आज का युग तकनीक की दृष्टि से बेहद अहम है, हम बहुत सी तरह की सामाजिक तानेबाने वाली वेबसाईट से जुड़े होते हैं और अपने सामाजिक क्षैत्र को, उसके आवरण को मजबूत करने की कोशिश में लगे होते हैं। हम सोशल नेटवर्किंग को बिल्कुल भी निजता से जोड़कर नहीं देखते हैं, अगर हम किसी से केवल एक बार ही मिले होते हैं तो हम देख सकते हैं कि थोड़े ही समय बाद उनकी फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट हमारे पास आयी होती है या फिर हम खुद से ही भेज देते हैं। जबकि हम अपनी निजी जिंदगी में किसी को भी इतनी जल्दी दाखिल नहीं होने देते हैं, किसी का अपनी निजी जिंदगी या विचार में हस्तक्षेप करना हम बहुत बुरा मानते हैं और शायद यही एक कारण है कि जब तक हम किसी को जाँच परख नहीं लेते हैं तब तक हम उससे मित्रता नहीं करते हैं। Continue reading सोशल नेटवर्किंग के युग में टूटती आपसी वर्जनाएँ
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दुनिया में किसी पर भी विश्वास करने से पहले बेहतर है कि परख लिया जाये। (Trust)
दुनिया में जब तक आप किसी पर विश्वास (Trust) न करें तब तक किसी भी कार्य का संपादन होना मुश्किल ही नहीं वरन नामुमकिन है, सारे कार्य खुद नहीं कर सकते और मानवीय मन अपनी बातों को किसी को बताने के लिये हमेशा ही उद्यत रहता है। हर किसी को अपने मन और दिल की बात बताना भी बहुत भारी पड़ सकता है, पता नहीं कब कैसे कहाँ वह आपके विश्वास करने की सदाशयता पर घात लगा दे। और आपको अपने उस पल पर जिसमें आपने अपनी बातों को बताने का फैसला किया था, हमेशा जीवन भर सालता रहेगा। आपको हमेशा दूसरे व्यक्ति पर ही गुस्सा आयेगा जिसने आपके विश्वास को तोड़ा होगा, परंतु वाकई में आप खुद उसके लिये जिम्मेदार हैं। क्या कभी इस बारे में सोचा है ? नहीं न! जी हाँ हम खुद पर कभी गुस्सा करना ही नहीं चाहते हैं, हमेशा ही किसी दूसरे व्यक्ति को जिम्मेदार ठहराते हैं।
विश्वास करने की शिक्षा हमें कहीं किसी किताब से नहीं मिलती है, यह हमें हमेशा अपने खुद के अनुभवों से मिलती है। हम कभी किसी के अनुभवों से कोई भी व्यवहार नहीं सीखते हैं, जब तक कि अपना खुद का अनुभव न हो तब तक हम ऐसे किसी अनुभव को याद ही नहीं रख पाते हैं, शायद ईश्वर ने ही हमारी मानसिक स्थिती ऐसी बनाई हुई है। हमारे में अगर किसी और के अनुभवों की सीख से अपनाने का गुण आ जाये तो एक अलग बात है, पर आज के इस आत्ममुग्ध संसार में यह लगभग असंभव है और इस गुण को अपने आप में लाने के लिये आपको आत्मकेंद्रित होना पड़ता है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि इंसान हमेशा सफल आदमी से ही प्रेरित होता है और हमेशा उनके जैसा ही बनने की कोशिश करता है। कभी भी इंसान अपने दम पर अलग से खुद को स्थापित करने की सफल कोशिश नहीं करता है। आजकल के इंटरनेटयुगीन रिश्तों के युग में किसी को भी जानना बहुत आसान हो गया है पर आप केवल उसके विचार जान सकते हैं, उसके पीछे की भावनाओं को समझने के लिये आपको हमेशा ही उस व्यक्तित्व के संपर्क में आना होता है।
