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FII-Money-Outflow

भारत का पैसा विदेशों में क्यों जा रहा है?

भारतीय बाजारों से पैसा भारत के बाहर के बाजारों में जा रहा है। यह रकम बहुत बड़ी है।

सेकेंडरी मार्केट – बाजार में 3 बड़े निजी बैंक जो एडवाइजर का भी काम करते हैं, उनकी सलाह है कि अपने पोर्टफोलियो का 20% विदेशी बाजारों में लगायें, वहीं 3 वर्ष पूर्व उनकी सलाह 0% की थी।

प्राइवेट मार्केट – भारत से सैकड़ों स्टार्टअप विदेश जा रहे हैं। 

क्या असर पड़ेगा –

भारत $5 ट्रिलियन इकोनॉमी करना चाहता है किस्से भारत विश्व की तीसरी बड़ी इकोनॉमी बन जाये।

लेकिन भारत बहुत से मोर्चों पर असफल है, जैसे बढ़िया टैलेंट, कैपिटल, एंटरप्राइज, और यह एक बहुत बड़ी मुश्किल है।

हमारा सारा टेलेंट, पैसा और स्किल्स बाहर देशों में जा रहा है, उन देशों की इकोनॉमी को उन्नत, कुशल और समृद्ध बनाने में लगा हुआ है।

भारत के लिये यह सर से पानी गुजरने जैसा है और इस नकसीर को यहीं रोकना होगा, वरना तो बहुत देर हो चुकी होगी।

अमेरीका ही क्या कई अन्य देश व्यवस्थित ढंग से लालच देकर पूरे विश्व से अच्छे टैलेंट को चुरा रहे हैं। कितने ही अमेरीका के पॉपुलर पॉडकास्ट लगातार जॉब एक्ट, इमिग्रेशन एक्ट, स्पेशल परपज वीसा पर बातें करते हैं।

हो यह रहा है कि ये कुछ देश विश्व के हर कोने से टैलेंट को अपने यहाँ जगह दे रहे हैं, मतलब की पूरे विश्व के टैलेंट को चूस रहे हैं। भारत के बहुत ही गंभीरता से इस बारे में सोचना होगा और सबसे पहले टैलेंट को चिह्नित करके उनको अपने ही देश में अपने देश की उन्नति के लिये स्वीकार करना होगा। 

राष्ट्रवादी और कट्टर देशभक्त होकर अमेरिका पर ऊँगली उठाना बहुत आसान है कि अमेरिका हमारा पूरा टैलेंट चुरा कर ले जाता है। असली प्रश्न तो यह है कि – भारत ऐसा होने कैसे दे रहा है। गाँधी जी ने भी कहा था कि अगर आप किसी पर ऊँगली उठाते हो तो वो एक ही होती है, परंतु तीन ऊँगलियाँ ख़ुद की तरफ़ उठती हैं।

भारत से पैसा बाहर जाने से रोकने के लिये म्यूचुअल फंड जो कि विदेशी बाज़ारों में निवेश करते हैं उनकी विदेशी मुद्रा की लिमिट ख़त्म हो चुकी है और नया पैसा इस तरह के फंड्स विदेश नहीं जा पा रहे हैं। पर यक़ीन मानिये यह पैसा है, पैसा पानी जैसा होता है, अगर पैसे को बाहर जाना है तो वह अपने तरीक़े ढूँढ लेगा, और बाहर के बाज़ारों में बह जायेगा।

FII Fund Outflow from India

स्टार्टअप को स्केल अप करने के लिये बड़े फंड की ज़रूरत है पर भारत में बड़े बिज़नेस घराने इस तरफ़ बहुत ज़्यादा एक्टिव नहीं हैं। Web3 मीटिंग दिल्ली, बैंगलोर या मुंबई में नहीं हुई यह हुई दुबई में और इसमें 75% प्रतिभागी भारतीय थे बाक़ी के रशिया और यूरोप के थे। अधिकतर स्टार्टअप या तो दुबई में जा चुके हैं या जाने की प्रोसेस में हैं। Web3 इंटरनेट का अगला वर्शन कहा जा रहा है, और उसके लिये दुबई में इसका प्लेटफ़ॉर्म तैयार है जो कि डिसेंट्रलाईज होगा और ब्लॉकचैन पर चलेगा। जबकि भारत में स्टार्टअप अभी भारतीय सरकारी व्यवस्था और उनके नियामकों से जूझ ही रहे हैं, जहाँ नियम कभी भी बदल जाते हैं और उसका किसी को अता पता नहीं होता है। भारत में हर तरफ़ टैक्स की मार भी है।

दरअसल यह बदलाव शुरू हुआ है नवंबर 2021 से, जब क्रिप्टोकरंसी के लिये क्रिप्टो बिल में ज़्यादा टैक्स और कठिन नियमों के चलते दुबई या किसी और देश जा रहे हैं, अब प्रश्न यह नहीं होता है कि “क्या तुम जा रहे हो?” बल्कि प्रश्न होता है कि “कब जा रहे हो?”

स्टार्टअप जब काम करना शुरू करते हैं तो वे आधुनिक तकनीक पर काम करते हैं और वह तकनीक सरकारी अमले को समझाना लगभग असंभव ही होता है और स्टार्टअप को भारतीय नियमों में बँधकर काम करना होता है, जबकि वे तकनीक विश्व के लिये बना रहे होते हैं, जब स्टार्टअप शुरू होते हैं तो प्रोसेस में कई चीजें ऐसी होती हैं कि उन्हें भी नहीं पता होता कि उन चीजों के लिये भारत में सरकार से बार बार हर चीज के लिये परमीशन लेना होगा। अगर किसी ने डिजिटल एसेट्स का ही काम शुरू कर दिया तो उस पर भारत में 30% टैक्स हो और 1% टीडीएस भी। हर स्टार्टअप के अपने प्रोटोकॉल होते हैं और उन्हें ही पता नहीं होता है कि वाक़ई क्या लीगल है और क्या नहीं, आप कोई NFT का उपयोग करना चाहते हैं, या डिजिटल कॉइन लाँच करना चाहते हैं, यह सब तो स्टार्टअप शुरू करते समय पता नहीं होता है।

वैसे भी ऐसा क्यों हो रहा है तो आप ट्विटर पर क्या ट्रेंड कर रहा है, अपने टीवी खोलकर सामने देख लीजिये, या फिर अख़बारों के मुख्य पेज ही देख लें, फिर शायद यह प्रश्न नहीं पूछें।

लठ्ठ युद्ध

हिन्दू कैसे सुरक्षित हों, सरकार क्या करें?

