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ब्लॉगिंग के ९ वें वर्ष में प्रवेश..

आज दोपहर २.२२ समय को हमें ब्लॉग लिखते हुए ८ वर्ष पूर्ण हो जायेंगे और सफ़लता पूर्वक ९ वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। इन ८ वर्षों में बहुत से अच्छे दोस्त ब्लॉगिंग के कारण मिले हैं, केवल ब्लॉगिंग के कारण ही लगभग हर शहर में कहने के लिये अपनी पहचान है।

४-५ वर्ष पहले जब मुंबई में थे तब बहुत से ब्लॉगरों से मिलना हुआ फ़िर बैंगलोर के ब्लॉगरों से भी मिलना हुआ ।

बीते वर्षों में हमने कविताएँ, संस्मरण, आलोचनाएँ, जीवन के अनुभव, विचार, वित्त विषय पर लेखन ऐसी बहुत सारे विविध विषयों पर लेखन सतत जारी रहा। कभी लेखन में विराम लग जाता तो कभी लेखन क्रम में चलता रहता।

आज लगता है वाकई क्या हम अच्छा लिखते हैं, जो इतने सारे लोग पढ़ रहे हैं या केवल मजबूरी में पढ़ रहे हैं। सोचते हैं कि अब कुछ जरूरी चीजें जो छूट गई हैं, उन पर ध्यान दिया जाये, ब्लॉगिंग और फ़ेसबुक से थोड़ा किनारा किया जाये।

जुहु गोविंदा रेस्त्रां, समुद्र का किनारा, अमिताभ का घर और बुलेट ।

    सुबह मित्र को फ़ोन किया कि इस सप्ताहांत का क्या कार्यक्रम है, उनसे मैं शायद ३ वर्षों बाद मिल रहा था और ये मित्र मेरे आध्यात्मिक जीवन में बहुत महत्व रखते हैं। ये आध्यात्म को इतने गहरे से समझना और किसी और की जरूरत को समझने वाले मैंने वाकई बहुत ही कम लोग देखे हैं। उन्होंने कहा कि मैं ऑफ़िस से सीधा आपको लेने आ रहा हूँ फ़िर जुहु इस्कॉन स्थित गोविंदा रेस्त्रां में आज दोपहर का भोजन ग्रहण किया जायेगा।

    दोपहर में बिल्कुल समय पर हमारे मित्र हमें लेने आ गये और फ़िर amitabhहम चल दिये जुहु, एक सिग्नल पर हमारे मित्र ने बताया कि यह सामने जो घर है युगपुरूष अमिताभ बच्चन का घर है, तो सहसा ही अमिताभ का चेहरा आँखों के सामने घूम गया और अभी हाल ही में आई फ़िल्म बॉम्बे टॉकीज के अमिताभ बच्चन के ऊपर फ़िल्माये गये दृश्य याद हो आये। फ़िर लगा व्यक्ति कितना भी सफ़ल हो, परंतु रहना तो उसे धरती पर ही है और रहना भी घर में ही है, बस वह जिन ऐश्वर्य का सुख भोग सकता है वह हर कोई नहीं भोग सकता ।

  iskcon-juhu-govindas-01  गलियों में से होते हुए हम गोविंदा रेस्त्रां की तरफ़ बड़ रहे थे, इतने में तेज बारिश आ गई, मौसम खुला हुआ था, तेज धूप निकली हुई थी। मुंबई में यही खासियत है कब बारिश आ जाये कोई भरोसा नहीं। हम गोविंदा रेस्त्रां पहुँच चुके थे, वहाँ दरवाजे पर हमारी और समान की सुरक्षा जाँच हुई और हम रेस्त्रां में दाखिल हुए, संगमरमर की सीढ़ियों से होते हुए एक विशाल हॉल में आये जहँ  बैठने के लिये सोफ़े लगे हुए थे, जिनसे यह प्रतीत होता था, कि यहाँ पर प्रतीक्षारत लोगों को बैठाया जाता है, जब रेस्त्रां में जगह नहीं होती होगी। यहाँ दोपहर का भोजन ३.३० तक होता है।

    रेस्त्रां अंदर से बहुत अच्छी तरह से सुसज्जित था और बहुत सारे लोग govinda-sभोजन से तृप्त हो रहे थे। यहाँ पर खाना बफ़ेट होता है, विभिन्न प्रकार के सलाद, पकोड़े, चाट  पनीर की सब्जियाँ, रोटी, चावल, रायता और मिठाईयाँ उपलब्ध थीं। खाना बहुत ही स्वादिष्ट था, साथ में फ़लों का रस, केहरी पना और मठ्ठा भी परोसा जा रहा था। खाने के बाद में आइसक्रीम का प्रबंध भी था। और इस सबके लिये एक व्यक्ति के खाने का खर्च ३५०/- खाने के हिसाब से हमें ठीक लगा । हालांकि अगर आजकल के आधुनिक बफ़ेट रेस्त्रां में और महँगा होता है परंतु यहाँ खाने का स्वाद, गुणवत्ता एवं इतने प्रकार की खाद्य पदार्थ के सामने  आधुनिक रेस्त्रां का टिकना मुश्किल है। खैर यह तो अपनी अपनी पसंद है।

