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कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २२

त्रिपुरविजय: – पुराणों के अनुसार मय नामक राक्षस ने आकाश, अन्तरिक्ष और पृथ्वी पर सोने, चाँदी, और लोहे के तीन नगर बनाये थे। त्रिपुर में स्थित होकर विद्युन्माली, रक्ताक्ष और हिरण्याक्ष देवताओं को सताने लगे। इसके बाद देवताओं ने शिव से प्रार्थना की। शिव ने देवताओं की प्रार्थना से उन दैत्यों पर वाणों की वर्षा की, जिससे वह निष्प्राण होकर गिर पड़े। मय राक्षस ने त्रिपुर में स्थित सिद्धाऽमृत रस

के कूप में उन्हें डाल दिया, इससे वे पुन: जीवन धारण करके उन देवताओं को पीड़ित करने लगे। तब फ़िर विष्णु और ब्रह्मा ने गाय और बछ्ड़ा बनकर त्रिपुर में प्रवेश करके उस रसकूपाऽमृत को पी लिया, तदन्तर शिव ने मध्याह्न में त्रिपुर-दहन किया।



हंसद्वारम़् – पौराणिक प्रसिद्धि के अनुसार वर्षा ऋतु में हंस मानसरोवर जाने के लिये क्रौञ्च रन्ध्र में से होकर जाया करता हैं। इसी कारण इसे ’हंस द्वार’ कहा जाता है।


भृगुपतियशोवर्त्म – परशुराम भृगु ने कुल में प्रमुख पुरुष माना जाता है, इसलिये इसे भृगुपति या भृगद्वह कहा जाता है। क्रौञ्चारन्ध्र को परशुराम के यश का मार्ग कहा जाता है। इस विषय में दो कथाएँ प्रचलित हैं –
१. जब परशुराम शिव से धनुर्विद्या सीख कर आ रहे थे तो उन्होंने कौञ्च पर्वत को बींधकर अपना मार्ग बनाया था, इसलिये क्रौञ्चरन्ध्र को परशुराम के यश का मार्ग कहते हैं।
२. जब परशुराम कैलाश पर शिव से धनुर्विद्या सीख रहे थे, तब एक दिन कार्तिकेय की क्रौञ्च भेदन की कीर्ति की ईर्ष्या के कारण परशुराम ने क्रौञ्च भेदन किया। कारण चाहे जो हो, किन्तु इस कार्य को करके परशुराम की संसार में कीर्ति फ़ैल गयी थी।


क्रौञ्चरन्ध्रम़् – महाभारत में इसे मैनाक पर्वत का पुत्र बताया गया है। इसकी भौगोलिक स्थिती अस्पष्ट है।


तिर्यगायामशोभी – क्रौञ्च पर्वत का छिद्र छोटा है और मेघ बड़ा है; अत: उस छिद्र में से मेघ नहीं निकल पायेगा।  उसमें से निकलने के लिये उसके तिरछा होकर जाने की कल्पना कवि ने विष्णु के वामन अवतार से की है। तिरछा होने पर उसका आकार लम्बा हो जायेगा, जिससे वह विष्णु के फ़ैले हुए पैर के समान प्रतीत होगा।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २१

शुभ्रत्रिनयनवृषोत्खातपड़्कोपमेयाम़् – बैल आदि जब सींगों से मिट्टी आदि को उखाड़्ते हैं तब उसे उत्खातकेलि कहते हैं। यहाँ कवि ने कल्पना की है कि श्वेत हिम युक्त हिमालय पर स्थित काला मेघ ऐसा लगता है जैसे शिव के नन्दी बैल, ने जो कि श्वेत है, अपने ऊपर उखाड़ी हुई कीचड़ डाल दी हो।
                          यहाँ महाकवि ने शिव के लिए त्रिनयन शब्द का प्रयोग कर एक कथा की ओर संकेत किया है यह कथा महाभारत के अनुशासन पर्व