हमारी सरकार अब केवल एक ही मुद्दे पर बन रही है कि हिन्दू सुरक्षित रहें। परंतु ऐसा कोई कदम हिन्दुओं के लिये उठाया ही नहीं जा रहा है कि हिन्दू सुरक्षित महसूस करें। सरकार चाहे तो ऐसे बहुत से कदम उठा सकती है जिससे हिन्दू सुरक्षित महसूस करें –

१. बहुविवाह प्रथा – बहुविवाह प्रथा हमारे यहाँ सदियों से चली आ रही है, परंतु हिन्दुओं पर नकेल कसने के लिये केवल एकल विवाह सिस्टम बना दिया गया, जिससे हमारी पीढ़ीयाँ भी सिमटती चली गईं। अब हालत यह है कि बच्चे भी एकल विवाह संस्था में हम एक ही करना चाहते हैं, और उस बच्चे पर पढ़ाई व परिवार का इतना प्रेशर होता है कि पढ़ ले, नौकरी कर ले, नहीं तो शादी नहीं होगी और अपना परिवार याने कि वंश आगे नहीं बढ़ेगा। आजकल सभी परिवार अपनी लड़की देने के पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं कि लड़का सैटल्ड हो, ऐसा क्यों हो रहा है, क्योंकि हमारे यहाँ लड़कियाँ कम हैं और लड़कों को सही पढ़ाई न करने के कारण फिर उनके विवाह में बहुत तकलीफ़ होती है।

बहुविवाह प्रथा से हमारे हिन्दुओं में भी लड़कियों की कमी नहीं रहेगी और न ही लड़कों पर प्रेशर रहेगा, जिससे वे भी अपना दिमाग़ धार्मिक ग्रंथों में लगाकर, हथियार चलाने की प्रैक्टिस कर पायेंगे।

२. धार्मिक शिक्षा – हमारे हर मंदिर में धार्मिक शिक्षा का प्रबंध हो, व हर मंदिर में अपने पुराणों, गीताजी व अन्य धार्मिक ग्रंथों पर नियमित कार्यक्रम हो, व कोई ऐसा सर्टिफिकेट निश्चित कर दिया जाये कि हिन्दुओं को कम से कम इस ग्रेड का सर्टिफिकेट इस मंदिर से लेना ही होगा। हर मंदिर में हिन्दुओं के लिये भोजन की व्यवस्था रखी जाये।

३. सरकारी नौकरी – यह भी सुनिश्चित किया जाये कि हर परिवार में किसी एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी दी जाये, जिससे परिवार पर कमाई करने का बोझ न रहे और वे अपने धार्मिक कार्यक्रमों में नियमित रहें।

४. लड़ाई का प्रशिक्षण – हमारे यहाँ भारत में सदियों से कई प्रकार की लड़ाईयों का अभ्यास होता रहा है, परंतु मैकाले की शिक्षा व्यवस्था ने उस पारंपरिक लड़ाई की कला को ख़त्म कर दिया है। बजाय कुंग फूँ या चीन के किसी और खेल के, क्यों न हमारे यहाँ विधिवत लठ्ठ चलाने, तलवार, भाले इत्यादि पुरातन लड़ाई की कलाओं को प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाये, व ब्लैक बैल्ट जैसे कुछ ग्रेडिंग सिस्टम भी लागू किये जायें।

मुझे उम्मीद है कि अगर कम से कम इतने कदम हिन्दुओं के लिये उठा लिये गये तो फिर हमें किसी और क़ौम से डरने की ज़रूरत ही नहीं रह जायेगी। कल हमारे एक मित्र से फ़ोन पर बात हो रही थी, ये उनके विचार हैं जो कि हमने ब्लॉग पर लिखे हैं।

आचार्यकुलम

बाबा रामदेव के स्कूल में एडमीशन

यह बात है वर्ष 2014 की जब भारतवर्ष में चुनावी बिगुल बजा हुआ था और बाबा रामदेव खुलेआम भाजपा का समर्थन कर रहे थे व वित्त के क्षैत्र में बहुत से ऐसे ऐसे बयान दे रहे थे, कि हमें भी आश्चर्य होता था कि ऐसा हो ही नहीं सकता और ये व्यक्ति जो कि इतने लोगों की सोच प्रभावित करता है कैसे कह सकता है कि अगर पेट्रोल 30-40 रूपये चाहिये तो भाजपा को जिताओ। इतना प्रचार किया था कि बताया नहीं जा सकता था, उस समय कई फ़ोरम में मैंने अपने विचार रखे तो लोगों ने मुझे पसंद नहीं किया। खैर हम तो इतना जानते हैं कि बाबा रामदेव को सरकार बनने के बाद ही संसद के सामने धरने पर बैठकर सरकार से माँग करनी चाहिये थी कि पेट्रोल 30-40 रूपये प्रति लीटर करो।

हुआ उसका बिल्कुल उलट अब हम 30-40 रूपये पेट्रोल के लिये प्रति लीटर ज़्यादा दे रहे हैं, अब जो बाबा रामदेव कह रहे हैं कि सरकार देश कैसे चलायेगी अगर पेट्रोल सस्ता हो जायेगा। यह बात हमने फ़रवरी 2014 में जब बाबा रामदेव के स्कूल में बेटेलाल का एडमीशन करने के दौरान उनके मैनेजमेंट को भी कही थी।

