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ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – ६ [मोबाईल का अलार्म, मवाली दंपत्ति की असलियत सामने आई]

    झांसी से ट्रेन चलने लगी, अब कंपार्टमेंट में हम तीन लोग ही बचे, मवाली दंपत्ति और मैं। मवाली श्रीमती जी के पास उनके मोबाईल पर फ़ोन पर फ़ोन आये जा रहे थे पर वे उठा नहीं रही थीं, इस पर वे उस मवाली से बोलीं कि देखो कितने फ़ोन आ रहे हैं, और मैं उठा भी नहीं सकती, तो लड़का बोला कि फ़ोन उठाकर बात तो कर ही लो, इस पर लड़की बोली कि फ़ोन उठाया तो ट्रेन की आवाज आयेगी और उनको पता चल जायेगा कि मैं तुम्हारे साथ ट्रेन में हूँ। सुबह किसी स्टेशन पर पहुँचकर फ़ोन करुँगी और बोल दूँगी कि फ़ोन नीचे कमरे में था और मैं छत पर घूम रही थी।
    हमने भी अपना खाना निकाल कर खाना शुरु कर दिया था और साथ में यह घटनाक्रम हो रहा था, अब तो हमें पक्का यकीन हो गया कि ये शादीशुदा नहीं हैं और ये लड़की इसके चक्कर में आ गई है, या पता नहीं कुछ और पर रात घिरने के साथ ही उनकी हरकतें बढ़ने लगीं। लड़का और लड़की इस तरीके से बैठे थे कि वे चेहरे को चूम सकें और चूम भी रहे थे, हम बेचारे खिड़की के बाहर अँधेरे में ट्रेन से मनोहारी दृश्य देख रहे थे।
    अपना खाना हो गया और हमने अपने बैग से चादर और तकिया निकाल लिया कि एकाध घंटा सो लिया जाये अब धौलपुर १ बजे के पहले तो नहीं आने वाला है, और अपने मोबाईल में अलार्म भी लगा लिया, ये जानते हुए भी कि अगर एक बार सो गये तो फ़िर अलार्म क्या कोई नहीं उठा सकता है, जब तक कि नींद पूरी नहीं हो जाये। चादर बिछाई, तकिये में हवा भरी और लोअर बर्थ पर ही सो लिये, मवाली दंपत्ति ओह माफ़ कीजियेगा अब दंपत्ति नहीं कहूँगा केवल मवाली कहूँगा, क्योंकि अब पता चल गया है कि वे दंपत्ति नहीं हैं, वे भी सोने की तैयारी करने लगे, लड़के ने चादर अपर बर्थ पर बिछा दी और लड़की सोने के लिये चली गई, लड़का बाहर सिगरेट फ़ूँकने।
    हमने उससे जाने से पहले बोला कि भई हमें ग्वालियर में उठा देना, नहीं तो पता नहीं कहाँ उतरेंगे। वो ओके बोलकर चल दिया। इसी दौरान हमारी आँख लग गई, थोड़ी देर मतलब कितनी देर वो हमें भी नहीं पता पर आँख थोड़ी से खुली तो देखा कि मवाली लड़का ऊपर बर्थ पर बैठा हुआ है और लड़की उसकी गोदी में सिर रखकर लेटी हुई है। मोबाईल पर बातें हो रहीं थीं और हाथ भी घूम रहे थे, हमने सोचा कि ये सब देखने से अच्छा है कि सो ही जायें, और वैसे भी हमारी आँखें खुलने का नाम नहीं ले रही थीं। हम फ़िर सो लिये।
    फ़िर आँख खुली तो पाया कि ट्रेन ग्वालियर में खड़ी है, और ये मवाली लोग अपने में ही मशगूल हैं, पर देखने लायक स्थिती में नहीं हैं, पता नहीं लोग घर पर ये सब क्यों नहीं करते हैं ? क्या ये आजादी सबको अच्छी लगती है ? ये प्रश्न खुद से था या किसी ओर से ये भी नहीं पता। क्योंकि इस तरह के दृश्य अवन्तिका एक्सप्रेस जो कि मुंबई से इंदौर चलती है आम होते हैं, कालेज से आई नये लड़के लड़कियों की फ़ौज किसी सोफ़्टवेयर कंपनी में रिक्रूट हुई होती है और जहाँ ३-४ दिन की छूट्टियाँ हुईं तो रिजर्वेशन की मारा मारी तो होती ही है, आरक्षित बर्थ कम होती हैं तो लड़के लड़कियाँ युगल बनाकर अपर बर्थ पर एक दूसरे से चिपककर सो जाते हैं, पता नहीं ये सब अपनी संस्कृति का कितना ध्यान रखते हैं, पर ये आजादी निश्चित ही ठीक नहीं है। हम इस संदर्भ में और कुछ लिखना नहीं चाह रहे हैं, इसलिये माफ़ी चाहते हैं, क्योंकि ये सब देखकर मन खिन्न हो जाता है, कि माँ बाप ने पता नहीं कितने अरमानों से इन लोगों को भविष्य संवारने के लिये यहाँ भेजा है और ये देखो पता नहीं क्या संवार रहे हैं।
    ग्वालियर में हम उठ कर बैठ गये क्योंकि अब हमारा सफ़र केवल ४५ मिनिट का था और हम सोने का खतरा मोल नहीं लेना नहीं चाहते थे, ट्रेन अपनी फ़ुल रफ़्तार से भागी जा रही थी और हम खिड़की के पास बैठकर बाहर से आती गरम हवा का लुत्फ़ ले रहे थे। डबरा निकला फ़िर आया मुरैना स्टेशन तो हमने भी फ़ोन करके बोला कि मुरैना निकल गया है स्टेशन लेने भेज दो, क्योंकि रात को १ बजे धौलपुर में स्टेशन से अकेले निकलना सुरक्षित नहीं रहता है, लूट होती ही रहती है। हालांकि हमारे पास ऐसा कुछ था नहीं परंतु डर तो डर ही होता है।
    हम अपना समान लेकर ट्रेन के दरवाजे के पास आ गये, वहाँ पर लोग अपनी चादर बिछाकर सोये हुए थे जिनको रिजर्वेशन नहीं मिला था, निकलने के लिये पूरी जगह छोड़ी हुई थी कि किसी को आने जाने में तकलीफ़ न हो। रात थी इसलिये चंबल की घाटियाँ दिख नहीं रही थीं पर हम उन्हें महसूस कर रहे थे, मैंने २-३ बार इन बीहड़ घाटियों को बहुत पास से देखा है, जहाँ प्रसिद्ध डाकुओं ने राज किया है, और आज भी बहुत डाकू हैं। फ़िर चंबल का पुल आया वहाँ से धौलपुर केवल ५ मिनिट का रास्ता होता है। आखिरकार ट्रेन स्टेशन पर रुकी और हम चल दिये घर की ओर अपने साले साहब के साथ।
    शाम को वापिस उज्जैन के लिये निकलना था, इसलिये बातचीत सुबह पर छोड़कर चुपचाप सो लिये। बातचीत होती रही, साथ हम सोते भी रहे थकान के कारण, दिन में कहीं मिलने जाना था तो २-३ घंटे बाजार में मिल भी आये। धौलपुर में तो अभी से ही दोपहर मॆं लू चलने लगी थी, बहुत दिनों बाद लू का अहसास हुआ था। शाम को हमारी ट्रेन ५.३० बजे थी देहरादून इंदौर, ३ ए.सी. में पहले से ही रिजर्वेशन था इसलिये निश्चिंत थे कि बस गर्मी थोड़ी देर और सहनी है। जब घर से निकले थे तब ट्रेन केवल ५ मिनिट लेट बतायी गयी थी, और धीरे धीरे पूरे ५० मिनिट लेट हो गयी। रेल्वे की संचार क्षमता पर हमें कोई शक नहीं परंतु कार्य करने वाले तो आदमी ही हैं ना, कितनी ही बार हमने इस बाबत झांसी मंडल में शिकायत भी की है, परंतु वही ढ़ांक के तीन पात। हर बार झांसी मंडल से एक पत्र आ जाता है कि शिकायत दुरुस्त की गई है, अब आगे से शिकायत नहीं होगी, अब तो खैर हमने शिकायत करना ही बंद कर दी है।



