माता भूमि: पुत्रोsहं पृथिव्या: । अथर्ववेद १२.१.१२
नमो मात्रे पृथिव्यै । यजुर्वेद ९.२२
विश्वबन्धुत्व की भावना –
यत्र विश्वं भवत्येकनीडम
माता भूमि: पुत्रोsहं पृथिव्या: । अथर्ववेद १२.१.१२
नमो मात्रे पृथिव्यै । यजुर्वेद ९.२२
विश्वबन्धुत्व की भावना –
यत्र विश्वं भवत्येकनीडम
१. माता २. पिता ३.आचार्य ४.अतिथि
मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव
एकाकी स न रेमे
एकोsहं बहु स्याम, प्रजायेय
तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत
अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:।जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम॥ अथर्ववेद
३.३०.२
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा
समानी प्रपा सह वोsन्नभाग: – अथर्ववेद ३.३०.६
केवलाघो भवति केवलादी – ऋगवेद १०.११७.६
पुमान पुमांसं परिपातु विश्वत:
समानीव आकूति: समाना हृदयानि व:।समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति॥ ऋग्वेद १०.१९१.४
हे मनुष्यों (व: ) आप सभी को (आकूति: ) विचार संकल्प (समानी) समान होवें। (व: ) आप सभी के (हृदयानि) हृदय (समाना) समान होवें (व: ) आप सभी के (मन: ) मनन-चिन्तन (समानम अस्तु) समान होवें। (यथा) जिससे (व: ) आप सभी का (सुसह-असति) एक साथ रहना होवे। सह अस्तित्व के लिये चिन्तन-मनन, भावना तथा संकल्प में समानता-एकरूपता आवश्यक है।
सप्त ऋषय: प्रतिहिता: शरीरे।सप्त रक्षन्ति सदमप्रमादम ( यजुर्वेद ३४.५५)
पं. सातवलेकर ने मानव शरीर को अपना स्वराज्य बतलाया है। यह शरीर ही रत्नादि से परिपूरित अपराजेय देवपुरी अयोध्या है और सवकीय आत्मा ही इस स्वराज्य का राजा है। शरीर रूपी यह स्वराज्य सभी को सहज ही स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। धनी हो अथवा निर्धनी, सभी व्यक्ति का अपना स्वराज्य है और आत्मा रूपी राजा का शासन इस पर चलना चाहिए। इस प्रकार मनुष्य को अपने शरीर के महत्व का बोध कराया गया है।
भद्रं कर्णेभि:श्रृणुयाम देवा भद्रं
पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:।स्थिरैरड्गै:स्तुष्टुवांसस्तनूभिर्येशम देवहितं यदायु:॥ ऋगवेद १.८६.८
भूयश्च शरद: शतात
(शतात शरद भूय: ) और सौ वर्ष से अधिक जीवित रहें ।
न श्व: श्वमुपासीत। को हि मनुष्यस्य श्वो वेद।
अष्टचक्रा नवद्वारा देवानांपूरयोध्या
(अष्टचक्रा) आठ चक्रों (नवद्वार) नव द्वारों वाला हमारा यह शरीर ही (देवानां) देवताओं की (पू: ) पुरी (अयोध्या) अयोध्या-अपराजेय है। इसलिए यह शरीर सर्वतोभावेन रक्षणीय है, इसको स्वस्थ एवं स्वच्छ बनाए रखना है।
आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:
(भद्रा:क्रतव:) कल्याण करने वाली बुद्धियाँ (विश्वत:) सभी तरफ़ से (न:) हमारे पास (आ यन्तु) आवें अर्थात ज्ञान की उत्तम धाराएँ हमको प्राप्त होवें।
वेदों का महत्व –