संपर्क में आने पर ही आप देख पायेंगे कि व्यक्तित्व में विचारों (जिससे आप प्रभावित हुए) और उनके जीवनचर्या में अक्सर ही जमीन आसमान का अंतर होता है। यह अलग बात है कि आप कभी यह निश्चय नहीं कर पायेंगे कि उस व्यक्तित्व ने भी आपसे कुछ बातें ग्रहण की हैं, यह मानवीय स्वभाव है। हम किसी और के द्वारा की जाने वाली क्रियाओं को दोहराने की चेष्टा करते हैं क्योंकि हम सोचते हैं कि अगर वही शारीरिक क्रियाएँ हम दोहरायेंगे तो शायद हम भी वैसे ही किसी विचार को पा सकते हैं।
जब आप ऐसे किसी भी व्यक्ति के संपर्क में आते हैं जिससे आप प्रभावित हैं तो मुझे लगता है कि हमें ध्यान रखना चाहिये – जो व्यक्ति अभी भी उनसे संपर्क में हैं या निकट हैं या उनका कार्य करते हैं, उन पर हमें विश्लेषण करना चाहिये जिससे आप खुद ही अपने आप निष्कर्ष पर पहुँच जायेंगे। आपको किसी और व्यक्ति से मशविरा करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी । खुद ही विश्लेषक बनना अपने जीवन को आसान बनाना होता है, किसी और पर निर्भरता हमेशा ही हमें गलत राह पर ले जाती है। अपने मनोमष्तिष्क को दूसरे पायदान पर ले जाने के लिये हमें खुद के लिये बहुत ही मेहनत करनी होगी।
ब्लॉगिंग (Blogging) के 10 वर्ष पूर्ण.. बहुत सी बातें और बहुत सी यादें
ब्लॉगिंग (Blogging) की शुरूआत के अनुभव (भाग १)
ब्लॉगिंग (Blogging) की शुरूआत के अनुभव (भाग २)
ब्लॉगिंग की शुरूआत के अनुभव (भाग ३)
सकारात्मक और नकारात्मक खबरें समाचार चैनलों पर..
थोड़ा समय मिला तो समाचार देखे,
एक पट्टी घूम रही थी.. (निजी समाचार चैनल पर)
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मदद करने वाली पंचायतों का उत्तराखंड सरकार सम्मान करेगी ।
अभी तक तबाही से उबरे भी नहीं हैं, बचाव कार्य पूरे भी नहीं हुए हैं और इनके राजनीति चालू हो गई है।
जनता बचाव कार्य से खुश नहीं . (निजी समाचार चैनल पर)
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यहाँ पर दो तीन परिवार को समाचार चैनल लेकर बैठा हुआ था, जिनके खुद के परिजन इस आपदा का शिकार हुए, वे सरकार को बद इंतजामी के लिये कोस रहे थे.. जैसे टीवी चैनल कोपभवन ही बन गया हो। ( यहाँ कोसने की जगह क्या ये लोग वहाँ आपदा प्रबंधन में अपने स्तर पर मदद नहीं कर सकते थे, और किसी और के अपने को बचा नहीं सकते थे).. टीवी एंकर तो अपने चेहरे पर इतना अवसाद लिये बैठा था, जैसे उसे वाकई बहुत दुख हुआ हो ।
बचाव कार्य बहुत अच्छा है (सरकारी दूरदर्शन चैनल पर)
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सरकारी चैनल राज्यसभा और डीडी न्यूज पर दिखाया जा रहा था, किस तरह लोगों को बचाया जा रहा है, और एक ग्रामीण बचाव कार्य से खुश था उसका अनुभव टीवी पर दिखाया गया, जिससे लगा कि शायद निजी चैनल वालों का सरकार से बैर है।
