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दिल का दौरा

सौरव गाँगुली को दिल का दौरा 2 जनवरी 2021 को पड़ा, और उन्हें तत्काल ही अस्पताल में ले जाया गया, तथा अब एन्जियोप्लास्टी भी की गई है, हमने यह अखबारों में व सोशल मीडिया में पढ़ा। दादा जल्दी स्वस्थ हों, हमारी शुभकामनायें उनके साथ हैं।

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सब जगह यही बात चल रही थी कि खिलाड़ी को कैसे दिल का दौरा पड़ सकता है, खिलाड़ी तो इतना दौड़ते भागते हैं, फिर भी उन्हें दिल का दौरा कैसे पड़ सकता है। दरअसल खिलाड़ी होने से बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि दिल का दौरा मतलब कि हमारे ह्रदय में ब्लॉकेज हो जाना, वो कोलोस्ट्रोल व ट्राईग्लिसराईड से होता है।
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कोलोस्ट्रोल याने कि कोई भी डेयरी उत्पाद जैसे कि दूध, घी, अंडा, पनीर, मांसाहार कुछ भी, वहीं दूसरी चीज है ट्राईग्लिसराईड तो यह मिलता है तेल में, भले कोई तेल हो, बादाम में सबसे ज्यादा होता है, नारियल में भी। तेल कोई हो वह आपको ट्राईग्लिसराईड देगा ही। एक बात और बता दें यहाँ कि तेल को अगर ज्यादा बार उपयोग किया जाता है तो उसमें ट्रांसफैट भी होता है, जो कि बहुत ही ज्यादा हानिकारक है, तेल को मात्र एक बार ही उपयोग करना चाहिये, उसके बाद उसमें ट्रांसफैट बनने लगता है, पर हम भारतीय लोग तेल को जाने कितनी बार उपयोग कर लेते हैं।
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तो होता यह है कि 18 वर्ष की उम्र तक शरीर की ग्रोथ होती रहती है और उसके बाद लंबाई बढ़ना बंद हो जाती है, पर खानपान में कोई सुधार नहीं होता, तो लंबाई की जगह मोटाई बढ़ने लगती है। जितना ज्यादा आप कोलोस्ट्रोल वाली चीजों का उपयोग करेंगे, उतनी ही जल्दी ह्रदयाघात की समस्या होगी। विस्तार से इस पर एक ओर पोस्ट लिख दी जायेगी।
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तो  कोलोस्ट्रोल व ट्राईग्लिसराईड डैडली कॉम्बो हैं, और उच्च रक्ताचाप तो सोने पर सुहागा है। हम यही कहेंगे कि डेयरी उत्पादों, मांसाहार, धूम्रपान, मद्यपान व तेल सबसे ज्यादा हानिकारक है। न उपयोग करें, उतना अच्छा। दादा तो बड़ी हस्ती हैं, प्रधानमंत्री जी फोन करके उनसे हालचाल पूछते हैं, व उनके लिये भारत के बेस्ट ह्रदय रोग विशेषज्ञों की तत्काल ही समिति बना दी गई, पर हम साधारण लोग हैं, हमारे लिये तो सामान्य सा डॉक्टर भी हमें लाईन में बिठायेगा। अपना व परिवार की सेहत का ध्यान हमें ही रखना है।

मानसिक परेशानी

कुछ बातें जो हमें परेशान करती हैं, हमेशा ही दिमाग में घूमती ही रहती हैं। और हम उनके अपने दिमाग में घूमते रहने से ओर ज्यादा परेशान हो जाते हैं। दिन हो या रात हो, जाग रहे हों या सो रहे हों, बस वही बातें दिमाग में कहीं न कहीं घूमती रहती हैं। कई बार यह बड़ी मानसिक परेशानी की वजह हो जाती है। हम चाहे कुछ भी कर रहे हों, पर हमेशा ही वह परेशानी हमारे दिमाग में घूमती ही रहती है। दिमाग शांत नहीं रहता, हमेशा ही अशांत रहता है। दिमाग में जैसे कोई फितूर घुस गया हो।

