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एफ़डीआई का हल्ले के बहाने महँगाई और रूपये के अवमूल्यन पर भी चिंतन, हलकान है जनता.. [FDI, Inflation and Depreciation of Rupee… my views]

जहाँ देखो वहीं विदेशी खुदरा दुकानों का हल्ला मचा हुआ है और जनता महँगाई के मारे हलकान हुई जा रही है। महँगाई सर चढ़कर बोल रही है।

किसान को सब्जी का क्या भाव मिलता है और दुकानें किस भाव में बेचती हैं यह एक शोध का विषय है। और अगर शोध किया जाये तो शायद दुनिया चकित रह जायेगी कि किसान को टमाटर का ३ रू. किलो मिलता है और जनता दुकानदार को ४० रू. किलो दे रही है, तो बाकी का बीच का ३७ रू. ये बड़े खुदरा दुकानों के मालिक खा रहे हैं।

जब मुंबई में थे तो वहाँ कोई भी सब्जी कम से कम ४० रू. किलो मिलती थी और अधिकतर तो १६० रू. किलो तक भाव होते थे। पता नहीं कहाँ से महँगाई आई, और यही सब्जी चैन्नई या बैंगलोर में देखें तो अधिकतम ४० रू. किलो सब्जी मिल रही है। टमाटर मुंबई में आज भी ४० रू. किलो हैं और यहाँ बैंगलोर में १६ रू. किलो मिल रहे हैं।

खैर नेता लोग चिल्ला रहे हैं कि विदेशी खुदरा दुकानें आ गईं तो हम आग लगा देंगे, खुलने नहीं देंगे, परंतु क्यों नहीं खुलने देंगे ये नहीं बता रहे हैं, जब रिलायंस रिटेल खुल रहा था तब भी लोगों ने बहुत तोड़ फ़ोड़ की थी, अब हालत यह है कि वही तोड़ फ़ोड़ करने वाले लोग रिलायंस रिटेल से समान खरीद रहे हैं।

थोड़े दिनों बाद विरोधी स्वर विदेशी खुदरा दुकानों के फ़ीता काटते नजर आयेंगे। जनता को समझाइये कि विदेशी खुदरा दुकानों से क्या नुक्सान होगा। आज अखबार में पढ़ा कि जयपुर में कैनोफ़र ने जयपुर के सभी थोक अंडा व्यापारियों से करार कर लिया है, अब सभी खुदरा व्यापारियों को अंडे मिलना बंद हो जायेगा। पहली बात तो यह उन थोक व्यापारियों की गलती है जिन्होंने ये करार किये हैं और वैसे भी भारत है जहाँ हर चीज का जुगाड़ होता है, जब सरकार जुगाड़ से चल सकती है तो ये व्यापार क्या चीज है। खैर आगे क्या होगा यह तो ये करार कार्यांन्वयन होने के बाद ही पता चलेगा। हमारे खुदरा व्यापारी कोई ना कोई तोड़ निकाल ही लेंगे।

ऐसा नहीं है कि मैं विदेशी खुदरा दुकानों का समर्थक हूँ परंतु हाँ यह अर्थव्यवस्था के लिये ठीक होगा और रूपये के अवमूल्यन होने से कुछ हद तक रोकेगा। परंतु रूपये का अवमूल्यन रोकने के लिये क्या इस तरह के हथकंडे अपनाना उचित है ? कतई नहीं !

परंतु नेता जनता को कितना बेवकूफ़ बनायेंगे, अगर इन नेताओं ने घोटाले नहीं किये होते, भ्रष्टाचार पर लगाम कसी होती और भारत के विकास में उस रूपये का योगदान किया होता तो शायद रूपये के मूल्य का अवमूल्यन नहीं होता उल्टा डॉलर कमजोर होता, परंतु सरकार विदेशी लोगों को बाजार में भी तरह तरह के साधन उपलब्ध करवाती है कि ये लोग आसानी से भाग लेते हैं, और जनता ठगी से देखती रह जाती है।

जरूरत है सरकार में नेताओं में विकास की इच्छाशक्ति की कमी की, अगर इन नेताओं में यह इच्छाशक्ति आ जाये तो हम विकास के पथ पर अग्रसर होंगे। लोग कहते हैं कि दस वर्ष में हम नंबर वन बना देंगे, पिछले पाँच वर्ष में भारत को कौन से नंबर पर लाये हैं, ये तो सब जानते हैं।