सरकारी चैनल पर बचाव के बारे में सकारात्मक बातें दिखायीं जा रही हैं, जिनसे हर्ष होता है, परंतु वहीं निजी सरकारी चैनल नकारात्मक बातें दिखायीं जा रही हैं, जिनसे मन अवसादित होता है, निजी चैनल तो वही दिखाते हैं जो जनता देखना चाहती है और सरकारी चैनल वह दिखाते हैं जो सरकार जनता को दिखाना चाहती है, या एक पहलू यह भी हो सकता है कि तथ्यों का असली चेहरा शायद सरकारी लोग दिखा पाते हों, क्योंकि नकारात्मक बातें कहने वाले बहुत मिल जायेंगे परंतु सकारात्मक बातें कहने वाले बहुत कम, मतलब कि सरकारी समाचार चैनल वालों को सकारात्मक खबरें बनाने का दबाब तो रहता ही है, और उसके लिये ऐसे लोगों को ढूँढ़ना और भी दुष्कर कार्य होता होगा, यह तो एंकरों का क्षैत्र है इसके बारे में वही लोग अच्छे से बता सकते हैं, अपना डोमैन तो है नहीं, कि अपन अपने अनुभव पर विश्लेषण ठेल दें।
डीडी वन पर जो ऐंकर थे उन्हें पहले कहीं किसी निजी न्यूज चैनल पर समाचार पढ़ते हुए और इस तरह की समीक्षाओं/वार्ताओं में जोर जोर से चिल्लाते हुए देखा है, उनके हाथ चलाने के ढंग से ही समझ में आ रहा था कि वे अपने शो का नियंत्रण किसी ओर को देना ही नहीं चाहते हैं, और ना ही किसी की सुनना चाहते हैं, बस सब वही बोलें जो वे सुनना चाहते हैं या यूँ कहें कि अपने शब्द दूसरे के मुँह में डालने की कोशिश कर रहे हों।
मन ही मन सोचा कि इनको क्या ये भी अपने कैरियर के लिये इधर से उधर स्विच मारते होंगे, जहाँ अच्छा पैसा और पद मिला अच्छा काम मिला उधर ही निकल लिये, फ़िर थोड़े दिनों बाद कहीं और किसी निजी समाचार चैनल पर नजर आ जायेंगे।
पर यह तो समझ में आया सकारात्मक और नकारात्मक खबरों का असर बहुत होता है, तो इस मामले में हमें सरकारी समाचार चैनल बहुत पसंद आया, श्रेय इसलिये देना होगा कि उनको ग्राऊँड लेवल पर जाकर बहुत काम करना पड़ता है और निजी चैनल वालों के लिये यह बहुत आसान है क्योंकि नकारात्मक कहने के लिये एक ढूँढों हजार मिलते हैं।
सिंहपुरी के पास मित्र से वार्तालाप
दृश्य – हम घर से महाकाल अपनी बाईक पर जा रहे थे, गोपाल मंदिर से निकलते ही सिंहपुरी के पास हमारे एक पुराने मित्र मिल गये जो हमारे साथ एम.ए. संस्कृत में पढ़ते थे, अब पंडे हैं ।
मित्र – और देवता क्या हाल चाल हैं ?
हम – ठीक हैं, आप बताओ कैसे क्या चल रिया है ?
मित्र – बस भिया महाकाल की छाँव में गुजार रिये हैं.
हम – अरे भिया असली जीवन के आनंद तो नी आप लूट रिये हो, अपन तो बस झक मार रिये हैं, इधर उधर दौड़ के, रोटी के चक्कर में निकले थे.. और चक्कर बढ़ता ही जा रिया है।
मित्र – अरे देवता असली मजे तो जिंदगी के आप ले रिये हो, कने कहां कहां घूम रिये हो, बड़ी सिटी में रह रिये हो, और अपने को तो ऐसे दृश्य स्वप्न में भी नी दिखाई दे, ऐसे दृश्यों में रह रिये हो
हम – अरे नहीं भई ! बस देखने में लगता है, कम से कम आप महाकाल की छाँव में तो मजे से रह रिये हो, और महाकाल रोजी रोटी का इंतजाम भी कर ही रिये हैं, आपके लिये, अपना क्या है, यहाँ आके तो बेरोजगार ही हैं, आपके जैसे कोई अपण मंत्र थोड़े ही फ़ूँक सकें हैं।
मित्र – हा हा, अरे देवता सबको दूसरे की थाली में ही घी ज्यादा लगे है, आओ कभी घर पर आओ, इतमिनान से बातें होंगी, अब नये घर में शिफ़्ट हो गये हैं, वहीं पुराने घर के पास है, और पुराना घर ठीक करवा दिया है तो अब यजमान वहीं रुकते हैं, तो यजमानों को परेशानी भी नी होती।
हम – सही है, आपका कार्यक्रम
मित्र – किधर जा रिये हो ?