दरअसल हुआ यह था कि बाबा रामदेव ने हरिद्वार में नया स्कूल खोला था, जिसमें कि वेदों के साथ साथ अंग्रेज़ी में भी पढ़ाई होती है, हमने बैंगलोर में एडमीशन टेस्ट दिलवाया था, फिर सिलेक्शन होने पर कहा गया कि हरिद्वार में उनके स्कूल आचार्यकुलम में 7 दिन बच्चे को रहना होगा, और वे देखेंगे कि बच्चा वाक़ई उनके स्कूल के काबिल है या नहीं। तब हम हरिद्वार गये और बेटेलाल को 7 दिन के लिये स्कूल में छोड़ दिया। जब 7 दिन बाद हम वापिस लेने गये तो उनके आचार्य जी ने कहा कि हमने आपके बेटे की सबसे ज़्यादा अनुशंसा की है क्योंकि बालक मेधावी है। फिर पता चला कि अब अभिभावकों का मैनेजमेंट से साक्षात्कार होगा।

उस समय हमारा भारत के बाहर जाने का प्लान भी बन रहा था, हमसे पूछा कि भारत से बाहर क्यों जाना चाहते हैं। हमने कहा कौन बेहतर विकल्प नहीं अपनाना चाहेगा। फिर पूछा कि आप तो वित्त क्षैत्र से जुड़े हैं तो बताइये कि आप बाबा रामदेव के चुनावी मुद्दों में इकॉनोमिक्स के विचारों को कैसे देखते हैं, तो हमने बिना लाग लपेट के कह दिया कि बाबा रामदेव के विचार अपनी जगह और व्यवहारिक दुनिया में यह संभव नहीं। बाबा रामदेव जिन बातों को समझते नहीं क्यों उन पर अपने विचार रखते हैं। फिर हमसे पूछा गया कि अगर किसी कारण से बाबा रामदेव या स्कूल कहता है कि तत्काल ही 50-70 हज़ार रूपये जमा करवाइये बिना सवाल जबाब के, तो आप करवा पायेंगे। हमने कहा अगर यह रूपये हमारे बालक के किसी कार्य के लिये करवाये जायेंगे व हम उस कारण से पूर्ण रूप से संतुष्ट होंगे तो करवा देंगे।

फिर बाद में एडमीशन की लिस्ट जारी हुई तो हमारे बेटेलाल का नाम उसमें नहीं था, आचार्य जी आये और बोले कहीं कुछ गड़बड़ हुई है, मैं पता करके आता हूँ। वे पता करके आये बोले कि आपका बच्चा तो एडमीशन के लिये पास था, पर आप साक्षात्कार में फेल हो गये, आपने अपने विचार उचित दिशा में नहीं रखे। हम मन ही मन हँसे कि हम तो वैसे भी यहाँ एडमीशन करवाने वाले थे नहीं, पर कम से कम बाबा रामदेव के स्कूल और मैनेजमेंट के मन की खो़ट तो हमें पता चल गई।

आज भी यह क़िस्सा इसलिये लिख रहा हूँ कि जब एक पत्रकार ने पूछा था कि बाबाजी आपने कहा था कि पेट्रोल 30-40 रूपये हो जायेगा, तो बाबा रामदेव ने कहा तो क्या पूँछ पाड़ेगा मेरी।

मुझे मेरी चुनी हुई सरकार से क्या चाहिये

सरकार हर ५ वर्ष में बनती है, और सारे राजनैतिक दल अपने अपने घोषणा पत्र लेकर जनता के सामने आते हैं, परंतु कोई भी जनहित वाले वायदे नहीं करता। मेरी तरफ से कुछ बिंदु हैं, जिन पर राजनैतिक दलों को ध्यान देना चाहिये और भारत के विकास की बातें न करके अलसी विकास करना चाहिये, ये सारी बातें बहुत ही बुनियादी हैं, जो कि हर भारतीय को मिलनी चाहिये और यह चुनी हुई सरकार का प्राथमिक कर्त्तव्य होना चाहिये।

मुझे मेरी चुनी हुई सरकार से क्या चाहिये –
1. सर्वसुविधायुक्त स्वास्थ्य सुविधाओं वाले क्लिनिक और अस्पताल (सरकारी)
2. सर्वसुविधायुक्त विद्यालय जहाँ शिक्षक भी उपलब्ध हों (सरकारी)
3. सर्वसुविधायुक्त महाविद्यालय जहाँ शिक्षक भी उपलब्ध हों (सरकारी)
4. सार्वजनिक परिवहन के साधन (अभी हैं पर उसमें तो पैर रखने की हिम्मत नहीं पड़ती)(सरकारी)
5. सड़कें अच्छी हों, व नालियाँ साफ हों।
6. स्वच्छ भारत कागज से निकलकर बाहर आये।
7. किसी का भी ऋण माफ न करें, किसानों और लघु उद्योगों की दशा सुधारने की दिशा में ठोस कदम उठाये जायें, विलफुल डिफॉल्टर और अमीर लोगों के NPA तुरत वसूल किये जायें।
8. युवाओं को भविष्य के मार्गदर्शन के लिये शैक्षणिक संस्थानों का गठन किया जाये। जब स्किल होगा तो नौकरी और व्यापार अपने आप कर लेंगे।
9. सरकार में हर मंत्री को सम्बंधित विभाग की परीक्षा करवानी चाहिये, जिससे यह तय हो कि मंत्री अच्छे से विभाग संभाल पायेंगे।
10. जनता को उपरोक्त सुविधाएँ न दे पाने की दशा में, लिए गये सारे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों को जनता को रिफंड करना चाहिये।

आने वाले दिनों में और भी बिंदुओं को जोड़ा जा सकता है, आपके पास भी ऐसे कोई बिंदु हैं तो टिप्पणी में बताईये, हम जोड़ देंगे।