बात रही [बेचारे] खुदरा दुकानदारों की तो वे बेचारे तो रोजमर्रा कि चीजों को बेचकर अपना घर चला लेंगे। जैसे अगर आपको ब्रेड लेने जाना हो तो आप विदेशी खुदरा दुकानों में तो नहीं जायेंगे ना, बस ऐसे ही बहुत सारी चीजें हैं जो कि आप बिना पार्किंग में अपनी गाड़ी लगाये लेना चाहेंगे या घर से गाड़ी नहीं निकालकर पास के दुकान से लेंगे। तो सरकार को यह समझ लेना चाहिये कि १० लाख से ज्यादा जनता वाले शहर बहुत समझदार हैं।

मुंबई में जहाँ हम रहते थे वहाँ भी आसपास बहुत मॉल थे, परंतु लगभग सभी लोग एक किराने वाले से ही समान लेते थे, वजह वह कीमत में सीधी छूट देता था और उसकी स्कीमें भी आकर्षक होती थीं। फ़िर घर पहुँच सेवा, आप जाकर बोल दीजिये और घर पर समान पहुँच जायेगा। अगर आपकी घर से निकलने की इच्छा नहीं है तो केवल फ़ोन लगा दीजिये और समान घर पर होगा। उस किराना व्यवसायी का स्वभाव बहुत अच्छा था और मृदु भाषी है। यह सब बातें कहाँ देशी और कहाँ विदेशी खुदरा दुकानों पर मिलेंगी।

क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ? क्या इसीलिये आत्महत्या के आंकड़े बढ़ रहे हैं ? (Why Childs are not emotional ? why suicidal cases are increasing ?)

शिक्षा में बदलाव बेहद तेजी से हो रहे हैं और शिक्षक और छात्र के संबंध भी उतनी ही तेजी से बदलते जा रहे हैं। कल के अखबार की मुख्य खबर थी यहाँ बैंगलोर में इंजीनियरिंग महाविद्यालय के छात्र ने होस्टल के कमरे में पंखे से फ़ांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। खबर लगते ही हजारों के झुंड में छात्र इकठ्ठे हो गये और महाविद्यालय प्रशासन के खिलाफ़ नारेबाजी करने लगे। पुलिस बुलाई गई, परंतु छात्रों ने पुलिस को भी खदेड़ दिया और महाविद्यालय की इमारत को भी नुक्सान पहुँचाया। बाद में महाविद्यालय के मालिक का बयान आया कि वह छात्र कमजोर दिल का था और लगातार पिछले तीन वर्षों से उस छात्र का प्रदर्शन बहुत कमजोर था।

विषादग्रसित यह खब्रर पढ़ने के लिये नहीं लिखी हैं मैंने, सही बताऊँ तो मैंने कल अखबार ही नहीं पढ़ा था पर कल रात्रि  भोजन पर भाई से चर्चा हो रही थी तब इस और ध्यान गया और आज सुबह कल का अखबार पढ़ पाया । मन अजीब हो उठा और लगा क्या महाविद्यालय प्रशासन ने कभी उस छात्र के मन में क्या चल रहा है, यह जानने की कोशिश की। महाविद्यालय प्रशासन महज छात्र के घर एक पत्र भेजकर अपनी जिम्मेदारी से तो नहीं बच सकता ।

आज छात्र बहुत ही संवेदनशील परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, क्योंकि वे अब भावुक नहीं रहे, अब छात्रों से भावनाओं के बल पर कोई भी कार्य करवाना असंभव है। उसके पीछे बहुत सारे कारण जिम्मेदार हैं, परवरिश के बेहतर माहौल में कमी, शिक्षकों से अच्छा समन्वयन न होना । ऐसे बहुत सारे कारण हैं। क्योंकि आजकल बच्चों को इंटरनेट पर सब मिल जाता है तो कई बच्चे तो दोस्त भी नहीं बनाते हैं और इंटरनेट पर ही अपना समय बिताते पाये जाते हैं।

अब मेरे मन में जो सवाल उठ रहे हैं कि क्या महाविद्यालय का छात्र पर अच्छे प्रदर्शन के लिये दबाब बनाना उचित था, और अगर दबाब बनाया गया तो उसे क्या उचित मार्गदर्शन दिया गया । छात्र के घर पर पत्र भेजने से छात्र की मानसिक हालात को समझा जा सकता है। हरेक छात्र के माता-पिता यही सोचते हैं कि बेटा अच्छा पढ़ रहा है परंतु अगर महाविद्यालय से इस प्रकार का पत्र मिले तो वे यकीनन ही अपने बेटे पर क्रुद्ध होंगे, और उसे परिस्थिती से बचने के लिये उस छात्र ने आत्महत्या कर ली हो ? छात्र तो पहले से ही विषादग्रसित था, उसको मनोवैज्ञानिक तरीके से संभालना चाहिये था। परंतु ऐसा ना हुआ, अब उन माता-पिता पर क्या गुजर रही होगी जिन्होंने अपना जवान बेटा इसलिये खो दिया क्योंकि वह पढ़ाई में कमजोर था, नहीं ? वह पढ़ाई में कमजोर होने के कारण विषादग्रसित हो चला था।