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कई बार तो लगता है कि व्यक्ति साईको हो जाता है, हम कहीं भी कितना भी भाग लें, पर उन डर के विचारों से पीछा नहीं छुड़ा पाते हैं, और जब तक कि वह परेशानी सुलझ नहीं जाती, तब तक हम किसी भी बात को सही तरीके से कर ही नहीं पाते, अपना कोई भी मनपसंदीदा काम हो, कोई फिल्म ही क्यों न हो, या फिर आपका कोई प्रिय लेखक ही क्यों न हो। भले घर में मनसपंदीदा व्यंजन बना हो, पर जब इस प्रकार की परेशानी से जूझ रहे होते हैं तो वह भी अच्छा नहीं लगता।
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कहना आसान  है कि अपना ध्यान भटकाओ, उसके बारे में मत सोचो, कुछ ओर कर लो, कहीं घूम आओ, पर दरअसल परेशानी हमें छोड़ती ही नहीं, इसका एक कारण मुझे समझ आता है कि हम अपना आत्मविश्वास कमजोर कर चुके होते हैं और उसे हम अपने दैनिक जीवन की बहुत सी आदतों में प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं, कई बार अकेले में बैठकर रोने का मन करता है, कई बार कोने में घुटनों में छुपकर रहना चाहते हैं, तो कई बार हाथ पैर काँपने लगते हैं। यह सब बहुत ज्यादा नेगेटिव वातावरण ओर ज्यादा तकलीफदेह होता है।
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समस्या का समाधान बहुत सीधा नहीं है, क्योंकि किसी पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता है, और न ही किसी को मन की पीड़ा बताई जा सकती है। कई बार छोटी परेशानी भी हम बड़ी समझ लेते हैं ओर परेशान होते रहते हैं। ऐसे समय जितना हो सके अपने आपको अच्छे लोगों के सान्निध्य में रखने की कोशिश करें, नेगेटिविटी कम करें। ध्यान करें, सुबह शाम टहलने जायें, प्रकृति के बीच रहें। छोटी छोटी चीजों में अपनी खुशियाँ ढूँढ़ें। आपने जो उपलब्धियाँ अभी तक पाई हैं, उन्हें याद करें और उनसे पॉजीटिव ऊर्जा लें।
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क्या और भी कोई तरीका है, इन परेशानियों से छुटकारा पाने का, तो बताईये?

लॉकडाउन में बेटेलाल

लॉकडाउन में बेटेलाल ने जमकर खाना बनाने का लुत्फ उठाया है, केवल वीडियो देखकर, थोड़ी अपनी अक्ल लगाकर जो पारंगत हुए हैं, काबिले तारीफ है।

खाना बनाना बहुत आसान नहीं है, इसमें सबसे मुश्किल है खाना बनाने के लिये अपने आप को तैयार करना। खाना बनाना दरअसल केवल महिलाओं का ही काम समझा जाता है, पर बेटेलाल कहते हैं कि जो स्वाद मेरे हाथ का होगा, वह किसी और के हाथ में नहीं, ध्यान रखना। वाकई स्वाद तो है।

आटा गूँथना भी रख स्किल है, रोटी, पराँठे, पूरी, बाटी, बाफले, मैदा सबको अलग अलग तरह से गूँथा जाता है। पर बेटेलाल अब इन सबमें परफेक्ट हो चुके हैं। उन्हें नान बहुत पसंद है, जिस दिन खाने की इच्छा होती है सबसे पूछ लेते हैं, फिर नान और पनीर की सब्जी बनाते हैं।

यही हाल इनका गेमिंग में है, पब्जी में पता नहीं कौन सी रैंकिंग हो गई है,चेस खेलने का शौक है तो पता नहीं कहाँ कहाँ के चेस के मैच देखते रहते हैं, फिर यूट्यूब के वीडियो, मूवीज और वेबसिरिज में लगे रहते हैं। पढाई जिस दिन मूड होता है किसी एक विषय का पूरा चेप्टर निपटा देते हैं। वीडियो में भी कुछ अलग ही देखते हैं, जैसे शार्क टैंक और भी कई एंटरप्रेन्योरशिप के कुछ अलग अलग।