हम – महाकाल जा रिये हैं, सोचे जितने दिन हैं बाबा के दर्शन रोज कर लें, मन को तृप्त कर लें
मित्र – चलो मैं भी उधर ही जा रिया हँ, वो पंडित गुरू से मिलवा दूँगा तो दर्शन में कोई समस्या नहीं होगी, रोज वीआईपी जैसे आओ और वीआईपी जैसे ही निकल जाओ
हम – मित्र हम वीआईपी नहीं हैं, भगवान के सामने तो सब एक जैसे हैं, ये ऊआईपी और वीआईपी तो अपण लोग माने हैं, जब भगवान के घर जाने का नंबर आये नी तो ये ही वीआईपी लोग लाईन तोड़कर पीछे भागेंगे कि अभी इतनी जल्दी भगवान के घर नी जाना
मित्र – देवता तुम सुधरोगे नी.. देख लो भीड़ ज्यादा है
हम – जय महाकाल !! जैसी बाबा की इच्छा.. फ़िर मुलाकात होगी
और हम बाईक चालू करके फ़िर निकल लिये ।
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सिंहपुरी – उज्जैन में एक स्थान जहाँ अधिकतर कट्टर ब्राह्मण रहते हैं और धर्म की रक्षा के लिये तन मन धन से समर्पित हैं ।
देवता – संबोधन है, सम्मान के लिये
बीबी को नई चप्पल
श्रीमतीजी याने की बीबी को नई चप्पल लेनी थी सो बाटा की बड़ी दुकान घर के पास है वहीं जाना हुआ, अब एक बार बड़ी दुकान में घुस जायें तो सारी चीजें न देखें मजा नहीं आता, और खासकर इससे थोड़ी सामान्य ज्ञान में वृद्धि होती है, खरीदें या ना खरीदें वो एक अलग बात है।
चप्पल तो ले ली और हम भी अपने लिये देखने लग गये, वैसे हमेशा यही ऐतराज होता है आते हमारे लिये हैं और खरीददारी खुद के लिये होती है, खैर शिकायतें तो कोई न कोई रहती ही हैं।
जब हम अपने लिये एक सैंडल देख रहे थे तभी एक और व्यक्ति पास में से अपनी पत्नीजी को अंग्रेजी में बोलता हुआ गुजरा “तुम हमेशा मुझे वही चीज खरीदने पर मजबूर करती हो, जो मुझे नहीं खरीदनी है।”, हमारी जबान भी फ़िसल गई “अबे ढ़क्कन खरीदता क्यों है”, अब वो हमारे पीछे ही खड़ा था, और उसे हिन्दी भी समझ आती थी, उसके बाद वो हमें घूरने लगा। अनायास ही अपने एक बुजुर्ग मित्र बात समझ में आने लगी “जो व्यक्ति बीबी से डरता है, वही बाहर शेर बनकर दहाड़ता है, भले ही उसकी दहाड़ में दम हो या ना हो”।
और उधर ही एक विज्ञापन भी याद आ गया पुराना है मगर सबकी जबां पर था – “जो बीबी से करे प्यार वो प्रेस्टीज से कैसे करे इंकार”।
खैर फ़िर हमने उस दुकान में चमड़े के बैग देखे, पॉलिश और बेल्ट देखी, मगर एक निगाह अपने ऊपर घूमती हुई महसूस हुई, जो कुछ बोल नहीं पा रही थी। लगता है कि अपनी टिप्पणी केवल ब्लॉग के लिये है, जीवंत टिप्पणी किसी को अच्छी नहीं लगती है।
आज वैलंटाईन डे है, सबको प्यार भरी शुभकामनाएँ, यह वर्ष प्यार भरा रहे।
गूगल का वैलंटाईन डे पर डूडल देखिये –
न्यू ईयर का हंगामा और फ़लाना ढ़िमकाना ब्रांड व्हिस्की
नये प्रकार के वायरस से सावधान (Alert from new type of Virus)
एफ़डीआई का हल्ले के बहाने महँगाई और रूपये के अवमूल्यन पर भी चिंतन, हलकान है जनता.. [FDI, Inflation and Depreciation of Rupee… my views]
जहाँ देखो वहीं विदेशी खुदरा दुकानों का हल्ला मचा हुआ है और जनता महँगाई के मारे हलकान हुई जा रही है। महँगाई सर चढ़कर बोल रही है।
किसान को सब्जी का क्या भाव मिलता है और दुकानें किस भाव में बेचती हैं यह एक शोध का विषय है। और अगर शोध किया जाये तो शायद दुनिया चकित रह जायेगी कि किसान को टमाटर का ३ रू. किलो मिलता है और जनता दुकानदार को ४० रू. किलो दे रही है, तो बाकी का बीच का ३७ रू. ये बड़े खुदरा दुकानों के मालिक खा रहे हैं।