जारी….

ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – ५ [“जो भक्त हो आठ हाथों वाली का, उसका क्या बिगाड़ लेंगे ये दो हाथ वाले”]

    थोड़ी देर में ही विदिशा आया जो कि मेरी जन्मस्थली है, मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब मैं अपने होश में पहली बार विदिशा से मालवा एक्सप्रेस से ही निकला था तब मैंने ट्रेन से उतरकर विदिशा की माटी को अपने माथे पर लगाया था, पता नहीं बड़ी अजीब सी झनझनी आयी थी, कुछ लोग तो एकटक मुझे देखे जा रहे थे, पर मैं अपने में मशगूल मातृभूमि के प्रेम में मगन था।
    विदिशा में डॉक्टर साहब से कुछ लोग मिलने वाले आये थे,  इसलिये उनके मित्र डॉक्टर साहब पहले ही चले गये थे,  शायद उनके परिवार के ही थे और उनके ससुराल पक्ष के लग रहे थे, क्योंकि जितनी इज्जत लड़के को ससुराल पक्ष की ओर से मिलती है वह अपने पक्ष से नहीं, आखिर दामाद होता है, वे मिलने वाले खिड़की से ही मिल लिये २ लीटर की ठंडी बोतल भी दे गये।
    ललितपुर आने को था और हम लोगों की बातचीत अपने पूरे जोर पर थी, तभी वो मवाली लड़का बोला कि मैं वैष्णोदेवी जा रहा हूँ और अब तक लगभग ९० बार जा चुका हूँ, मैं देवी भक्त हूँ इसलिये गुजरात में भी देवी के मंदिर में भी जाता हूँ, नाम नहीं बताया कि कौन सा मंदिर, और फ़िर एक डॉयलाग कि “जो भक्त हो आठ हाथों वाली का, उसका क्या बिगाड़ लेंगे ये दो हाथ वाले”।
    मवाली श्रीमती जी के पास उनके मोबाईल पर फ़ोन पर फ़ोन आये जा रहे थे, और उनके चेहरे से उनकी परेशानी झलक रही थी सारे कॉल को मिस काल जान बूझकर करवाती जा रही थीं। और मुँह में ही कुछ गाली जैसा बुदबुदा रही थीं, खैर हमें तो इतना समझ में आया कि दाल में कुछ काला है और ये वैधानिक रुप से पति पत्नि नहीं हैं, क्योंकि उनकी हरकतें नये पति पत्नि से ज्यादा प्रेमी प्रेमिका की लग रहीं थी।
    ललितपुर गार्ड साहब को भी उतरना था और डॉक्टर साहब के दोस्त डॉक्टर साहब को भी, गार्ड साहब तो केवल ट्रेन के बाहर देखते और बिल्कुल सही समय बता देते कि अब केवल ३० मिनिट का रास्ता है, अब १५ मिनिट बचे हैं, हम उनसे बहुत प्रभावित हुए आखिर उन्होंने अपनी जिंदगी के महत्वपूर्ण वर्ष गार्ड की नौकरी करते हुए निकाले थे और उनको रास्ता याद नहीं होगा तो किसे होगा। थोड़ी देर बाद कहीं ट्रेन को रोक दिया गया, शायद आऊटर था, तो गार्ड साहब बोले कि ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं ललितपुर तो नहीं, अभी पिछले दो –तीन दिन से ललितपुर में इस समय लाईट नहीं रहती है, तो कई बार तो लोगों को पता ही नहीं चलता है कि ललितपुर आ गया है। खैर थोड़ी देर में ही ललितपुर आ गया, और हमारे पास वाली डॉक्टर दंपत्ति अपने डॉक्टर मित्र को विदा देने गये, तभी अचानक ट्रेन की खिड़की पर उतरने वाले डॉक्टर साहब हमसे हाथ मिलाने आये और बोले कि मिलकर बहुत खुशी हुई। वाह साहब केवल ट्रेन में कुछ देर बैठकर बातें करने से भी अच्छी दोस्ती हो जाती है।
    ट्रेन चल दी तो डॉक्टर दंपत्ति ने अपना खाना शुरु कर दिया, खाना हमारे पास भी था परंतु पेट भरा सा लग रहा था, इसलिये सोचा कि थोड़ी देर बाद खायेंगे। मवाली लड़का बहुत शेखी बघार रहा था कि अपने दोस्त तो भोपाल से लेकर झाँसी तक रहते हैं, खाना बाहर से आ जायेगा, और वो बेचारा अपने फ़ोन से फ़ोन खटकाते हुए परेशान हो गया परंतु दोस्त लोग तो सो रहे थे न क्योंकि उसके दोस्त भी निशाचर थे, जब फ़ोन आया तब गाड़ी विदिशा में खड़ी थी, तो वह बोला कि अब रहने दो मैं ट्रेन में ही खाने का आर्डर कर रहा हूँ। तो गार्ड साहब ने भी चुटकी ले ही ली थी, “कितना भी बड़ा भाई हो, परंतु भूख तो सभी को लगती है, और कभी कभी दोस्त भी काम नहीं आते हैं।” हम उसकी और देख रहे थे, वो खिसियाये जा रहा था, बेचारा कर भी क्या सकता था।
    झांसी रात को ९.३० का सही समय था ट्रेन का परंतु ट्रेन कुछ देरी से चल रही थी, डॉक्टर साहब अपने ससुराल किसी की शादी में जा रहे थे, और उनको लेने उनके साले साहब स्टेशन पर आ रहे थे, डॉक्टर दंपत्ति को ४-५ दिन रहना था और झांसी की गर्मी की सोच सोचकर ही आधे हुए जा रहे थे। क्योंकि हम भी झांसी की गर्मी झेल चुके हैं पूर्व में केवल ७ दिन में ही हालत खराब हो गयी थी। वे अपने साले साहब से लगातार फ़ोन पर संपर्क साधे हुए थे, ट्रेन लगभग १०.१५ पर झांसी आयी, हमने डॉक्टर दंपत्ति को विदा दी और उन्होंने कहा कि जब भी उज्जैन आयें मिलने जरुर आयें।

ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – ४ (निशाचर और दिनचर, रेल्वे में गार्ड का महत्व)

    अब अपने मवाली भाईसाहब बोले कि अपनी दिनचर्या तो शाम से शुरु होती है, और सुबह खत्म होती है, हम थोड़ा चकराये कि ये भला क्या बात हुई। फ़िर वे खुलासा करके बोले कि अपना काम लेनदेन का है, सुबह सात बजे सोते हैं शाम को सात आठ बजे उठते हैं, फ़िर तैयार होकर थोड़ी देर अपने ऑफ़िस (?) हिसाब किताब देखने जाते हैं और फ़िर दोस्तों के साथ बैठकर रातभर दारुबाजी करते हैं और सुबह होते ही घर चले जाते हैं।
    रात १२ बजे बाद के इंदौर में खाना खाने के तमाम अड्ड़े बता डाले उन्होंने।
    तो हमने उनसे कहा इसका मतलब कि आप निशाचर हैं, जिन्हें रात पसंद होती है,  और दिन में इनको अच्छा नहीं लगता है। तो मवाली युगल मुस्करा उठा जैसे हमने उनके राज की बात कह दी हो, निशाचर को रात पसंद होती है और जैसे जैसे सूरज सिर चढ़ता है वैसे वैसे उनकी तकलीफ़ बढ़ती जाती है।
    हमने कहा कि हम तो भई दिनचर हैं, हमारी बैटरी तो रात १० बजते ही डाऊन हो जाती है और ज्यादा से जयादा १२ बजे तक बस, पर सुबह ६ बजे पूरी तरोताजगी महसूस करते हैं। हम रातभर नहीं जग सकते हैं, हमारा स्टेशन रात को १२.३० बजे आने वाला है, इसलिये आज तो हमारी बहुत बड़ी आफ़त है।
    दिनचर और निशाचर पर बात ही हो रही थी कि एक और बुजुर्ग जो कि लगभग ६५ के थे, सीट खाली देखकर बैठ गये और हमारी बातचीत में शामिल हो गये।
    उन्होंने बताया कि वे रेल्वे में गार्ड थे और २५ वर्ष पहले रिटायरमेंट ले लिया, हमने गार्ड सुना बहुत था कि ट्रेन में होते हैं पर पता नहीं था कि गार्ड आखिर करता क्या है, क्या केवल लाल और हरी झंडी दिखाना ही गार्ड का काम है ? तो उन्होंने बताया कि गार्ड पूरी ट्रेन का मुखिया होता है, और ट्रेन में चल रहा पूरा स्टॉफ़ याने कि पुलिस, टी.सी. और ड्राईवर गार्ड को रिपोर्ट करते है। अगर किसी को भी कोई समस्या हो तो गार्ड को रिपोर्ट कर सकता है, अगर किसी स्टेशन पर टिकट नहीं मिलता है तो गार्ड से टिकट भी ले सकता है।
    फ़िर उन्होंने बताया कि गार्ड को बहुत सारी सुविधाएँ होती हैं, तत्कालीन रेलमंत्री माधवराव सिंधिया ने कहा था कि गार्ड और ड्राईवर तो रेल्वे की रीढ़ की हड्डी है, इनका ध्यान रखना बहुत जरुरी है। फ़िर उन्होंने बताया कि भोपाल में रेल्वे का गार्ड और ड्राईवर का रेस्ट रुम बिल्कुल होटल जैसा उन्होंने बनाया जिसमें बाद में ए.सी. भी लगवाया। जितनी सुविधाएँ सिंधिया जी ने रेलमंत्री के तौर पर दीं उतनी किसी ने भी नहीं दीं।
    गार्ड साहब को भी ललितपुर जाना था जब उन्होंने रेल्वे में मिलने वाली सुविधाओं को बताया तो हमारी तो आँखें और मुँह खुले ही रह गये। सेवानिवृत्ति के बाद भी सुविधाएँ कम नहीं होतीं। काम बहुत मेहनत का होता है और पैसा भी बहुत मिलता है, बस एक बात बोली उन्होंने कि अगर घरवाली समझदार हो तो सबकी लाईफ़ बन जाती है, बच्चों की पढ़ाई का ध्यान रखे और पैसे को ढ़ंग से जोड़ ले। वैसे तो यह बात हमारे ख्याल से सबके साथ लागू होती है।

    यह पोस्ट हम “वांटेड” फ़िल्म देखते हुए लिख रहे थे, ये फ़िल्म बहुत बार देख ली है, परंतु पता नहीं इस फ़िल्म में क्या है जो एक्शन के कारण बांधता है। सलमान खान का डॉयलाग “एक बार जो कमिटमेंट मैंने कर दी, फ़िर तो मैं अपनी भी नहीं सुनता” कानों को भाता है।

ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – ३ [हिन्दी ब्लॉग की मार्केटिंग]