रोको टोको मत बस, जो करना चाहते हैं करने दो, हम कहे, करो भई करो, इन सबका भी कुछ विधान ही होगा।

लॉकडाऊन में बैंगलोर से कोझिकोड 400 किमी मित्र की यात्रा बाईक से

लॉकडाऊन में बैंगलोर से कोझिकोड 400 किमी मित्र की यात्रा बाईक से परिवार के पास पहुँचने के लिये –
 
आज सुबह मित्र से बात हो रही थी, वे कालिकट केरल के रहने वाले हैं, कालिकट को कोझिकोड़ भी कहा जाता है। उनका परिवार लॉकडाऊन के पहले ही घर चला गया था, और इसी बीच अचानक ही लॉकडाऊन लग गया, और मित्र यहीं रह गये।
 
घर से काम चालू हो गया, वैसे तो उन्हें खाना बनाना आता था, परंतु जब रोज़ सुबह शाम खाना ऑफिस के काम के साथ बनाना पड़े तो बहुत मुश्किल होती है।फिर एक दिन ऐसा भी आया कि आलस के कारण और काम ज़्यादा होने के कारण कुछ बना नहीं पाये, तब जाकर उन्होंने सोचा कि जब भी फ़ुरसत हो और खाना बनाने का मूड हो, कुछ न कुछ बनाकर रख लो, जिससे घर में खाने के लिये कुछ न कुछ हमेशा रहे। साथ ही वे कुछ इंस्टैंट फ़ूड भी ले आये, मैगी वग़ैरह।
 
तो एक और मित्र केरल के पालक्कड़ से हैं, उनके साथ भी यही समस्या थी, पर लॉकडाउन के चलते परिवार के पास घर नहीं जा पा रहे थे। दोनों के साथ एक ही समस्या थी कि दोनों की कारें इनके गृहनगर में ही खड़ी थीं, लॉकडाऊन के पहले परिवार को छोड़ने गये थे तो वहीं कार छोड़ आये थे। इन दोनों ने आपस में बात की और कहा कि बाईक से ही चलते हैं, दोनों ने ई-पास के लिये आवेदन दिया था और पिछले बुधवार को गुरूवार को यात्रा करने के लिये उन्हें ई-पास मिल गया, पालक्कड़ वाले मित्र गुरूवार सुबह निकल गये अपनी बाईक से और अच्छे से घर पहुँच भी गये (हालाँकि मेरी बात इनसे नहीं हो पायी, जैसे कालिकट वाले मित्र ने बताया)
 
कालिकट वाले मित्र ने बताया कि बुधवार को काम ज़्यादा था और उस वजह से नींद पूरी नहीं हो पायी, इसलिये गुरूवार को नहीं निकले, गुरूवार को दोपहर से ही सो गये, जिससे नींद पूरी हो जाये और शुक्रवार को सुबह 5 बजे निकलने का प्लॉट किया, इसके पहले अपनी 15 वर्ष पुरानी बजाज पल्सर बाईक को सर्विस सेंटर लेकर पहुँचे और ज़रूरी मरम्मत करवाई।
 
साथ में लेपटॉप बैग, पानी व खाने का समान, क्योंकि रास्ते में किसी भी रेस्टोरेंट में नहीं रूकना था। सारा सामान बाईक की पीछे वाली सीट पर बाँधकर चल दिये। केरल जाने के बैंगलोर से दो रास्ते हैं एक जो कि मधुमलई जंगल क्षेत्र से होकर जाता है, अभी लॉकडाऊन में बंद कर दिया है, दूसरा रास्ता लगभग 50 किमी लंबा है।बैंगलोर से कोझिकोड़ की दूरी अब उनके लिये 400 किमी की थी।
 