पढ़ाई में कमजोर होना कोई बुरी बात तो नहीं, पढ़ाई ही तो सबकुछ नहीं है, उससे बढ़कर होता है जीवन जीने का हौसला और उस विषादित परिस्थिती से निकालने में सहायक परिवेश और परवरिश। कमजोर पढ़ाई वाले पता नहीं कितनी आगे निकल गये हैं और पढ़ाई वाले कहीं पीछे रह गये हैं।

मुख्य सवाल जो मेरे मन में है और उसका उत्तर खोजने की कोशिश जारी है मनन जारी है, क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ? और उनके आधुनिक परिवेश में उन्हें कैसी परवरिश देनी चाहिये ?

सुपारी देना किसको कहते हैं और सुपारी के गुण और उसकी गाथा

सुपारी देना शब्द कहाँ से आया बहुत ढूँढ़ा कहीं मिला नहीं, वैसे हमें तो केवल इतना पता है कि सुपारी पान बीड़ा का एक अवयव है, परंतु यही सुपारी कब इस अलग रूप में आ गई, पता ही नहीं चला, खासकर फ़िल्मों और सीरियलों में बहुत सुनने को मिलता है कि फ़लाने की सुपारी दे दी, मतलब कि हत्या करने के लिये किसी को पैसे दिये गये ।
वैसे सुपारी तो हमारी संस्कृति का अंग है और सुपारी को पूजा में भी रखा जाता है। आखिरकार अपने पुराने जमाने वाले लोगों ने जिन्होंने सुपारी को खाने लायक समझा होगा, उनको दाद देनी होगी कि इतने कठोर फ़ल को भी खाने में और पूजा में प्रयुक्त किया, और सुपारी को खाने के लिये सरौते का भी अविष्कार किया, अब कहते हैं ना कि आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है।
सुपारी के बहुत सारे औषधीय उपयोग भी हैं –
 मुंह के रोग : 10-10 ग्राम बड़ी इलायची और सुपारी को जलाकर मुंह में छिड़कने से मुंह के सभी रोग ठीक हो जाते हैं।
और भी उपयोग होंगे परंतु और याद नहीं हैं, स्वाद बिल्कुल पानी जैसा कि कोई स्वाद नहीं परंतु हाँ कुछ मिला लो तो इसका स्वाद बेहतरीन है तभी तो आजकल मीठी सुपारी मिलती है, परंतु वह भी प्रोसेस्ड होती है, उसे तो बिल्कुल खाना ही नहीं चाहिये।
सुपारी भी कई प्रकार की होती है, हमें तो बस इतना ही पता है कि सुपारी कच्ची भी होती है और पक्की भी या शायद भुनी हुई होती हो। सुपारी भी अलग अलग तरह में काटी जाती है, जैसे कि बोल्डर, चिप्स इत्यादि, अब सुपारी इतनी कठोर होती है कि हमें खाने में बहुत दिक्कत होती है और मसूढ़े भी छिल जाते हैं, तो हम चिप्स खाते थे परंतु अब यहाँ दक्षिण में भाई लोग बोल्डर ही देते हैं।
एक हमारे मित्र हैं जिनके केरल में समुद्रीय इलाके में खेत हैं वह भी सुपारी के, वहाँ सुपारी की ही खेती होती है और उनसे पता चला कि किसान को ज्यादा पैसा नहीं मिलता, सुपारी महँगी है और उसके पीछे कारण है बिचौलिये और सेठ लोग जो कि सुपारी खरीदते हैं।
सुपारी कहाँ से याद आई थी और उस पर इतना सारा लिख भी दिया, दरअसल कहीं से एक सुपारी खाने के लिये मिली थी जो कि पूजा के बाद की थी और उसे हमें ही खाना था, पहले तो इसी आस में जेब में पड़ी रही कि कभी हाथ से तोड़कर खा लेंगे । बहुत प्रयास किया हाथ से नहीं टूटी, फ़िर दाँत से तोड़ने की कोशिश की तो उसमें भी असफ़ल रहे और जल्दी ही समझ में आ गया सुपारी तो नहीं टूटेगी अपने दाँत जरूर टूट जायेंगे, फ़िर मूसल से तोड़ने की कोशिश की उसमें भी नाकाम। आखिरकार पान की दुकान पर जाकर सरौते से कटवाना पड़ी, पान वाले से पूछा कि सुपारी और किस तरीके से तोड़ी या काटी जा सकती है तो उसने बताया कि केवल सरौते से ही काटी जा सकती है, वह तो अच्छा हुआ कि हमने जितने उपाय किये थे वे नहीं बताये वरना सुपारी के ऊपर हमारे किये गये एक्सपीरियमेंट पर हँस हँस कर लोट पोट हो लेता। सोचा कि अपना ब्लॉग वो थोड़े ही पढ़ेगा तो यहीं लिख देते हैं।