    भोजन से तृप्त होकर हम बाहर निकले और हमारे मित्र ने पूछा कि जुहु बीच चलोगे, हमने कहा बिल्कुल चलो हमें लहरों की आवाज सुनने का सुखद आनंद लेना है, मचलती और वेगों से आती लहरों को देखना है, वहाँ से पैदल ही हम जुहु बीच की और चल दिये मुश्किल से ५ मिनिट में हम जुहु बीच पर थे, प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य को मानव किस तरह से नष्ट करता है, जुहु बीच इसका जीवंत उदाहरण है, बीच पर जहाँ तक देखो वहाँ तक कचरा और पोलिथीन बिखरे पड़े थे। जोड़े कहीं ना कहीं एकांत ढूँढ़ रहे थे। बहुत से युगल हाथों में हाथ डाल बीच पर समुद्र के किनारे टहल रहे थे। जो पहली बार आये थे समुद्र देखने वे और कुछ मनमौजी लोग समुद्र के पानी में भीगने गये हुए थे। पता नहीं इतने गंदे पानी में कैसे भीग सकते हैं, अगर समुद्र का पानी साफ़ हो तो नहाने का अपना अलग मजा है। बीच पर समुद्र के पास शांति से थोड़ा समय बिताने के बाद वापस जाना निश्चय किया गया।

    समय साथ में बिताना था, तो हम मित्र के फ़्लेट में उनके साथ ही चल दिये, खाने के बाद का नशा अब चेहरों पर दिखने लगा था, सोचा थोड़ा लोट लगा ली जाये और फ़िर बातें की जायेंगी, खैर बातें तो जारी ही थीं। थोड़ी देर आराम करने के बाद अचानक ही एक मित्र के बारे में बात होने लगीं, वे भी पास ही में रहते थे। उनसे फ़ोन पर बात की गई और उनके यहाँ जाने का निश्चय किया गया। हमारे मित्र ने हमसे कहा Bulletआप अब हमारी बुलेट से चलो, और आप ही बुलेट चलाओ। हमने कहा कि हमने तो वर्षों पहले बुलेट चलाई थी, तो पता नहीं चला पायेंगे या नहीं। हमारे मित्र बोले आप चिंता मत करो, आराम से चला पाओगे। हमने भी बुलेट की सवारी की और देखा कि बुलेट में भी बहुत सारे आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध करवा दी गई हैं। अब केवल बटन दबाने पर भी बुलेट शुरू हो जाती है और बुलेट की आवाज मन को सुहाती है। बुलेट की सवारी राजा सवारी कहलाती है। आदमी बुलेट पर ही असली जवाँ मर्द दिखता है, लोग उसी की और देखते हैं, बहुत सारे बदलाव बुलेट चलाने के दौरान महसूस हुए, पर वर्षों बाद ऐसा लगा कि वाकई बुलेट ही असली दोपहिया सवारी है।

    अपने दूसरे मित्र के घर पहुँचे जो हमारे पारिवारिक मित्र हैं, वहाँ बातों का जो दौर चला, समय का पता ही नहीं चला, हमने मित्रों से विदा ली, हमारे मित्र ने कहा इधर ही रुक जाओ, हमने कहा, नहीं हम जहाँ रुके हैं वह भी पास ही है तो हम वहीं जाते हैं। (जब हम खाना खाने के बाद मित्र के घर लोटने पहुँचे तो देखा कि उनके यहाँ गद्दे नहीं हैं, वे तो चटाई पर ही सोते हैं, वे पक्के भक्त आदमी हैं, हमारी परेशानी को समझ उन्होंने हमारे लिये उनके पास रखी रजाई को चटाई पर बिछाकर थोड़ा गद्देदार बनाने का प्रयास किया, हम भी लोट लिये, परंतु आरामतलब शरीर १० मिनिट से ज्यादा नहीं लेट सका) और हमने उनसे कहा कि कामना तो गद्दे पर सोने की ही है, इसलिये भी जाना ही चाहिये।

    इस प्रकार अपने मित्रों से मिलकर उनके साथ समय बिताकर आत्मा तृप्त हो गई।

शिक्षा काल की दोस्ती भविष्य में..

    गुरू द्रोण और द्रुपद दोनों ने एक साथ महर्षि अग्निवेश के आश्रम में धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की, तब दोनों अच्छे मित्र हुए..

    उस समय द्रुपद ने द्रोण से कहा था .. “प्रिय द्रोण, तुम मेरे अत्यंत प्रिय मित्र हो, जब मैं आने पिता की राजगद्दी पर बैठूंगा, उस समय मेरे राज्य का तुम भी उपभोग करना । मेरे भोग, वैभव और सुख सब पर तुम्हारा अधिकार होगा।”

    धनहीन अवस्था में द्रोण जब द्रुपद के पास मदद की आस लेकर गये तब द्रुपद राजगद्दी पर आसीन हो चुके थे, तब द्रुपद ने द्रोण से घृणापूर्वक कहा “आश्रम का जीवन समाप्त हो चुका। गुरू आश्रम में बहुत विद्यार्थी साथ रहते, खेलते और शिक्षा प्राप्त करते हैं। मगर दरिद्र धनवान का, मूर्ख विद्वान का और कायर शूरवीर का मित्र नहीं हो सकता ।”

    उपरोक्त कथा से दोस्ती के एक और रूप का पता चलता है । जिसमें दोस्ती नाम मात्र की नहीं है, दोस्त जो राजा बन चुका है उसका घमंड दिखाई पड़ता है। और इस तरह की दोस्ती आजकल बहुतायत में देखी जा सकती है, खासकर पढ़े लिये नौजवान पीढ़ी में ।