सुबह यात्रा शुरू करने के बाद 50 किमी के बाद ही उनकी कमर में दर्द शुरू हो गया, तब उन्हें हमारी बहुत याद आई मेरे पास बाईक के लिये एयर फ्लोटर सीट है जिससे पीठ में दर्द नहीं होता, हमने उनसे कहा भी कि अगर जाना था, तो मेरी सीट ले जानी थी, वे बोले यह तो तब याद आया जब कमर में दर्द हुआ, फिर उन्होंने निर्णय लिया कि हर 50 किमी के बाद 10 मिनिट का आराम करेंगे और फिर से बाईक चलायेंगे। इस प्रकार वे लगभग 12 बजे कर्नाटक केरल बॉर्डर पर पहुँच गये, कर्नाटक बॉर्डर पर उन्होंने अपना ई-पास दिखाया और उन्हें केरल में जाने दिया।
 
केरल की बॉर्डर शुरू होते ही पहला चेकपोस्ट पड़ा, जहाँ पर उनसे पूछताछ हुई और ई-पास देखा गया, फिर कहा कि बाईक साइड में लगाओ, स्वास्थ्य की जाँच हुई और सेनेटाईजेशन स्टेशन में उनकी बाईक लगवाई गयी, और बाईक को अच्छे से सेनेटाईज किया गया, और कहा कि अब दो मिनिट के बाद बाईक को आप शुरू कर सकते हैं। बहुत सारे दिशा निर्देश दिये गये।
 
वहाँ से लगभग 15-20 मिनिट बाद निकले तो फिर से 100 मीटर के बाद एक और चेकपोस्ट आ गई, वहाँ फिर से उनके स्वास्थ्य की जाँच हुई, और पूछताछ हुई, कि क्यों जा रहे हो वग़ैरह वग़ैरह, फिर वहाँ से उनको स्वास्थ्य अधिकारी, डॉक्टर, अस्पताल, खाद्य विभाग इत्यादि कई लोगों के नंबर दिये गये, कि उनसे संपर्क करके मदद ली जा सके, और उन्हें कहा गया कि आपको 7 दिन के क्वारेंटाईन में रहना है। और उसके बाद उन्हें एक Red Card दिया गया कि आपको अब हर चेकपोस्ट पर यह दिखाना है, खाना आपको रोज़ घर पर पहुँचाया जायेगा, रोज़ आपके पास फ़ोन करके आपसे आपके स्वास्थ्य की जानकारी ली जायेगी। यह चेकपोस्ट थी वायनाड की, और वायनाड में प्रशासन ने ध्यान रखा कि कोई भी वायनाड की सीमा में न रूके, लगातार प्रशासन ने इस बात का ध्यान रखा।
 
मित्र शाम लगभग 5 बजे कोझिकोड़ पहुँच गये, हमने उनसे पूछा कि रास्तेभर बारिश नहीं मिली तो उन्होंने बताया कि कोझिकोड़ में प्रवेश के पहले ही देखा कि ज़बरदस्त बारिश होकर चुकी थी, पेड़ गिरे हुए हैं और सड़क पर भी थोड़ा पानी था।
 
हमने पूछा कि कितने लोग बैंगलोर से जा रहे थे और आ रहे थे, तो वे बोले कि कहीं रूकने की जगह तो नहीं थी, और किसी से बात भी नहीं करनी थी, तो साफ़ साफ़ पता नहीं, परंतु चेकपोस्ट पर देखकर लग रहा था कि केवल वे अकेले ही यह रोमांचक यात्रा करने वाले नहीं हैं, बल्कि कई हैं, क्योंकि उनको सभी गाड़ियों के नंबर बैंगलोर के ही दिख रहे थे। वे बता रहे थे कि एक बंदे ने एक्टिवा पर ही 2-3 सूटकेस टेप से अच्छे से बाँध रखे थे, इतनी टेप लगा रखी थी कि सूटकेस हिल भी नहीं सकते थे, बस चलाने वाला आराम से बैठा था। मौसम भी अच्छा था, बहुत ज़्यादा धूप भी नहीं थी, इसलिये ज्यााद दिक़्क़त नहीं हुई।
 