के अ. १४० में आयी है कि एक बार हास परिहास में पार्वती जी ने शिव के दोनों नेत्र बन्द कर लिये, जिससे सम्पूर्ण संसार में अन्धकार व्याप्त हो गया। तब शिव ने ललाट में तृतीय नेत्र का आविर्भाव किया। शिव का यह नेत्र क्रोध के समय खुलता है; क्योंकि कामदेव भी तृतीय नेत्र की अग्नि से ही भस्म हुआ था।



शरभा: – शरभ का अर्थ स्पष्ट नहीं है। आठ चरणों से युक्त यह एक प्राणी विशेष होता है। आजकल यह प्राप्त नहीं होता है। प्रो. विल्सन ने शरभ को शलभ का रुपान्तर माना है और उसका अर्थ टिड्डा किया है। पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने नृसिंह का अवतार लेकर हिरण्यकशिपु को चीरकर मार डाला। जब इतने पर भी उनका क्रोध शान्त नहीं हुआ और उनके क्रोध से लोक संहार का भय उपस्थित हो गया, तब देवताओं ने महादेव ने महादेव से प्रार्थना की। तब महादेव ने शरभ का रुप धारण कर नृसिंह को परास्त कर संसार को संरक्षण प्रदान किया।


संरम्भोत्पतनरभसा: – यह शरभ का विशेषण है। शरभ को सिंह का प्रतिपक्षी कहा जाता है तथा इसे सिंह से भी शक्तिशाली माना जाता है; अत: मेघ की गर्जन को सिंह की दहाड़ समझकर अहंकार के कारण शरभ का मेघ पर आक्रमण करना स्वाभाविक है। अत: कवि यहाँ मेघ पर आक्रमण की कल्पना करता है।


चरणन्यासम़् – पूर्वी देशों में ऐसी मान्यता है कि पर्वत आदि स्थानों पर देवों तथा सन्तों आदि के निशान होते हैं। शम्भुरहस्य में शिव के पैरों के चिह्नों को श्रीचरणन्यास कहा जाता है। चरणन्यास को कुछ लोग हरिद्वार में हर की पैड़ी स्थान मानते हैं।


परीया: – हिन्दू धर्म में देव आदि की परिक्रमा का विशेष विधान है। इसमें श्रद्धा के साथ भक्त लोग अपने दायें हाथ की ओर देवमूर्ति करके उसका चक्कर लगाते हैं, इसे परिक्रमा कहते हैं।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २०

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड अ. ३९-४० के अनुसार राजा सगर ने इन्द्र पद प्राप्ति के लिये अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ किया, परन्तु पर्व के दिन इन्द्र ने राक्षस का रुप बनाकर अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को चुराकर पाताल में कपिल मुनि के आश्रम में बाँध दिया। सगर के साठ हजार पुत्र घोड़े को खोजते हुए कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे और उनको ही उस अश्व का चोर

समझ लिया। उन्होंने मुनि का अपमान किया। मुनि ने भी अपने तेज से उन सभी को भस्म कर दिया। जब वे नहीं लौटे तो अंशुमान ने उनकी भस्मी खोजी तथा मुनि से प्रार्थना की। तब मुनि ने कहा यदि गंगा स्वर्ग से पृथ्वी पर आ जाये तो इनका उद्धार हो सकता है। इस पर राजा भगीरथ घोर तपस्या करके गंगाजी को पृथ्वी पर लाये तथा अपने पितरों का उद्धार किया। इसलिये गंगा को सगर पुत्रों के लिये स्वर्ग की सीढ़ी कहा जाता है।