इंडियाप्लाजा की अच्छे ऑफ़रों पर घटिया सर्विसेस (Bad services on Great offers by Indiaplaza.com)

लगभग एक सप्ताह होने आया इंडियाप्लाजा से ईमेल पर एक ऑफ़र आया था, और ऑफ़र बहुत अच्छा लगा, मैंने सोचा कि इससे अच्छी डील और कहीं नहीं मिलेगी, तो फ़टाफ़ट ऑनलाईन ऑर्डर कर दिया।

इसके पहले भी कई अन्य साईटों पर ऑनलाईन ऑर्डर कर चुके हैं, तो उसका अनुभव पहले से ही था, उसके मुकाबले इंडियाप्लाजा के साथ खरीदारी का अनुभव बहुत ही खराब रहा।

जैसे ही हमने भुगतान किया एक नया पेज खुला जिस पर ट्रांजेक्शन रिफ़ेरेन्स नंबर दिया गया, यह तो अच्छा हुआ कि हमने उसे पीडीएफ़ बनाकर सहेज लिया, जो कि मैं अधिकतर ऑनलाईन ट्रांजेक्शन करने के बाद करता हूँ, और तब तक सहेज कर रखता हूँ जब तक कि समान मुझे मिल नहीं जाता है। इधर ट्रांजेक्शन पूरा हुआ नहीं कि हमने सोचा कि अब ईमेल से संपूर्ण जानकारी भेज दी गई होगी। परंतु कोई ईमेल इंडियाप्लाजा की तरफ़ से नहीं आया। हमने सोचा शायद थोड़ी देर बाद आयेगा, परंतु ईमेल न आना था और न ही आया ।

दो दिन पहले एक ईमेल इंडियाप्लाजा से ईमेल आया कि शिपिंग में देरी हो रही है और कल शिपिंग होगी, हमने सोचा कि चलो इंडियाप्लाजा वालों ने इतना तो ध्यान रखा कि देरी के लिये ईमेल लिख दिया। खैर अभी तक तो हमें समान नहीं मिला है और न ही कोई अन्य ईमेल देरी के लिये मिला है।

अगर किसी अन्य ऑनलाईन साईट पर ऑर्डर किया होता तो वे बिल के साथ साथ कूरियर का रिफ़रेन्स नंबर भी ईमेल कर देते हैं। जिससे आप कूरियर ऑनलाईन ट्रेक कर सकते हैं।

उम्मीद है कि एक दो दिन में समान मिल जाना चाहिये, आगे टिप्पणी में बताते हैं कि कब समान आता है।

बैंकों के अकाऊँट नंबर पोर्टेबिलिटी भारतीय रिजर्व बैंक के लिये आसान नहीं होगी (Bank Account Number Portability will not be easy task for RBI)

