाम की एक छोटी पहाड़ी नदी है, जो कि चम्बल की सहायक है। यह नदी जिला धार, तहसील बागली में बरझेरी ग्राम के पास विन्ध्य पर्वत के २३७० फ़ीट ऊँचे शिखर से निकलती है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ९

वेत्रवती – प्राचीन कालीन वेत्रवती को आधुनिक युग की बेतवा नाम से जाना जाता है और उसके किनारे विदिशा नगर था जो दशार्ण देश की राजधानी था। यह विन्ध्याचल के उत्तर से निकलती है तथा भिलसा (प्राचीन काल का विदिशा)  में होती हुई कालपी के निकट यमुना नदी में मिल जाती है।
विदिशा नगरी में वेश्याएँ स्वच्छन्द विहार करती हुई, पर्वत की कन्दराओं में पहुँचकर वहाँ के नागरिकों के साथ रमण

करती थीं। वेश्याएँ अपने शरीर पर इत्र आदि सुगन्धित द्रव्य इतनी मात्रा में लगाती थीं कि जिससे उस पर्वत की कन्दराएँ सुगन्धित हो उठती थीं।
उज्जयिनी – उज्जयिनी प्राचीन काल में अवन्ति देश की राजधानी थी, यह शिप्रा नदी के तट पर स्थित है और यहाँ पर महाकाल शंकर का मन्दिर है। अनेक स्थलों पर इसे राजा विक्रमादित्य की राजधानी भी कहा गया है। इसे विशाला तथा अवन्ति भी कहते हैं। मोक्ष प्रदान करने वाली सात पुरियों में इसकी भी गणना की गयी है –
अयोध्या मथुरा मायाकाशी काञ्ची ह्मवन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिका:॥
इस प्रकार इस श्लोक से प्रकट होता है कि कालिदास का उज्जयिनी के प्रति विशेष झुकाव है; क्योंकि मेघ के सीधे मार्ग में उज्जयिनी नहीं आती है, फ़िर भी यक्ष उससे आग्रह करता है कि तू उज्जयिनी होकर अवश्य जाना, भले ही तेरा मार्ग वक्र हो जाये।
उज्जयिनी का वर्णन – उज्जयिनी की सुन्दरियाँ शाम को महलों पर खड़ी होती हैं या घूमती हैं। (यक्ष मेघ से कह रहा है -)जब तुम्हारी बिजली चमकेगी तो उनकी आँखें भय के कारण चञ्चल हो उठेंगी, अत: यदि तुमने इन दृश्य को नहीं देखा तो वास्तव में तुम जीवन के वास्तविक आनन्द से वञ्चित रह जाओगे।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ८

किरात आदि कुछ विशेष जातियाँ जंगल में घूमती रहती हैं। उनकी स्त्रियाँ लकड़ी, फ़ल, शहद आदि एकत्र करने के लिये इधर-उधर घूमती रहती हैं। वहीं जंगल में पत्तों की शय्या बनाकर कुंञ्जों में अपने पति के साथ रमण