गौरीवक्त्रभ्रुकुटिरचनाम – पौराणिक कथा के अनुसार ब्रह्मा ने भगीरथ ने कहा कि तुम तपस्या करके शिव को प्रसन्न करो, जिससे कि वे स्वर्ग से गिरती हुई गंगा को सिर पर धारण कर लें। राजा भगीरथ ने वैसा ही किया। इससे यहाँ कवि ने कल्पना की है कि जब शिव ने गंगा को सिर पर धारण कर लिया, तब पार्वती का भी सौतिया डास से भृकुटि तान लेना स्वाभाविक था। इसे देखकर गंगा ने अपने झाग से पार्वती का उपहास किया, परन्तु गंगा ने प्रौढ़ा नायिका के समान पार्वती की उपेक्षा करके शिव के केश पकड़ लिये।
सुरगज देवताओं का हाथी है, दिग्गज आठ माने जाते हैं। अमरकोश के अनुसार यह निम्न हैं –
ऐरावत: पुण्डरीको वामन: कुमुदोऽञ्जन: ।
पुष्पदन्त: सार्वभौम: सुप्रतीकश़्च दिग्गजा: ॥
अस्थानोपगतयमुनासड़्गमा – स्थान से भिन्न प्राप्त कर लिया है, यमुना का संगम जिसने। भाव यह है कि गंगा और यमुना का संगम का स्थान प्रया है, किन्तु रवि ने कल्पना की है कि कनखल में गंगा पर पहुँचकर जब मेघ जल लेने के लिये नीचे झुकेगा तो उसकी परछाई से ऐसा लगेगा कि जैसे कनखल में ही गंगा-यमुना का संगम उपस्थित हो गया हो। यमुना का जल श्याम होता है और मेघ का रंग भी श्याम है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – १९

कौरवं क्षेत्रम़् – कुरुक्षेत्र थानेसर से दक्षिण-पूर्व दिशा में स्थित प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। शतपथ ब्राह्मण में भी इसे धर्मक्षेत्र कहा गया है। यहाँ सूर्यकुण्ड या ब्रह्मसर नाम का तालाब है। जिस पर सूर्य ग्रहण के अवसर पर धार्मिक मेला लगता है। महाभारत का युद्ध भी इसी क्षेत्र में हुआ था।


गाण्डीव अर्जुन के धनुष का नाम है।  कहा जाता है कि यह धनुष सोम ने वरुण को तथा वरुण ने अग्नि को दिया था। खाण्डव को जलाने के समय अग्नि से

यह अर्जुन को प्राप्त हुआ था।



रेवतीलोचनाड़्काम़् – रेवती बलराम की पत़्नी का नाम है। बलराम को सुरा अत्यन्त प्रिय थी। रेवती उसकी सहचरी होती थी। अत: जब रेवती मद्य प्रस्तुत करती थी तो उसके नेत्रों का प्रतिबिम्ब मद्य में पड़ता था। इसलिये बलराम को और भी अधिक अभीष्ट हो जाती थी। इस प्रकार की शराब छोड़ना यद्यपि बलराम के लिये कठिन था। किन्तु सरस्वती के जल के लिये उसने यह भी छोड़ दी थी।


सरस्वती एक प्रसिद्ध प्राचीन नदी है, जो कुरुक्षेत्र के पास होकर बहती थी। आज यह प्राय: लुप्त है।


अनुकनखलम़् – कनखल एक पुराना तीर्थ स्थल है, जो हरिद्वार के पास स्थित है। स्कन्दपुराण में कनखल की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी है –
खल: को नात्र मुक्तिं वै भजते तत्र मज्जनात़् ।
अत: कनखलं तीर्थं नाम्ना चक्रुर्मुनीश्वरा: ॥
इसके अतिरिक्त यह भी मान्यता है कि यहाँ पर स्नान करने से पुनर्जन्म नहीं होता है –
हरिद्वारे कुशावर्ते विल्वके नीलपर्वते ।
स्नात्वा कनखले तीर्थे पुनर्जन्म न विद्यते ॥
गंगा को जह्नु ऋषि की पुत्री कहा गया है। वाल्मीकि रामायण की एक कथा के अनुसार जब गंगा भगीरथ का अनुसरण करते हुए पृथ्वी पर आयी तब मार्ग में स्थित जह्नु ऋषि के आश्रम को भी बहा ले गयी। ऋषि ने इसे गंगा का गर्व समझकर इसे पी लिया। देवताओं, ऋषियों आदि को महान आश्चर्य हुआ और उन्होंने जह्नु ऋषि से कहा कि यदि आप गंगा को प्रकट कर दें तो आप उसके पिता कहलायेंगे। तब जह्नु ऋषि ने उसे कान से निकाल दिया। तभी से गंगा को जह्नु ऋषि की कन्या (जाह्नवी) कहते हैं।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – १८