बैंकों के अकाऊँट नंबर पोर्टेबिलिटी भारतीय रिजर्व बैंक के लिये आसान नहीं होगी, यह बैंकों के लिये तकनीकी रूप से बहुत बड़ी चुनौती होगा, अभी बैंकें जितने भी सॉफ़्टवेयरों का उपयोग कर रही हैं, उसमें बैंकें अकाऊँट नंबर में अधिकतम अंकों का उपयोग कर रही हैं, और एक और व्यवहारिक समस्या है कि कई बैंकों में एक ही अकाऊँट नंबर अभी पाया जा सकता है।
बैंक पोर्टेबिलिटी
अभी बैंकों के अकाऊँट नंबर यूनिक नहीं हैं, इसलिये यह भारतीय रिजर्व बैंक के लिये बड़ी समस्या होगी, और व्यवहारिक तौर पर उतना आसान भी नहीं है। ऐसा लगता भी नहीं कि इस बैंक अकाऊँट नंबर पोर्टेबिलिटी का कोई फ़ायदा होने वाला है, क्योंकि अकाऊँट कोई सा भी हो या खाता नंबर कोई सा भी हो, बैंक का नाम तो बदल ही जायेगा।
कुछ और बातें भी हैं, खाताधारक का बैंक बदलने पर IFSC  कोड भी बदल जायेगा, जिससे उसे NEFT & RTGS में समस्या होगी, इसके लिये खाताधारक को सभी जगह बैंकों के नाम भी बदलने होंगे।
बैंकों के अकाऊँट नंबर पोर्टेबिलिटी बहुत ही मुश्किल साबित होगा भारतीय रिजर्व बैंक के लिये, क्योंकि अभी भारतीय बैंकों में अकाऊँट नंबर में अधिकतम १६ नंबर तक का उपयोग किया जाता है, और उन नंबरों से कैसे भी तकनीकी तौर पर दूसरी बैंकों के साथ मैपिंग करना बहुत मुश्किल है।
भारतीय वित्त बाजार में केवल अकाऊँट नंबर से काम नहीं चलता है, वहाँ बैंक का नाम भी देना जरूरी होता है, और तो और कोर बैंकिंग सुविधा के बावजूद ग्राहक से शाखा की जानकारी ली जाती है, जबकि वह ग्राहक उस शाखा का ग्राहक ना होकर बैंक का ग्राहक है।
मोबाईल नंबर और बैंक अकाऊँट नंबर पोर्टिबिलिटी दोनों ही बहुत अलग चीज हैं, जब से मोबाईल आया है क्या आपको कभी अपने किसी भी फ़ार्म पर यह बताने को कहा जाता है कि मोबाईल कौन सी कंपनी का है और कौन सा सर्विस प्रोवाईडर है, नहीं ना, परंतु बैंकों के लिये ऐसा नहीं है। अगर आप डीमैट खाता भी खुलवाने जायेंगे तो वहाँ फ़ॉर्म पर बैंक का नाम, शाखा, IFSC  कोड और अकाऊँट नंबर सभी जानकारी ली जायेगी।
अब देखते हैं कि भारतीय रिजर्व बैंक क्या निर्णय लेती है, वैसे अगर यह निर्णय आया भी तो फ़िर बैंकिंग क्षैत्र में तकनीकी तौर पर भारी फ़ेरबदल की जरूरत होगी।

त्योहारों पर वास्तविक छूट या उपभोक्ताओं के साथ छल (Sale on Festival Season…)

    आजकल सुबह अखबार में देखो तो लगभग आधे से ज्यादा अखबार त्योहारों पर छूट के विज्ञापनों से भरे रहते हैं, जैसे कि सारा समान मुफ़्त में ही देने वाले हैं। मैंने कुछ चीजों पर विश्लेषण किया तो पाया कि अधिकतर समानों पर बताई जा रही छूट सामान्यत: वर्षभर एक जैसी होती है, केवल त्यौहार पर बताने का तरीका बदल दिया जाता है।

    कुछ अन्य वस्तुओं पर देखा जाये तो पता चलेगा कि इतनी छूट आखिरकार क्यों मिल रही है । वह इसलिये कि क्योंकि कंपनियाँ वे उत्पाद बंद करने वाली हैं और अभी उनके पास बहुत सारा स्टॉक पड़ा है तो कंपनियाँ कुछ उपहारों के साथ वह उत्पाद त्यौहार के बाजार में उतार देती हैं।

    और वैसे भी जो नयी वस्तुएँ या सामान बाजार में उतारा जाता है उसमें कोई छूट नहीं होती है। कई बार देखा है कि छूट का विज्ञापन तो बहुत बड़ा दिया गया है परंतु नीचे एक तारा लगाकर लिख दिया जाता है कि छूट चुनिंदा वस्तुओं पर । जब ग्राहक विज्ञापन पढ़कर दुकान पर जाता है तो पता चलता है कि केवल एक छोटी सी अलमारी में ही छूट का समान है और वह भी उसके लिये किसी काम का नहीं है, तो ग्राहक का मन तो खराब होता ही है और समय भी बर्बाद होता है। परंतु इसके पीछे दुकानदार का मन होता है कि कम से कम ग्राहक दुकान पर तो आयेगा।

    आजकल ग्राहक भी बहुत समझदार हो गया है, वह लगभग हर जगह भाव पता कर लेता है और उसी के बाद खरीदारी करता है।

    खैर खासबात तो यह है कि अगर छूट देखकर कहीं किसी वस्तु की खरीदारी के लिये जा रहे हैं तो सारी बातों का पता करके ही जायें और यह निश्चिंत कर लें कि जो छूट दी जा रही है वह वास्तविक है या केवल लुभावना ऑफ़र है।

 