करती हैं। यक्ष मेघ से उन कुञ्जों को देखकर आनन्द लेने का संकेत करता है।

मेघों की गति – मेघ जब जल से युक्त रहते हैं तो उनकी गति धीमी रहती है। वर्षा द्वारा जल बरसा देने पर वे हल्के हो जाते हैं और उनकी गति तीव्र हो जाती है।
रेवा – नर्मदा का ही दूसरा नाम रेवा है। यह आम्रकूट पर्वत से निकलती है। भारतवर्ष की पवित्र सात नदियों में से यह भी एक है। एक स्थल पर इस प्रकार कहा गया है – ’गंगा स्नानेन यत्पुण्यं रेवादर्शनेन च।”’ अर्थात गंगा स्नान करने जितना पुण्य रेवा के दर्शन करने मात्र से मिलता है।
नर्मदा जामुन के निकुञ्जों में होकर बहती है। आषाढ़ मास में जामुन के फ़ल पकते हैं। निकुञ्ज नर्मदा के वेग को मन्द कर देते हैं तथा जामुन का फ़ल उसके जल में मिश्रित हो जाता है, जिस कारण उसका जल स्वास्थ्यवर्धक हो जाता है।
आयुर्वेद के अनुसार वमन करने के बाद कफ़ का शोषण करने के लिये लघु, कड़वा और कषाय पानी पिलाने से वात प्रकोप नहीं होता।
मानयिष्यन्ति – प्राय: पुरुष स्त्रियों का आलिंगन करने के लिये उतावले रहते हैं और वे ही अपनी ओर से पहल किया करते हैं। परन्तु जब मेघ की गर्जना को सुनकर भयभीत होकर स्त्रियाँ स्वयं ही अपनी ओर से पहल करके अपने प्रिय सिद्ध पुरुषों का आलिंगन करेंगी, तो सिद्ध पुरुष बहुत ही प्रसन्न होंगे। इस कारण मेघ को धन्यवाद देंगे और उसके कृतज्ञ होंगे।
शुक्लापाङ्ग – मोरों की आंखे के कोये (कोने) श्वेत होते हैं इसलिये इन्हें शुक्लापाङ्ग भी कहते हैं।
ऐसा भी प्रसिद्ध है कि वर्षा ऋतु में मयूर जब मस्त होकर नाचते हैं, तो उनकी आंखों से आँसू गिरते हैं, जिन्हें पीने से मोरनी गर्भवती हो जाती हैं।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ७

प्रेमाश्रु – ग्रीष्म ऋतु की भयंकर गर्मी पर्वत को तपा डालती है तथा जब प्रथम वर्षा की बूँदें उस पर गिरती हैं तो उसमें से वाष्प निकलती है। आषाढ़ में लम्बे समय के बाद पर्वत जब मेघ से मिलता है, तो उसकी बूँदों से पर्वत से गर्म-गर्म वाष्प निकलती है। कवि ने कल्पना की है कि वे विरह के आँसू निकल रहे हैं।
पत्थरों से टकराने के कारण नदियों का जल हल्का व
स्वास्थ्यकारी माना जाता है।
इन्द्रधनुष वल्मीक के भीतर स्थित महानाग की मणि के किरण समूह से उत्पन्न होता है। कुछ इसे शेषनाग के कुल के सर्पों के नि:श्वास से उत्पन्न बताते हैं। वराहमिहिर ने इन्द्रधनुष की उत्पत्ति के विषय में इस प्रकार लिखा है – ’सूर्यस्य विविधवर्णा: पवनेन विघट्टिता: करा: साभ्रं वियति धनु:संस्थाना ये दृश्यन्ते तदिन्द्रधनु:।’ अर्थात जो सूर्य की अनेक वर्णों की किरणें वायु से बिखरी हुई होकर मेघ-युक्त आकाश में धनुष के आकार की दिखलायी देती हैं, उसे इन्द्रधनुष कहते हैं।
ग्रामीण स्त्रियाँ नागरिक स्त्रियों की अपेक्षा भोली-भाली होती हैं तथा वे कटाक्षपात आदि श्रृंगारिक चेष्टाओं से अनभिज्ञ रहती हैं।
आम्रकूट पर्वत – आम्रकूट नाम वाला पर्वत, इसका यह नाम सार्थक है, क्योंकि इसके आस-पास के जंगलों में आम के वृक्ष अधिकता में पाये जाते हैं। यह विन्ध्याचल पर्वत का पूर्वी भाग है। यहाँ से नर्मदा नदी निकलती है। आधुनिक अमरकण्टक को आम्रकूट माना जाता है।
विमखो न भवति – कोई भी व्यक्ति पहले किये गये उपकारों को नहीं भूलता है और फ़िर यदि कोई मित्र, जिसने उसके ऊपर उपकार किये हैं, उसके पास आता है तो वह उन पूर्व उपकारों को सोचकर उसका स्वागत करता है तथा यथासम्भव सहायता भी करता है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ६