वेद भारतीय अथवा विश्व साहित्य के उपलब्ध सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। इनसे पहले का कोई भी अन्य ग्रन्थ अब तक प्राप्त नहीं हुआ है। इसलिये कहाज आता है कि वे सम्पूर्ण संसार के पुस्तकालयों की पहली पोथी है और भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के तो वेद प्राचीनतम एवं सर्वाधिक मूल्यवान धरोहर हैं, हमारे स्वर्णिम अतीत को अच्छी तरह प्रकाशित करने वाले विमल दर्पण हैं।
वेद शब्द का अर्थ ही है ज्ञान और इस तरह वेद दकल ज्ञान-विज्ञान की निधि हैं। परा था अपरा दोनों विद्याओं का निरूपण करते हैं। भगवान मनु का उद्घोष है कि ‘सर्वज्ञानमयो हि स:’ (स: ) वह वेद (सर्वज्ञानमय: ) सभी प्रकार के ज्ञान से युक्त हैं। महर्षि दयानन्द ने वेदों को समस्त सत्य विद्याओं का आकार कहा है। हमारा सम्पूर्ण जीवन, सकल क्रियाकलाप वेदों से ओतप्रोत है, कुछ भी वेद से बाहर नहीं है। इनकी उपयोगिता सार्वकालिक सार्वदेशिक सार्वजनीन है। इसलिए इन वेदों के अध्ययन पर बल दिया गया है और भौतिक विज्ञान के इस अत्यन्त समुन्नत युग में भी वेदों का ज्ञान उपयोगी, अत एवं प्रासंगिक है और इन्हीं वेदों के कारण आज भी हमारी भारतीय संस्कृति संसार में पूजनीया है और भारत देश विश्वगुरू के महनीय पद पर प्रतिष्ठित है।
वेदों का स्वरूप –
वेद अपौरूषेय, अत एवं नित्य हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार इन वेदों की रचना नहीं हुई है, अपितु ऋषियों ने अपनी सतत साधना तपश्चर्या से ज्ञान राशि का साक्षात्कार किया है और प्रत्यक्ष दर्शन करने के के कारण इनकी संज्ञा ‘ऋषि’ है –
ऋषिर्दर्शनात (दर्शनात) दर्शन, करने के कारण (ऋषि: ) ऋषि कहते हैं।
ऋषयो मन्त्रद्रष्टार: (मन्त्रद्रष्टार: ) मन्त्रों को देखने वाले (ऋषय: ) ऋषिलोग (युग के प्रारम्भ में हुए) ।
साक्षात्कृतधर्माण: ऋषयो बभूवु: (साक्षात्कृतधर्माण: ) धर्म-धारक्रतत्व-सत्य का साक्षात्कार करने वाले (ऋषय: ) ऋषिलोग (बभूवु: ) युग के प्रारम्भ में हुए। प्रत्यक्ष किए जाने के कारण वेद प्रतिपादित ज्ञान सर्वथा संदेहरहित निर्दोष, अत एवं प्रामाणिक है। इनमें किसी भी प्रकार की मिथ्यात्व की सम्भावना नहीं है। इसलिये वेदों कास्वत: प्रामाण्य है, अपनी पुष्टि प्रामाणिकता के लिये वेद किसी के आश्रित नहीं हैं। वेदों का सर्वाधिक महत्व इसी बात में है कि इनके द्वारा स्थूल-सूक्ष्म निकटस्थ दूरस्थ, अन्तर्हित व्यवहित, साथ ही भूत, वर्तमान, भविष्यत, त्रैकालिक समस्त विषयों का नि:संदिग्ध निश्चयात्मक ज्ञान होता है और इसीलिए भगवान मनु ने वेदों को सनातन चक्षु कहा है। यह अनुपम ज्ञाननिधि सुदूर प्रचीन काल से आज तक अपने उसी रूप में सुरक्षित चली आ रही है। इसमें एक भी अक्षर यहाँ तक कि एक मात्रा का भी जोड़ना-घटाना सम्भव नहीं है। आठ प्रकार के पाठों से यह वेद पूर्णत: सुरक्षित है।
जो पढ़ रहा हूँ वह लिख रहा हूँ, वेदों की शिक्षा