पहला भागदूसरा भाग
    तभी सीहोर स्टेशन आ गया और डॉक्टर साहब प्लेटफ़ार्म पर अपनी मिसेज के लिये आईसक्रीम लेने चल दिये। वे बोलीं कि हमें तो स्ट्राबेरी पसंद है, तो बस डॉक्टर साहब स्ट्राबेरी आईसक्रीम ले आये उनके लिये, आखिर १४ वीं सालगिरह जो थी शादी की।
    दूसरी तरफ़ मवाली युगल की पत्नि जी किसी बात पर अपने शौहर से नाराज होकर ट्रेन की खिड़की की ओर आलथी पालथी मार कर बैठी थीं, तो उनके शौहर ने बाहर से जाकर खिड़की से पूछा कि क्या खाओगी, आईसक्रीम या कोल्डड्रिंक। वो बोली कि कुछ नहीं खाऊँगी, एक बार बोला ना समझ में नहीं आता कि नहीं खाना। अभी थोड़ी देर पहले ही खाना खाया है ना। पर शौहर बार बार पूछ रहा था कि क्या खाओगी और वो बार बार उसकी बेईज्जती कर रही थी बड़े प्यार से। और वो बेचारा प्यार में अपनी बेईज्जती सहे जा रहा था।
    मिसेज डॉक्टर ने अपनी आईसक्रीम खत्म करने के बाद बोलीं कि इस आईसक्रीम को खाने के बाद तो मेरा जी खराब हो रहा है, तो मिसेज मवाली बोली कि अच्छा हुआ कि मैंने आईसक्रीम नहीं खाई। हम भी मन ही मन सोच रहे थे कि चलो अपनी भी इच्छा हो रही थी, पर आईसक्रीम नहीं खाई अच्छा हुआ।
    तभी डॉक्टर साहब के फ़ैमिली फ़्रेन्ड की मिसेज भी आ गईं तो जगह की कमी को देखते हुए डॉक्टर साहब निकल लिये अपने मित्र के पास जो कि ४-५ कंपार्टमेंट दूर ही बैठे हुए थे और उन्हें ललितपुर जाना था। तो महिलाओं की बातें शुरु हुईं, शिक्षा पर फ़िर रहन सहन पर और फ़िर फ़ैशन पर। पर जैसे ही उनकी वे मित्र आई थीं, हम उनको देखते रहे और पहचानने की कोशिश करते रहे कि इनको कहाँ देखा है पर हमें याद नहीं आ रहा था। जब वे चलीं गई तो हमने मिसेज डॉक्टर से पूछा कि ये कौन थीं, तब उन्होंने परिचय दिया तो हमने बाकी की जानकारी उनको बता दी। तो वे बोलीं कि अरे आप तो उनको बहुत अच्छे से जानते हैं। हम इसलिये पहचान नहीं पाये क्योंकि हम उनसे लगभग १३ वर्ष पहले मिले थे।
    भोपाल आ चुका था और गर्मी के गरम गरम थपेड़े अभी भी कम नहीं हुए थे, हमने अपने टकले से टोपी को हटा लिया तो मवाली भाईसाहब बोले कि ये क्या, तो अपुन बोले कि ये अपना हेयर श्टाईल है। वे बोले मगर हेयर है किधर, मैं बोला अपना तो ऐसाइच है क्या !! 😀
    अब तक डॉक्टर साहब अपनी ठंडी रखने वाली २ लीटर वाली बोतल में २ बिसलरी उलट चुके थे, और जैसे ही ट्रेन चलने लगी गटागट १ लीटर पी लिये, और फ़िर से पानी की तिकड़म शुरु कर दी गई।
    भोपाल से ट्रेन चली तो डॉक्टर साहब के मित्र वे भी डॉक्टर साहब थे, मैं उनको देखते ही पहचान गया परंतु वे नहीं पहचाने । अब जरुरी तो नहीं न कि आप किसी को पहचान जायें और वो भी आपको पहचान जाये। हमने उनको याद दिलाया कि फ़लां वर्ष में आपका क्लीनिक वहाँ था और हम आपके पास आते थे, तब जाकर थोड़ा उन्होंने याद करने की कोशिश की, पता नहीं उसमें वे कितना सफ़ल हुए। ये डॉक्टर साहब ने बी.ए.एम.एस., एम.डी, एम.ए. (फ़िलोसफ़ी) और भी पता नहीं २-४ डिग्रियां और पढ़ रखी थीं, और उज्जैन में वे वक्ता और अच्छे विचारक के रुप में जाने जाते हैं और धनवंतरी आयुर्वेदिक महाविद्यालय में व्याख्याता हैं। सभी वेद पुराण और दर्शनों के मर्मज्ञ हैं, बहुत सारी बातें उनसे हुईं। उन्होंने स्वामी रामदेव जी से भी मिलने के किस्से सुनाये। उन्होंने बताया कि वे साहित्य पढ़ने के बहुत शौकीन हैं और आज भी साहित्य पढ़ते ही रहते हैं, और लगातार पढ़ने के कारण पढ़ने की रफ़्तार भी बड़ गय़ी है। हमने उन्हें ब्लॉग लिखने के लिये प्रेरित किया कि आप जैसे ज्ञानी व्यक्ति के विचार पढ़ना सबको अच्छा लगेगा, और अगर तकनीकी मदद की जरुरत हो तो हमें बताइयेगा। अब ब्लॉग लेखन पर उनसे बराबर फ़ॉलोअप लेंगे। अब हमने तो हिन्दी ब्लॉगिंग करने के लिये बहुत मार्केटिंग की, हिन्दी एग्रीगेटर्स अपने ब्लॉग के बारे में बताया। अब देखते हैं कि क्या परिणाम होता है।
    वैसे जब भी हम यात्रा में होते हैं तो हिन्दी ब्लॉग की मार्केटिंग जरुर करते हैं, अब पाठक तो लाने ही पड़ेंगे। कुछ इस तरह के प्रयास भी करना होंगे।

ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – २ [मोबाईल ट्रेकर की जानकारी साझा की]