जब मुंबई में थे तो वहाँ कोई भी सब्जी कम से कम ४० रू. किलो मिलती थी और अधिकतर तो १६० रू. किलो तक भाव होते थे। पता नहीं कहाँ से महँगाई आई, और यही सब्जी चैन्नई या बैंगलोर में देखें तो अधिकतम ४० रू. किलो सब्जी मिल रही है। टमाटर मुंबई में आज भी ४० रू. किलो हैं और यहाँ बैंगलोर में १६ रू. किलो मिल रहे हैं।
खैर नेता लोग चिल्ला रहे हैं कि विदेशी खुदरा दुकानें आ गईं तो हम आग लगा देंगे, खुलने नहीं देंगे, परंतु क्यों नहीं खुलने देंगे ये नहीं बता रहे हैं, जब रिलायंस रिटेल खुल रहा था तब भी लोगों ने बहुत तोड़ फ़ोड़ की थी, अब हालत यह है कि वही तोड़ फ़ोड़ करने वाले लोग रिलायंस रिटेल से समान खरीद रहे हैं।
थोड़े दिनों बाद विरोधी स्वर विदेशी खुदरा दुकानों के फ़ीता काटते नजर आयेंगे। जनता को समझाइये कि विदेशी खुदरा दुकानों से क्या नुक्सान होगा। आज अखबार में पढ़ा कि जयपुर में कैनोफ़र ने जयपुर के सभी थोक अंडा व्यापारियों से करार कर लिया है, अब सभी खुदरा व्यापारियों को अंडे मिलना बंद हो जायेगा। पहली बात तो यह उन थोक व्यापारियों की गलती है जिन्होंने ये करार किये हैं और वैसे भी भारत है जहाँ हर चीज का जुगाड़ होता है, जब सरकार जुगाड़ से चल सकती है तो ये व्यापार क्या चीज है। खैर आगे क्या होगा यह तो ये करार कार्यांन्वयन होने के बाद ही पता चलेगा। हमारे खुदरा व्यापारी कोई ना कोई तोड़ निकाल ही लेंगे।
ऐसा नहीं है कि मैं विदेशी खुदरा दुकानों का समर्थक हूँ परंतु हाँ यह अर्थव्यवस्था के लिये ठीक होगा और रूपये के अवमूल्यन होने से कुछ हद तक रोकेगा। परंतु रूपये का अवमूल्यन रोकने के लिये क्या इस तरह के हथकंडे अपनाना उचित है ? कतई नहीं !
परंतु नेता जनता को कितना बेवकूफ़ बनायेंगे, अगर इन नेताओं ने घोटाले नहीं किये होते, भ्रष्टाचार पर लगाम कसी होती और भारत के विकास में उस रूपये का योगदान किया होता तो शायद रूपये के मूल्य का अवमूल्यन नहीं होता उल्टा डॉलर कमजोर होता, परंतु सरकार विदेशी लोगों को बाजार में भी तरह तरह के साधन उपलब्ध करवाती है कि ये लोग आसानी से भाग लेते हैं, और जनता ठगी से देखती रह जाती है।
जरूरत है सरकार में नेताओं में विकास की इच्छाशक्ति की कमी की, अगर इन नेताओं में यह इच्छाशक्ति आ जाये तो हम विकास के पथ पर अग्रसर होंगे। लोग कहते हैं कि दस वर्ष में हम नंबर वन बना देंगे, पिछले पाँच वर्ष में भारत को कौन से नंबर पर लाये हैं, ये तो सब जानते हैं।
बात रही [बेचारे] खुदरा दुकानदारों की तो वे बेचारे तो रोजमर्रा कि चीजों को बेचकर अपना घर चला लेंगे। जैसे अगर आपको ब्रेड लेने जाना हो तो आप विदेशी खुदरा दुकानों में तो नहीं जायेंगे ना, बस ऐसे ही बहुत सारी चीजें हैं जो कि आप बिना पार्किंग में अपनी गाड़ी लगाये लेना चाहेंगे या घर से गाड़ी नहीं निकालकर पास के दुकान से लेंगे। तो सरकार को यह समझ लेना चाहिये कि १० लाख से ज्यादा जनता वाले शहर बहुत समझदार हैं।
मुंबई में जहाँ हम रहते थे वहाँ भी आसपास बहुत मॉल थे, परंतु लगभग सभी लोग एक किराने वाले से ही समान लेते थे, वजह वह कीमत में सीधी छूट देता था और उसकी स्कीमें भी आकर्षक होती थीं। फ़िर घर पहुँच सेवा, आप जाकर बोल दीजिये और घर पर समान पहुँच जायेगा। अगर आपकी घर से निकलने की इच्छा नहीं है तो केवल फ़ोन लगा दीजिये और समान घर पर होगा। उस किराना व्यवसायी का स्वभाव बहुत अच्छा था और मृदु भाषी है। यह सब बातें कहाँ देशी और कहाँ विदेशी खुदरा दुकानों पर मिलेंगी।
क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ? क्या इसीलिये आत्महत्या के आंकड़े बढ़ रहे हैं ? (Why Childs are not emotional ? why suicidal cases are increasing ?)