विरहणी स्त्रियों का चित्रण – जिन स्त्रियों के पति परदेश चले गये हैं, ऐसी स्त्रियां शारीरिक श्रृंगार नहीं करती हैं। ऐसी स्थिती में उनके केश  बिखरे होने के कारण मुख और आंखों पर आये हुए हैं। वे स्त्रियाँ मेघ को देखने के कारण उन केशों के अग्रभाग को ऊपर से पकड़े होंगी।
प्राचीन काल में आधुनिक युग के समान आवागमन के साधन नहीं थे, इसलिये व्यक्ति वर्षा ऋतु अपने घर व्यतीत करते थे। शेष आठ माह घर
से बाहत अपना व्यापार, नौकरी आदि करते थे। इसी कारण हिन्दुओं के प्राय: सभी त्योहार (होली को छोड़्कर) इसी वर्षा ऋतु में होते हैं। दीपावली मनाने के बाद व्यक्ति बाहर चले जाते थे और वर्षा आरम्भ होने के साथ ही अपने घर लौट आते थे। इस कारण आकाश में मेघ को देखकर उनकी पत़्नियों को यह विश्वास होने लगता था कि अब उनके पति लौटने वाले हैं।
पुत्र को जन्म देने कारण पत़्नी को ’जाया’ कहा जाता है।
कुसुमसदृशं – पुष्प के समान (कोमल) प्राण वाले। उत्तररामचरितमानस में भी स्त्रियों के चित्त को पुष्प के समान कोमल बताया गया है।
शिलीन्ध्र को कुकुरमत्ता भी कहते हैं। ग्रामों में प्राय: छोटे छोटे बच्चे साँप की छत्री भी कहते हैं। यह वर्षा ऋतु में पृथ्वी को फ़ोड़ कर निकलते हैं। कुकुरमुत्तों के उगने से पृथ्वी का उपजाऊ होना माना जाता है।
मानस सरोवर हिमालय के ऊपर, कैलाश पर्वत पर स्थित है। कैलाश पर्वत हिमालय के उत्तर में स्थित है। कहते हैं कि इसको ब्रह्मा ने अपने मन से बनाया था। इसलिए इसे मानस या ब्रह्मसर भी कहा जाता है। वर्षाकाल से भिन्न समय में मानसरोवर हिम से दूषित हो जाता है और हिम से हंसों को रोग लग जाता है। इसलिये वर्षाकाल में ही राजहंस मानसरोवर जाते हैं तथा शरदऋतु के आगमन के साथ ही मैदानों में आ जाते हैं।
काव्यों में हंसों का कमल-नाल खाना प्रसिद्ध है। वे इसका दूध पीते हैं।
राजहंस – एक श्वेत पक्षी जिसकी चोंच और पैर लाल होते हैं, जो नीर-क्षीर-विवेक के लिये प्रसिद्ध है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – ५