    दोस्ती के ऐसे रूप युग युग से देखने में आ रहे हैं, आज भी देखने में आते हैं, दोस्ती जो शिक्षा के काल में पल्लवित होती है वह धीरे धीरे भौतिक वस्तुओं और पद की भेंट चढ़ जाती है। यहाँ दोस्ती केवल तभी रह सकती है जबकि मित्रों के बीच आपस में बहुत प्रेम हो, भौतिक वस्तुओं और पद की लालसा ना हो। आपस का फ़ायदा एक अलग बात है, परामर्श भी एक अलग बात है, परंतु केवल फ़ायदे के लिये मित्रता बनाये रखना शायद बहुत दुष्कर होता है।

    हमारे आज भी ऐसे मित्र हैं जो बचपन से हैं और इन सब चीजों से दूर हैं, इसे खुशनसीबी ही कही जायेगी। आज भी उनके बीच जाकर मन प्रसन्न हो जाता है। दोस्ती निभाना बहुत कठिन और तोड़ना बहुत आसान होता है।

    दोस्तों में आपस में जो तालमेल होता है वह शायद ही कहीं देखने को मिलता है, दोस्तों को हमारी अधिकतर गुप्त बातें पता होती हैं, हमारे सुख दुख में सबसे पहले दोस्त ही खड़े होते हैं, रिश्तेदार बाद में आते हैं।

    जो द्रुपद जैसे दोस्त होते हैं ऐसे लोगों का वाकई में दोस्त ना होना अच्छा है। परंतु कुछ बहुत अच्छे दोस्ती के उदाहरण भी हैं जैसे कृष्ण और सुदामा । कृष्ण जी ने खुद अपने हाथों से सुदामा जी के पैर धोये थे और इतना सम्मान दिया कि सुदामा व्याकुल हो उठे थे।

निवेशको के हित में सेबी और AMFI का EUIN

    सेबी के परिपत्र CIR/IMD/DF/21/2012 दिनांक १२ सितंबर २०१२ के अनुसार एवं AMFI के विभिन्न दिशानिर्देशों के अनुसार अब म्यूचयल फ़ंड खरीदते समय निवेशक को आवेदन पत्र / ट्रांजेक्शन रिक्वेस्ट पर Employee Unique Identification Number (EUIN) और डिस्ट्रीब्यूटर एवं सबडिस्ट्रीब्यूटर का AMFI Registration Number (“ARN”) क होना सुनिश्चित कर लेना चाहिये।

    EUIN को लागू करने का उद्देश्य है कि निवेशक के हित की रक्षा करना, यह म्यूचयल फ़ंड के गलत जानकारी देकर बेचने पर पर रोक लगाने के लिये कारगार कदम होगा, EUIN से किस व्यक्ति ने म्यूचयल फ़ंड उत्पाद निवेशक को बेचा है, उसकी जानकारी दर्ज हो जायेगी और निवेशक की शिकायत की स्थिती में किस कर्मचारी ने उत्पाद बेचा था, पता लग सकेगा।

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    EUIN ७ नंबर का एक विशिष्ट नंबर होगा, जो कि AMFI द्वारा दिया जायेगा, और यह उन हरेक संबंधित कर्मचारी / रिलेशनशिप मैनेजर / सैल्स वाले के लिये दिया जायेगा, जो भी निवेशक से म्यूचयल फ़ंड उत्पाद को बेचने की बातें करते हैं / बेचते हैं । EUIN का होना अब जरूरी हो गया है, जब भी निवेशक म्यूचयल फ़ंड उत्पाद खरीदें, हमेशा EUIN का ध्यान रखें।

    निवेशकों को नया आवेदन पत्र का उपयोग करना चाहिये जिस पर ARN Code / Sub Brocker ARN Code / EUIN, Sub broker code (as allotted by ARN holder) उपलब्ध हो। नये आवेदन पत्र अगर आपके ब्रोकर के पास उपलब्ध नहीं हैं तो आप उन्हें कहिये कि म्यूच्यल फ़ंड की वेबसाईट पर उपलब्ध हैं, वहाँ से प्रिंट निकाल लें।

EUIN के बारे में मुख्य बातें –

१. ट्रांजेक्शन जिनके लिये EUIN होना चाहिये –

Purchases, Switches, and for Fresh Registrations of SIP / STP / Trigger STP / Dividend Transfer Plan.

२. ट्रांजेक्शन जिनके लिये EUNI की जरूरत नहीं है –

Ongoing SIP/ STP / SWP / STP Triggers (registered prior to June 1, 2013), Dividend Reinvestments, Bonus Units, Redemption, SWP Registration, Zero Balance Folio creation and installments under Dividend Transfer Plans .

३. उपरोक्त १ नंबर में बताये गये ट्रांजेक्शन EUIN के लिये १ जून २०१३ से प्रभावकारी हैं, जिसमें किसी भी मोड से ट्रांजेक्शन किया गया हो केवल निम्न प्रकार के ट्रांजेक्शनों को छोड़कर, जिनके लिये यह १ अगस्त २०१३ से प्रभावकारी होगा –

  • Mobile / SMS based transactions.
  • Transactions received through the Stock Exchange Platform.