“धर्मो रक्षति रक्षत:” अर्थात धर्म की रक्षा से ही सबकी रक्षा होती है, अगर हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म हमारी रक्षा करेगा ।
वेदों को बहुत करीब से जानने की बहुत ही तीक्ष्ण इच्छा थी, और वेदों को पढ़ना कहाँ से शुरू किया जाये बहुत देखा, बहुत सोचा, फ़िर कल्याण के दो माह पहले के अंक में वेदों के ऊपर बहुत ही सार रूप में एक अच्छा लेख पढ़ा। तो हमने ऋगवेद पढ़ना शुरू किया, परंतु ऋचाओं की संस्कृत इतनी कठिन है, या यूँ कह सकते हैं कि इस मूढ़ को समझ नहीं आईं, तो सोचा पहले संस्कृत व्याकरण ठीक की जाये और उसके बाद वेदों का पाठ किया जाये, क्योंकि अनुवाद में असली अर्थ समझ नहीं आता है, अनुवाद तो किसी व्यक्ति द्वारा किया गया उस ऋचा का अनुमोदन है, जो समझने में भी कठिन होता है। तो अब पाणिनी व्याकरण पढ़ने की शुरूआत की, हमारे पास एक किताब रखी थी “कारक प्रकरणम”, अभी व्याकरण ठीक करने की शुरूआत यहीं से की है, हालांकि यह ठीक नहीं है, हमारी एक पुरानी किताब शायद उज्जैन में रखी है, तो उसका अभाव खल रहा है। अब साथ में “चरक संहिता” भी पढ़नी शुरू की, “चरक-संहिता” की संस्कृत भी कठिन है परंतु फ़िर भी बहुत कुछ समझ में आ रहा है, हिन्दी अनुवाद से काफ़ी मदद मिल रही है।
इसी बीच वेदों के लिये उपयुक्त स्थान ढूँढ़ते रहे और अभी भी ढूँढ़ रहे हैं, क्योंकि वेदों में लिखा है कि वेद केवल गुरू की वाणी से ही समझे जा सकते हैं, पढ़कर नहीं समझे जा सकते हैं। फ़िर हमें ध्यान आया कि हम यत्र तत्र सर्वत्र ढूँढ़ मचा रहे हैं, और हमने उज्जैन को तो भुला ही दिया, क्योंकि वहाँ संस्कृत के बड़े बड़े प्रतिष्ठान उपस्थित हैं, जो भारतीय संस्कृति को आगे बढ़ाने का दुष्कर कार्य कर रहे हैं ।
हमें इसी बीच एक अच्छा पाठ्यक्रम मिल गया, वह है “घर बैठे वेद की शिक्षा”, यह पाठ्यक्रम महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन द्वारा संचालित है। इस पाठ्यक्रम में पत्राचार से लगभग ५० पाठ भेजे जायेंगे, और हर पाठ के बाद एक प्रश्नोत्तरी संलग्न है, इस पाठ्यक्रम की अवधि २ वर्ष की है, जिसमें हर छ: माह में १२ पाठ और अंतिम छ: माह में १४ पाठ भेजे जायेंगे, शिक्षा संस्था वेदो के प्रचार के लिये यह पाठ्यक्रम चला रहा है, इसलिये इसका शुल्क भी नाममात्र २५० रूपये प्रतिवर्ष ही रखा गया है। हर छ: माह में भेजे गये पाठों की प्रश्नोत्तरी भरकर वापिस महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन को अपने खर्चे से डाक द्वारा भेजनी होगी। यह पाठ्यक्रम हिन्दी एवं अग्रेजी दोनों भाषाओं में उपलब्ध है।
पाठ्यक्रम में वेदों के बारे में जानकारी, संहिता उद्धरण, ब्राह्मणा, अरण्यका और उपनिषदों को हिन्दी एवं अंग्रेजी में विस्तार से दिया जायेगा ।
ज्यादा जानकारी के लिये आप यहाँ लिख सकते हैं –
माननीय सचिव महोदय
महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रिय वेदविद्या प्रतिष्ठान,
प्राधिकरण भवन, द्वितीय माला, भरतपुरी, उज्जैन – ४५६०१० (म.प्र.)