यक्ष का प्रिया विरह – यक्ष कितना दुर्बल हो गया है अपनी प्रिये से दूर होकर कि उसके हाथ में जो स्वर्ण कंकण पहन रखा था वह ढ़ीला हो जाने के कारण गिर पड़ा था, जिससे उसकी कलाई सूनी हो गई थी।
कालिदास के अनुसार – आषाढ़ के प्रथम दिन से ही वर्षा का प्रारम्भ होता है।
वप्रक्रीड़ा उस क्रीड़ा को कहते हैं जब प्राय: मस्त सांड, हाथी, भैंसे
आदि पशु टीले की मिट्टी को सींग से उखाड़ते हैं, इसे उत्खातकेलि भी कहते हैं।
सुखी किसे माना जाता है – प्रिया से युक्त वयक्ति को, धन से युक्त को नहीं।
अर्घ्य किसी विशेष व्यक्ति, अतिथि या देवता आदि को दिया जाता है।
गुह्यक और यक्ष ये दो अलग अलग देवयोनियाँ मानी जाती हैं, परंतु कालिदास ने इन दोनों को एक-दूसरे का पर्यायवाची माना है।
अत्यधिक काम-पीड़ित व्यक्ति अपना विवेक खो बैठते हैं और उन्हें जड़-चेतन में भी भेद प्रतीत नहीं होता। प्राय: काम-पीड़ित व्यक्ति विरह के क्षणों में अपनी प्रिया के फ़ोटो, वस्त्रादि से बातें करते हैं।
पुराणों के अनुसार प्रलयकाल में संहार करने वाले मेघों को पुष्करावर्तक कहते हैं। इसी कारण पुष्कर और आवर्तक को मेघ जाति में श्रेष्ठ माना जाता है।
अलका – यह धन के देवता कुबेर की राजधानी मानी जाती है। इसमें बड़े-बड़े धनी यक्षों का निवास बताया गया है। यह कैलाश पर्वत पर स्थित मानी जाती है। इसके वसुधारा, वसुस्थली तथा प्रभा ये अन्य नाम भी कहे जाते हैं।
पुराणों के अनुसार कुबेर की राजधानी अलका के बाहर एक उद्यान था जिसे गन्धर्वों के एक राजा चित्ररथ ने बनाया था। उस अलका के महल, बाह्य उद्यान में रहने वाले शिव के सिर पर स्थित चन्द्रमा की चाँदनी से प्रकाशित होते रहते थे।
पवनपदवीम़् – क्योंकि वायु सदा आकाश में ही चलती है, इस कारण आकाश को वायु मार्ग भी कहते हैं।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बार में – ४

मेघदूतम़् में यक्ष को एक वर्ष अपनी यक्षिणी से दूर रहने का शाप मिला है, यक्ष रामगिरी पर्वत के आश्रम में निवास करता है और यक्षिणी अलकापुरी हिमालय पर निवास करती है।
शाप का कारण – कवि ने शाप का कारण यक्ष द्वारा अपने कार्य से असावधानी करना बताया है, परंतु साफ़ साफ़ नहीं बताया गया है कि शाप
का कारण क्या था। कुछ विद्वानों के अनुसार –

  • ब्रह्मपुराण में शाप का कारण स्वामी की पूजा के लिये फ़ूलों का न लाना बताया गया है।
  • कुबेर के उद्योगों की ठीक प्रकार से रक्षा न करना मानते हैं।
  • यक्ष ने अपने गण की प्रथा के अनुसार सुहागरात को अपनी पत़्नी पर गणपति के अधिकार को सहन नहीं किया, अत: गण के नियम के अनुसार उसे एक वर्ष का प्रवास अंगीकार करना पड़ा।

शाप की अवधि देवोत्थान एकादशी को जब विष्णु भगवान शेष शय्या से उठेंगे उसी दिन मेरा शाप खत्म होगा। अत: यह स्पष्ट होता है कि यक्ष को शाप देवोत्थान एकादशी के दिन ही दिया गया होगा।
कवि ने यक्ष का नाम भी नहीं दिया है क्योंकि उसने स्वामी की आज्ञा का पालन नहीं किया और ऐसे व्यक्ति का नाम देना परम्परा से निषिद्ध था।
यक्ष देवताओं की ही श्रेणी है। ’अष्टविकल्पो देव:’ इस उक्ति के अनुसार – ब्रह्मा, प्रजापति, इन्द्र, पितृगण, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और पिशाच ये देवताओं के आठ भेद हैं। यक्षों का कार्य कुबेर के उद्यान की रक्षा करना है।
रामगिरि पर्वत जहाँ यक्ष ने एक वर्ष व्यतीत किया था, प्रसिद्ध टीकाकार वल्लभ मल्लिनाथ ने इस रामगिरि कोचित्रकूट माना है।
ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिये ग्रन्थ के आरंभ में मंगलाचरण किया जाता है। मंगलाचरण तीन प्रकार का होता है –
१. आशीर्वादात्मक
२. नमस्क्रियात्मक
३. वस्तुनिर्देशात्मक
’आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वाऽपि तन्मुखम़्’ यहाँ इस काव्य में तीसरे प्रकार का अर्थात वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण अपनाया गया है।
सम्पूर्ण काव्य में मन्दाक्रांता छन्द का प्रयोग हुआ है, जिसके प्रत्येक पाद में १७ अक्षर होते हैं। वे मगण, भगण, नगण, तगण, और दो गुरु इस क्रम में होते हैं तथा चौथे, दसवें, सत्रहवें अक्षर पर यति होती है।
मेघदूत में विप्रलम्भ श्रंगार का वर्णन है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बार में – 3 (महाकवि कालिदास की सात रचनाएँ भाग – २)