    इस मवाली युगल ने ही दो सीटों को ८०० रुपये देकर अपने नाम करवा लिया था, बंदा लगता तो भाई ही था। बिल्कुल अनिल कुमार स्टाईल के बाल और फ़िल्मी अंदाज में शर्ट के दो बटन खुले हुए। और उनकी पत्नी बिल्कुल हीरोईन श्टाईल में वस्त्र धारण किये हुए थीं।
    उनकी बातें चल रही थीं, बिल्कुल चिपक कर बैठे हुए थे और आसपास की दीन दुनिया से अनजान अपनी बात में गुम थे। लड़का कह रहा था कि कुछ नहीं हुआ था, तो लड़की बोल रही थी नहीं हमने सुना था कि फ़लाने ने पहले तो धमकाने के लिये हाथ उठाया फ़िर बाद में गुस्से में आकर किसी को चाकू मार दिया। तो लड़का बोला अरे वो तो है ही ऐड़ा, अकल वकल लगाता नहीं है और जिधर देखो उधर अपना गुस्सा निकालता है। बस ऐसी ही मवालीगिरी की उनकी बातें चल रहीं थीं।
    गर्मी के मारे बुरा हाल हुआ जा रहा था, जो ठंडा पानी हम एक बोतल लाये थे, वह तो सीहोर आने तक ही खत्म हो चुका था या कहें उबल गया था और वह पानी पीने की तो बिल्कुल इच्छा भी नहीं हो रही थी। मिनरल वाटर की बोतलें बिक तो रही थीं पर ठंडी नहीं, फ़िर भी हमने एक बोतल पानी की ले ही ली और अपनी प्यास बुझाई, बोतल थी बैली की। जब बोतल ली तो हमें याद आया कि शायद पहली मिनरल वाटर बनाने वाली कंपनी बिसलरी थी, और अब मिनरल वाटर के लिये बिसलरी शब्द पर्यायवाची बन गया है, ब्रांड बन गया है। मवाली युगल भी गर्मी से परेशान था और थोड़ा पानी पीने के बाद जब थोड़ी देरे में ही पानी उबलने लगता तो उसी मिनरल वाटर से हाथ मुँह धो लेता। अब बताईये मिनरल वाटर से मुँह धो रहे हैं, और गर्मी का हवाला दे देकर बोल भी रहे हैं कि गर्मी के कारण बिसलरी से मुँह हाथ धोने पड़ रहे हैं।
    तभी डॉक्टर साहब से हमारी बातचीत शुरु हुई, तो बातों में ही बात आ गई कि अगर आजकल किसी का भी मोबाईल नंबर या कोई और आवश्यक जानकारी होती है वह हम सीधे मोबाईल में ही लिख लेते हैं और अगर बाईचांस किसी का मोबाईल गुम जाता है तो बस उसकी तो आफ़त ही समझो। हमने उन्हें बताया कि हमारा मोबाईल भी गुम चुका था पर मोबाईल ट्रेकर होने के कारण हमें वापिस मिल गया। फ़िर तो सारे कंपार्टमेंट में बैठे लोगों का ध्यान हम पर केन्द्रित हो गया। तो डॉक्टर साहब की मिसेस बोलीं कि मोबाईल ट्रेकर क्या होता है और कैसे काम करता है।

मोबाईल ट्रेकर –
    मोबाईल ट्रेकर सेमसंग कंपनी के मोबाईल में ही एक फ़ीचर होता है जो कि साथ में आता है, अगर आपका मोबाईल कहीं गुम जाता है, और चोर दूसरी सिम जैसे ही बदलता है तो उस सिम का नंबर आपके द्वारा की गई सैंटिंग्स के मोबाईल नंबर पर एस.एम.एस. के माध्यम से आ जाता है, और चोर कितने भी नंबर बदल ले, आपके पास सारे नंबरों के एस.एम.एस. आते रहेंगे। और चोर मोबाईल ट्रेकर बंद भी नहीं कर सकता क्योंकि उसे उसका पासवर्ड पिन पता नहीं होता है। इस स्थिती में चोर के पास केवल दो ही रास्ते होते हैं कि या तो मोबाईल को फ़ेंक दे या फ़िर आपको वापिस करे दे।
    वैसे मोबाईल ट्रेकर सोफ़्टवेयर आप अपने मोबाईल में डाउनलोड कर सकते हैं, जैसे मैंने अभी नोकिया E63 मोबाईल लिया तो सबसे पहले OVI Store से मोबाईल ट्रेकर ही डाउनलोड किया और पासवर्ड पिन सेट किया।
    अगर आपने भी मोबाईल ट्रेकर अपने मोबाईल में संस्थापित नहीं किया है तो आज ही करें। क्योंकि हर दिन या सप्ताह में नियमित रुप से डाटा का बेकअप लेना असंभव होता है।
    तो हाथोंहाथ डॉक्टर साहब के मोबाईल पर जो कि सेमसंग का था, सेटिंग्स करवा दी वे भी खुश हो गये और अपने ये मवाली भाई उनके पास २-३ मोबाईल थे उसमें से १ सेमसंग का था उन्होंने तो मोबाईल ट्रेकर की सेटिंग करके उसकी सिम भी बदल कर सफ़लतापूर्वक परीक्षण भी कर डाला।