उन्होंने खाने के पैकेट के लिये सरकारी अमले को मना कर दिया था, बावजूद इसके उन्हें लगातार खाना घर पहुँचाया जा रहा है, रोज़ फ़ोन करके तीन अलग अलग सरकारी अमले के लोग उनका हाल-चाल पूछते हैं। इतना सुनने के बाद लगा कि वाक़ई अगर सरकार कुछ करना चाहे तो बहुत कुछ कर सकती है। हमने अपने मित्र को सुरक्षित पहुँचने की शुभकामनायें दीं।

दिल्ली पुलिस के पास दंगों से निपटने के लिये क्या बढ़िया रणनीति नहीं थी?

मुझे तो लगता था कि पुलिस कर पास दंगों से निपटने की बढ़िया रणनीति होती है, और समय समय और उन रणनीतियों का रिव्यू भी होता है, तो पुलिस को इस स्थिति को बहुत अच्छे से निपट लेना चाहिये था। वैश्विक पटल पर दिल्ली पुलिस भी अपने आपमें एक ब्रांड है।

मैं जब दिल्ली में था तब fm पर कई बार लय में सुना था, दिल्ली पुलिस दिल्ली पुलिस आपकी सुरक्षा में।

समझ ही नहीं आया, भरोसा भी न हुआ कि जिस दिल्ली पुलिस के पास राजधानी की सुरक्षा की जिम्मेदारी है, वे अपनी रणनीति में फेल हो गयी? सही बताऊँ तो मानने को दिल ही नहीं करता।

पुलिस के वे सारे वीडियो जो दिख रहे हैं, जिनमें वे दंगाईयो का साथ दे रहे हैं, दिल मानता ही नहीं कि वे पुलिस के लोग हैं। आख़िर पुलिस दंगाईयों का साथ कैसे दे सकती है? हो ही नहीं सकता, खैर यह भी जाँच का विषय है।

अब अगर कोर्ट को आकर दिल्ली पुलिस को कार्यवाही करने को कहा जा रहा है, तो भई सही बात तो यही अब लगती है कि दिल्ली पुलिस से बदला लेना है तो दिल्ली सरकार के अधीन कर दो, सारी दिल्ली पुलिस सुधर जायेगी। क्यों लोग दिल्ली सरकार को कोस रहे थे, जबकि सबको पता है दिल्ली पुलिस केन्द्र सरकार के अधीन है, और अंतत: गृह मंत्री को ही मामला अपने हाथ में लेना पड़ा, वह भी यह कहकर कि दिल्ली पुलिस व्यवस्था को ढंग से सँभाल नहीं पाई, यह ख़ुद दिल्ली पुलिस पर एक दाग़ है।

अगर ऐसी पुलिस के हाथों दिल्ली याने देश की राजधानी की सुरक्षा व्यवस्था है तो खुद ही समझ जायें कि भारत सुरक्षित नहीं है, क्योंकि राजनैतिक सत्ता दिल्ली से ही चलती है, और लंबे दौर इस तरह के चलते रहे तो यही सब नासूर बनकर अर्थव्यवस्था पर गम्भीर संकट बनकर आयेंगे।

किसी को तो ठीक होना जरूरी है, कौन ठीक होगा यह तो भविष्य ही बतायेगा।

अब जम्मू कश्मीर लेह लद्दाख में रोजगार पैदा करने की जरूरत

अनुच्छेद 370 खत्म और 35Aस्वत: खत्म, आजाद हुई हमारी ‘जन्नत’ इस हेडलाईन के साथ आज का समाचार पत्र आज सुबह मिला। वैसे तो कल ही सुगबुगाहट चल ही रही थी और जब सदन से यह ऐलान हो गया तो, बस दिल बागबाग हो गया, अच्छी खबर यह भी थी कि जम्मू कश्मीर से लद्दाख अलग कर दिया गया है व उन्हें अब अलग अलग केन्द्र शासित प्रदेश का दर्जा दे दिया गया है। पूरी घाटी में पिछले 2-3 दिनों से भारी मात्रा में सुरक्षा बल तैनात हैं और पूरी दुनिया से अलग थलग कर दिया गया है, जिससे कोई भी अलगाववादी ताकतें घाटी में आतंक न फैला सकें।