एक सीट की हार से तूफ़ान का अंदाजा लगाईये..नहीं तो बहुत देर हो जायेगी

    सरकार की तरफ़ से बयान आया है कि केवल एक सीट की हार से सरकार की कार्यप्रणाली आंकना ठीक नहीं है। चलो हम भी इस बात से सहमत हैं कि एक सीट की हार से किसी की हार जीत का पैमाना तय नहीं होता है, परंतु जनता का रूख लगता है कि कांग्रेस भांप नहीं पा रही है, कि उनका सफ़ाया तय है, क्योंकि जो भ्रष्टाचार के खिलाफ़ मुहीम चल रही है उसमें कांग्रेस सबसे बड़ा रोड़ा अटका रही है, अभी लोकपाल बिल पास करना केवल उनके पाले में आता है।

    अण्णा की टीम और अण्णा खुद कांग्रेस के विरोध में सड़क पर उतर आये हैं, और जो नकारात्मक दृष्टिकोण जनता के बीच में रख रहे हैं, उसे कांग्रेस को सकारात्मक दृष्टिकोण में बदलना असंभव नजर आ रहा है। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जिन्होंने १० वर्ष शासन किया और तानाशाही जैसा माहौल पैदा कर दिया। तब मजबूरी में जनता को भाजपा को चुनना पड़ा, उस समय मध्यप्रदेश में भाजपा की स्थिती ऐसी थी कि वह किसी को भी कोई सी भी सीट से टिकट दे देती तो वह जीत जाता। और यह हुआ भी, उस समय भी इन मुख्यमंत्रीजी ने हाईकमान को कहा था कि कांग्रेस की जीत तय है, जबकि सतही स्तर की सुगबुगाहट ये भांप ही नहीं पाये। और जनता ने कांग्रेस को धूल चटाकर इतिहास रच दिया। तब इन मुख्यमंत्री महोदय ने चुनाव के पहले बोला था कि अगर कांग्रेस हार गई तो वे अगले १० वर्ष तक कोई चुनाव नहीं लड़ेंगे।

    अब ये बेचार चुनाव तो लड़ नहीं सकते क्योंकि जनता के बीच में बोल दिया था, और मध्यप्रदेश में कांग्रेस का बंटाढ़ार करने के बाद अब आजकल ये बेबी बाबा के मुख्य सलाहकार हैं, और अब ये केन्द्र स्तर पर कांग्रेस की लुटिया डुबाने में भरपूर योगदान दे रहे हैं, और तो और कांग्रेस में इनसे एक से एक बड़े वाले हैं जो कि लुटिया डुबाने में नंबर १ की होड़ में हैं।

    यह कह दिया जाये कि लोकपाल बिल को न लाने से कांग्रेस अपने ताबुत में आखिरी कील ठोंक रहा है तो गलत नहीं होगा। अब भ्रष्टाचार पर इस लोकपाल बिल से कितना अंकुश लगेगा यह तो बिल पारित होने के बाद लागू होने पर ही पता चलेगा और तब इसमें शायद व्यवहारिक सुधारों की दरकार होगी।

भारत का सबसे बड़ा हिन्दी अखबार दैनिक भास्कर ईपेपर संस्करण (India’s largest Hindi News paper Dainik Bhaskar Epaper Edition)