जारी…

ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – १

    सुबह उज्जैन पहुँचे तैयार हुए और फ़िर घर पर बातें कर ही रहे थे कि वापिस अपनी ट्रेन का समय हो गया, मालवा एक्सप्रेस धौलपुर के लिये। धौलपुर एक छोटा सा स्टेशन है राजस्थान राज्य का, जो कि दिल्ली भोपाल सेंट्रल लाईन पर ग्वालियर और आगरा के बीच में पड़ता है।
    ट्रेन उज्जैन से दोपहर सवा दो बजे चलती है और रात को साढ़े बारह बजे पहुँचती है, जब दोपहर को उज्जैन से सवा दो बजे हम ट्रेन में चले तो तपती हुई दोपहरी का अंदाजा हुआ, गरम हवा के थपेड़े सीधे आ रहे थे, हमने अपने टकले को थोड़ा आराम देने के लिये उसके ऊपर टोपी लगा ली, क्योंकि हम अब इस गरम हवा के थपेड़े सहने के आदि नहीं थे। (घरवाली के आदेश का पालन किया गया, आदेश तो पुदीनहरा की टेबलेट लेने का भी था, परंतु हमारी ट्रेवलिंग मेडीकल किट में नहीं थी)
    जब हम ट्रेन में अपने कंपार्टमेंट में पहुँचे तो वहाँ दो सहयात्री पहले से ही मौजूद थे जो कि उज्जैन से ही ट्रेन में चढ़े थे, जो कि युगल थे और उस दिन उनकी शादी की १४ वीं सालगिरह भी थी, सो फ़ोन पर फ़ोन आये जा रहे थे, चूंकि वे उज्जैन के ही थे तो थोड़े ही देर में जान पहचान निकल आयी।
    तभी उन्होंने बताया कि हमारे एक भाईसाहब हैं जो कि घर से ठंडा पानी लेने गये हैं, सफ़र झांसी तक का है तो पानी की जरुरत तो पड़ती ही रहेगी। तभी उनकी पत्नी बोलीं कि पानी की बोतल तो यहाँ स्टेशन पर मोल भी मिलती है फ़िर घर जाने की क्या जरुरत है,  तो पति महोदय का जबाब था – “झक्की की झक है”, उसका कोई इलाज नहीं है। अब भला बताईये ४ लीटर ठंडे पानी के लिये १० कि.मी. आना जाना वो भी मात्र १५ मिनिट में, पता नहीं वो भाईसाहब आ भी पाये या नहीं।
    हम छावा (शिवाजी सामंत लिखित) पढ़ने में व्यस्त थे, तभी टी.सी. आये और हमारे टिकट चेक किये, आजकल इंटरनेट टिकट लेने पर फ़ोटो आई.कार्ड टी.सी. जरुर देखते हैं, पहले बिना फ़ोटो आई.कार्ड के ही काम चल जाता था।
    आरक्षित शयनयान श्रेणी में यात्रा करने के बाबजूद जिस स्टेशन पर ट्रेन रुकती लोग इसमें चढ़ते जाते और जगह देखकर बैठ जाते कि अगले स्टेशन पर उतरना है। टी.सी. भी उनसे ४०-५० रुपये लेकर उन्हें बैठने देते। अब बताइये भला कि कोई क्या बोल सकता है। टी.सी. की कमाई का ये भी बढ़िया धंधा है स्लीपर में।
    थोड़ा समय बीतने के बाद लगभग १ घंटे के बाद फ़िर टी.सी. आया कि फ़लाने नाम का कोई आया क्या इस सीट पर, वहाँ कोई नहीं था, बस टी.सी. के मुख पर मुस्कान फ़ैल गई। अरे उसकी जेब गरम होने वाली थी, थोड़े ही देर में एक युगल जो कि जम्मू तक जा रहा था, वैष्णो देवी की यात्रा करने के लिये। युगल नया लग रहा था, जैसी कि उनकी चुहलबाजी चल रही थी और हमारी बातचीत में वे भी शामिल हो गये, लड़का मवाली लग रहा था और लड़की भी बातचीत से वैसी ही लग रही थी पर सभ्य दिखाने की कोशिश कर रहे थे। हमें लगा कि शायद लड़के के घरवालों ने जैसे को तैसा करने के लिये इस तरह की लड़की से शादी की होगी।

“ऐ टकल्या”, विरार भाईंदर की लोकल की खासियत और २५,००० वोल्ट

    हम चल दिये ५ दिन के लिये मुंबई से बाहर, बोरिवली स्टेशन से हमारी ट्रेन थी, हम ट्रेन के आने के ठीक १० मिनिट पहले प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँच गये, तो चार नंबर प्लेटफ़ार्म से ट्रेन जाती है, और इसी प्लेटफ़ॉर्म से विरार, भाईंदर की लोकल ट्रेनें भी जाती हैं। इन लोकल ट्रेन में पब्लिक को देखते ही बनता है, बाहर की पब्लिक तो इन लोगों को देखकर आश्चर्य करते हैं।विरार भाईंदर की लोकल ट्रेन को देखकर बाहर के लोगों को आप आँखें फ़ाड़ फ़ाड़कर देखते हुए देखे जा सकते हैं ।

    विरार भाईंदर लोकल ट्रेन की बहुत सारी खासियत हैं, मसलन ट्रेन की छत पर यात्रा करना, बाहर से खिड़की के ऊपर चढ़कर यात्रा करना, बंद दरवाजे की रेलिंग पर चढ़कर यात्रा करना, गेट पर खड़े हुए हीरो लोग प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े हुए लोगों पर फ़ब्ती कसते हैं, डब्बे में इतनी भीड़ होने के बाबजूद और लोगों का चढ़ जाना, और सबसे बड़ी खासियत गुटबाजी अगर आप पहली बार जा रहे हैं तो गेट पर खड़े लोग आपको चढ़ने ही नहीं देंगे, और अगर उतरना है तो उतरने नहीं देंगे।

    भले ही बेचारे रेल्वे वाले चिल्ला चिल्लाकर अधमरे हो जायें, कि ट्रेन की छत पर यात्रा न करें २५,००० वोल्ट का करंट बहता है, कई लोग तो निपट भी चुके हैं, पर हीरोगिरी करने से बाज आयें तब न, बस इनको नहीं सुनना है तो नहीं सुनना है, शायद कानून को मजाक समझते हैं ये लोग।

    हम अपनी हेयरश्टाईल याने कि टकले थे, (टकलापुराण और टकले होने के फ़ायदे रोज ४० मिनिट की बचत) तो एक फ़ब्ती हमें भी मिली “ऐ टकल्या”, तो हमने पहले अपने आसपास खड़े लोगों को देखा तो पाया कि “केवल अपन ही टकले हैं, और कोई टकला नहीं है”, बड़ा ही आनंद आया कि चलो कोई तो है जो हमको फ़ब्ती कस सकता है।

ये आई.ए.एस. में लोग सेवा करने जाते हैं या कमाने जाते हैं ? यह एक यक्ष प्रश्न है कि इन आई.ए.एस. की इज्जत करें या न करें, और अगर आज के युवा की सोच ही ऐसी होगी परिवार की होगी तो इस राष्ट्र का भविष्य क्या होगा।

    दो साल पहले की बात है, हम करोल बाग में एक रेस्त्रां में खाना खा रहे थे, और हमारे पीछे वाली टेबिल पर कुछ छ: लड़के बैठे हुए थे, जो कि मूलत: झारखंड और बिहार के लग रहे थे।

    हमने खाना ऑर्डर किया और अपनी बातें करने लगें परंतु ये लड़के अपनी बातें इतनी तेज आवाज में बात कर रहे थे कि हम अपनी बात कर ही नहीं पा रहे थे और वे जिस तरह की बातें कर रहे थे वैसी हमने पहले कभी सुनी भी नहीं थीं, इसलिये चुपचाप हमने उनकी ही बातें सुनने का फ़ैसला ले लिया।

    वे बात कर रहे थे सिस्टम की, जी हाँ प्रशासन की, क्या हम यहाँ झक मारने आये हैं समाज के लिये नहीं !!!, आई.ए.एस. बनना है और करोड़ों कमाना है, अरे रुतबा का रुतबा और कमाई की कमाई, किसी कंपनी का सीईओ भी क्या कमाता होता आई.ए.एस. की कमाई के आगे।