इस खबर के साथ ही सोशल मीडिया में बहुत से स्टेटस आने लगे कोई कहता कि अब तो जम्मू कश्मीर, लेह लद्दाख में जमीन खरीदेंगे, घर खरीदेंगे, अब घाटी की सुँदर लड़कियों से शादी भी कर सकते हैं इत्यादि। अभी तक जम्मू कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा था और करोड़ों रूपया भारत सरकार द्वारा बहाया जाता रहा है, जिसका कोई हिसाब किताब भी नहीं था, बस वह दो नंबर के जरिये कुछ राजनैतिक दलों और राजनैतिज्ञों की जेब में पहुँच जाता था। अब तक कोई भी विकास का कार्य नहीं हुआ और न ही कोई रोजगार पैदा हुए।

अब इस बात के आसार लग रहे हैं कि जम्मू कश्मीर में नये व्यवसाय लगेंगे, जिससे वहाँ रोजगार पैदा होंगे। जम्मू, श्रीनगर, लेह, लद्दाख इतनी प्यारी जगहें हैं, ये भारत के अपने खुद के स्विट्जरलेंड हैं, जहाँ हम चाहते हुए भी जाकर रह नहीं सकते हैं, जैसे यूरोप में कई बेहतरीन जगहों पर सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट सेंटर हैं, वैसे ही कुछ नये सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट सेंटर खुलने चाहिये, जिससे IT वालों को भी भारत के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने का मौका मिले, साथ ही जब एक अच्छी नौकरी वहाँ शुरू होगी तो एक नौकरी से कम से कम 10रोजगार पैदा होते हैं, सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट सेंटर के लिये विशेष तरह के स्किल की जरूरत होती है, जो कि हो सकता है कि वहाँ के रहवासियों में अभी न हों, परंतु दैनिक जीवन के जरूरत वाले कई कार्यों के कारण वहाँ अन्य रोजगार पैदा होंगे।

जब जम्मू कश्मीर में रोजगार पैदा होंगे तो वहाँ के रहवासी, अलगाववादियों की बातों में नहीं आयेंगे और वे खुद ही अच्छे बुरे में फर्क पैदा कर पायेंगे, व 100 रूपये में पत्थर फेंकने को तैयार नहीं होंगे, साथ ही आतंकवादियों को समर्थन अपने आप ही कमी आ जायेगी। इस सबसे सबसे बड़ा अंतर भारत के खजाने पर पड़ने वाला बड़ा बोझ कम हो जायेगा। विश्व के पर्यटन मानचित्र पर जम्मू कश्मीर हीरे की तरह चमकेगा। रोजगार पैदा होने से सबसे बड़ा फायदा होगा कि पाकिस्तान पर जबरदस्त दबाब होगा, साथ ही पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के लोगों द्वारा भी पाकिस्तानी सरकार पर इसी तरह के व्यवसाय को स्थापित करने का दबाब होगा, अगर पाकिस्तानी सरकार द्वारा यह नहीं किया जाता है तो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के लोग भारत में विलय होने के लिये दबाब बनायेंगे और जन आंदेलन की शुरूआत होगी।

अब केवल जम्मू कश्मीर लेह लद्दाख में एक अच्छी बेहतर नीति की जरूरत है, जिससे हम वैश्विक पटल पर भारत की छवि को अच्छे से दिखा सकें व गर्व से कह सकें कि अखण्डता पुनप्रतिष्ठित हुई।