QNET कंपनी से बचकर रहें

QNET कंपनी का टाईम्स ऑफ इंडिया में दो दिन पहले ही पूरे मुख्य पेज का एक विज्ञापन आया था, मैं तो उस विज्ञापन को देखकर ही हतप्रभ था, कि फिर एक बड़ी पैसे घुमाने वाली कंपनी, उत्पादों के सहारे कैसे भारत में एक बड़ी एन्ट्री कर रही है। यह सब पौंजी स्कीम कहलाती है, जिसमें कि आपको कुछ लोगों को अपने नीचे लोगों को जोड़ना होता है, जिसके बदले आपको उन पैसों से कमीशन दिया जाता है जिन पैसों से वे लोग आपके नीचे उस कंपनी के लिये आपसे जुड़ते हैं। अगर उस कंपनी के उत्पाद भी देखेंगे तो आपको पता चल जायेगा कि यह कंपनी उत्पाद के लिये नहीं बल्कि सीधे सीधे मनी रोटेटिंग का काम मल्टी लेवल मार्केटिंग के सहारे कर रही है। Continue reading QNET कंपनी से बचकर रहें

मोर्निग सोशल नेटवर्किये

मोर्निग सोशल नेटवर्किये सुबह उठे और सोच रहे थे कि आज कुछ पुराने लेख जो क्रेडिट कार्ड और डेरिवेटिव पर लिख रहा था उन्हें पूरा लिख दूँगा, परंतु सुबह उठकर हमने मोबाईल हाथ में क्या ले लिया जुलम हो गया, फेसबुक और ट्विटर तो अपने अपडेट हमेशा ही करते रहते हैं, किस किस ने क्या क्या लिखा है और उनके मन में क्या विचार थे। दिल कह रहा था कि क्या टाईम पास लगा रखा है, अपना काम करो, परंतु मन जो था वो अपनी रफ्तार से भागता जा रहा था और कह रहा था नहीं पहले दूसरे के विचार पढ़ो और उनके स्टेटस पर अपनी टिप्पणी सटाओ। फिर दिनभर तो तुम्हें समय मिलने वाला है नहीं, रात को 9 बजे तो मुँह फटने लगता है। हम भी मन के बहकावे में आ गये और आज पूरी सुबह मोर्निग सोशल नेटवर्किये हो गये।

Morning Social Networker
Morning Social Networker

आजकल फेसबुक और ट्विटर पता नहीं कौन से वीडियो फार्मेट में दिखाते हैं कि नेट की रफ्तार कम हो या ज्यादा पर वीडियो अपने आप ही चलने लगता है। और अब वीडियो भी इस तरह के ही बनने लगे हैं कि आपको आवाज सुनने की जरूरत ही न पड़े, कुछ लोग या तो अपने एक्शन से ही समझा देते हैं या फिर वीडियो में टाइटल लगा देते हैं। अब बिना आवाज के वीडियो  भी देखा जाना मुझे वैसा ही जबरदस्त चमत्कार लगता है जैसा कि बिना आवाज के टीवी देखते थे कि किसी को पता नहीं चले हम टीवी देख रहे हैं, बस समस्या यह होती थी कि टीवी में रोशनी ज्यादा होती थी तो पूरे कमरे में अंधेरे में फिलिम जैसी दिखती थी और रोशनी कम ज्यादा होने से हमेशा ही पकड़े जाने की आशंका बनी रहती थी। पर मोबाइल में यह सुविधा आने से यह समस्या लगभग खत्म सी हो गई है।

अपना मोर्निग सोशल नेटवर्किये होने का भी एक कारण है कि अपने को सुबह ही समय मिल पाता है, बाकी दिनभर जीवन के दंद फंद चलते रहते हैं और हम उनमें ही उलझे रहते हैं। कई बार फेसबुक या ट्विटर पर कुछ अच्छे शेयर पढ़ने को मिल जाता है जो हमारी विचारधारा को बदल देता है, हमेशा ही निगाहें कुछ न कुछ ऐसा ढ़ूँढती रहती हैं कि पढ़ने पर या देखने पर कुछ ज्ञान बढ़े तो आत्मा को शांति भी मिल जाये। मोर्निग सोशल नेटवर्किये होने का एक और फायदा है कि हम विभिन्न विचारधारा के व्यक्तियों से जुड़े होते हैं और उनके विचारों में कई अच्छे तो कई बुरे होते हैं, उन विचारों के मंथन के लिये दिनभर हमें मिल जाता है।

मोर्निग सोशल नेटवर्किये होने का एक मुख्य नुकसान है कि हम हमारी तय की गई गतिविधि से भटक जाते हैं और हम कुछ और ही कर लेते हैं बाद में पछताते हैं कि हमने अपना बहुत सारा समय व्यर्थ ही गँवा दिया, काश कि हम मन पर थोड़ा संयम रख लेते तो हम अपने उस समय का अच्छा उपयोग कर लेते परंतु हम शायद ही मन से कभी जीत पायें, मन हमेशा ही दिल की बातों पर भारी होता है और हमेशा ही जीतता है।

आईये मिलकर ढ़ूँढे अपनी कठिनाईयाँ और विकास के रास्ते

   
   