शाड़र्गिण: वर्णचौरे – कृष्ण के धनुष का नाम शाड़र्ग है, इसलिये उसे शाड़र्गी कहते हैं। कृष्ण का वर्ण श्याम है तथा मेघ का वर्ण भी श्याम है; अत: उसे कृष्ण के वर्ण को चुराने

वाला कहा गया है।

गगनतय: – दिव्य सिद्ध गन्धर्व आदि कुछ देव योनियाँ आकाश में विचरण करती है; अत: उनके लिये गगनगति कहा गया है।
कवि ने कल्पना की है कि जब आकाश में विचरण करने वाले मेघ चर्मण्वती के प्रवाह को देखेंगे तो ऐसा प्रतीत होगा कि मानो वह पृथ्वी का मोतियों का हार हो, जिसमें बीच में इन्द्रनील मणि पिरोया गया हो।
कुन्द्पुष्प श्वेत होता है और भ्रमर उसके पीछे मतवाले हो जाते हैं। यदि कोई कुन्द की शाखा को हिला दे तो भ्रमर भी शाखा के पीछे-पीछे दौड़ते हैं। मेघ के दर्शन से दशपुर की स्त्रियों के नेत्र ऐसे लग रहे हैं जैसे श्वेत कुन्द पुष्प के साथ-साथ भ्रमर चल रहा हो।
दशपुर – यह रन्तिदेव की राजधानी थी। इसकी स्थिती के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ इसे आधुनिक धौलपुर दशपुर मानते हैं और कुछ आधुनिक मन्दसौर मानते हैं।
ब्रह्मवर्त – मनुस्मृति के अनुसार सरस्वती और दृष्दवती नदियों के बीच स्थित स्थान को ब्रह्मवर्त कहा जाता है।
छायया गाहमान: – यक्ष मेघ को निर्देश देता है कि वह छाया द्वारा ही ब्रह्मवर्त में प्रवेश करे, शरीर से नहीं; क्योंकि पवित्र स्थलों को लाँघना नहीं चाहिये। कहा भी है – “पीठक्षेत्राश्रमादीनि परिवृत्यान्यतो व्रजेत़्”। ब्रह्मवर्त भी पूजनीय प्रदेश है अत: इसी कारण उसे न लाँघने को कहा है।
क्षत्रप्रधनपिशुनम़् – कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध में मारे गये मनुष्यों के रुधिर से वहाँ की भूमि अब भी लाल है। अब भी वहाँ मनुष्यों के कपाल, अस्थि आदि निकल आते हैं। इसलिये इसे युद्ध के चिह्नों से युक्त कहा गया है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – १७

हुतवहमुखे सम्भृतम़् – यह तेज का विशेषण है अर्थात तारकासुर के वध के लिये देवताओं की प्रार्थना पर महादेव ने अपने वीर्य को पार्वती में आधान किया, जब वे उसको धारण करने में समर्थ न हुई तो उन्होंने अग्नि के मुख में रख दिया। इसी कथा की ओर महाकवि कालिदास ने

यहाँ संकेत किया है। इसके बाद जब अग्नि भी सहन न कर सकी तो उसे गंगा में तथा गंगा ने उसे सरकण्डों में डाल दिया। इस प्रकार स्कन्द की उत्पत्ति हुई। इसीलिये इसे पावकि, अग्निभू कहा जाता है।