अगर इसके बारे में और ज्यादा जानकारी चाहिये तो आप अपनी म्यूचयल फ़ंड कंपनी की वेबसाईट और उनके टोलफ़्री नंबरों पर संपर्क कर सकते हैं।

NRN की Infosys में दूसरी पारी

    अभी कुछ दिनों पहले मुंबई आने के पहले एक दिन के लिये बैंगलोर में था तब नारायण मूर्ती जी को जिन्होंने बहुत करीब से देखा था, उनसे मुलाकात हुई, हालांकि यह मुलाकात व्यक्तिगत नहीं व्यावसायिक थी । उन्होंने बताया कि वे NRN को भगवान का दर्जा देते हैं, क्योंकि उनकी किसी से भी तुलना करना, अपमान करने जैसा है, किसी भी व्यक्ति द्वारा डेढ़ लाख कर्मियों में अपने खुद के गुणों को पोषित करना और उनके ऊपर कंपनी चलाना आज के इस युग में बहुत ही कठिन है, परंतु NRN ने करके बताया । उनकी बातों में ही समझ में आया कि वे नारायण मूर्ती जी को छोटे नाम NRN से बात कर रहे हैं ।

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    उन्होंने बताया कि जब NRN ने सेवानिवृत्ति ली थी, उस समय बोर्ड मीटिंग में उन्होंने मुख्य रूप से तीन बातें कहीं थीं –

१. सेवानिवृत्ति की आयु ६५ होनी चाहिये और इसके बाद कोई भी व्यक्ति इन्फ़ोसिस में कार्य नहीं करना चाहिये, हालांकि बोर्ड ने NRN पर ७० वर्ष तक की उम्र के लिये काम करने के लिये दवाब बनाया था।

२. NRN ने कहा कि वे कामथ को अपनी जगह लेकर आ रहे हैं और वे उनसे भी ज्यादा प्रभावशाली साबित होंगे, उन्हें कामथ से कई उम्मीदें हैं और इन्फ़ोसिस को कामथ एक नई दिशा देंगे और नई ऊर्जा के साथ कंपनी बाजार का प्रतिनिधित्व करेगी ।

३. इन्फ़ोसिस को कतई पारिवारिक कंपनी नहीं बनने देंगे और मैं अपने परिवार के किसी भी सदस्य को इन्फ़ोसिस में आने के लिये प्रेरित नहीं करूँगा।

     अब जब बोर्ड ने नया प्रस्ताव लाकर NRN को वापिस Infosys में बुलाया है, कि Infosys को NRN की बहुत जरूरत है तो NRN मना नहीं कर सके, कौन अपने सीचें हुए पौधे को जो बड़ा होकर विशाल वृक्ष बन चुका है, उसे सूख जाने देगा । मैं कुछ बोल ही रहा था तो उन्होंने टोक दिया और कहा कि ना हम NRN के खिलाफ़ कुछ बोलते हैं, ना बोल सकते हैं और ना ही हम दूसरों को इसके लिये बढ़ावा देंगे ।

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     फ़िर उन्होंने बोलना शुरू किया कि एक तरह से NRN का वापिस Infosys आना डेढ़ लाख कर्मियों के लिये बहुत अच्छा है, परंतु NRN के खुद के लिये वाकई बहुत कठिन होगा क्योंकि जो तीन बातें उन्होंने खुलेआम कहीं थीं और वे लगभग हर जगह दस्तावेजों में उपलब्ध हैं, अगर वे ही अपने पुराने ईमेल देखेंगे तो शायद उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। जो तीन बातें उन्होंने कहीं थीं, वे तीनों ही NRN के लिये उलट पड़ीं, हालांकि NRN इन सबसे इतने ऊपर हैं कि कोई शायद ही कभी कुछ उन्हें कहेगा परंतु  NRN बहुत अच्छा महसूस नहीं कर रहे होंगे, हालांकि बाजार का रूख भी अभी साफ़ नहीं है कि NRN की Infosys में वापसी को बाजार कैसे लेगा, NRN आज बाजार के ब्रांड हैं, उनके दम पर ही Infosys इतना बड़ी कंपनी  बन पायी है। परंतु फ़िर भी जो भी NRN अब करना चाहते होंगे वह योजना अब आकार नहीं ले पायेगी क्योंकि उनके द्वारा उपजाया हुआ पौधा जो विशाल वृक्ष बन चुका है उन्हें बुला रहा है।

     अब NRN को Infosys में अंतरिम विश्लेषण के बाद ढूँढ़ना होगा कि उनके दिये हुए मूल्यों में कितनी हानि हुई है और उन मूल्यों को कंपनी में वापिस से स्थापित करने के लिये कितना समय लगेगा, यह तो आगे वक्त ही बतायेगा । Infosys में कितना इन्टर्नल डेमेज हुआ है यह भी वक्त के साथ पता चलेगा, बाजार भी NRN और Infosys को कैसे देखेगा और अब Infosys कैसे वापिस से नई ऊँचाईयों पर पहुँचेगी, यह भी भविष्य के गर्भ में है।

     हमारी NRN और Infosys दोनों को भविष्य के लिये मंगलकामनाएँ हैं, यही वह कंपनी है जिसने भारत में तकनीक के नये युग की शुरूआत की थी ।

*फ़ोटो इकोनोमिक टाइम्स एवं इंडिया आजतक से साभार लिया गया है ।

घर बैठे वेद की शिक्षा

     “धर्मो रक्षति रक्षत:” अर्थात धर्म की रक्षा से ही सबकी रक्षा होती है, अगर हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म हमारी रक्षा करेगा ।