    कई दिनों से हिन्दी के ईपेपर संस्करण पढ़ रहे हैं, हमें सबसे अच्छा दैनिक भास्कर लगता है क्योंकि भारत का सबसे बड़ा हिन्दी का अखबार है और लगभग हर संभाग स्तर पर उसके संस्करण उपलब्ध हैं, जैसे हम बैंगलोर में रहते हैं परंतु रोज उज्जैन का अखबार पढ़कर, उज्जैन के बारे में जानकारी मिलती रहती है।
पहली बार जब ईपेपर लोड किया जाता है तो वह कुछ ऐसा दिखता है ।
DainikBhaskarMainPage
    दैनिक भास्कर लगभग ११ प्रदेशों के संस्करण उपलब्ध करवाता है जो कि अपने आप में बहुत बड़ी बात है। जिस प्रदेश का संस्करण पढ़ना हो उस प्रदेश के टैब पर किल्क करके उसके प्रादेशिक संस्करण पर जाया जा सकता है और फ़िर उसे प्रदेश के जितने भी संस्करण उपलब्ध हैं वे वहाँ प्रदर्शित हो जाते हैं। और अगर उन संस्करणों पर भी माऊस कर्सर घुमाया जाये तो वहाँ के भी स्थानीय पृष्ठीय संस्करण की सूचि प्रदर्शित होती है। इससे सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि पढ़ने वाले के लिये नेविगेशन सरल हो जाता है।
    दूर रहने के कारण दैनिक भास्कर पढ़ते हैं, और अगर देखा जाये तो दैनिक भास्कर का ईपेपर संस्करण तकनीकी गुणवत्ता वाला नहीं है, इसमें बहुत सी खामियाँ भी हैं जो कि तकनीकी स्तर की हैं और इससे भास्कर का ऑनलाईन पाठक वर्ग जा रहा है क्योंकि दूसरे ईपेपरों में ज्यादा अच्छी तकनीक अपनाई जा रही है, तो अगर भास्कर को अपना पाठक वर्ग बढ़ाना है तो उन्हें तकनीकी खामियों को जल्दी से दूर करके पाठक वर्ग को सहूलियत देना होगी। अगर पेज को ठीक से पढ़ना हो तो  खबर को देखने के लिये क्लिक किया जाये तो खबर एक नई विन्डो में खुलती है और अधिकतर उसका प्रारूप भी ठीक नहीं होता है। और दूसरा तरीका है कि वहीं ऊपर बने पीडीएफ़ बटन को क्लिक करा जाये और उसे डाऊनलोड किया जाये परंतु इसमें बेवजह हमारी तो बैंड्विड्थ जा ही रही है और साथ ही दैनिक भास्कर के सर्वर पर प्रोसेसिंग लोड बढ़ता है।
    कई बार जब स्थानीय संस्करण पर माऊस ले जाया जाये तो भी वहाँ उस जिले के स्थानीय संस्करण प्रदर्शित नहीं होते हैं। और वेबपेज को वापिस से लोड करना पड़ता है जिससे खीझ होती है और वक्त की बर्बादी होती है।
    पेज बदलने के लिये लगने वाला समय भी ज्यादा है, जिसे कि तकनीक का इस्तेमाल कर कम किया जा सकता है। इतने बड़े अखबार से इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है।
    कई बार तो ऐसा होता है कि क्ल्कि करने पर खबर आती ही नहीं है, और फ़ोटो तो कभी भी दिखता ही नहीं है, केवल पेज पर फ़ोटो दिखेगा परंतु अगर उस खबर पर क्ल्कि किया जाये तो उसका फ़ोटो गायब हो जाता है। आज मन हुआ कि चलो हिन्दी में वर्ग पहेली खेली जाये परंतु जब वर्ग पहेली पर क्लिक किया तो अपना सिर पीट लिया सब कुछ छितरा हुआ अलग विन्डो में प्रकट हुआ। तो मजबूरी में दूसरे ईपेपर पर जाना पड़ा ।

ऑनलाईन भुगतान के लिये ग्राहक का विश्वास रेल्वे ने दिया है (Railway created faith in consumers for online payment and delivery)

    ऑनलाईन भुगतान आम आदमी ने कब से करना शूरू किया ? और आम आदमी को नेटबैंकिंग और ऑनलाईन भुगतान पर विश्वास कैसे हुआ ?  आजकल जो आम आदमी आराम से विश्वास से  बेधड़क ऑनलाईन नेटबैंकिंग और क्रेडिट कार्ड से भुगतान कर रहा है, पता है इसके लिये रेल्वे विभाग का बहुत बड़ा हाथ है ।
    रेल्वे ने ऑनलाईन टिकट की सुविधा देकर उपभोक्ता सेवा के क्षैत्र में क्रांति पैदा कर दी और आम ग्राहक को विश्वास दिलवाया कि अगर ऑनलाईन भुगतान किया जाये तो उसका टिकट उसे मिल जायेगा, रेल्वे ने वादा किया कि दो दिन में टिकट अगर आपको घर पर मिल जायेगा तो रेल्वे ने अपना वादा निभाया और ग्राहक के विश्वास को जीत लिया।
    ऑनलाईन खरीदी करने पर ग्राहक को समय पर सेवा उपलब्ध होने का जो विश्वास रेल्वे ने ग्राहकों को दिया, इस विश्वास का फ़ायदा भारत के लगभग सभी वेबसाईटों को मिला और ग्राहक ऑनलाईन खरीदी करने में विश्वास करने लगे। इस ईलेक्ट्रॉनिक भूगतान का आँकड़ा अगर देखा जाये तो अविश्वसनीय है, जिस तेजी से ई-भुगतान बढ़ता जा रहा है वह लगभग सभी के लिये अच्छा है, क्योंकि इसमें होने वाला खर्चा काफ़ी कम है और चूँकि इसमें मानवीय हस्तक्षेप नहीं है तो इसमें त्रुटि होने की संभावनाएँ  भी काफ़ी कम हैं।
    रेल्वे आम उपभोक्ता के लिये एक जरूरी सुविधा है और ई-टिकट के लिये रेल्वे ने अलग से शुल्क लेना शुरू किया जो कि आम उपभोक्ता की मजबूरी है, क्योंकि अगर वह रेल्वे स्टेशन जाकर टिकट लेगा तो उसका खर्चा उस शुल्क से कहीं ज्यादा है और उसके लिये उसे रेल्वे स्टेशन जाना होगा, पर ई-टिकटिंग में उपभोक्ता अपने घर पर ही अंतर्जाल की मदद से टिकट कर सकता है।
    ऑनलाईन खरीदी के लिये रेल्वे ने जो मॉडल पेश किया वह बहुत ही सराहनीय है, परंतु ऑनलाईन खरीदी करने पर रेल्वे ने जो अतिरिक्त शुल्क लगाया वह थोड़ी ज्यादती है, रेल्वे का मानवीय हस्तक्षेप कम हो गया और जो रेल्वे खिड़की पर जो ऑनलाईन ग्राहकों का आना कम हुआ उसका फ़ायदा उन ऑनलाईन ग्राहकों को नहीं दिया गया।
    ऑनलाईन खरीदी करने वाले ग्राहकों को कुछ अतिरिक्त सुविधा देनी चाहिये जैसे कि अगर कुछ प्रतिशत की छूट देनी चाहिये जिससे वे ग्राहक वापिस से रेल्वे की खिड़की पर ना जायें और जो ग्राहक रेल्वे खिड़की पर जाते हैं वे भी ऑनलाईन ग्राहक बन जायें। रेल्वे को साथ ही टोल फ़्री सुविधा भी देनी चाहिये जैसे कि आजकल की सभी ऑनलाईन पोर्टल्स दे रहे हैं।
    रेल्वे को मेरी तरफ़ से बहुत बहुत धन्यवाद है कि ग्राहकों का विश्वास ऑनलाईन भूगतान के प्रति जमाया।