यद्यपि महाभाष्य तथा कौटिल्य अर्थशास्त्र में स्कन्द का उल्लेख मिलता है, परन्तु स्कन्द की उत्पत्ति की कथा पूर्णरुप से सर्वप्रथम वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड अ. ३६-३७ में मिलती है, जहाँ विश्वामित्र ने इस कथा को राम और लक्ष्मण को सुनाया है। महाभारत के वन पर्व, शल्य पर्व तथा अनुशासन पर्व में भी यह कथा आयी है। महाभारत में स्कन्द के नाम की सार्थकता इस प्रकार बतायी है –
स्कन्नत्वात्स्कन्दतां प्राप्तों गुहावासाद़् गुहोऽभवत़्।
अर्थात वीर्य के स्खलित होने के कारण वे स्कन्द कहलाये तथा गुहा में निवास करने के कारण गुह कहलाये।
पुत्रप्रेमणा – मयूर कार्तिकेय का वाहन माना जाता है और पार्वती अपने कानों में कमल की पंखुड़ी धारण करती थीं, परन्तु पुत्र कार्तिकेय से स्नेह रखने के कारण वे मयूर के गिरे हुये पंख को कानों में धारण करती हैं।
महाभारत वनपर्व अ. २०८ श्लोक ८-१० के अनुसार राजा रन्तिदेव ने गोमेध यज्ञ किया था, उसमें दो सहस्त्र गायों की बलि दी गय़ी। उनके विपुल रक्त प्रवाह ने एक नदी का रुप ले लिया, जिसे लोग चर्मण्वती कहते थे, आजकल उसे चम्बल कहा जाता है।
रन्तिदेव की कीर्ति के सम्बन्ध में अनेक कथायें महाभारत के शान्तिपर्व, द्रोणपर्व, वनपर्व में वर्णित हैं। ये संस्कृति के छोटे पुत्र तथा दशपुर के राजा थे। ये दानदाता तथा यज्ञकर्ता के रुप में प्रसिद्ध थे, सपरिवार भूखे रहकर भी ये अतिथियों को दान देकर उनका सम्मान करते थे। महाभारत शान्तिपर्व अ. २९ में यह कथा विस्तृत रुप में वर्णित है तथा भागवत पुराण स्क. ९ अ. २१ में भी वर्णित है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – १६

प्राप्त्तवानीरशाखम़् – ग्रीष्म ऋतु आने पर नदी का प्रवाह कम हो जाता है और किनारे छोड़ देता है, किन्तु फ़िर भी झुकी हुई बेंत की शाखायें उसका स्पर्श किये रहती हैं।
सलिलवसनम़् – यहाँ कवि ने कल्पना की है कि जिस प्रकार कोई प्रियतम नवयुवती के नितम्बों से वस्त्र खिसकता है और वह नवयुवती उस वस्त्र को अपने हाथों में पकड़ लेती है

उसी प्रकार मेघ ने अपनी प्रेयसी गम्भीरा के जल रुपी वस्त्र को उसके नितम्बों से हटा दिया है। उसका कुछ भाग ही गम्भीरा के हाथ में रह गया है। इस प्रकार यहाँ कवि ने मेघ में नायक का, गम्भीरा में नायिका का, वानीर शाखा में हाथ का, जल में नील वस्त्र का और तट में नितम्ब का आरोप किया है। (गम्भीरा नाम की एक छोटी सी नदी, जो कि मालव देश में ही बहती है और क्षिप्रा की सहायक नदी है।)

देवगिरी पर्वत – इस पर्वत पर भगवान कार्तिकेय स्थायी रुप से निवास करते हैं, वहीं कार्तिकेय का मन्दिर भी है।
व्योमगड़्गा – गंगा को आकाश, पृथ्वी, और पाताल तीनों लोकों में स्थिति मानी जाती है तथा क्रमश: देवता, मनुष्य और नागों का सन्ताप हरती है। इसलिये इसे  त्रिपथगा भी कहते हैं तथा क्रमश: आकाश गंगा, भागीरथी गंगा और भोगवती गंगा भी कहते हैं।
नवशशिभूता – यहाँ नवशशिभूता शब्द का प्रयोग करके महाकवि ने पौराणिक कथा की और संकेत किया है, समुद्र मंथन के समय उत्पन्न हलाहल का शिव ने पान किया था तथा उसके प्रभाव को शान्त करने के लिये समुद्र मंथन से निकले हुये चन्द्रमा को उन्होंने धारण किया था। इसलिये इन्हें नवशशिभूता कहते हैं।
वैदिक साहित्य में यद्यपि शिव और चन्द्रमा का उल्लेख है, परन्तु शिव द्वारा चन्द्रमा को धारण करने का उल्लेख नहीं है, वाल्मीकि रामायण में समुद्र मंथन की कथा है, परन्तु शिव द्वारा चन्द्रमा को धारण करने का वर्णन नहीं है। यह वर्णन विष्णुपुराण १/९/८२-९७ में वर्णित है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – १५

