कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २१

शुभ्रत्रिनयनवृषोत्खातपड़्कोपमेयाम़् – बैल आदि जब सींगों से मिट्टी आदि को उखाड़्ते हैं तब उसे उत्खातकेलि कहते हैं। यहाँ कवि ने कल्पना की है कि श्वेत हिम युक्त हिमालय पर स्थित काला मेघ ऐसा लगता है जैसे शिव के नन्दी बैल, ने जो कि श्वेत है, अपने ऊपर उखाड़ी हुई कीचड़ डाल दी हो।
                          यहाँ महाकवि ने शिव के लिए त्रिनयन शब्द का प्रयोग कर एक कथा की ओर संकेत किया है यह कथा महाभारत के अनुशासन पर्व

के अ. १४० में आयी है कि एक बार हास परिहास में पार्वती जी ने शिव के दोनों नेत्र बन्द कर लिये, जिससे सम्पूर्ण संसार में अन्धकार व्याप्त हो गया। तब शिव ने ललाट में तृतीय नेत्र का आविर्भाव किया। शिव का यह नेत्र क्रोध के समय खुलता है; क्योंकि कामदेव भी तृतीय नेत्र की अग्नि से ही भस्म हुआ था।



शरभा: – शरभ का अर्थ स्पष्ट नहीं है। आठ चरणों से युक्त यह एक प्राणी विशेष होता है। आजकल यह प्राप्त नहीं होता है। प्रो. विल्सन ने शरभ को शलभ का रुपान्तर माना है और उसका अर्थ टिड्डा किया है। पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने नृसिंह का अवतार लेकर हिरण्यकशिपु को चीरकर मार डाला। जब इतने पर भी उनका क्रोध शान्त नहीं हुआ और उनके क्रोध से लोक संहार का भय उपस्थित हो गया, तब देवताओं ने महादेव ने महादेव से प्रार्थना की। तब महादेव ने शरभ का रुप धारण कर नृसिंह को परास्त कर संसार को संरक्षण प्रदान किया।


संरम्भोत्पतनरभसा: – यह शरभ का विशेषण है। शरभ को सिंह का प्रतिपक्षी कहा जाता है तथा इसे सिंह से भी शक्तिशाली माना जाता है; अत: मेघ की गर्जन को सिंह की दहाड़ समझकर अहंकार के कारण शरभ का मेघ पर आक्रमण करना स्वाभाविक है। अत: कवि यहाँ मेघ पर आक्रमण की कल्पना करता है।


चरणन्यासम़् – पूर्वी देशों में ऐसी मान्यता है कि पर्वत आदि स्थानों पर देवों तथा सन्तों आदि के निशान होते हैं। शम्भुरहस्य में शिव के पैरों के चिह्नों को श्रीचरणन्यास कहा जाता है। चरणन्यास को कुछ लोग हरिद्वार में हर की पैड़ी स्थान मानते हैं।


परीया: – हिन्दू धर्म में देव आदि की परिक्रमा का विशेष विधान है। इसमें श्रद्धा के साथ भक्त लोग अपने दायें हाथ की ओर देवमूर्ति करके उसका चक्कर लगाते हैं, इसे परिक्रमा कहते हैं।

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