लोग आत्महत्या क्यों करते हैं

आत्महत्या क्यों करते हैं और हम उन्हें कैसे बचा सकते हैं, इसके लिए समाज को अथक प्रयास करना होंगे। अब हम किसी भी मुख्य समाचार को ऐसे ही पढ़कर नहीं जाने देंगे। पहले एक जवान लड़का जिसके लिए कहा गया कि उसने UPSC एग्जाम में फेल होने पर आत्महत्या कर ली, फिर उसके बाद एक फैशन डिजाइनर। हमें पता नहीं है कि आत्महत्या करने के पीछे किस तरह की मानसिकता काम करती है, जैसे कि एक व्यक्ति जिसको व्यापार में बहुत घाटा हो गया हो, शराब पीने की भी लंबी आदत रही हो, अपनी पत्नी से समस्या हो, तो जब वे लोग ज्यादा सोचते हैं, तो वह अपनी जिंदगी खत्म करने के बारे में सबसे पहले सोचते हैं। Continue reading लोग आत्महत्या क्यों करते हैं

मन का मैल काटने में लगा हूँ

कुछ दिनों पहले तक बहुत अजीब हालात से गुजर रहा था, बैचेनी रहती थी, पता नहीं कैसे कैसे ख्याल आते थे, पुरानी बातें बहुत परेशान करती थीं, कभी कुछ अच्छा याद नहीं आता था, हमेशा ही बुरा ही याद आता था। ऐसा नहीं कि जीवन में अच्छा हुआ ही नहीं, या बुरा भी नहीं हुआ, परंतु होता क्या है कि हम हमारी याददाश्त में अच्छी चीजें कम सँभालकर रखते हैं और बुरी यादें हमेशा ही ज्यादा सँभालकर रखते हैं। हमारे जीवन की यही सबसे बड़ी परेशानी और समस्या है। ऐसा होना ही हमें मानव की श्रैणी में खड़ा करता है, हमें कहीं न कहीं मानसिक स्तर पर मजबूत भी करता है और हमें चालाक बनने में मदद भी करता है। Continue reading मन का मैल काटने में लगा हूँ

पीने का पानी बचाओ Save Water

पानी को बनाया नहीं जा सकता, न पैदा किया जा सकता है क्योंकि पानी प्राकृतिक स्रोत है और हमें यह प्रकृति का वरदान है। जैसे जैसे समय बीतता जा रहा है, धरती पर पीने के पानी की समस्या बढ़ती जा रही है। पीने का पानी आने वाले कल में सोने से भी महँगा होगा, यह आने वाला कल का सोना है। यह भी हो सकता है कि आने वाले कल में इसकी ट्रेडिंग शुरू हो जाये, आने वाले कल में ज्यादा पानी पीना भी प्रतिष्ठा का प्रतीक बन जाये। हर इंसान को अपनी रोजमर्रा के कामों के लिये रोज कम से कम 20 लीटर पानी चाहिये।

पानी बचाना है (Save Water) तो पहल भी हमें ही करनी होगी, हमें अपनी आदतें बदलनी होंगी, सब से पहले पीने के पानी को बचाना होगा। हम हमेशा ही पानी पीने के पहले पूरा गिलास पानी भरते हैं, और आधे से भी ज्यादा बार पूरा पानी नहीं पिया जाता है, वह बचा हुआ पीने का पानी बहा दिया जाता है। हमें सबसे पहले तो अपनी आदत में यह शुमार करना होगा कि हम पूरा गिलास पानी की जगह, आधा गिलास या उससे कम पानी लें, और पानी की जरूरत है तो वापिस लिया जा सकता है, परंतु एक बार पानी पीने के बाद यानि के झूठा होने के बाद बचा हुआ पानी बर्बाद ही होना है।

वैसे ही जब हम बाहर किसी भी रेस्टोरेंट या होटल में खाना खाने जाते हैं तो भी होटल को पानी का पूरा गिलास भर कर देने की जगह आधा या आधे से कम गिलास भरकर देना चाहिये, जिससे पानी की बहुत बचत हो सकती है, जैसे मैं कभी भी खाना खाते समय पानी नहीं पीता और अगर होटल फिर भी मेरे गिलास में पानी भर देता है तो मेरे खाना खाने के जाने के बाद वह पानी कोई और नहीं पियेगा, वह पानी बर्बाद हो जायेगा, होटल का वेटर उस पानी को फेंक देगा, बहा देगा। वैसे ही अगर आधा गिलास पानी दिया जायेगा ओर प्यास लगेगी या पानी की जरूरत होगी तो प्यासा कह ही देगा।