     वेदों को बहुत करीब से जानने की बहुत ही तीक्ष्ण इच्छा थी, और वेदों को पढ़ना कहाँ से शुरू किया जाये बहुत देखा, बहुत सोचा, फ़िर कल्याण के दो माह पहले के अंक में वेदों के ऊपर बहुत ही सार रूप मेंimage एक अच्छा लेख पढ़ा। तो हमने ऋगवेद पढ़ना शुरू किया, परंतु ऋचाओं की संस्कृत इतनी कठिन है, या यूँ कह सकते हैं कि इस मूढ़ को समझ नहीं आईं, तो सोचा पहले संस्कृत व्याकरण ठीक की जाये और उसके बाद वेदों का पाठ किया जाये, क्योंकि अनुवाद में असली अर्थ समझ नहीं आता है, अनुवाद तो किसी व्यक्ति द्वारा किया गया उस ऋचा का अनुमोदन है, जो समझने में भी कठिन होता है। तो अब पाणिनी व्याकरण पढ़ने की शुरूआत की, हमारे पास एक किताब रखी थी “कारक प्रकरणम”, अभी व्याकरण ठीक करने की शुरूआत यहीं से की है, हालांकि यह ठीक नहीं है, हमारी एक पुरानी किताब शायद उज्जैन में रखी है, तो उसका अभाव खल रहा है। अब साथ में “चरक संहिता” भी पढ़नी शुरू की, “चरक-संहिता” की संस्कृत भी कठिन है परंतु फ़िर भी बहुत कुछ समझ में आ रहा है, हिन्दी अनुवाद से काफ़ी मदद मिल रही है।

image    इसी बीच वेदों के लिये उपयुक्त स्थान ढूँढ़ते रहे और अभी भी ढूँढ़ रहे हैं, क्योंकि वेदों में लिखा है कि वेद केवल गुरू की वाणी से ही समझे जा सकते हैं, पढ़कर नहीं समझे जा सकते हैं। फ़िर हमें ध्यान आया कि हम यत्र तत्र सर्वत्र ढूँढ़ मचा रहे हैं, और हमने उज्जैन को तो भुला ही दिया, क्योंकि वहाँ संस्कृत के बड़े बड़े प्रतिष्ठान उपस्थित हैं, जो भारतीय संस्कृति को आगे बढ़ाने का दुष्कर कार्य कर रहे हैं ।

    हमें इसी बीच एक अच्छा पाठ्यक्रम मिल गया, वह है “घर बैठे वेद की शिक्षा”, यह पाठ्यक्रम महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन द्वारा संचालित है। इस पाठ्यक्रम में पत्राचार से लगभग ५० पाठ भेजे जायेंगे, और हर पाठ के बाद एक प्रश्नोत्तरी संलग्न है, इस पाठ्यक्रम की अवधि २ वर्ष की है, जिसमें हर छ: माह में १२ पाठ और अंतिम छ: माह में १४ पाठ भेजे जायेंगे, शिक्षा संस्था वेदो के प्रचार के लिये यह पाठ्यक्रम चला रहा है, इसलिये इसका शुल्क भी नाममात्र २५० रूपये प्रतिवर्ष ही रखा गया है। हर छ: माह में भेजे गये पाठों की प्रश्नोत्तरी भरकर वापिस महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन को अपने खर्चे से डाक द्वारा भेजनी होगी। यह पाठ्यक्रम हिन्दी एवं अग्रेजी दोनों भाषाओं में उपलब्ध है।

    पाठ्यक्रम में वेदों के बारे में जानकारी, संहिता उद्धरण, ब्राह्मणा, अरण्यका और उपनिषदों को हिन्दी एवं अंग्रेजी में विस्तार से दिया जायेगा ।

    ज्यादा जानकारी के लिये आप यहाँ लिख सकते हैं –

माननीय सचिव महोदय

महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रिय वेदविद्या प्रतिष्ठान,

प्राधिकरण भवन, द्वितीय माला, भरतपुरी, उज्जैन – ४५६०१० (म.प्र.)

ईमेल – [email protected]

    हमने ईमेल किया था, और प्रतिष्ठान की तरफ़ से तत्परता से ईमेल आ गया था। तो क्या विचार है अब घर बैठे वेदों को समझ लिया जाये।

सारे वेद ऑनलाईन आप यहाँ पढ़ सकते हैं http://www.sanskritweb.net/

फ़ोटो – महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रिय वेदविद्या प्रतिष्ठान की वेबसाईट से लिये गये हैं

ग्रीष्म (गर्मी) ऋतु पर निबंध

    भारतवर्ष पर प्रकृति की विशेष कृपा है। विश्व में यही एक देश है, जहाँ वर्षा में छ: ऋतुओं का आगमन नियमित रूप से होता है। सभी ऋतुओं में प्रकृति की निराली छ्टा होती है और जीवन के लिये प्रत्येक ऋतु का अपना महत्व होता है।