    आईये मिलकर ढ़ूँढे अपनी कठिनाईयाँ और विकास के रास्ते जो मैं सुबह की चाय के साथ लिख रहा हूँ गलत नहीं लिखूँगा, आजकल ट्विटर और फेसबुक पर हम अगर किसी एक दल के लिये कुछ लिख देते हैं तो हमें अपने वाले ही विकास विरोधी बताकर लतियाना शुरू कर देते हैं। पर हम भी अपना संतुलन ना खोते हुए संयमता बरतते हैं, दिक्कत यह है कि विकास की लहर वाले लोग जबाव देने की जगह हड़काने लगते हैं। क्या वाकई उन्हें लगता है कि इससे सारी दिक्कतें दूर हो जायेंगी, या वाकई उन्हें यह लगता है कि सब ठीक चल रहा है, खैर अब हम क्या बतायें ये तो मानव मन की गहराईयाँ हैं, जो अच्छा लगता है वही पढ़ना चाहता है, वही लिखना चाहता है, वही बोलना चाहता है और वही दूसरों से सुनना चाहता है।
    बाकी सब तो व्यंग्य हैं, पर आज सुबह उठकर हमने सोचा कि वाकई हमें उनका पक्ष भी जानना चाहिये, कि हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा, क्या मुझे रोजमर्रो के कामों में कोई आसानी हुई या वही सब पुरानी परेशानियाँ अभी भी झेलनी पड़ रही हैं।
महँगाई – यह तो सुरसा की मुँह है, बड़ती ही जा रही है, दूध आज से 4 वर्ष पहले बैंगलोर में 21 रू. किलो मिलता था, आज वही दूध 42 रू. हो गया है, अब तो बैंगलोर छोड़े मुझे समय हो
गया, हो सकता है और भी ज्यादा हो गया हो। यहाँ गुड़गाँव में खुला दूध 42 से 46 रू. ली. मिलता है और पैक वाला 44 से 50 रू ली. मिलता है। यहाँ तो मेरी जेब कट ही रही है। न सब्जी के दामों में कमी है न दालों के।
चिकित्सा – थोड़े दिनों पहले बेटेलाल बहुत ज्यादा बीमार थे, पता नहीं कितने डॉक्टरों के चक्कर काटे और जाने कितने टेस्ट करवाये, लूट का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि डॉक्टरों की फीस कम से कम 500 रू. हो गई है और साधारण से टेस्ट के भी 100 – 500 रू. तक वसूले जा रहे हैं, और उनमें भी शुद्धता नहीं है दो अलग अलग लैबों की रिपोर्ट भी अलग आती है, किसी स्थापित मानक का उपयोग नहीं किया जाता है। जबकि हम सरकार को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों कर देते हैं, पर हमें सीधे कोई फायदा नहीं है, यहाँ एक बात का उल्लेख करना चाहूँगा मेरे प्रोजेक्ट से अभी एक बंदा ब्रिटेन से वापस आया तो बोलो कि वहाँ अगर कर लेते हैं तो वैसी सुविधाएँ भी हैं, लिये गये पूरे पैसे का पाई पाई का उपयोग होता है, केवल फोन कर दो तो दो तरह की सुविधाएँ उपलब्ध हैं, पहला तो कि आपको कुछ समस्या हो गई है तो तत्काल एम्बूलेन्स आयेगी और वहीं तात्कालिक  सहायता उपलब्ध करवाकर अगर जरूरत है तो अस्पताल भी ले जायेगी, दूसरी आप फोन करके डॉक्टर से मिलने का समय सुनिश्चित कर सकते हैं, जो कि स्वास्थय बीमे में ही कवर होता है।
सरकारी कार्य – कुछ दिनों पहले अपनी बाईक के कागजों से संबंधित कार्य था, सोचा कि शायद हम सीधे ही करवा पायें, एक छुट्टी भी बर्बाद की और कोई काम भी नहीं हुआ, अगले दिन सुबह एक एजेन्ट को ही पकड़ना पड़ा जैसा कि स्वागत कक्ष पर बैठे बाबू ने कहा, क्योंकि वहाँ पुलिस का कोई सर्टिफिकेट बनवाना पड़ता है, और वहाँ बिना पहचान के काम नहीं होता है, हमें पता नहीं क्या क्या कागजात लाने को बोले गये थे, हमने सब दिखाये पर काम न हुआ, एजेन्ट ने हमसे 300 रू इसी बात के लिये और सर्टिफिकेट बनवा लाया, हमारे जाने की जरूरत भी नहीं पड़ी। क्यों नहीं यह सारा कार्य ऑनलाईन करके जनता को सरकारी मशीनरी की कठिनाईयों से मुक्ती दे दी जाती है। किसी भी सरकारी कार्यालय में जाओ तो पता चलता है कि बिना पैसे के कोई काम नहीं होता है।
ऑटो पुलिस – न ऑटो वाले मीटर से चलते हैं और न ही पुलिस वाले उन्हें कुछ बोलते हैं, हर जगह जाम की स्थिती है।
ट्रॉफिक जाम – पता नहीं कितने हजारों घंटों को नुक्सान ट्रॉफिक जाम में हो जाता है, क्यों नहीं ऐसा बुनियादी ढाँचा बनाया जाता है कि ट्रॉफिक की समस्या से निजात मिले, क्यों नहीं सड़कों को अगले 10 वर्ष बाद की दूरदर्शिता के साथ बनाया जाता है। और पेट्रोल का नुक्सान तो होता ही है।
पेट्रोल – की बात आई तो यह बात करना भी उचित होगा कि जब क्रूड ऑइल जब महँगा था तो पेट्रोल का भाव 86 रू. ली. तक था, पर आज आधे से भी कम है तो भी पेट्रोल का भाव 62 रू. क्यों है, जब पेट्रोल डीजल के भाव बड़ रहे थे, तब तो सभी ने अपने किराये बढ़ा दिये, अब जब कम हो रहे हैं, तो उसका फायदा हमें क्यों नहीं मिल रहा है।
बिजली – इस पर तो अनर्गल वार्तालाप किये जा रहे हैं, कि कई बिजली की कई कंपनियाँ होने से सस्ती हो जायेंगी, अगर ऐसा है तो रेल्वे को भी कई कंपनियों के हाथों में दे दीजिये, बसों में कई कंपनियों की बसें विभिन्न रूट पर चलती हैं पर कहीं कोई सस्ती सेवा उपलब्ध नहीं है, वैसे भी यह सब सरकार के हाथ नहीं है, यह बिजली नियामक तय करते हैं, पता नहीं सरकार जनता को उल्लू क्यों समझती है।
रेल्वे – जब भी मैं घर जाने का प्रोग्राम बनाता हूँ तो टिकट ही उपलब्ध नहीं होते, क्यों न सफर करने वाली आबादी के अनुसार रेल्वे को डिजायन किया जाये, हम यह नहीं कहते कि बुलेट ट्रेन न चलाई जाये वह तो भविष्य की जरूरत है परंतु उससे पहले हमें कम से कम आजकल के टिकट तो मयस्सर होने चाहिये, अगर बुलेट ट्रेन भी आ गई और बुनियादी सुविधाओं का अभाव है तो फिर कैसे उसका भी भरपूर उपयोग भारतवासी कर पायेंगे और अगर संयोग से टिकट मिल भी जाता है तो सुविधाओं में कमी महसूस होती है।
शिक्षा – हम सरकारी स्कूल में पढ़े, तब भी निजी स्कूल थे, परंतु यह कह सकते हैं कि कम से कम सरकारी स्कूलों का स्तर आज से बहुत अच्छा था, मैंने तो आज भी कई सरकारी स्कूल देखें हैं जो निजी स्कूलों से काफी अच्छे हैं, परंतु वे सरकारी प्रयास नहीं है, वह तो किसी प्रधानाध्यापक की मेहनत और कड़ाई के कारण है। सरकारी स्कूल और निजी स्कूल की फीस में जमीन आसमान का अंतर है, ज्यादी फीस देने का यह मतलब नहीं है कि अच्छी शिक्षा मिल रही है, या अच्छा माहौल मिल रहा है, केवल हम अपने बच्चे को अच्छे सहयोगी दे पा रहे हैं, जिनके माता पिता इतनी फीस दे पाने में समर्थ हैं, उनके साथ पढ़ पा रहा है हमारा बच्चा, पर निजी स्कूलों में पढ़ाने वालों का शैक्षिक स्तर सरकारी स्कूल से बदतर है, सरकारी स्कूलों के अच्छे शैक्षिक स्तर वाले गुरूओं को सब जगह घसीट लिया जाता है, उनका सही तरीके से उपयोग नहीं हो जाता और न ही उनके ऊपर दबाव होता है।
    हैं तो और भी बहुत सारी चीजें जिनकी चर्चा में करना चाहता हूँ पर जिनकी बातें मैंने यहाँ की हैं और अगर आपको लगता है कि यह केवल मेरे साथ भेदभाव हो रहा है तो आप ही बतायें कि आपकी जिंदगी पर कोई असर पड़ा हो तो मैं भी आपकी तरह ही सोचने की कोशिश करूँ।