    बातों में पता लगा कि उनमें से २-३ के पिता आई.ए.एस. हैं, और बाकी २-३ सामान्य लोग हैं परंतु दाँतकाटी दोस्ती लग रही थी उन सबमें, जिनके पिता आई.ए.एस. थे वे कुछ किस्से बता रहे थे कि फ़लाने ने आई.ए.एस. की पोस्टिंग मिलने के २-३ साल के अंदर ही करोड़ रुपया अंदर कर लिया वो भी किस सफ़ाई से, कहीं कोयला खदान की बात हो रही थी कि वहाँ पर किसी परमीशन या ठेके के लिये आई.ए.एस. ने ४० करोड़ की रिश्वत ली थी और मंत्री को पता चल गया तो मंत्री ने कमीशन माँगा तो उस आई.ए.एस. ने उस मंत्री को पैसे देने की जगह पैसा खर्च करके उसको गद्दी से ही हटवा दिया।

    फ़िर किसी आई.पी.एस. की बात चली कि ये लोग भी कम नहीं होते हैं, रंगदारी करते हैं और व्यापारियों से एक मुश्त रकम या फ़िर सप्ताह लेते रहते हैं, बस व्यापारी बड़ी मुर्गी होता है।

    तभी उनमें से एक आई.ए.एस. का सुपुत्र बोला उसके दूसरे मित्र को जो कि शायद किसान परिवार से था, कि बेटा पढ़ाई कर जम कर और केवल हरे हरे नोटों के सपने देख, और देख कि तेरा रसूख कितना बढ़ जायेगा, लोग सलाम ठोकेंगे, कभी भी करोड़ रुपया अंदर कर सकता है। तो किसान परिवार के लड़के का उत्तर सुनकर तो हम दंग ही रह गये, वो बोला “हमारे पिताजी ने कहा है कि तू केवल पढ़ाई पर ध्यान दे, और ये आई.ए.एस. की परीक्षा पास कर ले, जितना पैसा खर्च होता है ३०-४० लाख रुपया होने दे, तू चिंता मत कर हम खेत खलिहान बेच देंगे घर बेच देंगे, तू आई.ए.एस. बन गया तो ये खर्चा तो कुछ भी नहीं है ये तो निवेश है, इसका दस गुना तुम हमें २-३ साल में कमा कर दे दोगे” !!!

    हम हमारे विचारों में खो गये कि ये आई.ए.एस. की परीक्षा और आई.ए.एस. बनने का जुनून तो किसी और दिशा में मुड़ गया है। और ये केवल करोलबाग की ही बात नहीं है, जहाँ आई.ए.एस. की तैयारी कर रहे लोग मिलेंगे, आपको इस तरह की बातें सुनना शायद आश्चर्यजनक न लगे। क्योंकि हमने ये चर्चाएँ कई बार दिल्ली में अलग अलग जगह पर सुनी हैं।

    इसलिये अब हमारे सामने यह एक यक्ष प्रश्न है कि इन आई.ए.एस. की इज्जत करें या न करें, और अगर आज के युवा की सोच ही ऐसी होगी परिवार की होगी तो इस राष्ट्र का भविष्य क्या होगा।

मेरी चाहतें ….. रोज उठना ना पड़ता, रोज नहाना न पड़ता…, रोज खाना ना पड़ता…, काश कि बुशर्ट भी पेंट जैसी ही होती…, जिससे प्रेस जल्दी होती.. ।

    रोज रात को सोने के बाद …. सुबह उठना क्यों पड़ता है … कितना अच्छा होता कि …. रोज उठना ना पड़ता, रोज नहाना न पड़ता…, रोज खाना ना पड़ता…, रोज पानी ना भरना पड़ता, रोज बस मीठी नींद के आगोश में रहते…, रोज सुबह की सैर पर नहीं जाना पड़ता…, रोज ऑफ़िस न जाना पड़ता…, सप्ताहांत सप्ताह में एक की जगह दो होते…

    ऐसी मेरी चाहें तो अनगिनत हैं पर कभी पूरी नहीं होती हैं, सब सपना सा है, दो दिन सप्ताहांत पर आराम करने के बाद सोमवार को ऑफ़िस जाना जान पर बन आता है, कि हाय ये सोमवार इतनी जल्दी क्यों आ गया, हमने ऐसा कौन सा पाप किया था, कि ये ऑफ़िस में हर सोमवार को आना पड़ता है।

    शुक्रवार को तो मन सुबह से प्रसन्न होता रहता है कि बेटा बस आज और काम करना है फ़िर तो दो दिन आराम, अहा !!! कितना मजा आयेगा।

    पर चाहतें भला कब किसकी पूरी हुई हैं, ये पंखा देखो न कितनी आवाज करता है…, सोचने में विघ्न डालता है…, बंद कर दो तो पसीना सर्र से बहने लगता है…, काश कि मैं अभी कहीं ठंडे प्रदेश में छुट्टियाँ काट रहा होता…, वहाँ की वादियों को देखकर मन में सुकून काट रहा होता…, रोज ये चिल्लपों सुनकर तंग आ गया हूँ…, क्यों पेंट पर जल्दी प्रेस (इस्त्री) हो जाती है …., और बुशर्ट पर समय क्यों लगता है…, काश कि बुशर्ट भी पेंट जैसी ही होती…, जिससे प्रेस जल्दी होती.. । इस्त्री की जगह कोई ऐसी मशीन होती कि उसमें कपड़े डालो तो धुल भी जाये और इस्त्री होने के बाद बिल्कुल तह बन कर अपने आप बाहर आ जाये …, और अपने आप अलमीरा में जम जायें।

    चाहतों का कोई अंत नहीं है…, अभी दरवाजे पर दस्तक हुई है … शायद अखबार आया है…, तीन तीन अखबार और मैं इत्ती सी जान…, काश कि इन अखबारों को पढ़ना न पड़ता…, कोई अखबार का काढ़ा आता … हम उसे पी जाते और उसका ज्ञान अपने आप दिमाग में चला जाता…, पर ऐसा नहीं है… इसलिये हम चले अखबार बांचने और आप जाओ टिप्पणी बक्से में टीपने, और पसंद का चटका लगाने…।