चिरविलसनात्खिन्न्विद्युत्कलत्र: – विलसन का सामान्य अर्थ चमकना है, परन्तु यहाँ विद्युत को मेघ की पत़्नी कहा है। इसलिए इसका अर्थ रतिक्रीड़ा करना, इठलाना, आदि भी किया जा सकता है अर्थात जिस प्रकार पत़्नी अपने पति की गोद में लेटकर, इठलाती रहती है और काम क्रीड़ा को बढ़ाकर, उसमें सहयोग कर, फ़िर थक कर सो जाती है, उसी प्रकार विद्युत भी इठलाकर तुम्हारी काम-क्रीड़ा बढ़ाक

र, रतिक्रीड़ा कर थक कर सो जायेगी। उस दशा में तुम उसे विश्राम देना।

कोई भी सज्जन यदि अपने मित्र के किसी भी कार्य को अपने हाथ में ले लेता है तो वह उस कार्य की सिद्धी होने तक प्रयत्न करता है, वह उस कार्य को करने में मन्द नहीं पड़ता। यक्ष मेघ से कहता है, इसी प्रकार तुमने भी अपने मित्र का जो कार्य अपने हाथ में लिया है, उसे पूरा करने के लिये जो मार्ग शेष बचा है, उसे प्रात: सूर्योदय होते ही पूरा करने के लिये पड़ना।
ज्ञातेऽन्यास्ड़्गविवृते खण्डितेर्ष्याकषायिता – अन्य स्त्री के सहवास से विकृत (चिह्नित) देखकर जो ईर्ष्या से क्रुद्ध हो उठती हो, उसे खण्डिता नायिका कहते हैं, कहने का अभिप्राय यह है कि पति के लिये पत़्नी श्रंगार करके बैठी थी, परन्तु वह किसी अन्य स्त्री के साथ रात्रि में सहवास करके प्रात: घर आया है, उसके होठों पर लाली तथा कपोलों पर सिंदूर लगा है, उसे देख कर पत़्नी जल-भुन जाती है, ऐसी स्त्री को पति चाटुवचनों से पैरों में गिरकर प्रसन्न करता है।
कररुधि स्यादनल्पाभ्यसूय: – कमलिनी सूर्य के पत़्नी के रुप में प्रसिद्ध है। यहाँ उसे खण्डिता नायिका के रुप में प्रस्तुत किया गया है। कामुक क्रीड़ाओं में विघ्न डालने वाले को कोई भी नहीं चाहता है। सूर्य ने रात्रि कहीं अन्यत्र व्यतीत की है, प्रात: जब आया तो उसका कपोल सिन्दूर से लाल था; अत: उसे देखकर कमलिनी तो पड़ी, उस पर पड़ी हुई ओस की बूँदे ही उसके आँसू हैं। सूर्य को उसके आँसू पोंछने हैं, अत: आँसू पोंछने के लिये कर (किरण) बढ़ाया है; अत: यदि मेघ उसके कार्य में विघ्न डालकर उसके कर को रोक देता है, तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हो जायेगा। सूर्य से द्वेष करना शास्त्र-विरोधी है, उससे कल्याण का नाश तठा रौरव नरक की प्राप्ति होती है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – १४

सृष्टि संहार के समय शिव द्वारा किया जाने वाला नृत्य प्रसिद्ध है, उसे ताण्डव नृत्य कहते हैं। नाट्यशास्त्रियों ने नृत्य और नृत्त में अन्तर किया है। दशरुपक में लिखा है – “अन्यद़् भावाश्रयं नृत्यं नृत्तं ताललयाश्रयम़्” अर्थात़् भाव पर आश्रित अंगसञ्चालन नृत्य कहलाता है तथा ताल व लय पर आश्रित हस्त-पाद के सञ्चालन को नृत्त कहते हैं।
पशुपते: – पशु के स्वामी। यहाँ पशु से अभिप्राय सामान्य पशु से नहीं है, अपितु शैव दर्शन के अनुसार