ईमेल – [email protected]
हमने ईमेल किया था, और प्रतिष्ठान की तरफ़ से तत्परता से ईमेल आ गया था। तो क्या विचार है अब घर बैठे वेदों को समझ लिया जाये।
सारे वेद ऑनलाईन आप यहाँ पढ़ सकते हैं http://www.sanskritweb.net/
फ़ोटो – महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रिय वेदविद्या प्रतिष्ठान की वेबसाईट से लिये गये हैं
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥ १० ॥ अध्याय १७
अर्थात – खाने से तीन घंटे पूर्व पकाया गया, स्वादहीन, वियोजित एवं सड़ा, जूठा तथा अस्पृश्य वस्तुओं से युक्त भोजन उन लोगों को प्रिय होता है, जो तामसी होते हैं ।
आहार का उद्देश्य आयु को बढ़ाना, मस्तिष्क को शुद्ध करना तथा शरीर को शक्ति पहुँचाना है, प्राचीन काल में विद्वान पुरुष ऐसा भोजन चुनते थे, जो स्वास्थ्य तथा आयु को बढ़ाने वाला हो, यथा दूध के व्यंजन, चीनी, चावल, गेंहूँ, फ़ल तथा तरकारियाँ । ये भोजन सतोगुणी व्यक्तियों को अत्यन्त प्रिय होते हैं। ये सारे भोजन स्वभाव से ही शुद्ध हैं ।
आजकल हम दोपहर का टिफ़िन ले जाते हैं, जो कि वाकई तीन घंटे से ज्यादा हमें रखना पड़ता है और वह बासी हो गया होता है, सब्जी का रस सूख गया होता है, दाल बासी हो गई होती है । अब हम स्वभाव से ही तामसी होते जा रहे हैं, कहने को भले ही मजबूरी हो परंतु सत्य तो यही है।
हमारा जीवन जीने का स्तर अब तामसी हो चला है, जहाँ हमें अपना समय चुनने की आजादी नहीं है और वैसे ही बच्चों को भी हम आदत डाल रहे हैं, जैसे बच्चों को सुबह आठ बजे स्कूल जाना होता है और उनका भोजन का समय १२ बजे दोपहर का होता है तो वे कम से कम ४-५ घंटे बासी खाना खाते हैं, यह बचपन से ही तामसी प्रवृत्ति की और धकेलने की कवायद है। बच्चों को स्कूल में ही ताजा खाना पका पकाया दिया जाना चाहिये। जिस प्रकार पूर्व में आश्रम में शिष्यों को ताजा आहार मिलता था।
अगर हमारे पुरातन ग्रंथों में कोई बात लिखी गई है तो उसके पीछे जरूर कोई ना कोई वैज्ञानिक मत है, बस जरूरत है हमें समझने की ।
गीता जी के अध्याय १० में भगवान कृष्ण अपना ऐश्वर्य बताते हैं, जहाँ मैं एक श्लोक पर रुक गया, क्योंकि अभी तक मगर को मैं मछली की तरह नहीं लेता था, परंतु यहाँ पर मगर को मछलियों में ही बताया गया है ।
पवन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम।
झषाणां मकरश्चास्मि स्त्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥३१॥
अर्थात – समस्त पवित्र करने वालों में मैं वायु हूँ, शस्त्रधारियों में राम, मछलियों में मगर तथा नदियों में गंगा हूँ ।
यहाँ पर मगर के बारे में बताया गया है कि समस्त जलचरों में मगर सबसे बड़ा और मनुष्य के लिये सबसे घातक होता है । अत: मगर कृष्ण का प्रतिनिधित्व करता है ।