शिक्षा में बदलाव बेहद तेजी से हो रहे हैं और शिक्षक और छात्र के संबंध भी उतनी ही तेजी से बदलते जा रहे हैं। कल के अखबार की मुख्य खबर थी यहाँ बैंगलोर में इंजीनियरिंग महाविद्यालय के छात्र ने होस्टल के कमरे में पंखे से फ़ांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। खबर लगते ही हजारों के झुंड में छात्र इकठ्ठे हो गये और महाविद्यालय प्रशासन के खिलाफ़ नारेबाजी करने लगे। पुलिस बुलाई गई, परंतु छात्रों ने पुलिस को भी खदेड़ दिया और महाविद्यालय की इमारत को भी नुक्सान पहुँचाया। बाद में महाविद्यालय के मालिक का बयान आया कि वह छात्र कमजोर दिल का था और लगातार पिछले तीन वर्षों से उस छात्र का प्रदर्शन बहुत कमजोर था।
यह खब्रर पढ़ने के लिये नहीं लिखी हैं मैंने, सही बताऊँ तो मैंने कल अखबार ही नहीं पढ़ा था पर कल रात्रि भोजन पर भाई से चर्चा हो रही थी तब इस और ध्यान गया और आज सुबह कल का अखबार पढ़ पाया । मन अजीब हो उठा और लगा क्या महाविद्यालय प्रशासन ने कभी उस छात्र के मन में क्या चल रहा है, यह जानने की कोशिश की। महाविद्यालय प्रशासन महज छात्र के घर एक पत्र भेजकर अपनी जिम्मेदारी से तो नहीं बच सकता ।
आज छात्र बहुत ही संवेदनशील परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, क्योंकि वे अब भावुक नहीं रहे, अब छात्रों से भावनाओं के बल पर कोई भी कार्य करवाना असंभव है। उसके पीछे बहुत सारे कारण जिम्मेदार हैं, परवरिश के बेहतर माहौल में कमी, शिक्षकों से अच्छा समन्वयन न होना । ऐसे बहुत सारे कारण हैं। क्योंकि आजकल बच्चों को इंटरनेट पर सब मिल जाता है तो कई बच्चे तो दोस्त भी नहीं बनाते हैं और इंटरनेट पर ही अपना समय बिताते पाये जाते हैं।
अब मेरे मन में जो सवाल उठ रहे हैं कि क्या महाविद्यालय का छात्र पर अच्छे प्रदर्शन के लिये दबाब बनाना उचित था, और अगर दबाब बनाया गया तो उसे क्या उचित मार्गदर्शन दिया गया । छात्र के घर पर पत्र भेजने से छात्र की मानसिक हालात को समझा जा सकता है। हरेक छात्र के माता-पिता यही सोचते हैं कि बेटा अच्छा पढ़ रहा है परंतु अगर महाविद्यालय से इस प्रकार का पत्र मिले तो वे यकीनन ही अपने बेटे पर क्रुद्ध होंगे, और उसे परिस्थिती से बचने के लिये उस छात्र ने आत्महत्या कर ली हो ? छात्र तो पहले से ही विषादग्रसित था, उसको मनोवैज्ञानिक तरीके से संभालना चाहिये था। परंतु ऐसा ना हुआ, अब उन माता-पिता पर क्या गुजर रही होगी जिन्होंने अपना जवान बेटा इसलिये खो दिया क्योंकि वह पढ़ाई में कमजोर था, नहीं ? वह पढ़ाई में कमजोर होने के कारण विषादग्रसित हो चला था।
पढ़ाई में कमजोर होना कोई बुरी बात तो नहीं, पढ़ाई ही तो सबकुछ नहीं है, उससे बढ़कर होता है जीवन जीने का हौसला और उस विषादित परिस्थिती से निकालने में सहायक परिवेश और परवरिश। कमजोर पढ़ाई वाले पता नहीं कितनी आगे निकल गये हैं और पढ़ाई वाले कहीं पीछे रह गये हैं।
मुख्य सवाल जो मेरे मन में है और उसका उत्तर खोजने की कोशिश जारी है मनन जारी है, क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ? और उनके आधुनिक परिवेश में उन्हें कैसी परवरिश देनी चाहिये ?