पदार्थ के तीन भेद हैं – पशु, पाश और पति। अविद्या रुपी पाश से बद्ध जीवात्मा को पशु, पाश के समान बन्धन करने के कारण अविद्या को पाश तथा अविद्यापाश से मुक्त शिव को पति कहते हैं।

गजासुर (गज का रुप धारण करने वाले असुर) को मारकर शिव ने रक्त से सने हुए चर्म को भुजाओं से धारण करते हुए ताण्डव नृत्य किया था। और यक्ष मेघ से कहता है कि तुम गजासुर की गीली चर्म बनकर शिव की इच्छा पूर्ति करना; क्योंकि गजासुर के गीले चर्म को शिव को ओढ़े हुए देख कर पार्वतीजी डर जाती हैं और वह ताण्डव नृत्य भी नहीं देख सकतीं। यदि तुम गीले चर्म का सा स्थान ले लो तो पार्वतीजी भी निर्भय होकर ताण्डव नृत्य देख सकेंगी। शिवपुराण में यह कथा रुद्र सं. – युद्ध खण्ड अ. ५७ में आयी है।
योषित – यह शब्द सामान्यत: साधारण स्त्री का वाचक है।
अभिसारिका – जो स्त्री रात के अन्धकार में अपने प्रियतम से मिलने उसके घर अथवा किसी विशेष संकेत स्थल पर जाती है। यक्ष मेघ को निर्देश देता है कि तुम अभिसारिकाओं को बिजली चमकाकर उन्हें मार्ग तो दिखलाना, परन्तु वर्षा या गर्जन करके उन्हें भयभीत न कर देना; क्योंकि वे अभिसारिकाएँ एक तो स्वभावत: ही डरपोक होती हैं तथा दूसरे छिपकर अपने प्रेमी के पास रमण करने जा रही हैं। इससे उन्हें लोक निन्दा आदि का भय बना रहता है। ऐसे में मेघ गर्जन आदि से और भी अधिक भयभीत हो जायेंगी।
सूचिभेद्य – इतना प्रगाढ़ अन्धकार जो कि सुई से छेदा जा सके। जब धागे में गाँठ पड़ जाती है, तब उसे सुईं की नोक से खोलते हैं। इससे गाँठ की सूक्ष्मता और घनिष्ठता सूचित होती है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – १३

कण्ठच्छवि: – कण्ठ के समान कान्ति वाला, यह विशेषण मेघ के लिये आया है। कहने का आशय यह है कि क्षीर सागर के मंथन के समय कालकूट नामक विष भी निकला था, जिसका पान शिव ने किया था। परिणामत: उनका कण्ठ विष के प्रभाव से नीला पड़ गया था। इसी कारण उन्हें नीलकण्ठ भी कहा जाता है।
चण्डिश्वरस्य पुण्यं धाम – यह कहने का अभिप्राय उज्जयिनी पुरी में स्थित महाकाल मंदिर

से है। कहीं-कहीं चण्डेश्वरस्य पाठ भी मिलता है। इसका अर्थ है – चण्डस्य ईश्वर: अर्थात चण़्उ नाम के गण स्वामी। यक्ष का मेघ से आग्रह है कि वह उज्जयिनी में स्थित शिव के महाकाल मन्दिर में अवश्य जाये। महाकाल को देखकर मुक्ति मिल जाती है, ऐसा भी प्रसिद्ध है –

आकाशे तारकं लिङ्गं पाताले हाटकेश्वरम़्।
मृत्युलोके महाकालं दृष्टवा मुक्तिमवाप्नुयात़्॥
महाकाल शिवलिङ्ग १२ ज्योतिर्लिङ्गों में से एक है। शिव पुराण में कहा गया है –
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम़्।
उज्जयिन्यां महाकालमो~ड्कारं परमेश्वरम़्॥
और कहा सन्ध्या समय तक वहीं महाकाल मंदिर में रुके रहना तथा सन्ध्या के समय होने वाली शिव की पूजा में सम्मिलित होकर गर्जन करके नगाड़े का कार्य करना, जिसमें तुम गर्जन के विशेष फ़ल को प्राप्त करोगे।