पानी बचाना यानि #CuttingPani आज हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिये, और हमें इसका जोरशोर से प्रचार भी करना है, और व्यक्तिगत स्तर पर भी भरपूर कोशिश करना है। अगर आप किसी को ऐसा करते हुए देखते हैं, तो टोकने से न चूकें, आपको टोकने से हम प्रकृति की धरोहर आने वाली पीढ़ी के लिये बचा सकते हैं, नहीं तो जितनी आसानी से हमें पीने का पानी उपलब्ध है, उन्हें नहीं होगा।

आप Livpure द्वारा चलायी जा रही मुहीम में इस याचिका को साईन करके भी जागरूकता फैला सकते हैं।

याचिका के लिये लिंक – https://www.change.org/p/cuttingpaani

हम भाड़ की जनरेशन और आज की ग्रिल की जनरेशन

हम अपने बचपन के दिनों को याद करते हैं तो हमें भाड़ का महत्व पता है, और तभी भाड़ की बहुत सी कहावतें भी याद आती हैं। भाड़ में बहुत सी चीजें पकाई जाती हैं, जिन्हें हम खाने के काम में लेते हैं, और हमारे लिये वे ही व्यंजन था, जैसे भाड़ के चने, भाड़ के आलू। ये भी कहा जा सकता है कि ये गँवई शौक थे जो कि ठंड के मौसम में बड़े काम आते थे। हमारी जनरेशन और हमसे पहले वाली याने पिताजी, दादाजी वाली जनरेशन भाड़ की थी। जैसे भाड़ में पकने में समय लगता था, उसी के कारण शायद यह कहावत बनी होगी कि भाड़ में जाओ। जो भाड़ के कारीगर होते थे याने कि जो भाड़ में भूनते थे, वे कहलाते थे भड़बुजे, आजकल न भाड़ है न भड़बुजे।

एक कहावत और याद आती है एक अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, खैर इसका मतलब नि:संदेह ही यह रहा होगा कि एक अकेला व्यक्ति कभी क्रांति नहीं ला सकता है, क्योंकि एक अकेला क्या एक हजार चने भी होंगे तो वे भी भाड़ नहीं फोड़ पायेंगे। वैसे तो भाड़ में केवल चने ही नहीं और भी अनाज को पकाया जाता था, भाड़ के पके अनाज का स्वाद बिल्कुल अलग ही होता है, जो बिना चखे नहीं जाना जा सकता है।

वैसे ही आजकल की जनरेशन है जो केवल ग्रिल ही पसंद करती है, कोई चीज हो बस ग्रिल कर दो। परंतु समस्या यह है कि ग्रिल में अधिकतर माँस को ही पकाया जाता है या फिर आलू, पनीर। और कुछ ग्रिल हो नहीं सकता है, कोई और अनाज ग्रिल हो नहीं सकता, क्योंकि ग्रिल और भाड़ दोनों की बनावट ही अलग है, कार्य पद्धति भी बिल्कुल अलग है। यह तुरत फुरत वाला काम है।

भाड़ के लिये ज्यादा जगह चाहिये, पर ग्रिल तो एक तसले में भी बनाया जा सकता है। हमारी जनरेशन ने शायद धरती पर जितनी खाली जगह और प्राकृतिक स्त्रोत देखे हैं, उतने हमारी आने वाली जनरेशन नहीं देख पायेगी। इसी कारण से सारी चीजें सिकुड़ती जा रही हैं और समय की कमी के चलते सब फटाफट चीजें आ रही हैं।

ये ग्रिल की जनरेशन वाले भाड़ की मानसिकता को नहीं समझ पायेंगे और हम लोग भाड़ की जरनेशन वाले ग्रिल का जनरेशन की मानसिकता को नहीं समझ पायेंगे।