५. मालविकाग्निमित्र – यह श्रंगार रस प्रधान ५ अंकों का नाटक है। यह कालिदास की प्रथम नाट्य कृति है; इसलिए इसमें वह लालित्य, माधुर्य एवं भावगाम्भीर्य दृष्टिगोचर नहीं होता तो विक्रमोर्वशीय अथवा अभिज्ञानशाकुन्तलम में है। विदिशा का राजा अग्निमित्र

इस नाटक का नायक है तथा विदर्भराज की भगिनी मालविका इसकी नायिका है। इस नाटक में इन दोनों की प्रणय कथा है। “वस्तुत: यह नाटक राजमहलों में चलने वाले प्रणय षड़्यन्त्रों का उन्मूलक है तथा इसमें नाट्यक्रिया का समग्र सूत्र विदूषक के हाथों में समर्पित है।”

कालिदास ने प्रारम्भ में ही सूत्रधार से कहलवाया है –
पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम़्।
सन्त: परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढ: परप्रत्ययनेयबुद्धि:॥
अर्थात पुरानी होने से ही न तो सभी वस्तुएँ अच्छी होती हैं और न नयी होने से बुरी तथा हेय। विवेकशील व्यक्ति अपनी बुद्धि से परीक्षा करके श्रेष्ठकर वस्तु को अंगीकार कर लेते हैं और मूर्ख लोग दूसरों को बताने पर ग्राह्य अथवा अग्राह्य का निर्णय करते हैं।
वस्तुत: यह नाटक नाट्य-साहित्य के वैभवशाली अध्याय का प्रथम पृष्ठ है।
६. विक्रमोर्वशीय – यह पाँच अंकों का एक त्रोटक (उपरुपक) है, इसमें राजा पुरुरवा तथा अप्सरा उर्वशी की प्रणय कथा वर्णित है। इसमें श्रंगार रस की प्रधानता है, पात्रों की संख्या कम है। इसकी कथा ऋग्वेद (१०/२५) तथा शतपथ ब्राह्मण (११/५/१) से ली गयी है। महाकवि कालिदास ने इस नाटक को मानवीय प्रेम की अत्यन्त मधुर एवं सुकुमार कहानी में परिणत कर दिया है। इसके प्राकृति दृश्य बड़े रमणीय हैं।
७. अभिज्ञानशाकुन्तलम़् – अभिज्ञानशाकुन्तलम़् न केवल संस्कृत-साहित्य का, अपितु विश्वसाहित्य का सर्वोत्कृष्ट नाटक है। यह कालिदास की अन्तिम रचना है। इसके सात अंकों में राजा दुष्यन्त और शकुन्तला की प्रणय-कथा निबद्ध है। इसका कथानक महाभारत के आदि पर्व के शकुन्तलोपाख्यान से लिया गया है। कण्व के माध्यम से एक पिता का पुत्री को दिया गया उपदेश आज २,००० वर्षों के बाद भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उस समय में था।
भारतीय आलोचकों ने ’काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला’ कहकर इस नाटक की प्रशंसा की है। भारतीय आलोचकों के समान ही विदेशी आलोचकों ने भी इस नाटक की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। जब सन १७९१ में जार्जफ़ोस्टर ने इसका जर्मनी में अनुवाद किया, तो उसे देखकर जर्मन विद्वान गेटे इतने गद्गद हुए कि उन्होंने उसकी प्रशंसा में एक कविता लिख डाली थी।