वित्तगुरु वित्तीय जानकारियाँ हिन्दी भाषा में

      काल-क्रम से बसन्त ऋतु के बाद ग्रीष्म ऋतु आती है। भारतीय गणना के अनुसार ज्येष्ठ-आषाढ़ के महीनों में ग्रीष्म ऋतु होती है। इस ऋतु के प्रारम्भ होते ही बसन्त की कोमलता और मादकता समाप्त हो जाती है और मौसम गर्म होने लगता है। धीरे-धीरे गर्मी इतनी बढ़ जाती है कि प्रात: आठ बजे के बाद ही घर से बाहर निकलना कठिन हो जाता है। शरीर पसीने से नहाने लगता है, प्यास से गला सूखता रहता है, सड़कों पर कोलतार पिघल जाता है, सुबह से ही लू चलने लगती है, कभी – कभी तो रात को भी लू चलती है। गर्मी की दोपहर में सारी सृष्टि तड़प उठती है, छाया भी ढूँढ़ती है।
बैठि रही अति सहन बन, पैठि सदन तन माँह,
देखि दुपहरी जेठ की, छाअहौ चाहति छाँह ।
     एक और दोहे में कवि बिहारी कहते हैं कि ग्रीष्म की दोपहरी में गर्मी से व्याकुल प्राणी वैर-विरोध की भावना को भूल जाते हैं। परस्पर विरोध भाव वाले जन्तु एक साथ पड़े रहते हैं। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मनो यह संसार कोई तपोवन में रहने वाले प्राणियों में किसी के प्रति दुर्भावना नहीं होतीं । बिहारी का दोहा इस प्रकार है –
कहलाने एकत वसत, अहि मयूर मृग-बाघ।
जगत तपोवन सों कियो, दीरघ दाघ निदाघ।
     गर्मी में दिन लम्बे और रातें छोटी होती हैं। दोपहर का भोजन करने पर सोने व आराम करने की तबियत होती है। पक्की सड़कों का तारकोल पिघल जाता है। सड़कें तवे के समान तप जाती हैं –
बरसा रहा है, रवि अनल भूतल तवा-सा जल रहा।
है चल रहा सन-सन पवन, तन से पसीना ढ़ल रहा॥
     रेतीले प्रदेशों जैसे राजस्थान व हरियाणा में रेत उड़-उड़कर आँखों में पड़ती है। जब तेज आँधी आती है तो सर्वनाश का दृश्य उपस्थित हो जाता है। धनी लोग इस भयंकर गर्मी के प्रकोप से बचने के लिये पहाड़ों पर जाते हैं। कुछ लोग घरों में पंखे और कूलर लगाकर गर्मी को दूर भगाते हैं। भारत एक गरीब देश है। भारत की दो-तिहाई से अधिक जनसंख्या गाँवों में रहती है। बहुत से गाँवों में तो बिजली ही नहीं है। कड़कती धूप में किसानों को और शहरों में मजदूरों को काम करना पड़ता है। काम ना करेंगे तो भूखों मरने की नौबत आ जायेगी।
गर्मी दुखदायी है, परन्तु फ़सलें सूर्य की गर्मी  से ही पकती हैं। खरबूजे, आम, लीची, बेल, अनार, तरबूज आदि का आनन्द भी हम गर्मी में ही लेते हैं। फ़ालसे, ककड़ी और खीरे खाओ और गर्मी भगाओ। लस्सी और शरबत तो गर्मी के अमृत हैं। दोपहर को गली में कुल्फ़ी वाले को बच्चे घेर लेते हैं। मई व जून की जानलेवा गर्मी के कारण स्कूल बन्द हो जाते हैं। गर्मी में लोग आकाश को देखते हैं कि कब बादल आयें और छम-छम पानी बरसे। गर्मी के बाद जब ऋतुओं की रानी वर्षा ऋतु आती है तो वर्षा ऋतु का आगमन होता है। वर्षा के आने का कारण ग्रीष्म ऋतु ही होती है, क्योंकि गर्मी में नदियों, समुद्रों आदि का पानी सूखकर भाप के रूप में आकाश में जाता है और बादल बन जाता है। उन्हीं बादलों से वर्षा होती है।

ग्रीष्म ऋतु हमें कष्ट सहने की शक्ति देती है। इससे हमें प्रेरणा मिलती है कि मनुष्य को कष्टों और कठिनाइयों से घबराना नहीं चाहिये, बल्कि उन पर विजय प्राप्त करनी चाहिये और स्मरण रखना चाहिये कि जिस प्रकार प्रचण्ड गर्मी के बाद मधुर वर्षा का आगमन होता है, उसी प्रकार जीवन में कष्टों के बाद सुख का समय अवश्य आता है।

विज्ञान की कृपा से नगरवासी गर्मी के भयंकर कोप और रोष से बचने में अब लगभग सफ़ल हो गये हैं। बिजली के पंखे, कूलर, एयर कंडीशनर (वातानुकूलित साधन)  आदि से गर्मी के कष्ट को दूर भगाना सम्भव हो गया है। शीतल-पेय तथा आइस्क्रीम आदि का मजा ग्रीष्म में ही है।
ग्रीष्म में हमारे बहुत-से अनाज, फ़ल मेवे आदि पकते हैं। सैकड़ों प्रकार के फ़ूल खिलते हैं। बागों में आमों पर फ़ल लगते हैं। कोयलें बोलती हैं।
ग्रीष्म में दोपहर के समय सोने का बहुत मजा आता है। नहाने और तैरने का आनन्द भी ग्रीष्म में ही है।
वृक्षारोपण द्वारा गलियों, बाजारों, सड़कों और राजमार्गों पर शीतल छाया की व्यवस्था की जा सकती है। स्थान-स्थान पर शीतल जल के प्याऊ लगाकर तथा पशुओं के लिये खेल (जलकुँड) बनवाकर ग्रीष्म की प्यास बुझाने की व्यवस्था करते हैं। हमें ग्रीष्म के कोप से बचाव के लिये पहले से ही व्यवस्था कर लेनी चाहिये ।

मुँबई से बैंगलोर तक भाषा का सफ़र एवं अनुभव..