पारिवारिक समय का कत्ल कर रहे है अंतर्जाल और फ़ेसबुकिया दोस्त (Facebook and Internet are killing family time)

    अभी कुछ समय से अपने ऊपर ही विश्लेषण कर रहा हूँ कि एक बार लेपटॉप पर कुछ थोड़ा सा कार्य लेकर बैठे तो कार्य तो खत्म हो गया, किंतु बाकी का समय फ़ेसबुक, ट्विटर या ब्लॉग पढ़ने में निकल जाता है, और यह समय किस तेजी से भागता है, यह तो सिस्टम ट्रे की घड़ी और सामने दीवार पर लगी घड़ी दोनों बताते रहते हैं।

    वर्षों पहले बचपन की सुनहली तस्वीर सामने आती है, जब न बुद्धुबक्सा था न अंतर्जाल तक पहुँचाने वाला ये तकनीकी यंत्र नहीं था, तब लगभग सभी परिवार अपने आप में बेहद मजबूती से बंधे हुए थे, और सबको एक दूसरे के दुख सुख का अहसास होता था, पता होता था। सामाजिक मूल्यों की परिभाषा अलग होती थी और अब सामाजिक मूल्यों की परिभाषा में बदलाव सहज ही देखा जा सकता है।

    कल फ़ेसबुक पर बहुत सारे दोस्तों को जो कि केवल फ़ेसबुक दोस्त थे, जो इसलिये बना लिये गये थे कि उनके और हमारे कुछ कॉमन दोस्त थे, हटा रहे थे। दोस्तों की इतनी भीड़ देखकर दंग था और उनके द्वारा जारी किये गये स्टेटसों को भी देखकर, कुछ तो केवल अपनी भड़ास ही निकाल रहे थे और कुछ केवल समय का कत्ल कर रहे थे, तो हमने सोचा कि ऐसे समय का कत्ल करने वाले दोस्तों से पीछा छुड़ाना ज्यादा ठीक होगा, ठीक है थोड़ा सा अपना पारिवारिक समय का कत्ल होगा।

    पीछा छुड़ाने से यह फ़ायदा तो होगा जो वाकई में दोस्त हैं उनके दुख सुख में शामिल तो हो सकेंगे उनकी वर्तमान गतिविधियों को देख तो सकेंगे। कल इतने समय फ़ेसबुक पर शायद पहली बार मैंने वक्त गुजारा और देखा कि कुछ लोग तो केवल दोस्त बनाने की होड़ में लगे हैं और सार्वाधिक दोस्त बनाने की होड़ में लगे हैं। केवल अपने मन को तृप्त करने के लिये ?

    समय आ गया है कि थोड़ा अपने समय का कत्ल करके ऐसी चीजों से बचा जाये और बेहतरीन समय प्रबंधन कर परिवार को उचित समय दिया जा सके।