सहकारी बैंको का उद्धार हमारे पैसों से, लुटाओ खजाना हमारी आँखों के सामने ही (Bailing Out Cooperative Banks)

    5 नवंबर 2014 को केन्द्रीय मंत्री श्री रविशंकर प्रसाद ने लगभग 2,375 करोड़ रूपयों की सहायता 23 केन्द्रीय सहकारी बैंकों को देने की टीवी पर घोषणा की। केन्द्रीय सहकारी बैंकों का जाल पूरा भारत में विस्तारित है। इन 23 केन्द्रीय सहकारी बैंकों में से 16 बैंकें उत्तर प्रदेश, 3 जम्मू कश्मीर और महाराष्ट्र में, 1 पश्चिम बंगाल में हैं । मंत्री जी का कहना है कि यह कदम छोटे निवेशकों के हितों के लिये उठाया गया है । एक कैबिनेट मीटिंग में इतनी बड़ी राशि जो कि भारत की जनता की मेहनत की गाढ़ी कमाई से टैक्स के रूप में सरकार के पास आती है, से देना निश्चित किया गया । इसमें कुछ हास्यासपद नियम बैंकों के लिये बनाये गये हैं, जैसे कि 15 प्रतिशत की विकास दर होना चाहिये, खराब ऋणों को 2 वर्ष में आधा वसूल कर लेंगे। इन दोनों का होना लगभग नामुमकिन है, क्योंकि केन्द्रीय सहकारी बैंकें राजनैतिक हितों को भी साधती हैं।
    एक बड़े अखबार के मुताबिक तो 45 सहकारी बैंकों के ऊपर भारतीय रिजर्व बैंक अर्थदंड भी लगा सकता है, जिसमें से 23 सहकारी बैंकों के पास तो बैंकिंग का लाइसेंस भी नहीं है और 4 प्रतिशत पूँजी-पर्याप्तता का अनुपात जो कि लगभग 2100 करोड़ रूपये होता है, वह भी नहीं है। ये 23 सहकारी बैंके वही लगती हैं, जिनका उद्धार हमारे द्वारा दिये गये टैक्स के पैसे से होना  है।
    सरकार का यह निर्णय बहुत ही असंवेदनशील और उनके काम करने के तरीके का खौफनाक नमूना है, सरकार द्वारा ऋणों के वापस न आने के कारणों को अनदेखा करना निश्चित ही चिंता का विषय है। केन्द्रीय सहकारी बैंकों में राजनैतिक घुसपैठ और उनके द्वारा प्रबंधन में मनमानी करना किसी से छुपा नहीं है और यही कारण है कि अशोध्य ऋणों (Irrecoverable loans) की ज्यादा संख्या का कारण राजनैतिक व्यक्ति का ऋण से जुड़ा होना है, जो कि जानबूझकर बकायादार (Wilful Defaulters) रहते हैं।
    इसके परिणाम स्वरूप, सहकारी बैंकों पर नियंत्रण ठीक न होना और दीवालिया होना व्यवस्था के लिये चेतावनी है। बदकिस्मती से अधिकतर लोगों को इन बैंकों के खराब नियंत्रण के बारे में पता ही नहीं होता है, जो कि अक्सर ही छोटे निवेशकों को अधिक ब्याज दरों से लुभाते हैं। मजे की बात यह है कि इन केन्द्रीय सहकारी बैंकों में बैंकिंग से संबंधित निर्णयों में राजनैतिक हित हावी रहते हैं, और सरकार के नियमों के मुताबिक सभी बैंकों में एक लाख रूपयों तक के निवेश को DICGC (Deposit Insurance and Credit guarantee Corporation)  द्वारा सुरक्षा प्रदान की जाती है। जिसमें ये केन्द्रीय सहकारी बैंकें भी शामिल हैं।
    यहाँ पर यह उद्घृत करना जरूरी है कि केतन पारिख के द्वारा 2000-2001 में माधवपुरा मर्केंटाइल सहकारी बैंक में की गई धोखाधड़ी के बाद पहले की भाजपा सरकार एन.डी.ए. के शासनकाल (1999-2004) में भारतीय रिजर्व बैंक को लचीला रुख अपनाने के कहा और DICGC (Deposit Insurance and Credit guarantee Corporation) को अपने नियमों को  शिथिल करने के लिये कहा गया। माधवपुरा मर्केंटाइल सहकारी बैंक के प्रबंधन ने घोटालेबाज केतन पारिख को 1000 करोड़ रूपयों को ऋण सारे नियम ताक पर रख कर बैंक को बर्बाद कर दिया। जबकि DICGC (Deposit Insurance and Credit guarantee Corporation) के नियमों के मुताबिक निवेश पर किये गये बीमा का भुगतान केवल बैंक के दीवालिया होने की स्थिती में ही किया जा सकता है। उस समय भाजपा के बड़े शक्तिशाली नेता को शांत करने के लिये माधवपुरा मर्केंटाइल सहकारी बैंक की स्थिती को अपवादस्वरूप बताकर हजारों करोड़ों रूपयों को भुगतान कर दिया गया। और उस समय की लगभग समाप्त सी हो चुकी मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी कोई विरोध नहीं किया। वाकई भारत के वित्तीय निवेशकों के लिये वह दिन बहुत ही बुरा होगा अगर वापिस से इस तरह का कोई बड़ा सहकारी बैंक घोटाला सामने आता है और भाजपा सरकार ने पहले ही इन केन्द्रीय सहकारी बैंकों को आश्रय देने का निर्णय ले लिया है बनिस्बत कि इन केन्द्रीय सहकारी बैंकों को भारतीय रिजर्व बैंकों के सीधे सरल और स्पष्ट नियंत्रण और निरीक्षण में दिया जाता।
    हमारे पैसों से इन केन्द्रीय सहकारी बैंकों को मदद देना सरकार के अच्छे शासन प्रणाली और साफ सुथरे प्रबंधन के संकेत नहीं हैं और उस सुधार बदलाव के भी जिसका वादा हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी किया था।