    करीबन ढ़ाई वर्ष पहल मुँबई से बैंगलोर आये थे तो हम सभी को भाषा की समस्या का सामना करना पड़ा, हालांकि यहाँ अधिकतर लोग हिन्दी समझ भी लेते हैं और बोल भी लेते हैं, परंतु कुछ लोग ऐसे हैं जो हिन्दी समझते हुए जानते हुए भी हिन्दी में संवाद स्थापित नहीं करते हैं, वे लोग हमेशा कन्नड़ का ही उपयोग करते हैं, कुछ लोग ऐसे होते हैं जो हिन्दीभाषी जरूर हैं परंतु दिन रात इंपोर्टेड अंग्रेजी भाषा का उपयोग करते हैं, इसी में संवाद करते हैं।

    जब मुँबई गया था तब लगता था कि सारे लोग अंग्रेजी ही बोलते हैं, परंतु बैंगलोर में आकर अपना भ्रम टूट गया । कम से कम मुँबई में हिन्दी भाषा अच्छे से सुनने को मिल जाती थी, यहाँ भी मिलती है परंतु बहुत ही कम लोग उपयोग करते हैं। यहाँ के स्थानीय लोग हिन्दी भाषा का उपयोग मजबूरी में करते हैं क्योंकि आज बैंगलोर में लगभग ८०% लोग जो कि सॉफ़्टवेयर कंपनियों में हैं वे हिन्दी भाषी हैं, अगर स्थानीय लोग हिन्दी नहीं समझेंगे तो उनकी रोजी रोटी की समस्या हो जायेगी।

    अधिकतर दुकानदार हिन्दी अच्छी समझ लेते हैं और बोल भी लेते हैं, जब वे अपनी टूटी फ़ूटी हिन्दी में बोलते हैं तो अच्छा लगता है, रोष नहीं होता कि हिन्दी गलत बोल रहे हैं, खुशी होती है कि सीख रहे हैं, और सीखना हमेशा गलत से ही प्रारंभ होता है। हमने भी कन्नड़ के थोड़े बहुत संवाद सीख लिये हैं, जिससे थोड़ा आराम हो गया है। हम सुबह सुबह जब दूध लेने जाते हैं तो अगर बड़ा नोट देते हैं और कहते हैं “भैया, छुट्टा देना” बाद में अहसास होता है कि पता नहीं यह समझेगा भी कि नहीं, परंतु समझ लेता है तो अब आदत ही बन गई है।

    जब बैंगलोर आये थे, तो हमारे बेटेलाल बहुत ही हतप्रभ थे और कहते थे कि “डैडी ये कैसे इतनी प्रवाह में कन्नड़ बोल लेते हैं”, हमने कहा “जैसे आप हिन्दी प्रवाह में बोल लेते हैं, समझ लेते हैं, वैसे ही इनकी कन्नड़ मातॄभाषा है, ये बचपन से कन्नड़ के बीच ही पले हैं”, बेटेलाल की समझ में आ गया। पर बेटेलाल ने कभी कन्नड़ सीखने की कोशिश नहीं की। पहले एक महीना चुपचाप निकाला, हिन्दी में बात करने की कोशिश की परंतु नाकाम, छोटे बच्चे अधिकतर जो स्थानीय थे, वे या तो कन्नड़ समझते थे या फ़िर अंग्रेजी समझते थे। बेटेलाल को अंग्रेजी से इतना प्रेम था नहीं, क्योंकि मुँबई में हिन्दी से अच्छे से काम चल जाता था, और यहाँ बैंगलोर में आकर फ़ँस गये, कई बार बोले “डैडी चलो वापिस मुँबई चलते हैं, यहाँ बैंगलोर में अच्छा नहीं लग रहा ।” हमने कहा देखो बिना कोशिश के कुछ नहीं होगा। बस तो अगले दिन से ही फ़र्राटेदार अंग्रेजी शुरू हो गई।

    अब बेटेलाल का काम तो निकल पड़ा, अब समस्या आई तब जब घर के आसपास कुछ दोस्त बनें, वो भी स्थानीय पहले वे हिन्दी में बात करने से इंकार करते थे, परंतु उनके अभिभावकों ने समझाया कि इनकी हिन्दी अच्छी है, हिन्दी में बात करो और हिन्दी सीखो। पर हमारे बेटेलाल अपने दोस्तों से हिन्दी में संवाद करने को तैयार ही नहीं होते हैं, वे उनसे अंग्रेजी में ही बात करते हैं। खैर इसका हल हमने निकाला कि हम हिन्दी में बात करेंगे।

    कभी कभार अगर गलती से अंग्रेजी में घर पर बेटेलाल को कुछ बोल भी दिया तो सीधे बोलते हैं “डैडी, मैं बाहर तो अंग्रेजी ही बोलता हूँ, कम से कम घर में तो हिन्दी में बात करो, नहीं तो मैं हिन्दी भूल जाऊँगा तो क्या आपको अच्छा लगेगा ?”

    खैर अब बैंगलोर में मेरे लिये वह नयापन नहीं रह गया, अब यहाँ के अभ्यस्त हो गये हैं, जहाँ भी काम होते हैं अब पता चल गया है कि हिन्दी अधिकतर उपयोग होती है, और अगर हिन्दी ना समझ में आये तो अंग्रेजी से तो काम हो ही जायेगा ।

हम स्वभाव से ही तामसी होते जा रहे हैं..