ऐसे ही कीबोर्ड तोड़ता रहूँगा… “यार अपनी किस्मत में तो सटर्डे और सन्डे कपड़े धोना ही लिखा है” … आधुनिक युग में मजदूरी… स्क्रोल व्हील

    क्या लिखूँ समझ में नहीं आ रहा है, क्यों लिखूँ ये भी समझ में नही आ रहा है, बस लिखना है इसलिये लिखते जा रहा हूँ, बहता जा रहा हूँ और ये क्रम रोज ही जारी है, परेशान भी नहीं हो रहा हूँ…. और ना ही परेशान होने की कोशिश कर पाता हूँ…
    कहीं दूर मन में छन से आवाज आती रहती है, कि क्या जिंदगी में पाने के लिये आये हो… क्या कर रहे हो … क्या तुम अपने आप से सन्तुष्ट हो… या अपने में ही अपनी चिंगारी दबाते जा रहे हो… और रोज रोज अपने में ही मरे जा रहे हो… क्या है यह … जिंदगी बहुत तेजी से दौड़ती जा रही है … जैसे रोज कीबोर्ड पर हमारी ऊँगलियाँ … ऊँगलियाँ कीबोर्ड पर दौड़ती नहीं हैं … मजबूरी में चल रही होती हैं … कोई अंदर से चीख रहा है कब तक मैं उसकी आवाज नही सुनूँगा … और ऐसे ही कीबोर्ड तोड़ता रहूँगा… हमेशा दिल घबराया हुआ सा रहता है … आँखें पथरायी हुई सी रहती हैं।
    अब वो देखने की कोशिश कर रहा हूँ जो होता तो है पर मैं उस तरफ़ ध्यान नहीं देता हूँ या सिंपली कहूँ इग्नोर कर देता हूँ..।
    मेरी दिनचर्या के कुछ दृश्य जो घटित तो रोज होते हैं, पर ध्यान मैंने आज दिया –

१. वाशरूम – दो लड़के जो मुंबई से कहीं बाहर से आये हुए लग रहे है, आज शुक्रवार है, इसलिये सब लोग जीन्स और टीशर्ट में ही दिख रहे हैं, मैं लघुशंका के लिये शौचालय खाली है ?, ढ़ूँढ़ता हूँ और कान में उन लड़कों की बातें भी सुनाई दे रही हैं… देखिये हमारा शरीर भी कितना मल्टीटास्किंग है .. हाथ से हम वाशरुम का दरवाजा खोल रहे हैं और कानों से उन दोनों लड़कों की बातें सुन रहे हैं, पहला लड़का दूसरे से “अरे यार कल फ़िर धोबी बनने का दिन आ गया है”, दूसरा बोला “यार अपनी किस्मत में तो सटर्डे और सन्डे कपड़े धोना ही लिखा है”, “कितने साल हो गये कपड़े धोते हुए ….!!!” । इतने में हम वाशरुम के अंदर चले जाते हैं, और वो आवाजें सुनाई देना बंद हो जाती हैं, पर अपने अंदर से आवाज आने लगती हैं, “सोच क्या रहा है, बेटा थोड़े समय पहले तेरी भी यही हालत होती थी, बस अब तेरे दिन फ़िर गये हैं”, और यही सोचते हुए वापिस अपने क्यूबिकल तक आ गये।

२. कैंटीन – शाम चार बजते बजते दिन बोझिल सा होने लगा है.. जैसे इस नीरस सी जिंदगी में और कुछ बचा ही नहीं है … अंदर ए.सी. की ठंडी हवा भी अजीब सी घुटन पैदा करती है … आज भूख कुछ ज्यादा लगी तो सोचा कि चलो आज कैंटीन में कुछ खा लेते हैं .. पता चला कि आज मिस्सल पाव है … पहले तो मन एकदम खिल गया कि चलो आज यही खा लेते हैं … वैसे भी अपना मनपसंद है … पर जैसा हर बार होता है … अपने साथ … वही हुआ … पाव खत्म हो गया और ब्रेड से मिस्सल खानी पड़ी … हर बार ऐसा ही होता है जिंदगी में, मैं सोच में डूब गया कि मुझे जो चाहिये होता है या जो करने का मन होता है वह या तो होता ही नही है या फ़िर कुछ हिस्सा बचा होता है … और हमेशा हम अपनी कुँडली को कोसते रहते हैं, क्योंकि इसमें हम कुछ कर नही सकते हैं।
३. क्यूबिकल – अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा हम इस क्यूबिकल में गुजार देते हैं, जहाँ बेजान सी लकड़ी की डेस्क, सामने काँच का पार्टीशन, एक फ़ोन, पानी की बोतल और हर समय कोसता हुआ खाली चाय का कप रहता है, पास ही भगवान श्रीकृष्ण का फ़ोटो जो काम के बीच में याद दिलाता रहता है कि तुम अभी भी जिंदा हो और तुम्हारी जिंदगी में धार्मिकता बची हुई है, अपनी घूमने वाली कुर्सी पर बैठकर मजदूरी करके शाम को ए.सी. की तपन से बाहर आकर गरम हवा बिल्कुल हिमालय की ताजगी देती है।
४. मजदूर – आज के इस आधुनिक युग में मजदूरी की परिभाषा वही है, बस मजदूरी बदल गयी है, काम बदल गया है, मजदूरी का पैमाना बदल गया है, हम धूप में पत्थर नहीं तोड़ते हैं न ही हमारा शरीर हट्टा कट्टा है और न ही शरीर से पसीना चू रहा होता है … और न ही सूखी रोटी खा रहे होते हैं … केवल एक ही समानता है विद्रुप आहत दिल। और मजदूर मजबूरी में, जो कि केवल पैसे के लिये अपने दिल और मन  पर बारबार चोट कर रहा है। हम हुए आधुनिक मजदूर पर दिल और मन से बिल्कुल अभिन्न हैं पारंपरागत मजदूरी से …  हम उससे जुड़े हुए हैं।
५. माऊस – अपनी कुर्सी में धँसकर केवल माऊस चलाते जाओ, कभी लेफ़्ट क्लिक करो कभी राईट, कभी स्क्रोल व्हील घुमाते रहो। इतने साल हो गये इस माऊस को पर देखो टेक्नोलाजी कि माऊसे आगे की कोई चीज आयी ही नहीं, वो बेचारा माऊस सोच रहा होगा कि ये इंसा कब तक ट्रेकबाल या रोशनी के सहारे मुझे दौड़ाता रहेगा, मुझे भी आजादी दो, मुक्ति दो मैं थक गया हूँ।