बोझ खींचने वाला मानव ज्यादा मूल्यवान लगता है

    पहाड़गंज या पुरानी दिल्ली में पार्किंग की जगह ढ़ूंढना बेहद दुष्कर कार्य की श्रेणी में आता है, यह दिल्ली का एक ऐसा क्षैत्र है जहाँ जाकर एक एक इंच की कीमत पता चलती है, यहाँ सड़क का वह इंच सार्वजनिक हो या निजी पर जगह कोई खाली नहीं है, खैर हमें अब इन सबसे जूझते हुए लगभग 3 महीने हो चुके हैं तो अब इतनी तकलीफ नहीं होती है, पार्किंग कैसे और कहाँ करनी है यह बखूबी आ गया है।
    सदर जाना हमेशा हमारे एजेन्डे में होता है । 3 टूटी, 6 टूटी, 12 टूटी और सदर बाजार पता नहीं क्यों इतना अच्छा लगता है, वहाँ की गलियों में भटकना अच्छा लगता है, जो भाषा, चेहरे और व्यवहार वहाँ देखने को मिलता है वह मन मोह लेने वाला होता है। यह अलग बात है कि आप पहाड़गंज से सदर बाजार तक
पैदल भी जा सकते हैं पर चरमराये हुए यातायात में यह भी संभव नहीं है, मजबूरन केवल एक ही रास्ता बचता है वह है या तो रिक्शा लो या फिर बैटरी वाला रिक्शा। जाते समय हमें कभी बैटरी वाला रिक्शा नहीं मिलता क्योंकि पुलिस उन्हें परेशान करती है।
    हमें मानवचलित रिक्शे पर बैठना होता है, मानवचलित रिक्शे पर बैठकर हर बार अपराधबोध होता है, हम आज भी इस युग में ढोने की प्रथा के साक्षी हैं और सबसे खराब बात कि उसका उपयोग कर रहे हैं, पर फिर रिक्शे को चलाने वाले मानव को देखकर यह शर्म कहीं चली जाती है, क्योंकि अगर हम अगर उसके रिक्शे में नहीं बैठेंगे तो वह ढोने वाला मानव क्या खायेगा और अपने परिवार का कैसे ख्याल रखेगा, पता नहीं जीवन की किन परिस्थितियों से लड़ाई लड़ रहा है, हम कहीं न कहीं उसके जीवन की लड़ाई में सहयोगी होना चाहते हैं, और इन मानवों में खास बात यह है कि ये ज्यादा फालतू के पैसे नहीं लेंगे, क्योंकि इन्हें पता है कि कोई भी उन्हें दुत्कार सकते हैं या फिर ज्यादा पैसे माँगने की उनकी हैसियत नहीं समझते हैं। लोग इनके बँधे बँधाये पैसों में भी मोलभाव करने लगते हैं तो ठीक नहीं लगता है, उस समय मुझे बैठने वाले व्यक्ति से ज्याद वह बोझ खींचने वाला मानव ज्यादा मूल्यवान लगता है।
    हमने एक आदत अपनी रखी हुई है कि जो भी बोझा खींचता है, या कोई ऐसा कार्य करते हैं जो कि पढ़े लिखे लोगों की मानसिकता में हेय की श्रेणी में आते हैं, हम वहाँ कभी मोलभाव नहीं करते हैं, क्योंकि इन लोगों में लूट की भावना न के बराबर होती है और छल कपट आजकल कहाँ नहीं है, तो इनके बीच भी कुछ लोग ऐसे हैं परंतु उनका प्रतिशत बहुत ही कम होती है, कम प्रतिशत वालों के छल कपट के कारण बड़े अनुपात के लोगों का साथ न देने को मन नहीं मानता है, और हम हमेशा ही उनकी मदद को तत्पर होते हैं, क्योंक बोलने में कहीं कोई झूठ नहीं, जो मन की बात होती है वे कह देते हैं, उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि सामने वाला कितना बड़ा आदमी है, वे तो सबको सर्वधर्म भाव से सेवा देते हैं, बस यही सोचकर मैं अपने आप में और साथवालों में कभी आपराधिक बोध नहीं आने देता हूँ।
    मन में यह भी आता है कि जैसे हम मानसिक बोझा ढ़ोते हैं वैसे ही ये लोग शारीरिक श्रम कर रहे हैं, तो जो जिस बात में सक्षम है वह वही कर पायेगा, जैसे हमें भी बोझा उठाते हुए बरसों हो गये हैं, वैसे ही उन्हें भी बरसों हो गये हैं। जैसे हमें बोझा उठाते हुए पता नहीं चलता है, थकान नहीं होती है, बस अपना काम करते जाते हैं, हाँ बस किसी दूसरे को हमें देखकर ऐसा लगता है कि यह कितना काम करता है, तो वह भी अपनी एक मानसिक अवस्था होती है। वैसे ही उन मानवचलित रिक्शों या समाज के सबसे अच्छे कार्य करने वालों को भी इसी चीज का अनुभव होता होगा।
    ब्लॉग पोस्ट में और भी बहुत कुछ लिखना चाहता था, परंतु एक मानवीय स्वभाव कहीं भीतर से उमड़कर भावों की प्रधानता में शब्दों के रूप में बह गया, बाजार के चरित्र और वहाँ के स्वभाव के बारे में जल्दी ही बात करेंगे ।