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥ १० ॥ अध्याय १७

    अर्थात – खाने से तीन घंटे पूर्व पकाया गया, स्वादहीन, वियोजित एवं सड़ा, जूठा तथा अस्पृश्य वस्तुओं से युक्त भोजन उन लोगों को प्रिय होता है, जो तामसी होते हैं ।

    आहार का उद्देश्य आयु को बढ़ाना, मस्तिष्क को शुद्ध करना तथा शरीर को शक्ति पहुँचाना है, प्राचीन काल में विद्वान पुरुष ऐसा भोजन चुनते थे, जो स्वास्थ्य तथा आयु को बढ़ाने वाला हो, यथा दूध के व्यंजन, चीनी, चावल, गेंहूँ, फ़ल तथा तरकारियाँ । ये भोजन सतोगुणी व्यक्तियों को अत्यन्त प्रिय होते हैं। ये सारे भोजन स्वभाव से ही शुद्ध हैं ।

    आजकल हम दोपहर का टिफ़िन ले जाते हैं, जो कि वाकई तीन घंटे से ज्यादा हमें रखना पड़ता है और वह बासी हो गया होता है, सब्जी का रस सूख गया होता है, दाल बासी हो गई होती है । अब हम स्वभाव से ही तामसी होते जा रहे हैं, कहने को भले ही मजबूरी हो परंतु सत्य तो यही है।

    हमारा जीवन जीने का स्तर अब तामसी हो चला है, जहाँ हमें अपना समय चुनने की आजादी नहीं है और वैसे ही बच्चों को भी हम आदत डाल रहे हैं, जैसे बच्चों को सुबह आठ बजे स्कूल जाना होता है और उनका भोजन का समय १२ बजे दोपहर का होता है तो वे कम से कम ४-५ घंटे  बासी खाना खाते हैं, यह बचपन से ही तामसी प्रवृत्ति की और धकेलने की कवायद है। बच्चों को स्कूल में ही ताजा खाना पका पकाया दिया जाना चाहिये। जिस प्रकार पूर्व में आश्रम में शिष्यों को ताजा आहार मिलता था।

    अगर हमारे पुरातन ग्रंथों में कोई बात लिखी गई है तो उसके पीछे जरूर कोई ना कोई वैज्ञानिक मत है, बस जरूरत है हमें समझने की ।

गीता के श्लोक की बातें सरल हैं, परंतु व्यवहार में बहुत कठिन

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ २७ ॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ २८ ॥

अर्थात समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौंहों के मध्य में केन्द्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है। जो निरन्तर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है।

    आज यह श्लोक सुन रहा था और इस पर ध्यान कर रहा था, मनन करने के दौरान यही समझ में आया, हैं तो ये दो ही श्लोक परंतु जीवन का सार हैं, व्यक्ति अपने जीवन में पता नहीं किस किस के पीछे भागता रहता है, मोह में गृसित रहता है, किसी को डराता है, किसी से डरता है जबकि उसे पता नहीं है कि सभी प्राणी मात्र कृष्ण की इच्छा से इस लोक में भ्रमण कर रहे हैं।

    यहाँ इस श्लोक की हरेक चीज इतनी कठिन है, पहले कहा गया इन्द्रियविषयों को बाहर करें, और आज की दुनिया में सारे कार्य इन्द्रियविषयों में लिप्त हो कर ही होते हैं, हर पल इन्द्रियसुख में ही बीत रहा है, यहाँ इन्द्रियों पर विजय की बात कही गई है, इन्द्रियों के लिये जो सुख ढूँढ रहे हैं, वह निकाल कर फ़ेंक दें, त्यक्त दें, त्याग दें।

    दूसरा कहा गया है भौंहों के मध्य में केन्द्रित करके, आजकल आँखें स्थिर करना बहुत कठिन कार्य हो गया है, केन्द्रित कोई नहीं हो पाता, हमेशा आँखें सुख ही तलाशती रहती हैं, यूँ कह लें कि आँखों को लत लग गई है तो यह भी गलत नहीं होगा, संकल्प नहीं रह गया है, हम आजकल अपने आप से ही सबसे ज्यादा झूठ बोलते हैं ।

    तीसरी बात कही गई है, प्राण और अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर – आजकल मानव अगर दो मिनिट भी वायु को नथुनों के भीतर रोक ले तो उसकी जान पर बन आती है, स्वच्छ वायु के लिये तो तरस गये हैं, प्रदूषण अंदर लेने की इतनी बुरी आदत हो गई है, जो कि हम खुद नहीं लेते, यह न चाहते हुए भी हमारे अंदर वायु के रूप में धकेला जाता है।

    चौथी बात कही गई है मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करके – मन तो हमेशा अपने सात घोड़ों के साथ पता नहीं कहाँ कहाँ घूमता रहता है, इन्द्रियाँ भी मन के इन घोड़ों के साथ साथ व्यक्त होती रहती हैं और बुद्धि का विनाश हो गया है, हमेशा भौतिक जगत के बारे में ही सोचते रहते हैं, मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करना अब कोई साधारण बात नहीं रही, इसीलिये पता नहीं कितनी धर्म की दुकानें, आश्रम यह सब सिखा रहे हैं, यह खुद से करने वाला अभ्यास है, जब श्रीकृष्ण भगवान खुद ही बता रहे हैं तो किसी और धर्म की दुकान में जाने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती है, गीता जी के अध्याय पाँच यही तो सिखाया गया है, हाँ कठिन अवश्य है, पर अगर मन में श्रद्धा हो और अटल विश्वास हो तो यह कठिन भी नहीं है।

    यहाँ कहा गया है कि मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है, जो निरन्तर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है। हमारा तो मन बुद्धि यह सोचकर ही अकुला रही है कि अगर मानव इस अवस्था में पहुँच जाये तो उसके आनंद की कल्पना कम से कम इस लोक का मनुष्य तो नहीं कर सकता, हाँ हमारे यहाँ सब उसे शायद पागल जरूर कहेंगे।