स्वच्छ भारत अभियान गाँधी जी के आदर्श या खिलाफ

    गाँधीजी का सपना था कि हमारा स्वच्छ भारत हो, पर शायद ऐसे नहीं जैसे कि आज सरकारी मशीनरी ने किया है। कि पहले राजनेताओं की सफाई करने के लिये कचरा फैलाया और बाद में उनसे झाड़ू लगवाई जैसे कि वाकई सभी जगह सफाई की गई है। वैसे प्रधानमंत्री जी तो केवल सांकेतिक रूप से ही अभियान की शुरुआत कर सकते थे परंतु आज तो सभी लोगों को सांकेतिक रूप से ही सफाई करते देखा।
    गाँधी जी जहाँ एक एक लाईन लिखने के लिये छोटी से छोटी जगह का उपयोग करते थे, कागज के छोटे से छोटे टुकड़े पर लिखकर बचत करते थे, पोस्टकार्ड की पूरी जगह का उपयोग करते थे, और आज गाँधी जी की आत्मा भी उनकी याद के पूरे पेज के विज्ञापनों को देखकर रो रही होगी, वे कागज बचाने पर जोर देते थे, और सरकारी मशीनरी कागज भी बर्बाद कर रही है और गाँधी जयंती के नाम पर करोड़ों रुपये भी फूँक रही है। गाँधी जी फालतू के रुपयों को खर्च करना भी बर्बादी समझते थे, मगर हमारे ये आधुनिक अनुयायी उनकी बातों को समझने की कोशिश ही नहीं करते हैं, केवल और केवल स्वच्छ भारत के लिये झाड़ूगिरी का सहारा लिया, और धरातल पर शायद हम सब जानते हैं कि कैसी स्वच्छता हुई है, वास्तविक चेहरा कुछ और ही है।
     सरकारी लोगों के लिये एक जैसी एक ही ब्रांड की इतनी सारी झाड़ुएँ खरीदी गईं, कल वे ही धूल में ही लिपटीं कहीं कोने में पड़ी सड़ रही होंगी, और अब अगली बार तब ही निकलेंगी जब फिर ऐसे ही किसी सफाई अभियान की शुरूआत होगी। थोड़े दिनों बाद स्वच्छता के नाम पर हुए खर्चों पर कोई बड़ा घोटाला निकल आये तो भी कोई बड़ी बात नहीं होगी। कल दिल्ली में केवल दिखावे के लिये जगह जगह स्वच्छता अभियान के बैनर और फूलों से भारत स्वरूपी गाँधीजी के बोर्ड लगे हुए थे, काश कि ये पैसा हमारे सफाईकर्मियों के लिये नये उपकरणों में खर्च किया जाता और भारत की जनता को एक अच्छा संदेश दिया जाता।
    काश कि साथ ही भारत की जनता को संदेश दिया जाता कि मन को भी स्वच्छ रखना जरूरी है, और उसी से सारे अपराधों की रोकथाम है। हमें सबसे पहले नजरों कि गंदगी की स्वच्छता पर जोर देना चाहिये, जिससे बालात्कार जैसे संगीन अपराधों पर अंकुश लगाया जा सके। केवल झाड़ूबाजी करने से कुछ नहीं होगा, जब तक हम अपनी गंदगी फैलाने की आदतें नहीं सुधारेंगे, तब तक ऐसी किसी झाड़ूबाजी का कोई असर नहीं होगा। हम पश्चिम की नकल करने में माहिर हैं, पर केवल उन्हीं चीजों की नकल करते हैं, जो हमें अच्छी लगती हैं, हम पश्चिम के अनुशासन की पता नहीं कब नकल करेंगे, कब उनके जैसे कर्मचारियों के लिये सारी सुविधाएँ देंगे।

स्वच्छ भारत तभी होगा जब हम खुद तन मन से स्वच्छ होंगे ।